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धारावाहिक उपन्यास
आगे खुलता
रास्ता
केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत राजस्थानी उपन्यास
दो पड़ावों में विभाजित उपन्यास के कथा-विन्यास में शहरी और ग्रामीण
परिवेश में जीने वाले परिवारों के नये संबंधों का जहां विस्तार और उनका
सामीप्य उभर कर सामने आता है, वहीं नारी चरित्रों का अपना संघर्ष और उनकी
जिजीविषा सोच का एक नया ही आयाम उद्घाटित करती है।)
भाग: एक
1.
रेतीले हलके के एक सिरे पर खारी जमीन के खुले ताल में बसा यह कस्बा पहली नजर में न तो शहर जैसा दीखता है और न महज गांव ही। एक-डेढ़ कोस की लंबाई-चौड़ाई में बसी पांच हजार घरों की बड़ी बस्ती को निपट गांव तो कहा भी कैसे जाये। यहां से दक्षिण में पांच कोस दूर अरावली की पहाड़ियां शुरू होती हैं, जो प्रदेश को बीचो-बीच से बांटती आर-पार जाती हैं। कस्बे के उत्तर-पश्चिम में दो बरसाती नदियों के संगम से बना खुला पाट है - कोई दो-ढाई कोस की चौड़ाई में फैला हुआ, जिसमें बरसात का पानी उतरने पर खारे पानी के छोटे-छोटे जमाव और असंख्य बेरियां बची रह जाती हैं। सर्दी का मौसम खत्म होने के बाद इन्हीं पोखरों और बेरियों का पानी क्यारियों में फैला-सुखाकर उससे नमक तैयार किया जाता है। भीषण गर्मी का मौसम इस काम के लिए सबसे मुफीद माना जाता है। इसीलिए गर्मी इस काम से जुड़े लोगों को कभी अनसुहाती नहीं लगती। यही नमक इस कस्बे और आस-पास के लोगों की रोजी-रोटी का मुख्य साधन है। यहां की चिकनी मिट्टी से बनी मटकियां पूरे हलके में अपने नाम से जानी जाती हैं। बाजार में जगह-जगह इन मटकियों के ढेर देखे जा सकते हैं। इन मटकियों की बिक्री के लिए भी यही मौसम सबसे माफिक पड़ता है। सर्दी के दिनों में तो कोई इनकी ओर झांकने भी नहीं आता। पुराने बाजार के बीचो-बीच नगरपालिका का दफ्तर है। उसी के आगे चौक के एक तरफ लड़कियों की हायर सैकेण्डरी स्कूल और दूसरी तरफ पूर्व में कविराजजी की बगीची। कस्बे के बीच की सड़क पर कोेई डेढ़ किलोमीटर लंबी दुकानों की कतार है, जो अब पुराना बाजार कहलाता है। लोग कहते हैं कि इस बाजार में अब वह पहले जैसी रौनक कम ही देखने को मिलती है। इसका एक बड़ा कारण तो कस्बे के दक्षिणी भाग में हाई-वे पर बना वह नया बस-अड्डा ही है, जिसके इर्द-गिर्द इतनी दुकानें, रेस्तरां और छोटे-मोटे कामों के ठीहे-ठिकाने खुल गये हैं कि जरूरत की हर चीज यहां मिलने लगी है। सब्जी, किराने का सामान, कपड़ा, कॉपी-किताब, साज-सिंगार, दवाई, पान-सुपारी, चाय-नमकीन, मिठाई, टायर-ट्यब, ऑटो-पार्ट्स का सामान, हजामत, जूते-चप्पल यानी जिसकी जैसी जरूरत हो, वह इस नये उभरते बाजार में पूरी हो जाती है। अलबत्ता पुराने कस्बावासियों के लिए तो अब भी उनका वही पुराना बाजार अपनी जगह कायम है, जहां पारिवारिक जरूरत का हर सामान पहले की तरह ही किफायत से मिल जाता है। नये मकान अब ज्यादातर इसी दक्षिणी भाग में ही बन रहे हैं, जिनके कारण बनते नये गली-मोहल्लों में अच्छी-खासी रिहाइश हो गई है। इस कस्बे तक आने और यहां से अन्यत्र जाने का मुख्य साधन बसें ही हैं, जो इसी हाई-वे पर बस-अड्डे और उसके आस-पास आकर रुकती हैं। बस-अड्डे से दक्षिण में आधा किलोमीटर दूर नवोदय विद्यालय का नया भवन बन गया है। उसी परिसर में बच्चों के हॉस्टल और शिक्षकों के क्वार्टर है। नवोदय विद्यालय की शुरुआत के बाद तो हलके में इस कस्बे का अच्छा-खासा नाम हो गया है। लड़कियों की इस सीनियर सैकेण्ड्री स्कूल में पढ़ाने वाली अध्यापिका सत्यवती बेशक यहां अपने पूरे परिवार के साथ न रहती हो, लेकिन वह उन रोजमर्रा बसों से आने और शाम तक वापस लौट जाने वाले शिक्षकों की तरह नहीं है, जिनका कस्बे के जीवन से कोेई रिश्ता नहीं बन पाता। उसका परिवार यहां से सौ किलोमीटर दूर दूसरे शहर में रहता है और वह स्वयं यहीं स्कूल परिसर में बने सरकारी आवास में। चाहती तो वह भी रोज डेढ़ घंटे का सफर तय कर यहां आ सकती थी और उसी शाम वापस भी लौट जाती, लेकिन ऐसे में, उसका मानना है कि वह अपने काम के साथ सही न्याय न कर पाती। न कस्बे के लोगों का अपनापन और सहकर्मियों का विश्वास ही अर्जित कर पाती। शनिवार-रविवार या किसी छुट्टी के दिन को जोड़कर वह महीने में एक-दो बार पति और बेटी से मिलने शहर हो आती है, लेकिन सत्र के दौरान ज्यादातर वह यहीं रहती है। एक जागरूक शिक्षक के रूप में सत्यवती शिक्षकों के बीच अपनी अलग पहचान रखती है। नवोदय के शिक्षक भी अपनी कठिनाइयों के बारे में अक्सर उसी से राय-मशविरा करने आते हैं। पढ़ना-लिखना उसकी रोजमर्रा की जरूरत जैसा है। अखबार, पत्रिकाओं और अच्छी किताबों में उसकी खास दिलचस्पी रहती है। नये बाजार में अखबार-पत्रिकाओं की एक अच्छी दुकान है तो सही, लेकिन उसमें उसकी अपनी पसंद की पत्रिकाएं और किताबें कम ही देखने को मिलती हैं। यों दुकान का मालिक पाठ्य-पुस्तकों और लेखन सामग्री के अलावा कुछ धार्मिक पुस्तकें और हिन्दी-अंग्रेजी के शब्द-कोश तो रखता है, लेकिन दुकान के आगे सजावट में ज्यादातर फिल्मी पत्रिकाएं और सस्ते किस्म के रहस्य-रोमांच वाले उपन्यास ही दिखाई देते हैं। कभी-कभार कबाड़ी बाजार से आये स्टॉक में सत्यवती को विश्व के महान् लेखकों की महत्वपूर्ण किताबें भी दिख जाती हैं, जिन्हें देखकर वह आश्चर्यचकित रह जाती है। वह इसी बहाने कई बार शाम के वक्त इधर निकल आती है। दुकानदार भी अब उसकी रुचि से परिचित-सा हो गया है, इसलिए उसके दुकान पर आते ही वह उसकी पसंद की पत्रिकाएं और नयी किताबें निकालकर उसके सामने रख देता है। उस तरह की पत्रिकाएं या किताबें न यहां कोई पढ़ता है और न मंगवाता ही। अपनी रुची और जरूरत की किताबें और पत्रिकाएं अमूमन वह जोधपुर से ही लेकर आती है। सैकेण्डरी बोर्ड की परीक्षाएं कल ही तो खत्म हुई थीं और आज शनिवार था। अब केवल माध्यमिक स्तर के होम एग्जाम बाकी थे, जो इसी महीने के आखिरी सप्ताह तक खत्म हो जाने हैं। परीक्षा के कारण इस बार पूरे तीन सप्ताह तक वह अपने घर नहीं जा पाई। यही सोचती रही कि परीक्षा खत्म होते ही अगले सोमवार से वह चार-पांच दिन का अवकाश ले लेगी और इसी शनिवार की शाम तक अपने घर पहुंच जाएगी। यहां आने के बाद पहली बार वह अपने पति और बेटी से इतने दिनों तक लगातार दूर रही थी। क्या करती, मजबूरी थी। यह कौन देखता है कि एक छोटी बेटी की मां के लिए ऐसा करना कितना कठिन होता है। सूरज को भी अपनी कंपनी के काम से कई बार घर पहुंचने में थोड़ी-बहुत देरी हो जाती है। इसीलिए बेटी मेधा और घर के लिए अपनी जान-पहचान की एक अधेड़ विधवा महिला को उन्होंने काम पर रख लिया है, जो सुबह से शाम तक घर और बेटी की देखरेख कर लेती है। इस बहाने उस जरूरतमंद औरत की कुछ मदद भी हो जाती है। शोभा, यही नाम है उस औरत का, उनकी बेटी से इतना घुलमिल गई है कि अब उसे मां की गैर-मौजूदगी का अहसास कम ही होता है। हालांकि हर-बार जब वह स्कूल के लिए अपना घर छोड़ती है तो वे पल दोनों मां-बेटी के लिए अक्सर भारी हो जाते हैं। मेधा इस वर्ष तीसरे दर्जे में आ गई है और इस लाड़ली बेटी में मां-बाप के प्राण बसते हैं। प्राचार्या से बात करने पर बड़ी मुश्किल से सत्यवती को सप्ताह भर का अवकाश मिल पाया। वह दोपहर बाद की चिलचिलाती धूप में स्कूल से अपने क्वार्टर होती हुई बस-अड्डे पहुंची थी। उसे सड़क पर दूर से अपने गंतव्य की ओर जाने वाली बस पहले ही आती दीख गई थी। ठीक उसी समय विपरीत दिशा से एक दूसरी बस भी आकर रुकी, जो उसके गांव की ओर जाती थी। सत्यवती खिड़की से टिकट लेकर अपनी बस की ओर बढ़ ही रही थी कि अचानक उसी बस से उतरती उसकी अन्तरंग सहेली अनीता दीख गई, जो मुस्कुराती हुई उसी की ओर आ रही थी। अनीता उसके पीहर गांव में उसी की तरह अध्यापिका है, जहां उसके माता-पिता और छोटे भाई वीरेन्द्र का परिवार रहता है। सत्यवती को यह देखकर खुशी हुई कि ‘चलो, उसे सफर के लिए अच्छा साथ मिल गया!’ बस-अड्डे पर उस वक्त यही दो बसें एक-दूसरी की ओर पीठ किये खड़ी थीं। सत्यवती के हाथ में बैग और टिकिट देखकर अनीता ने अनायास ही हंसते हुए पूछ लिया, ‘‘क्यों, आज गांव जाने की तैयारी है क्या?’’ इस अयाचित सवाल से उसे थोड़ा अचंभा-सा हुआ, ‘‘गांव...? नहीं तो! ...तुम बताओ, गांव जाने का कैसे पूछ रही हो?’’ वह तो खुद उससे गांव और अपने घर के समाचार जानने को उत्सुक थी। अनीता अचानक कुछ कहते-कहते रुक गई। उसने जवाब देने की बजाय थोड़ा गंभीर होते हुए फिर दूसरा सवाल पूछ लिया, ‘‘तुम्हें गांव से कोई खबर नहीं मिली, सत्या! कोई तार, चिट्ठी या कोई संदेश-समाचार... कुछ भी नहीं आया?’’ ‘‘नहीं तो!’’ यकायक उसके बदले हुए स्वर से सत्यवती को अपने कलेजे की धड़कन बढ़ती-सी महसूस होने लगी। ‘‘तो कहां पिया जी के पास जाने की तैयारी है?’’ उसके स्वर में शरारत थी। ‘‘क्यों, जाना नहीं चाहिए ? लेकिन गांव में क्या हुआ, पहले वह तो बता!’’ उसकी शरारत का जवाब देते हुए उसने बात का सिरा फिर से पकडा़। सत्यवती के आग्रह करने पर अनीता थोड़ी अटकती हुई-सी बोली, ‘‘सत्या.... दरअसल तुम्हारी मां काफी दिनों से बीमार है। ...मैं खुद तो नहीं जा पाई, लेकिन रुघजी माट्-साब बता रहे थे कि उन्हें शायद... नेकाला (टायफाइड) हो गया है।’’ उसने डरते-डरते यह खबर दे तो दी, लेकिन उसकी तयशुदा यात्रा के बारे में जानकर उसे अफसोस भी होने लगा। बात करते हुए उसने अपनी नजर सत्यवती के चेहरे से हटाकर नीची कर ली थी। ‘‘कब की बात है.... अभी कहां है वह?’’ सत्यवती ने पूछा। ‘‘है तो वहीं गांव में ही...। वैद्यजी का इलाज भी चल रहा बताया, शायद...’’ सत्यवती एकाएक चिन्ता और दुविधा में पड़ गई। वह यह तो जानती थी कि मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। खांसी और दमे की तकलीफ तो एक अरसे से चल ही रही थी, लेकिन नेकाले की खबर से तो उसका कलेजा ही बैठ गया। इससे भी बड़ी तकलीफ की बात यह कि उसके पिता और छोटे भाई वीरू ने उसे खबर तक नहीं की। वह अनमनी हो उठी। धूप में इतनी दूर पैदल चलकर आने से उसे यों भी चक्कर-सा आने लगा था। वह पास ही रेस्तरां की एक बैंच पर बैठ गई। अनीता कुछ देर उसके पास खड़ी रही, इतने में गंतव्य की ओर जाने वाली बस ने हॉर्न बजा दिया। ‘‘तो उठो, चलते हैं। बस रवाना होने वाली है। ...वहां से लौटकर हो आना गांव!’’ अनीता ने बात को संभालने की कोशिश की। ‘‘तू चल अनीता!’’ उसके सूखते गले से इतनी-सी आवाज मुश्किल से निकल पाई। अनीता ने ड्राइवर को हाथ के इशारे से बस कुछ क्षण रोकने का संकेत पहले ही कर दिया था, इसलिए इंजन तो चालू था, लेकिन बस रुकी हुई थी। ‘‘टिकिट तो लिया हुआ ही है, चली चलती। घर में सूरज और मेधा भी इंतजार कर रहे होंगे!’’ ‘‘मैं फिर देखूंगी, अनीता! ...अभी तो मुझे गांव जाना जरूरी लग रहा है। तुझे समय मिले तो सूरज को खबर जरूर करवा देना। ...यह भी कहलवा देना कि भाग-दौड़ करने की जरूरत नहीं है। जरूरत होगी तो मैं वहां पहुंचकर खबर कर दूंगी।’’ अनीता सत्यवती के हौसले और उसके धीमे स्वभाव से परिचित थी। विपदा और संकट के समय कैसे उसकी शक्ति दुगुनी हो जाती है, यह वह जानती थी। लेकिन खुद सत्यवती मां की तकलीफ के आगे अपने को लाचार अनुभव करती है। वह जानती है कि मां न बेटे-बहू के पास सुखी रह पाती है और न पति को छोड़कर उसके साथ रहने को ही तैयार हो पाती। वह कई बार आग्रह करके देख चुकी है, लेकिन उसकी मां गीता अब कहीं और चलने को राजी नहीं होती। वह उठकर खड़ी हो गई और अनीता को विदा करने के लिए उसके साथ बस की ओर चल दी। अनीता ने बस के करीब पहुंचकर उसे एक बार फिर से आग्रह करना चाहा, लेकिन सत्यवती ने उसे हाथ के इशारे से रोक दिया। अनीता ने बस में चढ़ते हुए उसे फिर से दिलासा देने की कोशिश की, ‘‘तू चिंता मत करना, ....मैं वहां पहुंचते ही सूरज को खबर करवा दूंगी।’’ अनीता बस के गेट पर पहुंच गई थी और सत्यवती से विदा लेकर बस मंे सवार हो गई। कंडक्टर के दरवाजा बंद करते ही बस धीरे-धीरे रवाना हो गई। उसके गांव की ओर जाने वाली बस पहले ही निकल चुकी थी। वह कुछ देर वहीं खड़ी दूर जाती बस की पीठ देखती रही और फिर खाली पड़े बस-अड्डे पर नजर घुमाकर वापस अपने कमरे की ओर रवाना हो गई। बस का टिकिट अब भी उसकी मुट्ठी में वैसे ही रखा था। कुछ कदम चलते हुए उसने टिकिट की गोली बनाई और आधे रास्ते में एक ओर फैंक दी। पिछले तीन साल से वह यहां पचपदरा की हायर सेकेण्ड्री स्कूल में हिन्दी की अध्यापिका है। उसका पीहर गांव कवास यहां से पश्चिम में सिर्फ सत्तर किलोमीटर दूर है - हलके का एक बड़ा कस्बा, जहां रेलगाड़ी, रोडवेज, स्कूल, अस्पताल, पंचायत, बिजली, पानी, बैंक, डाकखाना, बाजार सब-कुछ है। सूचना-संचार के इतने तीव्र साधन मौजूद हैं, लेकिन किसी खबर को अगर नहीं पहुंचना हो तो उसके बीसों बहाने मिल जाएंगे। वह बस-स्टैंड से घर की ओर लौटते हुए लगातार विचार करती रही कि आज अगर अनीता से मिलना न हुआ होता तो कौन जाने उसे मां के बीमार होने की खबर मिल भी पाती या नहीं। पता नहीं कितने दिनों से बीमार है, किस हाल में होगी वह? ठीक भी हो पाएगी या नहीं! उसे अपने पिता और छोटे भाई पर झुंझलाहट-सी हो रही थी। उनकी सोच पर गुस्सा भी आ रहा था और तरस भी। बीमार मानसिकता मनुष्य को कितना आत्म-केन्द्रित और अकेला बना देती है, वह मन मसोसकर रह जाती। उनसे क्या मांगती है वह? शायद यही आशंका भर रखी है दिमाग में कि वह आकर कहीं उन्हें शर्मिन्दा न कर दे, इसी वहम के चलते मां के बीमार होने की खबर तक नहीं होने दी उसे। अपने पिछले निर्णय को निरस्त करते हुए वह निश्चय कर चुकी थी कि वीरू या पिता को अच्छा लगे या न लगे, उसे आज गांव पहुंचकर मां का सही इलाज जरूर शुरू करवा देना है - मरना जीना तो ईश्वर के हाथ है, लेकिन उसकी पेट की जाई बेटी होने के नाते इतना हक तो वह अपना रखेगी ही। *
2.
साल भर पहले की बात है। जब सत्यवती पिछली बार गांव से लौटी थी तो अपना मन कड़ा कर, यह निश्चय करके वापस आई थी कि फिर कभी गांव नहीं आएगी। उसका यहां काम ही क्या है? - भाई-भाभी को बहन का आना अच्छा न लगे, पिता बरसों पहले बेटी को अपने मन से विदा कर चुके, वे तो बात करना तक पसंद नहीं करते। फिर वह क्यों आये यहां? सिर्फ एक मां है, जिसे उसके आने का इंतजार रहता है, लेकिन वह भी कभी बोलकर नहीं कहती कि वह आये! वह जानती है कि मां को उसकी जरूरत है, लेकिन वह पति और बेटे की झिक-झिक से इतना तंग आ चुकी है कि अब तो खुद ही सदा के लिए चली जाने का इंतजार करती बैठी है। मां को दमे की बीमारी तो पांच-सात सालों से लगी हुई थी ही, ऊपर से अब बुखार ने और आ दबोचा। चार-पांच दिन तो बिना किसी इलाज के यों ही खाट पकड़े पड़ी रही। पति पहले से ही रुग्ण। वीरू में न इतनी सूझ थी और न चिन्ता कि समय रहते मां के इलाज की कोशिश करता। घर में बहू आई तो वह भी ऐसे ओछे मन की कि उसे बीमार सास-ससुर फूटी आंख नहीं सुहाते। रामबाबू ने अपनी नौकरी की अवधि पूरी होने के तीन वर्ष पहले ही सेवा-निवृत्ति लेकर बेटे-बहू के दबाव पर अपनी जमा-पूंजी से मकान जरूर पूरा करवा दिया। कंपनी के कर्मचारियों के लिए पेंशन का कोई प्रावधान नहीं था, इसलिए अब उनके पास आय का कोई अतिरिक्त साधन भी नहीं बचा। साल भर पहले उनका लीवर खराब हो गया था। डॉक्टर ने पीने पर सख्त पाबंदी लगा दी थी। सो उनकी पीने की आदत पर ब्रेक लग गया था। वैसे भी अब आय का कोई नियमित जरिया न होने से पीने की गुंजाइश अपने आप ही खत्म हो गई थी। इकलौते बेटे वीरेन्द्र ने पिता की जान-पहचान का लाभ उठाते हुए कुछ बरस जिप्सम की ठेकेदारी करने के बाद पिता की बची-खुची पूंजी को कब्जे में करते हुए उसे अपनी चूने की फैक्ट्री में लगाकर उन्हें एक तरह से सारी जोखिम-जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया था - अब अगर मां-बाप दोनों ही संसार से विदा लेना चाहें तो बेटे-बहू को भला क्या ऐतराज होता। वे तो जैसे तैयार ही बैठे थे। बहू लोक-लाज का खयाल रखते हुए दो वक्त रोटी जरूर बनाकर खिला देती है, लेकिन बीमार मां-बाप की तीमारदारी, उसे कम ही सुहाती है! उस दिन सवेरे ही सास-बहू में छोटी-सी बात को लेकर तकरार हो गई, सो उसने तो फैसला ही कर लिया कि न वह यहां रहेगी और न किसी के अनसुहाते बोल सुनेगी। वीरू ने दबी जुबान में भरसक उसे समझाने की कोशिश की कि अभी मां बीमार है, थोड़ी तबियत सुधर जाए तो फिर भले पीहर चली जाये, लेकिन पत्नी की जिद के आगे वह भी लाचार था। बहस करने लगा तो वह भी आखिर बोल पड़ी, ‘‘तो अपने मां-बाप के साथ मुझे भी मार डालना चाहते हो? अगर मां की देखरेख की इतनी ही चिन्ता है तो वो बैठी दो-दो बड़ी बहनें, उन्हें क्यों नहीं बुला लाते? मेरी तो खुद तबियत ठीक नहीं रहती, फिर यह रोज-रोज बीमारी का बहाना और ऊपर से। मुझसे न आज सहा जायेगा, न कल।’’ संयोग से वे दोनों कमरे में अकेले ही थे। मां दूसरे कमरे में अचेत-सी पड़ी थी और पिता बाहर बैठक में दो बरस के पोते के साथ अपना बुढ़ापा पोख रहे थे। पत्नी की जिद के आगे निढाल होते हुए वीरू ने अपनी समझ के मुताबिक दबी जुबान में मां की असली हालत उसे बता देना ही ठीक समझा। धीमे स्वर में बोला, ‘‘असल बात यह है सीमा, कि मां शायद अब दो-चार दिन मुष्किल से निकाल पाएगी। वैद्यजी बता रहे थे, अब कोई औषधि अंग लगनी मुष्किल है, इसलिए ये दो-चार दिन किसी तरह जुबान बंद रखकर निकाल लेने में ही सार है!’’ पति की इस अन्दरूनी बात का मर्म समझते हुए आखिर पत्नी ने पीहर जाने की जिद छोड़ दी और वह आधे-अधूरे मन से वापस घर के काम में लग गई। वीरू को अपनी फैक्ट्री के काम से शहर जाना था, सो वह सुबह ही बस-अड्डे की ओर निकल गया। उसकी मां आधे दिन तक ताप और बेहोषी में बिना कुछ खाये-पीये वैसे ही खाट में पड़ी रही, लेकिन बहू ने इस बात की कतई जरूरत नहीं समझी कि सास की मान-मनुहार करके कुछ खाने-पीने के बारे में पूछ लेती। वह तो अपने मन-मिजाज में खुद को भाग्यवान बाप की बेटी थी, सो वह किसके निहौरे करती। सीमा के पिता बाड़मेर वासी बाबू धनसुखराज ढाणी बाजार में पहले तो लकड़ी के सामान की दुकान चलाते थे, लेकिन जब से हलके में जिप्सम की खानों का काम चालू हुआ तो उन्होंने भी औरों की देखा-देखी जिप्सम की ठेकेदारी का काम हाथ में ले लिया। दुकान का काम ज्यादातर उनके दो बेटे संभाल ही रहे थे, इसलिए उनका पूरा समय अब अपनी ठेकेदारी के काम में बीत रहा था। हलके के कई गांवों में जिप्सम की खुदाई का काम उन दिनों जोरों पर था। इन्हीं गांवों की खदानों में ठेकेदारी का काम करने के दौरान धनसुखराज बाबू रामनारायण के संपर्क में आए थे, जो उन दिनों उत्तरलाई कस्बे में फर्टिलाइजर कंपनी के ऑफिस में हैड-बाबू का काम देख रहे थे। ठेकेदारों के बिल वगैरह वही क्लीयर करते थे। धनसुखराज का अमूमन उनसे मिलना होता रहता। दोनों एक ही जात-बिरादरी से थे, सो परिचय थोड़ा घरेलू दायरे में भी बढ़ने लगा। जब दोनों के बीच अपने बड़े होते बच्चों की चर्चा चली तो आगे चलकर यही चर्चा रिष्तेदारी के आसार में बदल गयी। असल में उन दिनों दो-चार बार वे रामबाबू के नये बनते घर में उनसे मिलने गये तो उनके इकलौते बेटे वीरू पर उनकी नजर टिक गई। वे उन दिनों अपनी बेटी सीमा के लिए योग्य वर की तलाष में थे और वीरू उन्हंे इस लिहाज से माफिक लग रहा था। अपनी घरवाली और बेटी को फोटो दिखाया तो उन्हें भी लड़का पसंद आ गया। रामबाबू की बेटियों के बारे में उन्हें थोड़ी-बहुत जानकारी तो थी, लेकिन वे कारोबारी आदमी थे, इसलिए दूसरे बच्चों की रुचियों और रिष्तेदारियों की परवाह कम ही करते थे। उन्होंने अपनी बेटी सीमा का ग्यारहवीं की परीक्षा पास कर लेने के बाद स्कूल पहले ही छुड़वा दिया था। वीरू ने भी साल भर पहले किसी तरह बी.काम. पास कर लिया था और वह ज्यादातर गांव में ही रहता था। वीरू को पसंद करने के बाद जब उन्होंने रिष्ते की बात चलाई तो उन्हें लगा कि रामबाबू भी अपने बेटे के लिए उनके परिवार के साथ रिष्ता जोड़ने के इच्छुक हैं। धनसुखराज ने उसी हफ्ते एक दिन उनके घर आकर सीमा और वीरू के रिष्ते की रस्म पूरी कर दी। पांच महीने बाद जब दोनों की शादी हुई तो उन्होंने अपनी हैसियत के मुताबिक अच्छा धन-दहेज भी दिया। सीमा के साथ शादी हो जाने के बाद वीरू ने अपनी ससुराल वालों के साथ मिलकर जिप्सम की ठेकेदारी में रुचि लेना शुरू कर दिया और डेढ़ साल बाद उसने अपना अलग व्यवसाय भी खोल लिया। ससुर धनसुखराज से उसे अच्छी मदद और बिन मांगी सलाह मिल जाती, सो धीरे-धीरे उसका झुकाव ससुराल की ओर बढ़ता गया। बेटे वीरेन्द्र के इस रिष्ते और शादी में उसकी मां की भूमिका बहुत गौण-सी रही। शादी के बाद तो बेटे ने मां की ओर जैसे ध्यान देना ही छोड़ दिया। बहू भी घर में अपनी मन-मर्जी का बरताव करती। यह उसी बरताव का नतीजा था कि आज जब उसकी सास इतनी बीमार थी तब भी एक छोटी-सी बात का बहाना लेकर वह पीहर जाने के लिए तैयार हो गई।
सत्यवती दोपहर बाद गांव पहुंच गई थी। घर पहुंचने पर उसने मां को जिस तरह अचेत अवस्था में पड़े देखा तो एकबारगी वह खुद गहरे अवसाद में डूब गई। बस, सांस चल रही थी। हाथ लगाकर देखा तो शरीर तप रहा था। एक-दो आवाज दीं, लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं। उसे यह उम्मीद कम ही नजर आ रही थी कि वह वापस खड़ी हो पाएगी। पिता उसकी खाट के पास ही चिन्ता में डूबे बैठे थे और बहू रसोई में अपने बेटे को खिलाने में व्यस्त। मां की बीमारी सत्यवती के लिए कोई नयी बात नहीं थी, लेकिन बुखार कब टायफाइड में बदल गया और किस तरह वह मौत के कगार पर जा पहुंची, उसकी असल जानकारी तो उसे यहां पहुंचने पर ही हुई। उसने पांच-सात मिनट पिता से कुछ जरूरी जानकारियां लीं। बहू भी उसे आई देखकर पास आ खड़ी हुई और अपनी ओर से किये जा रहे प्रयत्नों के बारे में बढ़-चढ़कर बताने लगी थी। सत्यवती ने हाथ के इशारे से रोककर पिता को बता दिया कि वह तुरन्त मां को इलाज के लिए बाड़मेर ले जाएगी। उसके कड़े रुख को देखते हुए रामबाबू ने उसकी बात पर कोई ऐतराज नहीं किया, लेकिन सीमा ने दिखावटी तौर पर चिन्ता जाहिर करते हुए उसे शाम तक इंतजार करने का आग्रह किया। बोली, ‘‘वे शाम तक आ जाते हैं, उनकी भी राय ले लेतीं तो ठीक रहता।’’ सत्यवती ने मां की हालत को देखते हुए और देरी करना उचित नहीं समझा। एक क्षण मां की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘वह आये तो बता देना, मैं मां को अस्पताल ले गई हूं। ...राय-मशविरा जो करना है, वहीं कर लेंगे। ...मां के दो-जोड़ी कपड़े और कुछ जरूरी बर्तन किसी बैग में डाल देना, मैं चौराहे से अभी गाड़ी लेकर आ रही हूंू।’’ कहकर वह उठ खड़ी हुई और तुरंत घर से बाहर निकल गई। बस-अड्डे के चौराहे पर आजकल जीपों, गाड़ियों और चारों ओर लगी दुकानों के कारण काफी चहल-पहल रहने लगी थी। यों हर आध-पौन घंटे में बाड़मेर की ओर जाने वाली बसें भी मिल जाती हैें, लेकिन बीमार मां की हालत को देखते हुए उसे घर से ही गाड़ी की सीट पर लिटाकर अस्पताल ले जाना मुनासिब समझा। इसलिए फौरन चौराहे से एक जीप भाड़े पर तय की और उसे साथ लेकर पन्द्रह मिनट में वापस घर लौट आई। उसने पिता और जीप वाले की मदद से मां को पीछे वाली सीट पर सुला दिया। खुद भी मां के पास खाली सीट पर बैठ गई। अपना और मां का सामान सीमा से कहकर पहले ही गाड़ी में रखवा लिया था। न उसने पिता को साथ चलने के लिए कहा और न पिता ने ही कोई बुजुर्गवाना संकेत दिया। रवाना होते वक्त एक हल्का राहत का भाव उनके चेहरे पर जरूर महसूस किया उसने। वह मां के साथ अकेली ही घर से रवाना हो गयी। पौन घंटे में जीप अस्पताल पहुंच गयी थी। इमरजैंसी में पहले मां की शुरुआती जांच हुई और डॉक्टर ने तुरंत उसे अस्पताल में भर्ती कर लिया। अस्पताल के सीनियर डॉक्टर बंसल ने खुद वार्ड मंे आकर मरीज की अच्छी तरह से जांच-पड़ताल की और आधे घंटे में टायफाइड का इलाज शुरू कर दिया। सत्यवती मां के पास ही स्टूल लगाकर बैठ गई। थोड़ी देर बाद एक नर्स आई और उसे दवाइयां लाने के लिए एक पर्चा पकड़ा दिया। वह उसी नर्स को मां का ध्यान रखने का निवेदन कर दवाइयां लाने के लिए निकल गई। पन्द्रह मिनट में वह सारी दवाइयां लेकर वापस आ गई। नर्स ने उन्हीं दवाइयों में से एक इंजैक्षन लेकर मां को लगा दिया, ड्रिप भी लगा दी और सत्यवती को कुछ हिदायतें देकर वापस चली गई। इलाज शुरू हो जाने के बाद उसके जी में कुछ तसल्ली-सी हुई और वह मां के दूसरे हाथ को अपने हाथ में लेकर उसके मुरझाए चेहरे को शान्त बैठी देखती रही। मां को इस हालत में देखकर उसकी आंखें अनायास छलक आईं थी, जिन्हंे उसने तुरन्त अपने आंचल के सिरे से पौंछ लिया। मां के इलाज के लिए बाहर दुकान से दवाई लाते वक्त उसने अपने बुजुर्ग साथी शेरसिंह को यों ही फोन पर यह खबर दे दी थी कि वह मां के इलाज के सिलसिले में अभी कुछ दिन अस्पताल में रहेगी। शेरजी अपनी पत्नी को साथ लेकर आधे घंटे बाद ही उससे मिलने अस्पताल आ गये। उन्होंने उसे हिम्मत रखने की सलाह दी और उन दोनों के खाने का बंदोबस्त भी अपने घर से करवा दिया था। उनके जाने के घंटे भर बाद उनका बेटा किशन उसके लिए टिफिन लेकर आ गया। आधी रात ढलने के बाद मां को कुछ होष आया। उसने एक बार आंखें खोलकर चारों ओर देखा और फिर सत्यवती को अपने पास बैठी देखकर तसल्ली-सी महसूस की। थकान के कारण सत्यवती की आंखें बंद थीं। उसे आराम करते देखकर उस वक्त वह कुछ नहीं बोली, बल्कि उसने भी वापस अपनी आंखें बन्द कर लीं। सत्यवती ने पूरी रात लगभग जागते हुए काटी थी, बीच में दो-चार झपकियां बेषक आ गई हों, लेकिन वह तसल्ली से सो नहीं पाई थी। रात में दो बार नर्स ने आकर ड्रिप की बोतलें बदलीं। सुबह तक चार इंजैक्षन भी लग चुके थे। उसी रात तीसरे पहर इंजैक्शन लगाते हुए नर्स ने यह जरूर बता दिया था कि मां की तबियत अब सुधर रही है। आखिर सुबह होते-होते जब मां ने आंखें खोली और अपने कमजोर से चेहरे पर मुस्कान लाने की कोषिष की तो सत्यवती का जी में जी आया। उसने मां के चेहरे पर हल्की संतुष्टि अनुभव की। अब वह मां से बात कर रही थी। सवेरे अस्पताल के सीनियर डॉक्टर खुद उसकी जांच करने आये और सत्यवती को इस बात के लिए उलाहना भी दिया कि उन्होंने मरीज को अस्पताल लेकर आने में काफी देरी कर दी थी। गनीमत थी कि दशा ज्यादा नहीं बिगड़ी थी। वह डॉक्टर को क्या सफाई देती? सिर नीचा किये उसने डॉक्टर की बात को सुन लिया और भविष्य में सतर्कता बरतने का आष्वासन दिया। अगले चार-पांच दिनोें तक अस्पताल में मां का एक-सरीखा इलाज चलता रहा। रोज सुबह शाम शेरजी का बेटा किशन उनके लिए टिफिन लेकर आ जाता और वही दिन में दुबारा आकर बाहर के छोटे-मोटे कामों में उसका हाथ भी बंटा देता। सत्यवती ने दूसरे ही दिन एस.टी.डी. बूथ से सूरज को खबर कर दी थी कि वह अभी मां के पास बाड़मेर में है, लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं है, मां का इलाज चल रहा है। सूरज ने आने के बारे में पूछा भी, लेकिन उसने बता दिया कि अभी आने की खास जरूरत नहीं है, फिर भी अगर आने का संयोग बनता हो तो वह बेशक आकर मिल जाए। ऐसे में मेधा को हो सके तो अपनी छोटी बहन दुर्गा के पास छोड़ आये और उसे खबर भी कर दे। सूरज दूसरे ही दिन उसके पास आ पहुंचा। उसने अस्पताल के डॉक्टरों से मिलकर मां के इलाज की सारी जानकारियां ले ली थी, लेकिन उसे यह मालूम नहीं हो सका कि उसे पूरी तरह ठीक होने में कितना वक्त लगेगा। यों आने को बीच-बीच में वीरू भी दिन में दो-एक चक्कर लगा जाता, लेकिन उसे मन-ही-मन बहन से यह षिकायत थी कि वह उससे बिना मिले और बिना बात किये ही मां को अस्पताल ले आई, जैसे मां के इलाज की चिन्ता सिर्फ उसी को हो। उसने दबी जुबान में अपनी यह नाराजगी व्यक्त भी की, लेकिन सत्यवती ने इस बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। जिस दिन सूरज आया, उस दिन तो वह सिर्फ एक बार अस्पताल आया था और सूरज को आया देखकर जल्दी ही वापस लौट गया। सत्यवती ने दूसरे दिन सूरज को तसल्ली देकर वापस जोधपुर भेज दिया। पांचवें दिन मां की जांच-परख करने के बाद डॉ. बंसल ने सत्यवती को अपने कक्ष में बुलाकर यह जानकारी दी कि अब मरीज को थोड़ा आराम है, लेकिन अभी चलने-फिरने की अवस्था में आते तो हफ्ता-दस दिन और लगेंगे। खुद उसे भी आज सवेरे से मां के चित्त में काफी आराम लग रहा था। दोनों मां-बेटी देर तक आपस में बातचीत करती रहीं। नर्स ने ड्रिप्स की बोतल चौथे ही दिन हटा दी थी और अब वह गोली-दवाई मुंह से ही लेने लगी थी। सारी जानकारी देने के बाद जब डॉक्टर ने उसे यह सलाह दी कि वह चाहे तो अब मां को वापस घर ले जा सकती है, तो वह कुछ चिन्ता में पड़ गई। उसे चिन्तित देखकर उन्होंने अनायास ही पूछ लिया था, ‘‘क्या हुआ बहनजी, मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा क्या? ...भई, टायफायड जैसी बीमारी को ठीक होने में कुछ वक्त तो लगता ही है। आपको अगर तसल्ली न हुई हो और अस्पताल में रहना माफिक लगता हो तो रह लीजिये, आपका स्वागत है!’’ ‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है, डॉक्टर साहब! दरअसल मेरी अपनी ही कुछ परेशानियां हैं। खैर कोई बात नहीं....। आप जब ठीक समझें, डिस्चार्ज करवा दें। मैं व्यवस्था कर लूंगी।’’ कहकर कुछ क्षण के लिए वह अपने आप में खो गई थी, लेकिन जल्दी संभल भी गई। डॉक्टर बंसल सत्यवती को पहले से जानते थे और सूरज तो मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव होने के नाते उनसे अक्सर बाड़मेर आने पर मिलता ही रहता था। डॉक्टर उसके चेहरे पर आते-जाते भावों को गौर से देखते रहे। उन्हें अपनी ओर झांकते देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गई थी, पर चिन्ता अब भी अपनी जगह बरकरार थी। डॉक्टर को वह क्या बताती कि उसकी क्या परेशानी है। गांव में घर का माहौल उससे छुपा नहीं था और पति को बेटे-बहू के भरोसे छोड़कर उसके साथ चलने के लिए मां तैयार नहीं होगी, यह बात वह जानती थी। इस हालत में वह उसे कहां रखकर उसका इलाज पूरा करवाए। इसी चिन्ता और उधेड़बुन में वह डॉक्टर बंसल से सारी रिपोेर्ट्स और दवाइयों का पर्चा लिखवाकर उनके कक्ष से बाहर आ गई थी। वार्ड में वापस आते ही उसकी नजर वीरू पर पड़ी। वह मां के पलंग के पास गुमसुम-सा बैठा था। दूसरे मरीजों से मिलने वाले भी आ-जा रहे थे। वह पलंग के पास आकर सिरहाने खिड़की में रखा सामान और दवाइयां इकट्ठी करने लग गई। पीठ पीछे उसे लगा कि मां के पलंग के पास कोई और भी आया है। उसने मुड़कर देखा तो वीरू के सास-ससुर खड़े थे। उसने गर्दन झुकाकर उनका अभिवादन किया और वे भी अभिवादन का उत्तर देकर पलंग के पास रखी बैंच पर बैठ गये। मां को शायद दवाई के असर के कारण नींद आई हुई थी। उसे सोया हुआ देखकर उन्होंने भी ज्यादा पूछ-ताछ करना उचित नहीं समझा। वे वीरू से ही धीमे स्वर में बात करते रहे। सत्यवती को डॉक्टर के पर्चे के अनुसार कुछ और दवाइयां लेकर आनी थी। वह उनसे इजाजत लेकर बाहर आ गयी। अस्पताल के मुख्य दरवाजे के सामने ही दवाइयों की अनेक दुकानें थीं। अस्पताल और दवाइयों की दुकानों के बीच रेल्वे स्टेशन से लेकर कचहरी तक जाने वाली सड़क पर आजकल सब तरह के वाहनों का रेला-सा चलता रहता है। उसने दोनों ओर देखते हुए सावधानी से सड़क पार की और सामने खुली एक दुकान की सीढ़ियां चढ़ गयी। उसने दुकानदार को डॉक्टर की पर्ची सौंप दी। दुकानदार ने पर्ची देखते हुए धीरे-धीरे सारी दवाइयां लाकर काउंटर पर रख ली और फिर उनका बिल बनाने बैठ गया। सत्यवती ने दुकानदार को बिल के मुताबिक पैसे चुका दिये और दवाइयां अपने हाथ के बैग में रखकर वापस सीढ़ियां उतर आयी। जब वह वापस वार्ड में पहुंची तो उसने देखा वीरू अपने सास-ससुर से थोड़ी तैश में बात कर रहा था। उसे आता देखकर वीरू ने अपनी बात बीच में ही रोक ली। जब वह मां के पलंग के पास गयी तो बाबू धनसुखराज ने सत्यवती से ही मां के स्वास्थ्य के बारे में पूछ लिया, ‘‘कैसी तबियत है समधन जी की, कुछ इलाज-दवाई का असर हुआ या अभी वैसी ही हैं?’’ सत्यवती ने सार रूप में इतना ही बताया कि डॉक्टर ने अब वापस घर ले जाने की सलाह दी है। लेकिन वीरू से हुई बातचीत के आधार पर उन्होंने इसका अर्थ यही निकाला कि अब उनके बचने की उम्मीद बहुत कम है। वे निःश्वास छोड़ते हुए बोले, ‘‘हां, ईश्वर की इच्छा के आगे किसका क्या जोर! जब कोई कारी लगती ही न दीखे तो बूढ़े माईत की काया को ज्यादा कलपाने से क्या लाभ?’’ सत्यवती ने मन-ही-मन कहा, ‘हां, लाभ तो दो-चार बरस पहले चले जाने में ही था, लेकिन चली जाती तो औलाद और संसार का सुख कहां से देखती। इन वर्षों में वह भी अच्छी तरह देख लिया।’ पर वह प्रकट में कुछ नहीं बोली, सिर्फ उनके बनावटी अफसोस ओढ़े हुए चेहरों की ओर देखती रही। वे दोनों बैंच से उठकर खड़े हो चुके थे और शायद जाने की तैयारी में थे। उसने हाथ जोड़कर उन्हें विदा किया और एक नजर भाई की ओर देखकर वह थकी हुई-सी बैंच पर बैठ गयी। सवेरे से अस्पताल में इधर से उधर भाग-दौड़ करते-करते उसका शरीर और मन दोनों थक चुके थे। लेकिन अभी आराम करने की गुंजाइश कहां थी? वीरू अपने सास-ससुर के साथ ही शायद उन्हें विदा करने निकल गया था। मां अभी तक आंख बंद किये सो रही थी। कोई और पास न होने पर वह बैंच पर करवट के बल लेट गयी। लेटे हुए कब उसे झपकी आ गई, उसे खयाल ही नहीं रहा। शायद आधा-पौन घंटा मुश्किल से हुआ होगा। उसे अपने कंधे पर किसी के हाथ का दबाव महसूस हुआ तो उसकी आंख खुल गयी। पास में नर्स खड़ी थी और उससे इंजैक्शन मांग रही थी। उसने उठकर दवाइयों के डिब्बे से एक इंजैक्शन निकाला और नर्स को सुपुर्द कर दिया। नर्स इंजैक्शन लगाने की तैयारी में लग गई। उसने चारों ओर नजर घुमाई। मां वैसे ही सो रही थी, लेकिन वीरू का कहीं अता-पता नहीं था। नर्स इंजैक्शन लगाकर वापस लौट गई। इंजैक्शन लगने के कारण मां की आंख खुल गयी थी। वह मां के चेहरे की ओर देखकर मुस्कुराई, फिर पूछा, ‘‘क्यों मां, अब तबियत ठीक है न?’’ ‘‘ठीक हूं बेटा...., अब तो जी में आराम है। ....तू अकेली ही है? ...और कोई नहीं आया?’’ मां ने उसे अकेले खड़ा देखकर पूछा। ‘‘अकेली क्यों, इतनी देर वीरू यहीं था। ...अभी गया ही है। बता, तू कुछ खाएगी? ...मैं कुछ फल लेकर आई हूं।’’ वह मां से पूछ ही रही थी। तभी उसे शेरजी का बेटा किशन टिफिन हाथ में लिये उन्हीं की ओर आता हुआ दीख गया। किशन को देखकर उसके चेहरे पर अनायास मुस्कुराहट तैर गई। वह पिछले पांच रोज से इसी तरह सुबह का नाश्ता और दोनों वक्त का खाना घर से तैयार करवाकर ले आता था। पास आने पर किशन ने टिफिन सत्यवती को सौंप दिया और बैंच पर बैठ गया। सत्यवती ने किशन का लाया हुआ टिफिन खोलकर मां की ओर बढ़ा दिया, ‘‘ले यह तेरा किशन-कन्हैया तेरे लिए माखन ले आया। इसी से तो तू ठीक हुई है। ले खा ले!’’ ‘‘अरे इतना कहां खा पाऊंगी बेटा, ....बस थोड़ी-सी खिचड़ी और दूध मिलाकर दे दे। ....वाकई किशन की मां बहुत कष्ट उठा रही है, हमारे लिए। रामजी उसे सोरी-सुखी रखे।’’ मां किशन की ओर देखते हुए कृतज्ञता से बोल उठी। किशन उसी तरह मुस्कुराते हुए दोनों मां-बेटी की ओर देखता रहा। सत्यवती ने टिफिन में से कुछ खिचड़ी-दूध अपने पास रखी प्लेट में परोसकर मां की ओर बढ़ा दी, ‘‘ले इतनी तो खा ही ले, आज कुछ खाने का मन हुआ है...।’’ ‘‘बस बेटी, अब और नहीं लूंगी। ...बाकी खिचड़ी और दूध तू ले ले। तूने भी अब तक कुछ खाया नहीं होगा।’’ कहकर मां ने प्लेट अपने आगे रख ली और वह धीरे-धीरे खाने लगी। सत्यवती के लिए टिफिन में अलग से सब्जी और रोटी भी थी। वह नाश्ता करते हुए किशन से बातचीत में लग गई।
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3.
मां-बेटी को इलाज के लिए शहर गये आज चौथा दिन बीत गया था। बाबू रामनारायण के पास इस बात की कोई पुख्ता जानकारी नहीं थी कि उनकी पत्नी गीता ठीक होकर वापस घर लौट आएगी। पिछले तीन दिनों से वे जब भी शाम को शहर से लौटकर आये अपने बेटे से मां का हालचाल पूछते वह झुंझलाकर यही जवाब देता ‘मुझसे पूछकर ले गई थी इलाज कराने शहर, ...आप भी तो घर में ही थे। यहां अच्छा-खासा चल रहा था वैद्यजी का इलाज। ...दुनिया जानती है, निकाले की बीमारी ठीक होने में अपना वक्त लेती है, लेकिन नहीं... अपनी होशियारी दिखाने का और हमको नीचा दिखाने का एक और बहाना जो मिल गया था... वह ठीक हो या न हो, इससे किसको मतलब है? बस दुनिया को यह जरूर दिखा देना है कि सिर्फ वही उसका खयाल रखती है!’ वीरू की यह झुंझलाहट उन्हें नितान्त बेमानी-सी लगी थी। लेकिन क्या कहते। जानते थे, उससे बहस करना बेकार है। किसी और से तो पूछते भी क्या? आज शाम से ही उनका मन कुछ उचाट-सा हो रहा था। बेटा उन पर अपना गुस्सा उतारकर बाहर निकल गया था और बहू अपने बच्चे को दुलारने में लगी थी। दो-बार उन्होेंने बहू से चाय बनाने को कहा, लेकिन उसने कोई खास तवज्जो नहीं दी। पहली बार कहा, तब वह बच्चे को कुछ खिला रही थी। देर हो जाने पर सोचा, बच्चे की वजह से भूल गई होगी। दुबारा याद दिलाने के लिए फिर रसोई के आगे जाकर बोल आए, लेकिन थोड़ी देर बाद देखा कि वह तो बच्चे को गोद में लिये बाहर जा रही थी। उन्हें बहुत बुरा लगा। बेहद अनमने और उदास-से हो उठे थे वे। आधे घंटे बाद बहू चाय बनाकर बेशक दे गयी, लेकिन वह उन्हें इतनी बेस्वाद लगी कि दो-चार घूंट पीकर बाकी कप में ही छोड़ दी। रात के खाने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी, लेकिन अपना नित्य-कर्म पूरा करने के लिए बहू जब थाली पुरस कर ले आई तो अन्न का अपमान करना उन्हें ठीक न लगा। पहली बार में जितना पुरसकर लाई थी, उतना खाकर ही हाथ धो लिये। और नहीं मांगा कुछ। वे उसी अनमनी-सी दशा में अपनी चारपाई पर लेट गये। बेटा कब बाहर से लौटा और कब खा-पीकर अपने परिवार के साथ बिलम गया, उन्हें कुछ खबर नहीं रही। बैठक की बत्ती बेशक जल रही थी, लेकिन उन्हें सोया जानकर शायद वही आकर बुझा गया होगा, इसका भी उन्हें कोई इल्म नहीं रहा। शायद उन्हें झपकी आ गई और चेतना किन्हीं आल-जंजाल में भटक गयी। हल्के धुंधलके में वे देख रहे थे कि घर मंे उनके और गीता के सिवाय कोई नहीं है। बीमारी से असहाय वह घर के खुले आंगन में बीचो-बीच चारपाई पर लेटी है और वे उसकी तीमारदारी में बदहवास। उन्हें अचानक आसमान से कुछ गिद्ध आंगन मंे उतरते हुए दिखाई दिये और वे एकाएक घबरा-से उठे थे। उन्हें उड़ाने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। बेतहाशा खाली हाथ-पांव मारने लगे, लेकिन गिद्ध हर क्षण जैसे गीता की चारपाई की ओर झपटने को उतारू बैठे थे। चारपाई पर मंडराते गिद्धों को भगाने के लिए ज्यों ही उन्होंने अपने हाथों को उछालना शुरू किया, तो कब उनका दायां हाथ दीवार से जा टकराया, उन्हें खयाल ही नहीं रहा। अचानक आंख खुली और वे हड़बड़ाए-से चारपाई पर उठकर बैठ गये। आधी रात के गहन अंधेरे में जब उन्होंने नजरें गड़कर देखने का प्रयत्न किया तो आस-पास कुछ भी देख पाना असंभव था। रात के अंधेरे और घर के विवर्ण कोनों में व्याप्त उस दुःस्वप्न का असर उनकी बची-खुची चेतना में अजीब-सी उद्विग्नता बढ़ा रहा था। उनके कानों में अभी तक दूर जाते गिद्धों की आवाज रह-रहकर गूंज रही थी। गांव के किसी हिस्से में कुत्तों के भौंकने और रोने की आवाज इस सन्नाटे को और भी भयावह बना रही थी। अब उनकी आंखों में नींद के लिए कोई जगह नहीं बची थी। वे देर तक अपने आपको टटोलते रहे। इन चार दिनों में उन्होंने अपने साथ कोई रियायत नहीं बरती थी। वे फिर धीरे-धीरे अपने ही अतीत में डूब गये। कुछ बातें उन्हें अपने अतीत के सफों पर अब साफ दीख रही थीं। उन्हें अपनी चूक और कमजोरी को कुबूल कर लेने में अब कोई संकोच नहीं रह गया था। सब कुछ अतीत और आगत के अंधेरे में डूबा होते हुए भी इन चार दिनों में जीवन के वे सारे प्रसंग, अनुभव, उनकी कांपती काया और बुझती आंखों के हल्के उजास में साफ दीख रहे थे - अपने अवचेतन और अंतस में छटपटाती बेतरतीब छवियों की तरह। अपने जन्म से लेकर जीवन-यात्रा के हरेक मोड़ पर घटित वे सारी घटनाएं जैसे उनके अस्तित्व और आचरण का ब्यौरा पूछ रही हों। अपने मूल गांव पीलीबंगा में उन्हें जो जीवन नसीब हुआ, उसे कुबूल करने या उस जीवन-शैली को बदलने में उनकी क्या भूमिका हो सकती थी भला? न कभी उस जगह पांव टिकाकर रहना संभव हो पाया और न अपनी जमीन का मोह ही छूट पाया। घर-परिवार के जो लोग अपनी जगह पर जमे रहे, उन सबके आज अपने जमे-जमाये घर हैं, जमीन-जायदाद है और अपनी तरह की बंधी रिश्ते-नातेदारियां। पिछले सालों से एक डूबती-सी इच्छा किसी तरह उनके अंतस में जी रही थी कि सेवानिवृत्ति के बाद शायद अपनी जन्म-भूमि का हवा-पानी और गंध फिर से नसीब हो जाये। लेकिन औलाद की अपनी सहूलियत और जिद के आगे उनकी इच्छा का भला क्या मान-महत्व होता? बाबू रामनारायण को अपने बचपन के वे दिन अब भी याद हैं, जब वे अपने पिता बद्रीराम के साथ चौमासे की शुरूआत के दिनों में यजमानों के घरों में कुछ घरेलू मरम्मत और खेती-किसानी में काम आने वाले उपकरणों हल, हाल, चऊ, जुआ, पंजाली या बेई-चौसींगी ठीक करने का काम करने जाते थे। उसके पिता पूरे गांव में लकड़ी के काम के अच्छे कारीगर थे। वह पांच-छह बरस की उम्र से ही पिता के काम में हाथ बंटाने लग गया था। यों फरसी-कुल्हाड़ी या कसी के हत्थे-डांडे तो वही ठीक कर देता, लेकिन पिता जानते थे कि आने वाले दिनों में बढ़ईगीरी के इस काम में बरकत की वैसी गुंजाइश शायद न रहे। मशीनों और नये औजारों ने उनकी आंखों के सामने हजारों किसानों और कारीगरों को दिहाड़ी मजदूर बनने पर मजबूर कर दिया था। उनके हलके में नहर का पानी आने के बाद खेती-बाड़ी का पुश्तैनी तरीका और पुराने औजार-उपकरण ज्यादा कारगर नहीं रह गये थे। छोटी जमीनों वाले किसान अपने-अपने खेत बेच-बांटकर इधर-उधर किसी नये काम की तलाश में निकल गये थे। कइयों ने जमीन और जानवर बेचकर ऊंट-गाड़ियां खरीद लीं और नहर पर मजदूरी के काम में लग गये। जो छोटे किसान थे, उन्होंने जमीन बेचकर बड़े किसानों के यहां खेत-मजदूरी का काम संभाल लिया। इन हालात में उसके पिता बद्रीराम भी अपने बच्चों के लिए किसी नये काम-काज की तजवीज में लगे हुए थे। दो बड़े बेटों को तो उन्होंने अपने ससुराल हनुमानगढ़ भेज दिया और खुद अपना पुश्तैनी धंधा संभाले रहे। इन बेटों से बड़ी एक बेटी थी रुख्मां, जो ब्याह के लायक हुई तब तक घर में ही अपनी मां के कामों में हाथ बंटाती रही। न पिता पढ़े-लिखे थे और न मां। बेटियों को पढ़ाने का रिवाज तो कहीं ढूंढे़ ही मिलता। खुद पिता को तो इस बात की सूझ नहीं पड़ी, लेकिन लड़कों ने कुछ काम-चलाऊ दो अक्षर जरूर सीख लिये। बड़े वाले दोनों बेटे हनुमानगढ़ में अपने ननिहाल में ही रहे, जहां नानाजी की बाजार में अच्छी साख थी। उन्होंने लछमन और नेमा को एक लकड़ी के कारखाने में काम सीखने पर लगवा दिया, जहां वे काम सीखने के साथ कारखाने के मुनीमजी से कुछ लिखना-पढ़ना भी सीख गये। रामू और हरि अभी छोटे थे, इसलिए वे घर में ही रहा करते। पिता की देखा-देखी वे लकड़ी के गुटकों से खिलौने बनाते और लकड़ी पर रंदा-बसूला चलाते-चलाते ही आगे चलकर पिता के काम में हाथ बंटाने लायक हो गये। एक दिन गांव की स्कूल के हैड-मास्टरजी ने यों ही बद्रीराम से पूछ लिया कि यह बच्चा तो पढ़ने लायक दीखता है, वे उसे स्कूल में भर्ती क्यों नहीं करा देते? बच्चे में पढ़ने-सीखने की लगन है, सो जल्दी ही पहली पास कर दूसरी में आ जाएगा। उन्हें हैडमास्टरजी की बात पसंद आई और दूसरे ही दिन उसे मोहल्ले के दूसरे लड़कों के साथ स्कूल भेज दिया। स्कूल में भर्ती करने के लिए उसका नाम पूछा गया तो वह सिर्फ रामू बताकर चुप हो गया, लेकिन शहर में पले-बढ़े अध्यापक शिवनारायण को उसके पिता बद्रीराम की तर्ज पर बेटे का नाम रामराम या रामूराम लिखना थोड़ा अटपटा-सा लगा, इसलिए उन्होंने अपनी ही तर्ज पर उसका नाम लिख लिया रामनारायण। घर-परिवार में हालांकि बाद के वर्षों तक वह रामू या रामूराम ही बना रहा, लेकिन स्कूल के रजिस्टर में रामनारायण दर्ज हो जाने के कारण बाद में बाहर भी धीरे-धीरे यही नाम प्रचलित हो गया। दो-तीन वर्षों में रामनारायण गांव के दूसरे बच्चों के साथ पढ़ाई में ऐसा मगन हुआ कि फिर और सब-कुछ भूल गया। ज्यों ज्यों वह अगली कक्षा में चढ़ता गया, पिता के पुश्तैनी काम से उसकी दूरी बढ़ती गई। इस अरसे में घर में सिर्फ एक उत्सव हुआ और वह था बड़ी बहन रुख्मां का ब्याह। बारात महाजन गांव से आयी थी। रामनारायण उसी साल पांचवां दर्जा पास कर छठवें में आया था। उसके मन में एक हूक-सी थी कि भाइयों की तरह बहन भी कुछ अक्षर सीख लेती तो कितना अच्छा रहता। उसने अपनी बहन को घर में ही गिनती के आंकड़े और अक्षर लिखने-पढ़ने सिखा दिये, जिसका इतना असर जरूर हुआ कि रुख्मां एक-एक अक्षर जोड़कर पत्र अवश्य पढ़ लेती। छोटे-मोटे घरेलू हिसाब भी जरूरत पड़ने पर कर लेती। शादी होने के बाद वह अपने ससुराल चली गई और भाई द्वारा सिखाया गया वह अक्षर-ज्ञान वहीं तक सीमित होकर रह गया, लेकिन उसका अंतस सदा खुला रहा।
गांव की स्कूल से आठवां दर्जा पास करने के बाद रामनारायण अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखने हनुमानगढ़ आ गया, जहां उसके दो बड़े भाई लछमनराम और नेमाराम जंक्शन इलाके में नया घर बनवाकर रहते थे। लछमन की साल भर पहले ही शादी हुई थी और नेमा अभी कुंवारा था। शादी के डेढ़ साल बाद बड़ा भाई एक बेटे का बाप बन गया। उसे लगा कि अब गृहस्थी की जिम्मेदारियां तो बढ़ेंगी ही, इसलिए उसने नौकरी के साथ घर में लकड़ी का अपना निजी काम भी शुरू कर दिया था। शाम को कारखाने से आने के बाद दोनों भाई घर में लिया हुआ काम निबटा देते। रामनारायण के शहर आने से उन्हें एक सुविधा यह भी हो गई कि यदि उनके पास दिन में भी कोई काम लेकर आ जाता तो स्कूल से आने के बाद रामनारायण उनका नाम- पता और काम का ब्यौरा लिख कर रख लेता और शाम को बड़े भाइयों को बता देता। वह अमूमन दोपहर के बाद घर में ही रहा करता। उसके घर में रहने पर बड़े भाई ने काम करने वाले लड़कों को भी दोपहर बाद बुलाना शुरू कर दिया था। इस बहाने दुकान भी खुली रहती और काम भी चलता रहता। खुद उसने भी अपने बचपन के अभ्यास को दोहराते हुए फिर से औजार संभाल लिये थे। यों कारीगर के बेटे से अपना पुश्तैनी काम शुरू करने में क्या कठिनाई होती। घर के काम के साथ एक बड़ी मुश्किल यह होती है कि उसका कभी निवेड़ा नहीं आता और न काम के घंटे ही बंधे रह सकते। रामनारायण को इस काम के साथ अपनी पढ़ाई की भी चिन्ता थी। स्कूल में उसका एक हितैषी साथी था - गुरमीत, जिसके पिता फर्टिलाइजर कार्पोरेशन के शाखा कार्यालय में हैड-बाबू हुआ करते थे। गुरमीत के पिता सरदार अमरजीतसिंह एक दयालू और नेक प्रकृति के इन्सान थे। रामनारायण अपने दोस्त गुरमीत के साथ दो-तीन बार उसके घर भी जा चुका था। सरदार अमरजीतसिंह उसे अपने बेटे जैसा ही स्नेह देते थे। दसवें दर्जे तक की पढ़ाई के इन दो वर्षों में रामनारायण और गुरमीत उस घर में सगे भाइयों की तरह घुल-मिल गये थे। दोनों एक-दूसरे की सुविधा का पूरा ध्यान रखते। जब वे ग्यारहवीं की परीक्षा में बैठने वाले थे, उन दिनों पीलीबंगा से लछमन और नेमा के पास समाचार आया कि उनके पिता सख्त बीमार हैं। समाचार मिलते ही दोनों भाई रामनारायण को वहां के घर की जिम्मेदारी सौंपकर तुरंत पीलीबंगा चले गये। रामनारायण को चौथे दिन अपने गांव के एक आदमी से खबर मिली कि उसके पिता नहीं रहे। उसे बेहद दुःख हुआ। वह घर के ताला लगाकर उसी शाम हनुमानगढ़ से पीलीबंगा पहुंच गया। उसकी परीक्षा के बीच सिर्फ पांच दिन का फासला था। परीक्षा के मौके पर हुए इस पारिवारिक हादसे का उसकी तैयारी पर विपरीत पड़ना ही था, फिर भी परीक्षा के कारण उसके घरवालों ने उसे समझा-बुझाकर दो दिन बाद ही नेमा के साथ वापस हनुमानगढ़ भेज दिया। नेमा कुछ सामान लेकर लौट गया और रामनारायण को अकेले ही वहां रुकना पड़ा। गुरमीत ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि वह भाई-भोजाई के आने तक उन्हीं के घर चल कर रहे, लेकिन रामनारायण ने घर सूना छोड़कर जाना ठीक नहीं समझा। गुरमीत की मां उसके लिए सुबह-शाम खाना बनाकर भिजवा देती। सरदार अमरजीतसिंह ने भी एक दिन घर आकर उसका हौसला बढ़ाया। गुरमीत और रामनारायण दोनों वाणिज्य के विद्यार्थी थे। शुरू में तो दोनों की तैयारी एक-जैसी ही थी, लेकिन परीक्षा के समय पिता की मृत्यु के कारण उसके मानस पर जरूर इसका उल्टा असर पड़ा। गुरमीत ने अपनी ओर से उसकी खूब मदद रखी, लेकिन परीक्षा होने के बाद जब रिजल्ट आया तो पता लगा कि गुरमीत तो पहले दर्जे से पास हुआ, लेकिन रामनारायण बड़ी मुश्किल से दूसरा दर्जा हासिल कर पाया था। *
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