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जद
जाणूंगी नेह
डग भरती गोडावण ने शकुन दिए तो ठाकुर महेन्द्रप्रतापसिंह को लगा यह बारात
प्रस्थान का उचित समय है।
अभी कुछ समय पहले ही उन्होंने गढ़ के प्रथम मंजिल पर स्थित दालान में कुल
देवताओं , पितरों की अभ्यर्थना कर बारात सकुशल पहुंचने की दुआ की थी।
ठकुराइन ने तिलक कर उन्हें मुंह में दही-गुड़ दिया, घुटनों तक लम्बे कोट पर
बंधी मूठ से तलवार ऊंची कर उस पर कुंकुम के छींटे , अक्षत आदि डाले
तत्पश्चात सुंदर परिधानों में सजी स्त्रियों ने मंगल-गीत गाए तो ठाकुर के
चेहरे पर कुल की आन उतर आई। उनकी आंखें कुल- गौरव से चमक उठी। उन्होंने
दालान के झरोखे से, जिस पर नक्काशी का सुंदर कार्य था एवं जिसके नीचे
दीवारों पर सुंदर मांडणे मंडे थे, दूर तक खड़ी कुंवर अभिमन्युसिंह की बारात
को निहारा तो उनकी छाती फूल गई।
ओह , वह कैसी अद्भुत बारात थी। गांववाले खुसर-फुसर कर रहे थे कि ऐसी शानदार
बारात अब तक नहीं देखी। सबसे आगे हाथी जिसकी पीठ पर तीन ओर से खुला चांदी
का खूबूसूरत हौदा लगा था एवं जिसके दोनों ओर नगाड़े बंधे थे। हाथी पर सूंड
से पूंछ तक फूल-पत्तियों वाली सुन्दर चित्रकारी की गई थी। हत्थे के बीचो
बीच महावत जो नगाड़ची भी था एवं जिसके हाथों में नगाडे़ बजाने के दो मोटे
डण्डे थे, सिर पर पचरंगी साफा बांधे फब रहा था। हाथी के पीछे बैलगाड़ी पर
नौपत, फिर बाजे , गोरबंद से लदे-फदे ऊंट जिनके नाक में नकेल एवं कूबड़ के
दोनों ओर पेट तक की गई नक्काशी के नीचे रास्ते का बंदोबस्त एवं सामान लटका
हुआ था लंबे-मोटे दांतों से जाने क्या चबाते हुए मस्ता रहे थे। इसके पीछे
बीस रसाले घोड़े, नृत्य करने वाली कालबेलियां, गीत गाने वाले लंगे,
बारातियों को रिझाने वाली पतुराइनें एवं अंत में सौ से ऊपर बाराती खड़़े थे
, जिनमें से अधिकांश युवक थे जो चौड़ी छाती एवं सुपुष्ट भुजाओं से बाराती कम
सैनिक अधिक लगते थे तथा जिनकी घनी मूंछें ऊपर की ओर उठी हुई थी। कुछ युवकों
के दाढी भी थी जो ठोड़ी के पास दो भागों मे बंटकर ऊपर कानों तक जाती। इन्हीं
युवकों में कइयों ने कानों में चांदी की बालियां, गले में मोतियों के
कण्ठहार एवं हाथों में चांदी के कड़े पहन रखे थे। एक व्यक्ति रुई के फोहों
से सबके कपड़ों पर इत्र लगा रहा था। इन सबके पीछे सफेद सजे-धजे घोड़े पर सवार
मशालचियों से घिरा हुआ कुंवर ऐसा लग रहा था मानो तारों एवं नक्षत्रों को
साथ लिये चन्द्रमा आगे बढ़ने को तत्पर हो। देखते ही देखते वहां कुछ और
मशालची आये एवं सभी बारात के चारों ओर फैल गए।
ठाकुर नीचे आए तो बाराती ही नहीं, गांव वाले भी अदब से खड़े हो गए। कोई
अन्नदाता तो कोई हुकुम-हुकुम कहे जा रहा था। उनका रुतबा ही कुछ ऐसा था। आधा
प्रबंधन तो आंखों से ही कर लेते। लंबाई छः फीट से ऊपर थी। रौबदार आंखें,
चेहरे के तेज से वे साक्षात् राजपुरुष लगते। आज बंद गले का चमचमाता जोधपुरी
कोट जिस पर ऊपर से नीचे तक सोने के गोल , बीच से उभरे हुए बटन लगे थे। नीचे
सफेद चूड़ीदार पायजामा, उसके नीचे कसीदा कढ़ी जूतियां जिनके आगे का नुकीला
हिस्सा पीछे की ओर मुड़ा था, सर पर मारवाड़ी साफा जिस पर कलंगी सहित सोने का
पेच लगा था एवं जिसकी लंबी पूंछ उनके कमर से नीचे तक जाती थी, पहने हुए वे
ऐसे लग रहे थे जैसे सूरज डूबते हुए सारा तेज उन्हीं को दे गया हो। उन्होंने
क्षणभर के लिए घोड़े पर सवार कुंवर की ओर देखा तो उनके चेहरे का ताब और बढ
गया। एक दीपक से जलने वाले दूसरे दीपक की तरह उसका व्यक्तित्व हूबहू पिता
जैसा था हालांकि वह पिता से कुछ अधिक लंबा था। आज मानो समूचे ब्रह्माण्ड का
नूर उसके चेहरे पर आन बसा था। नस-नस से यौवन फड़क रहा था। भीगी मूंछे, भरा
चेहरा तिस पर ऊपर बांधे साफे एवं परम्परागत दूल्हे के परिधान में वह खूब
जंच रहा था।
ठाकुर बारात का मुआयना करते हुए अपने रिश्तेदारो के साथ बारात के आगे तक आए
तो पण्डित रामचरण ने मुहूर्त वांचा........ जेठ शुक्ला चतुर्दशी शक संवत्
1908 अंग्रेजी दिनांक 12 जून 1851 सांझ ढले कुंवर की बारात गांव वीरपुर
हेतु प्रस्थान की जाती है। ठीक उसी समय गोडावण आगे आई तो ठाकुर ने हाथ ऊंचा
कर बारात प्रस्थान का इशारा किया। ठाकुर का इशारा पाते ही हाथी पर बैठे
नगाड़ची ने सिर के ऊपर तक हाथ उठाकर दोनों ओर के नगाड़ों पर चोट की तो उसी के
पीछे बैलगाड़ी पर बैठे नौपत जिनमें दो शहनाईवादक एवं तीन ढोलक बजाने वाले
थे, शहनाई बजाकर बारात प्रस्थान की विधिवत घोषणा कर दी। नौपती के कमान
संभालते ही पीछे खड़े बाजे वाले गाल फुला-फुलाकर ऐसे बजाने लगे मानो ठाकुर
को बताना चाहते हों कि आज आपके कुंवर की ही नहीं, गांव के कुंवर की बारात
प्रस्थान कर रही है। नगाड़े-नौपत एवं बाजों के शोर से सर्वत्र आनंद की लहर
दौड़ गई। लंगे हाथ ऊपर कर खरताल बजाते हुए ... सिरदार बन्ना री जान चढै..
केसरिया है रूप थारो.. आदि गीत गाने लगे। बारात में मारवाड़ी साफा , सुंदर
परिधान पहने बाराती जिनके चेहरे पीढ़ियों की आन से दीप्त थे, ऐसे चल रहे थे
जैसे वे किसी बारात में न होकर रणक्षेत्र में जा रहे हों। इनमें से कुछ
बूढे़ मूंछों पर ताव देकर इधर-उधर खड़े गांव वालों को ऐसे निहार रहे थे जैसे
कह रहे हों उम्र ढल गई तो क्या हमारा नूर आज भी बरकरार है, सूरज सूरज है,
उगता क्या ढलता क्या। बारात आगे बढी तो इसे देखने पूरा गांव उमड़ पड़ा।
वीरपुर यहां से पूरे तीस कोस पर था। इस यात्रा को पूरी करने में चार दिन तो
लगेंगे। ठाकुर ने इसका आकलन पहले ही कर लिया था। सारा बंदोबस्त तदनुसार
किया गया था। पहला पड़ाव फकत चार कोस की दूरी पर था जहां खाने-पीने , रात
ठहरने के लिये तंबुओं की माकूल व्यवस्था थी। पहला दिन या यूं कहें पहली रात
यहीं गुजरनी थी। इलाके के श्रेष्ठ रसोइये बारात के साथ थे। रात चूरमा,
दाल-बाटी खाने के बाद लंगों के गीत, पतुराइनों एवं कालबेलियों के नृत्य
देखकर बाराती भावविभोर हो गए। रेगिस्तान के टीलों से टकराती लंगों की
आवाज... केसरिया बालम आओ नी... भर लाए कलाली दारू दाखां रो एवं अन्य ऐसे ही
लोकगीत सुनकर बाराती ही नहीं , आसपास के लोग भी झूम उठे। चांदनी रात में
दूर धोरों तक गूंजती आवाज ने सबको रोमांचित कर दिया।
रात एक खास तंबू में लेटे कुंवर अभिमन्यु की आंखों में नींद कहां थी। एक
युवक जिसकी आंखों में प्रेम हिलोरें ले रहा हो, चैन से सो भी कैसे सकता है।
जबसे फूफी के घर रूपकंवर को देखा तब से मन अब तक उसी में अटका था। फूफी
रामगढ़ की ठकुराइन थी। फूफेरी बहन की शादी में उसका अनायास रूपकंवर से परिचय
हुआ। वह गढ़ की छत पर खड़ा दूर तक फैले गांव के धोरों , मगरों एवं खेतों को
देख रहा था कि यकायक उसकी फूफेरी बहन हेमा अपनी सखी रूपकंवर के साथ वहां आई
एवं अभिमन्यु से उसका परिचय करवाया। हेमा ने बताया कि रूपकंवर हर कार्य में
पारंगत तो है ही, कविताएं भी लिखती है। अभिमन्यु रूपकंवर को देखकर दंग रह
गया। गोरा भरा चेहरा , नाक में हीरे की लांग, बड़ी-बड़ी आंखें , तीखा नाक ,
ऊंचा कद , लंबे काले केश, लाल होठ, उठा हुआ वक्षस्थल, राजपूती ड्रेस एवं
पांव में पायल पहने वह ऐसे लग रही थी जैसे चांद धरती पर उतर आया हो। तभी
हेमा को किसी ने पुकारा तो उसने अभिमन्यु को कहा, “ मैं थोड़ी देर में आती
हूं , तब तक तुम रूप को गढ़ दिखाओ। "
अब अभिमन्यु एवं रूपकंवर अकेले थे। कुछ क्षण मौन रहने के बाद अभिमन्यु ने
बात छेड़ी , ’’आप किस ठिकाने से हैं ? ’’ उसकी आवाज आत्म-विश्वास से लबरेज
थी।
’’ मैं वीरपुर से हूं एवं मेरे पिता ठाकुर बलदेवसिंहजी के साथ यहां आई हूं।
आप..?’’ यकायक आये इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह सकपका गई।
’’मैं श्यामगढ़ से हूं। हेमा मेरी फूफेरी बहन है। कभी श्यामगढ़ देखा है ?’’
अभिमन्यु ने बात आगे बढ़ाई।
’’नहीं ! वहां के बारे में सुना है।’’ कहते हुए रूपकंवर की गर्दन अकारण
नीचे हो गई।
’’ क्या सुना है ?’’ अभिमन्यु की आंखों में कौतुक उतर आया।
’’सुना है वहां के लोग बात के पक्के होते हैं। मां ने अनेक बार मुझे आपके
गढ़ के किस्से भी सुनाये हैं। तब से इच्छा है कभी श्यामगढ़ जाऊं। आप
दिखाएंगें ?’’ कहते हुए रूपकंवर मुस्कुराई तो उसकी उजली दंतपंक्ति मोतियों
सी चमक उठी।
’’ अवश्य! ’’ अपने गांव की प्रशंसा सुनकर अभिमन्यु की छाती फूल गई। उत्तर
देते हुए अभिमन्यु को लगा मानो रूपकंवर उसी के लिए बनी हो। यह एक पूर्व
संयोग के इस जन्म में पुनः उदय होने जैसा था।
’’कौल करते हो ! ’’ कहते हुए रूपकंवर की आंखें एक ऐसे प्रेम से भर गई जो
अबूझ एवं अलौकिक ही नहीं भवितव्यता का कोई गुप्त संदेश भी अपने भीतर छुपाए
था।
’’पक्का! हम जो कहते हैं, करते हैं। हमारी जान जाती है, आन नहीं। ’’ इस बार
अभिमन्यु ने थोड़ी ऊपर जाती हुई मूंछों पर यूं हाथ रखा मानो रूपकंवर को गांव
की आन से परिचय करवा रहा हो।
’’देखते हैं! यह तो समय ही बताएगा।’’ उत्तर देते हुए रूप की आंखों का रंग
हल्का गुलाबी हो गया। लज्जा ने उसकी सुंदरता एवं मोहकता में चार चांद लगा
दिये।
’’बिल्कुल! आप जब चाहे परख लीजिएगा।’’ कुंवर अभिमन्यु ने उत्तर देते हुए
आंखों के उस मौन संदेश को हृदय में उतार लिया।
तभी वहां कामदार आया एवं रूपकंवर की ओर देखकर बोला , ’’आपको हेमाजी मेहंदी
के लिए बुला रही है।’ रूपकंवर ने आंखों ही आंखों में अभिमन्यु से अनुमति ली
एवं छत से नीचे उतर गई। इस छोटी सी मुलाकात में ही रूप ने उसके मन में डेरा
बना लिया।
दूसरे दिन अभिमन्यु ने हेमा को मन की बात कही, उसने उसके पिता को , उसके
पिता ने अभिमन्यु के पिता को तो आनन फानन वहीं दोनों की सगाई तय हो गई।
सगाई होने के बाद अभिमन्यु श्यामगढ़ लौटा तो सबसे पहले अपने खास वफ़ादार
रणवीरसिंह को यह बात बताई। कुछ समय पश्चात उसने रणवीर के हाथ रूपकंवर को
वीरपुर पत्र भेजा जिसमें लिखा कि यह संबंध मात्र संयोग ही नहीं, उसका एवं
उसके परिवार का सौभाग्य भी है। पत्र में यह भी लिखा कि जबसे उसने रूप को
देखा है वह उसी के रूप-वारिधि में गोते लगा रहा है। रूपकंवर इस पत्र को
प्राप्त कर निहाल हो गई, उसने भी रणवीर के हाथ प्रत्युत्तर भिजवाया कि
अभिमन्यु जैसा जीवनसंगी पाकर वह किस कदर खुश है। वह पल-पल उस घड़ी की
प्रतीक्षा कर रही है जब वह पुनः अभिमन्यु के दर्शन करेगी। पत्र में
अभिमन्यु के पत्र की तरह इत्र एवं केसर के छींटे लगे थे एवं साथ में गुलाब
की कुछ पत्तियां भी थी। अभिमन्यु ने इस पत्र को जितनी बार पढ़ा उतनी ही बार
कलियों को चूमा। चूमते हुए उसका चेहरा प्रेमगंध से ऐसे सराबोर हुआ कि
क्षणभर के लिए आंखें बंद हो गई। ओह! प्रेम की यह भाषा कितनी अनूठी है। जब
प्रेम होता है तो फिर अन्य कुछ भी नहीं होता। प्रेम की इस भाषा को
ज्ञानी-मानी भी आज तक परिभाषित नहीं कर पाए।
तंबू में लेटा अभिमन्यु एक-एक कर इस सारे घटनाक्रम को याद कर रहा था। क्या
मनुष्य के सारे संयोग नियति की डोर से ही बंधे होते हैं ? वह कई देर तक
वहीं पड़े अगड़म-बगड़म सोचता रहा। तत्पश्चात मन नहीं लगा तो बाहर आया।
उसने ऊपर आसमान की ओर देखा। रात तारों जड़ी थी। ऐसे रातें तो उसने अनेक बार
देखी पर वे रातें इतनी स्वप्निल कहां थी। आसमान के तारे आज उसके प्रेम-नूर
से दीप्त थे। इन सबके मध्य उसने आगे बढ़ते हुए चतुर्दशी के चन्द्र को देखा
तो रूपकंवर की याद प्रगाढ़ हो गई। उसके स्मृति-सरोवर में कोई कंकरी गिर गई ।
इस कंकरी के वर्तुलों ने उसे बेचैन कर दिया। वह पुनः भीतर आया। कलम-स्याही
आदि का बंदोबस्त था ही। उसने रूप को पत्र लिखा -
प्रिय रूप,
खम्माघणी ! बारात प्रवास प्रारंभ हो चुका है। अभी-अभी तंबू से बाहर आकर
आसमान के चांद को देखा तो आपकी याद आंखों में तैरने लगी। सचमुच मैं कितना
भाग्यशाली हूं। आपको पाकर अब पूर्णकाम हो गया हूं। आपका रूप , बात करने का
अंदाज , बौद्धिक कौशल आज भी मेरी आंखों में बसा है। अब तो यह आंखें आपके
दर्षन कर ही शांत होंगी। वह कैसी शुभ घड़ी होगी जब वीरपुर पहुंचकर आपके गढ़
के मुख्यद्वार पर तोरण मारूंगा। तब आप भी तो सजी-धजी झरोखे से अपनी सखियों
के संग खड़ी मुझे देख रही होंगी। ओह! आपके अप्रतिम सौन्दर्य का दर्षन कर
कहीं सुध-बुध न भूल जाऊं ?
रूप! बताओ मैं आपके गांव में किस तरह प्रवेश करूं ? गीत गाते लंगों के साथ
आगे बढूं अथवा नृत्य करती, लचकती नर्तकियों के साथ ? ऊंची मूंछों एवं घनी
दाढी वाले बारातियों को आगे रखूं अथवा अपनी अदाओं से लुभाती पतुराइनों को ?
सबसे आगे हाथी , नगाड़ची रखें अथवा रसाले घुड़सवार ? बाजे वाले आगे हो अथवा
सजी-धजी बैलगाड़ी में पचरंगी पगड़ी पहने नौपत-शहनाई वाले ? रूप! हमारे पास हर
प्रकार का बंदोबस्त है , बस आपके प्रत्युत्तर का इंतजार है कि मैं आपको
वरने, आपके गांव के मुख्यद्वार पर कैसे प्रवेश करूं ? मैंने सुना है आपके
गांव का मुख्यद्वार बहुत ऊंचा है जिसके मध्य में कुशल कारीगरों द्वारा गढ़ी
गणपति की एवं उसके चारों ओर विभिन्न प्रकार के नृत्य करती देवांगनाओं की
मनभावन मूर्तियां लगी हैं। मेरी खास इच्छा है वीरपुर में मेरा प्रवेश आपका
मनचीता, एतिहासिक हो।
पुनः तंबू में जाकर आपकी स्मृतियों में ही खोना है। यह आंखें अब आपको देखे
बिना सोने से इन्कार करती हैं।
प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा में ,
अभिमन्युसिंह
अभिमन्यु ने पत्र पर गुलाब की कुछ पत्तियां रखी, उसे समेटा एवं बाहर आकर
चुपके से रणवीर को दे दिया। रणवीर घोड़ी पर चढ़ा, एड देते ही घोड़ी ऐसे दौड़ी
मानो वह श्यामगढ़ की युवरानी को देखने कुंवर से अधिक आतुर हो। अभिमन्यु देर
तक वहीं खड़ा उड़ते गुबारों को देखता रहा। कुछ देर पश्चात टापों की आवाज बंद
हो गई एवं घोड़ी अंधेरे में विलीन हो गई तो अभिमन्यु ने गर्दन ऊंची कर पुनः
तारों जड़े आकाश को देखा, फिर कुछ क्षण पश्चात् भीतर चला आया।
दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के पूर्व बारात पूरे लवाजमे के साथ आगे बढ रही थी।
बाराती कुछ पैदल तो कुछ बैलगाड़ियों में बैठे चुहल कर रहे थे। बैलगाड़ियों
में नागौरी बैल जुते थे जिनके सींगों पर चित्रकारी का सुंदर कार्य था। हर
बैलगाड़ी के आगे पताका लगी थी एवं चारों ओर मोटा लाल कपड़ा बांध कर छाया का
बंदोबस्त किया गया था। पूरी बारात में एक भी औरत नहीं थी। राह में डाकू,
धाड़ायती लूट न ले अतः तब औरतों को बारात में ले जाने का प्रचलन नहीं था। दो
युवकों के हाथों में खुकरी लगी बंदूकें थी एवं वे बारात के ठीक बीच में चल
रहे थे। सभी बाराती सुबह पांच बजे उठकर आनन-फानन तैयार हो जाते। सूर्योदय
तक तो वे तीन कोस नाप लेते। सवेरे का कलेवा कर दो कोस और तथा इतनी ही ढाई
कोसी यात्रा शाम तक कर लेते।
तीसरे दिन भी यही आलम था। बारात सामान्य गति से लगातार आगे बढ रही थी। जेठ
का सूरज अंगारे बरसाता पर बारात का उत्साह उसके तेज से भी दूना था। क्षेत्र
में गत दो वर्ष से लगातार अकाल था। नदी, तालाब , पोखर सब सूखे पड़े थे।
रास्ते में यहां-वहां खेजड़ी के पेड़ सर झुकाये ऐसे खड़े थे जैसे वे भी गांव
वालों की तरह गर्दन झुकाये बारात की अगवानी कर रहे हों। कभी-कभी रास्ते में
फूस की नुकीली झोपड़ियां भी दिख जाती। इन्हीं के इर्द-गिर्द झाड़ियों के
आसपास कभी खरगोश तो कभी मोर आदि पक्षी दिख जाते। एक बार दो चिंकारे चौकड़ी
भरते हुए बारात के आगे से निकल गए। इसके कुछ समय पश्चात् एक छोटी ढाणी
दिखाई दी जहां हिरणों के झुण्ड भी दिखाई दिए। एक बाराती ने बताया कि यहां
के लोग खेजड़ी एवं वन्यजीवों की पूजा करते हैं एवं इनकी स्त्रियां जरूरत पड़े
तो हिरन के बच्चों तक को दूध पिला देती हैं। रास्ते में एक जगह पीला पीवणा
सांप भी दिखा जिसे किसी बाराती ने लाठी से उठाकर दूर फेंक दिया। एक-दो जगह
ठूंठ हुए पेड़ों पर कोयल कूजती हुई भी नजर आई। कुछ गांवों में पक्की मेडियां
तो एकाध जगह ऊंची झरोखेदार हवेलियां भी दिखी। एक बार अंधड़-तूफान भी आता
दिखा पर सौभाग्य से बारात के आधा कोस दांये से निकल गया। एक बाराती ने
बताया कि इसे ’बतूलिया’ कहते हैं, यह मिट्टी के वर्तुल बनाकर आगे बढ़ता है।
हमारा सौभाग्य है कि हम बच गये वरना बारात पुनः समेटना मुश्किल हो जाता।
मरूभूमि का रज कण-कण शौर्य एवं गौरव-गाथाओं से भरा पड़ा है। विश्वास नहीं
होता जहां कुछ नहीं उगता ऐसी रेतीली जमीन शूरवीरों की पैदाइष के लिए इतनी
उपजाऊ कैसे बन गई ? यहां की संस्कृति भी कितनी महान एवं विविधता लिये हुए
है। चप्पा-चप्पा शौर्य, बलिदान से ओत-प्रोत है। यह भूमि शूरवीरों की जननी
है। ठाकुर कत्तई नहीं चाहते थे कि जेठ में कुंवर का ब्याह हो ,पर
राजज्योतिषी ने जब कहा आगे पूरे डेढ़ वर्ष मुहूर्त नहीं है तो ठाकुर को
झुकना पड़ा।
तीसरी रात तक रणवीर नहीं लौटा तो कुंवर बेचैन हो गया। वीरपुर अब मात्र पांच
कोस पर था। रात अभिमन्यु के मन में आषंका तैरने लगी। रणवीर पहुंचा या नहीं
? यह भी हो सकता है सूखे के चलते घोड़ी को दाना-पानी नहीं मिला हो, कहीं रूप
मुझसे नाराज तो नहीं हो गई आदि-आदि अनेक बातें कुंवर के विचार-व्योम पर
वैसे ही उड़ने लगी जैसे गढ़ में दाना डालने पर अनेक पक्षी आकाष में उड़ने लगते
थे। तभी घोड़ी की टापों की आवाज सुनाई दी। अभिमन्यु के चेहरे पर हर्ष की
रेखा फैल गई। रणवीर उसके तंबू की ओर बढ़ रहा था। पास आकर वह घोड़ी से उतरा ,
कुंवर को पत्र दिया तत्पष्चात् घोड़ी को लगाम से खींचकर दूर चला गया।
कुंवर ने फुर्ती से तंबू के भीतर आकर पत्र खोला एवं पढ़कर दंग रह गया। इस
बार पत्र में न गुलाब के पत्ते थे न केसर के छींटे। कुंवर को आशंका हुई,
उसने पत्र पढ़ना प्रारम्भ किया -
प्रिय ,
खम्माघणी हुकुम!
आपका पत्र मिलना मेरे लिये ठीक वैसा ही था जैसे किसी तड़पती मछली को पानी
मिल जाय। पत्र मिलते ही मैं गढ़ की ओर दौड़ी एवं कमरे में आकर पलंग पर लेट
गई। पत्र पढकर तो मुझे नवों निधियां मिल गई। किसी भी स्त्री को पति रूप में
आप जैसा प्रेमिल, दृढ़ पुरुष मिलना उसका परम सौभाग्य है। आपके द्वारा पत्र
के साथ भेजी गई गुलाब की पत्तियों को मैं बहुत देर तक सहलाती रही। इन्हें
छूते हुए लगा जैसे आप मुझे छू रहे हैं। मैं किस तरह बयान करूं कि मैं आपके
दर्शनों हेतु आपसे ज्यादा विकल हूं।
प्रिय! मेरी मां ने मुझे अनेक बार समझाया है कि पति से मन की हर बात, जीवन
की हर समस्या बांटनी चाहिए और मैं स्वयं ऐसा मानती हूं कि यह बात सौ टका सच
है। हुकुम! इन दिनों गढ़-गांव में एक समस्या आ गई है जिसके चलते मेरे पिता
एवं तमाम गांव वाले त्रस्त हैं। गांवभर में इस समस्या के समाधान हेतु
प्रयास चल रहे हैं पर समस्या सुलझ नहीं रही है।
आप जानते हैं मेरे गांव एवं आसपास के क्षेत्रों में गत दो वर्ष से भयानक
अकाल है। अकाल इतना भीषण है कि सारे पोखर-तालाब सूख गए हैं एवं पानी कुओं
में पैंदे तक पहुंच गया है। धरती झुलस रही है। पेड़ फकीरों एवं वैरागियों की
तरह सूखकर ठूंठ हो गए हैं, पशुओं के पिंजर निकल आए हैं।
मेरे पिता ने आप सबकी आवभगत करने, ठहरने , मेहमानवाजी का पूरा बंदोबस्त
किया है पर पानी इतना कम है कि वे सोच में पड़ गए हैं। पानी की कमी के चलते
अन्य सारी व्यवस्था व्यर्थ प्रतीत होती है। उन्हें दिन-रात इसी बात की
चिन्ता सालती है कि समुचित पानी के अभाव में बारातियों की आवभगत कैसे होगी
? हम आपकी मनुहार कैसे कर पाएंगे ? उन्होंने आसपास के गांवों से पानी की
व्यवस्था का प्रयास किया पर वहां स्थितियां हमसे बदतर है। मेरे पिता यही
सोचते अनेक बार सर पकड़कर बैठ जाते हैं। कामदारों , कारिन्दों एवं किसानों
के बुझे चेहरे देखकर उनकी चिंता और बढ़ जाती है।
हुकुम! गांव के ठाकुर होने के नाते आप-हम गांव के राजा हैं। प्रजा दुःखी हो
, तड़प रही हो तो राजा चैन से कैसे बैठ सकता है ? बारात आने में अब मात्र दो
दिन रह गए हैं लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद पानी का बन्दोबस्त नहीं हो
पाया है। इसी के चलते हम सभी उदास हैं। अगर गांववालों को डर दिखाकर पानी की
व्यवस्था की गई तो लोग प्यासे मर जाएंगे। मेरे पिता प्रजारंजक हैं , वे ऐसा
करने की सोच भी नहीं सकते।
हुकुम! इसी समस्या के चलते अत्यन्त विकट अवस्था में मैंने अपना मन आपसे
बांटा है। जहां आत्मिक अंतरगंता हो, वहां हृदय के रहस्य स्वतः खुल जाते
हैं। अब आप ही हमारी लाज के खेवनहार हैं। हुकुम! रूप आज आपसे एक वचन चाहती
है। मुझे उम्मीद है आप अपने प्रेम के खातिर , अपनी रूप की खातिर इसे अवश्य
पूरा करेंगे। मैं जानती हूं आप कौल के पक्के एवं बात के धनी हैं। मैं जो
कुछ कहना चाहती हूं उसे नीचे कविता में लिख रही हूं , निश्चय ही इसे पढ़कर
आप मेरा अभिप्राय समझ जाएंगे। मेरा विनम्र निवेदन है कि आप मेरे गांव में
इसी तरह प्रवेश करें। आप अगर इस तरह पधारें तो मेरे गांव के बुझे चिराग घी
के चिराग बनकर जल उठेंगे-
भीगी पाग पधारज्यो,
जद जाणूंगी नेह,
सबने सुख बरसावता,
सागै लाज्यो मेह,
यूं आवोगे साजणा,
जब तुम मेरे गांव ,
तो रक्खूंगी आपको,
मैं पलकों की छांव।।
पुनः खम्माघणी हुकुम!
आपकी
रूप
कविता समाप्त कर रूप ने उसमें गांव की मिट्टी के कुछ कण, सूखी घास एवं दो
सूखे पत्ते रखे, उन्हें होठों से चूमा एवं पत्र को एक थैली में बंदकर रणवीर
को दे दिया।
अभिमन्यु ने पत्र पढा तो उसका चेहरा गौरव-भाव से दीप्त हो उठा, मुख पर
पीढ़ियों की आन उतर आई। ओह! रूप कितनी महान है, कितनी प्रजावत्सल! इतनी
नाज़-नखरों में पली होने के बावजूद अंतस कपास की तरह उज्ज्वल है। प्रेम के
इन मादक क्षणों में भी वह अपने पिता, गांव एवं गांववालों की व्यथा नहीं
भूली। ऐसी महान स्त्री मेरे घर आकर समूचे गांव को ही नहीं पीढ़ियों को धन्य
कर देगी।
बारात जब गांव से आधा कोस दूर थी तो ठाकुर ने बारात रोककर उसे व्यवस्थित
किया। सांझ होने में दो घण्टे शेष थे। ठीक उसी समय दूल्हा अभिमन्यु घोड़े को
तेज दौड़ाकर बारात के आगे आया एवं सबसे आगे चलते नगाड़ची को बारात रोकने का
इशारा किया। बारात रुकते ही उसने एक पाट मंगवाया, उसे आगे रखा एवं धम्म से
उस पर बैठ गया। बारात से किंचित् नजर चुराकर ठाकुर दौड़े-दौड़े आए, क्या हुआ
बेटा ? बारात क्यों रोक दी ? क्षणभर में ठाकुर के मस्तिष्क में सैंकड़ों
आशंकाएँ कौंध गई।
’’दाता! अब बारात आगे नहीं जायेगी और मैं तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा
जब तक आसमान से बारिष न हो जाये। ’’ अडिग अभिमन्यु ने अपना निर्णय पिता को
सुना दिया।
’’यह तू कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है ? आज आधी रात तुम्हारे फेरों का
मुहूर्त है, क्या बिना मुहूर्त ब्याह करेगा ? कुल की आन का तो ख्याल कर।’’
कहते-कहते आगत अनहोनी को भांपकर ठाकुर गुस्से से कांपने लगे। अब तक अन्य
बाराती भी वहां आ चुके थे।
अभिमन्यु चुप रहा।
कुछ पल पश्चात् उसने वहीं पाट पर बैठे ध्यानस्थ योगी की तरह आंखें मूंद ली।
बारात में कोहराम मच गया।
सूरज डूबा, मुहूर्त बीत गया, रात ढलती रही पर वह टस से मस नहीं हुआ।
दूसरा दिन पौना बीता तो आकाश के देवता भी सहम गए। वे सभी इन्द्र के पास गये
एवं उनसे गुहार की कि यदि आज पानी नहीं बरसा तो संसार में प्रेम की महत्ता
मिट जाएगी। भला ऐसे शासक , वचनभट्ट कहां मिलेंगे जो स्वयं से अधिक लोकहित
के लिए जीते हों ? जिस रूप ने गांव एवं सर्वहारा के लिये ऐसा अनूठा ज़ज़्बा
दिखाया, आप क्या उसे पतिविहीन करेंगे ? आप तो सबके प्राणदाता हैं, आप कुंवर
के प्राण कैसे ले सकते हैं ? कुंवर तो मानने वाला नहीं। वह प्राण छोड़ सकता
है, वचन नहीं।
प्रेम की दिव्यता के आगे आज इन्द्र भी हार गए। उनकी आंखों से आंसुओं की
अजस्र धारा बह निकली। ओह! जिस मिट्टी के लोग इतने ऊंचे, इतने देशभक्त हो,
उस देश में भी क्या कभी मेरा कोप ठहर सकता है ? कदापि नहीं!
देखते-देखते आसमान काले बादलों से भर गया। तेज बिजलियां चमकने लगी। बादल
गरजने लगे। यकायक टप-टप बड़ी बूंदें बरसने लगी। ठाकुर ही नहीं पूरे बाराती
झूम उठे। यह किसी चमत्कार से कम न था।
तभी एक दिव्य शक्ति से स्फूर्त अभिमन्यु पाट से उठा , धीरे-धीरे चलकर घोड़े
तक आया, रकाब में पांव डालकर घोड़े पर बैठा और बारात को आगे बढने का इशारा
किया। बारात तेज गति से बढ़ने लगी।
बाराती वीरपुर पहुंचे तब तक बारिश ने जोर पकड़ लिया।
दूल्हा जब मुख्यद्वार पहुंचा , सभी बाराती ऊपर से नीचे तक भीगे हुए थे।
अभिमन्यु की पगड़ी से पानी चू रहा था।
आज सारा गांव नाच रहा था। सबके चेहरे उल्लास से झूम रहे थे। मुख्यद्वार के
चारों ओर नाचती नृत्यांगनाएं आज जीवंत हो उठी थी। ऊपर विराजे गणपति बप्पा
हर्षविभोर बारात को तकने लगे थे।
घोड़े पर बैठे अभिमन्यु ने वहीं म्यान से तलवार निकाल कर मुख्यद्वार से
लटकता तोरण छुआ तो रूप ने झरोखे से फूल बरसाए। उसके मुंह एवं कपड़ों पर भी
तेज बौछारें आ रही थी। खु़शी का पारावर न था। गांव के उल्लास की प्रतिध्वनि
रूप के हृदय में आ बसी थी। हृदय में प्रेम एवं आनन्द समाता न था। तभी तलवार
हवा में लहरा कर अभिमन्यु ने रूप को देखा मानो कह रहा हो अब तो मानोगी
श्यामगढ़ वाले बात के धनी होते हैं।
रूप के हृदय का उल्लास एवं नेह आंखों में चढ़ गया।
मुस्कुराती रूप ने पलकें झुकाकर उसकी बात को पुष्ट किया।
वह अब भी झरोखों से फूल बरसा रही थी।
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हरिप्रकाश राठी
94141.32483
hariprakashrathi@yahoo.co.in.
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