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शर्मिष्ठा
उपन्यास - अंश
उसके
हृदय का भय उसके समक्ष तांडव कर रहा था. एक ही दिवस में पुत्र और पुत्रवधू
दोनों छिन गये थे. वह दोनों को ही बचा पाने में विफल रही थी|
पुरुषों का यह हस्तिनापुर कोमलमना स्त्रियों के योग्य नहीं. इसी हस्तिनापुर
ने पहले उसका यौवन लिया और अब उसकी पुत्रवधू का जीवन. क्या संसार की कोई
जगह इन पुरुषों ने स्त्रियों के लिए सुरक्षित रख छोड़ी है.
पिता महाराज वृषपर्वा बेटों के जीवन के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने
एकमात्र पुत्री को घोर अपमान के नद में स्वयं धकेल दिया.
प्रेमी ययाति को अपनी सुरक्षा का इतना भय था कि जग को जीत लेने वाला वीर
होने के पश्चात भी उससे जग की दृष्टि में शर्मिष्ठा को अपना नहीं कहा गया.
क्यों? क्योंकि जग के समक्ष शुक्राचार्य को दिया गया देवयानी के प्रति
एकनिष्ठता का वचन भंग होता. उसकी आत्मा और शरीर पर अधिकार करने वाले उस वीर
हेतु वचन की सुरक्षा उसके प्रेम की सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण थी.
आज जिस पुरु को उसने अपना श्राप दिया, उस नवजात पुरु के जीवन की रक्षा कैसे
होगी, यह भी नहीं सोचा था हस्तिनापुर के उस पितृवत नरेश ने.
आज उसे पुरु की माता के साथ कुछ वर्ष बिताने हैं. इन अठारह सालों में एक
बार भी उसके पास जाने की चेष्टा क्यों नहीं की उस धृष्ट ने अथवा यह कि उसने
शर्मिष्ठा से उसका देह प्राप्त कर लिया था, उद्देश्य उतना भर ही था!
और पुरु! पुरु तो उसका अपना बेटा था. उसे उसने अपना कोमल मन दिया था किन्तु
अंततः था वह भी तो पुरुष ही न. जिसे अपनी पुरुषवादी अहम् के समक्ष स्त्री
का दुःख नगण्य दृष्टिगोचर होता है. उसने अपने पिता के समक्ष अपना औदार्य
प्रस्तुत करने से पूर्व एक बार भी नहीं विचारा कि उसकी वह नवविवाहिता जो
उसके विरह में अर्धमृत हो गयी थी, उसका जीवन कैसे व्यतीत होगा?
क्षमा करना पुत्री चित्रलेखा! तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ. मैंने ही तुम्हें
पुरु के लिए चुना था. मुझे ज्ञात होना चाहिए था कि पुरु में आधा रक्त उस
वंश का जिसे अपने पुरुषोचित आडम्बर और धर्म के समक्ष अपना प्रेम भी धूमिल
दृष्टिगोचर होता है.
‘दिशा! मुझे वन लेकर कौन लौटा?
पुरु कहाँ है?’
नेत्र खुले तो सम्मुख दिशा थीं.
‘देवी, आप उठने की चेष्टा मत कीजिये. राजवैध अभी औषधि देकर गये हैं. आप चार
दिवस तक चेतना शून्य रही थीं.’
‘किन्तु मैं कहाँ हूँ? और पुरु कहाँ है’
‘हम हस्तिनापुर में हैं महारानी. युवराज पुरु सकुशल हैं.’
‘युवराज पुरु...? क्या कह रही हो दिशा और मुझे महारानी कह कर क्यों संबोधित
कर रही हो? महारानी देवयानी कहाँ हैं?’
‘देवी आप शैय्या पर रहिये. मैं सब बताती हूँ. आप के हस्तिनापुर की ओर
प्रस्थान करते ही मैं और कच देव भी यहाँ के लिए प्रस्थान कर चुके थे.
आपकी चेतनाशून्यता की अवस्था में कचदेव यहाँ पधारे. उन्होंने गुरु
शुक्राचार्य से प्राप्त विद्या की सहायता से युवराज पुरु के ऊपर से श्राप
का कोप समाप्त कर दिया. अब महाराज अपनी वयस के अनुसार अपनी अवस्था में हैं
और पुरु पूर्ववत हो गये हैं. कचदेव के आगमन की सूचना प्राप्त करते ही
महारानी देवयानी यहाँ से गुरु शुक्राचार्य के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गयी
थीं.
एक शुभसन्देश है!’
‘क्या?’ अनमनेपन से शर्मिष्ठा ने पूछा!
‘महाराज ने महारानी देवयानी के सभी पुत्रों से छोटे होने के उपरान्त भी
राजकुमार पुरु को युवराज घोषित किया है. दो दिनों के पश्चात रंग उत्सव में
हमारे पुरु हस्तिनापुर के नये महाराज घोषित होंगे.’
‘चित्रलेखा कहाँ है दिशा!’ शर्मिष्ठा के लिए अब कोई भी सन्देश शुभ सन्देश
नहीं रह गया था.
प्रश्न सुनकर दिशा ने नेत्र झुका लिए थे.
“महाराज ययाति की... क्या हूँ मैं महाराज ययाति की? ब्याहता?
हुह!”
हस्तिनापुर के राजप्रासाद को भली भांति जान लेना इतना आसान नहीं है. तीसेक
साल गुज़ार देने के बाद भी अब भी कई ऐसे कक्ष हैं जिनके बारे में हर कोई
नहीं जानता. ऐसे ही एक कक्ष में शर्मिष्ठा बैठी हुई हैं. पीत आभा वाले
वस्त्र पहने हुए. गहने उतरे हुए हैं. सिन्दूर कभी भाल पर शोभित ही नहीं
हुआ. एक आध चाँदी की धारी लिए हुए घने मेघवर्णी केश अनगढ़ से जूड़े के रूप
में कंधे पर ढलके हुए हैं. शर्मिष्ठा सर झुकाए बैठी हैं. प्रिय सखी दिशा
दरवाज़े पर खड़ी हुई प्रतीक्षा में हैं कि शर्मिष्ठा अब कुछ कहेंगी, तब कुछ
कहेंगी... कितने प्रहर बीत गए होंगे अब तक.
‘महारानी... युवराज पुरु और महाराज आपकी प्रतीक्षा में होंगे’
दिशा ने स्वयं पहल की...
‘मुझे महारानी न कहो दिशा.’
‘मगर महारानी...’
‘फिर महारानी!’ शर्मिष्ठा का स्वर थोड़ा तीक्ष्ण हो गया था.
‘देवी शर्मिष्ठा... युवराज पुरु के राज्याभिषेक का मुहूर्त होने ही वाला
है. आपकी उपस्थिति अनिवार्य है. महाराज और युवराज आपकी राह देख रहे होंगे.’
दिशा ने शर्मिष्ठा के स्वर की तीक्ष्णता को भाँपते हुए अपना संबोधन सुधार
लिया. अंतिम बार उसने इन स्वरों की कठोरता तब सुनी थी जब वन में वह लम्पट
साधू न जाने कहाँ से शर्मिष्ठा की रसोई में घुस आया था और ताखे पर रखे
वस्त्रों को सूंघ रहा था. शर्मिष्ठा के नेत्र जैसे जल रहे हों. उसने एक ही
बार तो उस साधू से निकल जाने को कहा था, पर उन स्वरों में इतना गर्जन था कि
दूर पहाड़ के हिम-शिखर में भी दरार निकल आए होंगे.
‘और चित्रलेखा? वह कहाँ है? उसे कहाँ स्थान दिया है तुम्हारे महाराज और
युवराज ने?’
शर्मिष्ठा ने चेहरा ऊपर उठाया. स्वर भले ही तीक्ष्ण हो, नेत्र जल नहीं रहे
थे, वरन जल-मग्न थे, जैसे सालों की पीड़ा ने द्रव रूप में आँखों में जगह
पाने की कोशिश की हो.
‘देवी, स्वर्गीय राजकुमारी का अस्थि-कलश कल ही गंगा में विसर्जित कर आये
युवराज. उनकी अंत्येष्टि की सारी विधि संपन्न हो चुकी है. पुरोहितों से
मंत्रणा कर ली गयी है. अब कोई भी शुभ-कार्य किया जा सकता है.’
‘पुरोहित... मंत्रणा... जाने यह आडम्बर समाप्त कब होगा? देवयानी का कोई
सन्देश?’
‘उन्होंने राजमाता के नाम शुभकामना सन्देश भिजवाया है.’
‘राजमाता...’
शर्मिष्ठा ने दुहराया.
‘दिशा मैं चित्रलेखा की माता नहीं बन पायी. पुरु की इस माँ ने चित्रलेखा की
माँ को धोखा दिया है.’
‘तुम जानती हो न कि कितनी प्रिय थी वह लड़की मुझे. पुरु की पहली मित्र... ‘
राज्याभिषेक हो चुका है. पुरु अब हस्तिनापुर के नये महाराज हैं. सुनहले केश
वाली चित्रलेखा की अंत्येष्टि राज्याभिषेक में हुए हवन के साथ ही हो गयी
थी. पुत्र-पुत्रवधू की सुखी गृहस्थी - शर्मिष्ठा का एक और स्वप्न क्षार हो
चुका था.
‘देवी, महाराज ययाति पधारे हैं. आपसे भेंट की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं.’
दिशा शर्मिष्ठा से महाराज के आगमन की अनुमति लेने आयी थी.
‘अठारह वर्षों के उपरान्त ययाति उसी कक्ष में होंगे... किन्तु समय ने
परिस्थितियों को कितना बदल दिया है. वर्षों पूर्व इस कक्ष में उनके आगमन की
प्रतीक्षा होती थी. आज उनके हृदय में रोष उत्पन्न हो रहा है.
‘कैसी हैं महारानी?’
‘किसकी महारानी महाराज?’
‘मेरी!’
‘क्षमा महाराज, मैं आपकी ब्याहता नहीं हूँ. मैं केवल आपके पुत्र की माता
हूँ. आपकी महारानी मात्र देवयानी हैं.’
‘आह शर्मिष्ठा! कब तक रुष्ट रहोगी? अब तो देवयानी भी चली गयी... आओ न मेरे
अंक में. इतने वर्षों से तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ.’
‘क्षमा महाराज! आप अपनी प्रेयसी की प्रतीक्षा में हैं. मैं आपकी प्रेयसी
नहीं. मैं वह माता हूँ जिसकी पुत्री ने उसके नेत्रों के सम्मुख अपने प्राण
त्यागे हैं.’
‘चित्रलेखा की मृत्यु का दुःख मुझे भी है शर्मिष्ठा! मैं यह नहीं चाहता
था.’
‘किन्तु महाराज, आपने और आपके पुत्र ने उसके सम्मुख जीवन का कोई मार्ग भी
तो नहीं रखा था...’
‘शर्मिष्ठा, कब तक स्वयं को इस प्रकार उद्वेलित रखोगी? अब तुम्हारे सुख के
दिन हैं, जिसे हमें साथ व्यतीत करना है.’
‘महाराज मेरा जी घुट रहा है इस राजप्रासाद में! मैं अब वनवासिनी हो गयी
हूँ. मुझे आज्ञा दीजिये. मैं अपने वानप्रस्थ में लौटना चाहती हूँ.’
‘ मैंने तुम्हारा पाणिग्रहण किया है. चन्द्र को साक्षी रखकर वचन दिया है कि
तुम्हारा साथी रहूँगा. मैंने अपने अठारह बहुमूल्य वर्ष खो दिए हैं. मैं भी
तुम्हारे साथ वानप्रस्थ में चलना चाहता हूँ. मैं ऋषिवत धर्म निभाने का वचन
देता हूँ.’
( युवा लेखिका अणुशक्ति का यह
उपन्यास वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।)
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