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आर्मीनिया की गुफा - 2 '' एक ही जिस्म पर कितने सारे नाम । अरे डॉ ये तो चाकू से भी नहीं निकलते। जितना भी इन्हें खुरचती हूँ, लगता है गहरे धंसते जा रहे हैं। देखोदेखो, कितना गहरा है ? चाकू हड्डियों से टकरा रहा है...ठक-ठक... डॉ मांस तो नहीं , पर क्या हड्डियाँ मेरी हैं? '' मेरी आवाज टूट कर बिखरने लगी । उसने आगे आकर मेरा कुर्ता नीचे कर दिया और एक सफेद चादर से मेरी देह ढँक दी। '' कोई नहीं ढँकता फिर तुम क्यों ढँक रहे हो, आओ देखो मुझे कितने दिन बचोगे तुम अपनी भूख से एक और नाम नहीं लिखोगे तुम? उठाओ मुझे...बाजार में टाँग दो...रोंद डालो....सडक़ों पर...मैं अपने जिस्म से तंग हूँ मुझे छुटकारा चाहिये...तुमसे...सबसे...कहाँ जाँऊ मैं...बोलो मैं कहाँ जाँऊ? अरे...कोई है...कोई है, मुझे बाहर निकालो। मेंरा दम घुटता है यहाँ कितना काला पानी है, तुमने देखा? '' जाने किस आवेश में काँपती मैं उठी और चादर खींचकर परे फेंक दी और रोते-रोते चिल्लाने लगी। 'उसने मेरा जिस्म पकाड क़र झिंझोड दिया शायद वह नर्स थी, जो भीतर से आयी और मेरी बाँह में कुछ घोंप दिया। '' आपको एक बात याद है? '' उसने झिझकते हुए पूछा। कई दिनों बाद , वैसे पिछले दिनों हुआ सिर्फ यह था कि मेरी खराब हालत को देखते फिर कई दिन मुझे डॉक्टर के विशेष चैम्बर ही में रखा गया था। जख्म खुल गए थे और रिसते रहे थे। वह बडी सावधानी से उन पर मलहम लगाता, पट्टी करता । जहाँ के जख्म उपर से सूखे दिखते वहाँ भी मवाद भरा रहता, दबा-दबा कर वह बाहर निकालता तो मुझे बडी राहत मिलती। वे सब, परिवार के लोग, सुबह भी आते शाम भी...जब भी आते मैं सोने का प्रयत्न करती या चुपचाप खाली छत को ताकती रहती। उनके और मेरे बीच संवाद के सारे पुल टूट गए थे और हम सब पहचाने खंडहरों के मलबे पर खडे एक दूसरे को अजनबी आँखों से देखा करते। वे आपस में आँखों के ईशारों में बातें करते या फुसफुसाकर। उनकी देह अपने खास कोड में उनकी बातें मुझ तक पहुँचाती और मैं पाती मवाद जितना निकलता है उतना ही फिर भरने लगता है। डॉक्टर समझ गए और फिर उन्होंने उन सब का आना बेहद कम करा दिया। वह मेरी उस खास मन:स्थिति में होने का इंतजार कर रहा था, जब वह मुझे फिर अपने सवालों के कटघरे में खडा करता और अब मैं उसके सवालों के घेरे में थी। ''
क्या?
'' मैंने उसकी ओर
देखना चाहा पर वह दिखा नहीं। ''और फिर मैं रो पडी।'' उसने उस दिन और कुछ नहीं पूछा। '' आपका चैम्बर डॉ साब मुझे आर्मीनिया की गुफा सरीखा लगता है। बहुत से लोग आते हैं यहाँ, जो कहीं नहीं कहा जा सका वह यहाँ आकर कहते हैं। तुम उसे पढते-पढते ऊब नहीं जाते? '' मैंने अगले दिन कहा तो वह मुस्कुरा पडा- ''आप
अपने बिस्तर पर लेट जाईये।'' 'मैं बिस्तर पर जाकर लेट जाती हूँ। वह उठकर मेरे सिर के उपर का उजाला कम कर देता है और मेरे सिरहाने पीछे आ खडा होता है। ''
ये आर्मीनिया की गुफा क्या
है? ''
पूछा उसने। मैंनें उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। ''
तुम्हारी दीवारें वे सारे
अक्षर सोख लेती होंगी। फिर जब सब चले जाते होंगे तुम भी तब वे सारे
अक्षर दीवारों से उतर कर सडक़ों पर चलने लगते होंगे। उनमें अद्भुत
जिजीविषा होती है डॉक्टर । वे स्थान बदलते हैं व्यक्ति पर मरते नहीं।
उन्हें दबाया-कुचला-मसला जा सकता है पर उन्हें मारा नहीं जा सकता। सडक़ पर
भी न जाने कितने बूटों टायरों के बीच व पिसते रहते हैं। कोई उन्हें बुहार
कर सडक़ के किनारे भी फेंक देता होगा। बहुत देर वे वहीं कुचले-मसले पडे
रहते होंगे - फिर धीरे से उठ कर वापस लोगों के सीनों में समा जाते होंगे।'' उसकी तरफ से कोई आवाज नहीं आई तो मैंने उसकी दिशा में देखा - ''अब
भी नहीं समझे।'' ''वे अजब-से धूल और
धुंध से भरे दिन थे।जब
समय की शाख से गुजरे हुए दिन सूखे पत्तों की तरह पैरों के नीचे पडते और
चरमरा कर चीखने लगते।
सोचती
हूँ
, जिसे हम बीता
हुआ समझते हैं , क्या सचमुच बीता हुआ होता है?
'' ''सारी तस्वीर मेरे सामने साफ हो गई थी पर मैंने आगे बढक़र किसी को छूने की कोशिश नहीं की। कोई चाह नहीं थी मेरे अन्दर। मैंने उन्हें वैसे ही रहने दिया।'' ''आज सोचती
हूँ,
क्या कुछ भी नए सिरे से शुरू किया जा सकता है?
पाप और पुण्य, सारे
किए-अनकिए, सारी स्मृतियों की गठरी
बाँध
हम कहीं छोड
आएं
और समय की नदी में नहा वापस सब कुछ दुबारा शुरू करें।
क्या सब कुछ
दुबारा शुरू किया जा सकता है?
दुबारा, जबकि हम हैं वहीं
के वहीं।
वही सब कुछ हमारे
पास फिर से है और हम वही एक खेल खेलना जानते हैं।
क्या हम ऐसे
खिलाडी नहीं जिसे जब-जब ताश के पत्ते दिये गए उसने एक ही तरह से खेल खेला
है और एक ही तरह से हारा है।
मुझे नहीं मालूम
कि समय का कोई अंतिम सिरा होता है या नहीं,
जहाँ
से दुबारा मुडा जा सके।
किन्तु हमारा एक
सिरा अवश्य ऐसा होता है,
जहाँ
से मुडते हैं हम और वापस
पहुँचते
हैं वहीं
। मैं अब वहाँ नहीं जाती मेरा उपचार बंद हो चुका । सिर्फ कभी-कभी जब मैं किसी काम से घर से बाहर निकलती उस गली से होती हुई जाती, उस क्लिनिक की तरफ से , जहाँ मेरा उपचार हुआ करता था और बकौल डॉक्टर जिसे मैं आर्मीनिया की गुफा कहती थी। सोचती हूँ तो हँसी आती है। हम सबसे ज्यादा ठीक तब होते हैं, जब हम पागल होते हैं। आप सच के जितना निकट जाएंगे होश खोते जाएंगे। इतनी सामर्थ्य नहीं होती किसी की छाती में कि इतना सच जी सके। जिनकी छातियों में होती है उनकी छातियाँ भेद दी जाती हैं। शायद इसीलिये जब भी हम सच के निकट होते हैं, पीछे वाले हमें वापस खींच लेते हैं। वह एक उचाट और सूनी दोपहर थी जब मैंने तय किया और घर से निकल पडी।अधिक से अधिक क्या होगा, मैं लौट आऊंगी। इतने बंद दरवाजे खटखटाए हैं, एक और सही ।जिस समय मैं पहुँची मैं जानती थी, बंद होगा। सिर्फ नर्स अपने केबिन में बैठी कोई पत्रिका पढ रही थी।सामान्य औपाचारिकता के बाद मैंने अन्दर जाने की इजाजत माँगी। उसने साफ इनकार कर दिया। '' इस वक्त वे किसी से भी नहीं मिलते चाहे कितना भी जरूरी हो।'' बहस बेकार लगी। कहा, '' कोई बात नहीं , मैं फिर आ जाउंगी।'' मैं उठी और बाहर आ गई।बाहर आकर गाडी स्टार्ट की, कुछ दूर गई, कार मोड क़र गली में दूर खडी क़ी, फिर वहाँ से पैदल आई। आज मैं लौट कर जाने के लिये तो आई ही नहीं थी। आज तो फैसला ही होना था, हाँ या नहीं। नर्स के केबिन पर पर्दा झूल रहा था। मैं पीछे से आई और दबे पांव तेज चलती उसी केबिन में घुस गई, जिसमें मैं इंतजार किया करती थी। कोई नहीं था। नीम अँधेरा। एसी चलने की हल्की-सी आवाज। मैंने अंदर से सिटकनी लगा दी। अब नर्स की पहुँच से बहुत दूर थी मैं...आगे बढी ही थी दबे पांव कि एक आवाज ने पैरों को बाँध लिया - ''
मैं तुम्हारे प्रश्नों का
उत्तर देने के लिये बाध्य नहीं हूँ। रोज मेरे किये की सफाई मत माँगो। कौन
हो तुम?
मेरे पीछे क्यों पडे हो?
सुनो फिर भी
सुनो...शायद तुम्हारे पास हो कोई रास्ता जो मुझे निकाल सके। सुनो,
क्या मैं बहुत दूर आ
गया हूँ?
क्या यहाँ से लौटा नहीं जा
सकता? '' एक कडवी हँसी के साथ खामोशी। मैने आवाज पहचान ली। वही थी, पर बिखरी-बिखरी-सी। कुछ भी पहले जैसा नहीं था। आवाज ख़ोखली मुर्दा देर्ह - नि:सत्व घिसटती हुई। ''
मैं नहीं बनना चाहता था
आततायी। पर पता नहीं मुझे किसने मुझे इतिहास की कब्र के सबसे ऊँचे चबूतरे
पर खडा कर दिया और मेरे हाथ में ये छडी दे दी। और मैं हाँकने लगा। भीड
को। विजेता बनने का सुख बहुत बडा होता है - बहुत बडा।'' हाँफने की लगातार आवाज। मैं दम साधे खडी रही। '' मैं सच, नहीं बनना चाहता था आततायी। मुझसे सब छूट गया और फिर भी मैं दौड रहा था।'' फिर उसके जोर से हँसने की आवाज। मैं उसी तरह खडी रही। फिर काफी देर आवाज नहीं आई, सो तो नहीं गया थक कर? मैंने सोचा दरवाजा ख़ोल कर देखूँ। जैसे ही हाथ बढाया फिर आवाज आई- '' उसे हाँ, उसे छोड दिया मैंने । पागल औरत थी वह कैसी नजरों से देखती थी वह मुझे। उसे लगता होगा, मैं अलग हूँ उन सबसे, जिनकी बाबत वो मुझे बताया करती थी। बेवकूफ औरतें उन्हें क्या पता? उन्माद, आनंद , मजा सब उन्हीं से है। कोई किसी से अलग नहीं होता।हम सब एक हैं।'' हा हा हा। हँसने की फिर आवाज, हैन्डिल पर हाथ जमाए मैं चुप खडी थी। ''
? '' हँसते-हँसते वह आवाज रूदन में बदल गई। मैंने दरवाजा अब भी नहीं खोला। सिर्फ रूदन सुनती रही। जो जाने कहाँ से आ रहा था-एकदम ठंडा रूदन। फिर धीरे धीरे रूदन भी शांत हो गया। मैंने दरवाजे को अपनी तरफ खींचा तो वह खुल गया..बेआवाज...मैने जरा सी दरार में झाँका वही कमरा वही बिस्तर...वही मध्दिम-सी रोशनी....इस बार वह खुद था। उसी बिस्तर पर लेटा। उसके सिर के उपर घडी लटक रही है। और वह हवा में दूर कहीं देख रहा है। उसका पूरा चेहरा दिखा नहीं, चेहरे का एक हिस्सा उस रोशनी में। अजनबी हिस्सा था वह , जिससे मेरी जरा भी पहचान नहीं थी। वह भी छिपा था कहीं उसके अंदर और आज बाहर निकल आया था। मैंने आहिस्ता से दरवाजा बंद कर दिया और वापस लौटी। जैसे ही मैंने अपनी तरफ की सिटकनी खोल बाहर कदम रखा उसे दरवाजे पर खडा देख स्तब्ध रह गई। फिर खुद को सँभला और दो कदम आगे बढक़र उसके निकट आई ''
आय एम सॉरी। पर आज जरूरी था
मिलना,
मेरे अपने लिये। मैंने आँखे
झुकाए हुए ही कहा।''
उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने आँखे उठाकर उसे देखा । पत्थर-सा भाव हीन
चेहरा । वह हँस दी । मानो कह रही हो क्या हो सकता है, इसके सिवा, जो हो रहा है। फिर उसकी हँसी गायब हो गई और उसकी आँखे खाली हो गईं। उसके चेहरे पर कुछ नहीं था। बिजली की तेजी से मेरे अन्दर कुछ कौंधा- ''
तुम यहाँ क्या कर रही हो
,
अपनी बारी की प्रतीक्षा?
'' उसने कुछ कहा नहीं। मेरी बगल से निकली , अंदर घुसी और दरवाजा बंद हो गया। क्या कुछ नहीं हो सकता? क्या बहुत देर हो चुकी है? मैं चुपचाप लौटने लगी। |
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