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सोलमेट्स
-1-
(एक- हरियाले जंगल की एक शाम, जुगनुओं के साथ साथ दो जोड़ी आँखों की उजास
समेटे)
" मनुष्य को पहले चार हाथ, चार पैर और दो चेहरों वाला बनाया गया था. पर
उसकी शक्ति से डरकर ज़ियूस ने उसे बीच से काट डाला, ताकि वह अपना जीवन अपने
आधे भाग की तलाश में बिता दे.
लाखों में जो भाग्यशाली अपने उस आधे भाग की तलाश में सफल हो जाता है, उसे
ही मिल पाता है अपना सोलमेट, बाक़ी लोग अपना जीवन ऐसे ही बिताने को अभिशप्त
होते हैं. सोलमेट से मिले बिना यह जाना ही नहीं जा सकता कि वे कितने बड़े
अभाव में जी रहे थे...."
निदा अपनी धुन में मगन पढ़े जा रही थी कि खटपट की आवाज़ से ध्यान भटका उसका.
"ये क्या कर रहे हो आभास, परेशानी क्या है तुमको? इतनी रोमांटिक कहानी सुना
रही हूँ ग्रीक मायथोलॉजी की, तुम बिल्कुल नीरस प्राणी हो. मशीनों में उलझे
रहना, कभी किताबों को मत छूना करंट लग जाएगा."
"हाँ मैं हूँ ऐसा ही. सुबह सुबह माताराम से गालियां खाकर आया हूँ कि एक ही
बेटा है, वह भी नालायक निकला, इसके लिये करना पड़ रहा है हरछठ का व्रत
बताओ...."
"तो"
"तो यह कि आज की किच-किच का कोटा पूरा हो गया है, और नहीं झेलने का मूड है
मेरा..."
"तो क्यों परेशान करते हो सबको?"
"मैं किसी को पीले चावल नहीं भेजता परेशान होने को. यहाँ सबने अपने अपने
साँचे बना रखे हैं. आदर्श बेटा ऐसा हो, आदर्श प्रेमी ऐसा हो, आदर्श
विद्यार्थी, रिश्तेदार, नागरिक मतलब फिट नहीं हो रहा, इधर से ठोककर लेवल
में ले आओ, उधर से खींचकर लम्बा कर दो, ऊपर से चपटा कर दो नीचे से दो
बिलांग छोटा कर दो. आदर्श चाहिये ही क्यों सबको? जो साँचा तोड़ दे वह ख़तरनाक़
है सोसाइटी के लिये."
"मैंने तो नहीं साँचे में ढालना चाहा तुमको कभी."
"तो ढलो भी मत मेरे साँचे में.जैसी हो वैसी ही रहो."
"फिर कहानी सुनो मेरी...."
"क्या सुनूँ? प्रेम, सोलमेट, वह भी उस ज़ियूस से, जो ख़ुद देवता होने के
अंधकार में डूबा कंसेंट और परमिशन का कॉन्सेप्ट बिसराए रहा हमेशा, जिस पर
रीझ गया उस पर आधिपत्य जमा लिया बस, या उसकी सायको पत्नी हेरा से, जो
ईर्ष्या की अगन में जलती रही, पति पर वश न चला तो उसके लव इंट्रेस्ट्स को
जानवरों में बदलती गयी या क्रूरता से मारती गयी, ये ग्रीक मायथोलॉजी हमें
प्रेम सिखाएगी. हुह. तुमको क्या लगता है तुम अधूरी पैदा हुई हो, या मैं या
कोई और? क्या कमी है हममें? क्यों किसी और पर निर्भर होना है पूरा होने को.
जब तक ख़ुद को कम्प्लीट नहीं मानोगी, सोलमेट कैसे तलाश पाओगी...?"
निदा की बड़ी बड़ी आँखें आश्चर्य से फैल गयीं.
"तुम यह सब इतना कैसे कब पढ़ लेते हो? तुम्हें तो कोई दिलचस्पी भी नहीं
किताबों में."
"मजबूरी है, मैं पागलों के कुलदेवता के रूप में अवतरित हुआ हूँ इस धरा पर.
पागल कन्याओं का उद्धार करना मेरा लक्ष्य है. मुझे नहीं मालूम होगा कि
तुमको कब क्या करने का दौरा पड़ता है तो मेरा नाम आभास होने का मतलब क्या
है..."
"कल ख़रीदी हुई किताबें पढ़ने का चार्म ही ख़त्म कर दिया तुमने तो. अब करूँ
क्या इनका."
"अभी मुझे दे दो, मरोगी तो कब्र में पहुँचाता रहूँगा, बोर हो जाओगी नहीं तो
बिन नेटवर्क, बिन किताबें...."
"मैं तो फिर उग आऊँगी उसी मिट्टी से कोई ख़ूबसूरत फूलों वाला पौधा या फलदार
पेड़ बनकर. तुम अपनी सोचो ख़ाक़ हो जाओगे, शायद किसी इलेक्ट्रिकल शवदाहगृह
में. लकड़ियां नहीं ही वेस्ट होने देना है तुम पर."
"मैं फीनिक्स हूँ, राख़ से फिर ज़िंदा हो जाऊंगा. विद इलेक्ट्रिकल पॉवर्स,
मेरी चिंता छोड़ दो, मैं शाश्वत हूँ, नश्वर नहीं. तुम अपनी रिसाइक्लिंग की
फ़िक्र करो. शाम होने वाली है तुम्हारी अम्मी सोचेंगी कोई आसेब या साया बनकर
चिपट न जाओ तुम किसी ग़रीब पर, तुम्हारी असलियत आख़िर को वह भी तो जानती हैं
मेरे अलावा, चुड़ैलों की शहज़ादी."
"हाँ और तुम्हारी अम्मा तुम्हारी. इसीलिये गालियों से आरती करके निकाला है
कुलदीपक को अपने."
"हाँ जानेंगी ही बिल्कुल. इसीलिये तो झरबेरी और महुआ से हरछठ बनाने यहाँ की
धूल खा रहा हूँ, इच्छानुसार सबको तपाना और फिर अपना बना लेना मेरे सुपर
पॉवर्स हैं."
दोनों जल्दी जल्दी अपने रास्तों पर चल पड़े, वाक़ई घर वक़्त पर पहुंचना ज़रूरी
था. रस्मी विदा लेना तो भूल ही गये थे. वह सोचती रही, जानती थी वह रस्मों
में नहीं मानता, पलटकर नहीं देखता, देखे भी तो नहीं जताता और जो उसे आवाज़
देना चाहती थी पर एक झिझक थी जैसे मन में गूँज रहा था-
'शरारतें करे जो ऐसे खोलके हिजाब कैसे नाम से उसे मैं पुकार लूँ......'
- 2 -
(कॉम्पिटिटिव एक्ज़ाम प्रेप की केमिस्ट्री क्लास का एक कराहियत भरा दिन)
"कल हमने राउल्ट्स लॉ पढ़ा था। बताइये क्या एप्लिकेशन है उसकी?"
"सॉल्यूशन में कम्पोनेंट्स का वेपर प्रेशर...."
"दोनों कोरस में बोलने की प्रैक्टिस करके आते हो क्लास में? एक जैसे सवाल
करना है, एक जैसे जवाब देना है। कौन एक्सप्लेन करेगा दोनों में से?"
"तुम कर दो....."
"फिर डुएट, क्या लगा रखा है ये? कोई एक बोलो. पॉज़िटिव एंड निगेटिव डेविएशन
क्या हैं राउल्ट्स लॉ के? बोलो निदा."
"सर आइडियल सॉल्यूशन के लिये है यह लॉ और संसार में आइडियल कुछ भी नहीं. जब
भी सॉल्यूट और सॉल्वेंट के बीच बॉन्ड मज़बूत होगा, निगेटिव डेविएशन शो करेगा
और जब सॉल्यूट और सॉल्वेंट बहुत लूज़ली हेल्ड होंगे, पॉज़िटिव डेविएशन शो
करेगा."
"तुम बहुत टेक्निकल और बोरिंग हो. कपिल तुम सरल शब्दों में व्यख्या करो
ज़रा."
"सर निगेटिव डेविएशन मतलब आभास और निदा. फेविकोल से भी मज़बूत बॉन्ड रहेगा
तो अलग करने में मेहनत ज़्यादा लगेगी न, वेपर प्रेशर बढ़ेगा. पॉज़िटिव डेविएशन
बोले तो लखानी सर और मैम. दोनों ही एक-दूसरे की शक़्ल न देखना चाहें तो अलग
करने में मेहनत की ज़रूरत ही नहीं. सॉल्यूट-सॉल्वेंट खुद ही हाथ और साथ
छुड़ाकर भागना चाहते हैं. और आइडियल सॉल्यूशन मतलब हम और आप सर. दोनों
निर्मोही. न हमें आपसे पढ़ने का मोह, न आपको हमें पढ़ाने का."
"आई शब्बास! बड़े क्रियेटिव हो तुम तो. बैठ जाओ."
(क्लास के बाहर)
"तुम न ख़ुद कुछ बोले, न मुझे बोलने दिया आभास, यह क्या बात हुई? मन था एक
थप्पड़ रसीद करूँ उस कपिल के बच्चे को."
"तुमको क्या लगता है, मैं जबड़ा नहीं तोड़ सकता था उसका? अब बिल्कुल ध्यान से
सुनो निदा और एक बार में समझ लो. मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा. पर जहाँ से तुम
निकलकर आई हो यहाँ तक, वहाँ इस तरह की शोहरत पहुँचने का मतलब है, हमेशा की
क़ैद. मैं नहीं चाहता किसी भी वजह से तुम्हारी पढ़ाई रुके. यहाँ से निकलना है
तो सिलेक्शन ज़रूरी है तुम्हारा. कपिल ने कह दिया, बाक़ी सब गॉसिप करते हैं,
उसकी ग़लती नहीं, मेरी है. नहीं रोक पाता नज़रों को तुम्हारी तलाश में भटकने
से. न तुम रुक पाती हो मेरे शब्द अपनी ज़ुबान से अदा करने से. सुनो,
तुम्हारा लक्ष्य बहुत बड़ा है. मैं टॉप पर देखना चाहता हूँ तुम्हें, न कि
तुम्हारा विज़न ऑब्सट्रक्ट करना. और सुनो, जो तुम्हारी कल वाली कहानी थी,
मैड्यूसा राक्षसी नहीं थी. स्त्री सशक्तिकरण का प्रतीक थी. अन्याय का
भीषणतम प्रतिशोध लेने वाली स्त्री को समाज राक्षसी ही कहता है. मिथक नहीं
उसमें छिपे प्रतीकों पर ध्यान देना. बहुत-बहुत मज़बूत बनना है तुम्हें, तो
बहुत तपना भी बहुत पड़ेगा. जा रहा हूँ, दुबारा मिलने की इच्छा हो तो आ जाना
वहीं, शिखर पर. ऑन द टॉप ऑफ द वर्ल्ड."
कहीं फ़िज़ा में तैर रहा था-
'न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ दिलनवाज़ी की, न तुम मेरी तरफ़ देखो
ग़लत-अंदाज़ नज़रों से, न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाये, मेरी बातों में न
ज़ाहिर हो, तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से,
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों.....'
- 3-
(जूहू बीच का भीड़ भरा एक सन्डे)
"आक़िब आइसक्रीम न दिलाएं बच्चों को प्लीज़. अभी शुगर कैंडी खाई है. सर्दी
खाँसी हो जाएगी. कभी सुन भी लिया करें. जा रही हूँ मैं, बीमार हो जाएं तो
मेरे पास न लाना फिर."
"एक्ज़ेक्टली. तुम डॉक्टर थोड़े ही हो. माना बहुत बड़ी आर्किटेक्ट बन गयी हो.
बच्चों के मामले में रिस्क नहीं लेना लेकिन. माईसेल्फ डॉक्टर आभास नागर,
पीडियाट्रिशियन. यहीं पास में क्लिनिक है. सेवा का मौक़ा दें. बीमार होने पर
ट्रीटमेंट ही नहीं, बीमारी से बचने के भी तरीक़े बताता हूँ."
"यू सैवेज बीस्ट, कहाँ मर गये थे आठ सालों से, अब अचानक कहाँ से प्रकट हो
गये हो दुष्ट और ये....."
"रे थम जा मैडम जी। लैंग्वेज देख अपनी, कतई मोहल्ले की झगड़ालू काँताबाई लग
रही। इतने सभ्य, सुशील, सरल प्रिंसिपल की पत्नी और इतने हल्के शब्द,
धिक्कार है। तमीज़ न सिखा पाए सरजी ज़रा सा। सिम्प्थी रहेगी मेरी।"
"बकवास हो गयी हो तो फूट भी चुको मुँह से, आज अचानक कैसे...?"
"कहा था न फीनिक्स हूँ मैं। अपनी राख़ से प्रकट हो जाऊंगा। हर दिन की ख़बर थी
तुम्हारी, हर पल की याद। सही रास्ते पर हो, बस पीछे-पीछे मत चलो। परछाई के
अंधेरे में मत घुलो, रौशनी बनकर रास्ता दिखाओ। लिखने का शौक़ है न, पैशन
बनाओ। इंतज़ार रहता है मुझे पढ़ने का। मिलोगी समय निकालकर?"
"नहीं, कल की फ्लाइट है काहिरा की। आख़िर को फीनिक्स की जन्मस्थली जो ठहरी।
मिलेंगे पर जल्द ही। ज़िन्दगी अभी ख़त्म तो नहीं हुई है न। शब्दों में ढूँढ
लेना मेरे अब, नये सिरे से गढ़ना है ख़ुद को और तुमको......."
पास ही रेडियो गुनगुना रहा था-
खोये हम ऐसे, क्या है मिलना, क्या बिछड़ना, नहीं है याद हमको, गुंचे में दिल
के, जब से आये, सिर्फ़ दिल की ज़मीं है याद हमको, इसी सरज़मीं पर हम तो रहेंगे
बनके कली, बनके सबा बाग़े वफ़ा में........"
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4 -
नहीं मालूम, चौदह साल पहले शुरू हुई यह कहानी कितने बाब (अध्याय) जोड़ेगी
अभी ख़ुद में....
आख़िर फीनिक्स ही नहीं हैं, प्रेमी भी जल जाते हैं अपने प्रेम की आँच में,
अपनी राख से पुनः जन्मने को...
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डॉ नाज़िया नईम
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