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फूल हरसिंगार के

ल भर पहले मैंने सोचा नहीं था कि यह सब यकायक हो जाएगा. वह उठी और अचानक चली गई. बिना कुछ कहे. बिना कुछ सुने.... हम एक शाॅपिंग माॅल के फूड कोर्ट में थे और वह मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठी हुई थी. अब वह कुर्सी खाली थी और अपने तमाम खालीपन के साथ मुझे ताक रही थी..... और मैं अकेला चकित सा सोचता रह गया कि आखिर मैंने ऐसा क्या कह दिया था !

यूँ देखा जाए तो कुछ खास नहीं हुआ था. बस, कुछ संवाद थे, जिन्होंने मुझे उस लड़की से हमेशा के लिए अलग कर दिया था.
”यह तुमने पहले कभी नहीं बताया.“ लड़की की आँखों से भय बाहर झाँक रहा था. शायद वह अपने भीतर तक हिल गई थी. उसकी आवाज की कँपकँपाहट ने किसी ज़हरीले साँप की तरह मुझे डस लिया था.
”बताया तो था कि मैं एक रेडी टू ईट केन्ड फूड फैक्ट्री में काम करता हूँ !“ मैंने कहा. लड़की के डर ने उस दरवाजे पर दस्तक दी थी, जिसके पीछे एक साझे घर का सपना था, मेरे घर का, उसके घर का.
”पर तुमने यह नहीं बताया था कि तुम वहाँ स्लोटर सेक्शन में काम करते हो..... मैं अपना घर कटी हुई मुर्गियों की छटपटाती देहों पर नहीं बना सकती.“ लड़की उठ खड़ी हुई. मैंने देखा कि वह रो रही थी. उसने आँसुओं को पौंछने की कोई कोशिश भी नहीं की. पर वह रुकी नहीं. इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, लड़की भागती हुई वहाँ से चली गई. लड़की की लोंग स्कर्ट की फड़फड़ाहट वहीं छूट गई थी.

मैं लड़की के पीछे तुरंत नहीं जा सका. पहले मैंने जल्दी से काउन्टर पर पेमेन्ट किया और फिर फूड कोर्ट का दरवाजा खोल कर बाहर आ गया. काॅरीडोर में दिन के समय भी लाइटें जली हुई थीं और वहाँ कुछ लोग लिफ्ट के सामने खड़े हुए थे..... पर मुझेे वह कहीं दिखाई नहीं दी.
मुझे घबराहट सी महसूस हुई.... उसे खो देने की घबराहट. यह कोई नई बात नहीं थी. पहले भी अनेक बार मुझे एक अजीब सा डर लगा करता था. उसे खो देने का डर ! विशेषकर जब वह किसी और लड़के से बात कर रही होती थी..... लेकिन मेरेे पास आते ही वह मेरा हाथ पकड़ लिया करती थी. मेरा डर पिघल कर बह जाता, जैसे मक्खन हो, जो ज़रा सा ताप पाते ही पिघल जाता है.

कहाँ गई होगी वह ? दुविधा और असमंजस में डूबा मैं क्षण भर में ही पूरे माॅल में घूम आया था.... शायद ”शोपर्स स्टाॅप“ में हो या फिर ग्राउन्ड फ्लोर पर ”लोरियल“ के काउन्टर पर..... मुझसे लिफ्ट के ऊपर आने की प्रतीक्षा नहीं की जा रही थी. जल्दी से सीढ़ियाँ उतर कर मैं ”शोपर्स स्टाॅप“ जा पहुँचा. यह लड़की की फेवरिट जगह थी, जहाँ वह घन्टों घूमा करती थी. उसे तरह तरह की डिज़ाइनर ड्रेसेज़ देखना पसंद था. पर मुझे याद नहीं कि कभी उसने वहाँ से कोई ड्रेस खरीदी हो. उस जगह से महँगे कपड़े खरीदना न तो मेरेे बस की बात थी और न ही उस लड़की की. शुरू शुरू में वह प्राइस टैग देखा करती थी, पर फिर बाद में तो उसने उन्हें देखना भी छोड़ दिया था.

लड़की मुझेे वहाँ कहीं नहीं दिखी. पल भर के लिए मुझेे लगा कि शायद वह चेजिंग रूम में कोई ड्रेस ट्राई कर रही हो, हालांकि इसकी कोई सम्भावना नहीं थी, पर फिर भी मैं चेजिंग रूम से कुछ दूर खड़ा रहा और प्रतीक्षा करता रहा. मुझे हल्की सी आशा थी कि अभी दरवाजा खुलेगा और वह बाहर आएगी. मुझे वहाँ खड़ा देखेगी, मुस्कराएगी और हमेशा की तरह मेरे पास आकर मेरा हाथ पकड़ लेगी..... उसका सारा गुस्सा मुरझा चुका होगा और मेरी घबराहट भी..... लेकिन थोड़ी देर बाद जब दरवाजा खुला, तब वहाँ से एक महिला बाहर आई. वह वहाँ भी नहीं थी..... मेरा मन लगातार अवसाद में डूबता जा रहा था. मैं चाहता था कि किसी तरह वह मुझे मिल जाए और मैं उसे मना लूँ.

मैं माॅल में इधर उधर भटक रहा था. एक दुकान से दूसरी दुकान और फिर तीसरी. लगभग बदहवास. मुझेे विश्वास नहीं हो रहा था कि लड़की मुझेे इस प्रकार भी छोड़ कर जा सकती है. बिना बताए, बिना बात किए. जरूर वह यहीं कहीं होगी, शायद मेरी आँखों के सामने, पर मैं उसे देख कर भी देख नहीं पा रहा होऊँगा. होता है कई बार ऐसा, चीज हमारे सामने होती है और हम उसे देख नहीं पाते.... ‘चीज’... सहसा मुझेे अपने पर गहरी खीज हो आई और गुस्सा भी. वह लड़की है, जीती जागती, बाकायदा साँस लेती एक देह, वह ‘चीज’ कैसे हो सकती है !

माॅल के ग्राउन्ड फ्लोर पर ”लोरियल“ के काउंटर पर ज्यादा भीड़ नहीं थी. वे लड़कियों के नाखूनों पर फ्री नेल पोलिश लगाया करते थे. जो लड़कियाँ वहाँ नेल पोलिश लगवा रही थीं, उनकी पीठ मेरी ओर थी. मैं उसे पीछे से भी पहचान सकता था. उसके बाल अक्सर आधे खुले आधे बँधे हुआ करते थे. वह अपने कानों के पास क्लिप लगाया करती थी. उसे बालों में फूल लगाना बहुत पसंद था, खासकर हरसिंगार का. कई बार उसने भी वहाँ से नेल पोलिश लगवाई थी. नेल पालिश लगवा कर वह बार बार नाखूनों पर फँूक मारा करती थी. मैं उसे देखता रहता था. वह मुझे अपनी ओर देखते हुए मुस्कराती और फिर हम आगे बढ़ जाते थे..... लेकिन उस समय वह वहाँ भी नहीं थी.

अब तो मेरी घबराहट उछल कर कलेजे तक आ गई थी. अंतिम आशा मेंहदी लगाने वाले लोगों पर टिकी थी, जो माॅल के मेन गेट के बाहर कुर्सियाँ लगा कर बैठे रहा करते थे. लड़की को अपनी मेहंदी लगी हथेलियाँ बहुत पसंद थीं. उसकी छोटी छोटी गोरी हथेलियाँ मानो मेहंदी लगवाने के लिए ही बनी थीं. मेहंदी लगवाना महंगा काम था भी नहीं. अपने मेहंदी लगे हाथ देख कर वह बच्चों की तरह खुश हो जाया करती थी और मुझे लगता था जैसे लड़की की उम्र सहसा कम हो गई हो.

अब तक मुझे समझ में आ गया था कि लड़की सचमुच जा चुकी थी. उसके वहाँ होने का एक भी चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा था. मुझे माॅल की गहमा गहमी के बावजूद भी गहरा अकेलापन महसूस होने लगा था.... चारों ओर पसरा शोर गहरे सन्नाटे में बदल चुका था. ऐसा लग रहा था, मानो मैं किसी अंधे कूए में डूबता चला जा रहा हूँ..... मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसा मैंने क्या कह दिया था कि लड़की को इतना बुरा लगा ! यही न, कि मैं केन्ड फूड फैक्ट्री के स्लोटर सेक्शन में मुर्गियाँ काटने का काम करता हूँ ! इसमें बुरा क्या है ! यह मेरा काम है, मेरा रोजगार. दो वक्त की रोटी मुझेे इसी काम से मिलती है.

जब मैं उससे मिलूँगा, तब समझाऊँगा कि कोई काम न तो बुरा होता है और न ही छोटा. लेबर डिग्निटी भी आखिर कोई चीज होती है ! मैं चोरी चकारी, लूट पाट जैसे आपराधिक काम तो कर नहीं रहा ! फिर शर्म कैसी ? मुझे उम्मीद थी कि लड़की के मिलते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा और मैं इस डरावने समय को हमेशा के लिए अपने जीवन से निकाल फेंकूँगा.

इस बीच मैं लड़की को कई बार मोबाइल पर फोन कर चुका था. मोबाइल स्क्रीन पर उसका नाम चमकता और उसकी जानी पहचानी रिंग टोन मेरे कानों में बजती रहती, पर उसने फोन नहीं उठाया. उसे मैंने मैसेज भी किए. पर उनका भी कोई जवाब नहीं आया..... डर इस बार अपनी पूरी ताकत के साथ आया था. उसने मुझे अपने पाश में कस कर जकड़ लिया था. छुटकारे का कोई रास्ता दिखाई भी नहीं दे रहा था..... लग रहा था कि बस, किसी तरह उससे एक बार बात हो जाए. संवाद ही संदेहों से निजात दिला सकते थे.

शायद लड़की अपने अपार्टमेन्ट गई हो, जहाँ वह अपनी दो और सहेलियों के साथ शेयरिंग बेसिस पर रहा करती थी. ऐसी स्थिति में एक वही जगह थी, जहाँ वह जा सकती थी. हर व्यक्ति अपने कमरे में पहुुँच कर ही सुकून पाता है. उसका घर माॅल से बहुत दूर था. बीच में दो बसें बदलनी पड़ती थीं..... इतनी दूर जाने से पहले मैंने उसे एक बार फिर फोन लगाया. इस बार उसका फोन स्विच्ड आॅफ आ रहा था.

मेरे पास अकेलेपन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचा था, उस समय को छोड़ कर, जो लड़की के साथ बिताया जाना था. मेरे पैरों से लिपट कर वह साथ घिसट रहा था. पहली बार मुझे लगा कि समय इतना बेमानी भी हो सकता है ! अर्थहीन पर यातनादायक समय, जिसने मेरे तमाम वजूद को खरौंचना शुरू कर दिया था. अपनी लहु लुहान देह को ढोते हुए मैं कब लड़की के घर जा पहुँचा, मैं स्वयं भी नहीं जानता.

लड़की वहाँ भी नहीं थी. वह छुट्टी का दिन था और उसकी दोनों सहेलियाँ वहीं थीं. वे मुझे पहचानती थीं. मैं अनेक बार लड़की के साथ वहाँ आ चुका था. उसके कमरे की हर चीज मेरी परिचित थी. वह अपना कमरा साफ सुथरा करीने से सजा कर रखा करती थी और चाहती थी कि मैं भी अपने कमरे को साफ रखा करूँ. उसकी हिदायतों पर शुरू में तो मैं ध्यान दिया करता था, पर जल्दी ही ऊब जाता था. मेरी सफाई बस उस दिन हुआ करती थी, जिस दिन उसे मेरे यहाँ आना होता था.


आश्चर्य की बात तो यह थी वह अपनी सहेलियों के फोन भी नहीं उठा रही थी. ऐसा पहली बार हुआ था. सम्भवतः उसने अनुमान लगा लिया होगा कि मैं उसे ढूँढ़ता हुआ उसके घर अवश्य पहुचूँगा. उसका अनुमान गलत भी नहीं था. जब हम किसी को जानने लगते हैं, तो उसकी कितनी ही छोटी बड़ी आदतों से अनायास ही परिचित हो जाते हैं. आदतें हमारे चरित्र का हिस्सा होती हैं, जिनसे छुटकारा पाना सहज नहीं होता.

वहाँ से निकल कर मैं सारा दिन शहर की सड़कों पर यूँ ही भटकता रहा. सड़कों पर समय अपनी निर्धारित गति से बह रहा था. मैं भी बह रहा था, जैसे हवा के थपेड़ों से तिनके उड़ा करते हैं. कोई परिचित नहीं था, जो रुक कर मेरे दुखते दिल का हाल पूछ सके. मेरी टाँगें काँपने लगी थीं. दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था. जहाँ घबराहट थी, अब वहाँ किसी सूखे हुए कूए का खालीपन था. जो कुछ घट रहा था, उस पर विश्वास कर पाना कठिन होता जा रहा था. क्या लड़की मुझे छोड़ कर जा सकती है ? क्या वह हमेशा के लिए छोड़ कर जा सकती है ? मैंने ऐसा क्या अपराध कर डाला है ?
मैं यूँ ही भटकता हुआ झील पर जा पहुँचा. उसे झील पसंद नहीं थी. झील देखते ही सबसे पहले उसके मन में डूब जाने का डरावना खयाल आया करता था. वह पानी से डरती थी..... मुझे कोई डर नहीं था, विशेषकर अब तो बिल्कुल भी नहीं. जिसका सब कुछ लुट गया हो, उसे किस बात का डर ! मैं वहीं बैठ गया. अपने मन की तमाम उलझनों को दबाए मैं निर्लिप्त भाव से यहाँ वहाँ ताकता रहा. मेरे आस पास कुछ बच्चे खेल रहे थे, जिनका शोर भी मेरे उचाट मन की खामोशी को तोड़ नहीं पा रहा था. मैं स्वयं में गहरा डूब चुका था, जिसने मुझे अपने आस पास की घटनाओं से निरासक्त बना दिया था. मन में गहरी निस्तब्धता पसरी हुई थी और निस्सारता भी.

झील के किनारे बहुत सारे हरसिंगार के घने वृक्ष लगे हुए थे. अक्टूबर आते आते पेड़ फूलों से लद जाया करते थे. जब हवा चलती, जमीन पर फूलों की चादर बिछ जाती.... मैं कई बार लड़की के लिए हरसिंगार के फूल ले जाया करता था. उसे हरसिंगार बहुत पसंद थे. हमेशा वह कुछ फूल अपने बालों में लगा लिया करती थी. मुझे उसके बालों में हरसिंगार देखना भला लगता था.

”जब हमारा घर होगा, मैं हरसिंगार का पेड़ जरूर लगाऊँगी.“ वह कहा करती थी. मेरा ध्यान हरसिंगार से हट कर ‘घर’ पर अटक जाया करता था. एक अनिवर्चनीय खुशी के झोंके से मैं भी महकने लगता था. हमारा घर होगा, हम साथ रहेंगे, साथ ही सपने भी देखेंगे....
इतनी वीरानी, इतना खालीपन मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था. बार बार अपने आँसू पीने पड़ रहे थे. समझ में नहीं आ रहा था कि मैं ऐसा क्या करूँ कि लड़की लौट आए..... हिम्मत जुटा कर उसके मना करने के बावजूद भी मैंने उसे फोन लगाया. पर वह अब भी बंद आ रहा था. मैसेज भी बाउन्स हो गए थे. उससे सम्पर्क करने का कोई तरीका सुझाई नहीं दे रहा था.
सारा दिन मैं शहर में यूँ ही भटकता रहा. पतझड़ के सूखे पत्ते की तरह, कागज़ के निचुड़े हुए टुकड़े की तरह. कभी अपने हाथ जेबों में ठूंस लेता, तो कभी यूँ ही मलने लगता...... राहत कहीं नहीं थी. सिर मानो हज़ार टुकड़ों में बँट कर फट चुका था. दिन का सूरज थक कर सोने वाला था. सितम्बर का आकाश अपने सम्पूर्ण सूनेपन के साथ तना हुआ था. परिन्दों की चुपचाप उड़ती एक लम्बी कतार आकाश का सूनापन और बढ़ा रही थी. शाम का पहला तारा अपने अकेले होने कर दुःख भोग रहा था.

अपने कमरे पर पहुँचते ही मैं निढ़ाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ा. रात हो गई थी और कमरे में लगा बल्ब अपनी मरी हुई पीली रोशनी उँडेल रहा था. मुझमें इतनी भी हिम्मत शेष नहीं बची थी कि खिड़की खोल सकूँ. मेरे भीतर का सारा कुछ जैसे निचोड़ दिया गया था और मेरा आत्मा एक घायल चिड़िया सी फड़फड़ा रही थी. मेरा अपना कमरा भी मुझे सुकून नहीं दे पा रहा था...... यह वही कमरा था, जहाँ आकर वह लड़की कुछ ज्यादा ही खुल जाया करती थी. मेरे पास कोई कुर्सी नहीं थी, इस कारण वह बिस्तर पर ही बैठ जाया करती थी. कमरे को ठीक ठाक करती, मेरेे कपड़े जगह पर रखती. खिड़की के पास एक स्लेब पर मैंने अपनी रसोई बना रखी थी, जहाँ वह मेरेे लिए चाय बनाती और कभी कभी खाना भी..... जब वह बहुत खुश होती थी, मेरेे बिस्तर पर लेट जाती थी, छोटा सा सिंगल बैड, जिस पर हम दोनों मुश्किल से समाया करते थे.

मैं छत की ओर ताक रहा था. सीलिंग फैन के पास एक छिपकली अपने शिकार की तलाश में वहाँ घात लगाए हुए थी. मैं उसे तब तक देखता रहा, जब तक उसने कीड़े को झपट नहीं लिया. कोई नहीं जान पाएगा कि एक रात एक छिपकली ने वहाँ उस कीड़े को भख लिया था.
तभी मोबाइल बजा. मैंने झपट कर उसे उठा लिया. देखा, उसका मैसेज था - सब खत्म हो गया है. अब कभी फोन मत करना, न मैसेस करना और न ही मिलने आना.

मैं देर तक उस मैसेज को एकटक देखता रहा. काँच चटक कर चूर चूर हो चुका था, जिसकी किरचें मुझमें गहरी गढ़ गई थीं. अपनी लहु लुहान देह से इतर एक तीव्र यन्त्रणा थी, लोहे के गर्म चाकू से खोखला करती हुई, परत पर परत छीलती हुई, प्रत्येक रोम छिद्र को सलाखों से भेदती हुई.....
और तब आँसू आए, ढेर ढेर आँसू. वे मेरे आँसू थे और मैं ही नहीं जानता था कि मुझमें इतने आँसू जमा थे ! मैंने उन्हें आने दिया. मेरा कमरा मुझे रोते हुए देख रहा था, जहाँ वह आया करती थी. मेरे बिखरे हुए कपड़े मुझे रोता हुआ देख रहे थे, जिन्हें वह सँवारा करती थी, मेरी रसोई मुझे रोते हुए देख रही थे, जहाँ वह मेरे लिए खाना बनाया करती थी, मेरा बिस्तर मुझे रोते हुए देख रहा था, जहाँ न जाने कितनी बार उसने मुझसे प्यार किया था!

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अलार्म शायद बहुत देर से बज रहा था. इससे से पहले कि मेरा हाथ उस तक पहुँचता, वह बंद हो गया था. कल रात नींद भी उस लड़की तरह मुझे छोड़ कर जा चुकी थी. कठिनाई से सो पाया था. जब मेरी आँख लगी, सुबह होने को थी. पर मुझे उठना पड़ा. फैक्ट्री जाने का समय हो गया था.

बहुधा सुबह अलार्म बजने से पहले ही लड़की का फोन आ जाया करता था. वह भी सो कर उठी ही होती थी. हम कोई खास बात नहीं करते थे. कोई खास बात होती भी नहीं थी. हम बस एक दूसरे को आवाज से छू रहे होते थे. यह पास महसूस करने का तरीका हुआ करता था.... पर आज न तो उसका फोन आएगा और न ही मैं उसे कर पाऊँगा. मेरे भीतर एक मरोड़ सी उठी, जैसे किसी ने मुझे कपड़े की तरह निचोड़ दिया हो. मैं किसी तरह तैयार हुआ और लड़की के घर की ओर निकल पड़ा. भले ही उसने मिलने के लिए मना किया था, पर मैं उसे ऐसे कैसे जाने दे सकता था ! मैं जल्दी से जल्दी लड़की के घर पहुँच कर उससे बात करना चाहता था, आँखों में आँखें डाल कर बात करना चाहता था. आखिर वह मेरे जीवित होने का अहम् कारण थी. उससे मेरा बात करनी जरूरी थी.

”वह तो कल शाम ही शहर छोड़ कर चली गई थी.“ उसकी एक सहेली ने बताया.
”कहाँ चली गई ?“ मैंने पूछा. मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था.
”यह तो नहीं मालूम, पर आपके लिए एक लेटर छोड़ कर गई है.“ वह अन्दर गई और एक तहाया हुआ काग़ज लेकर लौटी, ”वह कह कर गई है कि अब कभी नहीं लौटेगी.“
”पर वह तो यहाँ जाॅब करती है न ! इस तरह जाॅब छोड़ कर कैसे जा सकती है ?“ मैंने कहा. कहना तो मैं चाहता था कि वह मुझे ऐसे कैसे छोड़ कर जा सकती है, पर अपने विषय में मुझसे एक शब्द भी नहीं कहा गया.
”यह सब उसने नहीं बताया.....“
वहाँ से मैं चुपचाप चला आया. चुपचाप आना ही था. उसका ख़त मेरे हाथों में काँप रहा था. वह कँपकँपी मेरे हाथ से होती हुई उस ख़त तक पहुँची थी. मैं उसे उसकी सहेली के सामने नहीं पढ़ना चाहता था. ख़त अनन्त दुश्चिन्ताएँ समेटे हुए था. मुझे लग रहा था कि अभी मैं पहले आघात से उबरा भी नहीं हूँ कि मुझे दूसरा आघात लगने वाला है.
कहते हैं, दिन में एक पल ऐसा आता है, जब यदि आप कछ सोचें, तो वह सच हो जाता है. वह एक ऐसा ही पल था, जब मेरा सोचा हुआ सच होने वाला था. मुझे एक और आघात लगने वाला था.

लड़की की हैंड राइटिंग मैं अच्छी तरह पहचानता था. यह उसी ने लिखा था - मैं जानती हूँ मैंने तुम्हें दुःख पहुँचाया है. मुझे माफ कर देना. पर अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकती. तुम्हें याद करते ही मुझे कटी हुई मुर्गियों की छटपटाहट महसूस होने लगती है. ऐसे में जब तुम मेरे सामने आओगे, तब मेरा कितना बुरा हाल हो जाएगा ! यह सोच कर ही मैं डर जाती हूँ. ऐसे जीवन नहीं जीया जा सकता. बिल्कुल भी नहीं. मैं जा रही हूँ और अब कभी नहीं लौटूँगी.

मैं समझ गया यह मृत्यु थी. प्रेम की मृत्यु, जिसे मारने मेरा रोजगार खलनायक बन कर आया था. उसने हमें जीवित रखा था, पर हमारे प्रेम को मार दिया था. लड़की ने मुझे मेरे कारण नहीं, मेरे रोजगार के कारण छोड़ा था. शायद पूरे संसार में यह एकमात्र प्रेम कहानी थी, जिसका खलनायक रोजगार था..... अब एक अकेले मुझे ही नहीं, लड़की को भी मृत प्रेम में जीवित रहना होगा. यह एक भीषण त्रासदी थी, जो हमारे हिस्से आई थी.

मुझे ठीक ठीक होश नहीं था कि मैं कहाँ चला जा रहा था. कान के पीछे की धमनियाँ जोर जोर से बजने लगी थीं. लग रहा था, जैसे नींद में चल रहा हूँ. चारो ओर धूँआ पसरा हुआ हो, जिसमें मेरा दम घुटने लगा हो. ट्रैफिक का शोर, दुकानों में बजते गानों की आवाजें, लोगों के बात करने की आवाजें..... मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था.
जब मुझे होश आया, स्वयं को अपनी फैक्ट्री के सामने खड़ा पाया. मैं एक मशीनी रोबो की तरह यन्त्रवत चल कर वहाँ पहुँच गया था. मैं जैसे किसी महाशून्य में यात्रा कर रहा था, एक यात्री की तरह नहीं, किसी पाल वाली नाव की तरह, जिसकी दिशा हवाएँ निर्धारित किया करती हैं.

सब कुछ खत्म हो चुका था. हाँ, उसने अपने मैसेज में यही वाक्य काम मंे लिया था..... क्या महज एक पंक्ति सब कुछ खत्म कर सकती है ? सब कुछ ? आने वाला सुख, सपने, आशाएँ..... सब कुछ ? क्या जब वह नेल पालिश लगाएगी, उसे मेरी याद नहीं आएगी ? मेहंदी लगवाते हुए, बालों में हरसिंगार सजाते हुए, सड़कांे पर बेवजह भटकते हुए क्या वह मुझे एक बार भी याद नहीं करेगी ?
जरूर करेगी, पर शायद एक दुःस्वप्न की तरह, एक त्रासदी की मानिन्द. जिस तरह वह मुझसे दूर गई थी, मुझे उसके लौटने की कोई सम्भावना नज़र नहीं आ रही थी. यह उसने ख़त में लिखा भी था. वह प्रेम में जीने वाली लड़की थी. जब उसके मन में प्रेम ही मर गया, तो वह क्यों लौटेगी ? किसके लिए लौटेगी ?

मैं यह सब सोचना नहीं चाहता था, लेकिन नहीं सोचने पर मेरा कोई बस नहीं था. भीतर का अथाह खालीपन मुझे निगले जा रहा था. कहीं कोई ऐसा नहीं था, जो मुझे तसल्ली दे सके. क्षण भर के लिए मेरे मन में एक भटकता हुआ सा खयाल आया कि मैं उसकी किसी सहेली से प्रेम कर सकता हूँ..... लेकिन तुरंत ही इस विचार को खारिज कर दिया. कोई दूसरी लड़की उसकी जगह नहीं ले सकती. उस तरह तो बिल्कुल भी नहीं, जैसे उसने ले रखी थी. और किसी दूसरे तरीके से जगह लेना, उस जगह को भरना कैसे हो सकता है !

जब मैं स्लोटर हाउस पहुँचा, वहाँ मुर्गियों की कटाई का काम शुरू हो चुका था. दूर केज में रखे मुर्गे मुर्गियों की आवाजें चारों ओर फैली हुई थीं. उन्हें पता चल गया था कि वे कटने वाली थीं. उन आवाजों में डर था. मृत्यु का डर. ऐसा नहीं कि ये आवाजें मेरे लिए नई थीं, उन्हें मैं रोज सुना करता था, पर उस दिन पहली बार मैं लड़की के चश्में से अपने काम को देख रहा था..... उन आवाजों में एक अजीब सी कातरता थी, बेबसी थी और था असीमित क्रन्दन. वह क्रन्दन मुझे बेध रहा था, छलनी कर रहा था..... जब आॅटोमेटिक मशीन का पंजा किसी मुर्गी को पकड़ता, वह अजीब रिरियाई सी आवाज निकालने लगती. वह जीवन चाहती थीं, मृत्यु नहीं.... पर मशीन के हृदयहीन हथियार एक ही झटके में उसकी गर्दन और पंजे अलग कर दिया करते थे. खून का फौव्वारा फूट निकलता और उसकी मृत देह देर तक छटपटाती रहती. फिर वह देह मूविंग बेल्ट के जरिए ड्रेसिंग सेक्शन पहुँच जाती, जहाँ उसके पंख अलग किए जाते थे..... बच जाता था मांस का एक लोथड़ा, किचिन में जाने के लिए तैयार.... मुझे लगा जैसे मैं वह सारी प्रक्रिया पहली बार देख रहा हूँ. एक अपरिचित भय ने मुझे जकड़ लिया था मानोे कुछ देर बाद मशीनें मेरा ही वध करने वाली हों.

यह अनुभव मेरे लिए सर्वथा नया था. मुझे उबकाई आने लगी थी. पल भर रुकना भी असंभव हो गया था. भीतर से बहुत कुछ बाहर निकलने को आमादा था, पर निकल नहीं पा रहा था. मैं लगभग भागते हुए वहाँ से आॅफिस में चला आया और एक कुर्सी पर निढ़ाल सा ढह गया. डस्ट बिन में कटी हुई मुर्गियों के सिर और पंजे मेरा पीछा करते हुए मेरे साथ चले आए थे. मैं अपने में नहीं था..... कुछ लोगों ने मुझे पानी पिलाया और मुझे डाॅक्टर को दिखाने की सलाह दी. यह मैं चाह भी रहा था. वहाँ से कहीं दूर भाग जाना चाहता था.

फैक्ट्री से बाहर निकलने से पहले मैं मैनेज़र साहब की मेज पर रुका. वे कम्प्यूटर में आँख गड़ाए हुए थे. मैंने उनसे पेन और कागज मांगा, एक पंक्ति का इस्तीफा लिखा और उसे वहीं छोड़ कर जल्दी से बाहर चला आया. मैंने उस खलनायक को मार दिया था, जिसने मुझे लड़की से दूर कर दिया था. अनहोनी घटना तो यह घटी कि अब मैं पहले वाला व्यक्ति नहीं रह गया था. शायद यह मैटामोरफेसिस टाइप कोई चीज रही होगी, जिसने मुझे पूरी तरह बदल दिया था. लड़की जाते जाते अनजाने में यह उपकार अवश्य कर गई थी.

बाहर आकर मैं बस स्टेन्ड पर खड़ा रहा. मुझे तसल्ली थी कि मैं जो कर सकता था, मैंने किया. सान्त्वना मेरे कन्धे पर अपना कोमल हाथ रखे हुए थी. उसका स्पर्श मैं अपनी आत्मा तक महसूस कर पा रहा था..... वहाँ से बसें मुख्य शहर जाया करती थीं. इसी शहर में मैं लड़की से मिला था. इसी शहर में हम दोनों अपने अपने कस्बों से नौकरी करने आए थे. इसी शहर में हमारे अकेलेपन ने हमें मिलाया था. इसी शहर में रहते हुए हमने प्रेम किया था.... पर अब मैं एक बार फिर अकेला रह गया था. वह लड़की हमेशा के लिए चली गई थी, जो अपने बालों में हरसिंगार के फूल लगाया करती थी.

- गोपाल माथुर
मोबाइल 9829182320

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