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एक ज़मीन अपनी

तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे
देबे कि गो बासा आमाय देबे कि एकटि धारे
तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे

जाने कितनी देर से सामने की दीवार पर ढलती सांझ में पत्तियों की परछाईं को देखती मन्द मदालस सुर में मेघना यही पंक्तियाँ गुनगुनाती रही,उसकी आवाज़ में न दुख था न सुख..वह आवाज़ हर चाहना से परे एक निर्भार आवाज़ थी,अपने होने में पूर्ण और खोई हुई...कभी कभी जीवन की कोई रिक्ति आपको भरती है,गले गले तक आप उसमें डूबते हैं और फिर हर डर से मुक्त हो उठते हैं। पर कभी कभी कोई रिक्ति फैलते फैलते इतनी बड़ी हो उठती है कि आपका वज़ूद उसमें खो जाता है..अपूर्णताओं,चाहनाओं,रिक्तियों के इस भंवर में बस वही बचता है जिसके पैरों तले ज़मीन हो। मेघना ने बहुत कुछ खोकर ख़ुद को पाया और अपनी ज़मीन ही नहीं बल्कि अपना एक टुकड़ा आसमान भी बचाये रखा..उसकी दुनिया में वह और उसकी चिया भर हैं, और हैं यह तमाम फूल,पत्ते,पौधे,चिड़ियाँ,तितलियाँ,भँवरे आदि। उन्हीं फूलों को देखकर अनायास मेघना ने एक पुष्पगुच्छ तोड़कर अपनी कबरी में खोंस लिया..अब पीछे से देखने पर वह भी उसी कुंज में खिला एक नवल पुष्प लग रही थी।

ढलती रौशनी का अपना तिलिस्म होता है तनिक सिंदूरी,तनिक नीलाई, तनिक गुलाबीपन लिए,हर विदा ऐसी ही आभायुक्त क्यों नहीं होती.. दीवार पर हरी पत्तियां इन रंगों से नहाकर ऐसी लग रही थीं जैसे सफ़ेद मलमल पर किसी ने काही रंगों से कशीदाकारी की हो..मेघना को उगता सूरज देखना उतना नहीं पसन्द था जितना ढ़लता सूरज देखना...सूरज को पता होता था कि अब बस एक अंधेरी सुरंग उसे लील लेगी,बन्दी बना लेगी अगली सुबह तक, पर वह बिना भयभीत हुए,बिना अपनी भव्यता त्यागे कैसे प्रस्तुत रहता है अपने अंत के लिए...लोग उगते सूर्य को अर्घ्य देकर प्रार्थना करते हैं,मेघना डूबते सूरज से कहती कि उसे भी वह अपना औदार्य सौंपे कि जीवन के लंबे मरुभूमि में जब उसे उसकी तृष्णा,अकेलापन जलाए तो भी वह बिना विचलित हुए ऐसी ही गरिमा से विदा ले।
अभी जाने कितनी देर तक सूरज और परछाइयों से उसका मूक संवाद चलता कि पीछे से एक आवाज़ आई-
“ओ मदर इंडिया दीवार पर चल रहा तुम्हारा बायस्कोप ख़त्म हुआ हो तो आओ चाय पी लो...” मेघना मुस्कुराते हुए मुड़ी।
कितने दिनों बाद चिया की यह चहकती आवाज़ आई थी ,आजकल वह अक़्सर गुमसुम रहती है जैसे किसी कशमकश में हो या घबराई हुई हो। पहले कितना बोलती रहती थी । मेघना ने एकाधिक बार उसका मन टटोला बेटा क्या हुआ है,कोई परेशानी हो तो बताओ!
“कुछ नहीं अम्मा,बस पढ़ाई का स्ट्रेस है। “ चिया कहती।
मेघना समझती थी कि यह महज पढ़ाई का स्ट्रेस नहीं है,टीनएज खिलखिलाती बेटी का गुमसुम हो जाना इतनी मामूली बात नहीं,वह भी तब जब कि दोनों में बहुत दोस्ती थी। यूँ भी मेघना और चिया उस घर में यही दो तो थीं,एक दूसरे की दोस्त और सहारा। चिया बचपन में अक़्सर अपने और घरवालों के बारे में पूछती थी तो मेघना जाने क्या क्या कहानियां बनाकर सुनाती कि पापा देश से बाहर हैं कि दादी,बाबा,नाना,नानी भगवान जी के पास चले गए। पर जैसे जैसे वह बड़ी होती गई जाने किस अन्तःप्रेरणा से उसने जान लिया कि उसकी दुनिया में बस वह है और अम्मा हैं। अब वह किसी रिश्तेदार के बारे में नहीं पूछती थी।
अम्मा पास के महाविद्यालय में संगीत की शिक्षक थीं और चिया ग्यारहवीं में पढ़ती थी। अम्मा की सुंदरता,लालित्य,सुरुचि संपन्नता सब चिया को विरासत में मिला था। दोनों कभी शाम को जब साथ में बाहर निकलतीं तो बहनें लगतीं,चिया अम्मा को देख गर्व से फूल उठती और अम्मा शरमा जातीं। अम्मा बहुत अच्छा गाती थीं,बहुत अच्छी वीणा बजाती थीं। बचपन में वह अम्मा से ज़िद करती कि वह फ़िल्मी गाने गायें, कभी कभी उसका मन रखने को अम्मा कुछ फ़िल्मी गुनगुना देतीं पर अधिकतर वह गातीं-तोमार सुरेर धारा झरे।
“चिया बच्चे क्या बात है?” रात फिर अम्मा ने पूछा?
“ओह अम्मा आप यह बार बार पूछकर मुझे इरिटेट क्यों कर रहीं,आप क्यों मेरे पीछे पड़ी हैं?” चिया ने तैश में आकर कहा और उठकर अपने कमरे में भाग गई। मेघना उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से सकते में रह गई। इतना तो वह समझ ही गई थी कि चिया किसी मानसिक दबाव में है। पर क्या है वह बात यह कैसे पता चले। अब तक तो कभी दोनों में कुछ गोपन नहीं था पर अब कुछ तो है जिसका दुराव बीच में है। रात दो कमरों में चार आँखें जागती और करवटें बदलती रहीं। जाने किस पहर किसकी आँख लगी। सुबह बहुत ही बोझल और अलसाई हुई उगी। हमारे मन के मौसम जैसे होते हैं,बाहर भी वैसा ही मौसम होता है। चिया स्कूल के लिए तैयार होने लगी तो अचानक मेघना को कुछ सूझा। उसने कॉलेज फ़ोन करके सीएल ले लिया। नाश्ते के बाद चिया के जाते ही मेघना फुर्ती से उठकर गेट बंद करके उसके कमरे की तरफ़ जाने लगी। पलभर को उसके मन में कशमकश उभरा कि यह ग़लत है पर निजता की लाख पैरोकार होने पर भी अभी वह महज माँ होकर सोच रही थी,उसे चिया की परेशानी का पता लगाना था,किसी भी हाल में,किसी भी सूरत में लगाना था।
चिया के कमरे में यूँ तो वह रोज़ ही आती थी पर ऐसे आने पर बार बार एक संकोच उमड़ रहा था। उसने खोजी निगाहों से चिया का बिस्तर,पढ़ने की मेज, तोहफ़ों,शील्ड,मेडल,किताबों से सजे शेल्फ़ को देखा। उसे पता था कि वह क्या ढूंढ रही है। और यह भी कि इतनी आसानी से उसे वह मिलेगा भी नहीं। उसने उसके कपड़ों की आलमारी खोली,अपनी उम्र की लड़कियों की तरह चिया लापरवाह और बेढंगी नहीं थी। एक एक ड्रेस,स्कार्फ़, मोजे, बेल्ट सबकुछ व्यवस्थित था। इतनी सुघड़ता देख मेघना के मन में चिया के लिए दुलार उमड़ आया पर सवाल था कि वह जो ढूंढ रही वह कहाँ होगा। आख़िर उसकी नज़र शेल्फ़ के ऊपर रखे गत्ते के डब्बे पर गया,वह बिस्तर पर चढ़कर सावधानी से उसे उतार लाई, देखा बचपन के कुछ पसंदीदा खिलौनों के साथ करीने से सजी डायरियां भी गत्ते में हैं। पांचवीं क्लास से ही मेघना ने चिया को बिला नागा डायरी लिखने की आदत डाल दी थी,वह ख़ुद भी तो अपने दिल का हाल डायरी में दर्ज़ करती थी। मेघना ने सारी डायरियों को छोड़कर बस इसी साल की डायरी उठा ली और पढ़ने बैठ गई।
जनवरी से जुलाई तक कोई ख़ास बात नहीं लिखी थी डायरी में,बस वही अम्मा और उसकी बातें। कुछ सहेलियों की बुराई,टीचर्स पर रिमार्क। मौसम,फूलों,संगीत,किताबों की बात। कहीं कहीं अपनी ऊब और अकेलेपन की बात पर ऐसी कोई बात नहीं कि जो उसे परेशान कर रही हो। फिर आता है अप्रैल का पन्ना। नई क्लास,नया दिन,नई उमंग। चिया ने लिखा-
“पहली जुलाई-आज नई क्लास का पहला दिन था। जाने कितने लड़के लड़कियां नए नए दिख रहे और कई पुराने चेहरे ग़ायब हैं। रिज़ल्ट आने और स्कूल खुलने के बीच कितना कुछ बदल गया। सब ख़ुश हैं,अपने अपने नम्बरों पर चर्चा,छुट्टियों में कहाँ गए,किनसे मिले यही सब बातें। मेरे पास ज़्यादा कुछ नहीं था बताने को,नम्बर मेरे बहुत अच्छे आये थे बल्कि अपनी क्लास में सबसे ज़्यादा नम्बर उसके ही आये थे। नई क्लास टीचर आकर अटेंडेंस ले ही रही थीं कि वह आया। । वह नया एडमिशन था,फॉर्मल ड्रेस में आया था। एकदम गोरा चिट्टा और लम्बा। आंखें हल्की नीली और रोएँ भूरे से। ओह उसकी टीशर्ट का कलर जैसे समंदर की लहर और उसके बालों का स्टाइल जैसे मॉडल्स के रहते। शायद छुट्टियों में रिजल्ट आने के बाद उसने हेयर स्टाइल चेंज की हो क्योंकि दसवीं में तो लड़के इतने कॉन्फिडेंट नहीं होते कि ऐसे बाल कटवा लें।
ओह यह मैं क्या और क्यों सोच रही,जबसे वह क्लास में आया तबसे अभी रात तक मैं उसी के बारे में सोच रही। हद है।
We were both young when I first saw you
I close my eyes and the flashback starts”

“दो जुलाई-आज नींद अम्मा के बिना बुलाये ही खुल गई। या यूं कहूँ कि रात ठीक से नींद ही नहीं आई। उसका चेहरा बार बार निगाहों के सामने नाचता रहा,एकदम जैसे फ़िल्मों में दिखाया जाता। आज मैंने देर तक शीशा देखा और ज़ल्दी स्कूल को निकली। अम्मा को अचंभा हुआ कि आज उन्हें चीखना क्यों नहीं पड़ा। मेरी वजह से अम्मा को देर होने लगती पर आज....आज तो स्पेशल दिन लग रहा था। मन कर रहा था कि आंख खुलते ही स्कूल पहुंच जाऊँ।
आज फिर वह फॉर्मल ड्रेस में आया,हल्के हरे रंग की शर्ट उसके गोरे चेहरे पर झिलमिल कर रही थी। ओह अम्मा की शेल्फ़ से छुट्टियों में छायावादी कविता की किताबें पढ़ने का असर लग रहा जो मैं यह सब सोच रही। तब महादेवी वर्मा को पढ़कर कैसा हँस रही थी मधुर मधुर मेरे दीपक जल और अब वह कविता कितनी याद आ रही।
आज क्लास में नए स्टूडेंट्स का इंट्रो हुआ। कल तो बस अफ़रातफ़री थी। पता चला जनाब दिल्ली से आये हैं,पापा बड़े अधिकारी हैं। अयान नाम है। ओह सुंदर लोगों के नाम भी कितने सुंदर होते। एक मेरा नाम है अनुमेहा। सब अनु अनु बुलाते। एकदम ओल्ड फ़ैशन वाला नाम। अम्मा चिया बुलातीं पर यह भी किसी के आगे बुलाने लायक नाम थोड़े है। जब असेंबली में क्लास में टॉप थ्री स्टूडेंट्स का नाम बुलाया गया तो अपना नाम सुनकर कैसा थरथर हुआ। कनखियों से मैंने देखा अयान एकटक मुझे देख रहा था। उफ़ कैसी थी वह नज़र। “

“तीन जुलाई- डायरी लिखने का मन नहीं होता अब,मन करता है बस अयान को सोचती रहूँ। उसका उठना,बैठना,बोलना,हँसना। पर लिखने का एक फ़ायदा है कि उसकी बातें किसी से कर नहीं सकती तो डायरी में ही लिख लूं। अम्मा से बताऊं क्या?पर नहीं वह क्या सोचेंगी। नेहा,मिशी,अनुषा इनसे तो कहने लायक ही नहीं। बनती हैं सब सहेलियाँ पर मुझसे मन ही मन जलती हैं। अयान क्या वह भी मेरे बारे में सोचता होगा?”

“चार जुलाई-आज सन्डे है। कितना मनहूस दिन लग रहा यह। पहले तो मुझे पूरे हफ़्ते संडे का इंतज़ार रहता था। हर संडे अम्मा सुबह मज़ेदार नाश्ता बनातीं फिर अपने और मेरे बालों में तेल लगाती हैं। उसके बाद हम अपने अपने कमरों और घर की सफ़ाई करते हैं और फिर नहाकर आराम से टीवी देखते हुए लंच। काम वाली दीदी संडे को देर से आती हैं ताकि हम आराम से सोकर उठें। लंच के बाद अम्मा अपने कमरे में आराम करने चली जातीं और मैं बरामदे के झूले में लेटकर कोई किताब पढ़ती या ड्राइंग करती। अरे हाँ ड्राइंग,पेंटिंग का शौक़ भी मुझे अम्मा से ही मिला। पर आज आज तो मन कर रहा कि काश कैलेंडर में संडे काट कर मंडे कर सकती । अम्मा ने दस बजे नाश्ते को बुलाया तो अनमने ढंग से जाकर नाश्ता किया। अम्मा मेरा उतरा चेहरा देखकर कितना घबरा गईं। मैं तबियत ठीक नहीं का बहाना बनाकर फिर कमरे में घुस गई। कमरा कितना उलट पुलट गया है पर उठकर ठीक करने का जी नहीं कर रहा। न किसी को अपना कमरा ठीक करने देने का मन । अच्छा अयान क्या करता होगा सन्डे को?”
“पांच जुलाई-आज सुबह उठने पर लगा घड़ी कितनी स्लो चल रही। तिसपर यह हल्की बारिश। कहीं स्कूल निकलने तक तेज़ बारिश न होने लगे और अयान स्कूल आना कैंसिल न कर दे। सुना है अमीर लड़कों के घरवाले हमारे घर वालों की तरह रोज़ स्कूल जाओ,समय पर उठो,सो जाओ,पढ़ो,खाओ इन सब बातों पर नहीं डांटते। भगवान जी अयान आज ज़रूर आये स्कूल नहीं तो उसके बिना स्कूल कितना सूना लगेगा। “
“अयान आया स्कूल। आज तो उसने मुझसे ख़ुद ही बात की,और हाथ भी मिलाया। कुछ सेकेंड्स के लिए लगा कि मेरी एक हार्ट बीट मिस हो गई। ऐसा तो पहले कभी नहीं लगा। ऋषि, कुणाल,अभिषेक कितने लड़के तो दोस्त हैं। उनके साथ लंच शेयर करना,नोट्स लेना,बर्थडे पार्टी लेना,कभी कभार झगड़ लेना सब तो होता था,पर किसी के बिना क्लास क्या पूरा स्कूल सूना लगे,ऐसा तो कभी नहीं लगा। “
मेघना चिया का रोज़नामचा पढ़ती जा रही थी। एक मुस्कुराहट और दुलार उसके दिल में उमड़ आया। ओह उसकी बेटी प्रेम में है। जीवन का पहला प्रेम । जो चाहे तो इंसान को बना दे,चाहे तो मिटा दे। जाने क्यों उसे घबराहट सी होने लगी। वह उठी एक गिलास पानी पिया और आगे पढ़ने लगी। आगे के कुछेक पृष्ठ पर अयान से जुड़ी छोटी छोटी बातें थीं। बिल्कुल ऊन के गोले सी नरम और रंग बिरंगी भावनाएं। थोड़ी उलझी सी,थोड़ी सुलझी सी। पर चिया की परेशानी का सिरा अभी भी नहीं मिला था। तभी सितंबर महीने में दर्ज़ एक पन्ने पर उसकी निगाह रुक गई। उसे लगा जैसे उसने किसी के बन्द दरवाज़े को बिना इजाज़त खोल दिया हो।
“पांच सितंबर-आज टीचर्स डे था,हमलोगों ने हॉल को सजाया था और लंच के बाद वहां प्रोग्राम होना था। अयान कुछ दिनों से मुझपर अधिक ध्यान देने लगा है। सुबह ही उसने मेरी तारीफ़ की। प्रैक्टिकल लैब में भी वह हर बार जाने कैसे मेरे ग्रुप में रहता है,बाक़ी सबके ग्रुप बदल जाते हैं। उसे नहीं पता कि जब वह मेरे पास होता है तो मेरी धड़कनें बढ़ जाती हैं और मुझसे लैब में कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाता है। टीचर्स के सवालों का जवाब आते हुए भी गला सूखने के कारण नहीं दे पाती हूँ। अयान ने लंच के तुरन्त बाद मुझे लैब में बुलाया था जबकि मुझे हॉल में होना था। लंच के पन्द्रह मिनट बाद ही सारे टीचर्स हॉल में इकट्ठा होते और मुझे एंकरिंग करनी थी। कितनी तैयारियां अम्मा से पूछ पूछकर मैंने की थीं क्योंकि अब हम सीनियर सेक्शन में थे।
लैब में जाऊँ या न जाऊँ इसका फ़ैसला दिल अलग करता, दिमाग़ अलग। आख़िर को मैंने सोचा दो मिनट बात सुन ही लेती हूं और चली गई। मेरे दिमाग़ को पहले ही मेरे फ़ैसले का पता चल गया था और उसने नाराज़ होकर मेरा साथ देना बंद कर दिया। लैब सुनसान थी और वहाँ दिन में भी हल्का अँधेरा था। अयान एकदम दरवाज़े से सटकर खड़ा था जैसे उसे पूरी उम्मीद थी कि मैं आऊंगी ही। उसे लैब की चाभी कैसे मिली,दिमाग़ ने एकबार दिल से पूछने की कोशिश की। दिल ने उसे डपट दिया। अयान तुमने मुझे यहाँ क्यों बुलाया,उसे देखते ही मैंने पूछा।
अयान बिना कुछ बोले आगे बढ़ा और मुझे दरवाज़े की ओट में लेकर चूमने लगा। मुझे डर और हैरत ने एकसाथ घेर लिया। बिना कुछ बोले,बिना प्रपोज किये यह सब क्या और कैसे? उसने क़रीब दो मिनट तक मुझे जकड़े रखा और चूमता रहा। दिमाग़ के साथ अब मेरा दिल भी काम करना बंद कर चुका था। सितंबर में इतनी गरमी तो नहीं होती पर मैं पसीने से एकदम भीग गई थी,किसी तरह ख़ुद को छुड़ाकर कांपते क़दमों से हॉल में आई। क्लास टीचर तो मेरी हालत देखकर डर गईं, एंकरिंग तो क्या मेरी हालत बैठकर प्रोग्राम देखने की भी नहीं थी।
स्कूल से अम्मा को फ़ोन गया,अम्मा भागकर आईं। उनका चेहरा कैसा तो सूख गया था जैसे सुबह का खिला फूल साँझ को मुरझा जाए,अम्मा को कैसे बताऊं कि मुझे क्या हुआ है। डॉ. को दिखाने ले गईं पर कोई बीमारी होती तो पकड़ में आती न। पीरियड्स अभी-अभी ख़त्म हुए थे,बुख़ार है नहीं,पेट,सर कुछ नहीं दुख रहा पर जैसे हाथ पांवों में जान नहीं और शरीर में ख़ून की एक बूंद नहीं। अम्मा घर लेकर दूध गर्म करके उसमें बड़ा चम्मच चॉकलेट पावडर मिलाकर पिलाईं, हथेली,तलवे में मालिश करती रहीं। मुझे गिल्ट होता रहा अम्मा के लिए,ख़ुद के लिए। और अयान-ओह मुझे उसपर ग़ुस्सा करना चाहिए पर कर नहीं पा रही। यह सब क्या है?क्यों है?..”
यह तारीख़ ,यह पेज़ पढ़ते ही मेघना के सामने वह दिन नाच उठा,कैसी बदहवास हो उठी थी वह। बचपन से ही चिया की ज़रा भी तबियत ख़राब होने पर उससे ज़्यादा मेघना की हालत ख़राब हो जाती। ओह ईश्वर उसकी बच्ची जीवन के इस मोड़ पर थी और उसे ख़बर ही नहीं। सच है हम एक ही घर में रहते हुए कितना अलग जीवन जीते हैं कि बगल के कमरे में रहने वाले शख्स की आंतरिक दुनिया में हमारा कोई दखल नहीं होता। आगे के पृष्ठ चिया और अयान की बढ़ती नज़दीकियों और चिया के मानसिक उथलपुथल से भरे थे। कहीं वह ख़ुश थी कि अयान उसे इतना प्यार करता है,कभी दुखी कि वह उसे अपनी उंगलियों पर नचाता था। अयान का जब जी करता वह उसे साइंस लैब,कॉरिडोर के पीछे,टॉयलेट ब्लॉक के पास अधिकार से बुला लेता तो कभी दो दो दिन उससे बात न करता और इग्नोर करता। चिया कठपुतली की तरह उसके इशारों पर नाच रही थी क्योंकि उसका दिल पहले ही दिन अयान के आगे आत्मसमर्पण कर चुका था।
“पांच नवम्बर-अयान ने आज मुझे कोचिंग के गेट से पिक कर लिया और एक रेस्त्रां में ले गया। वह बहुत सुंदर रेस्त्रां था,मैं पहले कभी इतने शानदार रेस्त्रां में नहीं गई थी। उसने मुझसे पहले ही कह दिया था कि अम्मा से एक्स्ट्रा क्लास होने की बात कह दूं। रेस्त्रां में शाम को ही अंधेरा सा था,एकदम मद्धिम लाइट, इंस्ट्रूमेंटल म्यूज़िक, कोज़ी कॉर्नर। वेटर लगभग अंधेरे में जाने कैसे बुलाने के इशारे देख लेते थे,शायद उनकी ट्रेनिंग ही ऐसी हुई हो क्योंकि वहां जितने लोग दिखे वह जोड़े में थे और स्कूल-कॉलेज जाने वाले स्टूडेंट्स ही थे। आज अयान बहुत सॉफ्टली बात कर रहा था। चूमता तो वह मुझे अक़्सर ही है पर आज बगल में बैठकर वह मेरी हथेलियों,गर्दन को सहलाता रहा। वेटर के आने पर भी उसने अपना हाथ नहीं हटाया। मुझे बहुत शरम आ रही थी। अयान ने हल्के से मुझे झिड़क भी दिया कि यह तुम मिडिल क्लास बहनजी टाइप विहेवियर क्यों करती हो। लाइफ में एन्जॉय नहीं करोगी तो क्या करोगी। मैं कहना चाहती थी कि मैं उसके साथ ज़िन्दगी बिताना चाहती हूं,एन्जॉय करना नहीं। पर मैं चुप रही क्योंकि अयान कहता है कि मेरी आँखें बोलती हैं और मेरा चुप रहना उसे बहुत पसंद। मैं अयान को खोना नहीं चाहती पर उसकी हरकतें बढ़ती जा रहीं। उसके हाथ मेरे घुटनों से सरकते हुए ऊपर को आने लगे थे। मैं घबराकर उठ गई और बोली कि मुझे वाशरूम जाना है। वाशरूम से लौटी तो अयान नाराज़ सा कोल्डकॉफी पी रहा था। उसने मुझसे ठीक से बात नहीं की। मुझे बहुत रोना आया। क्या करूँ किससे पूछुं कि यह सही है या ग़लत?
अम्मा से कैसे पूछुं ,उन्हें कैसे बताऊं कि अब मैं उनसे झूठ बोलने लगी हूँ। “

“दस दिसम्बर-आज अयान ने मुझसे कहा कि 25 दिसम्बर को वह अपने पापा के दोस्त के फॉर्म हाउस पर क्रिसमस की पार्टी रखेगा। क्लास के लड़के लड़कियों के अलावा वहां और कोई नहीं होगा। उसने कहा कि उसी दिन वह सबके सामने मुझे प्रपोज करेगा हालांकि शेफ़ाली जो कि स्कूल की सबसे सुंदर लड़की है उसने अयान को पहले ही प्रपोज किया था। पर अयान ने उसे ठुकराकर मुझे चुना है। वह कहता है शेफ़ाली चालू लड़की है । अयान को मेरी सादगी,मासूमियत पसन्द लेकिन वह मेरे मिडिलक्लास वैल्यूज से इरिटेट हो जाता है। उसकी पार्टी में जाने से पहले तो मैंने इंकार कर दिया क्योंकि अम्मा कभी रातभर मुझे बाहर नहीं रहने देंगी। दूसरे ऐसी पार्टियों के लिए मेरे पास कोई ऑउटफिट भी नहीं है। वैसे अयान ने कहा है कि वह मुझे सेक्सी आउटफिट की शॉपिंग करवाएगा क्योंकि पार्टी में सभी ऐसे ही कपड़े पहनकर आएंगे,उसमें मुझे बहनजी बनकर नहीं जाना। अम्मा से परमिशन नहीं मिलेगी यह सुनकर अयान कितनी ज़ोर से हँसा था,ओह इलेवन्थ क्लास में पहुंचकर भी तुम्हें अपनी मॉम से बहाना बनाना नहीं आया। अरे सहेली का जन्मदिन, क्रिसमस पार्टी यह सब बहाने न चलें तो ग्रुप स्टडी,प्रॉजेक्ट वर्क यह सब कहो। तुम मिडिल क्लास वालों की यही प्रॉब्लम है कि सब चाहिए भी और डरना भी है। भई मेरे घर तो मॉम डैड मुझसे ज़्यादा मेरी पार्टी को लेकर एक्साइटेड हैं,पर मैंने साफ़ कह दिया कि मेरी पार्टी में मेरे दोस्तों के अलावा कोई अलाउड नहीं।
ओह अयान मैं कैसे तुम्हें समझाऊं कि मेरा दिल तुम्हारे पास होने को कितना तड़पता है तो दिमाग़ कहता है यह ग़लत है। एक दिन इसी कशमकश में फंसकर मेरी जान चली जायेगी। तुम्हें नहीं पता अम्मा से झूठ बोलना कितना मुश्किल। वह आजकल ऐसे भी मेरे बदले व्यवहार से परेशान रहती हैं। उनकी निगाहें मेरे चेहरे पर कुछ ढूंढती रहतीं और हरदम अम्मा के पास चिपकी रहने वाली मैं उनके पास बैठते घबराती हूँ। “

मेघना सन्न बैठी रही। क्या इतिहास अपने को दोहरा रहा?क्या वह ऐसे ही मूकदर्शक बनी रहेगी?पर वह क्या कर सकती है,इस उम्र में कौन सुनता है मां बाप की बात। मेघना के भीतर एक साथ ही कोई हँसा भी और रोया भी। वह उठकर खिड़की के पास चली आई। सुबह से उसने डायरी के पन्ने पढ़ने के अलावा कोई काम नहीं किया था। न कंघी,न चोटी, न नहाना न खाना। दुनिया कैसी बेरंग सी दिख रही थी याकि उसका मन बेरंगा सा था। वह गुमसुम बैठी रही अपनी सोच की कैदी बनी। सूरज की किरणें खिड़की की सलाखों का प्रतिबिंब उसके चेहरे पर बना रही थीं मानों उन्हें भी उसके हृदय के कारावास का पता था। आजीवन कारावास..ख़ुद ही मुंसिफ़,ख़ुद ही मुजरिम। थोड़ी देर सोचों के साथ आंखमिचौनी खेल मेघना झटके से उठी। अपने बालों को समेटकर उसने एक निश्चय किया। अभी डायरी के आख़िरी कुछ पन्नों को पढ़कर सब यथावत करना था। कुछ ही देर में चिया आती होगी।
“तेईस दिसम्बर -कल से स्कूल में विंटर वैकेशन हो जाएगा। अयान ने आज फिर अपनी पार्टी की याद दिलाया ,हालांकि इतने दिनों से मैं एकपल को भी उस पार्टी को भूली नहीं हूं। क्लास में हर वक़्त कोई न कोई पार्टी की चर्चा करता मिल। जाएगा। शेफ़ाली सबसे ज़्यादा तैयारी कर रही। बाक़ी सब लड़कियां भी अपनी ड्रेसेज,मेकअप,शूज़ की बातें करती रहतीं। मुझसे भी सबने पूछा कि तुम तो ज़रूर आओगी अयान की पार्टी में,क्योंकि अयान पूरी क्लास में कहता है कि उसे तुम पसन्द हो। यह सुनना कितना अच्छा पर दिल कैसे धक से हो जाता। अयान को यह सब कहने की क्या ज़रूरत। पर पच्चीस को जब वह सबके सामने मुझे प्रपोज करेगा तब क्या होगा?शेफ़ाली तो जल ही जाएगी। बाक़ी सब भी शॉक्ड रह जाएंगी क्योंकि मुझे पता है कि क्लास की हर लड़की अयान के ख़्वाब देखती है।
पर अम्मा? उनसे क्या कहूँगी?वह तो कभी परमिशन नहीं देंगी। बहुत ज़िद करने पर कहेंगी चिया चलो मैं भी चलती हूँ पार्टी में घण्टे भर रहकर लौट आएंगे। और अगर कहीं उन्हें यह पता चल गया कि पार्टी में कोई बड़ा नहीं रहेगा और पार्टी रातभर चलेगी तब तो भगवान भी आकर कहें तो भी वह नहीं जाने देंगी। यह अम्मा इतनी सड़ी क्यों हैं?जहाँ जाएंगी मुझे लेकर जाएंगी, मुझे जहाँ जाना हो वहां साथ लटक लेंगी। कल उनसे साफ़ कह दूँगी कि मुझे उनके मिडिलक्लास डिसिप्लीन में कोई इंटरेस्ट नहीं। सबके माँ बाप हैं पर कोई ऐसा सख़्त नहीं। बड़ी नियम से चलने वाली बनी हैं तो ख़ुद ही चलें न,मुझे क्यों उस राह पर चलने को मजबूर करती हैं।
पर अम्मा से यह सब कहना कितना मुश्किल होगा,उन्होंने तो कभी मुझे मजबूर नहीं किया। पर अयान उफ़्फ़ यह किस मुसीबत में मेरा मन फंस गया है। मैं अम्मा को दुखी नहीं करना चाहती पर अयान को भी खोना नहीं चाहती। उसकी ज़रा सी नाराज़गी से मेरा दिल डूबने लगता है तो पार्टी में न जाने पर तो वह कभी मुझे माफ़ नहीं करेगा।
I love you like rooms love light,
the soul loves flames,
and the body, rest.

_____________ Attila Jozsef


डायरी के आख़िर में एक तस्वीर रखी मिली। ज़ाहिर है कि यह अयान ही होगा। मेघना ने ग़ौर से तस्वीर को देखा, लड़का निःसंदेह सुदर्शन था। पर बाहरी सुंदरता से किसी इंसान के भीतर को नहीं आंका जा सकता यह मेघना से बेहतर कौन समझ सकता था। इस क्रूर पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष यूँ भी पहले पायदान पर होता है,तिसपर रूप,धन,गर्व से युक्त पुरुष तो स्वयं को विश्वजित समझता है।

अचानक मेघना को याद आया आज ही तो 24 दिसम्बर है, आज चिया शॉपिंग पर गई होगी,और कल उसके जीवन का वह दिन होगा कि चाहे तो वह एक दिन उसे बना दे,चाहे तो मिटा दे। इंसान की ज़िन्दगी की कोई एक शाम एक ऐसी लंबी अंधेरी सुरंग में बदल जाती है जिससे जीवनभर निस्तार नहीं मिलता। अगर कोई रौशनी का सुराग मिले भी तो उस अंधियारे में जुगनू की तरह पलभर जलकर राख हो जाता है।

अपना अंधियारा अतीत और चिया के चमकदार भविष्य के बीच बस आज की रात थी..एक उद्धत किशोरवय बेटी और एक जीवन की अग्नि में तपकर हिम सी शीतल माँ के बीच कोई एक पुल – ए- सिरात होना चाहिए जिसपर चलकर इस क़यामत की रात वह गुनाहों से पार पा जाएं। उसे कुछ तो करना था इस रात जिससे कल की सुबह चमकदार हो। अब उसे इंतज़ार था चिया का जोकि सुबह ही कहकर गई थी कि आज एक्स्ट्रा क्लास होगी और वह शाम को देर से आएगी। मेघना एक भूले हुए गाने की टूटी फूटी लाइनें याद आईं-
Talk to me softly
There is something in your eyes
Don't hang your head in sorrow
And please don't cry
I know how you feel inside I've
I've been there before
Something is changin' inside you
And don't you know

हर दिन को ढलना होता है,वह ढल गया। हर साँझ सुबह निकले लोगों को घर लौटना ही होता है,चिया लौटी। हर साँझ के बाद रात आती है,वह आई। सबकुछ अपने होने में पूर्ण और नियमित था। पर दो दिल थे जो विचलित थे,अपूर्ण थे,अँधेरे में थे। रात खाने के बाद चिया जब अपने कमरे की ओर जाने लगी, मेघना ने पुकारा -बेटा मेरे पास आओ।
चिया पलभर को धक से रह गई,हालांकि मेघना की आवाज़ एकदम सहज सामान्य थी,पर चिया का दिल पानी में बहते पत्ते पर ठिकाना बनाये चींटे सा था कि हर मोड़ पर अब डूबे कि तब डूबे सा लगे।
“अम्मा मैं थक गई हूं और सोने जा रही” -चिया ने बेज़ारी से कहा
“जानती हूं बेटा पर कितने दिन हुए तुम रात खाने के बाद कहानी सुनने की ज़िद नहीं की, आओ आज कहानी सुनाऊं। “ -मेघना ने बोला।
“अम्मा मुझे कहानी नहीं सुननी, और सुनो कल दोपहर मैं नेहा के घर जाऊंगी,शाम को क्रिसमस पार्टी है और रात हम तीन चार सहेलियां ग्रुप स्टडी करेंगे। “ चिया ने अपनी आवाज़ को भरसक सम पर रखने की कोशिश की,पर उसकी आवाज़ की लरजिश साफ़ सुनाई दे रही थी। चिया को पूरी उम्मीद थी कि उधर से सीधे इंकार आएगा और वह आगे झगड़ने, हंगामा करने के लिए मन ही मन तैयार थी।
“ओके बेटा कितने बजे जाना है कल? “अम्मा ने आराम से कहा।
“क्या सच अम्मा!” चिया अपनी एड़ियों पर 360 डिग्री घूम गई।
“एकदम सच बेटा” -मेघना ने कहा
“यू आर ग्रेट अम्मा,चिया दौड़कर मेघना के गले से लिपट गई। “
कितने महीनों बाद चिया पहले की चिया बनकर गले में झूली है,वर्ना तो जाने कितने दिन हुए वह अजनबी सी बनी छुपती बचती रही। बहुत बार हम जो सोचते हैं कि बहुत मुश्किल है मिलना,वह गर आसानी से मिल जाये तो यक़ीन और मुश्किल से होता है। वही हाल चिया का हुआ उसे अभी तक यक़ीन नहीं हो रहा था कि अम्मा ने पार्टी में जाने,रात रुकने के लिए हाँ कह दिया है। वह शंकित निगाहों से फिर से अम्मा को देखती है कि कहीं उसने सुनने में भूल तो नहीं कर दी,या अम्मा ग़ुस्से में तो नहीं हैं। पर अम्मा के चेहरे पर तो थी एक गहरी प्रशांत मुस्कान और अगाध वात्सल्य।
“अरे यूँ हकबकाकर क्यों देख रही मुझे। चल आजा आज मेरा मन तुझे कहानी सुनाने का है,सुनेगी न!”
“हाँ अम्मा सुनूँगी। “ -चिया उल्लसित आवाज़ में बोली,वह भूल गई कि बस मिनट भर पहले ही उसने कहानी न सुनने का ऐलान किया था।
मेघना के कमरे में ब्लोअर की नरम मखमली गरमाई थी,साइड टेबल पर जलते लैम्प का एक छोटा वृत्त फ़र्श पर गिरकर अँधेरे से लड़ रहा था जबकि उससे बस एक अंगुल दूरी पर अँधेरा अजदहे सा कुंडली मारे बैठा था,बाज़ दफ़ा हमारी ज़िन्दगियों में ख़तरा भी बस एक अंगुल दूर होता है और हम उसे देख-समझ नहीं पाते मेघना ने एक गहरी सांस लेते हुए सोचा,पर लड़ना तो है ही,चाहे वह लड़ाई एकदम हारी हुई ही हो क्यों न हो। कम्बल में पैर करके मेघना बैठी तो उसके पैरों पर सर रखकर चिया लेट गई, यह उनकी कहानी कहने और सुनने की परिचित शैली थी।
“सुन चिया-
एक राज्य था,वहाँ एक राजा राज करता था । नहीं नहीं वह बस एक शहर था और वहां कोई राजा नहीं था। बस लोग थे अपने अपने घर परिवारों,दफ़्तरों, कचहरियों,पुलिस थानों,अदालतों,खाने पीने,कपड़े लत्तों,गहने गुरियों, चूड़ियों,गल्ले,मिठाई,चाट की दुकानों में काम करते,ख़रीद फ़रोख़्त करते,लड़ते,हँसते, रोते जीते थे। उस शहर में यूँ तो कुछ ख़ास नहीं था सिवाय इसके कि उसे नवाबों ने बसाया और एकदिन चुपचाप उस शहर को छोड़ दूसरी जगह शहर बसाने चले गए। पीछे रह गए उनके पुरखों के मक़बरे, बावड़ियां,बाग़ और शहर के मुख्य बाज़ार में प्रवेश करने को बने ऊंचे,भव्य किन्तु समय की मार से जर्जर हुए दरवाज़े। वह दरवाज़े जिस संख्या में थे उन्हें उसी नाम से एकदरा,दो दरा और तीन दरा पुकारा जाता। उन दरों की टूटी मीनारों में कबूतरों के जाने कितने खानदान आबाद थे तो उनके नीचे पटरी दुकानदारों की फ़ौज काबिज़ थी। चप्पल जूतों से लेकर इत्र फुलेल,परांदे से लेकर गिलट के पायल तक वहां मिलते,सस्ते प्लास्टिक के मग्गों से लेकर बच्चों के स्कूल टिफ़िन और पानी की बोतलें मिलतीं,सेंदुर के ढ़ेर लगाए ,मंगलसूत्र के काले मोतियों को गूंथकर माला बनाने वाले पटहर ,रंग बिरंगी कांच की चूड़ियों वाले मनिहार,चूडिहार,साज सिंगार वाले बिसाती सबका ठिकाना वह दरे थे। वह शहर आँखों से हँसता था और भौंहों से बातें करता था। उसके होंठों से मुहब्बत के गीत और गालियां दोनों समान रूप से झरते। वहां नौजवान बांके होते तो बूढ़े बावकार,और बच्चे! वह तो हर शहर,हर गाँव, हर देश में एक जैसे होते हैं नरम रुई के गोले से लुढ़कते,खिलखिलाते,ज़िदें करते और रोज़ रोज़ बड़े होते।
इसी शहर के चौक में सबसे बड़े सर्राफ़ हुए लालचंद। उनके बाबा ने एक छोटी सी दुकान शुरू की थी जो आने वाली नस्लों की सूझ बूझ और मेहनत से आज उस शहर की सबसे शानदार,चमकदार सोने चाँदी, जवाहरात की दुकान थी। लालचंद को तीन बेटे हुए पर एक बेटी की साध मन में रही। बड़े बेटे के ब्याह के साल ही उन्हें बेटी हुई । सबने बड़ी हँसी ठिठोली की,तंज किये पर लालचंद और उनकी बीवी एकदम मगन,निहाल। जैसे कहानियों में राजकुमारियां या सतनारायण की कथा में कन्या कलावती बढ़ती थी वैसे ही उनकी लड़की बढ़ने लगी।
“अम्मा उस शहर का क्या नाम था?” चिया ने अचानक पूछा।
“कहानियों में शहरों,नगरों के क्या नाम होते चिया रतनपुर,फूलपुर कुछ भी रख ले। “
“और उस लड़की का क्या नाम था अम्मा!” चिया ने फिर पूछा।
“ओफ्फो चिया नाम में भला क्या रखा है,कुछ भी रख ले। मुख्य बात तो कहानी है न ।
“पर अम्मा लड़की का कोई नाम तो होना चाहिए न, ” चिया ने प्रतिवाद किया।
“अच्छा तू ही रख दे नाम उस लड़की का। ”
“अम्मा वह ज्वेलर की लड़की थी तो सोना नाम रख दो न,कितना चम चम चमकदार नाम है। ”
“नाम कितना भी चमकदार हो चिया पर अगर क़िस्मत चमकदार न हो तो सारे नाम मिट्टी में मिल जाते। ”
“अम्मा अब तुम फिलॉसफी न झाड़ो,कहानी सुनाओ न । ” चिया ठुनकते हुए बोली।
“अच्छा सुन-
सोना बढ़ने लगी रोज़-रोज़। साथ ही बढ़ने लगा लालचंद और उनकी बीवी का दुलार। कहते हैं कि दुहाजू की बीवी और बुढ़ापे की संतान बहुत प्यारी होती। सोना के मुंह से कुछ फ़रमाइश होती तो बाप-भाई दौड़ पड़ते। वह थी भी बहुत प्यारी। लालचंद उसे बचपन से ही गहनों से लादे रखते। पायल,बाली,नाक का कांटा,गले में चेन यह तो न न करते वह पहनाए रखते क्योंकि आस पड़ोस के सभी लोग आगाह करते कि देख भाई एक तो बिटिया इतनी सुंदर और प्यारी तिसपर गहने गुरिया से लदी। भगवान न करें पर कहीं खेलते कूदते वह इधर उधर हुई और किसी की ग़लत निगाह उसके गहनों पर पड़ गई तो लड़की की जान को भी ख़तरा हो जाएगा। यह वह समय था जब बच्चियों को गहने के लालच में भले कोई नुक़सान पहुंचा दे पर गोश्त के लालच में कोई ग़लत नज़र नहीं डालता था।

लालचंद,उनकी बीवी,उनके लड़के,बहुएं सभी की जान सोना में बसती थी और सोना वह भी तो सबको बहुत बहुत प्यार करती थी। धीरे धीरे सोना बड़ी हुई,स्कूल जाने लगी। तब अमूमन बच्चे पैदल या रिक्शे से स्कूल जाते। पर सोना जाती कार से। यूँ उसका भी मन होता कि वह अपनी सहेलियों के साथ रिक्शे पर बैठकर लड़ती,झगड़ती,हँसती,बातें करती स्कूल जाये और लौटते वक़्त रंग बिरंगे चूरनों की पुड़िया,अमरख,इमली,मलाई बरफ़ खाते लौटे। लालचंद सुनते तो हँसते कि तू कहाँ रिक्शे पर लटककर जाएगी आएगी। तू अपनी सहेलियों को भी कार से ले जाया कर पर सोना जानती थी कि उसकी सहेलियाँ कार में वही नहीं रह जाएंगी जो वह रिक्शे पर होती हैं। एकाध बार उसने उन्हें कार में साथ ले जाना चाहा तो वह ऐसी सिकुड़ी सिमटी ख़ामोश बैठी रहीं कि सोना को लगा वह जाने किन अपरिचित लड़कियों के साथ बैठी है।
असल में प्रारब्ध इंसान के आगे आगे चलता है। सोना का भी चल रहा था तो लालचंद और उनका परिवार सोना की रिक्शे से जाने की ज़िद मान गए। अब वह ख़ुशी ख़ुशी अपनी सहेलियों के साथ गड्डमड्ड बैठकर,लटककर जाती। लौटते हुए जाने कितने स्वाद से उसकी जीभ और आत्मा भरी होती। सोना से एक गली छोड़कर उसकी सखी रूपा का घर था। वह कायस्थों की बेटी थी,सोना से साल दो साल बड़ी,नकचढ़ी पर गुणवंती। सोना से उसकी ख़ूब पटरी खाती। वह छोटे से ही संगीत की तालीम लेती थी,उसे देख देख सोना को भी शौक़ चढ़ा। घर में पहले तो ख़ूब हंगामा हुआ कि यह क्या मिरासिनों की तरह नाच गाना सीखने की सूझी तुझे। अरे सीखना है तो सिलाई सीख ले या कि कढ़ाई,क्रोशिया। आगे शादी ब्याह में यही गुन काम आते। पर वह तो सोना थी, जो कह दिया उसे मनवाना जानती थी। सो दस साल की उमर से उसकी संगीत की तालीम शुरू हुई। वह पहले रूपा के घर जाती फिर उसके साथ कभी पैदल तो कभी रिक्शे से गुरुजी के घर।
संगीत की तालीम लेते सोना को पांच बरस हो चुके थे,गुरुजी उसकी प्रतिभा,लगन से बड़े प्रभावित थे,वह गायन और वादन दोनों सीखती। रूपा केवल गाना सीखती इसलिए वह ज़ल्दी लौट जाती। वापसी में सोना अकेली आती,यूँ तो छोटे शहरों में सड़क पर चलता हर चौथा आदमी आपकी पहचान का निकल आता है लेकिन अकेले सड़क पर चलना अलग बात होती। सोना जब संगीत सीखकर निकलती तब तक सूरज को अपने घर गए डेढ़ दो घण्टे से ज़्यादा हो चुके होते। सड़क,गलियों,दुकानों,मकानों पर बिजली के बल्ब जगमगाते तो लगता यह शहर वही बोसीदा शहर नहीं बल्कि कोई दोशीज़ा हो। यूँ भी अगर घूरे पर भी साँझ को कोई दीपक जला दो तो वह सुंदर लगने लगता है,यह तो तब भी एक पुराना शहर था। भीड़ और शोर से भरा। सोना सोचती पुरानी इमारतों के बीच नए बने मकान दुकान यूँ दिखते हैं जैसे किसी जर्जर ओढ़नी पर रेशम के पैबंद।
सोना पन्द्रह की थी पर उसकी लम्बाई सत्रह साल वालियों को मात देती, दूधिया रंगत और घने लम्बे काले बालों की चोटी उसे सबसे अलग करती। दसवीं में वह अपने सेक्शन में प्रथम आई थी,लालचंद बहुत ख़ुश थे कि उनकी बेटी इतनी होनहार,गुणवान है। वह उससे अक़्सर भजन सुनते-प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी। जब वह गाती लगता साक्षात वागेश्वरी ही गा रहीं,सुनने वाले तो भाव विभोर हो उठते और उनकी आँखों से आँसू बह निकलते
सोना भजन जितना अच्छा गाती थी उससे भी अच्छा वह ग़ज़ल,दादरा,ठुमरी,ख़याल,निर्गुण गाती। उस्ताद जी उसे अपनी सर्वश्रेष्ठ शागिर्द मानते,वह वक़्त ऐसा था कि भले घरों की लड़कियों का गाना बजाना भला काम नहीं माना जाता था वर्ना तो सोना देश विदेश तक गायन में नाम करती।
कई दिनों से सोना देखती कि रूपा सड़क पर चलते हुए इधर उधर ज़्यादा ताकती है,यूँ कि कई बार वह गिरने गिरने को हो आती। उसने देखा जैसे ही वह दोनों गली से निकलती हैं एक लड़का साइकिल लेकर उनके पीछे पीछे चलने लगता। रूपा कई बार जानबूझकर चाल धीमी या तेज़ कर लेती मानों यह कोई खेल हो रहा हो। एकदिन सोना ने हिम्मत करके रूपा से पूछा तो उसने किसी को न बताने की कसम देकर उससे सब हाल कहा। वह रूपा के घर से पांच-छह घर दूर रहता,शाम को छत पर ताकाताकी,पीछा करने के अलावा उनमें खतो किताबत भी होती थी। रूपा ने कई चिट्ठियां सोना को पढवाईं, उनमें ऐसी तड़प भरी बातें लिखी थीं कि सोना के गाल तपने लगे। उसने सोचा रूपा कितनी ख़ुशक़िस्मत है कि उसे ऐसा चाहने वाला मिला है।
उधर उस्ताद जी सोना को एकदम संगीत में झोंक दे रहे थे। वह स्कूल से आकर खाती और ज़रा देर आराम करके सीखने चली जाती। लौटने तक वह इतनी थक चुकी होती कि और कुछ सोचने की हिम्मत ही नहीं बचती थी। एक रोज़ बारिश होने के पूरे आसार थे। उस्ताद जी हफ़्ते भर से दादरे की एक लाइन सोना से गवा रहे थे,पर उनकी संतुष्टि नहीं हो रही थी। वह आँख बंद करके रियाज़ कर रही थी-भर भर आयीं मोरी अंखियाँ पिया बिन। बन्द आँखों के बावज़ूद उसे लगा कि कोई उसे देख रहा ,उस चितवन की तपिश से लरजकर उसने पट से आँखें खोल दीं। वह किवाड़ की ओट से उसे एकटक देख रहा था। कौन था वह?सोना ने सोचा। उसके बाद उससे गाया नहीं गया,बारिश होने लगेगी तो घर जाना मुश्किल होगा यह कहकर वह घर को निकल पड़ी।
रात भर सोना आँखें बंद करती तो वही तपिश उसे पलकों पर महसूस होती और वह घबराकर आँख खोल देती। उलटते पुलटते सुबह हुई तो अधूरी नींद के कारण बदन थकन से चूर था। आज मौसम ख़ुशगवार था,उसने स्कूल न जाने का निर्णय लिया और नहा धोकर,नाश्ता करके सो गई। दोपहर तक मौसम और उसकी तबियत दोनों खिले खिले से थे और वह रूपा के साथ उस्तादजी के घर की ओर चली। आज कोई अंजानी सी डोर थी जो उसे खींच रही थी। रूपा ने उसकी घबराहट भांपकर पूछा कि क्या बात है आज तू कैसी घबराई सी है?
“कुछ नहीं बेवक़्त सोने से अजीब सा लग रहा। “ सोना ने कहा।
रूपा बोली तो कुछ नहीं पर उसे बार बार घूरती रही जैसे उसके चेहरे पर कुछ ढूंढ रही हो।
आज उस्ताद जी ने पहले की सिखाई ठुमरी दोहराने को कहा..रूपा अनमने ढंग से गा चुकी तो उस्तादजी ने सोना से उसे गाने को कहा-'सैंया गए परदेस,अब कैसे कटे मोरी सूनी सजरिया' हालांकि सोना अच्छा गा रही थी पर उसकी आवाज़ की भटकन उस्ताद जी से छुपी न रह सकी। वह थोड़े खीझकर बोले तुम्हें हुआ क्या है सोना?गाने में मन नहीं लगता तो घर बैठो। सोना सर नीचे किये उस्तादजी की डांट सुन रही थी पर साथ ही उसे मालूम था कि दरवाज़े के पीछे से वही दो नज़रें उसे देख रहीं।
रूपा जा चुकी थी,सोना जाने को निकली। औरतों की छठी हिस उन्हें बता देती है कि कुछ होने वाला है। सोना लटपटाई चाल से ज़ल्दी ज़ल्दी जा रही थी कि पीछे से आवाज़ आई सुनिए! पुराने ज़माने की कहानियों में बताया गया था कि पीछे से कोई पुकारे तो मुड़कर नहीं देखना चाहिए,पर सोना उस बात को भूल गई और मुड़कर देखने लगी। कल की आँखें आज सामने खड़ी मुस्कुरा रहीं।
“आप बहुत अच्छा गाती हैं,अच्छा ही नहीं बल्कि बहुत अच्छा। “ -उसने कहा। कई बार हम चीज़ों को जानते हैं जैसे कि सोना जानती थी कि वह ठीक ठाक गा लेती है,पर किसी और से सुनने पर ऐसा लगा जैसे वह पहली बार यह बात सुन रही हो। पैर थर थर कांप रहे थे,गला एकदम सूखा और धड़कनें बढ़ी हुई थीं मानों जेठ बैसाख की चिलचिलाती दोपहरी में दौड़कर आई हो। उसने नज़रें झुकाए झुकाए शुक्रिया कहा और एक रिक्शा रोककर उसपर बैठ गई। रिक्शे पर बैठे हुए दूर तलक उसे अपनी पीठ पर एक जोड़ी आंखों की गरमाई महसूस होती रही। रात बिस्तर पर लेटकर उसने जाने कितनी बार मन ही मन उस वाक्य को दोहराया-आप बहुत अच्छा गाती हैं,अच्छा ही नहीं बल्कि बहुत अच्छा। वह नींदों में भी मुस्कुरा दी जैसे नन्हे शिशु अपनी कच्ची दूधिया हँसी नींद में हँसते हैं।
अगले रोज़ से सोना गाने कम,एक जोड़ी आँखों को निहारने अधिक जाती,चौथे रोज़ उसे दरवाज़े के पास आँखों के साथ एक हथेली में दबा एक पुर्ज़ा मिला। रास्ते भर उसकी हथेलियां दहकती रहीं मानों वह कोई जलता अनार हो जिसमें से रंग बिरंगी रौशनी के शरारे भी हों और जलाने वाली चिंगारी भी। एक चिंगारी तो उसके सीने में भी भड़क उठी थी और अब उसे बस हवा की ज़रूरत थी,हवा जो चिंगारी को लहकाकर आग में बदल दे और आग जो सबकुछ जलाकर राख कर दे। यहां तक आते आते मेघना की आवाज़ थरथराने लगी थी। आगे क्या हुआ अम्मा?चिया की उत्सुकता जाग उठी थी। सोना का क्या हुआ?वह लड़का कौन था?उनका क्या हुआ?चिया ने प्रश्नों की बौछार कर दी।
“सुनाती हूँ चिया, धीरज धर। “ -मेघना ने थके स्वर में कहा।
फिर क्या,वह चिंगारी सुलगने लगी धीरे धीरे। पहले गाने की क्लास से ज़ल्दी निकलना और बाद में क्लास न जाकर उस लड़के के साथ शहर की पुरानी नवाबी इमारतों में भटकना,चिट्ठियों की अदला बदली,घर से झूठ बोलना सब शुरू हुआ। यह बातें कभी छुपती नहीं,ख़ासकर छोटे शहरों में जहाँ लोग कहने को शहरी होते पर गाँव की तरह हर बन्दे की खोज ख़बर रखते। लालचंद तक उड़ती उड़ती ख़बर पहुंची तो पहले उन्हें विश्वास न हुआ,उनके तईं सोना तो इस दुनिया की बाशिंदा थी ही नहीं,वह परियों की दुनिया से आई थी,ओस की तरह कोमल और पवित्र। पर जब जवान भाइयों ने तहक़ीक़ात करी और आँखों देखी बात बताई तो लालचंद बिफर उठे। वह लड़का उस्ताद जी के किराएदार का भांजा था,मुम्बई में रहता था,निठल्ला था,बस सूरत शक़्ल अच्छी थी पर सीरत ऐसी कि घरवालों ने किसी कांड के कारण दूरपार के रिश्तेदार के घर कुछ महीनों के लिए भेजा था ताकि मामला ठंडा हो तो उसे वापस बुलाएं। उस्तादजी को बात पता चली तो उन्होंने सोना और उस लड़के को बहुतेरा समझाया। घर में माँ रोतीं,पिता अबोला ठाने रहे,भावजें तंज कसतीं और भाई बौखलाकर रह जाते पर सोना उसपर कोई असर नहीं होता था। घर से निकलने पर जब सख़्त पाबंदी लगी तो उसने रूपा के मार्फ़त लड़के से राब्ता रखा।
महीना भर बीतते न बीतते सबकी ज़िन्दगियों में भूचाल आ चुका था,एक हँसता खेलता परिवार मुरझा गया था,पर सोना के प्रेम का पौधा लहलहा रहा था और वह उसपर ख़ाबों के झूले में झूलती भविष्य के सपने देखती। एकरोज़ लड़के ने रूपा के हाथ छुप छुपाकर ख़त भेज कि अगर वह उससे प्यार करती है तो कल रात उसके साथ भाग चले। सोना ख़त पढ़ते ही कांप उठी। माँ पिता,भाइयों सबके चेहरे उसकी नज़रों के सामने नाचने लगे पर जा तन लागे वा तन जाने सोना के सोचने समझने की ताक़त ख़त्म हो गई थी।
वह रात क़यामत की रात थी,वह रात फ़ैसले की रात थी और सोना ने फ़ैसला कर लिया था। अगली शाम ढ़लते न ढ़लते वह सामान्य रूप से उठी,माँ भावजों ने देखा कि वह भतीजे भतीजियों को दुलार रही,उठकर हाथ मुंह धुलकर कई दिनों बाद कंघी चोटी की और सबसे सामान्य रूप से बात करती,हँसती बोलती रही। घरवालों से महीने भर से उसका अबोला ठना था,खाना पीना भी नाममात्र था पर आज सब ख़ुश थे। आंगन से सटे नहानघर और उससे सटे गली के दरवाज़े को खोलकर जाने कब सोना घर से निकल गई। सोना के जाने के घण्टे भर बाद घरवालों को पता चला पर उनसे पहले पूरे मुहल्ले, पूरे शहर,पूरी दुनिया को पता चल गया कि सोना भाग गई।
आगे आगे सोना गई,पीछे पिता के प्राण। मानों उनके प्राण सोना में बसे थे। जिस समय सोना की माँ पिता के निर्जीव शरीर पर गिरी दहाड़ें मार रही थीं,उस समय सोना धड़कती छाती लिए बम्बइया हीरो के शाने पर सर धरे मुस्कुरा रही थी। ट्रेन सोना को उस शहर से हमेशा के लिए ले जा रही यह सोना को नहीं मालूम था। वह बम्बई न जाकर नासिक,पुणे,कल्याण घूमते,दोस्तों परिचितों के यहां लुकते छिपते रहे ,उन्होंने नासिक पहुंचते ही आर्यसमाज विधि से शादी कर ली कि कहीं सोना के पिता उन्हें ढूंढ न रहे हों। जब महीने दो महीने कहीं से कोई ख़बर नहीं आई तो वह सोना को लेकर अपने घर पहुंचा। उसके पहले के कृत्यों से त्रस्त माता पिता ने दोनों को घर में घुसने ही नहीं दिया,और वह घर भी क्या था मुर्गी के दड़बे जैसी खोली थी। सोना इतने दिनों में ही पीतल के टुकड़े सी हो गई थी। रमेश हां उसका नाम रमेश था वह अक़्सर उसपर भड़क उठता। उसकी रतनारी आंखें जिन्हें देख सोना रीझ उठती थी ,वह सोना के इंतज़ार में जवा फूल नहीं हुई होती थीं बल्कि गांजे भांग के गोले के कारण रहती थीं। दोनों अपने एक दोस्त की खोली में शरण लिए हुए थे जहाँ रमेश की गालियों और दोस्त की गन्दी निगाहों दोनों से बचना नामुमकिन लगता था। रात रातभर सोना रोती, घरवालों को याद करती। मन ही मन उनसे अपने गुनाहों की माफ़ी मांगती। रमेश अब उसे खुलकर ज़लील करता और कहता कि भागते समय थोड़े गहने ही लेकर आई होती तो कितना अच्छा रहता।
सोना ने अपने लिए कोई काम ढूंढने की कोशिश की पर काम कोई हाथ पर रखा आमलक थोड़े होता है कि सहज मिल जाये,वह तो भूसे में गुम सुई की तरह होता है। घरेलू काम करने की उसकी आदत नहीं थी,वह थककर चूर हो जाती,वह जिधर निकलती उसका सलोना घबराया अरूप रूप देखने वालों को विस्मित कर देता। उसके व्यवहार रूप से प्रभावित उसकी एक पड़ोसन ने जब उसके गाने के हुनर के बारे में जाना तो अपने एक परिचित के मार्फत उसे फ़िल्मों में कोरस गाने का काम दिलवाया। रमेश तो कुछ कमाता नहीं था,सारे दिन खोली में नशा करके पड़े रहना, गालियां बकना और जो कुछ मिले खा लेना ही उसकी ज़िन्दगी थी। थोड़े पैसे आने लगे तो सोना ने अपनी उसी पड़ोसन की खोली में शरण ले ली। सुबह से शाम तक लोकल ट्रेन,स्टूडियो,घर गृहस्थी की चक्की में पिसते पिसते सोना माटी हो चुकी थी।
उसने बड़ी हिम्मत करके रूपा को खत लिखा और घर का हाल पूछा। रूपा ने बड़ी बेरुख़ी से जवाब दिया,जवाब क्या दिया शब्दों के नश्तर चुभोये और पिता के मरने,माँ की बीमारी,भाइयों के बंटवारे,मुहल्ले,शहर में थू थू होने बात के साथ साथ उसने अपनी शादी और सुखी परिवार के बारे में बताते हुए कहा कि अब वह उस जैसी बदनाम और बेहया लड़की के साथ कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। उस रात सोना बिलख बिलखकर रोई और न चाहते हुए भी उसे रूपा के प्रेम प्रसंग की सुधि हो आई। आज रूपा कैसे उसे अपमानित कर रही,पर वह सही भी तो कह रही। उसने काम ही ऐसा किया है। सोना इस जीने से अच्छा मर जाने को सोचती उसे याद आया वालेस स्टीवेंज ने कहीं लिखा था कि-डेथ इज दि मदर ऑफ ब्यूटी। पर मरना इतना आसान कहाँ होता न!
“अम्मा सोना वापस अपने घर क्यों नहीं लौट गई?” चिया ने पूछा!
“जो आसमान में उड़ने की चाहत रखते हैं,वह अपनी ज़मीन नहीं बचाकर रखते चिया तो उनकी हालत सोना जैसी होती। उसने तैरना न आते हुए भी समंदर के सफ़र में अपनी कश्ती जला ली थी,अब तो डूबना ही उसकी नियति थी। “
“अम्मा फिर क्या हुआ?”
“फ़िर फ़िर सोना रोज़ जीने की जद्दोजहद में हलाक होती,अपनी ज़मीन खोजती। वह उस मायानगरी से ऊब गई थी। अब तक उसे दुनियादारी का थोड़ा अंदाज़ा हो चुका था,सो एकदिन वह दिल्ली चली आई,एक म्यूज़िक स्कूल में बच्चों को म्यूज़िक सिखाने। दिल्ली के नाम से चिया का दिल धड़क उठा उसने पूछा फिर अम्मा?फिर दिल्ली में ही सोना को पता चला कि वह अकेली नहीं,उसके भीतर कोई और भी सांस ले रहा। स्कूल में ही उसे एक कमरा रहने को मिल गया था,उसने अपनी आगे की पढ़ाई भी प्राइवेट फॉर्म भरकर शुरू कर दी थी। इस समय उसे प्रेम की,सहारे की,आराम की ज़रूरत थी। पर वह अकेले झेलती रही सबकुछ।
“अम्मा सोना ने किसी और से शादी क्यों नहीं कर ली?” चिया पूछ बैठी
“इस समाज में शादी जितनी सहज क्रिया है,तलाक उससे बहुत ज़्यादा जटिल बेटा। सोना ने अपनी सहकर्मी के वकील पति से परामर्श कर रमेश से तलाक की अर्जी न्यायालय में दी। तारीख़ दर तारीख़ पड़ती रही,इधर सोना को एक बेटी भी हो गई। ज़िन्दगी में सोना को रमेश जैसा बुरा इंसान मिला तो बहुत से पड़ोसी, सहकर्मी भले भी मिले,उनके सहयोग से ज़िन्दगी की गाड़ी घिसट घिसटकर ही सही पर चलती रही। एक सहकर्मी तो उससे अतिरिक्त विनम्रता और शालीनता से पेश आता था। सोना थक चुकी थी अकेले चलते चलते वह कभी कभी सोचती कि उसे जीवन के बारे में फिर से सोचना चाहिए क्योंकि उसकी कमउम्र और संघर्षों को देखकर कई सहकर्मियों ने उसे नई शुरुआत करने को बार बार कहा।
एकदिन स्कूल के बच्चों को टूर पर ले जाने के क्रम में वह सब एक आर्ट गैलरी दिखाने ले गए,सायास था या अनायास उस सहकर्मी की ड्यूटी सोना के साथ थी। बच्चों के साथ साथ तस्वीरें देखते हुए उसकी नज़र एलोकेशी नाम की पेंटिंग पर पड़ी,उसे ग़ौर से पेंटिंग देखते हुए देख उसके सहकर्मी ने बताया कि यह बंगाल का प्रसिद्ध तारकेश्वर मर्डर केस की पेंटिंग है। जिसमें नबीन चन्द्र नाम का आदमी नौकरी पर जाते हुए पीछे सोलह वर्षीया पत्नी को घर में छोड़ गया। सास ननद उसे एकरोज़ माधव चन्द्र गिरि नाम के महंत के पास ले गईं,एलोकेशी के अपरूप सौंदर्य को देख महंत की नीयत डोल उठी,उसने पहले तो उसका बलात्कार किया फिर डरा धमकाकर रोज़ उसे अपने पास बुलाने लगा। धीरे धीरे यह बात सबको पता चल गई। नबीन घर आया तो उसने भी यह सुना। एलोकेशी से पूछने पर उसने सच सच सब बता दिया,पति ने उसे माफ़ भी कर दिया और कहा कि वह उसे यहां से ले जाएगा। महंत बहुत प्रभावशाली था, उसने और उसके चेलों ने एलोकेशी और नबीन को घर छोड़ने नहीं दिया,एकदिन ग़ुस्से में आकर नबीन ने एलोकेशी का सर मछली साफ़ करने वाली छुरी से काट दिया। बंगाल में इस केस पर बहुत हल्ला हुआ था,जनता की सम्वेदना नबीन के साथ थी। पर नबीन ने तो अपनी पत्नी की हत्या की थी तब उसके साथ लोगों की सम्वेदना क्यों थी,सोना ने मरे स्वर में प्रश्न किया!
वह अपनी पत्नी की हत्या न करता तो क्या करता, ऐसे भी एलोकेशी भली स्त्री होती तो ख़ुद ही आत्महत्या कर लेती। ऐसी स्त्रियों को मार देना कोई पाप नहीं-सहकर्मी ने तैश में आकर कहा। सोना का जी धक से रह गया। इतना प्रमाद, इतनी प्रवंचना,इतनी नफ़रत स्त्री से है समाज को। महंत जो कि पापी था नबीन को मारना था तो उसे मारता पर उसने मारा पत्नी को और समाज में हीरो बन गया। सोना ने उसी समय तय किया कि अब वह दुबारा उस दलदल में पांव नहीं रखेगी,जहाँ बड़ी मुश्किल से उसकी जान बची। अब उसे अपने पैरों तले की ज़मीन भी ख़ुद ही ढूंढनी है और अपना आसमान भी पाना है।
वह अब एक नई सोना थी,मजबूत और साहसी। सहकर्मी हैरान था कि अचानक सोना अजनबी की तरह क्यों बात कर रही। अब वह कोई सहारा ढूंढने के बजाय ख़ुद को मजबूत करना था। दिन महीनों में और महीने साल में बदले। सोना की बेटी भी बड़ी हो रही थी,उसने ग्रेजुशन भी कर लिया था। अब वह किसी अच्छी जगह नौकरी का आवेदन कर सकती थी। चीजें ठीक हो रही थीं धीरे धीरे। और एकदिन तलाक के मुक़दमे का फैसला भी आ गया,सोना अब उस नाममात्र के रिश्ते से मुक्त थी। उसने कई जगह आवेदन किया था अतः डाकिये द्वारा लाया एक लिफ़ाफ़ा उसके जीवन की ख़ुशियों का संदेश बनकर आया। उसने नये शहर में,नई नौकरी के साथ नया जीवन शुरू किया। अब उसकी बेटी पांच साल की हो गई थी। एक पक्की नौकरी के साथ सोना ने अपना छोटा सा घर भी बना लिया और सुखपूर्वक अपनी बेटी के साथ रहने लगी। बस इत्ता सा क़िस्सा था।
इतना कहकर मेघना चुप हो गई। जैसे बहुत दूर तक पैदल चलने के बाद पोर पोर में थकन समा आई हो। उसे नहीं मालूम था कि बरसों से दिल में छुपाकर रखी कहानी सुनाकर उसने सही किया या ग़लत। पर एकदिन यह क़िस्सा तो सुनाना ही था चिया को। चिया क़िस्सा सुनकर कुछ नहीं बोली और चुपचाप उठकर अपने कमरे में चली गई।
उसके जाते ही मेघना फूट फूटकर रो पड़ी ,जाने कबसे यह मेघ बरसने को मचल रहे थे पर संयम के बांध के सम्मुख उनकी एक नहीं चलती थी। आज बांध टूटा तो जाने कितने मलाल बह निकले, यह रात बहुत भारी थी मेघना के लिए भी और चिया ले लिए भी। रोते रोते जो मेघना की आँख लगी तो सुबह इस आवाज़ से खुली-
“ओ मदर इंडिया नींद पूरी हो गई हो तो चाय पी लो। और सुनो आज लंच के बाद मुझे मार्केट ले चलना और हम डिनर बाहर करके आएंगे। डिनर के बाद आइसक्रीम खाने देना,गला ख़राब हो जाएगा,नाक बहने लगेगी टाईप बहाने मत बनाना समझी। “
मेघना ने आश्वस्ति और प्रेम से भरी एक गहरी सांस ली और मुस्कुरा पड़ी,चिया ने उड़ान से पहले अपनी ज़मीन जो ढूंढ ली थी।

- ममता सिंह

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