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खिड़कियाँ

जीवन की खिड़कियों को हमेशा खोले रखना चाहिए। ये खिड़कियाँ ही हैं जो हमें बाहर की विविधता को अंदर तक रोपने का काम करती हैं,जिससे हम जीवन की तहों को समझने और खोलने की प्रक्रिया कर सकते हैं। इन्हीं के ज़रिए हम परिपक्व होते हैं। हमारे एहसास,अनुभव के आधार पर हमें बेहतर या बदतर बनाते हैं। खिड़कियाँ हमारे सपनो को हक़ीक़त के रंगो को रंगने का रास्ता बनतीहैं । अगर हम खिड़कियों को बंद करेंगे,तो हम अपने आपको जीवन से काट लेंगे।

नहीं,मैं नहीं मानता की किसी पुरुष को आजीवन एक ही बार प्रेम हो सकता है। ये बात मैं स्त्री के लिए भी उतनी ही दृढ़ता से कह सकता हूँ। मैं तीन बेहद खूबसूरत महिलाओं से एक साथ प्रेम करता हूँ। मैं एक सामान्य कद - काठी का लड़का हूँ। एक आम भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार में पला बढ़ा। मेरे पिता और माता सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं। घर में एक छोटी बहन है। बहन एर होस्टिस बनना चाहती है और मैं एक गायक। हम दोनो को यह बनने की इजाज़त नहीं दी गयी। मेरे माता पिता मुझे डॉक्टर चाहते थे। मुझपे साइयन्स थोपी गयी। मेरी बहन अल्का एकनामिक्स लेना चाहती थी,पर गृह विज्ञान दिलाया गया। तो पहली जीवन की खिड़की जो हमारे लिए जो हम खोलना चाहते थे,वो बंद कर दी गयी। पर फिर भी मैंने हार नहीं मानी और जीवन की अधखुली खिड़की की दरार से देखना शुरू किया। मैंने अजमेर के अपने संगीत प्रेमी दोस्तों के साथ एक ‘म्यूज़िकल बैंड’ बना लिया ‘राग’। हमने कई शोज़ पूरे राजस्थान में किए और हमारे कुछ ‘परफ़ोर्मेंसिस’ यू ट्यूब’ पर भी है ,जिसके लाखों सब्सक्राइबर्स हैं। साथ ही साथ मेडिकल की पढ़ाई भी चल रही है। मेरे बैंड मे ‘संगीता’ है जो बहुत ही सुरीला गाती है। वो भी एक मध्यम वर्गीय परिवार से है,उसके पिता एक क्लर्क हैं और माँ टूइशन पढ़ाती हैं। वो संगीत में स्नातक की पढ़ाई कर रही है। उसकी माँ उसको बहुत प्रोत्साहित करती है। वो जब भी गाती है,उसकी आँखो में एक अजीब सी चमक तारी हो जाती है। जहाँ तक मुझे पता है वो हार दिन दो घंटे रियाज़ करती है। संगीता के प्रति उसकी इसी निष्ठा ने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया। हम घंटो संगीत की बारीकियों के बारे में बात करते रहते हैं और रियाज़ करते है। उसके साथ मुझे लगता है की मैं ‘ग्रो’कर रहा हूँ।

मेरा दूसरा समानांतर प्रेम ‘सेजल’ है। वो मेरे साथ सेकंड ईयर एम.बी.बी.स में है। जब फ़ोरेंसिक की क्लास चल रही होती है,तब जैसे उसमें एक सिद्धहस्थ जासूस की आत्मा घुस जाती है। किसी उदाहरण रूपी प्रस्तुत’ केस स्टडी’को इतनी बारीकी से सुलझती है,मैं दाँतो तले उँगली दबा लेता हूँ। सुरुचि सम्पन्न,प्रखर,स्नेहिल सेजल का साथ मुझे सहज और मुखर बनाता है। उसे पढ़ने का शौक़ है और वह पाक कला में भी निपुण है। उसे मेरी हर पसंद -नापसंद का ध्यान है,और हम एक दूसरे के साथ बहुत सहज महसूस करते हैं। ये सहजता क्या प्रेम का प्रथम पायदान नहीं?क्यूँ हम प्रेम जैसी उद्दाम,उद्दात भावना को काम्पार्ट्मेंटलायज़ करें और उसे सीमित कर दे?ना मैं प्रेम में ना तो बटना चाहता हूँ ना बाँटना चाहता हूँ(यहाँ बाटने से मेरा प्रचलित अभिप्राय नहीं बल्कि मैं जिन्हें प्रेम करता हूँ वो चाहे एक हो या दस वो मेरे लिए सम्पूर्ण हैं)मेरा अटेन्शन उनके लिए बँटा हुआ नहीं।

शायद यह दृष्टि मेरे ‘यायावरी व्यक्तित्व’ के कारण आई है। ग्यारवी में था जब किसी छोटी सी बात पर बचपन की गुल्लक तोड़कर तीन हज़ार रुपए लेकर चुपचाप ट्रेन में बैढ़कर देहरादून निकल गया। घर में सब परेशान। अख़बारों में तस्वीर छपी,दस दिन बाद जब एक राष्ट्रीय दैनिक में तस्वीर को पहचानकर एक ढाबे वाले ने घर फ़ोन किया। तब तक मैं मसूरी,हरिद्वार,ऋषिकेश घूम आया था। एक समय खाना खाता था और मीलों चलता। उस समय किए उस रोमांच को मैं आज दिन तक नहीं भूला। ख़ैर,पापा लेने आए। कुछ नहीं बोले,शायद उनके मनोवैज्ञानिक दोस्त डॉक्टर मनीष ने मुझसे कुछ भी कहने से मना कर दिया होगा। वो दिन था और आज का दिन कभी बहन से कहा सुनी नहीं हुई। हाँ,अलबत्ता तबसे मैं हर छः महीने पर घर पर बताकर पर निकल जाता हूँ। ’देशाटन ‘मेरी वो खुली खिड़की है जिसने मुझे बहुत समृद्ध किया है,मैं जीवन को समझने लगा हूँ,लोगों की ‘साइकी ‘को पढ़ने लगा हूँ।

मैं जीवन को ‘लीक’पर नहीं चलना चाहता,जीवन की नदी को बिना बाँध बनाए’निर्बाध’ रूप से जीना चाहता हूँ। मेरे लिए “प्रेम” भी शायद ब्रह्मपुत्र नदी की तरह है,उद्दाम,तीव्र,निर्बाध।
मेरा तीसरा प्रेम मेरी बचपन की दोस्त’ रूपा’है । हम तीसरी कक्षा से बारहवीं कक्षा साथ पढ़े हैं। उसके पिता कॉलेज में प्रॉफ़ेसर हैं। माँ एक चित्रकार। बचपन से जब उसके घर जाता था ,एक अलग तरह की जादुई दुनिया में अपने आपको पाता था। एक तरफ़ अंकल की’स्टडी’ में किताबों की ‘महक’ और दूसरी तरफ़ आंटी के ‘स्टूडीओ’ में ‘पैंट्स’ की महक। तीसरी रसोई में बन रहे पकवानों की महक। मैं अक्सर उनके घर को’पर्फ़्यूम अन्लिमटेड’ कहता। रूपा इकलौती संतान होने के कारण थोड़ी ज़िद्दी और नकचढ़ी थी,पर मेरे साथ न जाने क्यूँ बेहद सहज शायद उसके ‘टॉम बॉइश’ अवतार को मैं बड़ी सहजता से लेता था इसलिए। हमने बचपन में छुप्पन-छुपाई,गिल्ली-डंडा,स्टापू सभी खेल साथ ही खेले। लगभग आढ़वी में जब उसमें शारीरिक और भावनात्मक बदलाव आने लगे तो वो यक़ब्यक मुझसे शर्माने लगी। उसका शर्माना भी मुझे भाता। वो मुझे बेहद पसंद करती थी शायद इसलिए भी की मैं उसकी हर कही-अनकही बातों को समझ जाता था। बारहवीं करके उसने अंग्रेज़ी में ‘ऑनर्ज़’ का पाढ़यक्रम ले लिया और देश के प्रतिष्ठित सोफिया कॉलेज में दाख़िला ले लिया। वही मेरा पी.एम.टी में चयन हो गया। इसके बाद मेरा लगभग रोज़ मिलना थोड़ा कम हो गया। पर ख़त्म नहीं।

मैं मेरे दोस्तों को देखता वे अपनी ‘गर्ल फ़्रेंड्ज़’ को लेकर इतने’ पोसेसिव’ और ‘पेरनोईड’ रहते थे। उनकी गर्ल फ़्रेंड्ज़ भी ऐसे उनसे व्यवहार करती जैसे वे उनकी जाग़ीर हों। कितना ‘ब्रूटल’ और ‘मिडआइवल ‘था ये सब। इस तरह के संबंधो में क्या इन लोगों को’ग्रो’करने की रत्ती भर भी गुंजाइश रहती होगी?घुट के नहीं रह जाते ये? एसा प्रेम क्या बीमार नहीं कर देता इनको? ये प्रेम है या बीमारी?
मुझे स्त्रियाँ फूल सी लगती हैं। हर स्त्री एक फूल ,जिसकी महक दूसरी से जुदा हो। कुछ स्त्रियाँ मादक ‘मोगरे’ सी,कोई भीनी-भीनी गुलाब सी,कोई खिला सूरजमुखी,कोई चम्पा। हर स्त्री एक अलग फूल ,ऐसा फूल जो कभी ना मुरझाए। अब आप ही बताइए मैंने जितने भी फूल बताए स्त्रियों के साथ ,किसी एक फूल को भी आप नापसंद कर सकते हो?

मैं जब भी कभी अपने अंधेरे -उजियारे जीवन और मन की खिड़की से अंदर और बाहर की यात्रा करता हूँ,तो महसूस करता हूँ की कोई ज़रूरी नहीं कोई व्यक्ति दुनियावी संदर्भों में सफल हो,ज़रूरी ये है की वह अपने जीवन में ईमानदार हो। यही ईमानदारी मैं अपने जीवन में अंगीकार कर चुका हूँ। जब मैं ‘संगीता’के साथ होता हूँ तो उसकी पूरी महक के साथ होता हूँ। उसके व्यक्तित्व की महक मेरे ‘अंतस’तक में इतनी तारी होती है की मैं अन्य किसी प्रेमिका के बारे में सोच भी नहीं पाता। किसी अन्य का ख़्याल तक नहीं आता। उसके देह की गंध मुझे नशीला कर देती है। उसका गायन जैसे मदिरापान। तो क्या मैं अन्य प्रेमिकाओं के प्रति ईमानदार नहीं?हूँ मैं ईमानदार हूँ ,क्यूँकि जब सेजल या रूपा के साथ होता हूँ तो उन्ही का होकर रहता हूँ।
ये सही है प्रचलित मान्यतानुसार मुझे तथाकथित रूप से एकनिष्ठ होना चाहिए। पर क्या मैं ‘एकनिष्ठ’ नहीं? जब मैं एक के साथ होता हूँ तो दूसरा कोई अस्तित्व में ही नहीं होता। मेरे दोस्त कहते हैं की मैं एक बहुत पेचीदा व्यक्तित्व हूँ। जिसे मैं सिरे से ख़ारिज करता हूँ। इधर कुछ दिनो से वे मुझे यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं की मैं एक समय में तीन स्त्रियों को जो प्यार कर रहा हूँ,वो तीनो के साथ अन्याय है। इधर घर वाले भी मुझसे शादी करने का दबाव डाल रहे हैं। अब शादी तो एक ही से होगी ना!मैं एक सरल,निर्बाध जीवन चाहता हूँ।

कल रात को ही मैंने एक निर्णय लिया,की मैं ईमानदारी से अपनी तीनो प्रेमिकाओं को एक पत्र लिखकर ,मेरी मनस्थिति से अवगत कराऊँगा। मेरे लिए ईमानदार रहना एकनिष्ठ रहने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। मुझपर इन तीनो स्त्रियों का बराबर का अधिकार है ना किसी का कम ना ज़्यादा।
जब मैं अपने जीवन की खिड़की खोलता हूँ तो मुझे मेरे सपने दिखते हैं,दूसरी ओर माँ-बाप द्वारा लादी हुई मान्यताएँ मुझे नीचे खिंचती हैं। मुझे मुक्त करती मेरी यात्रायें दिखती हैं ,इससे मुझे एक ‘विज़न’ मिलता है। मेरी ‘ग्रोथ ‘में योगदान देती मेरी प्रेमिकाएँ दिखती हैं। मेरे शहर,समाज और दुनिया का परिवेश दिखता है। उस परिवेश का मुझपर प्रभाव महसूस होता है।
मेरा पत्र जब तुम तीनो को मिलेगा ,तब मैं कुछ समय के लिए शहर छोड़कर जा चुका होऊँगा। मैं नहीं रह सकता वर्जनाओं में। नए रास्ते बनाऊँगा,नई खिड़कियाँ खोलूँगा। शायद वो दरवाज़ा भी खोल दूँ जो शायद अब तक बंद है। हो सकता है,पत्र पढ़कर तुम तीनो मुझे’चीटर’मानो। पर मैं किसी अपराध बोध से ग्रसित नहीं,मैंने तीनो को बेपनाह एक निर्बाध झरने मुहब्बत की है। झरने में ‘बेरिकेडिंग’ नहीं होती। दुनियावी संदर्भों में शायद तुम मुझे ‘मिसफ़िट’ समझो।

नहीं मेरी कहानी में कोई सस्पेन्स नहीं उतार _चढ़ाव नहीं। बस एक ईमानदार आदमी का एकालाप है। पत्र है उन प्रेमिकाओं के नाम जिन्हें मैंने बेपनाह मुहब्बत की है,बिना किसी अपराध बोध के। जो भी निर्णय लें। ये है मेरी और मेरी खिड़कियों की कहानी।

-कालिंद नंदिनी शर्मा

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