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अतिए & आशी एण्ड संस

ज मुझे अपनी एक गलती का इकरार करना है। यह गुनाह मैंने दिल के हाथों मजबूर होकर सन् 1999 में किया था। इश्क़ की खुमारी में अपनी मर्जी से निकाह कर लिया था। अब सदमे और बेयक़ीनी के आलम में मेरे जज्बात शर्मिंदा हो रहे हैं। कड़ी धूप का अलाव मेरे अंदर जल रहा है। मैं जो इस गुलिस्तान की तितली थी, रंगों और खुश्बुओं को छोड़कर थोड़ी सी छांव के लिए तरस रही हूं।
मातम के मौसम में,
देखो कितना सुंदर है
तितलियाँ पैदा होती हैं!
मात्सुओ बाशो
जिन्दगी टाइम बम से शुरू होती है और पथरीली की जगह बर्फीली भूमि पर उगे ट्यूलिप के बीच पनाह पाती। जिन लड़कियों के जीवन में ढेरों काश इकट्ठे हो जाते हैं उन्हें जीने का हक़ नहीं दिया जाता, बल्कि हमारा समाज ऐसा है कि उन्हें पछताने और सफ़ाई का मौक़ा दिये बग़ैर ही मौत की सजा फ़रमा देता है।
उसकी नज़र पथरीली हो चुकी थी। दिमाग बुरी तरह शल हो चुका था। उस रात की बात उसके ज़हन का करार लूट रहे थे। लगभग चीखते हुए अपने दोनों हथेलियों से कान को ढँक लेती है मानों बाहर से आने वाली हर बुरी आवाजों से बच जाएगी। बाहरी शोर से मुक्त हो सकते हैं लेकिन दिल-दिमाग में मचे हलचल से निज़ात पाना कहाँ मुमकिन है॰॰॰बेडरूम में खिड़कियों पर टंगे पर्दे बाहर से आने वाली रौशनी को यूँ अपने अन्दर छुपा लेते हैं जैसे स्पंज पानी को अपने अंदर जज़्ब कर लेता है।

वह अक्सर उसके मज़बूत बाजुओं के साये में बेख़ौफ़ रहा करती। उसे कहाँ पता था कि उसका सायबान ही कातिल है। उस हौलनाक रात की चीखें उसके ज़हन को ख़राब करती हैं। बदमज़ा इधर-उधर फिरती थी तो ऐसे प्रतीत होता था जैसे छब्बीस बाई साढ़े नौ फ़िट का बेडरूम बिस्तर सहित हिल रहा है। अर्थक्वेक आने की घोषणा होती है, उसके भीतर भूचाल आने की कभी खबर नहीं होती। वह हमेशा पैराग्लाइडिंग के अंदाज़ में सीधे पंचगनी से बेडरूम के गुदाज़ बदन और मखमली बिस्तर पर होती थी।

मैं तुम्हारे इश्क़ में लैला-मंजनू होकर अपनी जात के जंगल में बेवजह भटक रही हूँ। मुझे मेरे अपने आपकी खबर देने वाली मेरे अंदर की सफेद, नीली, पीली और चटक लाल रंगों की छ पंखों वाली साइक तितली (सुन्दर पंख : बौद्ध और कैथोलिक के कई धार्मिक कैनवास पर देख सकते हैं। ) नहीं दिखाई दे रही है। वह मरणशील लगने लगी है जबकि उसने कहा था कि जब भी तुम किसी बियाबान में फँसोगी, मैं इरोस (इलाज) बनकर प्रकट होऊँगा। शायद वह रात का ख़्वाब रहा होगा। उजाले के साथ विदा हो गया। हक़ीक़त का मंजर मेरी आती - जाती साँसों की कहानियाँ हैं और हर कहानी की शुरूआत मेरी हरकतें हैं। जिन्हें खुद से दूर करते ही प्रत्येक कहानी का द एंड हो जाएगा।

स्कूल के दिनों में इतिहास की किताब में पढ़ा था कि मिश्र की प्राचीन कला की अनूठी कृति मानव आत्मा की अमरता दीवारों पर चित्रित है। मेरे आत्म की दीवार लहूलुहान है। यहाँ अब कौन डेरा डालेगा ? कौन एक्रेलिक पेंटिंग में ताजगी भरेगा ? मन मसोसने लगता। वह दिन कितने आनंदमय थे न जब बेफ़िक्री की आलम में ती-ती-ती खेला करते। काँच की खिड़कियों को तोड़-फोड़, थोपड़ी पीटा करते। अब ऐसा महसूस होता है जैसे मेरे साँसों पर भी पाबंदी है। बेजार मंजर, मख्सूर आलम मन को किस कदर बोझिल बनाते, बयां करते नहीं बन रहा। टूटते वज़ूद के साथ अक्सर 'एक दिन मैं अपना वज़ूद वापस पा कर रहूँगी' का दृढ़निश्चय करती। निश्चय की गांठ लगाते हुए मन में सोचते हुए, रसोई की बजाय बैठक में पहली बार कदम रखा। जहां यादों की किर्गिज़स्तान बस हुआ था। एक-एक काँटा पैरों में चुभ गया। शदीद दर्द से सर फटने लगा और बेहोश होकर धम्म से गिर गयी। आवाज सबने सुनी लेकिन किसी ने भी उसे उठाने की ज़हमत नहीं की। आँगन के पार सहन में सर झुकाये बैठा वह दौड़ता हुआ आया। भाभी जान, भाभी जान कहता हुआ, अपने दोनों हाथों को फैलाकर लगभग गोद में उठा लिया। चेहरा निर्भीक, निर्भाव और सख़्त। होंठ भींचे हुए। गर्दन की नसें क्रोध से तन गयीं। जब मन क्रोध से भरा होता है तब दांत का मिचमिचाना ठंडे पानी में भींगने की तरह कट-कट करने लगता है। बेडरूम पर सलीक़े से लेटाकर वह जिस अंदाज़ में आया था। उसी अंदाज़ में लौट गया, बस कहानियाँ हवाओं में पंख लगाकर उधिराने लगीं।

मुहब्बत इंसान को रब के कितना क़रीब कर देती है, यह अंदाज़ा अब हुआ। मुहब्बत अदावत और सजा दोनों है। इज़हार के कुछ लफ़्ज़ों की तलब ने मेरे अंदर के वज़ूद को कशकोल (भीख का प्याला) बना दिया। ऐसा क्यों होता है कि इज़हार औरत को बेएतबार कर देता है जबकि मर्द को मज़बूत और बाग़ी बना देता है। ज़हन में मची हलचल रूक ही नहीं रही थी।

शाम को आपा के वलीमे की पार्टी है। ख़ानदान की सभी बहनें-भाभियाँ मौजूद होंगी। अगर कोई नहीं होगा तो केवल मैं नहीं होऊँगी। मेरा गुनाह मुझे पता ही है बावज़ूद इसके मासूम दिल कितना नन्हा सा सपना देखता है न! बिल्कुल संकिरवा की तरह जिसकी लुपलाप में कुछ दिखता नहीं है। केवल उसके आस-पास होने का एहसास सघन होता है। मेरे कान में आवाज़ गूंजी। अच्छे लोग दूसरों की बेटियों को यूँ रुसवा नहीं करते हैं। यह मुहब्बत नहीं हवस है, जो मासूम, बावफादार बेटियों को बग़ावत के लिए उकसाती हैं। विद्रोहियों के घर में पलने वाली महिलाएँ अक्सर डरपोक होती हैं। संगीन के साये में जीती हैं, मरती हैं लेकिन मजाल है जो कभी उफ़्फ़ तक करें। मुझे आज भी ठीक से याद है कि वह बग़ावत की रात थी। सब समय पर खाकर सो गये थे। सबके कमरों से खर्राटों की आवाज़ें आ रही थी, सिर्फ़ दो को छोड़कर। हम दोनों दुनिया की निगाह से छिपकर कहीं दूर चले जाने का ख़्वाब देखते, उपक्रम करते, मंसूबे बनाते और अंत में तकिये को पकड़े-पकड़े कब सो जाते, पता ही नहीं चलता। कच्चे सहन में जामुन का बड़ा सा पेड़ सर झुकाए खड़ा था सिर्फ़ उस पेड़ पर बैठे परिंदों की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं या कभी हवा के तेज झोंकों से लरजते पत्तों की हल्की सी सरसराहट महसूस होती, बाक़ी सब के सब मौन।

लंबी चुप्पी हज़ारों सुबहों को जन्म देती है। खटका महसूस करते ही अब्बू जान ख़ासने - खखारने का इंडिकेशन देकर निकलते। इत्तफ़ाक़न उस दिन नहीं दिया और कांड हो गया। आँसुओं के गिरने की आवाज़ें अगर सुनाई देतीं तो शायद इस घर के सहन से उठता शोर बर्दाश्त के बाहर हो जाता। रोवन- पिटन के बीच से बड़ी ही चतुराई और खामोशी से बैग काँधे पर रखकर निकल गयी। सफ़ेदपोशी का भरम रखना सबसे मुश्किल है। भरम रखते-रखते टूट गयी और काँच की मानिंद बिखर कर इधर-उधर फैल गयी। टुकड़ों में बंटी ज़िंदगी को लेकर लगातार भागते-भागते कहीं ठहर ही न पायी। गाड़ी की सीट से अपना दुखता सर टिकाए, आँखें बंद करके थोड़ा सुकून हासिल करने की बजाये क़ुरान की आयतें बुदबुदाने लगी लेकिन निगाहों के आगे घर के एक-एक सदस्य का उदास चेहरा बेकल ही नहीं किये बल्कि इस कदर बेचैन कर दिए कि ठंड में भी माथे से पसीना चुहचुहाआ आया। ख़्वाबों की ताबीरें मुक़्क़दर की लकीरों से मिलकर जुदाइयों को हमेशा के लिए ख़त्म कर देती हैं। मेरी तवीली ख़त्म होने की बजाय बढ़ती ही जाती। हमारा पासवान कहीं दुबका बैठा है। जिसके भरोसे कठिन डगर चुनी थी। उसने मुँह फेरने में क्षणभर भी नहीं लगाया।
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“टीसते दिल से आह निकली। बेरंग आँखें, सपाट चेहरा तकलीफ़ देती हैं। दर्द के बग़ैर यादों के नासूर से छुटकारा मुमकिन नहीं है। कभी-कभी आँसू चराग बनकर ग़म के अंधेरे में रौशनी का सबब बन जाते हैं। ज़्यादा रोने वालों के दिल उजले होते हैं और रोते भी वहीं हैं जिन्हें चोटें लगती हैं। जानता हूं, तुम्हें याद करते ही मिठास की अनुभूति होती है और मैं कंदाराओं में डूबकर समुन्दर के रास्ते किसी और दुनिया में पहुंच जाना चाहता हूं। आज जब सपने में तुम आयीं मेरी आँखें सूजी हुई थीं। रात नीमबेहोशी में अंगुलियों के पोर से खेलते हुये शरीर के रोयें थिरक रहे थे, तभी एक मछली मेरी निगाह में आ गड़ी। मच्छरों के भन-भन ने भौरों से चोंच मिलाई कि रस्म निभाई। नींद के आगोश में पलंग पर बैठी परछाई जरा सी कसमसाई थी कि तभी कुछ नयी छवियां उभरीं, अज्ञेय की सफेद दाढ़ी से नदी की धार बहने की कलकल ध्वनि साफ सुनाई देती। मन उदासी के अतल गहराईयों में डूब जाने को था कि तभी मुक्तिबोध की कविता तुरूही की तरह कानों से टकराई और अतीत के सारे बंध टूट गये। टूटकर मिलन की बेला में पंक्षियों का वृंदगान गले के नीचे नहीं उतरा। मन उमंग की बजाय उब से भर गया कि जाने किस घड़ी में मेरे जिह्वा पर चुम्बन की बारिश हुई और मेरे होंठो के फरिश्ते निकल पड़े एक ऐसी तलाश में जहां जाना जरूरी ही नहीं अनिवार्य मान लिया गया। लम्स से आजादी मुमकिन न रही। भूलने का तसव्वुर तक करार लूट लेता है।

गाहेबगाहे उसकी सीखें याद आती, जिसे वह जब-तब दोहराया करती - 'तकलीफ देने वाली यादें जहन से यूं साफ कर देनी चाहिए जैसे- कपड़े से सिलेट पर लिखी तहरीर साफ कर दी जाती है। ' कामयाब कोशिशें, नाकामयाबी को शिकस्त देते हैं। कभी-कभी दिल के हाथों मजबूर होता, पल में झटककर आगे बढ़ जाता। अंदर के कैफियत को कभी समझ ही नहीं सका कि आखिर उसके दिल के छोटे से कोने में इतना दर्द क्योंकर है... धन, दौलत, असबाब, शोहरत, बलंदी सब तो है। कोई भी हसरत ताबिंदा नहीं है फिर मेरे सीने में आग की सी लपटें किसलिये उठ रही हैं...? अपने आप से उलझते-उलझते थक चुका हूं। चली क्यों नहीं जाती...
दिल के उच्छवास में झिंझोटी राग मलयगिरी से आ रही थी। अभी कुछ देर रूका ही था कि पवन ने हलचल मचाई जिससे पुनः सारे तटबंद टूट गये। शरीर के सभी वस्त्र यत्र-तत्र बेतरतीब बिखरते चले गये और हम दोनों उस लोक में संलिप्त हो गये जहां नहीं होना था, मगर न होने में होने का सुख भला कैसे छूटता ? सघन जंगल, घनघोर अंधेरा, अलमस्त डालियां, निफिक्र पत्ते और टहनियां साथ तेजी से कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। यादों का जंगल मेरे जेहन में ही नहीं कैद थे, बल्कि संग-साथ डोल रहे थे। ठेठ बिरहा का राग अलापने की तैयारी कर ही रहा था कि तभी गंगा की लहरों से खेलतीं बाला उधर से निकली और मेरे अंदर की अकड़बाजी एकदम खिलंदड़पन में तब्दील हो गयी। मरहूम तालाब, बेलौस नदियां सिहर उठीं। जाने उसमें ऐसा क्या जादू था कि कल्पना की उड़ना रूक ही नहीं रही थी। हम किसी को अपनी मर्जी से चाह तो सकते हैं लेकिन किसी की आँखों में आँखें डालकर यह नहीं कह सकते कि तुम भी मुझसे मुहब्बत करो।

हर बार मेरे मन का अंगोछा खुल जाता और शर्म के सम्पुट में बंद भावना उमड़ पड़ती। संस्कार, संस्कृति सरोकार, तहजीब और नफ़ासत की आधारभूमि हिल जाती मानो अभी-अभी भूडोल आया और समूची धरती को झिंझोड़कर हिलाकर चला गया। थके कदमों से हौले - हौले सिढ़ियां उतरना और चुपचाप जाकर एक कोने में पानी के लहरों पर पैर टिका देना। जलप्लावन में पक्षी को छिपकर स्नान करते देखना। देखकर जलराशि से दस्युसुन्दरी की छवि के विलोपन से खीझ उठना। यह सब कुछ नया-नया हो रहा था। ह्रदयगुफा में अनगिनत भाव, शब्द, ध्वनि आ और जा रहे थे। तभी देखा कि दूर नाव पर बैठा नाविक विरहराग में आलाप ले रहा है। उसके कांधे से लटकता अंगोछा आँसुओं से तर-बतर होने लगा। नदी में कूदकर स्नान करना भूल गया, तो आंसुओं ने नमकीन से नहला दिया।

वह दोनों हाथों को जोडकर चोंगा बनाकर, जल उसके कपोलों पर अर्पित करने लगा। पलकों में हल्की जुम्बिश हुई और तभी सभी बंदिशें टूट-टूटकर एक जगह केंद्रित होने को आतुर हुईं लेकिन जब गौर से देखा तो वह नदारत थी। एकदम से दिल बैठने लगा। मन में हलचल मची। हड़बड़ाकर चारो-तरफ देखने लगा जबकि वह कहीं नजर नहीं आ रही थी। बगल के चबूतरे पर गवैये कजरी, ठुमरी और चैती का प्रैक्टिस कर रहे थे। वह सब नन्हें ऋषिकुमार प्रतीत हो रहे थे। अंदर तल्खी उतरने लगी। माँ का सफेद आँचल आकाश से उड़ता हुआ कांधे पर आकर गिरा। जेहन की खिड़की से पिता के फूट-फूटकर रोने की ध्वनि मृदंग के समान बजा और एकदम से घुटनों में गर्दन घुसेड़कर चीखता हुआ सा रोने लगा। दारूण रूदन ने सबको विस्मित कर दिया।

यह तेवर-सेवर देखकर साथ में योग-सोग में संलग्न जीव - जंतु विचलित होकर इधर-उधर कुछ टोह, टटोल लेने लगे। फकीरी का नशा उतरने लगा। प्रेम के बादल छटने लगे। यथार्थ की पथरीली, कंकरीट की भूमि पर ठेठ उपज मानव हर तरफ भागते-दौड़ते, हो-हल्ला का पैरोडी में कदमताल करते चले जा रहे हैं। वीतरागिता से सीधे मुलायमियत के विस्तर पर औंधे मुंह लेटे जीवनालोकन के सतत समाज में अदना सा मानुष की तरह दिखा।

पीठ पर एक मुक्का पड़ा, एकदम से अकड़े कदम के साथ कत्थक करता हुआ सीधे घर के आँगन को फलांगता हुआ खेत की चौहद्दी में पहुंच गया, जहां प्रेम की पाती लिखती तितलियों ने उपहास किया और भौंरों के साथ मिलकर ढोल पीटते हुये यह मुनादी कर दी कि फलाने का ललना बकलोल... “
यह सुनते ही पीछे से सरसराती हुई आयी और हौले से कानों में मिश्री की नाहि रसघोल बोल बोली कि डूब क्यों नहीं जाते... और यह तय नहीं कर पा रहा कि कहां डूबूं ? प्रेम की नदी में, दुनियावी समुन्दर में, जीवनानंद में या फिर खेतों के मेढ़ो पर बैठे सफेद, नीले, काले आसमान में... आखिर कहां...?
वह सवालों से टकराते हुए, देश की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के विषय में सोचने लगा। एकदम से सर चकराया, कुयें के मुंडेर से सीधे नीचे की तरफ गिरने लगा। बर्फ के फाहों की तरह बाहें हवा में लहराने लगीं। देह हल्की हो गयी। चित्त स्थिर हो गया। अशांति में शांति पाठ होने लगा। दिमाग ने सोचना छोड़ दिया। निर्विकार अनुभूति ने नया आकार लेने की परिकल्पना की उम्मीद भी छोड़ दी थी कि तभी वैश्विक वैशम्पायन ने अपना हाथ आगे बढ़ाया। एकदम से चमकीली, भूरी और सफेद बालों के साथ भरोसे का हाथ बढ़ाया और कहा पकड़ लो, मगर सशंकित मन मानने को तैयार न हुआ। बार-बार हर बार इमोशनल होकर यकिन दिलाने की भरसक कोशिश की और नाकाम रहा क्योंकि नाकामियों का इतिहास एक दिन में नहीं बल्कि तहियाकर लिखा जाता है, जैसे कि कामयाबी का ग्रंथ टंकित होता है, वैसे नहीं जैसे समुन्दर में ज्वालामुखी स्टोर होता है, ठीक उस तरह से शिलापट्ट पर अंकित होता है। “

***
आक्रोश की आंधी नहीं आयी। दो जिस्म, दो चारपायी पर बैठकर कल्पना की गुदड़ी ओढ़कर परिवर्तन कथा की व्यथा विलोचने में लगे रहे जबकि सब कुछ धीरे-धीरे बेआवाज डूब रहा था। टूट रहा था। नेस्तानाबूद हो रहा था। विस्मय की रेखा आकाशगंगा में विलुप्त हो रही थी। अब तक न जाने धरती से कितनी ही जातियां, प्रजातियां और वनस्पतियां नष्ट हो चुकी हैं जिनकी शिनाख्त मुमकिन नहीं है। उनकी जड़े ज़मीन से उखड़ चुकी हैं। उखड़ी चीजें पुनः उगा नहीं करती हैं। अब तो तर्जनी पर टंगा बादल भी टुकड़े-टुकड़े होकर आध्यात्म की अद्विता में डूब-उतरा रहे हैं। भ्रम का विराट संगम मन में उम्मीद की क्रांति कथा रच रही और हम हैं जो छोटे-छोटे लोभ छद्म स्वाभिमान के नाम पर झूठे अहंकार के मद में मानवीयता को छिन्न-भिन्न करते जा रहे हैं। दुनिया में मौत का खेल जारी है मगर खुश्बू के पास से गुजरने वाला दिल जानता है कि बदबू से कैसे बचा जाता है... मानसिकता की खेती किसी क्यारी में कभी हुई ही नहीं। संस्कार की भट्टी में तपे बीज कभी किसी और तहर से उगने का गुनाह करते ही नहीं।

अगले शुमारे में शामिल लोग पीढियों का दोष देखते हैं जबकि चांद की रोशनी में कभी बदलाव दिखा ही नहीं वह तो अनवरत चमकता ही रहता है। दरअसल दिल के काले चमक की परिभाषा समझने में नाकाम हैं। बुझी - बुझी सी आँखें, लरजते होंठ, उलझा हुआ चेहरा और कांपते हाथों की एक-दूसरे में फंसी उंगलियां। जो उसकी जहनी हालत बयां कर रही थीं। शर्मिन्दगी के बोझ तले दबा हुआ दिल अब यह सब बरदाश्त नहीं कर सकता। अचानक से वह सिसकने लगी। खिड़की के सिम्त लिपटकर अंधेरे में रोशनी की दुआ मांगने लगी।
'मौत से कम में जुदाई का सौदा बिल्कुल नहीं करूंगा' वह बस यही तो कहता रहा था। मगर हैदर रज़ा की अना के आगे सब कीड़े-मकोड़े जैसे थे। निक़ाह को जायज ठहराने वाले गवाह भी गायब थे। उसकी जात ऐसे कटघरे में थी जिसकी इजाला हो ही नहीं सकती। आज इबरत लेने का दिन है। इंतकाम से तबाही आती है। बदला लेने वाला क्रोध में एक की बजाय दो क्रब खोदता है। मिट्टी से जंग लड़ने की बजाय दोस्ती अधिक मुनासिब इलाज है।

किसी को नहीं पता था कि अतिए तुर्किस्तान में पैदा हुई थी , हिंदुस्तान में हैदर रज़ा के घर में रही, पड़ोस में परवरिश पायी। घर के तीसरे तल्ले की कोन्चडे वाली झरोखे से आती रौशनी में रोज कुछ न कुछ लिखती, मिटाती और फिर लिखती रहती। मगर जिन्दगी डायरी के पन्ने नहीं हैं, ना ही कोरा स्लेट है, जिसपर जब चाहे जो लिख दें। यह दिल है। जिसपर बलंद नाम ही खुदेगा, वरना लाश गिरना तय है।
अतिए ने आस-पास से मिलते तानों से तंग आकर तन्हाई का रास्ता मगरिबे के वक्त चुन लिया। घर से निकलते ही सबसे पहली जरूरत रहने के ठिकाने की तलाश थी। यह तलाश भी बड़ी जल्दी पूरी हो गयी। पंचगनी की पहाड़ियों के नीचे की तरफ बसे गांवों में रहने के लिए घर सस्ते दरों पर मिल रहे थे। मामूली किराया चुकाना था। जिसे वह आराम से कर सकती थी। एक दौर था जब उसका जेब कभी खाली ही नहीं होती थी, तुर्किस्तान में रहते हुए जब वह हैदर रज़ा की किताबों की दुकान संभालती तो बदले में तीस टर्किश लीरा रोज मिलता। वह एक-एक करके पैसा इक्कठा करती रही।

यहाँ एक दिन चचाजाद भाई ने लूट लिया। लूटी अस्मत, फूटी किस्मत को कोसने का वक्त नहीं था उसके पास। जितना पैसा बचा था वह भी कम न था। उसने पंचगनी में घर किराये पर ले लिया। छोटा सा बैग उठाकर घर का आँगन पार करके सीढ़ियों से चढते हुये ऊपर के मंजिल पर अपने कमरे के सामने खड़े होकर उसने जोर-जोर से सांस लिया। मानों वर्षों से सांस लिए बिना ही जिये जा रही हो। ठीक से सांस जज्ब कर भी नहीं पायी कि एक मर्दाना आवाज ने उसकी धड़कन को रोक सा दिया। सामने एक गबरू जवान, दोबाला चेहरे वाला, बेहद हैंडसम बंदा खड़ा था। उसके हाथों में चाबियों के गुच्छे लहरा रहे थे। चाबियां एक-दूसरे से ऐसे लिपटी थीं जैसे कोई प्रेमी जोड़ा एक-दूसरे को आलिंगनपाश में भींचे, मंद मुस्कान संग भौरों के माफिक गीत गनगुना रहे हों।

अतिए को सोचता हुआ देख लड़के ने चिटकी बजाई।
“कहां खोईं हैं मैडम ! साइड हटिए। आपका कमरा खोल देते हैं। आप फ्रेश होकर नीचे आ जाये। आज का भोजन-पानी हमारे साथ शाद फरमायें। “ दरवाजा खोला। कहता हुआ। तेजी से जीना उतर गया। चौड़े जीने पर दोनों साइड से गमला रखा था। जिसमें सुन्दर-सुन्दर फूल खिले थे, जिन गमलों में फूल नहीं खिले थे उनकी पत्तियां इतनी चमकीलीं थीं जैसे कि अभी-अभी नीले बादलों ने मुहब्बत के नीर से नहलाया हो।

वह फटाफट फ्रेश होकर नीचे की तरफ भागी। तेज भूख लगी थी। लंबे सफर से थक गयी थी। सोना चाहती है। खाली पेट गुड़गुड करते रहने से बेहतर है कि खाकर चारपायी (तखत वाला बेड) तोड़ी जाये। टेबल पर खाना लग चुका था। उसके पसंद का सब कुछ बना था। जैसे की सबको पता हो कि क्या -क्या खाती है। एकदम से झटका सा लगा। कहीं हैदर रज़ा को सब पता तो नहीं है कि कहां हूं ? अगर यह सच है तो मेरा यहां से निकल जाना ही बेहतर होगा। सोचते हुए भोजन शुरू करती है। दूध, दही, पनीर, खीर, चिकन, सालन, सलाद, कीमा, फ्राइड से लेकर सब उसकी मर्जी मुताबिक। भूख तेज लगी थी लेकिन डायनिंग टेबल की रेसिपी देखते ही अब भूख का नामो-निशान नहीं था। चेहरे पर चिंता की लकीरें उभरने लगी।
“आप कहां खोई हैं। “उसके चेहरे को देखते ही लड़के ने फिर चिटकी बजाई।
“ हँ वो... “
“ आपको बात बात पर खो जाने की आदत है या कोई बीमारी है ?”
लहजा एकदम सपाट था, परन्तु अतिए को ऐसा लगा जैसे उसका सीधे-सीधे मजाक बनाया जा रहा है। गुस्से को पीते हुये। मुट्टियां भींचकर गिनती गिनने लगी। बुदबुदाते होंट कातिलाना लगते हैं। खाना खत्म करके कमरे में आयी। नींद, थकान और चैन सब गायब हो गया। बार-बार सोचने लगी। गोया यही करने के लिए उतना दूर से आयी है। अपने से ही अपने आपको लताड़ा और चादर तान कर लेट गयी। लेटते ही सो गयी।
सुबह का सूरज सीधे उसके कपोलों पर बोसा दे रहा था। उसकी रौशनी से उसका गोरा चेहरा पीले फुल की तरह चमकने लगा। अंगड़ाई लेते हुये उठने ही वाली थी कि देखा दूर की खिड़की से कोई एकटक उसे ही घूरे जा रहा है। तमतमाते हुए उठी और पर्दा जोर से खींचकर बराबर कर दिया। मन ही मन हजारों गालियां बकने लगी शर्म आती ही नहीं। बड़बडाती हुई नहाने के लिए बाथरूम में घुसी ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। वह तौलिया लपेटे आयी। कांचीछिद्र में से देखा तो वही नौजवान लड़का नास्ते का ट्रे लिए खड़ा था। उसने धीरे से खोलकर नास्ते की ट्रे अंदर किया और दरवाज खटाक से बंद कर दिया। दरवाजे से ऐसी आवाज आयी जैसे कि ए-के 47 के राइफल से गोली दागी गयी हो।
वह फटाफट तैयार होकर नीचे आई। वह नाश्ता करते ही शहर में इंटरव्यू देने के लिए निकल जाना चाहती है। घर के मालिक से पूछती है लेकिन मालिक से पहले नौजवान टपक पड़ा।
“आपकी तालीम क्या है ?”
“इंटर पास, प्राइवेट बी.ए. चल रहा है। दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी जो कि घर बैठे पढ़ने का बढ़िया मौका देती है। वहां से कर रही हूं। “ इतना सुनते ही लड़का फिस्स से हँस दिया। अपनी हँसी को रोककर बोला•••
“ सिर्फ इंटर और जॉब•••! मोहतरमा ! आपको अंदाजा है कि इतनी तालिम के साथ आपको किसी इंग्लिश मीडियम स्कूल में चपरासी की भी जॉब नहीं मिलेगी। जबकि ऊर्दू मीडियम स्कूल में शायद कोई बंदा पीटी टीचर के तौर पर रख ले। “ बोलकर लड़का फिर दिल खोलकर हंसा।
“मुझे आपसे से सर्टिफिकेट नहीं बस रास्ते की जानकारी चाहिए। “ अतिए तिलमिलाने की बजाय फिर से सीधे रास्ता पूछा। अब बेहोश होने की बारी लड़के की थी क्योंकि यह बात उसने फर्राटेदार तुर्की में बोला था। यह लड़के के छठे हिस्र में भी नहीं था। उसने चुपचाप पंचगनी के सबसे पॉश एरिया में स्थित स्कूल की तरफ अंगुली दिखा दी। वह गयी। जॉब मिल गया। अगले दिन से उसकी जिंदगी पटरी पर आ गयी। ज़िंदंगी जब पटरी पर आती है तो मंज़िल पर आकर ही रुकती है।

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आज बरसों बाद अपने शानदार घर के मुलायम बेड पर लेटते ही अतिए को वह दिन याद आ गया जब उसने घर छोड़ने का निर्णय लिया था। एहसान के नीचे दबकर जिंदगी तबाह हो जाती है। अपनी पहचान नष्ट हो जाती है। दूसरे का साया इतना लंबा और दूर तक होता है कि खुद की जात बेमानी व बेगानी लगने लगती है। अच्छी सैलरी, सुन्दर वातावरण दोनों ने मिलकर उसके दशकों के सफर को मोतबर कर दिया। उसके दिल में गुंजाइशें निकल आयी। अपने लिए आशियां बनाया। एक कोने में ठीक वैसा ही झरोखा छोड़ा। जिसे वह बहुत साल पहले बहुत पीछे छोड़ आयी थी। पलटकर कभी नहीं देखा। लेकिन सदियों का सफर दिनों में भी तय होते हैं। उसने अपनी कंपनी का नाम 'अतिए&आशी एंड संस' रखा। अंतराष्ट्रीय बिजनेस टेक्नोलॉजी के बाजार में छा गयी। अखबार से लेकर हर चैनल पर चर्चा ही चर्चा। राहत की लंबी सांस लेकर आगे बढ़ती है।

अतिए की पर्सनॉलिटी में गजब का उभार निकल आया। कुदरत ने बहुत करीने से बनाया है। एक-एक अंग सजीला, गठीला और आंख भर देखने का है। लाजवाब ड्रेस सेंस की खूब तारीफें होतीं बचपन की कोताहियां अब कहीं नहीं थीं। नये एप लांचिंग के दिन सबकी नजरें उसी पर टिकी रहीं। होंठों पर हल्की लिपिस्टक, लंबे बालों की चोटी, सफेद शर्ट पर वाइन कलर का कोट, गले में एक पतला चेन। श्रृंगार के नाम इतना ही था। सरलता, सहजता की प्रतिमूर्ति लग रही थी। लगभग दो दशक से अधिक वक्त तक खुद को छुपाये रखने वाली, यूं दुनिया के सामने आएगी। यह किसी की कल्पना में भी नहीं था। एक इवेंट ने उसके आस-पास रिश्तों की महफिल सजा दी। अब उसको चयन करना था। उसने कंपनी के नाम में चयन का मुहर लगा दिया था।
उधर हैदर रज़ा को यह समझने में जरा भी वक्त नहीं लगा। उन्होंने अपने बेटे को पास बुलाया। समझाया।
“अब तुम दूसरा निकाह कर लो। उसने तुम्हें कभी कुबूल किया ही नहीं। उसने सही कहा था कि सिर्फ मर्दों को ही कई शादी करने का जाय़ज़ हक़ नहीं है। हमें भी अपनी पसंद की जिंदगी जीने का पूरा हक़ हासिल है। यह किसी भी किताब में नहीं लिखा है कि लड़की की जिन्दगी उसकी अपनी नहीं होती है। आज उसने वो कर दिखाया जो हमारे मज़हब में नाकाबिले बर्दाश्त है। अब वह अतिए & आशी है। तुम्हारी निकाहज़दा बीबी अब किसी और के नाम की इज्जत बन चुकी है। उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसके सीने में हूक उठी। वहां से चुपचाप अपने ऑफिस में लौट आया। कुर्सी पर ऐसे टेक लगाया कि फिर दोबारा उठ ही नहीं पाया। “ देर रात को हैदर रज़ा के आँगन में नौजवान बेटे की लाश आयी।

हैदर रज़ा की ज़िद ने एक ही जिंदगी नहीं छिनी। यह तीसरी लाश थी जो अतिए के हिम्मत, साहस और हैदर रज़ा के झूठी अना की वजह से चली गयी। मां जैसी भाभी, खुद की पत्नी और अब बूढ़ापे का सहारा बेटा भी चला गया। हैदर रज़ा तब भी चट्टान की तरह खड़े रहे। झुकने का हुनर उनमें था ही कब... कभी अपनी गलती की तलाफी नहीं की। चुपचाप सुपुर्दे-ए-खाक से लौटे और ई- मेल लिखने बैठ गये।

प्रिय बेटी अतिए !
तुम्हारी तरक्की की खबर से सीना गदगद है। अपना ख्याल रखना। मैं जो राज खोलने जा रहा हूं। उसे दिल थामकर समझना क्योंकि तुम्हारे नाम का अर्थ ही है समझना।

मुझसे कितना बड़ा जुल्म हो गया। जिसकी मुआफी आसानी से नहीं मिलेगी। यह जानता हूं। मैंने इतना अरसा कोई खबर नहीं ली। दरअसल मुझे पता ही नहीं था कि तुम मेरी ही बेटी हो। कितना बदनसीब हूं मैं, मरहूम भाभी की बेटी के सर पर मुहब्बत का एक हाथ भी न रख सका। कैसे उनसे मुआफी मांगू... हस्र के दिन क्या मुंह दिखाउंगा...
राज की बात सुनो ! मैं तुम्हारा बाबा जानी भी नहीं हूं। भाई की देहांत के बाद जबरदेही से मेरे गले भाभी को इद्दत के लिए बांध दिया गया था। उन्हीं दिनों के किसी रोज़ सर पर शैतना सवार था जिसका नतीजा तुम हो....!
प्रिय...अतिए और सुनो तुम्हारा निकाह मेरे बेटे के साथ कभी हुई ही नहीं था। यह मैंने अपनी आन - बान - शान में झूठी खबर गढ़ी थी, ताकि घर की मिल्कियत घर में रहे। मैं गलत था। बेटियां कभी भी मिल्कियत नहीं होती हैं। वह दिल का टुकड़ा होती हैं। उनकी धड़कनें बाप के सर को ऊंचा मकाम देती हैं। वह तो बेलौस तितलियां होती हैं। जानता हूं, अब बहुत जियादा देर हो चुकी है।

यह भी जान लो कि मुंताज से शादी मैंने अपनी पसंद से की थी। जिसकी मुझे सजा भी मिली। गुलशन विला से मुझे सदैव के लिए निकाल दिया गया। मरहूम अब्बा के जीते-जी विला के घर के दरवाजें मेरे लिए सदैव ही बंद रहे। मुंताज जीते जी कभी अपनी तबाह जिंदगी में खुश नहीं हुई। दुनिया जहां की दौलत उसके कदमों में रख दीं लेकिन वह उसे रास नहीं आया। जानती हो क्यों ? क्योंकि उसे पता चल गया था कि गुलशन विला में अपनी माँ के साथ रह रही ‘अतिए’ मेरी बेटी है।


वह घुलकर मर गयी। जिस दिन तुमने सबको डॉ.ज देकर डेयोढ़ी डांका था। उसने तुम्हें जाते हुए देखा था। चाहती तो शोर मचा देती। उस दिन उसने अपनी जुबान कटा दी ताकि कभी बोलने की नौबत ही न आये। न लब खुलेंगे न राज बाहर आयेगा। उसने तुम्हें बचाने के लिए खुद को सजा दी। अपनी जिंदगी जहन्नम बना ली। उसी दिन घर में लुटेरे भी आये थे। वह मूक ही विदा हुई। बस जाते-जाते एक छोटी पर्ची पर बड़ी बात लिख गयी कि तुम कहां गयी हो....
जानती हो यहाँ तक कि तुम्हारे अब्बू जान भी मेरे सगे भाई भी नहीं थे। यह रिश्तों की उलझी गुत्थी, तुमने अपने हिम्मती फैसलों से सुलझा दिया। जीती रहो। जिसके भी साथ तुम गयी हो आबाद रहो खुश रहो!
तुम्हारा बदनसीब अब्बू हैदर रज़ा
दुआ !

अतिए ख़त को पढ़ती जाती, आंसुओं को पोंछती जाती। तन्हा चली थी लेकिन अब तोहमतों से आजाद है। बड़ी अम्मी की कुर्बानी ने उसके सीने को चीर दिया। वह चीखना चाहती है। फूटकर रोना चाहती है। सदियों के मजहबी रवायतों, फिजूल की पाबंदियों की दीवारों, झूठे इज्जत के महलों-दूमहलों को अपने चीखती आवाजों से सदैव के लिए ढहा देना चाहती है... उफ्फ दुनियां की सारी माँओं के हिस्से तन्हाई ही होती है। पंचगनी में शाम का सूरज डूबने वाला है। सनसेट प्वांट पर जोड़े इकट्ठे होकर सेल्फी-विद लाइफ का मज़ा लेने की तैयारी में हैं। वह ख़त को बार-बार पढ़ती फिर स्क्रीन से नजर हटा लेती। अंततः फिर पढ़कर उठी और तैयार होकर बाहर निकल आयी। अपने निर्णय पर गर्व से गर्दन ऊंचा किया। अपनी कोठी की खिड़की पर जाकर बैठ गयी। मद्धम रौशनी से उसका चेहरा दमकने लगा। अंदर से खुश थी। बाहर की बहारें दिल को सुकून बख़्श रही थीं। रात में चांद आने से पहले का उजाला नसीबों को दुआओं से नहला कर जाता है।

आंमू पौंछ कर वह मुस्कुराई और उसने कुछ देर के लिए मोबाइल मेज़ पर रख दिया और काउच के गुदगुदे कुशन पर सर टिका दिया। जाने क्या सोचती रही, फिर मुस्कुरा कर मोबाइल उठा लिया, स्वाइप करके लॉक खोला।
“ मिस्टर हैदर रज़ा,
आप फिर गलती पर हैं। मैं घर से, किसी से शादी करने के लिए नहीं निकली थी, बल्कि अपनी पहचान से हमारी बिरदारी के माथे पर टंगा रवायती टीका सदा के लिए मिटाने आयी हूं। जिसे आप सबने मेरा प्रेमी समझा, वह सिर्फ एक इंजीनियर है जिसने मेरी कंपनी के लिए एक ऐसा सॉफ्टवेयर और रोबोट बनाया है जिसकी मदद से हम पुरातत्व विभाग में की जाने वाली खुदाई को आसान बनाते हैं। एक आवाज देते ही मशीन बोलती है। सैफ्रीना नाम लेते ही जिस जगह आप खड़े हैं, उस स्थान के बारे में विस्तार से बताने लगती है। 'यह पंचगनी विला है। जिसके चारो ओर पहाडियां हैं। हजारों किस्म के पेड़ हैं। उनकी प्रजातियां बताती है। ' यह भी इंडीकेशन देगी कि इस वक्त आपके शरीर में कितना प्रतिशत भोजन, पानी और ऊर्जा स्टोर है। आप कितनी दूरी अभी तय कर सकते हैं। इतना ही नहीं यह भी जानकारी देगी कि अब आपको आराम करके चलना चाहिए। सबसे नजदीकी रेस्त्रां का पता देगी। रेस्त्रां में भोजन ऑर्डर देने और लेने जाना नहीं होगा बल्कि आवाज देते ही वह स्वयं आपके पास चलकर आ जायेगी। कदम ऐसे रखेगी जैसे कोई कमसिन बाला बलखाती कमर पर चोटी लटकाकर चलती है। यह सब कुछ आपकी घड़ी, मोबाइल और लैपटॉप की एक क्लिक पर उपलब्ध होगा।

वैसे रज़ा साहब आपको इस मशीन की सख्त जरूरत है, आप अपने दिल-दिमाग के अंदर कितना अनावश्यक कचार जमा किये हुये हैं। उसकी सफाई किया जाना चाहिए, वरना आपका बंजर दिमाग धरती पर तबाही का सबब बनेगा। धरती आपके गंजे सर की तरह एकदम बंजर हो जायेगी। “ "टकला” शब्द की फुसफुस से होंट मुस्काये। उसने गर्दन घुमाकर इधर-उधर देखा कि कहीं कोई मेरे जेहन को पढ़ तो नहीं रहा है .. हालांकि उसकी परवरिश में बदतमीजी कतई नहीं है, बस मन हल्का करने को कोई नहीं होता तो खुद से खुद के कहे से हँसकर बोझ हल्का करने का तरीका बुरा न था। “ उसे अपनी खिड़की से आशी की खिड़की साफ नजर आती थी। वह आज फिर वहीं बैठा है। ऐसे बैठना, उसका भी शगल है शायद...! उसका खिड़की में होना अतिए का भी सुकून है।
“अब्बू हैदर रज़ा,
अब वो वक्त आ गया है कि आपकी पीढ़ी यह अच्छे से समझ ले कि कमजर्फी, दग़ाबाजी, फरेब और तंगदिली को पहचाने और फराक दिल से दुनिया की हकीकत को स्वीकार सके। “ अतिए एक बार फिर गर्दन ऊंचा करती है। मृगनयनी सी आँखों में चमक भरकर मोबाइल पर लिखे ख़त को एक टिक के साथ सेंड करके खिड़की पर चेहरा टिकाकर गुनगुनाने लगती है। पेन ड्रॉप प्वाइंट की ओर से सफेद तितलियों का एक झुंड आया और अतिए अतिए... आशी नाल... कहते-कहते विलुप्त हो गया। ये तितलियाँ दिल पढ़ती हैं क्या?

- डॉ. सुनीता

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