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क़िला

मुद्र किसी कार्निवल के आख़िरी पड़ाव की तरह मतवाला है। हर बूँद एक बेचैन नाच का हिस्सा ! पास ही किसी छोटे क़िले का खंडहर है। दीवारों के टूटे-फूटे कबंध भर बचे हैं। नाचता हुआ पानी क़िले के भीतर-बाहर हो रहा है। मगर क़रीब से देखिए तो समझ में आता है कि हर बार थोड़ा-सा पानी क़िले के भीतर छूट जाता है। अगली लहर अगर छोटी हुई तो छूटा हुआ पानी इतिहास की गोद में बैठे वर्तमान सा दिखता है, मगर जैसे ही कोई उत्ताल लहर आती है, उस वर्तमान को बदल देती है। मैं इस समुद्र का नाम नहीं जानता। नहीं जानता कि यह क़िला किसका था। किसी राजा या किसी समुद्री लुटेरे का। ओह! मैं भी क्या कह गया ! लुटेरे का तो हो ही नहीं सकता। जो एक बार क़िले पर क़ाबिज़ हो गया उसे लुटेरा कैसे कह सकते। जी में आ रहा क़िले से उसका या उस पर क़ाबिज़ राजा का नाम पूछूँ। मगर कैसे पूछूँ, कान तो काल के कुत्ते चबा गए। सुनेगा कैसे। मान लिया कान होते भी तो बोलता कैसे। जब भी कोई आक्रान्ता या दस्यु क़िले पर हमला करता है, उसकी ज़ुबान पहले काटता है नाक और कान बाद में ! वैसे पूछकर होगा भी क्या ? क्या फ़र्क़ पड़ेगा मुझे, अगर जान भी लूँ । क्या करूँगा उस नाम का जो अब भी दुनिया में किसी न किसी देह से बावस्ता रहने की वजह से मुझे भटका देगा।
क़िले के भीतर एक कमरा साबुत बचा है। साबुत इस मायने में कि अलग-अलग ऊँचाई तक बची उसकी चार दीवारें अब भी हैं। अब भी है वह दरवाज़ा जिससे होकर रहवैए जाते होंगे। उस कमरे के पत्थर क़िले के बाक़ी पत्थरों से अलग हैं। अचरज होता है कि कला के होशियार पारखी उसे उखाड़कर ले क्यों नहीं गए। यह कौन सा पत्थर है? शायद ग्रेनाइट ! रंग कैसा है इसका! ऐसी मुलायम ललाई जैसे किसी दुल्हन ने अपनी लाज की पहली लाली बिखेर दी हो। यह कमरा किसी इश्क़ की दास्तान का गवाह लगता है। जी में आ रहा कि अरुणाई बिखेरते पत्थरों को किताब के पन्नों की तरह पढ़ने की कोशिश करूँ। क्या पता कहीं कोई इबारत आँखों के इंतज़ार में ज़िंदा हो। बचा लिया हो ख़ुद को समुद्र की अनपढ़ लहरों की बेपरवाह चोट से। पत्थर के होंठ पूरी कहानियाँ भले न कहें , रम्ज़ ओ इशारे में तो ज़िंदा होंठों को भी मात दे जाते हैं कभी-कभी। लेकिन वक़्त ही कहाँ मेरे पास। और अगर हो भी तो क्या? क्या करूँगा उस कहानी के सुराग सहेजकर जो ख़त्म हो गयी हो। हर कहानी ख़त्म होती है। जहाँ फूल-पत्तों वाली ज़िंदा कहानी की जगह सिर्फ़ एक रोज़नामचा, ख़त्म तो उसे भी होना पड़ता है। कुछ कहानियाँ तो इतनी छोटी और इतनी बेलज़्ज़त कि कहने वाले की ज़बान पर ही दम तोड़ देती हैं। अब दुखन साह को ही लीजिए। क्या बचा था उसके मरने के बाद। यही न कि उधार तो देता था मगर पाव भर सूजी भी लेने जाओ तो डंडी ज़रूर मारता था। मैं भी कहाँ बहक गया। मक़सद क्या था और करने क्या लगा। अगर यह खंडहर नहीं होता तो क्या मैं ...। लेकिन खंडहर तो है और क़िले का है, और वह भी बस इतना भर बचा हुआ कि जब कुछ भी देखने लायक समय न बचा हो तब भी देखा जा सके।
मैं अब भी उसी कमरे में हूँ जिसमें इबारत ढूँढने का मन हो आया था। लग तो रहा कि बेकार उलझ गया इस मोह में, मगर उँगलियाँ पत्थरों पर यूँ फ़िर रहीं गोया मेरी आँखें उँगलियों में बसी हैं और जो मैं कहानी मैं ढूँढ रहा हूँ, वह ब्रेल लिपि के पीछे छुपी है। उँगलियाँ फिराते हुए मुझे किसी की पीठ का स्पर्श याद रहा है। उँगलियाँ वैसे ही फिसल रहीं।.... “क्या बात है मियाँ बड़े शायराना हो रहे हो ? तुम्हें तो समुद्र से मिलना था, अपने ज़ख़्मों को नमक चटाकर ख़ुद को आख़िरी मुक़ाबले के लिए तैयार करना था और तुम इस नष्ट हो चुके क़िले के बचे कोने-अँतरे में जो नहीं है उसके तर्जुमा में लगे हो। अगर यही करना था तो दुनिया में ऐसे ग्रेनाइट और ऐसे खंडहरों की क्या कमी ! चले जाते गोआ। पैसे तो थे ही इतने तुम्हारे पास कि फ़ोर्ट अगौडा में जा बसते कुछ रोज़ और पुराने क़िले से नए-नए पानियों की गुफ़्तगू सुनते रहते।“
यह आवाज़ मुझे ठहरा देती है जैसे एक बच्चे ने दूसरे को स्टैचू कह दिया हो। दरअसल मैं इस आवाज़ को बच्चा ही समझता रहा हूँ। हाँ बच्चा, जिसे झूठ बोलना नहीं आता, जो दस्तक देनेवाले से कह आता है कि पापा सू-सू कर रहे हैं और मम्मी ने कहा है कि पापा घर पर नहीं हैं। इस आवाज़ ने बहुत तंग किया है मुझे। स्कूल में तीन बार मार खिलवायी है। अब प्रिंसिपल को जाकर यह बताने की क्या ज़रूरत थी कि स्कूल के गार्डन से गुलाब के फूल प्रदीप शर्मा ने ग़ायब किए थे और जब प्रिंसिपल ने पूछा था कि तेरा नाम क्या है तो मैंने कहा था - प्रदीप शर्मा। उसने अजीब ढंग से घूरते हुए पूछा था - यानी तुमने? कुछ जवाब देने के बदले में मैंने दोनों हथेलियाँ पसार दी थीं। रिवायत के मुताबिक़ दोनों हथेलियों पर दो-दो छड़ियाँ पड़नी थीं मगर पड़ी सिर्फ़ एक-एक। ‘यह छूट सच बोलने की वजह से’ - प्रिंसिपल ने कहा था। चोट का दर्द तो तभी भूल गया था मगर उस बच्चे की ख़ुशी यादों के अल्बम के पहले पन्ने की ज़ीनत है। बाक़ी भी ऐसे ही प्रसंग। कितने याद करूँ और वह भी संसार और समुद्र के बीच की आख़िरी पट्टी पर।

क़िले की एक दीवार पर एक ताक है। मगर क्यों ? क्या दीया रखने के लिए? क़िला है तो फ़ानूश होना चाहिए था। मैं भी कैसा बेवक़ूफ़ हूँ! फ़ानूश की जगमगाहट और कमरे की रंगीन दीवार शाम के लिए तो बहुत ख़ूब टाइप , मगर रात ? रातें कैसे काटी जा सकतीं ? और वो भी ऐसी जो शायरी या अफ़साना में समा जाएँ तो पढ़ने-सुनने वालों की रग़ ओ रूह में सिहरन पैदा कर दें। एक नरम लौ दीया तो होना ही चाहिए कि प्रेम में रूप आकार भर न रह जाए। समंदर का हहास और उसकी हवाएँ और अभी तक रंगीन यह कमरा! यहाँ जो भी हुआ होगा उसके बारे में कुछ भी सोचा जा सकता है ! लेकिन क्या ? ताक समंदर की तरफ़ वाली दीवार पर है और उसी तरफ़ के एक कोने में टूटी हुई सीढ़ियाँ भी। यानी उन सीढ़ियों से चढ़कर वे एक झरोखे तक जाते होंगे और जहाँ सफ़ेद साटन से ढके मुलायम गद्दे पर लाल खोल वाले दो मसनद रखे रहते होंगे। झरोखे पर उफनती नदियाँ और सामने हहराता समुद्र! वाह, क्या बात है ! जब मेरे जैसा औसत औक़ात कुछ शाही सोच सकता है तो वे दो, जो एक क़िले के मालिक थे क्यों नहीं रचते होंगे वे खेल जिसके संगीत को पीकर समुद्र और पागल हो जाता होगा ! ... “..... वाह बेटा, सही जा रहे हो! जीते जी उस वक़्त में पहुँच गए जब शायद तुझे पैदा करनेवाले भी पैदा नहीं हुए होंगे। अबे पंछी दिमाग़, कुछ और सोच! ऐसे जादू तो मिट्टी के घरों में भी जाने कितनी बार रचे गए होंगे। मानता हूँ, सबके पास समुद्र नहीं मगर वह जादू ही क्या जो लोटे भर पानी को समुद्र न बना दे।“
लगता है, बच्चा थोड़ा बड़ा हो गया है। अडल्ट क़िस्म की फ़ैंटसी को संजीदगी से ले रहा है और मशवरे का अंदाज़ भी पिटवाने वाला नहीं। हमदिली की ठंडक भी है साले की बातों में। मगर उस दिन जो इसने किया था, कैसे भूल सकता हूँ। पहली नौकरी थी, वो भी मॉर्निंग न्यूज़ के संपादकीय विभाग में। वह काम का तीसरा दिन था। एडिटर और सब-एडिटर्स की मीटिंग चल रही थी कि अचानक बिजली चली गयी और इन्वर्टर भी ऑन न हो सका और संपादक जी मीटिंग के समय मोबाइल फोन साथ रखने के सख्त खिलाफ। ऑफिस में सिगरेट पीना मना था, इसलिए किसी के पास लाइटर भी नहीं था । दफ़्तर में मोमबत्तियाँ भी नहीं थीं शायद। मिस्टर चारी यानी एडिटर ने चिल्लाकर अपने पिउन से कहा - नीचे रिसेप्शन में टॉर्च होगा। मैं हाथों को स्टैन्ड बना ठुड्डी टिकाए बैठा था, ज़िम्मेवारी और एडिटर की निगाह की वजह से कुछ अतिरिक्त सावधान भी। अँधेरे ने फ़ौरी तौर पर राहत अता की और हथेलियों में बंद चिड़िया ने अपने पंख फैलाए। अब इस अँधेरे में डूबे कमरे में उड़ती तो क्या मगर एक मुख़्तसर सी अँगड़ाई के बाद दोनों हथेलियाँ टेबल पर आ टिकीं। बायीं तो काठ के स्पर्श से संतुष्ट हो फैल गयी मगर दायीं हथेली के नीचे टेबल पर रखा एक हाथ आ गया। हाथ बेहद मुलायम था। स्पर्श के असर से एक सिहरन सी हुई थी, मगर मैं हथेली में पैबस्त चिड़िया को डाल पर बैठे रहने से मना नहीं कर पाया। डाल भी जैसे पंछी के इंतज़ार में थी। हौले-हौले मेरे भीतर एक रोशनी नुमायाँ हुई और याद के परदे पर मिस खन्ना का चेहरा झलका। कोई ख़्वाहिश होती तो मैं इस मौक़े को नेमत मान लेता और इस निर्विरोध सहमति को पूर्ण स्वीकृति, लेकिन चार दिन का सब एडिटर साल भर पुरानी फ़ीचर एडिटर को किस ख़्वाहिश के दायरे में लाता। उसकी हथेली की पीठ पर मेरी हथेली मेंढक के ऊपर मेंढक की तरह बैठी रही। तभी सीढ़ियों की तरफ़ से रोशनी और पिउन की आवाज़ एक साथ आयी - साहब फ़्यूज़ उड़ गया है। ठीक हो जाएगा अभी। उसकी आवाज़ ने बड़ी फुर्ती से मेरे दिल का फ़्यूज़ निकालकर दिमाग़ में लगा दिया। मीटिंग ख़त्म होने के बाद मेरे भीतर के बच्चे की नींद खुल गयी। वह लगभग धक्का देते हुए मुझे मिस खन्ना के कैबिन में ले गया और मेरी ही आवाज़ में माफ़ीनामा पढ़ गया - ‘मिस इरा खन्ना जी, आकस्मिक अंधेरे में प्रदीप शर्मा ने असावधानी वश आपके हाथ पर हाथ अपना हाथ रखा और प्राप्त सुख से प्रेरित होकर पड़ा रहने दिया। प्रदीप शर्मा दंड का भागी है। आप जो भी दंड देंगी इसे स्वीकार होगा। अगर पेशगी तौर पर कुछ तमाचे मिल जाएँ तो मुझे ख़ुशी होगी।’ इरा जी ने मुस्कुराकर कहा था - इरा बोलो। सी वी देखी है तुम्हारी, मुझसे एक साल बड़े हो। और सुनो मॉर्निंग न्यूज़ में काम करते हो, ‘ऊषा समाचार’ में नहीं। इस ज़ुबान में बातें करोगे तो लोग मज़ाक़ उड़ाएँगे। हम दोस्त हैं।’ उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था।

ये दोनों कैसे मिले होंगे? सोलहवीं-सत्रहवीं या अट्ठारहवीं सदी में स्वीट एंकाउंटर्स के मौक़े ही कितने रहे होंगे। छोटी-बड़ी ख़ुदमुख़्तारियों और छोटी-बड़ी जंगों से अटे समय में कितने लोग प्रेम के बारे में सोचते भी होंगे। सोचा जाए तो जंग भी एक तरह की लूट ही है । जीतने वाले की दौलत बढ़ जाती है और हारने वाला कमतर या कंगाल हो जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि क़िले का मालिक अपनी फ़ौजी टुकड़ी के साथ किसी सुल्तान की मदद के लिए गया और शिकस्त के बाद अपने ज़्यादातर सिपाहियों को चील-कौओं के लिए छोड़ भाग चला था। ऐसी शिकस्त से अक्सर दो फ़ायदे होते हैं। पहला तो यह कि अहंकार का फोड़ा फूट जाता है और दूसरा यह कि सूरमा लोग भागते हुए किसी बस्ती, किसी सराय या किसी कोठे पर पनाह लेते हैं और ग़म ए शिकस्त को ग़लत करने की कोशिश में या तो शराब पीकर बीमार हो जाते हैं या आशिक़ होकर। जाने क्यों मुझे लग रहा कि इस के मालिक के साथ दूसरी बात हुई होगी। लेकिन कहाँ? माशूक अगर बस्ती में मिली होती तो इस ख़्वाबगाह की बनावट कुछ और होती। मामला ज़रूर कोठे पर परवान चढ़ा होगा। इसीलिए सी-फ़ेसिंग बाल्कनी वाला रंगीन शयनकक्ष बना होगा या रेनोवेट हुआ होगा।

बच्चे को मेरे ख़यालों की आवारगी ने चौंका दिया। वह ठठाकर हँस पड़ा – “प्रदीपजी, तारक की शादी में गानेवाली ने ज़रा सा छू दिया था, तो आधी रात को महफ़िल से भाग निकले थे और जनवरी की ठंड में ठंडे पानी से नहा लिया था। और आज इस साहिब ए क़िला के लिए माशूक़ ढूँढने कोठे पे चले गए! भई वाह! सही जा रहे हो। काश! आसपास कोई पुराने ढब का कोठा होता तो आपको दिखा देता। और शायद इस बात के लिए मना भी लेता कि ब्लैक सी के भीतर यूँ कोरा जिस्म लिए मत जाइए। मछलियों को आपसे इश्क़ हो जाएगा और आपको उदरस्थ करने के लिए झगड़ पड़ेंगी।“
बच्चे की बात सुनकर सिहरन-सी हो रही है। मुझे इरा का बढ़ा हुआ हाथ याद आ रहा है। साँवला और शृंगारहीन मगर आत्मविश्वास से तना सुंदर हाथ! रोशनी में इस हाथ को देखते हुए ऐसा लगा कि यह किसी और का हाथ है। यह वह हाथ नहीं जो थोड़ी देर पहले मेरी हथेली के नीचे किसी कसे हुए ताज़ा फूल की तरह खिला हुआ था। मेरी झिझक पर उसे लाड़ सा आ गया था और फ़िल्मी अन्दाज़ में फुसलाया था - मिला ले हाथ प्रदीप, इरा बहुत कम लोगों से हाथ मिलाती है! और मैंने हाथ बढ़ा कर थाम लिया था उसका हाथ। जो किया था उसे मिलाना तो नहीं ही कह सकते क्योंकि जिस फुर्ती के साथ हाथ मिलाया जाता है, उसी फुर्ती के साथ निर्लिप्त भाव से छोड़ भी दिया जाता है। मगर मैंने तो तब छोड़ा था जब इरा ने टोका था - शर्मा बाबू, मैंने मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया था, थामने के लिए नहीं। कहकर हँस पड़ी थी वो और मैंने हड़बड़ाकर छोड़ दिया था। घबराहट के मारे बाहर निकलने को हुआ तो उसने पुकारा - बैठो, कॉफ़ी पीते हैं। उसने रामपाल को बुलाकर दो कॉफ़ी लाने को कहा और सिर झुकाकर पेपरवेट से खेलने लगी थी। रामपाल जल्द ही कॉफ़ी लेकर आ गया। अब हम कॉफ़ी पी रहे थे। बात इरा ने ही शुरू की थी - प्रदीप, मुझे तुम्हारी भाषा ने खींचा। निर्दोष, छोटे और सुंदर वाक्य। ऐसा लगता है, तुम किसी ख़बर पर अख़बारी टिप्पणी नहीं, बल्कि कोई शोधपत्र लिख रहे है। सिर्फ़ तीन टिप्पणियाँ पढ़ी हैं तुम्हारी, मगर इतने में ही मुरीद हो गयी। पॉवरकट के समय जब तुम्हारा हाथ मेरे हाथ पर आ टिका तो मैं उसे तुम्हारे वाक्यों के छत्ते की तरह महसूस करने लग गयी थी। और कोई वजह नहीं। प्रेम-विवाह में धोखा खा चुकी माँ की इकलौती बेटी हूँ इसलिए कोल्ड कॉफ़ी भी फूँककर पीने में यक़ीन रखती हूँ। उसकी आवाज़ में खनकता हुआ आभिजात्य था। मुझे राहत सी महसूस हुई थी।

मान लिया कि कोठेवाली हसीना पे इस बहादुर नौजवान का दिल आ गया होगा, मगर क्या ज़रूरी है कि उसका दिल भी धड़क उठा होगा। क़िस्सों वाला इंतज़ार ज़िंदगी में कहाँ दिखता है। लेकिन एक धड़कता हुआ दिल अगर अपने इंतज़ार की क़शिश कम्यूनिकेट कर दे तो ? मेरा ख़याल है, इस सूरत में आग का दरिया पर्वत पार कर सकता है। तो फिर यूँ हुआ होगा - एक हारी हुई जंग के बीच से बमुश्किल बचा छोटा सुल्तान क़ीमती अँगूठियों और मोती के तीन कंठहारों की दमक की बदौलत एक कोठे पर पूरी पोशीदगी के साथ पनाह पाने में कामयाब होता है। वह कोठे की मालकिन से गुज़ारिश करता है कि उसके ज़ख्मों के इलाज के लिए किसी वैद या हकीम का इंतज़ाम किया जाए। मालकिन को सुंदर नौजवान पर दया आ जाती है और वह अपने परमानेंट आशिक़, हकीम साहब को ख़त लिखकर बुलावा भेजती है। हकीम साहब दुम हिलाते हुए हाज़िर हो जाते हैं और अपने शफ़ाखने पे ख़बर भेज देते हैं कि किसी शाही शख़्सियत के पोशीदा इलाज के लिए वे एक महफ़ूज़ ठिकाने पे हैं और उन्हें लौटने में वक़्त लगेगा। हकीम साहब ख़ुदा का शुक्र अदा करते हैं – या परवरदिग़ार, इंसानियत, हकीमी और इश्क़ तीनों की ख़िदमत का मौक़ा एक ही साथ और एक ही छत के नीचे! बड़ा रहीम है तू !
बहरहाल, इलाज से छोटा सुल्तान ठीक होने लगता है, कोठे के कोने-अँतरे तक उसकी शराफ़त की ख़ुशबू फैलने लगती है। वह एक दिन कमरे से बाहर निकलता है और उसकी मुलाक़ात नायिका से हो जाती है। वह नायिका को देखकर ठगा सा रह जाता है। उसके रूप की ठंडक उसके भीतर का मौसम बदल देती है। नायिका सलाम कर भाग चलती है और वह उसके घुँघरुओं की आवाज़ चुनता रह जाता है।

“बेटा प्रदीप, यहाँ तो कहानी की ही गुंजाइश नहीं और तू है कि डबल प्रेम कहानियाँ लेके बैठ गया है। पहले क़िले का मालिक पैदा किया, फिर उसे छोटा सुल्तान का ओहदा अता किया और फिर उसके लिए एक ख़ूबसूरत और जवान कोठेवाली भी ढूँढ दी। इतने इंतजामात के बाद भी संतोष नहीं हुआ तुझे तो कोठे की बुढ़िया मालकिन के आशिक़ को न्योता देकर बुलवा लिया। वाह रे जर्नलिस्ट, तू तो चालू क़िस्म का स्टोरी-राइटर बन चला। मैं जानता हूँ, आगे क्या करने वाला है! आख़िरी ट्रेन का मुसाफ़िर अगर एक स्टेशन पहले उतर जाए तो यही होता है बेटा। अधूरी रह गयी इच्छा भीख मँगवा देती है। बस्ती में कोई दाता मिला तो ठीक वरना अपने ही मन के नगर में कटोरा थमाकर दौड़ा देती है। मैं तो समझ रहा हूँ, क्या तू भी समझने की कोशिश कर रहा है पुत्तर? “

कोई हफ़्ता भर बाद हम कॉर्नर कैफ़े में बैठे थे। इरा ने पूछा था - ‘यह तुम्हारी पहली नौकरी है, मेरा मतलब है अख़बार की?’ मैंने कहा था - ‘हाँ, वैसे फ़्रीलैन्सिंग की है दो बरस और छत्तीसगढ़ के विधान सभा का चुनाव के समय काम किया किया था, टाइम्स ऑफ़ इंडिया के लिए। यहाँ जो सब एडिटर की नौकरी मिली है, वो उसी कि बदौलत। मेरी रिपोर्ट्स और अनालिसिस की काफ़ी चर्चा हुई थी।’ इरा की मुस्कान चौड़ी हो गयी थी और आँखें बड़ी, उसने किलक कर कॉम्प्लिमेंट दिया - ओहो! तो तुम वो वाले प्रदीप हो जिसके आकलन ने चुनावी सर्वेक्षणों को भी मात दी थी। सबकी भविष्यवाणियाँ मुँह के बल गिरी थीं। वाह! तभी तुम्हारी राइटिंग इतनी दिलकश! ऐसे ही लिखते रहे तो छा जाओगे शर्मा जी। पोएटिक प्रिसिज़न विथ ऑल इम्पॉर्टन्ट डिटेल्स! अच्छा, एक बात बताओ, कविता भी लिखते हो क्या ? “ मैने कहा था - ना.....,अब क्या बताता कि अपने हस्त लाघव के सुख और नैतिक संकट पर एक कविता लिखी है। जीवन की पहली कविता! ... लेकिन चुप रह गया। उसे शायद उम्मीद थी कि मेरे भीतर कविता भी होगी, मगर मैंने उसे पूरी तरह निराश किया था। वह उदास लग रही थी। मैंने पूछा - तुम कविता लिखती हो क्या ? उसने मेरे ही टोन में कहा - ना, और फिर एक लम्बी साँस लेकर जोड़ा - मेरे पापा मशहूर शायर हैं। नाम जानकर क्या करोगे। उनकी शायरी में तो अब भी वफ़ा का तूफ़ान मिलेगा मगर जीवन में .....आइ हेट पोयट्री एंड पोयट्स। माई बिलीफ़ गोज़ विथ अनऑर्नमेंटल प्रोज़!’
“तो फिर फ़ीचर एडिटिंग का जॉब कैसे सम्भालती हो? वहाँ तो ऑर्नमेंटल प्रोज़ और पोयट्री भी आती है।” मैने पूछा था और मेरे आख़िरी तीन शब्दों को पकड़कर हौले से चीख़ पड़ी थी - भी आती है, ...भी....भी , ही नहीं। फ़ीचर में बहुत कुछ इन्फ़ॉर्मटिव भी होता है। और वैसे भी प्रदीप शायर की बेटी हूँ, पोयट्री की तमीज़ तो है ही।’ ........
उस रात घर लौटकर मैंने अरसे बाद डायरी लिखी थी – “इरा बिलकुल मेरी तरह है। औपचारिक और सहज, लेकिन सीने में काँच के टूटे हुए मरासिम भी हैं। उसके पास पिता नहीं और मेरे पास माँ नहीं। जब माँ इस दुनिया से गयी थी, मैं सात साल का था। उन्हें सिवियर माइट्रल स्टेनोसिस था। पापा बैंक की नौकरी और मेरी और दादी की देखभाल करते रह गए। अब तो दादी भी नहीं रहीं और पापा भी बैंक से रिटायर हो गए।” लेकिन मैं यह सब क्यों याद कर रहा? मैं तो क्या जाने कहाँ जानेवाली ट्रेन में बैठ गया था और टीटीई ने फ़ाइन के साथ एक टिकट बना दिया था। मुझे तो ये भी पता नहीं कि ट्रेन से उतरकर मैं कहाँ जानेवाली बस में बैठा था और रास्ते में उसका टायर पंक्चर हुआ तो सबके साथ उतर गया था। ब्लैडर फ़ुल नहीं हुआ होता तो मैं झाड़ियों में धँसता भी नहीं और न ही समुद्र का हाहाकर सुनता और ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ का ख़याल आता।

अचानक बच्चा झाँकता है और गुदगुदी कर गुम हो जाता है। मैं पूछता हूँ - क्या है? वह फुसफुसाता है “- यार, तुम एक कहानी सुना रहे थे छोटे सुल्तान की और मैंने तुम्हें तब छेड़ दिया था जब तुम कोठे पर थे, दिलकश रक्कासा के घुँघरुओं की आवाज़ के साथ।” आज यह बच्चा कुछ ज़्यादा ही लिबरल और शरारती हो गया है। इसकी तब्दीली की वजह समझ में नहीं आ रही। ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी के आइडिया पर भी मौन की मुहर लगायी थी। और अब मुझे कोठे पर भेज रहा। ठीक है बच्चू, इस अफ़साने को अंजाम पे लाकर ही वह वादा पूरा करूँगा जिसे मैंने झाड़ियों के बीच अपने आप से किया था ।

छोटा सुल्तान हैरत में है - “कई जंगें लड़ी हैं। कई बार ज़ख़्म खाए हैं। मगर पहली बार हुआ है कि ज़ख़्म पर ध्यान ही नहीं। इसी तरह के मरहम पहले भी लगते थे मगर इस बार तो शिफ़ा कुछ और। कमाल मरहम का है या दूध-हल्दी-बादाम का शर्बत परोसने वाली के शर्बत ए दीदार का? जब हारी हुई जंग की भगदड़ के बीच से निकलकर पास के पेड़ पर चढ़ गया था तो इतनी भर ख़्वाहिश थी कि जान बच जाए, मगर अब तो जी में आ रहा कि चाँद और समंदर के साथ क़िले में क़यामत तक ज़िंदा रहूँ।” छोटा सुल्तान पहले तो ये बातें ख़ुद से कहता है, मगर शाम होते-होते शर्बत ए बादाम परोसने वाली माहरू से और अगली सुबह कोठे की मालकिन से। मालकिन पहले तो मना कर देती है, मगर जब उसे क़िले की मुहर वाली अँगूठी दिखाता है तो कहती है - जहे नसीब!

जहे नसीब! ठीक यही अल्फ़ाज़ थे इरा के जब मैंने कहा था – “यार, मुम्बई आए सात महीने हो गए। अगले रविवार को भोपाल जा रहा हूँ, पापा से मिलने। तुम चलोगी मेरे साथ? “ जहे नसीब कहते वक़्त उसका लुक मुग़ल ए आज़म की मधुबाला-सा हो गया था - एक शोख़ क़िस्म की संजीदगी जिसमें किसी अंदेशे की कंकड़ी आ गिरी हो। मैंने उसके हाथ पे अपना हाथ रख दिया था। लगा, किसी बीज से अंकुर फूट रहा हो। मगर, सामने ही एक बड़ा-सा मगर था जो शाम की मीटिंग में नुमायां हुआ। एडिटर साहब फ़रमा रहे थे - अगले महीने की दस तारीख़ को बीएमसी के चुनाव होने हैं। कल सुबह घोषणा हो जाएगी। हमें चुनाव कवर करने की पूरी तैयारी करनी होगी । प्रदीप, चुनाव पेज तुम देखोगे और रोज़ एक संपादकीय भी लिखोगे। अगर कोई इमर्जन्सी नहीं है तो तुम छुट्टी की दरख्वास्त वापस ले लो। चुनाव बाद चले जाना।“ सहायक संपादकों के बीच नए ढंग से काम बांटे गए। इरा से कहा गया - मुम्बई के हर वार्ड में कुछ न कुछ ख़ास है। दो तिहाई कवरेज मुम्बई के सामाजिक-सांस्कृतिक मसलों पर। फ़िल्म वाले सेक्शन का रंग भी सियासी होना चाहिए। कोई भी फिल्मी बंदा सीधा जवाब नहीं देगा, मगर पूछने में क्या हर्ज - जनाब या मोहतरमा, इस बार आपका वोट किसे।”
मीटिंग ख़त्म हुई तो इरा ने कहा - प्रदीप, भूख लगी है, कॉर्नर कैफ़े चलोगे।’ जब हम वहाँ पहुँचे तो इरा ने कहा - आज उस कैबिन में बैठते हैं। अंदर पहुँचते ही वह मुझसे लिपट गयी। यूँ जकड़ लिया मानो मैं उससे बिछड़कर दूर जाने वाला हूँ।जाने क्यों, मैंने भी वही किया। बाएँ हाथ से उसे थामे रहा और दाएँ हाथ की उँगलियाँ उसके बालों में फिराने लगा। अब वह सिसक रही थी। मेरा हाथ सरककर उसकी पीठ पर आ गया। मैं उसकी पीठ सहलाने लगा। उसका सिसकना जारी रहा, बेसाख्ता। कुछ तो जमा था उसके भीतर जिसके पिघलने का शायद सबसे मुनासिब वक़्त आ गया था। उसके आँसू मेरी कमीज़-बानियाँ-और त्वचा पार कर हृदय पर टपकते रहे। या प्रेम का गरम और नमकीन जल था जिसे पीने से आग लगती है। मेरी आत्मा में संचित सारी करुणा मेरी उँगलियों में आ बसी थी। अचानक उसने सर उठाया और मेरी तरफ़ देखते हुए कहा - प्रदीप, सात महीनों में तुम कभी प्रेमी की तरह पेश नहीं आए। बस एक भरोसेमंद दोस्त बनकर रहे। चालू किस्म का मज़ाक़ तक नहीं किया। और आज अचानक तुम्हारा यूँ प्रपोज़ करना मुझे विहवल कर गया। यह प्रपोज़ल ही था नऽ? मैंने मुस्कुराकर कहा - हाँ। उसने मुझे घूरते हुए पूछा - तुम्हें कैसे अंदाज़ा हुआ कि यह दोस्ती नहीं प्रेम है? मैंने कहा था- तुम्हें ध्यान नहीं, जब मैं अख़बार के दफ़्तर में घुसा था तो सबसे पहले तुझे देखा था। तू रिसेप्शन के पास खड़ी थी और अपनी माँ से फ़ोन पर बात कर रही थी। जब तक मैंने रजिस्टर में अपने डिटेल्ज़ लिखे तब तक तुम्हारी बात सुनता रहा था। कैसा दुलार और कितनी फ़िक्र! तुम्हारे बोलने के कोमल अन्दाज़ ने मेरा मन मोह लिया था। मुझे गुनगुनाने का मन हो आया था - हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था। इरा, अँधेरे में मुझसे जो चूक हुई थी, वो दरअसल फ़्रायडियन स्लिप थी। लेकिन तुम्हारे मौन स्वीकार ने मुझे उस मुश्किल भँवर में खींच लिया था, जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था। अगर तुम हाथ खींच लेती तो तो मैं तुझसे आँख भी नहीं मिला पाता। मुमकिन है, नौकरी छोड़कर भोपाल चला जाता। इरा, अब तो जान ही गयी हो तुम कि मुझे भी तुम्हारी ही तरह सड़क पर चाट और गोलगप्पे खाने से परहेज़ है। तो फिर दिल की फ़ितरत भी वही है। हम दोनों एक जैसे!” इरा ने कहा था - आज पहली बार वाचाल दिख रहे। ऐसे ही रहो! और सुनो, अँधेरे में जो हस्त मिलन हुआ था वह सिर्फ़ तुम्हारी चूक नहीं, मेरी शरारत भी थी। कुर्सियाँ इतनी क़रीब भी नहीं थीं। दरअसल, मैंने शरारतन अपना हाथ तुम्हारी अधिकार-क्षेत्र में घुसा दिया था।” यह रहस्योद्घाटन सुनकर मेरा मुँह वाउ वाली इमोजी की तरह हो गया था और उसने हँसकर कहा था - शर्माजी, सुंदर, सुशील और विवाह योग्य वर मिलने पर ऐसी शरारत हो ही जाती है।”

बच्चे ने फिर छेड़ा -‘”इरा का क़िस्सा मुझे मालूम है। छोटे सुल्तान का क्या हुआ? बुढ़िया कोठेदारिन ने अँगूठी हज़म कर ली या कुछ और ले-देकर रक्कासा का सौदा किया?” आज पहली बार मुझे इस बच्चे पर तेज ग़ुस्सा आया – “ इरा का क़िस्सा जब मुझे ही नहीं मालूम तो तू कैसे जान गया? किस बात का बदला ले रहा है मुझसे ? कहीं इस बात का तो नहीं कि तुम्हारी सलाह के बावजूद मैंने भोपाल के कॉलेज की नौकरी छोड़ दी थी। तुमने कहा था, यहाँ काम करोगे तो पापा के साथ रहोगे। तू क्या जाने कि ऐसी ऐडहॉक नौकरियों का कोई भविष्य नहीं होता। कुदाल को कुदाल कहकर अपने को महान माननेवाले बेवक़ूफ़, प्रदीप शर्मा पत्रकार है दलाल नहीं। वह रक्कासा भी बिकाऊ नहीं, और कोई भी बिकाऊ क्यों हो ? “ मेरी कहानी की नायिका रक्कासा ज़रूर थी और कोठे पर भी थी मगर बेहद पाक दोशीजा थी। कोठे की मालकिन और हकीम साहब की बेटी। यह बात दोपहर की दस्तरख़ान पर खुलती है जब सब इकट्ठे नोश फ़रमा रहे थे। छोटा सुल्तान उनसे कहता है - मैं समझता हूँ यह आपके बुढ़ापे का सहारा है। अब आप यह कोठा बंद कर दीजिए। मैं आपके और हकीम साहब के नाम एक जागीर लिख देता हूँ। वहाँ एक छोटी हवेली भी है। उसी में चले जाइए।” बच्चे ने कुछ कहना चाहा मगर मैंने यह कहकर अफ़साने को अंजाम पे पहुँचा दिया कि अगले दिन निकाह और सुहागरात और फिर इस क़िले में उसका ख़ैर मकदम!” बच्चा इस निपटाऊ द एंड से संतुष्ट नहीं हुआ उसने फिर कोंचा – “मियाँ यह तो सौदा ही हुआ न? वह लड़की के बदले में जागीर!”
मैं मन ही मन चीख़ पड़ा - अबे उल्लू, शादी की जड़ में इश्क़ था और जागीर देना भलमनसाहत। तू मुझे इतना कमीना समझता है कि मैं लड़की बेचने की कहानी सोचूँगा और वह भी जब दुनिया की आख़िरी शाम ढल रही हों!” “लेकिन इरा तो बिक गयी थी नऽ?” बच्चे की आवाज़ में एक बेहद सादे सच की क्रूरता थी।

अब मैं चुप हूँ। उतरते सूर्य की तिरछी किरणों की आमद से चमकता समुद्र भी चुप हो गया है। गोया यह समुद्र नहीं भोपाल की झील हो और मैं उसके किनारे पिता की याद में डूबा बैठा हूँ। ..
बीएमसी के चुनाव ने हमें बुरी तरह उलझा दिया था। बीजेपी और शिवसेना के बीच गठबंधन नहीं था इस बार। कांग्रेस तो थी ही मैदान में। हमारा काम बहुत बढ़ गया था। एडिटर ने मुझे चुनाव-क्षेत्रों में भी जाने की सलाह दी थी। अपनी सांस्कृतिक कहानियों की खोज मेँ इरा भी कई बार साथ हो लेती। चुनाव के दिन पास आ रहे थे। मेरी स्टोरीज़ की धूम थी। ‘मॉर्निंग न्यूज़’ के फ़ेसबुक पेज पर मेरे कॉलम ‘टेन लाइंस’ पर लाइक्स और कॉमेंट्स की संख्या लाख पर करने लग गयी थी ऊपर से हज़ारों लोग अपनी वॉल पर साझा करने लग गए थे। अख़बार में मेरा रुतबा बढ़ रहा था। एक दिन एडिटर ने मुझे बुलाकर कहा - यार प्रदीप, एक बात समझ में नहीं आ रही। बाक़ी अख़बार शिव सेना का पलड़ा भारी बता रहे और तुम्हें लग रहा कि बीजेपी शिवसेना पर बीस पड़ रही। डोंट यू थिंक, वी नीड टू अंडरस्टैंड पीपल्स मूड बेटर?” मैं समझ गया था कि इस मशवरे की जड़ कहाँ है। शायद मुझे नहीं कहना चाहिए था मगर मुझे न तो मुंबैया पैंतरे आते थे और न ही अख़बारी। मैंने सीधे और साफ़ शब्दों में कह दिया था - “सर, समझ गया मैं। शिवसेना के विज्ञापन आने बंद हो गए हैं। लेकिन मैं भी क्या करूँ, जो दिखता है, लिखना तो उसे ही पड़ेगा न!’ एडिटर के हाथ से पेपरवेट नीचे गिर पड़ा था। उसने झुककर उठाते हुए कहा था - कोई बात नहीं कल शाम तक मुझे एक एक बाद लेख दे दो जो पूरे चुनाव का मूड कवर करे और एक अनुमान भी हो कि कौन और क्यों जीतनेवाला है। मैंने वह रिपोर्ट रात भर जागकर लिखी थी और सुबह-सुबह वह सकलेचा अंकल का वह मनहूस कॉल। पापा सीढ़ियों से फिसलकर गिर गए थे और बेहोशी की हालत में गाँधी मेडिकल कॉलेज में भर्ती .......! एडिटर को कॉल किया तो फोन बंद । इरा को जगाया, पूरी बात बतायी और कहा, कल सुबह ७ बजे डोमेस्टिक डिपार्चर गेट पर मिलो।
इरा गेट के पास ही खड़ी थी। देखकर लगा, बर्फ़ उस पर भी गिरी है। मैंने जेब से निकालकर पेन ड्राइव देते हुए समझाया था उसे - इरा, इसमें इस चुनाव का अब तक का सारांश है। पेनड्राइव एडिटर को दे देना मगर इसकी एक कॉपी अपने लैपटॉप में सेव कर लेना। मैं मेल भी कर सकता था। मगर मैं तुझे कुछ कहना और एक बार देखना भी चाहता था। यह रिपोर्ट मैनेजमेंट को शायद पसंद न आए। मैं चाहता हूँ कि उन्हें यह पता चल जाए कि तुम भी जानती हो। इस रिपोर्ट के बारे में। सच अगर खुल जाए तो लोग उसे उजागर होने दे देते हैं। इसमें कई बातें शिवसेना के ख़िलाफ़ हैं। जो फ़ॉलोइंग है हमारी, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि रिपोर्ट का फ़ायदा बीजेपी और कांग्रेस को मिले। एक और बात, इसमें अख़बार के फ़ेसबुक पेज का आइडी-पासवर्ड भी है। उसे अपने फ़ोन में सेव करने के बाद डिलीट कर देना। मुझे डर है, एडिटर इस रिपोर्ट को टेम्पर कर सकता है। इसलिए, जैसे ही मॉर्निंग एडिशन आ जाए, तुम लॉग इन कर इसे ‘टेन लाइंस’ वाले कॉलम में अपलोड कर देना। जब तक एडिटर देखेगा, तब तक तो लोग इसे वाइरल कर चुके होंगे। चूँकि यह पासवर्ड एडिटर के चमचे के अलावा सिर्फ़ मेरे पास है। इसलिए तुम पर शक न होगा। नौकरी जाएगी तो जाए। मैं कॉलेज में पढ़ा लूँगा। भोपाल में रहेंगे हम, पापा के साथ। तुम्हारी मम्मी को भी बुला लेंगे। घर डबल स्टोरी है।” हम गले मिले, इरा ने मेरी पेशानी चूमी। यह पहला और आख़िरी चुम्बन था, इसमें प्रेम के अमृत से अधिक की मित्रता की आश्वस्ति थी। मगर ..
समुद्र और भी ज़्यादा ख़ामोश हो गया है और दिन और भी अधिक बूढ़ा। बादल के टुकड़े ख़ून के थक्के की तरह लाल लग रहे। यह आसमान है या भोपाल के गाँधी मेडिकल कॉलेज के न्यूरोसर्जरी वार्ड का आइसीयू? जब मैं उनके क़रीब पहुँचा था तो वे अपनी छूटती साँसों को पकड़ने की नाकामयाब कोशिश कर रहे थे और ड्यूटी डॉक्टर वेंटिलेटर पर डालने की तैयारी कर रहा था। डॉक्टर ने कहा - इन्हें अभी-अभी हेमटेमेसिस खून की उलटी हुई है, । शायद पेट मेँ भी चोट थी, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया। .. मैं हड़बड़ी में चार्जर मुम्बई में ही भूल आया था। मैंने इरा को मेसिज करके बता दिया था- पापा क्रिटिकल हैं और फ़ोन कभी भी ऑफ़ हो सकता है। फ़ोन पहले ऑफ़ हुआ और थोड़ी देर बाद पापा भी। तभी सकलेचा अंकल खाना लेकर आए।
अगली सुबह पिता की देह जला दी गयी। जब घर लौटकर आया तो लगा, पूरे घर में उनकी चिता का धुँआ है। मैंने सकलेचा आंटी से कहा - कहीं से फ़ोन का चार्जर लेकर आता हूँ। मुम्बई में ही छूट गया है। बाहर निकला तो झील की तरफ़ चला गया। एक मोबाइल स्टोर था उस तरफ़। शहर में दिसम्बर की ठंड का असर था। बहुत कम दुकानें खुली थीं। मोबाइल स्टोर १० बजे वैसे भी नहीं खुलता। पास ही एक चाय दुकान थी। सोचा एक कप चाय पी लूँ। वहाँ गया तो देखा, एक लड़का पॉर्टबल चार्जर से आइफ़ोन टेन चार्ज कर रहा है। मैंने अपनी मुश्किल बतायी और रिक्वेस्ट किया कि एक मेसिज भेजने भर चार्ज करना चाहता हूँ। फ़ोन ऑन हुआ तो मॉर्निंग न्यूज़ के व्हाट्सएप ग्रुप का नोटिस चमका। मैंने व्हाट्सएप खोला तो पाया कि मेरी रिपोर्ट की क्लिपिंग है, वही शीर्षक मगर लेखिका इरा खन्ना। तेज़ी से पढ़ा तो पाया पूरी तरह टेम्पर्ड। सब कुछ शिवसेना के पक्ष में। फ़ेसबुक पेज पर भी यही रिपोर्ट। यह एक और मौत थी। मैंने क्षोभ के मारे अपना फ़ोन झील में फेंक दिया और घर लौट आया।

मेरे सामने जो समुद्र है वह अरब सागर है या बंगाल की खाड़ी, नहीं कह सकता। मेरे पास कोई फ़ोन भी नहीं कि लोकेशन चेक करूँ। आसमान और ज़्यादा लाल हो गया है। उफ़क पर शरारे नाच रहे। लहरें लपटों की तरह उठ रहीं। चिता तैयार है। मैं झरोखे से उतर रहा हूँ। अलविदा माहरू! अलविदा छोटे सुल्तान!! ग्रेनाइट की दीवार वाले कमरे की सीढ़ियाँ डूब गयी हैं। पानी का हलफा तेज हो गया है। जींस घुटने के ऊपर तक भीग गया है। मैं बाहर आ गया हूँ। अब समुद्र और मेरे बीच कोई नहीं। अचानक ठोकर लगती है और मैं गिर जाता हूँ। जिस पर मेरे हाथ टिके हैं वह चट्टान थोड़ी चौड़ी और चिकनी है। उसी पर बैठ जाता हूँ। और ख़ुद से पूछता हूँ - है कोई अंतिम ख़्वाहिश?
बच्चे को मेरी उलझन से कोई मतलब नहीं। वह एक अच्छे दोस्त की तरह नाराज़ भी है और फ़िक्रमंद भी। मेरे सवाल के जवाब में यूँ बड़बड़ाने लग जाता है गोया मैंने जो पूछा है वो दुनिया का सबसे फ़ालतू सवाल है -“ इस वीराने में इतनी देर से कोई नहीं आया और न ही कोई आने वाला। यह खंडहर जिसे तुम क़िले का अवशेष माने बैठे हो इसे किसी इतिहासकार ने अब तक नहीं पूछा। पूछा होता तो ए एस आई अपना दावा खुदवा चुका होता - यह राष्ट्रीय सम्पत्ति है। और अगर ये टूटी-फूटी रंगीन दीवारें किसी इश्क़ की गवाह होतीं तो सौ-दो सौ क़ुर्बान कर साल में दस बारह बार शहीद होने वाले आशिक़ों का कामचलाऊ तीर्थ घोषित हो गया होता। मगर यह जगह तो यूँ है गोया इसे किसी की ज़रूरत नहीं। कोई पेड़ भी नहीं आसपास कि बारिश में सिर छुपाया जा सके। कोई जानवर भी नहीं जिसे कोई मारकर खा सके या ख़ुद को खिला सके। पागल समुद्र, भुतहा खंडहर और पथरीले साहिल पर रेंगते हुए घोंघे और शंख! क्या मतलब है इस जगह पे बैठे रहने का। खाए-पिए चौबीस घंटे से भी ज़्यादा हो गए। मैं पूछता हूँ - क्या ज़रूरत थी भोपाल से मुम्बई आने की। क्या ज़रूरत थी जाकर इस्तीफ़ा फेंकने की। न वहाँ जाते और न ही यह पता चलता कि इरा अहमदाबाद एडिशन की रेज़िडेंट एडिटर हो गयी है। माना तुझे एडिटर से नफ़रत हो गयी थी, मगर ग़म के नशे में तुम उस रिपोर्टर को भी धक्का देकर भागे थे। याद करो, उसने कुछ कहा था। वह कोई लिफ़ाफ़ा देना चाह रहा था तुझे। याद करो उस पर किसकी हैंडराइटिंग थी। हल्का नीला लिफ़ाफ़ा और कटावदार कर्सिव राइटिंग। सोचो, वो इरा का ख़त हो सकता है या नहीं। उसी इरा का जिसे तुमने कहा था - तुम बिलकुल मेरे जैसी हो! अगर उसकी कोई ग़लती न हुई तो ? तुम्हारा छोटा सुल्तान - साला भगोड़ा और ऐय्याश कहीं का- निकाह की अर्ज़ी देने के पहले शर्बत ए दीदार वाली माहरू से पूछता है और तुम इरा से बिना कुछ पूछे ही उसे वैम्प का दर्ज़ा देकर दुनिया से जाना चाहते हो? काश मैं तेरे बदन से ख़ुद को जुदा कर पाता। जा पाता तुम्हारे दिल ओ दिमाग़ की क़ातिल इरा खन्ना के पास यह पूछने कि यह सौदा था या साज़िश? “ अचानक एक बड़ी लहर उठी और उसने मुझे दूसरी चट्टान की तरफ़ ठेल दिया। मैं शायद बेहोश हो गया था। जब होश आया तो न क़िला था न समुद्र बस एक गहरा अँधेरा और एक बार -बार उठता हुआ हाहास- यह सौदा था या साज़िश? यह सौदा था या .....
बच्चा जीत गया है और मैं उसके सवाल और इरा के गाल पर टपकते आँसुओं की रोशनी में सड़क की तरफ़ जाने का रास्ता ढूँढ रहा हूँ।

- विनय कुमार
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