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ठप्पा

ये कथानक जयपुर से बैंगलोर ढाई दिन के रेल सफर की सहयात्री श्रीमती चन्देल को समर्पित है...

“कुछ लोग दीवार होते हैं ..उन्हें खिड़कियाँ पसंद नहीं होती “
विजिटर्स ने छायाचित्र के नीचे लिखा कैप्शन दोहराया। अपनी तस्वीर से पहले चिति की आँख भी उस अनूठे छायाचित्र पर टिक गयी थी । पुराना बंद दरवाजा जिसकी सांकल पर एक नन्हा पाखी मानो दरवाजा खटखटा रहा हो और दरवाजे पर टिकी साइकिल, एक लम्बी दीवार जिसमें कोई खिड़की नहीं ।
कैमरे की आँख दरअसल फोटोग्राफर की ही तीसरी आँख होती है। न जाने कितने दिन- जतन-एंगल से इस शानदार शाट को एक फ्रेम में लिया होगा। मेरी श्वेत श्याम तस्वीर भी बहुत आकर्षक लग रही । ओह बामुश्किल उसने खुद को फिर से स्मृति के भंवर में जाने से रोका । चिति पल भर ठिठकी ,अबकी बार गौर से छायाकार की ओर देखा , लगभग उसका हमउम्र,साधारण चेहरा-मोहरा ,वह विजिटर्स से रूबरू हो अपने छायाचित्रों को तफसील से बयाँ कर रहा था । सच अपनी कला के बारे में बोलते हुए कलाकार एक दिव्य अनुभूति से भर उठता है , अज्ञात शक्ति को मन ही मन नमन करता हुआ।

चिति सुन रही थी ,विजिटर्स छायाचित्रों की जी भरकर तारीफ कर रहे थे और वह कह रहा था ,हर वस्तु विलक्षण है, कैमरे की आँख से सृष्टि की हर शै जादूभरी लगती है ।
आज सुबह ही अखबार में छपी छायाचित्रों की प्रदर्शनी की खबर में बचपन की अपनी छवि देख लड़ने के इरादे से चिति आर्ट गैलरी में गयी थी और गुस्से में छायाकार को उल्टा-सीधा भी बोल दिया था । ये तो अच्छा हुआ कि गैलरी में उस वक्त कोई नहीं था । वह नजरें झुकाए हाथ जोड़ सारी बात सुनता रहा ,ग्यारह साल पुरानी ब्लैक एंड व्हाएट फोटो के लिए विनम्रता से माफ़ी माँगते हुए बोला

“मेरा यकीन मानिए मैं पूरे चाँद की फोटो ले रहा था ,नया कैमरा था ,फोटोग्राफी का नया नवेला जुनून .आपकी छवि तो अनायास ही आ गयी फ्रेम में ! यकीन तो आपको करना होगा क्योंकि ग्यारह साल तक मैं इस तस्वीर वाली लड़की की तलाश करता रहा या यूँ कहिये उसकी बैचैनी मेरा पीछा करती रही ।
और आज ..आप मिली हैं बिलकुल अलग रूप में ..किसी से भी पूछ लीजिये मेरे अलावा ,कोई पहचान नही पायेगा आपको । कोई तस्वीर नहीं बदलती ,तस्वीर वाले लोग और खूबसूरत होते जाते हैं । इजाजत दीजिये मैम आपकी एक फोटो क्लिक करूं । “ तभी गैलरी में नये विजिटर्स आ गये और उसकी बातों पर विराम लग गया । चिति ने एक बार फिर छायाचित्रों पर नज़र डाली । छायाचित्र के ग्लास फ्रेम में उसे स्वयं की छवि नज़र आई ,नाम चिति उर्फ़ चेताली ,उम्र २६ वर्ष ,रंग गेहुआ,कद ५ फीट ४ इंच , तस्वीर वाले लोग और खूबसूरत होते जाते हैं ,क्या सचमुच !

वृक्ष डालियों की तिरती मुस्कान ,गलबहियाँ डाले सूर्य रश्मियाँ और सुबह का स्वागत करती अधेड़ स्त्री ,जिसके जूड़े में टंका गुलाबी फूल का उजास खुशियाँ सहेज रहा था, पोस्टमैन और उनकी साईकिल देख चिति को बचपन याद आया ,रामदीन काका ,राशीद चाचा उनकी चिठ्ठियाँ लाते थे ,दोनों भाई-बहन पहले चिठ्ठी पाने के जोश में दौड़कर आपस में टकराते हुए जाते थे । और ये छवि तो कमाल है ,चिड़ियों का एक कतार में बैठना ,लगता है फोटो सेशन के लिए वे तैयार हैं । ये समन्दर तट पर सुकून से लेटा लड़का मछुआरे का बेटा लगता है जो शहर के किसी कालेज में पढ़ता होगा और समन्दर से भी विराट सपनें देखता होगा ।
विशाल चिरानियाँ ,पहली बार छायाकार के नाम पर गौर किया चिति ने ,अब वह उसकी मेज तक पहुँच गयी थी और ब्रोशर उलट-पलट रही थी । नाम तो उसका गैलरी के दरवाजे के पास लगे बोर्ड पर भी लिखा था पर अंदर आते हुए चिति गुस्से में थी । और अब ...अब लगता है जैसे भीतर कुछ पिघला है बहुत दिनों बाद वह कहीं बाहर निकली थी और आज दुपहर अपनी विचार श्रृंखला के खोल को भी पिघलाना चाहती थी । उसने विजिटर्स बुक पर जल्दी से कुछ लिखा ,ब्रोशर उठाया और गलियारे की ओर चल दी , थोड़ी दूर अपने पास खड़े पेड़ के स्कल्पचर को देखती रही ,इसमें सिर्फ पत्ते हैं ,फल नहीं ,उसका मन बोला । कोई और दिन होता तो मन में आगे से आगे विचार चलते , पर अभी-अभी एक अजनबी तरंग उसके इर्द गिर्द महक की तरह लिपट गयी । कई दिनों बाद वह मुस्कुराई ! अनगढ़ का अपना सौन्दर्य है ,स्कल्पचर को देखते हुए उसे यही सूझा । चिति अचम्भित थी पलभर में बदली अपनी सूझ और मुस्कुराने पर , ये कोई जादू है ... बड़े दिनों बाद उसके भीतर रचनात्मक कलाकार मन जागा था।

वह उसे जगाए रखना चाहती थी ,उसने तेजी से चलते हुए सोचा ,कल ही सांगानेरी ब्लॉक की फैक्ट्री जाना होगा ,कुछ नये ब्लाक चाहियें ,मिताली परसों फोन पर हैण्ड ब्लॉक वर्क टीशर्ट के आर्डर की बात कर रही थी ,उसे फिर फोन कर पूछना होगा क्या वह आर्डर अभी भी मिल सकता है। ओह कितने दिन हो गये उसे अपने काम पर लौटे । हैण्ड ब्लॉक प्रिंटिंग के काम में उसे महारत हासिल है ,उसके हुनर की बाज़ार में कद्र है । ममेरी बहन मिताली के साथ मिल कर दोनों अपनी छोटी सी कम्पनी चला रहे हैं । पर पिछले एक महीने से घर में बेचैन कर देने वाली चुप्पी है। पहले कभी जब भैया रिसर्च वर्क और वह रचनात्मक काम में जुटते थे तो माँ कहती थी देखो हमारे घर में ख़ामोशी भी सोने के कण हैं ,उनकी गूंज सुनो ,एक लय है कर्म की ,यही सुंदर जीवन है । वह सुंदर जीवन कहाँ गया ,जिसमें वह सुकून पाती थी ।

दादी और भाभी ने बखेड़ा खड़ा कर रखा है। दादी चाहती हैं कैसे भी वह शादी का ठप्पा लगा ले। पर माँ-पापा उसका साथ देते हैं ,दूसरे पक्ष को बिना बताये शादी नहीं करेगें । कितने ही रिश्ते उनके सच बोलने से चुप्पी लगा बैठे हैं । इधर भाभी प्रेग्नेंट हैं और नहीं चाहती कि नौ महीने चिति का साया उन पर पड़े । माँ -पापा उनके इस व्यवहार से आहत थे पर उनकी तबियत देखते हुए ख़ामोश हैं ।

इसका हल है मेरे पास ,जल्द ही मिताली के साथ वोर्किंग वीमेन हॉस्टल में शिफ्ट हो जाउंगी ,चिति ने सोचा । अचानक उसे लगा कि गलियारे में वह बहुत तेजी से चल रही है ,उसके ग्रे पिंक जूते आवाज़ कर रहे थे । चिति को झिझक मालूम हुई , सामने कैफेटेरिया था वह धीरे से कोने की मेज की तरफ बढ़ी। बारह बज रहे थे और वहाँ कोई ख़ास चहल-पहल न थी ,शायद एक बजे तक लंच की सरगर्मियां शुरू हों । चिति ने इस एक घंटे की शांति को अपने भीतर महसूस किया । अपना फेवरेट डोसा और काफी आर्डर की । उसे फिर अपनी वह छवि याद आई जो दीवार पर बड़े खूबसूरत फ्रेम में लगी थी,उसने पर्स से मुड़ी-तुड़ी अखबार मेज पर निर्लिप्त भाव से रख दी ,इसे घर नहीं ले जाना था ,काश वह स्मृतियों को भी ऐसे ही छोड़ पाती ।

सारी दुनिया के लिए वह उजली पूर्णिमा की रात थी पर उसके लिए हकीकत की काली रात । वह लाख चाहे इस सच्चाई से नहीं भाग सकती थी । पापा के ईमेल पर डाक्टर ने रिपोर्ट भेजी थी,पापा चुपचाप प्रिंट निकाल कालोनी में सैर करने चले गये थे ,ये सब अप्रत्याशित था उन तीनों के लिए ,माँ और वह एक दूसरे से नजरें चुरा रहे थे । भाई बाहर होस्टल में था इसलिए बस वह ही इस खबर से बेखबर ,अपनी दुनिया में मस्त ,माँ को और उसे फोन कर हँसा –हँसा कर लोटपोट करने वाला प्यारा भाई।

अचानक मन हुआ ज़ोर से चिल्लाये मैं हमेशा से दीवार नहीं थी ,मुझे खिड़कियाँ पसंद थी ..बहुत पसंद थी .माँ टोका करती पर ज्यों ही डिनर खत्म होता चिति छत पर बने उस छोटे से कमरे की खिड़की में बैठ चाँद तारों बादलों को निहारती । अल्हड़ सपनों की किशोरवय उम्र में मन की न जाने कितनी खिड़कियाँ खुल चुकी थी ।
उस रात का वजन कुछ ज्यादा था ,ऐसा लगता था सुबह को जल्दी आने का कोई उछाह न था। और उसी रात विशाल ने पूर्ण चाँद को और उसे कैमरे की जद में ले लिया था ।

अजनबी साए की तरह डाक्टर का वह ईमेल चिति के साथ था । क्या यह बहुत बड़ी बात है ,क्या जीवन इसके बिना अधूरा रहेगा । जब एकांत की किरण चित्त पर लकीर खींचती हैं तो प्रज्ञा जगती है । चिति बुदबुदा उठी ...जीवन कभी पूर्ण नहीं होता ,अधूरेपन से ही हम जिन्दा हैं ,पूर्णता तो मृत्यु है ,फिर क्यों हम ठप्पा चाहते हैं अपने जीवन में पूर्णता का । स्कूल में पढने जाते हैं तो पहला उदेश्य ज्ञान लेना नहीं परीक्षा में सफल होना रहता है ,सफलता का ठप्पा एक सामाजिक दबाव से ज्यादा कुछ नहीं । पढाई पूरी हुई तो नौकरी का ठप्पा ,कितने ही लोग अपना काम शुरू करने का साहस नहीं जुटा पाते । क्योंकि ये समाज असफल लोगों को पसंद नही करता । जो सफल नहीं वह काबिल भी नहीं । ख़ुशी के भी ठप्पे हैं दुःख को छुपा लो ,पुरुष सबके सामने खुल कर रो नहीं सकते । स्त्री हैं तो बच्चे को जन्म देना ही माँ बनने का ठप्पा है ।

एक स्त्री होना तो अपने आप में ही पूर्ण होना है माँ पापा हमेशा उसे ये बोलते,और उस दिन उसने ये प्रत्यक्ष देख लिया जब पिछले साल वह एक एनजीओ के माध्यम से अनाथालय गयी थी ,वहां एक आंटी को सब बच्चे माँ -ओ माँ कह कर पुकार रहे थे ,वे भी बड़े प्यार से उन्हें अपने गले लगा अपनेपन के साथ गुदगुदा रही थी । वह खुद उन नन्हें अबोध सुकुमारों के वात्सल्य में स्नेहसिक्त भाव से न जाने कितनी देर भीगती रही ।
अचानक उसे एक नन्हीं बच्ची ने कंघी पकड़ाते हुए कहा दीदी आप मेरी भी अपने जैसी चोटी बना दो...उसके गालों को थपथपा कर चिति ने हामी भरी, परी की एक-एक लट को सहेजते हुए सारा ब्रह्मांड चिति के हाथों में सिमट आया था। चिति ने उस दिन जानी अपनी पूर्णता ! निश्चल प्रेम ,करुणा,वात्सल्य भाव और सबके कल्याण की असीम भावना ही तो किसी भी इंसान को पूर्ण बनाती है । स्त्री-पुरुष खाँचे देह से इतर व्यक्ति की चेतना के स्तर पर भी तो कार्य करते हैं ।

मिताली उस पर गर्व करते हुए कहती है ,चिति इस दुनिया को सुंदर बनाने के लिए तुम्हारे जैसे लोगों की बहुत जरूरत है ।
चिति १५ साल की थी ,उन पाँच दिनों के उसकी जिन्दगी से गायब होने के अपनी सहपाठियों की सवालिया निगाहों से वह भी असहज हो जाती थी .माँ की चिंता वाजिब थी ,कभी अकेले घर से बाहर न जाने वाली माँ चुपचाप उसे गॉयनेकॉलाजिस्ट के यहाँ ले गयी थी ,डाक्टर ने माँ को आश्वस्त और उसे सहज करते हुए एमआरआई और सोनोग्राफी टेस्ट लिखे थे ,उन्हीं की रिपोर्ट पापा के ईमेल में आई थी । लिखा था कि मेयर-रोकितांस्की कुस्टर-हॉसर सिंड्रोम (एमआरकेएच) के कारण ये परेशानी है। डाक्टर ने ईमेल में रिपोर्ट की स्थिति को साफ़ –साफ़ शब्दों में लिखा था -प्रत्येक चार से पांच हजार महिलाओं में से एक के पास जन्म से यूट्रस नहीं होता। यानि ऐसी महिलाएं जो गर्भाशय के बिना पैदा होती हैं कभी माँ नहीं बन सकती । इस स्थिति को मेयर-रोकितांस्की कुस्टर-हॉसर सिंड्रोम (एमआरकेएच) कहा जाता है। शोध ज़ारी हैं और कुछ सफलता भी हाथ लगी है,हमें नाउम्मीद नहीं होना चाहिए !
किसी इटेलियन नाम जैसी रॉयल बीमारी है ये तो , भाई को पता लगता तो यही जवाब देता ,भाई की छोटी से छोटी बात याद आने पर बेवजह खी खी कर हंसने वाली चिति आज रो पड़ी । पर माँ तो रोई भी नहीं ,उनके मौन में भीतर का हाहाकार दीखता था । चिति के मन की गुफा में कोई प्रवेश नहीं कर सकता था, जहाँ से यह अंतहीन जंगल शुरू होता था । जल्द ही वह स्मृति के उस जंगल से लौट आई जहाँ चलने से पत्तों में सरसराहट होती थी ,ये ध्वनि उसे एक ही संदेश देती थी,उसे सच को स्वीकार कर चलते जाना है ।
उसकी काफ़ी ठंडी हो चुकी थी ,जिसे छोड़ वह पेमेंट करके उठी ही थी कि तभी पीछे से किसी ने पुकारा ।
“सुनिए मैम, आप बिलकुल बुरा न मानिए ,आप कहें तो मैं ये फोटो हटा लेता हूँ ,सारा ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ दीजिये पर यहाँ से मुस्कुरा कर घर जाईये ।“
घर शब्द सुनते ही उसका मुहं कैसेला हो गया , पर माँ पापा का निश्चल प्यार याद आते ही मन को दिलासा मिला । उन्होंने कितना आत्मविश्वास दिया ,भाई ने उसके काम के लिए खूब दौड़भाग की और यथासम्भव आर्थिक सहायता भी ।

चिति ने विशाल की ओर देखा और संयत स्वर में बोली --
“आप सही कह रहे थे उस तस्वीर से अलग हूँ ,वह अतीत था ।“ फिर मुस्कुराते हुए मजाकिया लहजे में बोली – “आप उस छायाचित्र को प्रदर्शनी में रखें ,अगर बिके तो आधा हिस्सा मुझे जरुर दीजियेगा ।“
विशाल को शायद इस जवाब की उम्मीद न थी ,वह अचरज से उसे देखने लगा ,फिर यकबयक मुस्कुरा कर बोला “फिर मिलते हैं ,शुक्रिया ।“ कुछ और भी कहना चाहता था विशाल,उसकी सादगी भरे सौन्दर्य पर मुग्ध था। मन ही मन कह उठा अधूरे ख्वाबों ने तेरी तस्वीर मांगी है। स्मृतियों की ठसक और कसक दोनों ही मन के खेल हैं ये सच चिति जानती थी पर आज घर लौटी तो मन एक नई स्मृति में मगन था ,रात के एकांत में उसने ब्रोशर दुबारा हाथ में लिया ,काफी देर उलटा-पलटा फिर सोने से पहले स्वयं से बोली ए दिले नादां आरजू मत कर जुस्तजू मत कर सो जा सुबह का इंतज़ार न कर।

हिय के आले में सूर्योदय के उजास सी स्मृतियां ज्यादा देर नहीं ठहरती ,या तो वे अतीत की परछाईयों में अपना अस्तित्व खो देती हैं या फिर वर्तमान की जदोजहद उन्हें लील लेती है । चिति अपने काम में दुबारा एक जुनून की तरह जुट गयी थी ,उसे इससे इतर कुछ सोचने का समय नहीं था । दिन कब खत्म हो जाता और रात मिताली के साथ आगामी योजना बनाते बीत जाती । होस्टल में रहने के लिए चिति ने माँ पापा भैया को मना लिया था ,वे अक्सर मिलने आते रहते ,भाई ने एक दिन स्नेह से उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा – “ चिति तेरे काम के प्रति जोश,जज्बे और जुनून को देख कर मैं बहुत खुश हूँ ।“
इतवार की छुट्टी थी ,आज घर से सभी मिलने आये और नाश्ते के बाद, माँ-पापा के रूटीन चेकअप के लिए चले गये थे । मिताली भी दो दिन के लिए अपने घर गयी हुई थी । चिति टीवी देखते-देखते तान कर सोने की सोच ही रही थी कि फोन की आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी। नया अनजान नम्बर था पर ट्रू कालर पर विशाल चिरानियाँ नाम देख चिति चौंक उठी ,विशाल उससे मिलने के लिये कह रहा था और चिति उसे जल्द से जल्द अपना सच बताने को उद्यत थी । चिति ने डाक्टर की रिपोर्ट जस की तस भेज दी ,उसे पता था अब कोई जवाब नहीं आएगा । तभी संदेश उभरा

“किसी इटेलियन नाम जैसी रॉयल बीमारी है ये तो। मनुष्यता और प्रेम का सिंड्रोम तो मुझे भी है,खूब जमेगी अपनी। और हाँ,विजिटर्स बुक में सिर्फ फोन नम्बर लिखा था,आपके घर का पता चाहिए,आपके पापा से आपका साथ माँगना है !”

- सोनू यशराज

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