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ख़ते
मुतवाज़ी
‘या
खुदा, ये क्या हो गया है मुझे। परवरदिगार, ये दिन भी दिखाना था? मेरी तो
चलो अक्ल मारी गई थी, पर तेरी अक्ल को क्या हुआ था नीली छतरी वाले?‘ नवम्बर
की गुनगुनी सर्दी धूप सेकने मुताबिक मौसम बिल्कुल नहीं है, नहीं हुआ करे।
राबिया को धुप में बैठना अच्छा लगता है और वह बैठी है। बैठी भी क्या है,
पड़ी छटपटा रही है, कुछ धूप की चुभन से, कुछ मन की कुढ़न से। ताजा धुले बाल
कुछ अधलेटे, कुछ अधबैठे बेतरतीब से काली घास की तरह उसके चेहरे और गर्दन से
चिपके हुए हैं।
‘भूतनी‘ ददिया देखतीं तो यही कहतीं- “अरी, चार साल की लड़की हो गई है तेरी।
अल्लाह जाने कैसे ये लड़की घर सम्भालती होगी, कैसे डॉक्टरी करने जाती होगी।
अमान को अड़े बखत पे दो रोटी भी सेक के देती होगी या नहीं। और इन बालों में
कभी दो बूँद चिकनाई भी देती है कि नहीं, कैसे तो सूखे तिनकों से हो रहे
हैं। अल्लाह ऐसे बन्दों को हुस्न की बरकत क्यूँ देता है जिन्हें इसकी जरा
कदर - तमीज नहीं होती। इधर आ, मैं रोगन बादाम ठोक दूँ जरा।” लेकिन अब कितनी
दुर हैं ददिया और उनकी बातें। राबिया ने छलकती आंखों को हथेली की पुष्तों
से खुष्क किया और उठ बैठी। रेषमी बालो को जूड़े की शक्ल में समेटते हुए
इधर-उधर देखा, तीखी धूप में सिविल लाईन की अफसर बस्ती वीरान सी लग रही है।
बड़े-बड़े लॉन, खुले-खुले पिछवाड़े और साफ- सुथरी चौड़ी सड़कें इस वीरानगी को
कुछ ज्यादा ही साफगोई से पेष कर रहे थे। ‘कोई ओर भी है यहां या बस मैंे
मेरी तन्हाई। नहीं, एक और है, दूर सड़क के मोड़ पर एक बन्दा अपनी गुमटी में
कपड़े इस्तरी करता नजर आया। मैं, मेरी तन्हाई और ये धोबी। इतना काफी है
राबिया, टू इज कम्पनी सुना है न तुमने।
इस सफेदपोष अफरषाह बस्ती में अनकही धारा 144 लगी रहती है, हमेषा। कोई सड़क
पर, छत पर, बरामदे में खड़ा गपियाता नजर नहीं आता। साहब-मैमसाहब तो दूर,
उनके नौकर तक सलीके से रहते हैं। बेवजह मिलना-जुलना, निठल्ले बैठना, धूप
मैं बैठना कितिना खराब लगता है, सब स्टैण्डर्ड। राबिया को ये सब बंधन कतई
नहीं सुहाते पर डॉ. श्रीमती राबिया अमान सिद्दीकी को यही सलीका ज़ेब देता है
इसलिए उसे भी करना पड़ता है। आज खुदअय्याषी का मन किया इसलिए सारे नौकरों को
छुट्टी दकर अकेली है घर में। उस फौज से राबिया को बड़ी कोफ्त होती है, हर
वक्त एक नज़रबंदी सी, धीरे बोलो, करीने से बैठो, परदे में लेटो।
“लाहोल विला कुव्वल“ राबिया आए दिन इन सब पर लानत भेजती है और अमान उसे
‘मिस फिट‘ का फतवा देता है- “खुदा ने क्या सोचकर तुम्हें बैरिस्टर की बेटी
बना दिया और उस पर ऐसा जहीन दिमाग दे दिया। अच्छा होता किसी मिडिल क्लास
फैमिली में पैदा होती, तीन-चार बच्चों और छः - आठ बकरियों के साथ किसी नेक
बन्दे की घर- गिरस्थी सम्भालती, घर के सेहन मेें पापड़- मुँगोड़ियाँ सुखाती,
क्यों।“ पर अमान की चुटकियाँ हवा में फुस्स होकर रह जाती हैं, राबिया को न
इसका बुरा लगता है न वो लगाती है उसका एक ही जुमला अमान को पटखनी दे देता
है- ”चलता, पर तुुम्हारे बिना नहीं।“ अब अमान मियाँ का दिल कबूतर लहालोट हो
या भारतीय प्रषासनिक सेवा के उच्चाधिकारी अमीन सिद्दीकी को जहनी झटका लगे,
क्या फरक पड़ता है। राबिया जैसी है, वैसी ही रहती है।
चार सालिया एनी के साथ कार्टून देखती माँ, अमान पर दिलो- जाँ से निसार
महबूबा राबी, ददिया की आँख का नूर रब्बो और सरकारी अस्पताल के न्यूरोसर्जरी
विभाग में मरीजों के भेजे उधेड़ती - सिलती डॉ. राबिया सिद्दीकी, जिन्दगी के
हर स्वाद का पुरलुत्फ जायका लेती खुषमिजाज राबिया, अल्लाह को एक दोस्त से
ज्यादा तवज्जो न देने वाली राबिया आज अल्लाह को कर्ता का ओहदा देकर उसकी
करनी पर लानत मलानत भेज रही है। ददिया यहाँ होती तो जरूर चिन्ता में पड़
जाती-“खुदा ना करे, लड़की पर किसी आसेब का साया तो नहीं पड़ गया।“
बहरहाल, राबिया की खुदा से लड़ाई जारी रहती अगर पास पड़ा मोबाइल न बज गया
होता- “डॉ. राबिया सिद्दीकी हियर। यस सर, यस सर, ओके। डोण्ट वरी सर, आई विल
बी देयर विदिन हाफ एन ऑर।“
और सच में दस मिनट बाद ही राबिया घर से निकल गई। करीने से पहनी साड़ी, सलीके
से बँधा जूड़ा और कायदे से ओढ़े चेहरे में बैक गियर में दक्षता से गाड़ी
निकालती डॉ. राबिया। “अल्लाह, लौंडिया कैसे पलक झपकते ही रूप बदल लेती है
मानो परेइ (परी) हो।“ ददिया होतीं तो सैकड़ों बार बोला पुराना जुमला नए
अचम्भे से दोहरा देतीं।
“हैलो, राबी जान, कब तक फ्री होगी? तुम्हारे बिना हम दोनों अकेले हो गये
यार, आ जाओ।“
“सारी सर, मैं रिसेप्षन से बोल रही हूँ“ उधर से लजाई सी आवाज है- “मैडम अभी
ओटी में ही हैं, शायद दो घण्टे और लग जाएँ।“ अमान कट कर रह गया, खुद की
बेबाकी पर शर्म भी आई। बेचारा अमान, छः साल हो गए, पार तो क्या अपनी बेगम
की धार ही नहीं पा सका है। अमान की कुढ़न बजा है, वो खुद एक नौकरीपेषा,
जिम्मेदार अफसर है, बीवी की मसरूफियत से वाकिफ है, पर बन्दी फोन तो कायदे
से रखे। न उठाना हो तो बन्द कर दे, पर नहीं, हम तो जैसे हैं वेसे ही
रहेंगे।किस्सा कोताह ये कि राबिया बी जैसी है, अच्छी है। सब को अच्छी लगती
है, अच्छा महसूस कराती है। वही राबिया बहुत बेचैन है। इतनी कि अमान भी
नोटिस कर रहा है लेकिन राबिया बाहरी तौर इतनी सामान्य है कि कोई पूछे तो
क्या और राबिया बताए तो क्या। बताए कि आजकल वो खुद में नहीं है, कि उसे तीस
पार में वो सब हो रहा है जो अठारह-बीस में होता आया है, कि वो अपनी
शादीषुदा जिन्दगी से बेवफाई कर रही है। छिः ऐसा भी कहीं होता है। ददिया
होतीं तो कहतीं ..... पता नहीं क्या कहतीं? उसके इतने लम्बे-चौड़े कुनबे में
ऐसा हादसा कभी घटा ही नहीं, इसलिये इस मामले मे ददिया क्या कहतीं, राबिया
नहीं जानतीं।
ये जो भी घट रहा है, डॉ. राबिया के लिए भी और पूरे न्यूरोसर्जरी
डिपार्टमेन्ट के लिए हैरत की बात है। मेडिकल साइंस में भी ऐसे केस मिरेकलस
माने जाते हैं। “मनुष्य और उसका जीवन बहुत गहरा है, मेडिकल साइंस या किसी
भी टेक्नोलॉजी की पहुँच से बाहर। कितनी आष्चर्यजनक घटनाएँ है जो अपने
कैरियर और इसी डिपार्टमेन्ट में भी मैंने घटती देखी हैं।“ फेकल्टी-हेड डॉ.
सक्सेना नामचीन और अनुभवी डॉक्टर है। “और जीवन को केवल एक पक्षीय दृष्टि से
देखा भी नहीं जाना चाहिये।“
“लेकिन सर ऐसे केसेज मेडिकल साइंस में रिकॉग्नाइज़ नहीं होते।“ डॉ. राबिया
फिर भी उलझन में है।
“दिस लाइफ इज बियॉण्ड एनीथिंग, मेडिकल साइंस अभी बहुत पीछे है डॉ.
सिद्दीकी। इट केन फाइंड पर्टीकुलर्स ऑफ होल ह्यूमन बॉडी, लेकिन उसके ब्रेन
की, इमोषन्स की कितनी तहें हैं, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।“
हे परवदिगार, अब तू ही मेरी कष्ती को सम्भाल, रात के तीन बजे मेडिकल जनरल
के बहाने में चेहरा छुपाए राबिया कराह उठती है। ‘क्यों, मेरे साथ ही ये
झंझट क्यों? मैंने कब माँगा था कि ये सब हो? ठीक है, पाबन्दी से रोजा-नमाज
नहीं करती पर कोई गुनाह भी मैंने नहीं किया है जिसकी इतनी बड़ी सजा दे रहा
है मुझे। अपनी खुषहाली के लिए सुबहो शाम तेरा शुक्राना अदा करती हूँ, फिर
तुझे क्यों लगा कि मुझे इस इष्क की जरूरत थी। कुछ तो इंसाफ किया होगा मेरे
साथ।‘ राबिया की आँखें छलकने को हैं कि अचानक एक ख्याल से हँस पड़ी ‘पर यार,
एक बात तो है कि ये न होता तो शायद इस जन्म में मैं इस कम्बख्त इष्क के
दर्द को कभी नहीं जान पाती।‘ अमान के साथ सगाई के बाद जुदाई का गम,
रूठने-मनाने के बीच के आँसू, इंतजार की बेचैनी, फासलो से उपजे दर्द के
एहसास भी कम मजेदार नहीं थे, खूब लुत्फ उठाया है उस सब का भी। पर ये
दर्द....... इतना दर्द, ये बेचैनी, ये बेखुदी, ये आवारा आँसू, ये रतजगे कभी
नहीं थे। खुदगुरूरी में जीने वाली मैं ऐसे पस्त हो जाऊँगी क्या कभी सोचा
था। शुक्र है खुदा का कि अमान इतनी गहरी नींद सोता है, वो देख ले तो कयामत
आ जाए। क्या हो गया रब्बो तुझे, क्या करूँ, किस से कहूँ? कहूँ कि मुझे इष्क
हो गया है। डॉ. राबिया सिद्दीकी, ए फेमस न्यूरोसर्जन, हैप्पी वाइफ, प्राउड
मदर को इष्क हो गया है। मर जा राबिया, बस यही एक इलाज है तेरे अहमक इष्क
का। पर मरा भी कहाँ जाता है, उसकी याद आते ही मरा हुआ मन जी उठता है।
राबिया को फिर से हँसी आने लगी। ‘मिल्स एण्ड बून‘, ‘षिडनी शेल्डन‘,
‘गुनाहों का देवता‘, ‘तुमने देखी है वो पेषानी, वो रूखसार, होंट, जिन्दगी
जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने.......‘, ‘फैज अहमद फैज‘ क्या-क्या याद आ
रहा है। लेकिन कौन से रूखसार, पेषानी और होंट। आम आदमजाद के रूखसार, वो
होंट और उड़ते बालो की वजह से पीछे की ओर बढ़ती पेषानी कोई शहजादे सा रंग-रूप
होता तो बात गले भी उतरती पर एक आदमी जैसे आदमी पर कोई यूँ ढुलता है? ऐसे
ही किसी को देखा और फिदा हो लिए, लानत है।
और अगर तुझे अपनी अच्छी-खासी खुषरवानगी में चल रही गृहस्थी से दुष्मनी ही
है तो जा, कह दे उससे कि भई! मुझे तुझसे इष्क हो गया है।
“नो वे, आर यू गोन मेड? बी प्रेक्टिकल एण्ड फोकस ऑन योर फैमिली लाइफ।“ डॉ.
राबिया भी रब्बो की कम दुष्मन नहीं है।
“तुम चुप रहोगी? मुझे मालूम है, मुझे क्या करना है“ रब्बो भी चिड़चिड़ी हो
रही है, “मुझे तय करने दो, ये मेरी हयात है।“
“ओके देन गो टू अमान एण्ड टेल हिम कि यू आर फाल इन लव विद ब्लडी......“
“ष् श् श, चुप। बिल्कुल खामोष हो जाओ, किसी ने सुन लिया तो।“
“सुनने दो न, आज अमान, कल दुनिया ने सुनना ही है तो फिर अभी से क्यों
नहीं।“ डॉ. राबिया बड़ी मुँहफट है।
“षटअप, यू सैडिस्ट....“
“सैडिस्ट! मैं, एक बार फिर से कहो?“ डॉ. राबिया बोलती ही चली जा रही है।
रब्बा, मैं क्या करूँ? अमान को देखती हूँ तो जी करता है जाकर गोमती में
गर्क हो जाऊँ। क्या कुसूर है इस नेक दिल बन्दे का? तो सिर्फ इसलिए कि तुझे
इष्क हो गया है तू अपने शौहर को.....। ददिया, ददिया तुम आ जाओ न, शायद
तुम्हीं कुछ कर सको।
“रब्बो, रब्बो, आँखें खोल मेरी चाँद“ ये तो ददिया की आवाज है! क्या ददिया
सचमुच आ गई? कैसे, मैं सपना देख रही हूँ या दीवानगी की हदें पार कर गई?
“उठो राबी, देखो दादी जान तषरीफ लाई हैं।“ अब अमान की आवाज तिरतिराई। आँखें
खोल ही दे राबिया, सपना होगा तो टूट जाएगा, इससे ज्यादा क्या होगा। अरे, ये
सपना नहीं वाकई ददिया हैं। अब्बाजान भी हैं, क्या बात है। पर ये रोषनी! या
खुदा, मैं मर गई क्या? धत्, मैं मरती तो इन सब को एक साथ कैसे मिलती। यहाँ
इस तरफ अमान भी हैं-रूआँसे, परेषान। लाल आँखे, बढ़ी शेव, उदास चेहरा। “अमान,
आप ठीक तो हैं? तड़प के उठ बैठी राबिया।“
“हाँ, मैं ठीक हूँ, पर तुम्हें क्या हो गया था राबी?“ अमान की आँखों में
अटके आँसू ददिया सास का भी लिहाज नहीं कर रहे हैं। राबिया ने छः घण्टे की
बेहोषी के बाद आँखे खोली है। अमान और ददिया के प्राण पखेरू इतनी देर कैसे
बचे रहे होंगे, राबिया से ज्यादा कौन समझ सकता है। पर उसे हुआ क्या था। कुछ
नहीं, कुछ भी तो नहीं है। सारी रिपोर्ट्स ठीक हैं, बी.पी., शुगर,
कोलेस्ट्रोल, हार्ट, किडनी, लीवर, ब्रेन सब दुरूस्त है, खून और मषीनों ने
साफ-साफ बता दिया है।
“कुछ नहीं, हो जाता है कभी-कभी। दिस ह्यूमन बॉडी, इज समटाइम्स बियॉन्ड
मेडिकल साइंस।“ डॉ. मेहरा राबिया के दोस्त और सहकर्मी हैं। डॉ. राबिया भी
जानती है इस तथ्य को, हो जाता है कभी-कभी। पर ददिया को कैसे समझाए, उनकी
फिक्र के पीछे कितना कुछ छुपा है। सैंकड़ों मिर्चें आग में झोंक चुकी है,
पता नहीं किस-किस पीर-औलिया की चादर बोल चुकी हैं। जानती हैं राबिया नहीं
पहनेगी पर कहाँ-कहाँ के गण्डे-ताबीज मँगवा चुकी है। कितनी बार, कितने कलमे
फूँक चुकी हैं उसके कानों में, उसके सिर पर घुमा-घुमा कर कितनी जकातें
निकाल चुकी हैं।
हँसते-हँसते भी उकताने लगी है अब तो राबिया- “बस भी करिए ददिया, कुछ नहीं
हुआ है मुझे।“ “हाँ, मेरी बच्ची, कुछ नहीं हुआ है तुझे। पर मैं इस मुए मन
का क्या करूँ? ये बावला हो गया है। एक काम कर लाड़ो, एक दिन तू इसका ही
अपरेसन कर दे।“ ददिया के लाड़-कोड़, मन्नत-ताबीज, नजर-टोटके लगातार चलते रहते
हैं। अमान की अम्मी भी बहू के पास रूक गई हैं, अमान समय से घर आ जाता है।
डॉ. मेहरा, डॉ. शैफाली जैसे मित्र नियमित आ जाते हैं। रिष्ते-नाते,
जान-पहचान, पास-पड़ोस से लोग खैरियत लेने आते ही चले जा रहे हैं, इतने कि
राबिया घबरा उठी- “क्या हो रहा है ये अमान! मुझे कोई लाइलाज मर्ज हो गया,
क्या मैं मरने वाली हूँ? बोलो न अमान, क्या तुम लोग मुझसे कुछ छुपा रहे
हो?“
“हाँ, तुम मर रही हो।“ अमान ने जिस तरह से कहा, राबिया को खुद अपने सवाल पर
हँसी आ गई।
“ओ, आयम सॉरी, आई रियली हेव बीन स्टूपिड। लेकिन ये मिजाजपुर्सी मुझे पका
रही है। यार अमान, बन्द करवाओ प्लीज ये सब। पाँच दिन हो गए इस मेलोड्रामा
में, अब नहीं झेला जाता। कल से मैं हॉस्पिटल जाऊँगी।“
“तो जाओ न, किसने रोका है, लेकिन उसके लिए अपनी ददिया से इजाजत ले लो।
अम्मीजान तो समझ जाएँगी, बट डियर ग्रेट ग्रेनी.......। वो तो मुझे भी
तुम्हारे पास नहीं फटकने देती।“
“मैं ददिया को समझा लूँगी, दरअसल अम्मी के इन्तकाल के बाद उन्होंने ही पाला
है इसलिए....।“
जन्म के साथ ही माँ के आँचल से महरूम राबिया ददिया के कलेजे का टुकड़ा है और
राबिया के लिए ददिया ‘रोलमॉडल‘। “जब तुम्हारे दादाजान का इन्तकाल हुआ,
तुम्हारे अब्बा फकत एक बरस के थे। हमारा खुदा जानता है कि रूप और रूपए के
भूखे नादीदों की भीड़ में कितनी जद्दोजहद की है हमने अपने और अपने हक का
बचाए रखने के लिए। तुम्हारे अब्बा को जमींदारी और खानदानी बागान सम्भालने
से कोई लगाव नहीं था, हमने सबको साफ कह दिया कि हम हैं ये सब करने को,
हमारे साहबजादे वकालत ही पढ़ेंगे। और आपके अब्बा ने कर भी दिखाया।“ ददिया
खुद की तारीफ कभी नहीं करती, लेकिन राबिया के जेहन में बचपन की कई तस्वीरें
अब तक हैं। अपने हौसले और दम से कारोबार चलाती, मुनीम और कारिन्दों से फसल
की आमदनी का हिसाब लेती, उँगलियों के पोरों से केलकुटर का काम लेती, अपनी
जमीन के जर्रे-जर्रे की जानकारी रखती, लालची रिष्तेदारों की लगाम कस कर
रखती मर्दाने तेवर वाली ददिया।
एक औरत के रूप में बेहद नर्मदिल, खुदापरस्त, अदबो अदीब की समझ रखने वाली
ददिया जहाँ भी गलत होता देखतीं, शेरनी की तरह तनकर खड़ी हो जाती। राबिया को
याद है निकहत फूफी और शाहिद फूफू के इष्क पर घर में कितनी हाय-तोबा मची थी,
लेकिन ददिया निकहत फूफी के साथ खड़ी रहीं और निकाह करवा कर मानीं थी। राबिया
के डॉक्टरी पढ़ने पर ही घर में खुसफुस थी, स्कॉलरषिप पर अमरीका जाकर एम.एस.
करने की बात पर तो घर में छोटा-मोटा तूफान ही बरपा हो गया था। यहाँ तक कि
अब्बूजान भी आजिज आ गए थे - जाने दीजिए अम्मी, क्यों खामख्वाह झमेला बढ़े।
राबिया यहाँ से भी तो पढ़ाई कर सकती है।“
“नहीं जावेद, हमारी रब्बो को हर वो काम करने का हक है जो वो चाहती है।
निकाह के लिए अभी उम्र पड़ी है, रब्बो ने इतना बड़ा इम्तहान पास किया है उनका
हक बनता है कि वो वजीफे पर बिलायत पढ़ने जाए।“ ददिया ने साफ कहा और कर भी
दिखाया था। राबिया की साँस की आवाज पढ़ सकती है वा,े और राबिया में आज भी
उनकी हुक्म उदुली की हिम्मत नहीं है। इसलिए राबिया सुबह से ददिया को यकीन
दिलाने में लगी है कि अब वो ठीक हो गई।
लेकिन ददिया हैं कि मानने को तैयार ही नहीं हो रहीं। “मैं कहाँ कुछ कह रही
हँू रब्बो, पर तुम कुछ बताती क्यों नहीं?” ददिया की आँखें टटोलती नहीं,
भेदती हैं। “क्या ददिया, क्या पूछना चाहती हैं आप, क्या बताऊँ मैं?” ददिया
के आगे राबिया की पलकें पहली बार झुकी हैं, पर दादी की बूढ़ी हथेलियों ने
राबिया के चेहरे को इस तरह थाम रखा है कि वो चाहकर भी खुद को नहीं छुपा रही
है। “बता रब्बो, क्या इष्क हो गया है तुझे किसी से?”
“ददिया, ये क्या कह रही हैं आप? कोई सुन लेगा, अम्मी,अमान, नौकर-चाकर कितने
लोग हैं घर में।” राबिया के जिस्म में बर्क-सी दौड़ गई।
“कोई नहीं है तभी पूछ रही हmू। बता रब्बो, कौन
है वो? बोल दे मेरी बच्ची, यूँ अपने को मार के तू हम सबको मार रही है।”
राबिया ने ददिया को गौर से देखा, वो ऐसे बोल रही हैं मानो रात के खाने के
लिए उसकी पसन्द पूछ रही हों। सहज, निषंक, दोस्त निगाहें।
“ददिया, मैं कुछ नहीं जानती। मुझे कुछ नहीं मालूम ये कैसे हो गया, पर मैंने
कुछ नहीं किया ददिया, मैंने सचमुच कुछ नहीं किया आप मेरा भरोसा करती हैं न
ददिया? मैं बेवफा नहीं हँू फिर भी अमान से शर्मसार हँू। बहुत बुरी हँू
मैं।” अब राबिया की रूह पूरी तरह बेपरदा होकर दादी की गोद में सिर रखे सिसक
रही है, इतनी शफ्फाक कि ददिया की झोली जगमगाने लगी।
“जानती हूँ मेरी बच्ची, तू बेगुनाह है। इष्क करना गुनाह नहीं है मेरी चाँद,
ये वो खुदाई नेमत है जिस देना-पाना हमारे बस में भी नहीं है।” ददिया अपने
बोसीदा सरापे में कितनी शाइस्ता लग रही है और कितनी सुलझी हुई। क्या कोई
आधुनिक पढ़ा-लिख बन्दा भी जिन्दगी की इस गुत्थी पर इतनी साफदिली, इस बेबाकी
से बात कर सकता है। “हम सब के साथ कभी न कभी ऐसा हो जाता है। अरे, इंसान का
दिल ही तो है, पत्थर तो नहीं कि पिघले ही नहीं। इसके लिए खुद पर लानत भेजना
वाजिब भी नहीं, लानत देना है तो सातवें आसमान पर बैठकर हुक्म चला रहे उस
बाजीगर को दे जिसके हाथ में हम सब की डोरियाँ हैं। वो ही ये दिल बनाता है
और उसमें दर्द भी रख देता है। ले उठकर पानी पी, जरा ताजा दम हो ले।” ददिया
ने सिरहाने रखे मसनद के सहारे राबिया को सीधा कर दिया। राबिया अब अपने आपे
में है।
”हाँ, अब बता।“
”नहीं जानती ददिया, वो कौन है ये तक नहीं जानती।“ राबिया की आँखों से मोती
टूट-टूटकर ददिया के दामन में जज्ब हो रहे हैं।
”क्या???“
”ये सच है ददिया। वो कौन है, उसका नाम-ठिकाना क्या है मैं कुछ नहीं जानती।
अस्पताल में लाषिनाख्ती मरीज के रूप में लाया गया था, कोमा में। दो महीनों
से उसी हालत में पड़ा है।“
”रब्बा, अरी बावली हुई है क्या लौंडिया?“ ददिया की आँखों के आगे तारे
तिरमिरा उठे- ”ये क्या बेहूदगी है?“ ” जानती हूँ ददिया, ये बेहूदगी ही नहीं
बेइमानी है, कुफ्र है, पर कहा ना मैं अपने आप में नहीं हूँ। जब से उसे देखा
है उसकी आँखों के सिवा कुछ नजर नहीं आता । अल्लाह गवाह है, एनी, अमान, आप,
सब मुझे जान से प्यारे भी हैं पर वो तो मेरी जान का दुष्मन ही बन गया है।
अस्पताल में रहती हूँ तो बस उसी को देखते रहना चाहती हूँ। मस्जिद से अजान
की आवाज आती है तो दिल करता है उसके पलंग के पास जाकर नमाज अदा करूँ और पाक
आयतें उसके कान में फूँकू! मैं क्या करूँ ददिया?“ राबिया की आवाज दर्द की
सीमा पर है- ”और तौबा, कि मुझे एहसासे बेवफाई भी नहीं होता।“
ददिया राबिया की पीठ पर हाथ धरे चुप बैठी रहीं। इतनी देर तक, इतनी खामोष कि
राबिया को भी डर लगने लगा। उसने आँसू समेटे, खुद को समेटा और हिम्मत जुटा
कर कहा- ”आप ठीक तो हैं ददिया? बोलो ददिया, बोलो। चाहे तो मुझे कोस लो, पीट
लो, पर ऐसे चुप मत रहो। मुझे बहुत डर लग रहा है, कुछ तो कहो ददिया।“
”फिक्र न करो, मैं ठीक हूँ तुम आराम करो, अमान की अम्मीजान भी आती ही
होंगी।” दादी ठहरे पानियों की तरह शान्त और गहरी आवाज में बोलो।
अगले रोज अल सुबह ही ददिया ने मुनादी कर दी कि वैसे रब्बो बिटिया अब
बिल्कुल ठीक हैं, अकेली भी जा सकती हैं, पर एहतियातन आज वो उसे पहुँचाकर
आएँगी। अमान और अम्मी चुपके-चुपके राबिया को छेड़कर बात का लुत्फ उठा रहे
हैं पर जाहिराना सभी संजीदा हैं।
ददिया, डॉ. राबिया सिद्दीकी की ग्र्र्रेंड मॉम उसके साथ अस्पताल में आई
हैं, अपनी पोती की सेहत के सदके मजूलमों और ख्वाहिषमंदों को जकात बाँटने।
ऊँचा कद, मजबूत देह, पुरअसर शख्सियत वाली ददिया। डॉ. राबिया उनके साथ आई
जरूर लेकिन वहाँ जाते ही ददिया ने फरमान सुना दिया-हमें सारे मरीजों से
मिलना है, देर लगेगी। आप हमारे लिए अपने काम का हर्जा न करें।“
राबिया अब डॉ. राबिया है और ददिया के साथ एक नर्स को तैनात कर अपने काम में
मषगूल हो गई है। हर मरीज की हमदर्द बनकर दिल से दुआएँ देती ददिया कोई वार्ड
नहीं छोड़ना चाहतीं। ”इस कमरे में जाकर क्या करेंगी मैडम? यहाँ के पेषेन्ट
तो कोमा में हैं।“ नर्स ने आखिरी वार्ड में जाती ददिया को टोका। ”कोई बात
नहीं बेटा। वो बेहोष हैं तो क्या, मैं तो होष में हूँ ना। सबके लिए दुआएँ
करूँगी। अल्लाह शायद किसी के लिए सुन लें।“ ददिया की आवाज में शान्ति और
भरोसा है।
वार्ड के चारों कोनों में चार पलंग, जिन पर बेजान से जिस्म बिछे हैं। तीन
जिस्मों के नजदीक उनके रखवाले बैठे हैं। जिनके चेहरों पर दुःख और नाउम्मीद
इन्तजार उकताहट के रूप में पसरा है। एक बिस्तर है जिसके नजदीक कोई नहीं है।
बिल्कुल अकेला, हाथ-पैर में धँसी सुइयाँ, अधखुली आँखें। ददिया का कलेजा
मुँह को आने लगा, यही हैं वो। खुद को सम्भालते हुए ददिया धीरे-धीरे उसके
नजदीक आ गई और ऐसी नजरों से देखा जैसे वो अजनबी नहीं, उनकी रब्बों वहाँ पड़ी
है। लगभग पैंतीस साला आदमी, सामान्य कद-काठी, हिन्दुस्तानी नहीं लगता है,
शायद फिरंगी है। दूधिया सफेद रंग, लकड़ी के बुरादे जैसे हल्के रंग के बाल और
अधखुली पलकों से झाँकती आँखें, जो रंग और गहराई दोनों में झील की याद दिला
देती हैं। ददिया ने नर्मी से उसकी पेषानी पर हाथ रखा, जिस्म गर्म है इसलिए
जिन्दा होने की सनद है वरना और किसी तरह की हलचल उस जिस्म में नहीं है।
अचानक उन आँखों में एक हलचल सी हुई, ददिया ने देखा राबिया उनके पीछे आ खड़ी
हुई है जिसे देखते ही उस ठहरी हुई झील में जिन्दगी की लहरें उमड़ पड़ी है।
डॉ. राबिया हरचन्द कोषिष में है कि राबिया ये सब न देखे लेकिन झील में
उफनते उस ज्वार में राबिया से गहरे कौन डूब सकता है। ‘तुझपे उट्ठी है वो
खोई हुई साहिर आँखें, तुझ को मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने?‘ फिर फैज
याद आने लगे। राबिया पर एक जादू सा तारी होने लगा, एक ज्वार उसकी आँखों में
भी पसार लेने लगा।
”कैसे हैं आप?“ डॉ. राबिया ने तेजी से राबिया को पीछे धकेल दिया। उसके
बर्ताव में एक दूरी और डॉक्टरों वाला ठण्डा तकल्लुफ है लेकिन उन बेहोष
आँखांें ने वो देख लिया है जो होषमन्द डॉ. राबिया छुपा गई थी। टकटकी बँधी
आँखें उस पर टिकी हैं।
”मैडम, आप जब तक लीव पर थीं पेषेन्ट ने रिस्पॉण्ड नहीं किया आज कितने दिन
बाद आपको देखकर रिस्पांस दिया है।“ नर्स रिपोर्ट दे रही है। ”हूँ ऽऽऽ“ डॉ.
राबिया नर्स की बात से बेअसर सी मरीज के कागजात वगैरह देखती रही, उसकी
हेल्थ के बारे में रेजिडेंट डॉक्टरों से डिसक्षन करती रही। इस दौरान
दादीजान वार्ड के बाकी मरीजों के पास जाकर उनकी सेहत के लिए दुआ कर आई।
उनके अपनों को दिलासा दे आई।
”अब आप घर चलें दादीजान, हमने ड्राइवर को बुलवा लिया है।“ डॉ. राबिया
सिद्दीकी दुनियादारी के व्यवहार में अदबो आदाब का पूरा ख्याल रखती है।
”नहीं बेटे, आप इतमीनान से अपना काम निपटाइये। हमारी फिक्र न करें, हम जरा
इन जनाब के पास बैठेंगे, अकेले रहते-रहते यह भी उकता गये होंगे न। आप जब
काम से फारिग हो जाएँ तो हमें बुला लें, ठीक है?“ ददिया तसल्ली से पलंग के
सिरहाने की ओर रखी तिपाई पर जम गई हैं। नर्स को भी उन्होंने बजिद अपने काम
पर भेज दिया है।
”बेटा, मैं रब्बो की ददिया हूँ, तुम्हारी डॉ. राबिया की दादीजान। जानते हो
न मेरी राबिया को।“ ददिया ने उन बेहिस हाथों को इस नर्मी से थामा हुआ है
मानो अभी-अभी पैदा हुए अपने कोख जाए को थामा हो, पर उन हाथों में एक हल्की
सी गरमी के अलावा कुछ नहीं है। कुछ देर पहले जो आँखें जिन्दगी की नमी से
पिघल रही थीं, राबिया के जाते ही फिर से पत्थरा गई हैं।
ददिया ने एक लम्हा उन आँखों में झाँका फिर उससे बातें करने लगी। बेहद
हल्की-मुलायम आवाज में, धीरे-धीरे, जैसे कुरआन की आयतें फूँक रही हो-
”बेटा, मैं नहीं जानती तुम कौन हो, तुम्हारी दुनियावी हैसियत क्या हैं, मैं
क्या, यहाँ कोई नहीं जानता। लेकिन खुदा जानता है और मैं भी जानती हूँ कि
तुम्हारी और राबिया की रूहें एक-दूसरे को सदा-सदा से जानती हैं। नहीं जानती
खुदाबंद ने अच्छा किया या बुरा, लेकिन ये सच है। तुम्हारी आँखों में उसके
लिए जो है वो भी मैंने देखा है। और राबिया, इष्क हो गया है उसे तुमसे।
तुम्हारी इन नूरानी निगाहों ने उसे मजाजी रवायतों से उठाकर हकीकी मरहले पर
पहुँचा दिया है। और खुदा गवाह हैं मैंने इसका जरा भी बुरा नहीं माना। खुदा
की बख्शी हुई इस नियामत पर नाराज होने का हक किसी बन्दे को नहीं उसका ये
तबर्रूक कहाँ हर किसी को मिलता है, तुम दोनों तकदीर वाले हो जो तुम्हें ये
नियाज मिली है।“
उस पल में ददिया की उम्ररसीदाँ आँखों मे एहसास का वो समन्दर था जो उन्हें
दुनिया की हसीनतर आँखों से भी हसीन बना रहा था। उनकी नर्म आवाज इस एहसास की
नमी से तर होकर बेहद नर्म हो उठी थी। उस पल मे वे आँखें किसी को नहीं देख
रही थीं, सामने लेटे उस खामोष सरापे की आँखों में डूबी, खुद में उसको समाए।
उस पाक लम्हे में सारी कायनात में अगर कुछ था तो वो दो जोड़ा आँखें एक जोड़ा
बोसीदा आँखें, जो सच्ची दुआओं सी पाकीजा है और एक जोड़ा नीम बेखुद आँखें, जो
मानो खुदा के बारगाह पर सजदा ब सर होके दो जानूँ हुई ठहर गई हों, बिना किसी
हरकत के। इस लम्हे ने शायद फरिष्तों को भी दीदातर कर दिया हो पर उन आँखों
का तार नहीं टूटा। ”मेरे बच्चे, मेरी बात ध्यान से सुनो“ दादी की आवाज कलमा
सा फूँक रही है- ”जिन्दगी और मौत के बीच झूलते कमजोर पुल को तुम पार कर
पाओगे या नहीं, मैं नहीं जानती। राबिया भी नहीं जानती और इसी डर में वो
अपने आपे से छूटती जा रही हैं। इतने बड़े और नामी डॉक्टर इस षिफाखाने मे हैं
पर तुमने मेरी रब्बो पर भरोसा किया ये बहुत बड़ी बात है। दुनिया का सबसे बड़ा
तमगा दे दिया है तुमने मेरी डॉक्टरनी को बहुत भरोसा और एहतराम है इन नजरों
में उसके लिए, इसी भरोसे और एहतराम के दम से तुम जी रहे हो पर वो मर रही
है। उसका मरना इस शर्म से नहीं है कि वो किसी की बीवी है, माँ है, दो
खानदानों की जीनत है, और ये सब करके वो कुछ गलत कर रहीे है। तुम्हारा ये
रिष्ता इतना मुकद्दस है कि गुनाहगारी या बेवफाई का भाव उसे छू भी नहीं
पायेगा। मेरी रब्बो न इतनी कमजोर है और न ही खुदगर्ज कि इस सबसे बिखरने
लगे। उसे जो बात खाए जा रही हैं वो डर है।” ददिया की आँखों की नमी उनकी
जुबाँ पर उतर आई-”उसे डर है कि वो इन आँखों को नहीं बचा पाई तो क्या होगा।
इन आँखों ने उसे इस अनकहे, सारी दुनिया से न्यारे रिष्ते में बाँधकर कायनात
में सबसे ऊँचे मकाम पर बैठे अल्लाह के उस नूरानी जलवे का दीदार कराया है जो
लाखों में किसी को दिखाई देता है। वो डरती है कि ये आँखें मर गई तो वो नूर
मर जाएगा और वो इष्क की गुनाहगार हो जायेगी, उसे डर है कि ये आँखें मर गई
तो ये भरोसा मर जायेगा और वो डॉ. राबिया की गुनाहगार हो जाएगी।” ददिया के
दिल की दीवारें अब भीतरी तूफान को सह नहीं पा रही है, उनकी आँखें छलक उठीं।
और बहुत देर तक ददिया उस अजनबी का हाथ थामे बैठी रहीं, खामोष, उस दरिया की
गहराई में डूबी, अनसुने लफ्जों में आयतें पढ़ती। बहुत देर बाद ददिया धीरे से
झुकीं, पाक इबादत से पाकीजा.... और एकटक देखती उन आँखों की पलको को चूम
लिया, बारी-बारी। उस वक्त ददिया की पलकंे मुँदी थीं, शायद अल्लाह भी इस
लम्हे में डूबकर एक बार को अपनी पलकें झपका बैठा हो। फिर ददिया धीरे से
उठकर बाहर आ गई और राबिया के साथ घर लौट आई। न राबिया ने कुछ पूछा, न ददिया
ने कुछ बताया, सारा दिन खामोषी की एक चादर दोनों के बीच तनी रही।
शाम को डॉ. शैफाली का फोन आया, अस्पताल से- ”बैड नं. चार की हेल्थ में
इम्प्रूवमैंट है, लेकिन आज दिन से ही उसकी आँखें बन्द है।” राबिया ने तब भी
ददिया से कुछ नहीं कहा। रात को, जब एनी भी सो गई, राबिया ददिया के कमरे में
आई और ददिया के घुटने पर सर रखे काफी देर तक रोती रही। जब आँसू भी चुक गए
तो राबिया ने धीरे से कहा-”ददिया, वो आँखें खोल लेगा न?“ दादी की खामोषी
टूटी, उन्होंने भर नजर राबिया को देखा और उसकी पेषानी को चूम लिया-
”इन्षाअल्लाह“ इससे ज्यादा ददिया नहीं बोलीं।
अगले दिन सवेरे से ही ददिया को बुखार था, राबिया जिद कर रही थी कि वो घर पर
ही रूक जाएगी लेकिन ददिया ने तसल्ली दी- ”दवा ले ली है, आराम करूँगी तो ठीक
हो जाऊँगी। फिर अमान की अम्मी भी हैं, तुुम काम का हर्जा न करो, रब्बो।
वहाँ के मरीज मुझसे ज्यादा बीमार हैं, उन्हें मुझसे ज्यादा तुम्हारी जरूरत
है बेटा।“ ददिया ने जो कहा राबिया ने समझा। राबिया खुद भी जाना चाहती है।
दो महीनों से जो आँखें कोमा में भी उसे देखती रहीं वो बन्द हो गईं, कैसे?
’क्या ददिया की किसी बात का असर है, ऐसा क्या कह दिया ददिया ने। कहीं वह
सिंक तो नहीं कर रहा, नहीं, खुदा खैर करे। वैसे भी डॉ. शैफाली ने बताया कि
उसकी सेहत में सुधार है।‘ सारी रात राबिया का दिल इसी उधेड़बुन में जागता
रहा है। रास्ते भर उसके कलेजे में हौल सा पड़ता रहा। वो हरे नूर का ददिया,
जिसे देखती है तो लगता है सिर्फ वही एक हकीकत है बाकी कायनात फकत भरम है,
क्यों परदानषीं हो गया। ’क्यों, क्यों पल-पल ये जिन्दगी नए-नए रंग दिखा रही
है मुझे?‘ एक लम्हे में राबिया काँप उठतीं फिर ख्याल आता हो सकता है मेरी
आवाज सुनकर वो आँखे खोल दे। फिर खुद की नादानी पर हँस पड़ती ‘इन हिज बॉडी
कन्डीषन, ही इज नाट लिसनिंग एनी वन, नीदर ददिया, नॉर मी। ही रिस्पॉण्ड्स
ओनली बाय लुकिंग‘ पर डॉ. राबिया का इल्म यहाँ भी झूठा पड़ जाता है। ” सबको
देखकर कहाँ जागता है उसमें होष, उसकी आँखें सिर्फ तुझे देखकर जागती है
रब्बो। पर आज अगर ना जागी तो..... ? मेरे मालिक, क्या करूँ मैं?“ लेकिन
हॉस्पिटल में पैर धरते ही राबिया ने चोला बदल लिया, अब वो डॉ. राबिया है।
एक-एक मरीज का हाल जानती, सधी आवाज, मजबूत कदम डॉ. राबिया। अन्त में वो
पड़ाव है जहाँ वो बिल्कुल नहीं जाना चाहती या शायद अपनी सारी हयात वहाँ
रूकने के लम्बे में बसर कर लेना चाहती है।
आखिरकार राबिया ने भीतर कदम रखा। कमरे का वो एक कोना जो उसे देखते ही
जिन्दा हो उठता था, आज वह भी बाकी तीनों कोनों की तरह बेजान है। राबिया का
दिल किया झपटकर उसके बेहिस जिस्म को बाँहों में भर ले और झिंझोड़कर कहे-
’उठो, देखों मैं आई हूँ, खुदा के लिए उठो। अजनबी, उठो‘ लेकिन डॉ. राबिया ने
ऐसा कुछ नहीं किया, उसने रेजीडेंट डॉर्क्ट्स से मरीज के हालात जाने, उसके
जिस्म के साथ जुड़ी मषीनों का उतार-चढ़ाव देखा, इस दौरान उसने मरीज से भी
रोजाना के औपचारिक सवाल किए लेकिन उधर से कोई भी हरकत नहीं हुई है। डॉ.
राबिया जाहिराना बिल्कुल सामान्य है लेकिन राबिया को लग रहा है जैसे होष का
दामन उससे छूटा जा रहा है। ये सब उससे नहीं सम्भल पायेगा। ”बुखार तो नहीं
है?“ उसने नर्स से पूछा और जवाब सुने बिना ही उस बेहोष जिस्म की कलाई थाम
ली। वो कलाई जो उसने पहले कभी नहीं थामी थी, थामी भी होगी तो उस तरह नहीं
जैसे आज थामी है। और वह सामान्य सी छुअन राबिया की रूह में बिजली बनकर उतर
गई जिसकी आँच से राबिया का सरापा थर्रा उठा। और..... और वो हुआ जो सिर्फ इन
लम्हात में ही हो सकता था, न होता तो शायद अनहोनी होता। राबिया की हथेली
में दबी कलाई लरज उठी, उसकी उँगलियाँ काँपी, एक छोटे, नामालूम से वक्फे के
लिए। इतनी देर में शायद एक साँस भी पूरी न हो या जिसमें अल्लाह ने रोजे
कयामत की तारीख लिखी हो। और उस लम्हे में एक अजनबी की रूह ने दूसरे अजनबी
की रूह से जो कहा, किसी ने नहीं सुना, वो लफ्ज, वो जुबाँ किसी और के लिए
बनी ही नहीं थी। राबिया ने आहिस्ता से कलाई बिस्तर पर रख दी, उसकी उँगलियाँ
अभी तक दहक रही थीं मानो जिस रूह के दरिया से वो नहाकर निकती है, उसमें आग
बहती हो।
उसके बाद राबिया से वहाँ नहीं रूका गया, वो घर लौट आई। घर आई तो देखा ददिया
का जिस्म तेज बुखार से तप रहा है गोया जिस आग के दरिया से उनकी रब्बो गुजर
के आई है, उसमें वह भी नहा आई हों। अगले दिन भी ददिया बुखार में तपती रहीं
और उनकी जिद पर अमान-राबिया को वैसी ही हालत में उन्हें घर ले जाना पड़ा। इस
सब में लगभग एक हफ्ता गुजर गया। राबिया सारा दिन ददिया की खिदमत में रहती,
कभी रब्बो बनकर और कभी डॉ. राबिया बनकर। रात को जब कुछ लम्हे उसके अपने
होते राबिया उन आँखों के लिए तड़प उठती और डॉ. राबिया का मुखौटा पहनकर डॉ.
शैफाली से मरीजों के हालचाल पूछती। तीसरे दिन डॉ. शैफाली ने बताया- ”बैड
नं. चार की हालत तेजी से सुधर रही है।“
अगले दिन शैफाली ने बताया- ”बैड नं. चार कोमा से बाहर आ गया है पर आँखें
नहीं खोल रहा।“ फिर एक दिन- ’बैड नं. चार के अपने उसे लेने आ गए है। वो
अपने देष चला गया है, वो पुर्तगाली है। और हाँ, वो एक लिफाफा भी छोड़कर गया
है, तुम थी नहीं सो इषारों में समझाया कि तुम्हारे लिए है।‘ कोमा पेषेन्ट
का ब्रेन टेक्नीकली अनकांषस होता है ऐसे में किसी पर्टिकुलर परसन के लिए
रिस्पॉण्ड करना और रिकवर होने के बाद उसे याद रखना, अमेजिंग। तुम्हें क्या
लगता है राबिया? ये भी हो सकता है कि वो कोमा की इंटेंस स्टेज में न हो। जो
भी हो इट्स मिरेकलस बट ट्रूथ।” डॉ. शैफाली और भी बहुत कुछ कहती रही पर
राबिया से हूँ-हाँ के सिवा कुछ नहीं कहा गया।
राबिया की आँखों से दुःख की गंगा बह रही है या सुख की जमना, ये राबिया भी
नहीं जानती। बस ददिया को सब कुछ बता के उनके सीने से लगी रोती रही। ददिया
ने कुछ नहीं कहा, बस उसके सर पर हाथ फेरती रहीं, राबिया का दिल हल्का होने
तक रोने दिया। अब ददिया की सेहत दुरूस्त है। एनी-अमान अकेले हैं, काम का भी
हर्जा हो रहा है, राबिया रात को ही घर लौट गई। दादी ने एक बार भी नहीं
रोका।
अगले रोज, डॉ. राबिया हमेषा की तरह अपने काम में लगी रही। हाँ, कोमा वार्ड
की तरफ वह नहीं गई। घर लौटने के समय रिसेप्षनिस्ट ने उसे वो लिफाफा पकड़ाया
जो उसके लिए था। डॉ. राबिया ने सधे हाथों से लिफाफा थामा और थैंक्स कह के
बाहर निकल गई। कार पार्किंग में जाते हुए डॉ. राबिया पूरी तरह सामान्य है,
लेकिन काले शीषों से ढकी कार में बैठते ही रब्बो डॉ. राबिया पर हावी हो गई।
हाथ मे पकड़े लिफाफे को आँखो से लगाए राबिया के अब तक जब्त आँसू बेकाबू हो
गए। वो जाने कितनी देर ऐसे ही बैठी रही। जजबात के अब्र बरस-बरस कर लिफाफे
में जज्ब होते रहे गोया स्वाति नक्षत्र में बरसती कई बूँदें एक ही सीपी में
इकट्ठा हो रहीं हो। जब जज्बात के उमड़े बादल पूरी तरह बरस चुके और राबिया का
मन हल्का, साफ-षफ्फाक हो गया तो राबिया ने हाथ में पकड़े लिफाफे को नई नजर
से देखा और काँपते हाथों से खोलकर उसमें तह करके रखे कागज को होले से छुआ।
वही लम्स, वही हल्की आँच उसे कागज में भी महसूस हुई, उसे लगा वही कलाई फिर
से उसकी मुट्ठी में आ गई है। और राबिया ने बहुत नर्मी से वो कागज बाहर खींच
लिया जैसे लम्बी बेहोषी से अभी-अभी बाहर आए अजनबी को पहली बार खड़ा कर रही
हो।
कागज सादा था और..... एकदम कोरा। किसी स्याही के कलंक से बेदाग, किसी हर्फ
की छुअन तक से अछुता। राबिया के आँसू उसमें गिरे जरूर थे पर वो भी उसमें
जज्ब हो गए थे। बिना कोई निषान छोड़े, बस एक हल्की सी नमी रह गई थी अपना
वजूद उस कागज की पाकीजगी में खोकर। राबिया ने खत को चूमकर अपने सीने से लगा
लिया। कुछ देर ऐसे ही बैठी रही फिर शान्त भाव से गाड़ी निकाल ली, खत उसकी
गोद में रखा है।
राबिया ने जहाँ लाकर गाड़ी खड़ी की है, वह गोमती नदी के किनारे एक दरगाह है।
दरगाह के भीतर बड़े से खुले सहन के बीचों-बीच एक मजार है। मजार के ऊपर और
ईर्द-गिर्द सैकड़ो चिट्ठियाँ पोस्टकार्ड, लिफाफों, अन्तर्देषीय, एयरमेल और
सादा कागज पर लिखी खुली पाती की शक्ल में रखी हैं। ये चिट्ठी शाह बाबा की
दरगाह है। बहुत मान्यता है उनकी, कहते हैं उनके आस्ताने पर मत्था टेक कर जो
भी अपनी मन्नत चिट्ठी के रूप में रख आता है उसकी ख्वाहिष जरूर पूरी होती
है। राबिया आज पहली दफा यहाँ आई है। सर पर आँचल रखे अकीदत से सजदा करती
राबिया का चेहरा उसके मन की तरह शान्त है। ”या अल्लाह, उसकी कोई मुराद हो
तो पूरी कर देना। बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” राबिया होंठो में बुदबुदाई,
लिफाफे को आहिस्ता से मजार पर रखा, एक बार फिर इबादत में सर झुकाया और बाहर
आ गई।
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डॉ. लक्ष्मी शर्मा
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