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प्यार के फूल

म्र की इस दहलीज पर खड़े होकर न जाने क्या-क्या सोच रही हूँ। पेड़ों से छन-छन कर आती हुई ये धूप-छांव हाँ धूप-छांव से ही भरा रहा है जीवन मेरा। मन को आज भी याद है वो खिड़की जिस से झांककर मैं घंटों सड़क को ताका करती थी। उम्र का वो सुनहरा साल कितनी स्वप्निल यादें छोड़ कर चला गया हमेशा के लिए।
सड़क के दोनों ओर थे ऊंचे-ऊंचे पेड़ अमलतास, कचनार, अशोक और कितनों के तो मुझे नाम भी न मालूम थे उनसे खिलते झड़ते फूल और पत्ते। फूलों की भीनी खुशबू और हवा के झोंकों से उड़ते हुए मेरे बाल। जाने कहाँ आते-जाते ढेर सारे लोग। सब कुछ सुहावना। और हाँ सबसे ज्यादा प्यारा लगता मुझे पूरन काका को उस सड़क पर देखना। जो अपने खाकी झोलों में ढेर सारी चिट्ठियाँ भरे रहते। घंटी बजाती उनकी साइकिल मुझे ख़ूब भाती। और एक दिन अचानक खिड़की के नीचे से आवाज आई बिटिया तुम्हारी चिट्ठी आई है। मैं दौड़ पड़ी बाहर की तरफ। मेरी चिट्ठी। म ”अरे-अरे बिटिया गिर न जाना। “ काका ने हंसते हुए कहा और एक बड़ा सा भूरा लिफाफा मेरे हाथों में थमा दिया। हाँ मेरा ही नाम था उस पर- पुष्प पंखुड़ी। ये क्या नाम हुआ भला पुष्प पंखुड़ी फूल की पुष्प पंखुड़ी फूल की मेरे चारों तरफ नाचते, गाते बच्चे मुझे ख़ूब चिढ़ाते और मैं रुँआसी हो जाती। पर आज ये नाम कैसा शहद सा लगा पुष्प पंखुड़ी फूल की में गुनगुना उठी आप ही शरमा गयी और हाथों से चेहरे को छुपा लिया। किसी स्वप्न से घिरी हुई अपने कमरे तक आयी। आहिस्ता से लिफाफे को खोलने लगी कि अंदर जो जादू भरा है उसका कोई भी हिस्सा मुझसे छूट न जाए। लिफाफा खुला अंदर से एक ग्रीटिंग कार्ड निकला। चट हरा-भरा पेड़ों और फूलों से घिरा नजारा जैसे सामने की सड़क ही उस पर उतर आयी है। अंदर कुछ शब्द जो आज तक मेरे ज़हन में अंकित हैं।

“दिस वर्ल्ड इज अ ब्यूटीफुल प्लेस बिकॉज़ यू आर इन इट”
लिफाफा उल्टा-पुल्टा नहीं कोई संबोधन नहीं भेजने वाले का नाम नहीं। एक मीठी सी चुभन और हज़ारों कल्पनाओं से भीग गए तन-मन पढ़ी हुई रासायनिक क्रियाओं का आज मतलब समझ आ गया मुझे।
ओहो कितना वक्त हो गया माँ आने ही वाली होगी। हाँ माँ हमारे छोटे से कस्बे के एकमात्र सरकारी हायर सेकेंडरी स्कूल की प्रिंसिपल है। प्रतिभाशाली, सुघड़ सलीका पसंद कलात्मकता से भरी मेरी माँ को सब पसंद करते हैं। मोह लेती वो सब को। साधारण वस्तुओं को असाधारण बनाना कोई उनसे सीखे रसोई में जाती तो मैं समझ ही नहीं पाती कि सामान तो इतना कुछ नहीं था लेकिन ये थाली इतनी सज कर कैसे आ गयी। विद्यार्थियों का घर में आना-जाना नहीं था। शायद माँ मेरे लिए असुरक्षित महसूस करती होंगी।
और पापा नहीं मुझे उनकी कोई याद नहीं धुंधली सी भी नहीं। पापा का नाम लेते ही माँ का चेहरा इतना कठोर हो जाता कि फिर कुछ हिम्मत ही नहीं होती पूछने की। मैंने इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया था दबी-छुपी बातों से मैं इतना ही सुन-समझ पायी थी कि शादी के कुछ समय बाद पापा एक साधारण औरत के मोह जाल में पड़ गए थे उन्हें वो बहुत पसंद आया। कुछ समय बाद वो हमारे कस्बे के पास वाले शहर में रहने लगे। आखिरी बार उनको वहाँ उस साधारण औरत के साथ कागज़ पर समोसा खाते देखा गया था। ये प्रतिभाशाली प्रखर औरतों के साथ आदमियों का रहना मुश्किल होता है क्या। नहीं बस ऐसे ही उस कच्ची उम्र में भी ये ख़याल कैसे आ गया पता नहीं। तभी बाहर खट-पट की आवाज हुई। ओ माँ आ गयी। मैंने झट से लिफाफा अपने बिस्तर के नीचे छुपाया और बाहर आ गयी। माँ ओ माँ मम्मा मैं उनसे जाकर लिपट गयी। क्या बात है आज पुष्पी बिटिया को बड़ा लाड़ आ रहा है हम पर। हाय माँ कित्ता सुंदर लगता है जब आप पुष्पी बोलती हो।
“अच्छा ये तो ओल्ड फैशन नाम है न!” माँ ने मुस्कुराते हुए कहा नहीं माँ ये बहुत ही काव्यात्मक नाम है।
“ओ हो काव्यात्मक क्या बात है पढ़ाई तो अच्छी चल रही है न। “
“माँ !” मैं फिर उनसे लिपट गयी।
“अच्छा बाबा अंदर तो चलो मुझे बहुत भूख लगी है। “ माँ अंदर की तरह बढ़ी।
“ हाँ माँ मुझे भी। “
माँ फ्रेश होने गयी मैं रसोई में आ गयी। माँ जाने कब सुबह से उठकर सब काम करके जाती है ताकि मैं अच्छी तरह पढ़ाई कर सकूं। मेरी 12वीं की परीक्षा नज़दीक थी मैं घर में ही पढ़ाई करती रहती। माँ आई मैं बुत बन के वहाँ खड़ी थी।
“ओ हो पुष्पी क्या हुआ बेटा। ”
“नहीं कुछ नहीं माँ। “ वो खाना लगाने लगी। अपनी पसंद का मटर-पुलाव और पनीर खाके मैं खुश हो गयी। खाने के दौरान मैं और माँ ख़ूब बातें करते रहते। माँ स्कूल के सारे किस्से मुझे सुनाती और मैं अपनी कहानियां माँ को। स्कूल में जितनी सख्त प्रिंसिपल थी वो घर आकर कैसे बच्ची बन जाती सारे मुखौटे उतार फेंकती। अरे पता है पुष्पी वो मोटी मिश्राइन मैम है न आज स्कूल लेट आयीं हाँफते-हाँफते ऑफिस में और धड़ाम से मेरे आगे गिर गयीं। हाय मैडम हम क्या करें हाय मैडम हम क्या करें आगे से लेट नहीं होंगे।
मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी दबाते हुए सहायिका दीदी के साथ मिलकर उन्हें उठाया। कहते हुए माँ की आंखें बच्चों की तरह चमक उठतीं और मैं उन्हें देखती रह जाती।
और वो सिंहनी है न अरे वही अपने सिंह अंकल की वाइफ सारा समय गॉसिप का टॉपिक ढूंढती रहती है माँ को बोलते-बोलते कभी ठसका भी लग जाता पर वो नहीं मानती मैं उन्हें पानी पिलाती माँ मुझे कहती मैं तुझे बहुत सारी बातें बताना चाहती हूँ पुष्पी। फिर कहीं खो जाती।
आज की चिट्ठी की बात मैंने माँ को बिल्कुल नहीं बताई जैसे ये मेरा एक मीठा राज़ बन गया। दोपहर में माँ आराम करती और मैं अपने कमरे में पुराने गाने सुनती माँ का कैसेट कलेक्शन मुझे पसंद था। कभी कुछ हल्का-फुल्का पढ़ लेती पर उस दिन माँ के कमरे में गयी और उनसे कसके लिपट कर सो गयी।
कार्ड की लाइंस मेरे आस-पास गूंजने लगी-
“ये दुनिया ख़ूबसूरत है क्योंकि इसमें मैं हूँ”
“ये दुनिया ख़ूबसूरत है क्योंकि इसमें मैं हूँ”
और हजार रंग वाला इंद्रधनुष मेरे चारों ओर छा गया।
उठो बिटिया ‘चाय पर्व’ का समय हो गया और मेरे इंद्रधनुष का सबसे ख़ूबसूरत रंग मेरे सामने था- माँ शाम की चाय को मैंने ही नाम दिया था चाय पर्व। हंसती, खिलखिलाती गुनगुनाती बातों का पर्व। लकड़ी की नक्काशी वाली ट्रे में होते तले हुए करारे मखाने, भुनी मूंगफली, माँ के हाथ की नानखटाई और अदरक तुलसी की गुड़ वाली चाय। माँ मुझे कहानियां सुनाती कभी कोई कविता या पुराना गीत मैं बस सुनती मुग्ध भाव से। सोचती हूँ वर्तमान कहीं न कहीं हमारे भविष्य को भी बुन रहा होता है। वो छोटी-छोटी खुशियां हमेशा मेरे आज का संबल बनी रहीं।

ऐसी बहुत सारी बातें स्मृति-पटल पर आती-जाती रहती है पर कुछ यादें ऐसी होती हैं न जो पूरे वेग से अतीत को चीरती हुई बार-बार हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। चिट्ठी की बात मैं लगभग भूल गयी थी कि एक दिन पूरन काका की साइकिल और एक भूरा लिफाफा मुझे अपनी ओर आते दिखाई दिए। मैं लगभग उड़ती हुई नीचे गयी। हाँ मेरे ही नाम का लिफाफा था। उस लिफाफे को छूने का एहसास ही ऐसा था जैसे मैं लिखने वाले के हाथों को। ओहो। शरमा के मैं अंदर आ गयी भूरे लिफाफे से एक गुलाबी ग्रीटिंग कार्ड झांक रहा था। जिस पर सिर्फ गुलाब बने थे। अंदर लिखा था-
“ओ गुलाबी लड़की महकना गुलाबों सी
आना मेरे आंगन में परी बन के
एक दिन। “

उस रात हज़ारों फूल मेरे आस-पास खिल उठे जिसकी हर पंखुड़ी गुलाबी थी और सुबह सच में मेरे लॉन में कुछ गुलाबी फूल बिखरे हुए थे मैंने हौले से उन्हें छुआ, सहेजा और अपने में समेट लिया। चुपचाप बॉटनी की बुक में रख दिया वहाँ इतनी सारी वनस्पति थी फूल-पत्तों की बातें थीं कुछ असली गुलाब भी रहे इनके साथ और क्या। मैं हँस पड़ी आप ही। सबकी जिंदगी की किताब में ऐसे गुलाब होते हैं कुछ की कहानियाँ मुकम्मल होती है और कुछ अधूरी रह जाती है हमेशा के लिए। फिर समय के साथ-साथ चिट्ठियों का सिलसिला भी बढ़ने लगा। मैं अपने-आप को बड़ा और समझदार महसूस करती।

पता नहीं मेरी कोई चिट्ठी माँ ने देख ली थी या पढ़ी थी शायद बस एक दिन बोली तुम मुझे अपनी हर एक बात बता सकती हो पुष्पी। मैंने कुछ नहीं कहा ख़ामोशी से उन्हें देखती रही। सोचा था मज़े ले लेकर माँ के साथ वो चिट्ठियाँ पढूँगी पर मैंने ऐसा कभी नहीं किया।

पूरन काका ने इन लिफाफों की बाढ़ को सहजता से लिया क्योंकि माँ की प्रिय पत्रिकाएं सरिता, ग्रहशोभा, मनोरमा और बहुत सारी किताबें नियमित आती थी मेरा स्टडी मटेरियल भी। मैंने कई बार खुशी में आकर काका को माँ के हाथ के बने लड्डू और गुजिया खिलाये। काका मुझे ख़ूब असीसते। बिटिया ख़ूब पढ़े-लिखे अच्छा घर-वर पाये फिर पता नहीं आकाश की ओर देखकर किस अदृश्य देवता का आव्हान करते। घर तो मेरा अच्छा बनना ही था पर वर। माँ का अनुभव मुझे डराता।

कुछ चिट्ठियाँ मुझे जस की तस याद रही हमेशा। प्रखर माँ की प्रखर बेटी।
कुछ ग्रीटिंग कार्ड्स में संबोधन भी आने लगे-
माय गोल्डन गर्ल, मेरी आकाश कुसुम, मेरी झरना, मेरी चिड़िया, मेरे गुलाबी फूल, माय ऑक्सीजन।
गुलाबी रंग उसे बहुत पसंद था चिट्ठियाँ कार्ड उसके शब्द अक्सर इसी रंग में रंगे होते।
अचानक मैंने पाया कि मेरे कपड़े, मेरे बालों का फूल यहाँ तक कि ख़याल भी गुलाबी हो गए हैं।
एक चिट्ठी में सुनहरे शब्दों में लिखा हुआ था-
माय गोल्डन गर्ल, गोल्डन आइज़, गोल्डन स्माइल विथ गोल्डन हार्ट …
माय 25 कैरेट गोल्ड बी हैप्पी ऑलवेज.
ये 25 कैरट क्या हुआ भला ओ हो अच्छा। मेरा बर्थडे होता है न 25 दिसंबर। उसे पता था।
एक और कार्ड्स की लाइन्स मुझे बेतरह याद आती हैं।
कार्ड पर एक दृश्य था। आसमान में छोटे-छोटे दिल पंख लगाकर उड़ते हुए। नीचे एक टेडी बेयर उसके हाथ में भी दिल बगल में शहद का मटका जिस पर लिखे हुए हनी को सफाई से एक छोटे से पेपर से छुपाया हुआ और लिखा हुआ था पुष्प ओ हो उसे मेरा नाम भी पता था पूरे कार्ड पर गुलाबी पंखुड़ियां बिखरी हुई थीं। अंदर लिखा था
मेरे गुलाबी फूल,
तुम्हारे सपनों को पंख मिलें
तुम्हारी इच्छाओं को मान
चुनने का अधिकार हो
तुम्हारे पास
आँचल आबाद रहे चाँद-सितारों से
बस इतनी सी ख्वाहिश है
तुम्हारे लिए ….
वो दिलचस्प अजनबी मेरी दुनिया में इक खास जगह बना चुका मेरी कल्पनाओं ने उसका नामकरण किया साहिल।

मेरी सारी भावनाओं, कामनाओं को किनारा मिल गया था जैसे साहिल, साहिल, साहिल इसको मैं माला की तरह जपने लगी माँ रात को माला जपती थी पता नहीं किसके नाम की। मेरे सपनों में न जाने कितने रंग भर गए। लाल गुलाबी रुपहले सुनहरे चमकीले। मीठे सपनों का भंडार हो गई मेरी रातें मेरी नींद। एक दिन दिखा एक छोटा सा देवदूत जिसके सर पर गुलाबी फूलों का ताज था। वो मेरे करीब आया मेरी आंखों में देखा और सारा आलम सुनहरी चमक से भर गया। कभी देखती कि साहिल के साथ एक ऐसे जंगल में हूं जिसके हर एक पत्ते पर गुलाबी लाल छींटे थे। हाँ मैं प्यार में थी।

अकेले में माँ की चूड़ियां पहनना, गहने पहनना, माथे पर छोटी सी बिंदिया सजाना साड़ी लपेटना मेरा प्रिय शगल बन गया। माँ की कहानियों की किताबें उपन्यास पत्रिकाएं सब मेरे लिए अनमोल खजाना हो गए। परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थी माँ को अच्छे परिणाम की आशा थी और मुझे भी। माँ अपने स्कूल के वार्षिक लेखे-जोखे में बुरी तरह व्यस्त रहती। मैं सारा दिन किताबों के अनूठे संसार में विचरती रहती। मेरा एकदम पसंदीदा काम था दोपहर में खिड़की से बाहर ताकना और किताबें पढ़ना। साहिल मेरे सामने आएगा तो क्या कहेगा- ओ मेरे बुद्धू गुलाबी फूल मैंने तुम्हारे लिए इतना कुछ लिखा और तुमने मेरे लिए कुछ भी नहीं। अच्छा वो ऐसे कहेगा तो फिर मुझे भी कुछ लिखना चाहिए और मैंने अपनी पहली कविता सा कुछ लिख ही डाला।
मेरे प्रिय तुम
मीरा सी भगतन नहीं मैं
लैला सी दीवानी
शीरी फरहाद को पढ़ती हूं मैं
त्याग नहीं कर सकती वैसा
प्यार में दिए हुए सारे
टेडी बेयर, चॉकलेट, फूल
स्वीकार रहेंगे सदा मुझे
तुम्हारी प्रिय मैं
बुद्धू गुलाब का फूल
मन में हिलोरें उठने लगी साहिल खुश होगा ना ये पढ़के। सोचते-सोचते सो गई , थोड़ी देर के लिए जाने किस जहाँ में खो गई। मन की हिलोरे समंदर की लहरों से जा मिली और समंदर की ऊंची ऊंची लहरे आसमान से। उफ्फ समंदर बावरा हो गया था क्या और मैं भी। समंदर की लहरों के साथ लहराती मैं मुझे किनारे की परवाह नहीं वो मेरे सामने था साहिल फिर सब कुछ गड्ड-मड्ड और नींद खुल गई। सुबह के सपने सच होते हैं और दोपहर के सपनों का क्या? मैंने विचारों को झटक दिया और खिड़की के पास आ गई एक अनजानी दुनिया को देखने समझने और अचानक अचानक मुझे दूर-दूर तक जाती उस काली सड़क पर एक आकृति आती दिखाई दी। एक लड़के की। मैं उत्सुकता से उसे देखने लगी उम्र लगभग 21, 22 या 23 कद ख़ूब लंबा ही लगा मुझे। थोड़ा करीब आने पर पता लगा उसने ब्लू डेनिम जींस और ब्लैक टी-शर्ट पहनी हुई थी। टी-शर्ट पर थी लाल रंग की जैकेट हरे और काले चौखाने वाली। बाल ख़ूब घने काले। मेरे घर की तरफ ही आता दिखाई दिया। मैं झट से खिड़की के पीछे छुप गई। और हौले से दरार में से झांकने लगी। पता नहीं कौन होगा ये। मेरे कस्बे के कॉलेज में आसपास के शहर के लड़के जिन्हें अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलता था यहाँ से डिग्री लेने आते थे ज्यादातर रईसजादे नहीं वो बिगड़े हुए नहीं थे ऐसी तो कोई बात सुनने में नहीं आई। माँ की जानकारी। ऊँ हूँ जो भी हो मुझे क्या और सामने सड़क खाली थी। मन के घोड़ों ने पूरे वेग से अपनी गति पकड़ी। ये साहिल होगा हाँ यही है। बिल्कुल। कैसे मुग्ध भाव से देख रहा था खिड़की की और। उसका भाव कहाँ से दिख गया था मुझे इतनी दूर से। हाँ ये मुझे घर में ऊपर नीचे देखता होगा जानकारी आस-पास से ले ही ली होगी। पक्का पक्का यही है मेरा साहिल। मन के घोड़े जंगली घोड़े चिंघाड़ते हुए रोके माँ सामने थी।
कमजोर और थकी हुई लग रही थी। अपना ध्यान रखो माँ मैंने उनके हाथ थामते हुए कहा तू है न मेरी पुष्प पंखुड़ी उन्होंने लाड़ से मेरे सर पर हाथ फिराया। मेरे शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों से माँ अनजान नहीं थी ये बात मुझे बहुत-बहुत बाद में पता चली। मेरी दिलचस्प अजनबी शख्स को अब एक आकार रूप मिल गया था और मेरी कल्पनाओ को नया रंग। मेरे भविष्य की योजनाएं स्पष्ट थी पहले बीएससी फिर बॉटनी सब्जेक्ट से एमएससी फिर शोध कार्य शादी और उस दिलचस्प अजनबी को लेकर कोई स्पष्ट चित्र नहीं था। पर जीवन रेखा इतनी सहज, सरल सीधी होती है क्या उसकी अपनी गति और मति होती है।

और एक दिन अचानक हाँ बिल्कुल अचानक वो तूफान की तरह आए और सब कुछ बिखेर कर चले गए।
मैं मैं वो वो
मेरे सामने एक शिष्ठ सौम्य से लगने वाले सज्जन खड़े थे। कौन हैं ये मेरी माँ के कोई सहकर्मी, मित्र या पापा नहीं मैं अनजानी सी आशंका से कांप उठी।
“अंकल मम्मी अभी घर पर नहीं है। “ प्रत्यक्ष में मैंने कहा। उनका वो घबराया हड़बड़ाया चेहरा मुझे अभी तक याद है। मैं वो नदी के पास वाले गेस्ट-हाउस में रुका हुआ हूं।
“ओ अच्छा! मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था। “
“तुम्हारा नाम आँ आँ”
“पुष्प पंखुड़ी” मैंने झट से बोल दिया
“हाँ हाँ वही ”
“अंकल आप शाम को आइएगा मम्मी घर पर मिलेंगी। ”
उन्होंने एक गुलाबी कागज़ मेरी और बढ़ाया बिना देखे मुड़े तेजी से उस लंबी काली सड़क पर चलते चले गए। मैंने कांपते हाथों से कागज़ खोला बिना संबोधन लिखा था --
“मैं सिद्धार्थ श्री लेखक कवि (ओ ओ ओ पढ़ा है इन्हें मैंने)
महानगर की दौड़ती भागती जिंदगी में मेरा कहीं सुकून खो गया था। और मेरी कहानियां भी। सब कुछ मर रहा था जैसे अंदर ही अंदर। मेरे एक अभिन्न मित्र यहीं रहते हैं उन्होंने इस कस्बे का ऐसा मनमोहक चित्र बनाया कि मैं यहाँ खिंचा चला आया ग़लत नहीं थे वो। नदी, पहाड़, छोटा सा झरना, पुराना मंदिर, ढेर सारे पंछी, सुरम्य वातावरण और और तुम ….. सब ने मेरे सूखे हृदय को फिर से हरा-भरा कर दिया जैसे नई ऊर्जा से भर उठा में।

कहानियों और कविताओं का एक ताजा सोता बह निकला। हवा में बाल उड़ाती तुम, हंसती खिलखिलाती ऊपर-नीचे दौड़ती-भागती तुम, कुतर-कुतर कर कुछ खाती तुम कब मेरी प्रेरणा बन गई मुझे भी पता नहीं चला। बहुत कुछ अधूरा-अनकहा छोड़कर जा रहा हूं तुम्हारे सुख की कामना सदा रहेगी मेरे गुलाबी नहीं कुछ नहीं। “
मैं ज़ार-ज़ार रो रही थी। मेरे सारे सपने कांच की तरह टूट कर किरच-किरच बिखर गए थे। वो सब मेरे अंदर इतना गहरा चला गया था पता ही नहीं चला। मैं अपने आप को छला हुआ महसूस कर रही थी। मैं गहरे अवसाद में चली गई माँ ने मुझे पूरी ताकत से सहेज लिया संभाल लिया बिना कोई सवाल किए। बहुत धीरे-धीरे मैं सब से बाहर आई और पूरी ताकत से अपने-आप को पढ़ाई में झोंक दिया। बीएससी में मेरे आशा से अधिक मार्क्स आए और आया जिंदगी का सबसे स्वीट सरप्राइस पीयूष।

ये पीयूष पारस है माँ ने उनसे मिलवाते हुए कहा था। दिल्ली में इनका ज्वेलरी का बिज़नेस है यहाँ अपनी बुआ के घर आए हैं मैंने ध्यान से उस बंदे को देखा मैं जड़ हो गई संसार थम गया वही डेनिम जींस, ब्लैक टी-शर्ट लाल जैकेट। साहिल मेरा साहिल माँ की आवाज- यही है मेरी पुष्पी बिटिया पहले थोड़ी देर शर्माएगी फिर कहेगी अपनी बात। और संसार चल पड़ा अपनी पूरी गति से। माँ और पीयूष एक-दूसरे को देख कर मुस्कुरा रहे थे। तुम लोग बातें करो मैं चाय बना के लाती हूँ । माँ अंदर चली गई। एक नन्हा टेडी बेयर, लाल गुलाब, चॉकलेट और पेन पीयूष ने मेरे हाथों में थमाते हुए कहा- स्वीकार है? उन आंखों में कशिश थी पर एक पल में ही अतीत की कितनी बातें कौंध गई मेरे अंदर मेरे अनुभव।

“ओके ओके टेक योर टाइम। आई कैन वेट। “ पीयूष ने कहा और मैंने अपने सारे पूर्वाग्रहों को पूरे वेग से झटका उन आंखों में देख कर कहा- स्वीकार है।
फिर तो मेरी बातों का खजाना और पीयूष का धैर्य किसी ने हार नहीं मानी। पीयूष अपने माता-पिता की इकलौती संतान। पिछले साल एक कार-दुर्घटना में उन्हें खो चुके थे। अपनी पढ़ाई अपने सपनों को एक तरफ रख पिता के बिज़नेस को संभाल रहे थे। मैं सन्न । इतनी छोटी उम्र में ये सब। हम हमेशा सोचते हैं न कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ लेकिन जब आसपास की जिंदगी को देखते हैं तो जान पाते हैं कि सब का संघर्ष सबसे बड़ा है। पीयूष के प्यार ने मुझे एक नया आसमान दिया उड़ने के लिए। मेरे मन की सारी ग्रंथियाँ खुल गयीं। उनके सहयोग से मैंने बॉटनी में एमएससी किया। पेड़-पौधों, फूल पत्तियों को करीब से जानने के लिए। हिंदी में M.A. किया अपने समृद्ध साहित्य को पढ़ने समझने के लिए और शोध कार्य….
माँ s s s s s s s
जैसे पूरे ब्रह्मांड को गुंजाती हुई एक मीठी आवाज मेरे कानों तक आई ओहो कितनी देर से मैं यहाँ बगीचे में खड़ी थी एक सदी गुजर गई हो जैसे। मैंने मुड़ कर देखा।
अर्श इनाया।
आसमान से भेजा हुआ ईश्वर का सबसे ख़ूबसूरत उपहार। मेरी बिटिया मेरा वर्तमान। माँ चलो मनाएं चाय पर्व और हाँ आज तुम अपनी कोई कहानी या कविता हमें सुनाना। हाँ मेरी नन्ही समीक्षक अर्शी मैंने प्यार से उसकी ओर देखते हुए कहा और अंदर जैसे अतीत उतर आया हो। वही मखाने, मूंगफली, नानखटाई, चाय और और माँ। हाँ माँ हमारे साथ ही रहती हैं। आस-पास रहने वाले युवा लड़के-लड़कियों की भीड़ अक्सर उन्हें घेरे रहती है भविष्य के मार्गदर्शन के लिए। माँ बहुत अच्छी काउंसिलर भी है।
छुट्टियों में हम सब जाते हैं उस यादों से रचे-बसे घर में। अर्शी को भी मेरी तरह खिड़की से बाहर की दुनिया देखना बहुत पसंद है। नहीं मुझे कोई असुरक्षा या डर नहीं। जिंदगी है तो धूप छांव है। रहेगी ही। माँ माँ सुनाओ न कहानी कहाँ खो गई। हम अच्छे बच्चे बनकर सुनेंगे है न पापा है न नानी। हाँ जी हाँ जी सब ने एक स्वर में कहा।
अर्शी मेरी गुड़िया है
आफत की वो पुड़िया है
पीती ठंडा पानी है….
क्या माँ आप भी न अर्शी बनावटी गुस्से से मुझे देख रही थी। मैं खिल खिला रही थी मेरी आंखों में चमक थी बिल्कुल वैसी ही जैसी माँ की आंखों में होती थी जब वो मुझे कहानियां सुनाया करती थी। माँ और पीयूष मुझे मुग्ध भाव से देख रहे थे।
असल में कहानियां तो आसमानों में लिखी जा चुकी है सारी बस हमें अपना किरदार निभाना है पूरी शिद्दत से। उस रात मैंने कुछ पंक्तियां लिखी और एक लाल गुलाब के साथ पीयूष के सिरहाने रख दी।
मेरे पन्ना
तुमको देखा था और
देखती रहूंगी सदा
ये अद्भुत घट गया न
प्रेम का जो अमृत
पिया तुम्हारे साथ
अब कोई नया प्रेमिल
संसार रचेगा क्या
एक नई प्रेम-कहानी
मेरी तुम्हारी!
हीरा पन्ना
सबकी जिंदगी की किताब में एक प्यार का फूल तो होना ही चाहिए है न।

- शिल्पी माथुर

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