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रोशनी

जिंदगी कई बार इतनी निष्ठुर हो जाती है कि इंसान को इम्तिहानों की भट्ठी में तपाकर खरा सोना बनाने की जिद्द पर उतारू हो जाती है और इस ताप को झेलने के क्रम में कितने व्यक्ति विशेष स्वर्ण से निकल पाते होंगे। कितने कठोर ताप से भस्म भी हो जाते होंगे। ऐ जिंदगी क्यों है तेरे इम्तिहान इतने कठिन, इतने कठोर। क्या चाहती है तू? क्यों हर बार एक नया रूप लेकर सामने आ खड़ी होती है हमें परखने के लिए। रोज़ की तरह अपनी डायरी लिख ,चेहरे को हाथ से ढक, न जाने किन ख्यालों में गुम थी रोशनी। कितनी मुश्किल से उसने स्वयं को सम्भाला था उस आघात से जहाँ निर्दोष होकर भी उसको असहनीय पीड़ा सहन करनी पड़ी थी। कितनी टूट गई थी वह। चार महीने तक अवसाद में रही। अगर माँ ने नहीं सम्भाला होता और ईश्वर की कृपा न होती तो रोशनी कभी उस वक्त को विस्मृत न कर पाती, संभल न पाती।

ऑनर कीलिंग, हत्या, एसिड अटैक, दंगों की खबर से आज वह पूरा दिन व्यथित रही। मन ही मन न जाने कैसा भावों का समुद्र मंथन सा चल रहा था जिसमें उसे अनजाने भय का विष ही हाथ लग रहा था। वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रही थी। क्या प्रतिष्ठा, मान -सम्मान, रुतबा, ऊँच -नीच, अमीर-गरीब, धर्म ये सब किसी इंसान के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है। क्यों मानव, मानव जीवन के महत्व को, भावनाओं को इतना तुच्छ और सस्ता समझता है इन बातों के सामने कि किसी की जान लेने में, किसी को नुकसान पहुँचाने में उसके हाथ एक पल के लिए भी नहीं काँपते। यह बात रोशनी कभी समझ नहीं पायी। कितना अप्रत्याशित है ये जीवन, ये समाज।

“रोशनी। ओ रोशनी कब तक यूँ ही सोती रहोगी बेटा! चलो उठो, बहुत काम है, बहुत तैयारियाँ करनी है। माँ ने कहा।
रोशनी का उत्तर न मिलने पर माँ समझ जाती है, जरूर कोई बात है। माँ रोशनी के कमरे में प्रवेश करती है और देखती है कि वह अपने चेहरे को हाथों से ढके, बिस्तर पर लेटे हुवे, वह न जाने किन ख्यालों में खोई हुई है। वरना माँ की एक आवाज़ पर है वह हाजिर हो जाती है।
“तबीयत तो ठीक है बेटा?”
माँ रोशनी के पास आकर बैठती है, उसे प्यार से निहारती है, उठाती है।
“मेरी लाडो रानी को क्या हुआ? सब ठीक है न बेटा। तुम उदास होती हो, तो मेरा जी बैठ जाता है। अगर तुम गाँव नहीं जाना चाहती तो कोई बात नहीं। जैसा तुम्हें अच्छा लगे वैसा कर लेंगे। तू बस खुश रहा कर, तेरी उदासी से मुझे बहुत डर लगता है। तेरी बूढ़ी माँ में अब इतनी शक्ति नहीं। ” माँ की आँखों से टप- टप आँसू गिर पड़ते हैं।
रोशनी कसकर माँ को बाहों में भर लेती है। “ओह माँ.... देख तेरी बिटिया बिल्कुल ठीक है। वो तो स्कूल में अतिरिक्त काम के कारण थकान हो रही है। थोड़ा सिर दर्द हो रहा है। ठीक हो जायेगा। और क्यों नहीं जाएंगे गाँव, जरूर जायेंगे। बाबूजी भी तो यही चाहते थे न और तुम भी। मेरे लिए तुमसे और बाबूजी की खुशी से बढ़कर कुछ नहीं है। बताओ क्या काम है? जल्दी से अपने हाथ की अदरक वाली कड़क चाय पीला दो मैं भी तैयार हो जाती हूँ। ”

पिता की बरसी पर माँ गाँव के मंदिर में पूजा करवाना चाहती है। पिछले दो सालों से वह रोशनी के कहने पर शहर में ही स्मृति पूजा करवा रही थी पर इस बार न जाने क्यों गाँव जाने की जिद्द पकड़ी हुई है। वैसे भी वह माँ को हताश नहीं करना चाहती। पिताजी के जाने के बाद इन पाँच सालों में कितना कुछ बदल गया था। कितना कहर टूटा था रोशनी और माँ पर। इस बात को वह अपने जहन से निकाल नहीं पा रही थी। भीतर से वह जितनी व्यथित और बेचैन है बाहर से उतनी ही सामान्य रहने की कोशिश करती है। लेकिन यदा-कदा उभरी उदासी की उन गहरी रेखाओं को उसके चेहरे पर न जाने माँ कैसे पढ़ लेती है। माँ सब जानती है।
रोशनी ने स्कूल से 5 दिन की छुट्टी ले ली थी। गाँव पहुंचने में 8-10 घंटे का लंबा सफर तय करना पड़ता है। दो दिन आने- जाने के, एक दिन पूजा में, चौथे दिन लौटना और पाँचवा दिन उसने खासतौर पर अपने लिए रखा था। वह यहाँ आकर आराम करेगी क्यूँकि अपने व्यक्तित्व पर महसूस होने वाली श्वेत एवं श्यामल रेखाओं की जकड़न से मुक्ति पाने के लिए, सब भूलकर सामान्य होने के लिए, स्वयं को असहनीय पीड़ा से मुक्त करने की जद्दोजहद से उबरने के लिये वह पाँचवाँ दिन उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण था। रोशनी इस बात को जानती थी।

माँ को सारी व्यवस्था और कार्यक्रम की रूप रेखा समझाती है।
“माँ कल सुबह 5 बजे गाड़ी आ जाएगी। माँ –“गाड़ी की क्या जरूरत थी बेटा रेल से चल पड़ते । गाड़ी तो बहुत महँगी पड़ेगी। ”
“अरे माँ! तू क्यूँ चिंता करती है। ”
माँ संकोचवश “एक हफ्ते की छुट्टी नहीं मिली क्या रोशनी? कुछ दिन वहाँ..” बोलते-बोलते माँ रुक जाती है।
“नहीं माँ! अच्छा बताओ, क्या लाना है बाजार से। सुबह निकलना भी हैं। सारी पैकिंग हो गई, खाने -पीने का सामान, माँ की दवाइयाँ, कपड़े लत्ते, पंडित की दान दक्षिणा का सामना, बच्चों को बाँटने के लिये पेंसिल और किताबें। देखो माँ! कौन उठाता इतना सामान। इसलिए गाड़ी की है। आराम से सफर का आनंद लेते हुए चलेंगे। ”

सोने की तैयारी करते हुए, सुबह का अलार्म लगा, रोशनी थोड़ी देर के लिए बालकनी में आकर खड़ी हो जाती है। अब भी सड़क पर चहल पहल है। कई घरों की बत्तियाँ बंद हो गई और कुछ की अंधेरे में जुगनूओं सी टिमटिमाती दिखाई दे रही थी। चंद्रमा आकाश में इठला रहा था मानो अनगिनत तारों के बीज वही शहंशाह हो और अपनी चाँदनी के दंभ में फूला फूला, गर्वीला सा। कितना सुंदर है यह आसमान, इतने घोर अंधियारे में भी इन चाँद- तारों की रोशनी का अपना ही महत्व है। ठंडी शीतल पवन के झोंके रोशनी को सुकून दे रहे थे। इतने में एक टूटता हुआ तारा दिखाई देता है लेकिन रोशनी अनमनी सी उसे देखती है और बालकनी का दरवाजा बंद कर भीतर आ जाती है। खुद से कहती अब कोई ख्वाहिश शेष नहीं है। माँ सो चुकी थी। रोशनी भी सोने की कोशिश करती है।

काल कोठरी में बंद लड़की के रोने, सिसकने की आवाज़ से रात की नीरवता भंग हो रही थी। उसका रुदन रोशनी को विचलित कर रहा था। वही नदी का दृश्य आँखों के सामने आ जाता है जहाँ नाव पर सवार अमन जोर-जोर से चिल्लाते हुए गुहार लगा रहा है “मुझे माफ कर दो रोशनी !मुझे माफ कर दो”। फिर धीरे- धीरे नाव और अमन नदी में विलीन हो जाते हैं रोशनी का दुम घुटता है। वह बेचैनी महसूस करती है और घबराहट के कारण उसकी आँखें खुल जाती हैं। पसीने में भीगी वह हिम्मत करके उठती है और मन ही मन सोचती है कब इन भयावह सपनों से उसे मुक्ति मिलेगी। हे ईश्वर! मुझ पर रहम करो। सुबह के तीन बजे हैं। एक घंटे बाद तो उठना ही है और वह माँ के पास जाकर सोने की चेष्टा करती है।

अगले दिन सुबह निश्चित समय पर गाड़ी आ जाती है। माँ और रोशनी गाँव के लिए निकल पड़ते हैं। गाँव जाने को लेकर दोनों के मनोभाव नितांत विपरीत थे। माँ गाँव में ही रचना बसना चाहती थी पर बेटी के लिए उसने शहर में रहना चुना। वही गाँव में पली-बढ़ी, जिस विद्यालय से शिक्षा ग्रहण की थी उसी में शिक्षिका पद पर नियुक्त होने के बावज़ूद भी रोशनी गाँव से कहीं दूर बसना चाहती थी। जहाँ दूर-दूर तक गाँव उसकी आत्मा में भी बसा हुआ दिखाई न दे। ऐसा क्या था जो रोशनी गाँव से भागती फिर रही थी। पर बेचारा मानव स्वयं को सम्भालते सम्भालते बहुत बार जिन चीजों से भागने का प्रयास करता है कभी न कभी उसे उन्हीं का सामना करना पड़ता है फिर चाहे मन राजी हो या न हो। यही रोशनी का हाल था।

आज मौसम भी धूप-छाँव का खेल खेल रहा था। कभी सूरज बादलों में छिप जाता तो कभी बादल छँट जाते। पूरे रास्ते यही क्रम चलता रहा। गाड़ी में “हर घड़ी बदल रही है रुप ज़िदंगी, छाँव है कभी है धूप ज़िंदगी” गीत बज रहा था। मानो जीवन के यथार्थ को व्यक्त कर रहा हो। तभी शहर के बाहर बने डिस्ट्रिक जेल की बड़ी- बड़ी लाल रंग की दीवारें दिखाई देती है। रोशनी के कानों में फिर किसी लड़की के रुदन का स्वर गूंजता है। वह झट से आँखें मूँद लेती है। तेज रफ्तार से दौड़ती हुई गाड़ी के साथ उसे जेल अपने और करीब आता हुआ दिखाई देता है। वह माँ के कंधे पर सिर रख लेती है ।

बस अब थोड़ा -सा रास्ता रह गया है। उसकी धड़कने तेज होने लगती हैं। अब वह रास्ता आरंभ होने वाला है जहाँ से वह नहीं गुजरना चाहती। जिले से ३०किलोमीटर की दूरी पर उसका गाँव बसा है। शहर के बीचों बीच हाट बाजार से होते हुए, आगे जाकर सड़क इकहरी हो जाती है जहाँ दोनों ओर बड़े -बड़े पेड़ लगे हुए हैं। दूर-दूर तक खेत लहलहा रहे हैं। कहीं-कहीं खेतों में ही सुंदर घर बने हुए हैं। कहीं ट्यूबवेल के पानी में नहाते हुए बच्चे मस्ती कर रहे हैं। कहीं पर खेतों में पानी के फुव्वारे चल रहे हैं और मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू मन को अतीत की स्मृतियों में धकेल रोशनी को बाबा की याद दिला देती है। बचपन में वह भी बाबा की साईकिल के पीछे बैठ खेतों से साग-सब्जी लाया करती थी। पानी में कितना उछल कूद मचाती थी। फुव्वारे के नीचे खड़े होकर भीगना उसे बहुत पसंद था। यह सब याद कर उसकी आँखे भीग जाती हैं। गाँव का रास्ता नदी पर बने पुल से होकर ही जाता था।

“देखो, रोशनी बच्चे नदी में कैसे उछल-कूद कर रहे हैं। याद है तू भी अपने बाबा के साथ ऐसे ही......” माँ कहते-कहते रुक जाती है।
“हाँ माँ! बचपन के दिन ही कुछ और थे। ” प्राय: लोग नदी के दूसरे किनारे छोटी पहाड़ी पर स्थित माता के मंदिर में जाने के लिए नाव का प्रयोग करते थे। पहले एक-दो नाव ही हुआ करती थी। अब तो पाँच-छह नाव किनारे पर लगी हुई नजर आ रही है। ” अपने अंतर्मन में उठने वाले भावों की नदी को बांध रोशनी सहज होने का प्रयास कर रही थी। इस नदी और नाव का कुछ गहरा नाता था रोशनी के साथ। अपने पहले प्यार अमन के साथ बिताए वे खुशनुमा पल रह-रह उसे याद आ रहे थे। यहीं दोनों ने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खायी थी कभी। ये नदी, नाव, लहरें इस बात के साक्षी थे। आज वही खुशनुमा पल उसके हृदय में कांटे की तरह चुभ रहे थे। जिसकी चुभन के दर्द को वह अपने चेहरे पर नहीं लाना चाहती थी। जैसे-जैसे गाँव करीब आ रहा था माँ के चेहरे पर चमक बढ़ती जा रही थी। बहुत दिनों बाद माँ का चेहरा यूँ फूल सा खिला-खिला दिख रहा था। रोशनी निरंतर स्वयं को बलपूर्वक सहज बनाए रखने की कोशिश करती रही पर कोई तो फाँस थी उसके मन के अंदर कहीं भीतर तक धँसी हुई जो उसे रह रहकर कष्ट पहुँचा रही थी और इसी फाँस की चुभन से बचने के लिए ही तो वह शहर जा बसी थी।

इतने में गाँव की सीमा आरंभ हो जाती है। गाँव के बाहर स्थित एकमात्र सरकारी स्कूल की दीवारों का रंग अब बदल गया है। सफेद रंग की भीत, हल्के नीले रंग में रंग दी गई। दीवारों पर बड़े विचारकों के विचार उनके चित्रों के साथ चित्रित थे, सत्यमेव जयते, सब पढ़ें सब बढ़ें, ईमानदारी मानव का सबसे बड़ा गुण है, जाति पाति पूछे न कोई हरि को भजे सो हरि का होये, .......। रोशनी को ये सारे विचार व्यंग्य लग रहे थे। निरे थोथे, कोरी लफ़्फ़ाजी ।


गाड़ी घर के बाहर आकर रुक जाती है। लकड़ी की बाड़ से बनी घर की चारदीवारी जो कभी फूल - पत्तों बेलों से हरी भरी रहती थी आज उस पर सूखी हुई बेजान लताओं का सघन जाल बना हुआ था। यह रोशनी को अपने भीतर सूखे भावों का जाल-सा महसूस हो रहा था जिसे वह काटकर फेंक देना चाहती थीं। सिर्फ आम, नीम, जामुन और चंपा के पेड़ खड़े इठला रहे थे आँगन में। चंपा के फूल मानो कह रहे हो कि आंगन में कुछ तो हरा भरा है थोड़ा ही सही जीवन शेष है अभी।
रोशनी ने झट से एक फूल तोड़कर माँ के बालों में लगा दिया। “माँ! याद है बाबा हमेशा तुम्हें कहते थे कि तुम्हारे बालों में ये फूल बड़े सुन्दर लगते हैं। ” माँ रोशनी को देख मुस्कुरा देती है। दोनों की आँखें भर आती है। रोशनी माँ को कसकर बाहों में भर लेती है। दरवाजा खोलते ही उन्हें दो-चार पत्र पड़े हुए मिलते हैं। रोशनी उन्हें उठाकर मेज पर रख देती है।
“किसकी चिठ्ठियाँ हैं बेटा?”
“बाद में देख लूँगी माँ। ” सामने की दीवार पर पिताजी की बड़ी-सी तस्वीर में माँ और रोशनी का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। कुछ देर के लिये लगता है जैसे तीनों साथ ही हों।
“ओह माँ! देखो ना कितना गंदा हो गया है घर। साफ सफाई में तो कमर टूट जाएगी। ” माँ “दोनों मिलकर कर लेंगे लाडो। ” रोशनी “हाँ माँ पर पहले थोड़ा आराम कर लो। खाना खाकर ही करेंगे काम। ” दोनों माँ बेटी मिलकर दो साल से बंद पड़े उस मकान को घर बनाने में लग जाती हैं। माँ रसोई संभालतीं है। रोशनी साफ सफाई में जुट जाती है। दो तीन घंटे बाद घर, घर सा लगने लगता है। “थक गई हूँ मैं। कुछ हल्का-फूल्का ही बना लेंगे रात को खाने में। पिताजी की स्मृति पूजा का सामान निकाल दिया है माँ देख लो कुछ रह न जाये। ” इतने में बिजली चली जाती है। माँ दीपक जलाकर मेज पर रख देती है फिर भी पर्याप्त प्रकाश नहीं होता। बाहर चंद्रमा की उज्ज्वल चाँदनी की आभा खिड़कियों की जालियों पर पड़ती है और ज़मीन पर फैली काली और सफेद रेखाएँ रोशनी को अपने शरीर, चेहरे, हाथ पैरों पर उभरती हुई दिखाई देती हैं। वह घबरा जाती है और चिल्लाते हुए माँ, माँ..पुकारती है।
“क्या हुआ बेटी! मैं यही हूँ। ”
”तुम यही मेरे पास ही सो जाओ माँ। काली और सफेद धारियों वाली उस लड़की के रोने की आवाज़ फिर एक बार रात की घोर शांति को भंग करती है। इस बार उसकी सिसकियों, उसके रुदन में एक अजीब -सा दर्द भरा है। बार- बार वह एक ही बात दोहरा रही थी। क्या थी मेरी गलती? किस बात की सजा मिली मुझे? क्या प्यार करना कोई गुनाह है? यह बोलते- बोलते वह रो पड़ती है। अमन तुमने भी मुझे छला है। क्यों नहीं आए तुम? क्यों तुमने इस काल कोठरी में मुझे मरने के लिए, घुटने के लिए अकेला छोड़ दिया। प्यार की सजा सिर्फ मुझे ही क्यों? तुमने अपने पिता के षड्यंत्र का पर्दाफाश क्यों नहीं किया। तुम जानते थे मैं निर्दोष थी। स्कूल के लिए कंप्यूटर खरीदने के उस प्रस्ताव में पैसों का कोई हेरफेर नहीं हुआ था। मुझे झूठा फंसाया गया था। यह तुम भली भांति जानते थे। तुम्हारे पिता नहीं चाहते थे कि हमारा विवाह हो क्योंकि एक स्कूल के चपरासी की बेटी एक धन सम्पन्न राजनेता के घर की बहू कैसे बन सकती है। फिर चाहे वह पढ़ी-लिखी सफल शिक्षिका ही क्यों न हो। यह रिश्ता स्वीकार नहीं था तो साफ- साफ कह देते । इतने राजनीतिक दाँवपेंच की क्या जरूरत थी। मेरी जि़न्दगी ही तबाह कर दी। तुम्हारा प्यार भी एक छल-प्रपंच था? क्या तुम भी इस षडयंत्र का हिस्सा थे? आई हेट यू अमन! सुना तुमने! मैं तुमसे नफरत करती हूँ! जीते जी मैं तुम्हें और तुम्हारे पिताजी को कभी माफ़ नहीं करूँगी। मेरा जीवन बर्बाद करके तुम्हें क्या मिला? क्या मिला? जेल की उस काल कोठरी के छोटे से रोशनदान से छनकर आती हुई चाँदनी की आभा में रोशनदान की सलाखों की परछाई को अपने व्यक्तित्व पर महसूस करती हुई उस लड़की का चेहरा धीरे- धीरे साफ नजर आने लगता है। वो चेहरा रोशनी का ही था।

रोशनी अपने जीवन के भयावह पक्ष को चाह कर भी नहीं भूल पा रही थी। वह घंटों यही सोचती रहती कि क्या उसकी जिंदगी इन दो रंगों के बीच ही सिमटकर रह जाएगी? श्याम और श्वेत। क्या आजीवन उसका मन अंधियारे और उजाले के हिंडोले में ही झूलता रहेगा? क्या वह कभी सामान्य जिंदगी जी पाएगी? सजा पूरी होने के बाद कैसे सामना करेगी वह दुनिया का किन-किन लोगों को बतायेगी कि “वह निर्दोष थी”। निर्दोष थी तो सजा क्यों हुई? कौन यकीन करेगा उसकी बातों का। इस उधेड़बुन में न जाने कितनी रातें उस काल कोठरी में उसने रो-रोकर अनमनी-सी गुजारी थी। वो तो माँ ने उसे तब भी सहारा दिया। जब भी मिलने आती कहती बेटा यह परीक्षा की घड़ी है। भगवान ने हमें मुसीबत में डाला है वही कोई रास्ता भी दिखाएगा। माँ एक दो किताबें दे जाती है। “इन्हें पढ़ लेना रोशनी। तुझे संबल मिलेगा। ” “माँ! माँ! मुझे यहाँ से निकालो। मैं मर जाऊँगी। माँ प्लीज़! मुझे यहाँ से निकालो! ऐसे ही दो महीने बीत गए।

“मेरा क्या अपराध था प्रभु! तेरी बनाई इस दुनिया में ऊँच-नीच, अमीर-गरीब के बीच इतनी खाई, इतनी नफरत क्यूँ है, क्यूँ इंसान को उसके गुणों से सम्मान नहीं मिलता। ” रोशनी ने मान लिया था कि यही उसकी नियति है तो क्या किया जा सकता है। उसने उस अंधियारे कमरे में भी उजाले की एक किरण को पकड़ने का प्रयास किया। वह ध्यान लगाने की कोशिश करती थी। स्वयं को प्रतिदिन समझाती थी। एक दिन जेलर महोदय ने कहा “आप तो टीचर हैं। इन कैदियों को एक-दो घंटे पढ़ाने में अपना मन लगायें। जिससे आपका भी समय गुजर जाएगा और इनका भी भला हो जाएगा। ” रोशनी को यह प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा। अपने दुख से उबरने और खुद को संभालने के लिए यह बहुत जरूरी था। यूँ ही तीन महीने बीत गए। एक दिन वार्डन ने आकर बताया “मैडम , आप बहुत भाग्यशाली हैं। आपको जिस केस में फँसाया गया था वह केस वापस ले लिया गया है और कोर्ट ने आपकी रिहाई के आदेश जारी कर दिए हैं। रोशनी को जैसे अपने कानों पर यकीन ही नहीं हुआ। भगवान ये तेरी कैसी माया है। पहले जख़्म देता है फिर महरम भी खुद ही लगाता है। रोशनी जेल से छूटकर ,घर तो आ गई पर कुछ भी पहले जैसा नहीं था। वह खुद को बहुत असहज महसूस कर रही थी। स्कूल और गाँव छोड़ने का उसने मन बना लिया था। इस दुख से उबरने में उसे कितना समय लगा थ। सरकारी नौकरी से इस्तीफा देना उसके लिए आसान नहीं था। आजीविका का प्रश्न उसके सामने सबसे बड़ी समस्या थी। लेकिन रोशनी के लिये सबसे पहले स्वयं को बचाना जरूरी था। अपने खोये वज़ूद , सम्मान, सकारात्मक, ऊर्जा के लिए रोशनी हमेशा के लिए इस जगह से दूर चली जाना चाहती थी। गाँव वालों, स्कूल के बच्चों के बेतुके सवालों का जवाब देने की हिम्मत अब उसमें नहीं थी। इन भयानक सपनों से उसे कहाँ मुक्ति मिलने वाली थी। नदी का दृश्य फिर उभर आता है। नाव पर अमन बैठा हुआ दिखता है और वह ज़ोर-ज़ोर से रो रहा और कह रहा है मुझे माफ़ कर दो रोशनी! मुझे माफ़ कर दो! और फिर हमेशा कि तरह धीरे-धीरे नाव नदी में डूबती हुई नजर आती है।

रोशनी को जैसे सांसें रुकती हुई सी महसूस होती हैं और माँ कहते हुए वो एकदम से जाग जाती है और कमरे में इधर उधर देखती। माँ पास ही सोई हुई है। रोशनी गहरी साँस लेती है और चेहरे से पसीना पोंछते हुए पानी पीने के लिए उठती है। सुबह के 3:00 बजे हैं। “शुक्र है! ये सपना था” पर अब उसकी आँखों में अब नींद कहाँ थी। मेज पर रखी चिट्ठियों को पढ़ने के लिए उठाती है। उनमें से एक चिट्ठी अमन की थी। काँपते हाथों, अनमने मन से वो अमन की चिट्ठी खोलती है।
“प्रिय रोश्नी !
में जानता हूँ मुझे और मेरे पिताजी को माफ़ करना तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा। सच मानो पिताजी तुम्हारे साथ कुछ ऐसा करेंगे इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरी और तुम्हारी शादी की बात पिताजी के समक्ष रखी तो परिवार में बहुत कलह हुई। पिताजी और अन्य भाई बंधु मरने मारने पर उतारू हो गए। माँ इस झगड़े में पिस गई। उन्हें दिल का दौरा पड़ गया। उन्हें तुरंत शहर के अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। मैं माँ के साथ अस्पताल में था। पीछे से पिताजी ने तुम्हें झूठे केस में फँसवा दिया। यकीन करो रोशनी मुझे इस चीज़ की भनक भी नहीं लगी। 20-25 दिनों में जाकर माँ की हालत में थोड़ा सुधार हुआ। जब मैं गाँव लौटा तो तुमसे मिलने घर गया। वहाँ तुम्हारी माँ ने सारी बात बताई। वो रो रही थी। बोली “गरीब की जान की कोई कीमत नहीं होती बेटा। तुम्हारे पिताजी अगर रोशनी को जेल में मरवा देंगे तो मैं किसके सहारे जिऊंगी। रोशनी से शादी की जिद छोड़ दो। मेरी बच्ची की जिंदगी बचा लो। “ पिताजी से मैंने केस वापस लेने की अपील की परन्तु वे कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। वो बोले की अगर बिरादरी और अपनी हैसियत के घर में शादी का वचन देगा तो ही कुछ करेंगे। अपनी झूठी शानोशौकत के लिए वह अपने ही बच्चे से सौदा कर रहे थे। मेरे लिए वह पल बहुत कठिन था रोशनी। तुम्हें बचाने में ही तुम्हें पाना था और वास्तविकता में खोना। बहुत मुश्किल से जगह- जगह जाकर सबूत इकठ्ठा किये। यह सब आसान नहीं था। लेकिन इन सब में हारा मैं भी, पिसा मैं भी हूँ। मैंने सोचा जरूरी तो नहीं हर प्रेम की सफलता या प्रतिफलन पा लेने में ही हो। अगर मेरे प्यार की कुर्बानी से तुम्हारी ज़िंदगी बच जाए तो शायद यही सही है। हमारे प्यार की यही किस्मत थी कि तुम्हें पा कर तुम्हें खोना था। तुम जब लौटकर आओगी तो शायद मैं तुम्हें न मिलूं। लेकिन मुझसे नफरत मत करना रोशनी! जहाँ रहना खुश रहना और अपनी सकारात्मकता से चारों तरफ रोशनी बाँटना।
हो सके तो मुझे माफ कर देना
तुम्हारा अमन। ”
रोशनी की आँखों से आँसू झर रहे थे, जिनमें अमन के लिए हृदय में व्याप्त नफरत भी धीरे-धीरे बह गई।

- अनु शर्मा

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