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"ऑल इज़ वेल"

"जब किसी से हमारा मिलना वो खुदा तय करता है तो जुदा होना भी वो खुदा ही तय करता है इसलिए तुम अपने मन पर कोई बोझ मत रखना। "राज का यह मैसेज दो महीने पहले का था। इस मैसेज को न जाने उसने
कितनी-कितनी बार पढ़ा है। उसे तो ठीक से गिनती भी नहीं पता। न जाने कौनसी वजह उसे इन मैंसेजों को डिलीट करने से रोक देती। उसे खुद पर अपनी इस हरकत के कारण बेहद गुस्सा आता ,लगता जैसे मोबाइल फेंक दें लेकिन डिलीट ....। और यदि वो डिलीट कर भी दे तो मन से सारी बातें कैसे मिटा दे। उन यादों को कैसे खुद से अलग हटा दें। काश! कोई इरेज़र ऐसा भी होता जो मन की बातें भी मिटा पाता पहले सा साफ-सुथरा कर देता है और हो जाता ऑल इज वेल। हालांकि इस मैसेज के बाद कभी कोई मैसेज नहीं आया पर उसने हर दिन न जाने क्यों फिर भी इंतज़ार किया । मन ही मन सोचा फोन पर ब्लॉक किया है मैंसेंजर पर तो नहीं इसलिए हो सकता है कभी उसे मेरी याद आ जाए। वो अपनी व्यस्तता में मैंसेंजर को चेक करना कभी भी नहीं भूली। पर दूसरा कोई मैसेज न था लेकिन उस दिन के बाद उसने हवा से बातें नहीं की, कभी वो अकेले में मुस्कुराई नहीं, कभी किसी नयी ड्रेस को पहन कर दर्पण के सामने अपने गेसूओं को खोल कर खड़ी नहीं हुई और कभी वो बहुत देर तक आसमां को निहारी भी नहीं। बोझ तो मन पर नहीं है फिर भी कुछ ऐसा वजनदार तो है जिसके कारण उसका दर्द हल्का हो ही नहीं पाता और वो इस भारीपन से निकलने की असफल कोशिश करती पर कामयाब कहां हो पाती। सबसे लड़ना आसान होता है पर खुद से लड़ना ......। ड्राइंग रुम में भले वो सशरीर बैठी लेपटॉप पर काम कर रही थी लेकिन उसका मन न जाने कहां विचरण कर रहा था। उसे भी नहीं पता।
" तू उसे याद करके खुद को उदासियों के पर्दे में छुपाने की जबरन कोशिश करती है रिद्धि। " श्यामा बुआ ने उसके चेहरे को पढ़ते हुआ कहा। वो कहना चाहती थी बुआ उसे भूली ही कब थी जो याद करुं पर उसने आंखें नीचे झुका कह दिया।
" नहीं बुआ, आप भी ना..." पर बुआ उसकी नीची निगाहें देख समझ गयी । " बरसों से साथ हूं जन्म ही तो नहीं दिया पर तेरी हर हरकत पर मेरी नज़र रहती है तू खुद को छुपा ले पर मैं तुझे देख लेती हूं तेरे मन को पढ़ लेती हूं । "बुआ ने खुद से कहा और वहीं सोफे पर उसके नज़दीक ही बैठ गयी।
उनकी नजर ड्राइंग रुम में लगी एक पुरानी तस्वीर जिसमें आठ साल की रिद्धि बुआ से लिपट कर बैठी थी। सहसा आंखें भर आयी । उस हंसती रिद्धि को न जाने किसकी नज़र लग गयी कि मुस्कुराना ही जैसे भूल गयी। पूरा दिन शून्य में न जाने क्या सोचती रहती है
"पगली कुछ बातें कभी भूली नहीं जाती हैं । "
" मन का हो तो बहुत अच्छा, और न हो तो भी अच्छा आप ही तो कहती हो, फिर बुआ उस मन का न होने का दर्द क्यों आंखों से बहता है?" वो गहरी सांस छोड़ते हुए बोली।
"दर्द बहने के लिए होता है पर फिर भी एक साथ कभी भी नहीं बहता। रिस-रिस कर बहना उसकी नियति है और कभी -कभी तो ताउम्र उस दर्द के साथ मरकर भी खुद को जिंदा रखना पड़ता है। " जैसे बुआ ने चुपचाप खुद से ही कहा हो और उसने भी उस बात को न जाने कैसे पर सुन लिया हो। कई बार हम मौन को भी सुन लेते हैं , समझ लेते हैं , पढ़ लेते हैं । कितने तरीके हैं बातों को जानने का, मन को समझने का और वो भी तो आजकल शब्दों का इस्तेमाल कम करने लगी है हर जगह, फिर चाहें घर हो या ऑफिस। हालांकि
वो बुआ से बहुत कुछ कहना चाहती थी शायद बहुत जो़र से रोना चाहती या शायद सुबक -सुबक कर ही अपने भीतर के शांत पड़े ज्वालामुखी से निकलते लावा को बहने देना चाहती थी पर न चीख कर रोयी और न सुबक कर । न जाने क्यों कभी -कभी आंसू भी हमसे बगावत करने लगते हैं। वक्त पर आते ही नहीं । आ जाए तो कितना कुछ हल्का हो जाए और उसके साथ भी तो यहीं हुआ । उस दिन बात करते-करते ही साया बनकर साथ चलने वाले राज ने अचानक उससे हाथ छुड़ा लिया जैसे कह दिया, अब चलो अकेले। मैं तो बस यहीं तक था और सहसा रास्ता लंबा बहुत लंबा लगने लगा। पहले तो वो समझी ही नहीं लेकिन जब बहुत देर तक भी राज का वो चिर -परिचित बात करने का अंदाज़ नहीं दिखा तो भौचक्कीं रह गयी। राज दो दो वर्षों से उससे जुड़ा था या वो राज के संग दो वर्षों से है उसे खुद नहीं पता पर जिसे रिलेशनशिप कहते हैं वो तो दोनों के बीच थी और इन दो सालों में वो कितनी बार रुठी , कितनी ही बार तो राज ने उसको मनाया। बातचीत बंद होने पर राज उसे डार्क चाकलेट देकर किसी तरह मना ही लेता और नाक पर रहने वाला गुस्सा खत्म हो जाता । दोनों कुछ देर कुछ नहीं बोलते और फिर खिलखिलाकर हंस पड़ते। राज अकसर कहता, नहीं रह पाएंगे हम एक दूजे के बिना और वो‌ उसके होंठों पर अपनी अंगुली रख देती। पर इस बार तो.....। खुद से कई बार उसने पूछा जब वो शख्स उसकी दुनिया में नहीं आया था तब भी तो उसकी दुनिया चल रही थी फिर उसके जाने से कैसे बदल गयी क्यों वो खुद की भी नहीं हो पा रही है। आवाजों से उसे नफरत हो गयी । फूट-फूटकर रोना चाहती थी लेकिन ऐसा हुआ नहीं और उसी का परिणाम है वो बस चुप -सी , चुपचाप सी हो गयी । उसे अब बातें करना ही अच्छा नहीं लगता। बस ऑफिस और काम। घर आने के बाद भी लेपटॉप पर ऑफिस के काम में उसने पूरी तरह खुद को झोंक कर रख दिया। बाहर बालकनी में गए उसे कितने दिन हो जाते। पहले वो सुबह काॅलोनी के पार्क में भी कभी -कभार घूमने चली जाती लेकिन अब उस पार्क की तरफ देखती ही नहीं। यहां तक कि उसकी दुनिया सिर्फ ड्रांइग रुम और उसके कमरे तक ही सीमित हो कर रह गयी थी । जहां फाइलें, उसके पेपर और लेपटॉप रखा होता। कभी बुआ उसे चाय के लिए पूछती तो वो गर्दन हिला देती। कभी खाने के लिए बुलाती तो फिर गर्दन हिला देती। उसका हां भी गर्दन हिलाना और ना भी।
आज रविवार छुट्टी का दिन है ,पहले छुट्टी के दिन वो सप्ताह भर के इकट्ठे गंदे कपड़ों के ढ़ेर को निपटाती फिर और वो इत्मीनान से तैयार हो कर राज के साथ दल्ली की सड़कें नापती, कभी चाट खाती ,कभी किसी मॉल से जींस खरीदती तो कभी यूं ही हाथों में हाथ डाले बेवजह बस घूमती । कई बार वो और राज किसी पिक्चर हॉल में होते और राज कब अंधेरे का फायदा उठा उसके होंठों पर अपने होंठ रख देता उसे पता ही नहीं चलता और वो पीछे से उसकी पीठ पर एक धौल जमा देती। राज जोर से हंसता और वो खिसिया कर रह जाती। बड़े शहरों का सबसे बड़ा फायदा यह भी है सब अपने में व्यस्त। कोई किसी के जीवन में दखल देता ही नहीं इसलिए बेफ्रिक हो राज की अंगुलियों में अंगुलियां फंसा वो उसके कंधे पर सिर टिका पूरा दिन बीता देती और जब रास्तें में वे दोनों अपनी तरह के किसी जोड़े को देखते , जो सटकर साथ कदम मिलाते हुए चलते तो आंखों ही आंखों में दोनों मुस्कुरा उठते । पर इन दो महीनों में वो भूल से भी ऑफिस के अलावा कहीं गयी हो उसे याद नहीं आता। शापिंग के नाम से उसे कै होने लगती और भीड़ में गुम हो जाने का अनजाना डर उसके दिमाग पर छाने लगता। वो सोचती यह रविवार अब आना ही नहीं चाहिए । घर पर उसके गंदे कपड़ों के ढ़ेर को देख बुआ ही अक्सर वाशिंग मशीन चला देती । अब छुट्टी के दिन उसने तैयार होना छोड़ दिया । नाइट सूट में ही वो पूरा दिन गुजार देती । खाली समय उसे और खाली कर देता और वो लेपटॉप पर आंखें गड़ाए घंटों एक ही जगह बैठी रहती । कई बार तो बमुश्किल वो टॉयलेट जाने के लिए भी उठती।
"चाय बनाऊं रिद्धि ?" बुआ ने फिर एक नज़र उसकी उदासी पर डालते हुए पूछा ।

गर्दन हिलाते हुए वो फिर लेपटॉप पर बैठ गयी। बुआ ने कुछ देर बाद ही ट्रे उसके सामने ला कर रख दी और वहीं उसके पास बैठ गौर से उसे देखती रही। हम कितनी जल्दी समझ जाते हैं कि किसी की निगाहें हम पर टिकी हैं। बुआ की नजरों से खुद को बचाते हुए उसने बिस्किट चाय में डूबो दिया और चुपचाप खाने लगी। बुआ बिना कुछ कहे कोरी चाय पीने लगी। पर आज बुआ उसे अन्य दिनों से कुछ अलग -सी क्यों लगी? उसे नहीं पता । बुआ ने ही तो बचपन से उसे चाय में बिस्किट डूबो कर खाना सिखाया और आज कोरी चाय। "होगी कोई बात। " उसने खुद से कहा और फिर आंखें लेपटॉप पर गड़ा ली। बुआ खाली कप और ट्रे उठाने लगी तो उसकी नजर बुआ पर फिर गयी । लगा बुआ थकी -सी है, हो सकता है उनकी तबीयत ठीक नहीं है वो बोली," मैं सिंक में अभी ले जाकर रख दूंगी। आप की तबीयत शायद ठीक नहीं है। आप आराम करो। "

श्यामा बुआ कुछ नहीं बोली। ट्रे वहीं छोड़ चुपचाप अपने कमरे में चली गयी और अपनी अलमारी को उलट-पुलट करने लगी। बुआ का बी.पी. कहीं लो तो नहीं हो गया ? आए दिन बुआ के साथ बी.पी . की यह समस्या हो जाती थी। उसे यह सोचकर ही घबराहट होने लगी। लेपटॉप को यूं ही खुला छोड़ वो कमरे में आयी तो बुआ के हाथ में कोई पुराना काग़ज़ था और बुआ ने चुन्नी से चश्में को साफ किया और पढ़ने लगी। बुआ को ठीक देख उसे राहत महसूस हुई पर बुआ की बिखरी अलमारी और उनके हाथ में कागज देख उसने गौर किया बुआ कई बार ऐसा करती है । न जाने कौनसा खजाना निकालती है और एक से अधिक बार उसे गौर से देखती है और फिर शायद संभाल कर रख देती हैं। उसने कभी बुआ से इस बारे में पूछा नहीं मुड़े- तुड़े जर्द हो चुके कागज़ में आखिर क्या हो सकता है? पर इतना पता था है कुछ बहुत खास जो चांदी से चमकते बालों को कई बार सुनहरा कर देते हैं।  झुर्रियां वालें इस चेहरे को नवयौवना सा बना देते हैं और बुआ रोते -रोते मुस्कुराती है , मुस्कुराती हुई पलकें भिगोने लग जाती है ।

उसने हमेशा एक बात जीवन में सीखी है सबका अपना निज होता है और जब तक कोई उस निज में तुम्हें आने की अनुमति न दे तुम मत आना इसलिए वो बुआ के निज को जानने की ख्वाहिश तो पालें है लेकिन बिना उनकी इजा़ज़त के नहीं। जैसे उसके और राज के बारे में बुआ तब तक नहीं जान पायी जब तक उसके निज ने इज़ाज़त नहीं दी। लेकिन आज वो बुआ के निज को जानना चाहती थी ऐसा निज जो सिर्फ और सिर्फ बुआ को पता था इतने वर्ष बुआ के साथ रहने पर भी उसे क्यों नहीं पता हो सका यह उसे खुद नहीं मालूम। कई बार हम एक उम्र किसी के साथ बिताने पर भी नहीं जान पाते कि वो व्यक्ति वास्तव में वैसा ही है जैसा वो दिखायी देता है। क्या उसके जीवन की हर छोटी-बड़ी बात हमें पता है? क्या इंसा को हर किसी के सामने खुली डायरी सा बन जाना चाहिए?"हर किसी के सामने तो नहीं लेकिन किसी खास के सामने खुली डायरी सा बन जाने में बुराई भी तो क्या है। "उसने खुद से कहा।

उसने देखा ए.सी. तो दूर भरी गर्मी में बुआ ने पंखा तक नहीं चलाया । क्या कोई इतना भी व्यस्त हो सकता है कि उसे इस उमस का , चेहरे पर आए पसीना का भी पता न चले। वो चुपचाप पंखे का स्वीच ऑन कर बुआ के पास जाकर बैठ गयी। बुआ को तनिक भी इस बात का इल्म नहीं था। वो अचानक रोते-रोते मुस्कुराने लगी तभी उन्हें लगा बहुत देर से कोई उसे देख रहा है।
"श्यामा बुआ तबीयत ठीक है ना अब?",
"हां , मुझे क्या हुआ?"
" कुछ नहीं, बस मैं तो यूं ही पूछ बैठी। " उसे लगा बुआ उन कागज़ों को जैसे छुपा रही हो ।
" एक बात पूछूं बुआ?" उसने झिझकते हुए कहा।
बहुत दिनों बाद बुआ से कुछ पूछा है, रिद्धि कुछ बोली है यह सोच बुआ उसके गाल पर हाथ फिराते हुए बोली," पूछ ना लाडो। तुझे कब से कुछ पूछने के लिए इज़ाज़त लेने की जरूरत आन पड़ी। "
"बुआ मैं आपके इन कागज़ों को पढ़ना चाहती हूं। "
श्यामा को शायद इस बात की उम्मीद नहीं थी इसलिए वो रिद्धि को एकटक देखती रही । अचानक उसे कुछ नहीं सूझा और वो दोनों मुड़े -तुड़े ख़त जिसे रिद्धि काग़ज़ कह रही थी टेबल पर रख दिए। उसे उम्मीद नहीं थी कि बुआ उसे इतनी जल्दी अपने निजी जीवन में झांकने की इजाज़त दे देगी। फिर भी उसने थोड़ा औपचारिक होते हुए पूछा,"पढ़ लूं ना बुआ?"
"हां लाडो। " यह कहकर श्यामा न जाने क्यों कमरे से बाहर चली आयी।
वो वहीं बुआ के बेड पर बैठ गयी। कमरे के पर्दे न जाने कैसे केवल पंखे की हवा के कारण तेज हिलने लगे। वो गौर से उन हिलते पर्दों को देखने लगी। उसे लगा उसकी सांसें भी तेज़ चल रही हैं। बमुश्किल खुद को संयत करते हुए उन ख़तों को कांपते हाथों से पकड़ा। उसने देखा दोनों ख़त बहुत पुराने हो गये हैं उनका काग़ज़ पीला पड़ चुका है तारीख देखी तो दंग रह गयी एक ख़त पर बीस नवम्बर उन्नीस सौ पिचानवे लिखा था।
किसी श्याम का नाम लिखा था नीचे और ऊपर श्यामा बुआ का। उसे आश्चर्य हुआ दोनों नामों में इतनी समानता। उसकी उत्सुकता और भी बढ़ गयी। मात्र दो -चार पंक्तियों के ख़त को एक ही सांस में उसने पढ़ लिया।
" मैं उदयपुर जा रहा हूं । नौकरी लग गयी है मेरी। मन तो नहीं लगेगा तुम्हारे बिना ,पर जाना जरूरी है। जल्द ही पिताजी से शादी की बात करूंगा। तुम श्यामा हो अपने श्याम की। इंतज़ार करना मेरा। "
" श्याम यह कौन है? "मन में अनगिनत प्रश्न शोर मचाने लगे। उसने जल्दी से दूसरा ख़त भी पढ़ने का निश्चय किया। वो उन्नीस अगस्त छियानवे यानि उसके एक साल बाद का था। ऊपर वहीं श्यामा और नीचे श्याम लिखा पर इस बार फर्क इतना था नीचे केवल तुम्हारा श्याम न होकर सिर्फ श्याम लिखा । उसका मन बैठा जा रहा था, बेचैन सी वो ख़त को पढ़ने लगी। बीच में लिखा था-
" मैं जानता हूं , इन दिनों तुम्हारे मन की स्थिति लेकिन तुम भी तो मेरे मन की स्थिति जानने की कोशिश करो। मैंने कितने पत्र लिखे तुम्हें । तुमने एक का भी उत्तर नहीं दिया। मां- पिताजी शादी के लिए जोर डाल रहे हैं और तुम इस बारें में कोई बात नहीं करना चाहती। मैंने बहुत सोचा और मुझे लगता है अब हमारे रास्ते अलग हो गए हैं। मैं पिताजी के एक मित्र की बेटी से शादी कर रहा हूं । हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। अब हमारे बीच पत्रों का आदान-प्रदान नहीं हो पाएगा। "
उसकी आंखें फटी की फटी रह गयी। सहसा बुआ का चेहरा और एक अनजान पुरुष का चेहरा उसके सामने आने लगा। अनजान पुरुष बुआ की अंगुलियों में अंगुलियां फसांए उसी तरह सड़क पर चल रहा है जैसे वो और राज चलते थे। उसे लगा कोई बड़ा अजीब सा सपना है जिसका ओर-छोर ही नहीं है। न जाने क्यों उसे पानी की तलब होने लगी हलक सूखा जा रहा था और माथे पर पसीनें की बूंदें छलकने लगी। वो किचन में जाकर गटगट कर दो -तीन गिलास पानी पी गई। उसने पसीने को पोंछने की कोशिश नहीं की और वॉशबेसिन के नल के नीचे चेहरे को भिगोने लगी। टॉवल से मुंह पोंछ बाहर आयी तो बहुत सारे सवाल थे उसकी आंखों में । समझ नहीं आया वो श्यामा बुआ के पास जाएं या नहीं। कभी -कभी किसी को आधा-अधूरा न जानना भी शायद मन की उलझनों को सुलझाने के लिए ठीक रहता है एक भ्रम झूठा ही सही पर बना तो रहता है और उस भ्रम के सहारे आदमी इतना परेशान नहीं होता जितना आधे -अधूरे जानने के बाद होता है । आखिर मन की गुत्थी को सुलझाने के इरादे से उसके कदम खुद ब खुद बुआ के पास जाने के लिए उठने लगे और उसने उन्हें रोकने का कोई प्रयास भी नहीं किया। अपने कमरे से बाहर तक जाने में जैसे उसे बहुत वक्त लग रहा हो।
श्यामा बुआ ड्रांइग रुम में बैठी थी। टी.वी ऑन था और उस पर कोई सास-बहू का घिसा-पिटा सीरियल चल रहा था। बुआ तो कभी इस तरह का सीरियल नहीं देखती। वो पास पहुंच कुछ इस तरह उन्हें देखने लगी जैसे आज से पहले उन्हें जानती ही न हो। उसे लगा हम अपने दर्द में इतने बेखबर हो जाते किसी और का दु:ख हमें नज़र ही नहीं आता या हम देखना ,समझना चाहते ही नहीं कि हमारे आस-पास किसी और की पीड़ा मौन -सी पसरी पड़ी है और उस मौन को तोड़ने का प्रयास हम नहीं कर रहे। पर श्यामा टी.वी न देखकर चुपचाप अखबार पढ़ने में तल्लीन दिखायी दी। उसे लगा बुआ सचमुच अखबार पढ़ रही है या व्यस्त होने का स्वांग भर कर रही है उसने रिमोट ले टी.वी. बंद कर दिया। उसे आश्चर्य हुआ बुआ ने कोई विरोध भी नहीं किया। वो समझ गयी बुआ न जाने कहां खोयी है।
"बुआ, बुआ" यह कहकर वो गले से लग गयी। बहुत देर तक वो बुआ के कंधे भिगोती रही और बुआ उसके बालों में हाथ फेरती रही। आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे इतने दिनों बाद उसकी आंखें नदी- सी बहती ही रही ऐसा लगा जैसे बाढ़ -सी आ गयी। उसके हाथ में दोनों ख़त थे। बुआ ने दोनों ख़तों को टेबल पर रखा और उसके आंसूओं को पोंछा, कंधे पकड़ उसे पास रखी कुर्सी पर बिठाया।

" यह क्या हुआ ,इतनी पीड़ा आज बहकर कैसे आयी रिद्धि? " बुआ ने पूछा। बहुत सारे प्रश्नों को लेकर वो असमंजस में थी इसलिए चुप्पी को उसने अपने नज़दीक ही रहने दिया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो बात की शुरुआत कैसे और क्या कह कर करें। बहुत देर बाद उसने हिम्मत जुटा कर कहा,
"बुआ आपका अतीत मेरे सामने आ खड़ा हुआ है और मैं उस अतीत को जानना चाहती हूं। यदि आप की इजाज़त हो तो। "
"बहुत सारे सवाल है ना?" बुआ जैसे उसके मन की कशमकश को समझते हुए बोल पड़ी। उसे लगा इतना कुछ घट गया और बुआ इतनी सामान्य ।
"हां" गर्दन फिर हिल गयी।
" उन सवालों के जवाब जो मैं आज तक खुद को भी देने से बचती रही, फिर तुझे कैसे दूं?"
" पर बुआ, मैं जानना चाहती हूं आपके मन की पीड़ा जो आपने वर्षों से छिपा कर रखी है प्लीज़" बुआ के कंधे पकड़ कर उसने कहा।
," घाव को कुरेदने से रक्त ही बरसता है। " श्यामा बोली
"जानती हूं बुआ, पर बरसों से आपका घाव बहुत बढ़ गया है इसे मरहम भी लग सकता है। आप एक बार कहो तो सही। "
"तू नहीं मानेगी तो सुन, मैं और वो मतलब श्याम एक ही काॅलेज में एक ही क्लास में पढ़ते थे। साथ पढ़ते, बतियातें और किताबों पर चर्चा करते न जाने कब वो मुझे अपने घर में, सपनों में और हर जगह दिखने लगा और मैं उसकी सहपाठिन से खास हो गयी इसका जरा भी आभास नहीं हुआ मुझे । बस लगता था कि मैं उससे कभी भी दूर न जाऊं । उसके कॉलेज न आने पर मैं पगला- सी जाती , चेहरा पीला पड़ जाता । पूरे दिन उसकी सलामती की दुआ करती। दूसरे दिन उसका चेहरा देख मेरा चेहरा भी खिल जाता। उलाहना, रुठना, मनाना और कॉलेज कैंपस में बस हाथों में हाथ डाल बतियाना। सच रिद्धि, वो दिन बहुत खास थे। मां यानि तेरी दादी तो कब की भगवान के पास चली गयी बस घर में बाबूजी मैं और तेरे पापा- मम्मी थे और साथ में थी तू छोटी -सी घुटनों चलती ,गुलाबी गालों वाली, कत्थई आंखों वाली , घुंघराले बालों वाली। गोल -मटोल सी। सबकी जान बसती थी तुझमें। बाबूजी और भैया -भाभी श्याम के बारे में जानते थे। कई बार आया था वो अपनी मोटरसाइकिल पर घर छोड़ने इसलिए मैंने सबको सच बता दिया था। छुपाने जैसा कुछ था भी नहीं। बाबूजी उसकी प्रतिभा और व्यवहार कुशलता के कायल थे और भैया - भाभी तो मेरी खुशी से खुश थे। बस इंतज़ार था तो काॅलेज खत्म होते ही मेरी और श्याम की नौकरी लगने का। सब कुछ जीवन में सरल रेखा सा चलता रहें तो वो जीवन कहां रह जाता है उसमें टेढ़ापन जरुरी था। " कहते हुए बुआ अचानक रो पड़ी। किचन से पानी का गिलास लेकर आयी वो और बुआ के हाथों में पकड़ा सोफे पर फिर से बैठ गयी। आज वो पूरी कहानी जानना चाहती थी, जानना चाहती थी बुआ की अनकही पीड़ा जो कितने ही वर्षों से दबी थी।

"बुआ फिर" उसने कहा तो बुआ फिर रोते हुए हंस पड़ी ।
"अरे ! यह कोई बचपन वाली कहानी नहीं है, जो मैं तुझे सुनाती थी यह तो मेरी कहानी है लाडो। जो खत्म हो भी गयी और....। आगे के शब्द बुआ जैसे पचा गयी।
"पर आपने लाडो को बचपन में कितनी कहानियां सुनाई लेकिन अपनी कहानी आज तक नहीं सुनायी। " यह कह वो बुआ के नज़दीक बैठ गयी।
बुआ गहरी सांस छोड़ कर बोली, " समय पंख लगाकर निकल गया और वो समय भी आया जब श्याम की नौकरी की खबर आयी। उसे दो दिन में ही ज्वाइन करना था। वक्त नहीं मिला उसे मुझे कुछ कहने का और यह दो चार पंक्तियों का खत उसने राहुल हमारे सहपाठी के साथ भिजवाया। मैं उससे नाराज़ थी कि यह खुशी की बात यदि वो अपने मुंह से सुनाता तो कितना अच्छा होता खैर। समय निकलता गया वो उदयपुर चला गया और मैं यहीं रह गयी मैंने भी तब तक एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी ज्वाइन कर ली थी। पर अब समय बहुत मुश्किल से निकलता । रात को आंखें बंद करती तो श्याम का चेहरा ही दिखता। पूरी रात आंसुओं के साथ गुजारते हुए ख़त लिखती। सुबह तकिया भीगा मिलता। उन दिनों मोबाइल फोन तो थे नहीं और लैंडलाइन भी तो सबके पास कहां होते बस ख़त का ही तो सहारा था। दूसरी तरफ श्याम का भी यही हाल था वो भी अपने मन को ख़त से बहलाता। स्कूल से आते ही मैं दिन को पोस्टमैन का इंतज़ार करती और वहीं बरामदे में ही बैठ जाती । आने -जाने वालों को देखती जैसे ही पड़ौस में पोस्टमैन ख़त लाता उससे पूछ उठती," मेरी चिट्ठी नहीं आयी?" भाभी मेरे तन्हाई को समझती, बाबूजी मेरे दर्द को। और तो और पोस्टमैन भी जैसे मेरे विरह को समझता । जब वो चिट्ठी लेकर आता तो, " बिट्टो रानी चिट्ठी आयी है। " आवाज़ लगाता और मुझे कहता आज तो मिठाई खा कर ही जाऊंगा। मैं शरमा जाती । बाबूजी धीरे से मुस्कुरा देते और भाभी कब पोस्टमैन अंकल को बर्फी और रसगुल्ले की प्लेट लाकर देती । वो दिन लंबे थे पर ख़त उन लंबें दिनों को छोटा कर देते। मैं आये खत को एक दिन में न जाने कितनी ही बार पढ़ती। श्याम दीवाली की छुट्टियों पर लौटा । हम पूरे शहर में हाथों में हाथ डाल घूमते रहते ,कभी करणी माता के मंदिर जाते और उनसे आशीर्वाद मांगते तो कभी किसी गार्डन में बैठ कर भविष्य की योजनाएं बनाते तो कभी एक दूसरे के ख़त पढ़कर सुनाते , हंसते और खूब बातें करतें। खुशियों की अवधि भी सीमित होती है पर खुशियां आती जरुर है। जाने से पहले वो अपनी अम्मा को लेकर घर आया। अम्मा ने मेरा माथा चूम लिया । मुझे सोने की चैन पहना दी और मेरा सपना साकार होने लगा था। मैं तो रिद्धि जैसे हवा में उड़ने लगी थी। इस बार श्याम के साथ उसका परिवार भी उदयपुर चला गया हमेशा के लिए।
बस कुछ महीने बाद ही मेरी शादी होने वाली थी। तभी एक दिन तेरे पापा-मम्मी किसी रिश्तेदार से मिलने स्कूटर पर गए तो लौटकर ही नहीं आए भयानक दुर्घटना में सब समाप्त हो गया। उनकी पार्थिव देह घर आयी। मैं कभी तुझे देखती , कभी बाबूजी को। जिंदगी बिखर -सी गयी। "

बुआ ने फिर पानी पीया और शून्य में देखते हुए बोली," अब पोस्टमैन आने पर मैं खुश नहीं होती। बाबूजी मुस्कारते नहीं। वो भी अब मिठाई की गुज़ारिश नहीं करता । कौन था जो उसे बर्फी खिलाता। उदास -सा पत्र भी टेबल पर रखा रहता। बस गोद में तू होती जो मेरे कभी-कभार मुस्कुराने का सबब बन जाती। उन दिनों बाबूजी मुझे एकटक देखते लेकिन मैं कुछ भी कह नहीं पाती। अब पत्र को एक बार पढ़ कर रख देती। दूसरी तरफ श्याम शादी के लिए जल्दी मचाने लगा। समय भी तो निकलता जा रहा था और फिर एक दिन वह ख़त भी आया जिसमें उसने अपनी शादी की बात लिखी। मैंने उस दिन उसके लिखे सारे ख़त जला दिए पर ये दो ख़त रख लिए जिससे अंतिम ख़त के जरिए मैं उसे खुद से दूर कर सकूं। पर सच कहूं तो मैं उससे दूर चाहकर भी नहीं हो पायी। रोना तो मुझे आया ही नहीं। मन ने कहा इसका जवाब तो दूं पर कोई जवाब था भी तो नहीं । कोई छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए यह कहां संभव हो पाता ,हां बस फिर कभी पोस्टमैन कोई ख़त लेकर नहीं आया। मुझे देख चुपचाप निकल जाता मैं कभी कहती कि मिठाई खा लो तो वो कहता, उसने मीठा खाना छोड़ दिया है। जैसे वो भी मेरे दर्द को बिन कहे समझ गया हो। मैं फिर भी न जाने क्यों खत का इंतज़ार करती और घंटों संज्ञा शून्य -सी बैठी रहती। रात को अकेलापन घेरे रहता , दिन सांय-सांय करके डराता । उन दिनों स्कूल की नौकरी करना भी मेरे लिए बहुत कठिन हो रहा था तभी बाबूजी भी एक दिन मेरा साथ छोड़कर चले गए और रह गए केवल तू और मैं। बस उस दिन से मेरे जीवन में सबसे खास तू हो गयी रिद्धि। " यह कहकर बुआ चुप हो गयी। वो समझ गयी बुआ की चुप्पी का कारण। कोई कैसे अपने अतीत को भूल सकता है और वो अतीत जो कितने सुनहरे धागों से गुंथा हुआ था। उसे समझ नहीं आ रहा था वो बुआ को क्या कहकर सांत्वना दें । इतना तो वो जानती थी कि बुआ ने शायद उसके कारण ही शादी नहीं की लेकिन उनका यह अतीत तो उसकी कल्पना से बहुत परे था। उसने आहिस्ता से बुआ का हाथ अपने हाथों में दबा लिया और दोनों कुछ देर कुछ नहीं बोले जैसे चुप्पी ने आपस में संवाद कर लिया हो। बुआ ने उसके सिर पर हाथ फेरा और टेबल पर रखे अखबार को हाथों में उठा लिया जैसे कुछ हुआ ही न हो।

"बुआ ,आप फिर कभी भी उनसे नहीं मिली या उनके बारें में जानने का प्रयास नहीं किया। " उसने डरते हुए धीरे से कहा। बुआ की आंखों में देखा तो लगा कि इन आंखों में अभी भी किसी की तस्वीर है पर वो रिद्धि बुआ की खास ,आज से पहले इस तस्वीर से बिलकुल बेखबर थी।
" रिद्धि, मां ने एक बात बहुत पहले सिखायी थी , जिस गांव जाना नहीं उसके बारे में फिर पूछना भी क्यों। बस इसलिए और फिर उनके सुखी जीवन में मैं क्यों विध्न का कारण बनती । तू ही बता। फिर जब तू थी मेरे साथ तो किसी की आवश्यकता अनुभव कभी हुई भी नहीं। " बुआ ने उसका हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा। आज न जाने क्यों राज उसे अधिक याद आने लगा। यदि आज राज उसके साथ होता तो वो अपने मन की बातें , बुआ का अतीत उसको तो जरूर बताती। और पूछती कि कोई उपाय है जो वो उनके दर्द को कम कर सके। क्योंकि भले बुआ माने या न माने पर वो अपने श्याम को अवश्य याद करती है और इसलिए ही वो उन ख़तों को सबसे छुपा कर रखती है वक्त -वक्त उनको पढ़ती है। उसका हाथ बार -बार टेबल पर रखे मोबाइल पर जाता और फिर लौट आता ।

"मेरी एक बात मानेगी रिद्धि?"
"बोलो, बोलो ना बुआ। "
"तू अपने मन को मेरे लिए अब दु:खी मत कर। वो वक्त बीत गया और बीता वक्त लौट कर नहीं आता। अब वक्त कुछ और है पर तू अपने जीवन को यूं खत्म मत कर । मेरी मान तू ही राज को फोन लगा और बात कर लें। तेरी उदासी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। " बुआ ने उसे निहारते हुए कहा और फोन उसके हाथ में दे दिया। जैसे ही उसने फ़ोन हाथ में लिया मैंसेंजर पर उसकी निगाह गयी वहां राज का आया कोई मैसेज था। वो चौंक गयी। उसे विश्वास नहीं हुआ क्या कोई इस शिद्दत से मोहब्बत कर सकता है कि वो सोचे और दूसरी तरफ हलचल हो जाए। दो महीने बाद आए अचानक इस मैसेज ने रिद्धि के मन में खलबली मचा दी। "यह तो आज का अभी दिन के तीन बजे का है। " उसने खुद से कहा । उसके पूरे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ने लगी।
" रिद्धि याद आती हो तुम बहुत। बहुत याद आती हो तुम। आ जाओ ना फिर से मेरी जिंदगी में। मेरा नंबर भी ब्लॉक कर दिया तुमने। मैं जी नहीं पाऊंगा बिन तुम्हारे लव यू । "
"रिद्धि तुम उम्र में मुझसे दो साल बड़ी हो इसलिए छोटा बच्चा समझ कर ही माफ कर दो । "
" कान पकड़ कर सॉरी बोल रहा हूं, मेरी अम्मा। अब तो मान जाओ और बात कर लो। " और अंत में अलग-अलग तरह के इमोजी बने हुए थे एक के बाद एक , तीन मैसेज पढ़ और इमोजी देख रिद्धि जोर से हंसने लगी। बुआ उसका मुंह देख रही थी । पर बोली कुछ नहीं।

शाम होने वाली थी। सूरज कब का जा चुका था। अंधेरे ने आहिस्ता से दस्तक दी ही थी कि बुआ ने लाइट जला दी और भगवान की तस्वीर के आगे हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी। मानो कोई दुआ मांग रही हो। दूसरी तरफ वो हंसते हुए अचानक रुक गयी उसे समझ नहीं आया वो इन मैसेज का उत्तर दे या न दें। बहुत सोचने के बाद उसने लिखा," पर मेरा निर्णय आज भी वहीं है। बुआ मेरे संग रहेगी। "
दूसरी तरफ से फिर मैसेज," मुझे शर्मिंदा मत करों। वो मेरी मां के समान है। मैंने मां को नहीं देखा। लेकिन अब देख पाऊंगा। तुम्हारे बिना जीना मुमकिन नहीं है रिद्धि। मैं कल ही पापा को संग लेकर आ रहा हूं बुआ से मिलने। " अचानक उसके गाल लाल हो गए । अब तक राज के बिना गजरे समय को सोच कर ही आंखें फिर भर आयी।
उसने बुआ से कहा," बुआ राज आ रहा है कल आपसे मिलने । हां कह दूं ना?"
"हो गयी तुम्हारी सुलह पागल लड़की? पल-पल खुद को मिटाने में लगी थी। तुम आज की जेनरेशन प्रेम को ठीक ढ़ंग से समझ ही नहीं पाती। छोटी-छोटी बातों पर लड़ने लग जाती हो। अच्छा हुआ समय पर निर्णय ले लिया । अन्यथा कई बार बहुत देर हो जाती है और सिवाय पछतावे के कुछ नहीं रहता। " अंतिम पंक्तियां जैसे बुआ रुक-रुककर बोली ।

" जल्दी बताओ ना बुआ" यह कह वो न जाने क्यों मुस्कुरा पड़ी ।
" बेवकूफ लड़की हां कह दे और यह भी ठीक से समझा दे ,बुआ तेरे कान खींचने वाली है इसलिए कल जरुर आ जाना। '
" हां राज, मैं तुम्हारा इंतज़ार करुंगी। " रिद्धि ने जल्दी-जल्दी टाइप किया और मोबाइल रख दिया।
वो अपनी उदासी से उबर चुकी थी लेकिन आज जब बुआ का अतीत उसके सामने आया तो वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें जिससे बुआ के दु:ख को हल्का कर सके। सहसा उसे लगा कि वो श्याम नाम पहले भी कहीं सुन चुकी है। पर दुनिया इतनी बड़ी है हजारों लोग श्याम नाम के होते हैं तो इससे क्या। लेकिन कुछ तो है इस श्याम नाम के पीछे जो छूट रहा है वो उसे ही पकड़ नहीं पा रही है। खुद की उधेड़बुन से निकलना कितना कठिन होता है उसे यह आज पता चला। दिमाग पर जोर डालने लगी तो अनगिनत सलवटें माथे पर आ गयी।
उसने फेसबुक पर श्याम के नाम से सर्च किया और सन्न रह गयी।
" क्या हुआ लाडो,अब तो सब ठीक है ना?"
"बस बुआ, एक फोन लगा लूं। फिर करती हूं आपसे बात"उसने श्यामा से कहा और फोन लेकर मॉल में चली आयी। श्यामा कुछ समझी नहीं उठकर शाम के खाने की तैयारी करने किचन में चली गयी।
उसने जैसे कोई सिरा पकड़ लिया। बिना देर किए राज को मैंसेंजर से बात करने की बजाय ब्लॉक हटा कर सीधा फोन लगा दिया।
" हैलो राज , तुम कल आ रहे हो ना अंकल के साथ। बुआ से मिलने । "
" ए रिद्धि ! अभी तो कहा ना पक्का, क्या अभी भी विश्वास नहीं है तुम्हें ?बताओ यार। इतने दिनों बाद तो तुम्हारी आवाज़ सुन पाया । कितना सताया है तुमने मुझे , अब मिलोगी तो बदला लूंगा। पहले तो मेडम ने ब्लॉक ही कर दिया था मेरा नम्बर... शुक्र है एफ बी पर नहीं किया। " दूसरी तरफ से राज ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा।
" तो साहब आज ही सारी बातें कर लेंगे क्या‌। कल आओ घर, अंकल के साथ । बहुत सारे हिसाब बराबर कर लेंगे और हां लंच साथ करेंगे समझे पगले। " यह कहकर उसने हंसते हुए फोन काट दिया।

बहुत दिनों बाद वो हंसी है। उसकी आंखें आज सपने देखेगी। वो बिना बात खुद से बतियाएगी और बेवजह खुद को देख इतराएगी। यह सब सोचते-सोचते वो अपने कमरे में गयी एक गुलाबी साड़ी निकाली और उसे लेकर सीधा बुआ के पास आ गयी।

साड़ी को उसने श्यामा के कंधे पर रख दी और मुस्कुराते हुए बोली," बुआ कल आप यह पहनना। आप पर यह रंग बहुत खिलता है। " आटे सने हाथ थे श्यामा के। रिद्धि के मन की बातों से अनजान वो आंखों ही आंखों में जैसे पूछ रही हो," राज तेरे लिए आ रहा है फिर मैं क्यों यह साड़ी पहनूं?"
दूसरी तरफ वो बुआ से मानों कह रही हो, " कल राज मेरे लिए आ रहा है लेकिन आपके लिए भी तो कोई खास आ रहा है। " बुआ कुछ नहीं समझी और उसने कुछ नहीं समझाया । बस चार आंखें मुस्कुरायी और दोनों प्रतीक्षा करने लगी रात को सपनों की , सपनों में कुछ खास बातों की और दूसरे दिन सब ऑल इज वेल होने की।

- विनिता बाडमेरा

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