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पीड़ के चतुर पत्र

‘तीतर पंखी बादळी विधवा काजळ रेख‘ *ने उसके आसमान को खुरच कर गहरे गह्वर में बदल दिया है जिसमें वह जब से गिरना शुरू हुई कि अब तक गिरती ही जा रही है। जीवन है या कोई ब्रह्म खाड। न भरा जा रहा है न भरता है। न समझ में बनता है न समझना चाहता है। जाने क्या सोचकर आसमान ने अपने आपको धरती पर तान तो दिया है लेकिन स्त्री के दुख को तनते देखकर तनाव में बरबस ही बरस पड़ता है। सोच में डूब जाता है कि धरती की तरह ही जीवन धरिणी को कोई जान क्यूं न सका? जीवन क्या ऐसी चीज है जिसकी थाह न पायी जा सके?

बादलों की ओर जोहते हुए उसकी दृष्टि उन पत्तियों से टकरा कर खुद ही झोली में आ गिरती है। आकाश और उसके बीच तना है लंबे वितान सा विगत जिस पथ ना चलना चाहे तो भी घिर-घिर आती है।
आसमानी ने जूड़े का फूल हौले से निकाल कर हथेली में धर दिया जैसे वह कोई और ही आसमानी हो। फिर से आकाश की ओर तकने लगी और आस के अंश बटोरने लगी। हथेली में अटका फूल नाजुक मुलायम आसमानी ही तो है। कंवळी* लच कमर वाली आसमानी जब क्या ही भांत की थी। ‘कैळू रै काम‘* की उपमा से उसकी सखियां उसको नवाज़ती थी जब वह अधर-अधर चलती थी। एयर होस्टेस से भी सधी सहज चाल कि माटे का पानी बूंद भर भी न छलकता था। पर उसे इस सराहना से फर्क न पड़ता था। वह उन दिनों किसी और ही रंग में रंगी बही जा रही थी।

.....आज उन बातों को फिर याद कर एक लंबी निश्वास फेंकी जो जाने कहां गहरे कुंए में टकराई कि थप्प की आवाज के साथ ही वह स्वयं ही चिंहुक गई। और बिखर गई खिले फूलों वाली फरफराती डाली सी हंसी। ये जूड़े का फूल उसके जी में अटका समय है जो दिखता नहीं पर हरदम महसूसता है। उसके भार से वह कभी हल्की हो जैसे उड़ने लगती है और कभी नन्हे पछतावों के मणों बोझ से लारी सी दब जाती है। कितना भार है इस फूल में। जूड़े में । घने जूड़े में । मलमल के ओढणे * से मंद-मंद झांकते जूड़े में। धरती की छाती पर बंधे बांध सा यह जूड़ा जाने क्या -क्या कर जाता है। इसे छूना भर जैसे किसी दहते कलेजे पर हाथ पड़ जाता है। और वह भीतर तईं झुलस जाती है। जितना झुलसती है कलेजे में ठंडक पड़ती है। यह उसकी पीड़ का पछतावा है। वह इसी में उबचूब जीती रही है। तभी शायद जी पाई है। इससे फारिग होकर वह जी सकती है भला !!
नहीं । जीया न जाये। उसे हर पल चितारे बिना जीया ना जाये। दिल के औजारों का यही एक काम है कि पुराने चलचित्रों की रील अथक चलाता रहता है। सांस भी न लेने देता। उसके सांसों का भार जैसे ट्रेन के सफर का सामानांतर हो चुका है। वह इस खटखट की आदी हो चुकी है। ......

खट...खटा..खट.....
‘‘अरे आप यहां खड़ी है। मैं जाने कहां -कहां ढूंढ आई.....‘‘ सीढ़ियों से छत पर पांव धरते ही कहते हुए उसने पीछे से ही कांधे पर जैसे ही हाथ रखा उसके हाथ से फूल गिर गया और जोर से खट की आवाज हुई। उसने चौंक कर फूल को देखते हुए उसकी ओर देखा। फूल के दोनों ओर दुनिया जहान के अनुभव थे। पीड़ की पारखी सी दृष्टि थी। वही दृष्टि जो कभी आसमानी ने नीला के जीवन पर तान कर स्वयं को उबार लिया था। नीला सोचने लगी। औरतें कितना बदलती है ना। सचमुच कितना बदलती है कि चित्त और पट में परिवर्तित होते हुए वे दिन से रात और रात से दिन में ढल जाती है। किसी महीन तांत के सहारे ही कैसे विश्वास की भारी ओढणी* बुन लेती है कि मन का भार डालकर निश्चिंत होना चाहती है। इतना भरोसा क्यूं रच देती है। कोई समझाये उन्हें कि पहले ठोक-पीट कर देख तो ले कि वो महीन तांत कहीं टिकी भी है या यूं ही हवा में अधर है।
कैसे अधर मान ले उन अक्षरों को जो उसके रेटीना पर सदा के लिए बिंब बने पड़े हैं। स्थायी मांडणा की तरह उसके मन पर मंडित हुए जाते थे। उन पत्रों को वह कैसे झुठला सकती है जिसे वह सांस लेने के लिए जरूरी मानने लगी थी। जरूरत भी थी और जरूरी की तरह ही तो मिलते थे। दूर बैठा आदमी जब दिल की धड़कन में बस जाता है ना तब कहां समझ आता है कि क्या हुआ जा रहा है।
खट...खट...खट की गूंज दोनों की ही आंखों में तारी हो गई। छत पर अधबैठी वे दोनों जैसे किसी युगों का पुल हो।

कैसा सा वो सफर था। आसमानी अपने जीवन की उथल-पुथल से भाग आई थी। जैसे कोई अपने अतीत को खुरच कर पलायन कर जाता है वैसे ही। आकर थमी थी चलती हुई रेलगाड़ी के खचड़े से डब्बे में। चलती हुई गाड़ी का वह सफर जैसे उसे थाम कर खड़ा था। उसके मन का निगेहबान बना हुआ।

उस दिन ट्रेम में आसमानी को नीला तब दिखी जब वह खट...खट...खट के बीच खिड़की की ओर मुंह किये बैठी थी। दिखी क्या दिखती ही रही थी। कईं बार दिखती रही थी। जितनी बार भी वह अपने कलेजे का धुंआ पानी में बहाने के लिए वॉशरूम की ओर निकलती उतनी ही बार वह उसी मुद्रा में बैठी दिखी । धूप-छांव की लकीरें हर बार भिन्न तरीके से सहलाती दिखती लेकिन उसकी मुद्रा वही कहीं किसी ओर शून्य से बहुत पहले कहीं त्रिशंकु स्वर्ग के किसी सोपान की ओर तक-तक तकते हुए की थी। जाने क्या अपने भीतर की ओर तक रही थी । दो बार उसने उचटती नजर ही डाली थी। लेकिन तीसरी बार जब वह रूंधे गले से वहां से गुजरी तो आंखों के कोयों ,मन की खोह से निकला दर्द और दिमाग के बीच में फंसा रूलाई का भारी उउ ढुबुक * करके भीतर पेट में उतर गया और दृष्टि पटल पर आ बैठी वह लड़की जो जाने कबसे उसी मुद्रा में बैठी थी। दोनों खुली हथेलियों का मचान बना कर चेहरे को वहां अटका कर छोड़ स्वयं जाने कहां विचरने चली गई थी। बाद में कुछ क्षण धीमे चलकर वह वहां से गुजरती रही तब उस पर नजर की अटकण* डालती गुजरती। फिर जब भी गुजरी नजर की अटकण बढ़ाई और चाल धीमे कर उस पर परवाह की नजर डालती चली। उसे लगने लगा कि अब इस लड़की का खयाल रखना चाहिए। शायद यह अकेली है। शायद मन से भी अकेली है। अकेली लड़कियां यात्रा करती है लेकिन उनकी मुद्रा ये तो नहीं होती। एक वे लड़कियां जो दुपट्टा संभालते हुए नजाकत से चढ़ती है। अब एक वे लड़कियां जो जींस पहन फदाक* मार कर ऐसे उपरली बर्थ पर उछलती है जैसे कोई घोड़े को एड़ लगाने वाली हो। गौर करने पर भी अंत तक संदेह ही रहता कि यह लड़का है या लड़की। चाल-ढाल, उठ-बैठ से तो नहीं पर स्वर से पहचाना जा सकता है। ना पहचाने तो उनसे क्या कह पूछे कि कहां जाओगी या कहां जाओगे?? आसमानी ने खुद की नजाकत को देखा। आज भी वही शालीन वेशभूषा ओढणे की पटली और छेड़ा को संभालते हुए, खुद को सिमटे सकुचाये हुए प्रस्तुत करती हुई।

आते-जाते महसूसती रही कि यह लड़की जैसे इस जमाने में एकाएक ही टपक पड़ी हो। जब आसमानी इस ट्रेन में चढ़ी थी तब इस बर्थ पर कोई न था। थोड़ी देर बाद उसने उसे ऐसी ही मुद्रा में बैठे देखा। तुंरत रखी तस्वीर की तरह। किसी स्टिल लाईफ की तरह। उसे एक पल को सुकून मिला। साटिन का घाघरा -जंफर* पहने किसी ठीक घर की लगी। लाल घाघरा और जव रंग का ओढणा। हरे रंग के पोलका* पर फूल बूटी थी। सलीके से ओढणा कस के ऐसे ओढ़ा था कि उसका ढलवां जिस्म उस से और सुथरी ढलाव पा गया था। जिस ठंडे दुख से लबरेज भावहीन सी बैठी थी जैसे कोई इसे वापिस न आने का कह कर छोड़ कर गया है और यह उसकी झूठी प्रतीक्षा कर रही है। कोई वापिस आने वाला न था लेकिन प्रतीक्षा की प्यास बढ़ती ही जा रही हो। ऐसा भी कोई होता है क्या जो न आने वाले की प्रतीक्षा करे! प्रतीक्षा समाधिस्थ बुद्ध की यशोधरा सी हो गई!!
आसमानी ने खुद से ही पूछा। औरतों की प्रतीक्षायें इतनी लंबी पुल सी क्यूं हो जाती है जो आस का चिन्ह होती है लेकिन सच्चाई से सफा खालीखट। और इन खाली उम्मीदों की बेहतर खिलाड़ी होती है औरतों की प्रतीक्षायें। समय कितना ही पिदाये ये पिदती जाती है लेकिन उस में भी मासूमियत इतनी कि समय खुद उन्हें ठग कर खुद ही रो पड़ता है।

वह आती-जाती उस पर नजर डालने लगी थी। उस की नजरों से केयर करते -करते आसमानी अंतत हार गई थी । एक स्टेशन पर जब लड़कों का झुंड चढ़ा तो जैसे उसके कलेजे में तेज हूक सी उठने लगी। कुछ सोच वह कांप उठी । उस लड़की की मासूम अदा उसे काटने को दौड़ी और वह दौड़ पड़ी उसकी ओर इससे पहले कि वो झुंड वहां तक पहुंचता।

तेज कदमों से लपकती सी चली और ....पिछले केबिन में सीट पर बैठी उस को टप से खुद में छुपा लिया। और अनायास ही मुंह से निकला .....नीला बेटी अब तू मेरे पास आ जा। कहना और छुपाना साथ ही हुआ कि उसने पलकें उठाकर आसमानी को देखा और जैसे पिघलने को आतुर ही थी। बादल सी बरस गई। लड़कों का झुंड धड़धड़ करता ऐसे आया जैसे कोई भीम तूफान। झुंड ऐसे मस्त-मलंग हो रहा था जैसे अपने हुल्लड़ से इस डिब्बे को ही मचका डालेगें। दूसरों से बेखबर और दूसरों को खबर न देने वाले वे लड़के सीटों के नाम देख-देखकर खुद को और सामान को बर्थ के हवाले करते रहे। बड़े-बड़े लंबे भूंगळे* से ट्रैवलिंग बैग को पटक कर बंदर की तरह फदाक रहे थे। उनमें से एक लड़का उसके पीछे तक आ थम गया था। आसमानी ने कनखियों से देखना चाहा पर चेहरा दिखा नहीं और डर के मारे नजर भर कर उस लड़के की ओर वह देख न सकी। नीली डेनिम की जींस और जूते ही नजर आये। मन का अहसास कह रहा था कि यह भोले दिल का लड़का है जो ऐसे उन दोनों को देखकर ठिठक रह गया है। उन दोनों से बेखबर दूसरे साथी उसे ओए कहते हुए अपनी सीट की ओर इशारा कर रहे थे। लेकिन वह वहीं खड़ा था। आसमानी चाहती थी कि वह हटे तो उस ल़ड़की को लिए निकल ले यहां से। कलेजा बहुत तेजी सी धड़क-धड़क कर रहा है। छोकरों के बीच कोई अनहोनी न हो जाये। कुछ पल बाद ही उसकी धीमी आहट से लगा कि नहीं वह गलत है। यह उच्छवास और एहसास लड़के के नहीं हो सकते। उसने बिना उस ओर देखे नीला को वैसे ही थामे रखा। और उसे समेटे वहां से चलने का जतन करने लगी। इस उपक्रम में उसने उस लड़के की ओर आंख उठा कर देखा। चौंक पड़ी । बहुत मधरी* मुस्कान के साथ देख रहा था .....न...न.... देख रही थी। लड़कों की संपूर्ण वेशभूषा के बाद भी कमनीयता मुंह बोल रही थी। बदले में उसने भी मुस्काने की नाकाम सी कोशिश की । चलने का उपक्रम देख वह नीला की पीठ पर हाथ फेरते हुए एक ओर हो गई। आसमानी की ओर भी सहानुभूति की केयरिंग वाली नजर पहुंचाते हुए। बदले में आसमानी मरियल मुस्कान को खींचने का उपक्रम ही करती रही तब तक वह पार हो गई।

नीला को सीट पर बिठाया और पास खड़ी उसके माथे पर हाथ फेरती रही। इस भागाभागी में नीला के कंधे से जंफर और ओढणा दोनों सरक गये और झांक उठा लीलाचम* पड़ा दाग। देखकर चौंक उठी। झट ढक कर पीठ पर हाथ फेरा। स्नेह की थपकी दी। हिम्मत दी। वह दुबकी सी बैठी थी। दूसरे कोई भाव उस पर चस्पां न थे जिससे वह उसको पढ़ सके कि आखिर अकेले इस हालत में कैसे पहुंची? एक ही क्यूं उसके भीतर उसके लिए तो दसियों सवाल तड़प रहे थे। जो उसे यहां बिठा गया, जिसने घर से विदाई दी, जिसने इस में हां में हां मिलाई, जिसने उसे जाते हुए देखा और रोका नहीं उन सब कठकलेजों की कल्पना कर उसके शरीर से अगन सी निकलने लगी । इस अगन से वह कई दृश्यों तईं एक साथ पहुंच गई। ऐसी अगन की परख है उसे। यह अगन तब ही निकलती है जब किसी के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा हो जाता है । तब जब किसी औरत का होना न होना एक सा करार दिया जाता है। तब जब उसे निरे पांच तत्वों की लोथ से भी गया-गुजरा मान लिया जाता है। तब भी जब किसी नीच चीज से भी छोटा उसका अद कर दिया जाता है। तब भी जब एक छिलके की तरह कहीं भी फेंकने से गुरेज भी न किया जाता है। तब भी जब इस बात के पीछे कोई औरत ही होती पायी जाती है ..........इस विचार तक आते-आते उसकी देह तपन से ऐंठने लगी। कान तपने लगे। आंखें जलन के मारे लाल होने लगी। अंगुलियां चटखने को तैयार होने लगी। पांवों में सरणों का संचार सा होने लगा जो कनपटी पर टकरा कर आंख से अंगारे रूप लेने लगा। कमर सीधी तर सीधी होने लगी। दृष्टि कितनी ही घटनाओं पर नजर फिराने लगी..... सांसें दौड़ने को हो ही रही थी कि....
....मां !! पानी!!
जैसे किसी ने उसे सूखे बेरे* में से गिरते हुए को महीन रेशमी तागे से झट से वापिस खींच लिया हो। तड़प कर नीला की ओर देखा । बेरे का अंतिम घेरा उसने खुद ही जैसे-तैसे चढ़कर पार किया और पानी का गिलास उसके होठों छुआ दिया। महीन मुळक* के साथ उसकी आंखें गिलास को देखते हुए पानी पीने लगी। डकर -डकर की गहरी आवाज जैसे जनमा प्यासा कोई परिंदा हो। पानी पी कर गिलास थमा दिया। थाम लिया। रख दिया। कुछ पूछना चाहती थी कि वह वापिस उसी मुद्रा में आने लगी.....दोनों हथेलियों के मचान पर मुंह टिका......उसने उसके हाथों की अटकण* बनने से पहले ही खींच लिया और
...तुम्हारे साथ वाले कहां रह गए ??? पूछ बैठी अपनी तड़प को छुपाने का प्रयास करते हुए भी ।
एक झटके से उपर उठी तीखी तेवर वाली दो आंखें फटी सी उसकी ओर देख रही थी। पल भर को ठिठकी और ठहर कर फिर रंग बदलने लगी। एकटक कुछ सोचते हुए उसकी सांसें तेज चली ....आंखें भीतर के क्रोध का लाइव दिखाने लगी। फिर हांफने लगी। आसमानी ने प्रतीक्षा की कुछ प्रस्फुटित होने की । फिर से कुछ पूछना चाहा .....
हुंह...हुंह.....बुदबुदाते हुए अंगुलियों से तेजी से कटाक-कटाक ध्वनि से कटके* निकालने लगी जैसे अंगुलियां तोड़े डाल कर गुस्सा कम करना चाहती हो। आंखों में कोई दो-तीन नाम भर कर उसे उच्चरित करते हुए कटकों के साथ झटके देने लगी। झटके पर झटके और नाम का उच्चारण .... कटके पर कटके और नाम का उच्चारण ...करते तक वह हांफ चुकी थी। शायद सात बार अंगुलियों के मोड़ से कटके पाड़ते हुए ‘खोज जावै थांरो‘* का श्राप दे चुकी थी और आंखें फिर भी सूखे डबले भर थे। बिन पानी अंजुरी दे रही हो जैसे। तीखी हांफ से उसके कंधे उंचे-नीचे हो रहे थे। उसने थामना चाहा ....नीला लिपट गई। उसने थपकी दी और लंबी उसांस फेंकी। जैसे सब कुछ समय पर छोड़ देने का कह रही हो। उसी ने घाव दिये है वही भरे।
उसने जैसे जीवन से बहुत कुछ सीख ही लिया था तभी कुछ देर ही आंसूं पोंछ सलीके से बैठ गई
आसमानी को उस जींस वाली लड़की की आंखें याद आई जो ....। जाने क्यों उसकी ओर खींची चली गई।
पिछले कंपार्टमेंट में पहुंची .....
खिड़की वाली सीट पर कोई बैठा था। शायद वही थी । पास ही एक लड़का जिसकी पीठ इस ओर थी उस पर लगभग झुका सा सटे हुए था। जाने उसे एकटक देख रहा था या पूछ रहा था। माथा कुछ हिलता सा था जैसे फुसफुसाकर कुछ पूछ रहा हो। उसका हाथ दिख रहा था जिसमें हलचल थी । शायद उस हाथ के नीचे वह हाथ हो नाजुक वाला जिसने कुछ देर पहले मर्दाना खाल ओढ़ रखी थी। लड़के का चेहरा नजर नहीं आया लेकिन काली टीशर्ट और गले के चारों ओर लपेटा हुआ छोटी चैकड़ी वाला लाल रूमाल दिख रहा था। लाल रूमाल ने उसके दिल को एक किसी अजब सी धड़कन से भर दिया। काला चश्मा बालों में फंसा था। डील-डौल से सतफुटिया से ज्यादा भीमकाय जैसलमेरिया भरपूर बदन । दबा सा रंग लेकिन देह उठान से भरी । वह झिझकी ....दोनों भीड़ में भी कितने एकाकी है न। नये नवेले प्रेमी ऐसे ही तो होते हैं। बींझा-सोरठ* की भांति ही निकट रह कर दूर जैसे और दूर रह कर एकमेक से। अहा! आसमानी को कुछ याद आ गया। टीस सी उठी। वह चित्र सी खड़ी रह गई। खड़ी न रहना चाहती थी लेकिन जाने कैसे थमी ही रह गई। जाने क्या देख रही थी। वर्तमान में थी या विगत में। इसकी थाह कैसे पायी जाये।

.....गांव के तालाब किनारे घने बड़ले* के पीछे फुसफुसाती छायायें पटल पर उभरी और गायब हो गई। एक लड़की ऐसी ही थी वो और एक लड़का जाने कैसा छलिया था वो जो एकांत में भरपूर प्रेम लुटाता लेकिन गांव में कभी आमने-सामने होने पर किनारा कर निकल जाता जैसे कि देखा ही न हो। वह चाहती कि बड़ले के पीछे किये गये प्रेम का अंश भर हरदम सबके सामने भी जरूर दिखे जिसे केवल वह ही समेट सके। उसे प्रेम में लुकाछिपी पसंद थी लेकिन चोरी नहीं। उसका यूं दरकिनार कर देना उसको अपमान की आग से भर देता। शिकायत करने पर कहता कि वह दूसरों से यह बात छुपाना चाहता है क्योंकि उसकी इज्जत का सवाल है। उसे समझ न आता कि प्यार कहने से इज्जत कैसे कम हो जाती है। और कम ही होती है तो ऐसा प्यार किस काम का जो छुपाना भी पड़े और इज्जत भी कम करे। इसी से मन में अगन सी उठती रहती । उसे लगता सब ढोंग है। अगर प्रेम है तो छुपता नहीं और छुपा रह गया तो प्रेम तो कतई नहीं। पर औरतें जाने कैसे ऐसे झूठों से पिदती जाती है जबकि विवेक फटकार कर पुकारता जागने की चेतावनी देता ही रह जाता है। दिल पर प्रेम की लगाम कसी हुई हो तो विवेक का रास्ता धुंधला हो पड़ता है। लाल रूमाल !! आसमानी को अब भी एहसास है चश्मे के पीछे झांकती चंचल आंखें और हथलेवे के उपर लाल रूमाल ढका पड़ा है जिससे दो हथेलियों का मिलन कोई देख न सके। मंदिर के एकांत में हथलेवे के मिलन को कौन देखता!! और किसने गाया था जला गीत जो उस संपूर्ण मिलन पर मोहर लगाता!
चितार कर उसांस भरने वाली थी कि...
कहीं किधर ही सरसराहट हुई और वह दूर हटा। चौंक कर पलटा। वह लड़की हाथों से मुंह ढांपे दिखी। खुले भूरे बाल बिखरे थे। एक कलाई पर मोटा ब्रेसलेट सा दिख रहा था। लड़का सहज ही था। शांत सा। आसमानी को उसका सहज रहना भला लगा। सहज है वही सच्चा है। आसमानी को आदमियों की हड़बड़ाहट नहीं सरलता भाती है। सच छुपाती भयावह हड़बड़ाहट की बनिस्पत साक्षात सच्ची बनी गलत बात पर भी कायम रहा आदमी सच्चा लगता है । गलत सच पर मीठा झूठा दिखावा घातक होता है। वह आसमानी की ओर देखता रहा जहां सवालिया भाव चस्पां थे। लड़की ने कुछ क्षण तक शायद लड़के की सांसें न महसूसी तब सचेत होकर एकदम से हाथ हटाया। अहा! देख कर जैसे नजर ठहर गई। उसकी प्रेम के सच से भरी खरी मासूम आंखें और लड़के जैसा ही सहजपन। सही से चेहरा अब देख पाई उसका। यकायक आसमानी को देख कर भी वह मुस्कुरा दी। अपने प्रेमलीन मोड से बाहर निकल कर झट से एक सहज लड़की बन प्रस्तुत हुई । बदले में उसकी भी स्मित खिंच आई। दोनों की भंगिमायें भली सी लगी। उसने इशारे से पूछा -कैसी है? एकदम से प्रत्युत्तर में इशारा कर बैठी- कौन?
बदले में वह पास वाले कंपार्टमेंट की ओर उंगली से इशारा किया।
ओह नीला ! मन ने गलती स्वीकारी और इशारे से ही कहा
....ठीक है।
वह संतुष्टि के भाव लाते हुए पास बैठने का इशारा कर खुद थोड़ा उधर सरकती बनी। लड़का उठ गया लेकिन नजरें लड़की की ओर मुस्कुरा रही थी। लड़की ने लड़के को मुग्धा दृष्टि से कुछ कहा। उसने वैसी ही कुछ हामल भरी। आपसी अंडरस्टैंडिंग खूब हो जैसे दोनों में। वह बैठ गई। दो पल बीते चुप्पी रही। बातें अपने शुरू होने के इंतज़ार में दोनों तरफ कसमसा रही थी। लड़की ने लड़के की ओर देखा। वह वहां से हट गया। लड़का पास से गुजरा तो लाल रूमाल की खुश्बू उसे छू कर गुजरी। वह उस खुश्बू में बहने ही जा रही थी कि खुद को खींच कर मन में लपेट रख लिया। आसमानी को लगा इन आधुनिकाओं को भी मन की बात कहने के लिए एकांत चाहिए !! औरत, आदमी की अनुपस्थिति में ही सहज होती है क्या ! ये तो हम देहाती महिलाओं की फितरत है । आज लगा कि नहीं औरत, औरत ही रहती है। लबादा भले कोई भी ओढ़ ले। मन तो वही आधा किलो मांस के लोथड़े में ही तो फंसा है ना। वो जो चाहे कराले।

चुप्पी सी छायी रही। खट-खटा-खट अपनी गति से बजता रहा जैसे जीवन को चलाने वाली चिठ्ठियां बांट रहा हो। आसमानी ने कुछ पूछना चाहा तब तक वह बोल पड़ी ....।
और जाने कितनी बातें निकलती रही। लड़की और औरत में उम्र का फासला कहां रहता है। अबोध लड़की भी नन्ही औरत समभाव लिये होती है। लेकिन जो लड़की प्रेम की पथी हो और जिसने पुरूष देह गंध को मन से छू भर लिया हो तो फिर साम्यतायें भिन्न कहां रह जाती है। अनकहे ही वे एक सी बहती है।
आसमानी का स्टेशन आने को था तब एकदम से उठी जैसे वह भूल ही गई हो कि जीवन की यात्रा में नये सफर जुड़े है। हाथ थपथपाकर जब वह विदा होने को उठने लगी उस लड़की ने कहीं शून्य से कहा - नीला पिछले डिब्बे में दोपहर से अकेली बैठी है। जब वो इस डिब्बे में आकर बैठी तो हम सब भी उसकी संभाल के लिये इसी डिब्बे में जबरन आ घुसे। आप खयाल रखना इसका ................।

नीला को लिये उसने अपने छोटे से घर की जाली खोली और नीला का जीमणा* पांव अंदर रखवाया। वह इधर -उधर अनजानी सी तकते हुए घर के लिए अपनी सी होने की कोशिश कर रही थी। छोटी सी गवाड़ी* के बाद एक रसोई और पास में दो ओरके थे। एक ओरा* बंद था और एक उढ़का हुआ दरवाजा लिये था।
आसमानी उसी दरवाजे के पास खड़ी होती हुई भीतर झांकने लगी। नीम अंधेरे में एक छाया सी बैठी थी। बेतरतीब सा कुछ सामान छाया के पास बिखरा पड़ा था। पास ही खाट पर गूदड़े* पड़े थे। छाया की पीठ दरवाजे की ओर थी । बूंद भर रोशनी में वह देखती रही। आस-पास बिखरे कागजों के बंडल और खुले बंडलों को। मन किया लौट चले। पर नहीं मन ने उसकी न सुनी । बरबस ही किवाड़ को हौले से धकेला लेकिन उसने चूंचरर्रर करके अपनी असहमति दिखाई। आसमानी ने उसे अनसुना कर जोर से धक्का दिया और पूरे आवेग के साथ चूं.उंउंउंउंउंउ के साथ वह चीत्कार कर उठा। उस चीत्कार ने छाया को उद्वेलित कर दिया । छाया में कंपकंपी सी लहराई और बिखरे कागज-पुलिंदों को जितना समेटा जा सका समेटा और पास ही के माचे पर ढह गया और गूदड़ में छुपा लिया खुदको।

काकू!! कहते हुए वह तड़प कर आगे बढ़ी। माचे तक पहुंची । गूदड़ी अभी भी कंपकंपा रही थी। विगलित होते मन को थाम कर रालके के किनारे को उपर किया...आंखें मींचे कंपकंपाये से हाथ में काकू ने कागज जकड़ रखा था । कुछ कांधों के पास ढुल पड़े थे। आसमानी ने हाथों की छुअन से साथ होने का दिलासा दिया। कंपकंपी एकदम थम गई। और बंद आंखें ही उन्होंने वो कागज उसकी ओर किया।
उसे पत्रों से डर लगता है। पत्रों ने उसके मन पर पीड़ की इबारत ही रची है। जिसे खुरचने में उसे जिंदगी खपानी पड़ जाती है। पत्र खेहने वाले के जीवन में किसी पत्रवाले ने झांक कर देखा है क्या !! कोई चिठ्ठी उनके नाम ही आये तो ! कासीद क्या चिठ्ठी लायेगा कागदिया* के लिए। .....
काकू आज के पत्र में उसके जीवन का कौनसा पन्ना खोलेगें!!
आसमानी ने कांपते हाथों से थामा और बिना पते का पोस्टकार्ड पढ़ने लगी .....
7 दिस 1980
*सरब ओपमान विराजमान लायक सुभ सुथानेर नै लिखी ओसियां सूं देवीलाल रै कांनी सूं जै श्रीराम बंचावासी। घणा दिन होया थारा समाचार नीं है। नीमू थांरो पथ भाळती अबै आधी रहगी है। उणरै जीवण री आस अबै ठा नी कित्ती है। थांरी निसाणियां नै काळजै सूं लगाय राखी हूं पण दुनिया रो मूंडो दाब नीं सकूं। कंवारी रो पेट उंचो आयो देख दुनिया सांमी ब्यावली जोड़ी रो नाम दियो हूं पण साच में बैन-भाई सो रिस्तो कद तांई निभावूं ? थांरी आसमानी अब थई करतां पावंडा मांडण लागी है। का.!... का!.... कहवै जद कानां मांय मिसरी घुळै। अब आयनै अमानत ले जावो। म्हारो कीं भरोसो कोनी कद तांई जीवूं ....................*

* लगे शब्द राजस्थानी भाषा के हैं।

किरण राजपुरोहित

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