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चाहतों
के अनजाने द्वीप
स्मृतियों के पुराने बक्से में उसके पास अतीत
का जो बचा रह गया है- वह उसे कभी-कभी ढूँढती है. उसके पास सच का भी एक
बक्सा है जिसमें सचमुच की चिट्ठियां हैं, जिन्हें उसने बहुत सहेज कर रखा है
उन्हें जब कभी वह पढ़ती है, एक तड़प सी होती है. उसे चिट्ठियां लिखने वाला वह
कौन था? उसे कल्पना की याद भी आती है .
कच्चे से लाल रंग में पुती डाकगाड़ी और उसी रंग का चिट्ठी डालने वाला बक्सा.
सब कुछ एक स्वप्न सा है जो पीछे छूट गया है.वह जोर से पकड़ लेना चाहती है.
कुछ भी छोड़ना नहीं चाहती. उसके बचपन में रेलवे क्रासिंग से लगा हुआ उसका घर
था. अक्सर क्रासिंग बंद हो जाती थी. आधा कस्बा क्रासिंग के उस पार रह जाता
था और आधा इस पार. आधा कस्बा उधर जाता था और आधा इधर आता था जब मालगाड़ी
छुक-छुक करती हुई जाती थी,धीरे-धीरे.
तब उसे शहर के रुक जाने से कोई मतलब ही नहीं था. उसके घर आने वाला डाकिया
अपनी साइकिल की सीट पर आधा टिक कर एक पूरा पैर ज़मीन पर टेक उस पार खड़ा रह
जाता था. क्रासिंग खुलते ही खाकी कमीज पहने डाकिया उसे मिलता था. वह अपना
बस्ता पीठ पर टाँगे स्कूल से जब घर लौटती थी, साइकिल की घंटी ट्रिग-ट्रिंग
बजाता वह निकलता था, वह पीछे से आवाज़ देती-हमारी कोई चिट्ठी नहीं है क्या,
डाक-बाबू.
-नहीं बहिनी, कोई नहीं.
वह घर पहुंचकर मां को बता देती थी-डाक-बाबू मिले, हमने पूछा कोई चिट्ठी
है–बोले नहीं है.
अम्मा कहती थी-ठीक है न. रोज-रोज क्या हमारी ही चिट्ठी आएगी. मगर कोई
अंतर्देशीय आता तो वह खुश होती थी. मुस्कराहट के साथ चिट्ठी खोलती थी. मां
की वह मधुर छवि, डाकिया और मालगाड़ी सब कहाँ चले गए और वह कल्पना भी.
डाकिया को देख कर उसे आज भी रोमांच हो जाता है. वही रोमांच जो उस प्रेमी को
देखकर होता जिसे उसने देखा नहीं. जिसकी चिट्ठियां उसने आज तक रखीं हैं..
कहीं ऐसा भी होता है! कहेगी तो कोई मानेगा ही नहीं. क्या करे उस अनजान को
याद करते हुए वह एक ख़लिश से भर जाती है. उसके लिखे हुए शब्दों से उसने अपने
उस गायब हो गए प्रेमी अनंत का काल्पनिक चित्र बनाया है. वह कुछ ऐसा होगा
कुछ वैसा, गोरा गोरा सा, सिर पर घुंघराले बाल होंगे, खूब रोमांटिक सी
मुस्कान होगी और खूब सजीला होगा. क्या बांसुरी बजाता होगा? वह मुस्कुराती.
उसकी सुघढ़ लिखावट और रेशम से फिसलते शब्दों में बहुत सी मोहब्बत है. प्रेम
का अमृत वह जीवन भर घट भर-भर के भी जो पिए तो भी कभी ख़त्म नहीं होगा.
खैर... हालत यह थी कि चिट्ठियां लाने वाले उस डाकिये की सायकिल की ट्रिम
ट्रिम से, उसके पैडल चलाने से, उसके चिट्ठी डालने के अंदाज़ से उसे प्यार हो
गया था. उन दिनों वह खूब खिलखिलाकर हंसती थी और डाकिये का इंतज़ार करती थी.
मालूम नहीं कि वह क्या खेल था. सचमुच कुछ था या सिर्फ एक इत्तेफाक था.
अचानक ही अनंत की चिट्ठियां आनी बंद हो गईं. डाकिया आता था और वह बेचैन
होकर पूछती थी–पोस्ट मैन जी, मेरी कोई चिट्ठी है क्या .
-नहीं बहन जी-कहता हुआ वह कुछ मुस्कुराता हुआ चला जाता था. हौले-हौले,
झूम-झूमकर, साइकिल चलाता हुआ वह, कुछ दूर जाकर मुड़कर उसको देखता था. कुछ तो
था जिसे डाकिया भी शायद जानता था. कुछ दिनों के बाद जब उसकी बेचैनी कुछ कम
हो गई उसने डाकिये से चिट्ठी के लिए पूछना छोड़ दिया.
उसके पास उस प्रेमी की रस भरी चिट्ठियां हैं और उसकी याद है जो जीने के लिए
उसे जरूरी लगती है. ख़त भेजने वाले से मुलाक़ात भी नहीं हुई और बातों का
सिलसिला बीच में ही बिना कुछ कहे-सुने ख़त्म हो गया तो क्या .. उम्र भर नहीं
मिटने वाली वह खलिश तो है जो बहुतों के पास नहीं होती.
उसी समय एक और घटना हुई थी, उसकी फ़्लैट-मेट एक सुबह अचानक अपने कमरे में
नहीं थी. उसके कपडे,उसका टूथ-ब्रश और पेस्ट, उसकी तौलिया, उसकी स्लीपर भी
नहीं थी. उसकी एकमात्र सैंडल भी उसके कमरे में नहीं थी. कुछेक कपड़े और दो
चार बर्तनों के अलावा पूरा कमरा खाली था.
उसकी नींद उस दिन सुबह-सुबह मकान मालकिन के दरवाजा पीटने से खुली थी. उसने
भी जाकर उसके खुले हुए कमरे में झांका जहां सिर्फ सन्नाटा था.
एक दिन उसका भाई उसे पूछते हुए आ गया–कहाँ गई? कब गई? किसके साथ गई? जानती
हो तुम?
– मैं कुछ नहीं जानती. उस सुबह वह नहीं थी. उसका कोई सामान भी नहीं था.
मकान मालकिन की खिड़की से डाली गई उसकी एक चिट्ठी है जो आपको उनसे ही
मिलेगी. उसने भाई से कहा- उसने एक नोट लिखा है-और कहा है कि मेरे घर से कोई
पूछने आये तो यह चिट्ठी दे दीजियेगा. उस नोट के साथ लगी चिट्ठी बंद है. बस
इतना ही.
उसके भाई से वह पहले भी मिली थी. तब वह बात-बात में हंसता हुआ किशोर था
लेकिन इस बार वह रुआंसा था-कुछ और भी बता सकती हो? वह किसी से मिलती थी?
कोई आता था?
-मैंने कुछ भी नहीं देखा.मैं कुछ नहीं जानती, वह क्या कहती कि उसके जाने
कितने तो चाहने वाले थे? जाने किसके साथ वह गई और कहाँ गई. भाई शर्मिंदा
था. क्या करता चिट्ठी पढ़ी और रुआंसा हो गया-उसने चिट्ठी में लिखा था- तुम
अपना और मां का ध्यान रखना. मैंने शादी कर ली है. मैं अगर लौटकर आती तो तुम
लोगों पर एक बोझ ही होती. पापा के इस तरह जाने से मैं टूट गई हूँ.मुझे लगता
है कि मैं फैजाबाद वापस आकर क्या करूंगी. बोझ ही तो बनूंगी. तुम परेशान मत
होना . सब कुछ ठीक होने के बाद मैं फैजाबाद आऊँगी. यहाँ भी मैं मुंह दिखाने
के काबिल नहीं हूँ न ही मकान का किराया दे सकती हूँ इसलिए जा रही हूँ. मुझे
पढ़ना है और फिर नौकरी करनी है.जिसके साथ मैं आई हूँ वह सचमुच बहुत अच्छा
है. उसके बारे में मैं तुमसे जब मिलूंगी तभी बताऊँगी.मां से कहना मेरी कोई
चिंता नहीं करेंगी. तुम्हारी कल्पना .
उसका भाई वापस फैजाबाद लौट गया.
-कहीं वह उस अनंत के साथ तो नहीं चली गई जिसकी चिट्ठियां मेरे पास रखीं है?
लेकिन कौन अनंत? उससे उसका क्या वास्ता.उसकी चिट्ठी तो मेरे पास आती थी.
उसने तो देखा भी नहीं कि कल्पना के नाम कोई चिट्ठी कभी भी आई. अक्सर तो वह
अपने घर जाया करती थी या कहीं और. जाने कहाँ कहाँ तो आती-जाती रहती थी.
चिट्ठियां तो ठिकाने वालों की आतीं हैं. घुमंतुओं की थोड़े न.
कौन था वह? कहीं वह तो नहीं था जो एक बार उसे ट्रेन में मिला था और जो उसकी
ही कालोनी में रहता था. जब वह अपने घर, गाजीपुर से लौट रही थी और दिल्ली
रेलवे-स्टेशन पर उतरी थी. वे एक साथ ही ऑटो तक पहुंचे थे. निपटारा ऑटो वाले
ने ही कर दिया था- एक ही कालोनी में जाना है तो आप दोनों बैठ जाइए, मैं
एक-एक को उतार दूंगा और वे बैठ गए थे.. वह अपने घर के सामने उतर गई थी और
वह ऑटो लेकर आगे चला गया था. रास्ते में हलकी-फुलकी बातचीत के दौरान उसने
अपना नाम अनंत बताया था. उसके बाद वह उसे दुबारा यहाँ कभी मिला नहीं था
लेकिन उसके घर का नंबर तो उसने देख ही लिया था. चिट्ठियों का सिलसिला लगभग
उसके बाद ही शुरू हुआ था. फिलहाल तो वह अनंत की चिट्ठियां खोलकर बार-बार
पढ़ती है और हर बार एक तड़प उसके भीतर भरती है .
कल्पना के जाने के बाद उसके कमरे में दूसरी लड़की रहने आ गई थी–
यह लड़की देखने में गंभीर लगी. उसे अच्छा लगा .
-क्या नाम है तुम्हारा?
- नीलम. उसने कहा .
उसने राहत की सांस ली .
उसने फिर दुहराया-मैं नीलम गोस्वामी. और..?...वह कुछ कह रही थी ...तभी
धम्म-धम्म की आवाज़ से वे दोनों ही चौक पड़ीं.
-अरे, नीलम जी!! मैं कब से आपको आवाज़ दे रही हूँ. घर की मालकिन सीढियाँ
चढ़कर ऊपर धमक गई थी. लगा ज़रा धीरे से चल के जैसे कोई तूफ़ान ही आया था.
पैतीस-छतीस साल की नव-प्रौढ़ा मालकिन तेज़ तो है ही. ज़रा सब्र नहीं हुआ. बाकी
के पैसे लेने के लिए सीढियां चढ़ आई है .
दोनों उसको ही देखने लगीं.
नीलम के कंधे से अभी उसका पर्स उतरा भी नहीं था. उसने वहीँ के वहीँ खड़े
होकर पैसे गिन दिए. वह तो जानती है मकानमालकिन को. उसके नीचे उतरते ही उसने
नीलम से कहा-एक दिन तो क्या, इन्हें एक घंटे का भी किराया देर से नहीं जाना
चाहिए. इसलिए मैं तो एक दिन एडवांस में दे आती हूँ .
उसने नीलम के लिए चाय बनाई-आज तुम मेरे साथ ही खाना खा लेना. कल से अपना
इंतजाम देखना या फिर हम एक साथ भी बना सकते हैं .
-जो पहले यहाँ थी वह क्या तुम्हारे साथ ही खाती थी? नीलम ने पूछा .
- कल्पना? वह तो यहाँ ठहरती ही नहीं थी. सुबह है तो शाम को गायब और शाम को
मिलती तो सुबह गायब हो जाती थी.
नीलम ने अफ़सोस जताया फिर पूछा- तूम कहाँ से आई हो?
-मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक कसबे गाजीपुर से आई हूँ. मेरी मां पढ़ी लिखी
थी इसलिए मुझको उसने पढ़ने के लिए दिल्ली भेजा. यहीँ पर मेरी दोनों बड़ी
दीदियाँ भी रहतीं हैं. एक दीदी के पास रहती तो दूसरी दीदी को बुरा लगता और
दूसरी के पास रहती तो पहली को, इसलिए मैंने अम्मा से कहा– मुझे अलग कमरा
लेकर रहना है, मैं किसी किच-किच में नहीं रहना चाहती. अम्मा से मैं जो भी
कहती हूँ-अम्मा टालती नहीं है–मैं उसकी लाडली बेटी हूँ.
नीलम मुस्कुराती रही फिर चाय पीकर अपने कमरे में चली गई. उसने करीने से
अपने सामान लगाए और बगल के मार्किट से अपने लिए छोटे-छोटे जरूरी सामान लेकर
आ गई.
मेरी दीदियाँ तो दिल्ली आते ही आधुनिक हो गयीं थीं. ऊंची एड़ी की सैंडल और
साड़ी की जगह सलवार कमीज पहनने लगीं थीं. चौड़े बेलबॉटम का फैशन अभी हमारे
कसबे में नहीं आया था. वहां तो लड़कियां देह से चिपके चुस्त कुरते पहनतीं
थीं. यहाँ ठीक विपरीत ढीले-ढाले बेल बॉटम में आ गईं थीं. यहाँ फैशन में
छोटे बाल रखती थीं या पोनिटेल..बहुत वहां अम्मा का अनुशासन था. मेरी
दीदियों ने अम्मा को ख़ास हिदायत दी थी. तेल लगी हुई चोटी से तो मैंने ट्रेन
में बैठने के साथ ही निज़ात पा ली थी.साथ ही यह भी कि यहाँ शलवार-वल्वार
नहीं चलेगा अम्मा, इसके लिए चार-पांच बेल बॉटम सिलवा देना और ऊपर पहनने के
छोटे कुरते भी.
नीलम कम बोलती थी लेकिन फिर भी वह जानना चाहती कि कल्पना किस तरह किसी लडके
के साथ भाग गई? उसको कल्पना के बारे में सुनने में मज़ाआता था.
- कल्पना एक छोटी सी जगह फैजाबाद से दिल्ली आयी थी. उसे देखकर शुरू के
दिनों की बिंदास रेखा की याद आती थी. कॉलेज में आते ही बहुत जल्दी ही वह
चर्चा में आ गई थी. हिरोइन रेखा की तरह ही उसका सांवला रंग था, भरा हुआ
शरीर और तीखे नाक नक्श थे.जाने कितने तो उसके चाहनेवाले थे. मंटो की हर
पॉकेट से कहानियाँ निकालने की तरह ही वह अपने एक दिल से कई प्रेमी निकाल
सकती थी. लड़कों से अधिक वह लड़कियों के बीच मशहूर हो गई थी. क्योंकि वह उनकी
गप्प-गोष्ठी की मुख्य नायिका थी. लड़कियां उससे जलतीं थीं मगर वह इतनी
बेपरवाह और अलबेली थी कि उसे किसी कि परवाह नहीं थी. उसके सलवार, कुरते और
दुपट्टे के प्रिंट अलग-अलग रंगों के होते थे. वह कुछ भी पहनती अलग ही नज़र
आती थी. पतली सी कमर और भारी नितम्बों में वह गजगामिनी थी. हिरोइन रेखा से
उसका ऐसा साम्य था कि सब उसे रेखा ही बुलाते थे. उसकी आवाज़ भी रेखा की आवाज़
सी खसखसाती हुई थी. यही कुछ विशेष कारण थे कि वह लड़कियों के बीच ईर्ष्या और
चर्चा दोनों का कारण बनी हुई थी. खासकर जब वह अपने निहायत मासूम अंदाज़ में
कहती थी-इतने लडके मेरे पीछे पड़ते क्यों हैं. मैं तो कुछ करती भी नहीं.
कहने के बाद वह अपनी खूबसूरत सी नुकीली ठुड्डी पर हाथ रखकर जब बच्चों की
तरह हंसती थी तब उसके सच समझ से परे हो जाते थे. लड़कियां जलभुन कर कहतीं
थीं-जितनी भोली दिखती है उतनी हैं नहीं फिर भी एक मनोरंजन तो वह थी ही.
शाम को अक्सर कल्पना मेरे कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ी होती और मुझसे
कहती-सुनो मैं थोड़ी देर में आती हूं.
थोड़ी देर में उसकी वापसी होती तो उसके बालों में गजरा लगा होता .
-कहाँ गई थी .
-ओह गई तो थी रजिस्टर लाने. बेला एक लड़ी खरीद कर लगाने का मन हुआ तो लगा
लिया. वह कहती. वह बिलकुल अलबेली सी लगती लेकिन यह लगता कि कुछ अस्वाभाविक
भी है.वह कुछ रहस्मयी भी है. उसके हाथ में कोई रजिस्टर तो दिखता ही नहीं
था.
-खाना नहीं खाओगी?
-ना
-क्यों
-अरे वो गोविन्द है न अपनी हिस्ट्री की क्लास वाला. वह बेहद मासूमियत से
बोलती थी. वो मिल गया,बोला- चलो-टिक्की खाते हैं. मुझे क्या! मैं खाकर आ
गई.जाने कितने तो इसके यार दोस्त हैं.मैं मन ही मन कहती.
या कहती- यार तुम्हें खिलाने वाले बहुत मिल जाते हैं.मुझे तो कोई नहीं
मिलता. वह चुपचाप मुस्कुराती थी.
सब तो जानते थे उसको. रोज़ उसकी कोई न कोई नई कहानी सुनाने के लिए मिलती थी.
एक दिन विनीता दी आयीं और इसे देखा तो चौंक गईं. सुन, इसको तो मैंने अपनी
कालोनी में परसों देखा था. किसी लडके के साथ पार्क में बैठी थी. शुरू में
तो मैं यकीन नहीं करती थी.
मैंने कहा-दीदी, कोई और लड़की होगी. अरे ! नहीं रे यही थी. अच्छा छोड़ो दीदी,
सुन लेगी तो आफत करेगी. हमें क्या. दीदी बोली हाँ -हमें क्या. लेकिन तीसरा
दिन भी न बीता कि अम्मा का फोन आ गया- कैसी है वह लड़की. विनीता बता रही थी
.... वह कुछ कहती उसके पहले ही अम्मा ने कहा -उससे ज़रा दूर ही रहना. भूलना
नहीं कि वह दिल्ली शहर है. गले लग के अपने बाल से गर्दन काट लेती हैं वहां
लड़कियां.
-ठीक है, अम्मा तुम चिंता न करो. सोचा अम्मा की हर बात जो सुनने लगी तो इस
शहर में रह नहीं पाएगी.
वह जाने कहाँ-कहाँ घूमती और रात में आकर ऐसे पड़ जाती जैसे कि कितना खेत काट
आई है और कहती क्या -सुन थोड़ा सा चावल मेरे लिए भी बढ़ा दे न.
मैं कहती-क्यों आज तुझे कोई चाट खिलाने वाला मिला नहीं क्या.
- काम चलता रहता उसका. इस दुनिया में जाने कितने बैरागी हैं जो दूसरों के
लिए जीकर सुखी होते हैं. जिनके पाँव नहीं उनको दूसरे अपने कंधे दे देते
हैं. वह मुझसे भी पैसे मांगकर ले जाती.लौटाने का वायदा भी करती लेकिन वापस
कभी नहीं करती. कहती-मेरे पैसे बस आने ही वाले हैं, आते ही वापस कर दूँगी.
उसकी बातें बड़ीं होतीं थीं.-पापा का ऐसा तो वैसा बिज़नेस है. हम बहुत ठाठ से
रहते हैं. उसका रहन-सहन उसकी बड़ी-बड़ी बातों से ज़रा भी मेल नहीं खाता था.जब
वह इस तरह की बातें कहती तब मैं उसको देखती रहती.उसकी आँखों में जो
मासूमियत थी वह कुछ और ही बयान करती तब वह मुझे सच की दुनिया से दूर लगती
थी.
सच पूछो तो मुझे उसके ऊपर कभी यकीन नहीं हुआ.उसके तौर-तरीके कुछ ऐसे ही थे.
वह कुछ भी हवा में उछाल देती थी.
सब उसका मजाक बनाते और उसे इससे कोई दिक्कत नहीं होती थी बल्कि उलटा उसे
सभी की नज़रों का केंद्र बनना पसंद था. लड़कियां जब झुण्ड में होतीं और वह
उधर से गुजर रही होतीं तब वे उसे आवाज़ देकर बुलातीं थी-कल्पना.. और वह
तुरंत चली आती. तब पूछतीं- सुनो न लैला, कितने मजनू हैं तुम्हारे ! अरे-
बाबा -मुझे इतना याद कहाँ से होगा. इतना हिसाब रखूँ तो पूरे दिन यही तो
करूंगी. सुनो न वह सायकिल वाला आज फिर तो नहीं टकराया. वह खूब भोलेपन से
हंसती और कहती- अरे नहीं बाबा- रोज रोज ऐसा थोड़े न होगा ..
अपनी हस्की आवाज़ में वह लड़को के किस्से बड़े भोले अंदाज़ में सुनाती और फिर
अपनी बड़ी-बड़ी आँखें चौड़ी कर कहती- मुझे नहीं पता कि वो मेरे पीछे क्यों पड़
गया. सच मानो, मैंने तो उसकी ओर देखा भी नहीं. हिरनी जैसी आँखों में काजल
लगाकर वह जब यह कहती तो लड़कियों का झुण्ड हँस पड़ता था और भीतर भीतर जल भी
जाता. कॉलेज में उसके दाखिल होते ही उस पर सबकी निगाहें फिसलतीं.एक बार
जिसे देखती वह यकीनन मर तो जाता ही था. लेकिन उस बार तो उसने हद ही कर दी
थी.
-पता है ? उस दिन क्लास की लड़कियों के सीने धड़क रहे थे. आज क्या होगा– सर
किस तरह पढ़ाएंगे, यों तो सर एक घंटे की क्लास में सिर्फ एक श्लोक की ही
व्याख्या देते हैं. वे श्यामा और मुग्धा नायिकाओं के रूप और गुणों की इतनी
विस्तृत व्याख्या करते कि समय कब ख़त्म होता किसी को पता ही नहीं चलता था.
लड़कियां मंत्रमुग्ध होकर सर को देखती रहतीं थीं और बिलकुल डूब जातीं थीं.
लेकिन वह जो श्लोक आने वाला था उसका सबको इंतज़ार था- सर इसकी व्याख्या किस
तरह करेंगे और क्या एक घंटे इसकी भी व्याख्या करेंगे. लड़कियां किताब का वह
पन्ना महीनों से मोड़कर बैठीं थीं. उड़ती हुई खबर यह थी कि सर बी ए प्रथम
वर्ष की कक्षा अब आगे नहीं लेने वाले हैं. अब इसे राजबाला जी लेंगी.
लड़कियाँ इसी आस में थीं कि सर इस श्लोक के बाद ही जाएँ और रोमांच का एक वह
दौर भी आये जब वे अपने धड़कते दिलों पर हाथ रखे सर के दिल की धड़कनें सुने.
उस श्लोक का नम्बर आ पहुंचा और सर भी उस दिन क्लास में आ पहुंचे.
उस दिन हर लड़की उपस्थित थी.क्लास ठसाठस भरी थी. सबके दिल इस तरह धड़क रहे थे
जैसे पहली बार कोई लड़का सबके सामने हाथ पकड़कर प्रेम निवेदन करेगा. सबने
देखा कि सर भी नर्वस थे और फिर क्या था-सबके सिर डेस्क से लग गए.कई चाँद
बादलों के नीचे छुप गए. सर ने श्लोक पढ़ना शुरू किया. पूरी क्लास में एक
रोमांचक कम्पन था. मुग्धा नायिका के रूप में बैठी लड़कियों के गाल लाल हो
रहे थे-अब सर व्याख्या भी करेंगे. लड़कियां तो जिज्ञासु थीं और अनुभवहीन
बालिकाएं थीं.सर उतने ही परिपक्व और बेहद रोमांटिक व्यक्तित्व के थे.
साहित्य बिना रस के होता भी कहाँ होता है. सर ने कालिदास का लिखा श्लोक
पढ़ा-
नीवी बन्ध उच्छ्वसित शिथिलं यत्र बिम्बाधराणां
क्षौमं रागाद निभृतकरेषु अक्षिपत्सु प्रियेषु।
अर्चिस्तुङ्गान अभिमुखमपि प्राप्तरत्नप्रदीपान्
ह्नीमूढानां भवति विफलप्रेरणा चूर्णमुष्टि:। ।
अलका नगरी में रागाधिक्यवश प्रेमिकाओं के अधोवस्त्रों के बन्ध ढीले पड़
जाते हैं और प्रेमियों के चंचल हाथ जब उनके रेशमी वस्त्रों को खींच लेते
हैं तब लज्जित हुई प्रेमिकायें ऊँचे प्रज्ज्वलित रत्नदीपों को बुझाने के
लिये उन पर मुठ्टी भर केसर की धूल फेंकती हैं, किंतु उनका प्रयास विफल ही
होता है।
लड़कियों की उस क्लास में एक सुई के गिरने की आवाज़ भी होती तो भी सुनाई देती
कि ठीक उसी समय एक आवाज़ आई– ऋषि को रिझाने वाली मेनका सी वह खडी हुई. मैंने
उसकी आवाज़ पहचान ली - सर, इसका अर्थ विस्तार से बताएं. समझ में नहीं आया.
उत्तर में सर की आवाज़ सुनाई दी- इसमें समझाने के लिए कुछ विशेष नहीं है और
यह श्लोक परीक्षा में आता भी नहीं है|
-लेकिन सर, यह तो हमारे कोर्स में है यदि आ गया तो हम क्या करेंगे. सर
निरुत्तर हो गए. उन्होंने ठीक पहले की तरह ही अर्थ की आवृत्ति कर दी .
प्रोफेसर मधुसूदनदत्त शर्मा अपनी रूमानी तबियत के लिए जाने ही जाते थे.
लेकिन उस दिन उन्हें एक ऐसी लड़की का सामना करना पड़ेगा यह तो सोचा भी नहीं
होगा .इससे प्रोफेसर शर्मा ही क्या किसी को भी परेशानी हो सकती थी. क्लास
ख़त्म होते ही लड़कियां जब तक सिर उठातीं और सर क्लास के बाहर जाते, वह तीर
की तरह निकल गई थी. सर के निकलते ही खुसुर-पुसुर तेज़ हो गई – कौन थी? कौन
थी? की आवाज़े आने. उसको जो नहीं जानतीं थीं वे चकित थीं. वह तो तब तक यह जा
कि वह जा. न किसी ने उसे आते देखा था न जाते. वह सचमुच बहुरूपिया थी.
संस्कृत तो उसका विषय भी नहीं था. जब अपने कमरे में आई तो मैंने कहा-आज तो
तुमने गजब ही ढा दिया. वह मुस्कुराई– मुझे बहुत मज़ा आता है. बहुत कहने का
उसका अंदाज़ उसके विपरीत फिर उतना ही भोला था. मैं फिर उसको देखती रही.कुछ
बोल न सकी.
उस दिन जरूर चौंक गई जिस दिन उसने कहा– हे सुन, मधुसूदन दत्त शर्मा यहीं
पास में ही रहते हैं. चल न ज़रा मिलकर आते हैं. मैं तो मना कर रही थी.
-चल न.पहली बार जाना है न. अगली बार नहीं कहूँगी. मैं उसे देखती रही फिर
साथ चल दी. हम जब सर के घर पहुँचे तो मैंने सम्मान के साथ सर को प्रणाम
किया लेकिन इसने तो अपनी काजल लगी आँखों से बिना कुछ बोले ही नमस्ते की और
सर को क्या कहूं. सर तो अपने रसीलेपन के लिए जाने ही जाते थे.
उसके बाद वह कई बार सर के घर गई लेकिन मुझे जाने के लिए नहीं कहा. कभी वो
सर के लिए सब्जी, फल आदि लेकर देने जाती. कभी चाय पीने. कभी किसी काम से तो
कभी किसी काम से. एक दिन सर ने मुझसे पूछा-सुनो तुम्हारी वह सहेली कहाँ है.
आजकल दिखाई नहीं देती .
घर लौटकर मैंने पूछा- कल तुम सर के घर नहीं गई थी क्या .
-क्यों? क्या हुआ?
-तूने कहा तो था न कि सर के घर जा रही है .
-हाँ तो?
-तो क्या सर पूछ रहे थे कि आजकल तू दिखती नहीं कहाँ है?
-उफ़! सर तो ऐसे ही हैं. मैं क्या कहूं.
वह मुझे बहुत रहस्यपूर्ण लगने लगी थी. उसकी बहुत सी बातें जिन्हें गोपनीय
होना चाहिए था वे तो आम होतीं थीं लेकिन लगता था कि बहुत कुछ ऐसा भी है
जिसे वह अपने भोलेपन की चादर से ढँक लेती थी.करीब एक साल से वह साथ थी. उसे
ऐसा लगता कि वह जैसी दिखाई देती है वैसी बिलकुल नहीं है. उसके भीतर एक
दूसरी कल्पना भी है जिसे कोई नहीं जानता. हँसी मजाक करती हुई वह अपने
रिश्तों में फासले बनाकर रखती थी. उसे लगता कि कंधे पर सर रख रोये बिना
रिश्ते सच्चे कहाँ बनते हैं. उसे लगता कि कल्पना किसी ऐसे के बारे में कभी
कोई चर्चा नहीं करती. जब उसके पास खाने के पैसे नहीं बचते थे तब वह घर चली
जाती थी. जब घर से लौटती तब रिक्त लगती. मकान-मालकिन को किराया देने तुरंत
नीचे जाती. आकर हंसती हुई कहती -हाथ में पैसे होते हैं तो रुकते नहीं इसलिए
मैं पहले किराया दे आई. उसकी हंसी में एक निरीहता होती जो उसके होंठों के
कोर पर बैठी रहती.
वह कहती कि माँ बीमार हैं. मुझे उनकी चिंता होती है. पापा बिलकुल ठीक हैं
लेकिन अपने बिज़नेस से उन्हें समय ही नहीं मिलता कि मां के लिए कुछ करें.
मुझे मां के लिए कुछ करना है.
एक दिन क्लास से बाहर निकलते समय उसने सर को बहुत विनम्रता से नमस्ते किया
और पूछा- सर, उस दिन आप कल्पना के बारे में पूछ रहे थे. आप कुछ परेशान लगे
थे.
पहले तो सर ने बात टालनी चाही लेकिन मेरे ये कहने पर कि आप मुझसे बता सकते
हैं.
सर ने कहा- उसने कुछ पैसे उधार लिए थे और एकाध महीने में वापस करने के लिए
कहा था लेकिन वह बहुत दिनों से दिखाई नहीं दी. मुझे लगा वह कहीं चली तो
नहीं गई.
-सर वह कहीं गई नहीं है. यदि आप कहें तो आपकी यह बात उस तक पहुंचा सकती
हूँ.
सर ने मना कर दिया और कहा कि मैं इंतज़ार करूंगा, मुझे लगता है कि जब उसके
पास पैसे होंगे तब वह खुद ही आएगी.
सर की तरह मेरे अपने अनुभव भी ऐसे ही थे. कभी जब हम साथ-साथ बाज़ार जाते तब
मैं ही उसके पैसे देती थी. वह फैशन की चीजें खरीदती, कभी नेलपॉलिश, कभी कोई
चप्पल तो कभी पर्स, कहती कि वह पैसे रखना भूल गई है. घर आकर भी वह पैसे
वापस नहीं करती. कभी तो वह फिर बाज़ार की ओर जाती और मेरे लिए कोकाकोला लेकर
आती. खूब हँस-हँस बातें करतीं. मैं उस समय अपने पैसों की बात भूल जाती.फिर
बाद में याद करती, मगर उससे कुछ कहती नहीं. वह खूब बातें करती इतनी,कि मुझे
कुछ बोलने का मौका ही नहीं देती थी.
कुछ और लोग भी उसके बारे में इधर-उधर की बातें करने लगे थे. पैसों के मामले
में वह धीरे-धीरे बदनाम होने लगी थी लेकिन कोई उसे मुंह पर कुछ नहीं कहता
था.
नीलम अपने काम से काम से रखती लेकिन कभी-कभी पूछती थी–वो किसके साथ चली
गई?कुछ पता चला?
मैं कहती-मैं क्या जानूं. मगर मैं कुछ तो जानती ही थी.
वह जो डाकिया आता था. आजकल नहीं आता. अब जब चिट्ठी ही नहीं आती तो वह क्यों
आये भला. उस दिन डाकिया उधर से निकला. कल्पना और वह दोनों गेट पर ही खडी
थीं. मकान मालकिन अपने छोटे से बगीचे के पास खड़ी अपने पेड़ों को देख रही थी.
उसकी पीठ गेट की ओर थी. मालकिन-मकान ने गर्दन घुमाई. डाकिये ने देखा और गेट
से आगे निकल गया. थोड़ी देर बाद ही कल्पना ऊपर चली गई. डाकिया उधर से लौटा
और चिट्ठी-बॉक्स में, चिट्ठी डालकर चला गया. मैंने चिट्ठी निकाली और उसे
लेकर ऊपर चली गई. एक बार सोचा कहीं चिट्ठी उसकी तो नहीं फिर ख़याल आया उसे
कौन लिखेगा. कभी घर में उसके पाँव तो टिकते नहीं हैं? हरदम तो फैजाबाद ही
चली जाती है. फिर मेरा नाम तो लिखा ही है. मैंने चिट्ठी खोल दी. पढ़कर कुछ
आश्चर्य हुआ-मैं तुम्हें जानता हूँ. तुम गाजीपुर की रहने वाली हो न. मैं भी
बनारस का हूँ. तुम तो एकदम मेरे बगल की हो. हम दोनों कितने आस-पास के हैं-
यह एक खूबसूरत इत्तेफाक है. इसके पहले एक और ख़त तुम्हें भेजा था. तुम्हें
मिला होगा.पावती की खबर देना.
तुम्हारा अनंत
यकीनन यह चिट्ठी मेरे ही नाम की थी लेकिन मेरे नाम प्रेम-पत्र लिखने वाला
ये कौन है. वही ऑटो वाला लड़का तो नहीं .मुझे शरारत सूझी. मैंने उसे एक
खूबसूरत सा जवाब लिख दिया. अगले ही दिन चिट्ठी डाकखाने जाकर पोस्ट कर आई.
फिर जाने क्या हुआ कि करीब पन्द्रह दिन उसकी कोई चिट्ठी ही नहीं आई.
मकान-मालकिन गेट पर ही थी और अपने बगीचे के फूलों को देख रही थी. जब डाकिया
आगे के घरों में चिट्ठी देने निकल गया तब मकान मालकिन ने अपना जूड़े से सजा
चेहरा सामने घुमा लिया. डाकिया वापसी में उधर से गुजरा और चिट्ठी डालकर चला
गया. मकान मालकिन ने देखा–कि कल्पना कहीं से लौटी. उसने नीला अंतर्देशीय
उठा लिया. अगले दिन मकान -मालकिन ने फिर देखा कि कल्पना एक गुलाबी लिफाफा
लिए डाकखाने चली गई. अब मकान-मालकिन अक्सर अपने गेट के पास रहती और अनजान
बनी हुई अपने बगीचे के फूलों में व्यस्त दिखती. वह यह समझ गई कि डाकिया
दोनों के रहने पर चिट्ठी नहीं डालता. जब कोई एक होती है तभी वह चिट्ठी
डालता है या जब कोई नहीं होता. डाकिये ने फिर चिट्ठी डाली और मकान-मालकिन
ने देखा इस बार दूसरी ने चिट्ठी उसी तरह उठायी. उसमें भी एक उमंग थी.
उत्साह से भरकर वह भी सीढियां चढ़ गईं .
अगले दिन वह दूसरी लड़की भी डाकखाने गई.
मकान मालकिन अपने छोटे से बगीचे से यह खेल देखने लगी.मकान मालिन जान गई थी
कि कुछ न कुछ तो शुरू हो ही चुका है. एक बार दोनों लड़कियों में से कोई नहीं
था तब डाकिया धीरे से चिट्ठी डाल गया. मकान-मालकिन ने फिर अपनी पीठ घुमा ली
और अपने बाग़ के फूल देखने लगी.. डाकिया चिट्ठी बेहद तटस्थ भाव से डालता था
लेकिन ऐसा क्यों कि उन दोनों की उपस्थिति में वह आगे चला जाता था, डाकिया
कहीं यह न समझने लगे कि वह कुछ जान रही है. इसीलिए वह कभी-कभी कोई फूल
तोड़कर अपने बालों में लगाने का बहाना करती थी. डाकिया चिट्ठी गिराता और चला
जाता.
हाल ही में ही सेक्रट्रिएट में नौकरी पाने वाले नौजवान अनंत के जीवन में
वसंत आ गया था. वह स्वप्नलोक में समुन्दर किनारे होता और सपनों के जाल
बुनता था. एक चिट्ठी भेजता नहीं कि जो अब तक लिखी नहीं गई उसका जवाब आ जाता
था. कभी गुलाबी तो कभी नीला अंतर्देशीय उसके लिए सपने ले आते थे.
- हमारा एक घर होगा,एक आँगन होगा. हम अपने आँगन से एक साथ चाँद और सितारे
देख्नेगे . अब तुम्हारे बिना रहने का मन नहीं होता . तुमसे मिलने का मन
होता है .कब मिलोगी . कहाँ मिलोगी ? कैसे मिलोगी? मैं तुम्हारी दिल्ली से
दूर हूँ. मगर मैं आ जाउंगा. जब तुम कहोगी. तुम्हारा अनंत
-ये क्या! तुमने एक बार भी नहीं लिखा कि कब और कहाँ मिलेंगे हम. मैं
तुम्हें देखने के लिए बेसब्र हूँ. अब तुम्हें देखे बिना मेरे दिन नहीं
कटेंगे. कल मैं गंगा की सिकता पर लेटा तुम्हारे लिए ही सुनहले सपने बुन रहा
था. तुम्हारा अनंत
मेरे शिकायती चिठ्ठी भेजने के दूसरे दिन ही मुझे तुम्हारी चिट्ठी मिल गई,
जिसमें तुमने मिलने की जगह बतायी है. मैं वहीँ इंतज़ार करूंगा. अभी उसने आधी
ही चिट्ठी पढ़ी कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. उसने चिट्ठी जल्दी से तकिये के
नीचे रख दी.
-कौन है? उसने पूछा.
-मैं हूँ.
-आ जाओ न. कहते ही कल्पना उसके कमरे में चली आई. वह बहुत उदास थी. बोली-
मैं बहुत परेशान हूँ.
-क्या हुआ?
-पापा का बिज़नेस बंद हो गया. वे बैंक के कर्जों से लद गए थे. हारकर
उन्होंने खुद को दीवालिया घोषित कर दिया है और मां और भाई को छोड़कर नेपाल
चले गए हैं. घर भी बैंक के क़र्ज़ में चला गया. वह रो रही थी और उसकी समूची
देह काँप रही थी. उसने भाई की चिट्ठी मेरे हाथ में दे दी. उसमें वही लिखा
था, जो वह मुझसे कह रही थी. मैंने उसे कन्धों से पकड़ कर बिठाया और पीने के
लिए पानी दिया.
-मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकूँ तो ज़रूर करुँगी. मुझे बताओ. मैं क्या कर
सकती हूँ.
उसने कहा-तुम इतनी मदद कर दो-तुम यह बात मकान-मालकिन को मत बताना. मैं
जल्दी ही अपना इंतजाम कर लूंगी. उसकी सुन्दर आँखें रोकर लाल हो गयीं थीं.
उसके मासूम चेहरे पर बहुत वेदना थी .
मैंने कहा-मैं कुछ नहीं कहूँगी. मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे आश्वस्त
किया.वह अपने कमरे में चली गई .एक घंटे बाद वह फिर आई. उसका चेहरा हल्का
था.लगता था वह थोड़ी देर के लिए सो गई थी.उसकी आँखों में काजल लगा हुआ था.
उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट थी और रोने का कोई भी चिन्ह नहीं था.
उसने कहा–सुनो, मैं कहीं जा रही हूँ. थोड़ी देर हो सकती है. तुम इंतज़ार मत
करना.
मुझे मालूम था कि यह पूछने पर कि तुम कहाँ जा रही हो, वह मुझे सच नहीं ही
बताएगी इसलिए उसके जाने के बाद मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया और
अनंत की चिट्ठी दुबारा पढ़ी- तुमसे मिलने का वायदा किया है. मैं आऊंगा. इसके
पहले जो चिट्ठी मैंने भेजी है, उसमें आने की तारीख तुम्हें लिख दी है.
तुम्हारी बतायी हुई जगह पर मैं आ जाऊँगा. अब तो तुमसे मिलना ही है. बेसब्र
इंतज़ार में - तुम्हारा अनंत
चिट्ठी हाथ में लेकर वह सोचती रही. उसे तो ऐसी कोई चिट्ठी नहीं मिली. कहीं
कल्पना ने तो नहीं खोल ली. लेकिन उसने तो आज तक कभी उसके हाथ में कोई
चिट्ठी नहीं देखी. अपने प्रेम-प्रसंग वह खुद ही तो गाती रहती है. उसके राज़
राज़ तो होते नहीं. वह तो खुली किताब है. लेकिन ऐसा भी कहाँ है, इधर के
दिनों में उसका एक ऐसा चेहरा भी उसने देखा जो उसकी मासूमियत के नकाब के
पीछे है. धीरे-धीरे वह किसी और रूप में भी दिखाई देने लगी है.
उस दिन शाम को छः बजे गई थी कल्पना, आठ बजे तक लौट आई. उसके बालों में गजरा
था और चेहरा ऐसा खिला था जैसे भोर खिलती है. आते ही कल्पना अपने कमरे में
गई और बिना कुछ बोले अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर लिया.
उसने अनंत को चिट्ठी का जवाब लिखा- तुम्हें कुछ गलतफहमी हुई है. मैंने
मिलने का वायदा तो नहीं किया. तुम मिलने का वायदा किससे कर बैठे हो.
तुम्हारे ख़त में ये जिक्र किसका है– फिर एक शेर लिखा– तेरे गले से हार से
आये वफ़ा की बू. फूलों में कोई दिल तो नहीं है गुंथा हुआ. किसी और का दिल भी
लिए फिरते हो क्या .
उसने चिट्ठी सिरहाने रखी और तकिये पर सिर रखकर लेट गई.
सुबह वह मकानमालकिन के दरवाजा पीटने से उठी. मकान-मालकिन चिल्ला रही थी-
कल्पना अपने कमरे में नहीं है देखो, ये चिट्ठी डालकर गई है. उसने जो नोट पर
लिखा वह वही था-मैं जा रही हूँ. आप लोग परेशान न होइयेगा. मेरे घर से कोई
आये तो उसको मेरी यह लिफाफा दे दीजियेगा . ...
मकान-मालकिन सोचने लगी. यह सब क्या है? कोई दोनों को चिट्ठियां लिखता था यह
तो तय हो गया लेकिन लिखने वाला इस बात से बेखबर था-मैं तो पहले से ही जानती
थी कि कुछ न कुछ जरूर होगा लेकिन मुझे मेरे किराए से मतलब है और किसी भी
तरह के वितंडे से बिलकुल नहीं. एक गई तो दूसरी आएगी. वह मुझे पूरा किराया
देकर गई है. ऊपर के कमरों एक से एक अच्छी और बुरी लड़कियाँ रहकर चलीं गईं.
एक बार तो पुलिस बुलानी पड़ी थी जब उस लड़की शुभा ने अपना कमरा भीतर से बंद
कर लिया था और वह एक शोभना भी तो थी जो रात के एक बजे मुझे लेकर अस्पताल
भागी थी.
एक दिन अचानक डाकिया फिर आया था. आगे चला गया और लौटते हुए उसने चिट्ठी,
चिट्ठी के लिए बने बक्से में गिरा दी- चिट्ठी उसके नाम की थी. चिट्ठी हाथ
में लेते हुए उसने डाकिये से कहा– आप आगे चले गए तो मुझे लगा कि मेरे नाम
की कोई चिट्ठी नहीं होगी. होती तो आप मुझे देकर ही जाते. डाकिये ने सफाई
देते हुए नीचे की और दिखाते हुए कहा– देखो दीदी- ये सडक के बीच में कितना
कीच है. मैं जब उधर से लौटता हूँ तब लौटानी में चिट्ठी इधर डाल देता हूँ.
मैंने कितनी बार तुम्हारी मकान-मालकिन से कहा है- मैडम, नगरपालिका को फोन
करके ये गड्ढा तो भरवा दो. लेकिन वे ध्यान नहीं देतीं. आप भी उनसे बोलना.
डाकिया के जाते ही उसने चिट्ठी देखी. यह तो कल्पना की चिट्ठी है. जाने के
दो साल बाद उसने उसको पहली बार ख़त लिखा है. जाने क्या लिखा है. जल्दी-जल्दी
चिट्ठी खोली. उसने बुलाया है. मिलना चाहती है. दिल्ली में ही रहती है. डरते
हुए ही उसने अपना पूरा पता और टेलीफोन का नंबर भी दिया है कि मालूम नहीं
मैं यहाँ हूँगी या नहीं.
चिट्ठी में एक उदासी और दुःख साफ़ साफ़ महसूस हो रहे थे. उससे मिलने कि
उत्सुकता हो रही है. उससे मिलना जरूरी है.दो सालों में उसकी मकान मालकिन
सरला जी उससे खुल कर बातें करने लगीं हैं. आखिर तीन साल हो गये उसे यहाँ
रहते हुए. उसने उनको बता दिया है कि वह कल्पना से मिलने जा रही है.
वह ऑटो रिक्शे में बैठी चली जा रही थी.पता होने के बाद भी उसे उसका घर
खोजना पड़ा है. अरे! उस घर की खिड़की पर वह ही तो खडी थी. वह उदास चेहरा उसका
ही तो था. उसका ऑटो इतनी जोर से निकला.
-वह चीखी-अरे, भैया ज़रा रोको. घुमाकर पीछे ले चलो. वह ही खडी थी. खिड़की की
छड़ों को पकडे. लेकिन शाम की तरह ढली हुई,उतनी ही उदास और सुन्दर. सूरज
सामने ही डूब रहा था. घर के भीतर अँधेरा था.. उसने देखा. ऊपर जाने के लिए
तीन चार सीढियां थीं. नीचे एक गेट लगा था,उसने गेट के पास जाकर खटखटाया. वह
जाने कहाँ गुम थी. वह जोर से बोली – कल्पना ...
उसे सामने देख वह एकदम चौंक गई– तुम आ गई? तुम्हें चिट्ठी मिल गई? मैंने उस
पते पर यूँ ही ख़त भेज दिया था. विश्वास नहीं था कि तुम अब तक वहां होगी.
उसने उसे जोर से गले से लगा लिया .
-कब से देखा नहीं तुम्हें. कहाँ चली गई थी तुम? कोई खबर भी नहीं दी. मैं तब
से तुम्हें ढूंढ रहीं हूँ.
उसके गालों पर दो बूँद आंसू ढुलक आये.
उसने देखा–वह बिलकुल पहले जैसी थी. वैसी ही सांवली रंगत और वैसी ही आवाज़.
-और वह कहाँ है? उसने बेहद उत्सुक होकर पूछा .
-कौन?
-जिसके साथ तुम चली आई थी और घर बसा लिया था.
-उसकी आँखें भर गईं. उसने इशारे से दिखाया– वहां उस दीवार पर.
उसने दीवार पर देखा तो अनंत की तस्वीर टंगी थी. वहां दो फूल अटके थे.
उसने उसकी तस्वीर देख ली, जिसके ख़त उसके पास पड़े हैं. उससे कभी न मिल पाने
की एक नई ख़लिश थी जो अब कभी न जायेगी .
दोनों कल्पनाये शक्ल-सूरत से भले ही बिलकुल अलग थीं लेकिन दोनों की लिखावट
बिलकुल एक सी थी. मोती जैसे साफ़, सुथरे, सुडौल और सुन्दर अक्षर दोनों के
थे. जब उसने अग्रीमेंट वाला फॉर्म भरा था. मकान -मालकिन चकरा गई थी- तुम
दोनों की तो लिखावट भी एक सी है और नाम भी एक ही है. कैसे समझूँगी मैं.
कैसे जानूंगी कि तुम दोनों दो हो.
वे एक साथ हंस पड़ीं थीं -अरे मैडम, हम एक नहीं, दो हैं. ह्मारे विषय
अलग-अलग हैं. ये मुझसे लम्बी है. ये फैजाबाद की है.ये इतनी सुन्दर है. मैं
गाजीपुर की हूँ. मैं उतनी सुन्दर भी नहीं हूँ. क्या दो लोगों के नाम एक से
नहीं होते?
-आपको हमसे कोई दिक्कत नहीं होगी.हम दोनों ने एक साथ ही कहा था .
कल्पना के चेहरे पर हलकी उदास सी हँसी आ गई थी.
-मैं अनंत की सारी चिट्ठियां ले आई हूँ. वे तुम्हारी अमानत हैं जो मेरे पास
थीं.
कहते हुए उसकी आँखों में भी आंसूं थे. उसने जोर से उसका हाथ पकड़ लिया कभी न
छोड़ने के लिए.
- प्रज्ञा पाण्डेय
६३९४४१९००३
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