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एक नदी ठिठकी सी - 2 एक रात न उसका पेन्टिंग में मन लगा ब्रश के एक दो स्ट्रोक्स लगा कर उठ गई, न ही नॉवेल में कोई थ्रिल लगा, टी वी के भी सारे चैनल बदल डाले कहीं मन न लगा। घबरा कर छत पर आ कर आकाशगंगा देखने लगी , सफेद दूधिया घनेरी निहारिका। हर भाषा में इस अद्भुत दूधिया लहर का कोई न कोई नाम है, कहकशाँ, मिल्की वे या गैलेक्सी यानि बरसों से मानव इससे आकर्षित रहा है। तभी फोन बजा। ओह! लगता है कल का ऑफ गया, वह तो लतिका के साथ कुम्भलगढ क़े किले को देखने जाने वाली थी । कोई भी लोकल स्टाफ न आए तो केतकी को पकडो, जिसकी न गृहस्थी न रोज बीमार पडते बच्चे। ''
हलो '' वह पार्टी नहीं कुछ अच्छे सुलझे लोगों की महफिल थी, न कोई औपचारिकता, न कोई फालतू ताम-झाम न बैरों अर्दलियों की भीड। सब लोग घेरा बनाए बैठे थे। सामने ही बारबेक्यू स्नैक्स का इंतजाम था। नवम्बर के मीठी गुलाबी ठण्ड के दिन थे। पार्थ का ये लॉन उसकी सुरूचि का परिचय दे रहा था, सफेद, हल्के जामुनी, पीले, मरून क्रिसेन्थेमम जी खोल कर खिले थे। बीचों-बीच अलाव का इंतजाम था। वह भी लतिका के साथ उन लोगों में शामिल हो गई। कुछ चेहरे जाने पहचाने थे कुछ अनजान, परिचय हुआ। लेकिन बहुत आग्रह से आमंत्रित करने वाले मेजबान नदारद थे। उसकी आँखों से लतिका ने वही प्रश्न उठा कर साथ बैठे लोगों से पूछ लिया। ''
वेयर इज द होस्ट
?
'' बात फिर क्राइम से शुरू होकर राजनीति फिर फिल्मों से होती हुई संगीत पर आ टिकी। इतने में पार्थ आ गए, उसे देख सीधे वहीं चले आए। वर्दी और पीक कैप में पार्थ को पहली बार देख रही थी। मन कुछ अजानी सी लय में धडक़ने लगा। '' वॅलकम केतकी, बेहद अच्छा लगा तुम्हें यहाँ देखकर। '' पार्थ जिस तरह एकदम पास खडे होकर कोमल स्वरों में बोल रहे थे तो उसकी चेतना कहीं मुंदती जा रही थी। लतिका न बोल पडती तो वह यूं ही हतप्रभ खडी रहती। ''
कहाँ थे महाशय
?
हमें बुलाकर खुद गायब !
'' कह कर लतिका गायब हो गई, वहाँ अलाव के पास संगीत की महफिल जुड ग़ई थी। लतिका यहाँ शासकीय कन्या महाविद्यालय में फाइन आर्टस की हेड है। मस्त-बेलौस और किसी बंधन को न मानने वाली एकदम सनकी है इसीलिए कलाकार है और अविवाहित है। ''हम भी वहीं चलें। पार्थ ने कहा। '' वहाँ सहगल दंपत्ति जगजीत-चित्रा की एक डुएट गज़ल गा रहे थे- ''
मंजिल न दे चराग
न दे हौसला तो दे पार्थ ने मुस्कुरा कर उसे देखा, पार्थ की मुस्कान की प्रतिक्रिया को ताडने के लिए लतिका उसे ही देख रही थी, वह उपेक्षित कर गई पार्थ की मुस्कान। डिनर सर्व होते - होते ग्यारह बज गए, पार्थ कपडे बदल कर अर्दली को इन्सट्रक्शन्स दे रहे थे। चूडीदार कुर्ते-पायजामे में एकदम बंगाल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। बडी बडी सम्मोहक आँखे, चौडी पेशानी । ''
मैं कुछ मदद करूं?
'' केतकी ने अन्दर आ
कर पूछा । केतकी मना करती रही लेकिन सुस्वादु भोजन के बाद उसे गाना पडा। उसने फरीदा खानम की सुप्रसिध्द गज़ल गाई- ''आज जाने की जिद ना
करो खूब दाद मिली केतकी को। बहुत दिनों बाद ये गज़ल गाई थी। निशीथ को पसंद थी। मन भर आया केतकी का। आज बात बात पर कमजोर क्यों हो रही है वह। पार्थ ने मन का कोई टूटा तार छेड दिया है या ये पी एम एस का चक्कर है। बेहद स्ट्रांगली एफेक्ट करता है पूरे मासिक-चक्र के दौरान यह हारमोन्स का घटता बढता ग्राफ केतकी को। महफिल उठी पार्थ की गज़ल और आइसक्रीम के बाद। ''
रंजिश ही सही दिल
ही दुखाने के लिए आ पार्थ खुद उसे छोडने आए अपनी फिएट में जो पहले तो स्टार्ट ही होने का नाम ले रही थी स्टार्ट हुई तो रास्ते भर रूकते चलते आई। आज उसे अपने कोने वाले ब्लॉक में पटक दिये जाने पर जरा भी गुस्सा न आया। पार्थ को उसने कॉफी पीने के लिये उपर बुला लिया। सीढियाँ चढते हुए पार्थ ने कहा- ''
आज तुम्हें अपने आप से डर
नहीं लग रहा?
'' |
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