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कौन सा फूल यह कथा भारत के एक गांव की है। गांव कोई भी नाम सोच लीजिये। है बात बहुत दिनों पहले की जब गांव में एक बारात आई थी। शादी ब्याह के अवसर पर सदा की तरह सारा गांव बरात के स्वागत में सज रहा था। दरवाजॉं पर बंदनवार झूल रहे थे। गेंदे के पीले फूलों के साथ अशोक के हरे चीकने पान हारों में गूंथ कर हवा में उमंगें बिखेर रहे थे। गांव के छोटे बडे सभी स्वच्छ धुले या नये वस्त्र पहने लडक़ी वाले के आंगन के पास मंडरा रहे थे। दालान के सामने क्यारी में तुलसी मोगरों के खिले गुच्छों के बीच शोभायमान थी। सफेदी से पुता घर सूर्य की प्रखर किरणों के मध्य चमक-दमक रहा था। भीतर काफी भीड ज़मा थी। पुरूषों ने लाल और गुलाबी रंग के साफे बांध रखे थे। उनकी प्रसन्न मुद्रा पर कभी रौब तो कभी मुस्कान तैर जाती थी। स्त्रियां रंग बिरंगी रेशमी साडियां ओढे मुस्का रही थीं। उनकी बातें कभी चूडियों की खनक और कभी पायलों की छनछनाहट के बीच ज्वार-भाटे की तरह उतार चढाव लेती हर दिशा में फैली जा रही थी। कन्याएं घाघरा चोली चुनरी या लहंगा पहने चिडियों की तरह चहक रही थीं। बारात आ पहुंची।
अपनी दो
सहेलियों के मध्य लाल चुनरी से ढंकी गुडिया सी
कई अतिथि भोजन समाप्त कर एक बार फिर बधाई कह कर ब्याह के मंडप से दूर अपने घरों की ओर जाने लगे। जो घर के थे, रिश्तेदार और संबंधी घर के भीतर खुले चौक में पहुंचे। चौक में फर्श पर कालीन व चादरें बिछी थीं। बडे बडे ग़ोलाकार तकिये भी रखे थे। सारे लोग वहां पसर कर आराम करने लगे। गपशप शुरू हो गयी। औरतें भी एक ओर हंसने बोलने लगीं। चर्चाएं छिड ग़यीं। सारा चौक चहक उठा। दूल्हा भी बारातियों के साथ अपने मित्रों के साथ बैठा था। दुल्हनिया अपनी हम उम्र सहेलियों से घिरी कुछ शरमाती हुई बैठी थी। ब्याह की विधि सकुशल पूरी हो गयी थी। दावत भी निपट गयी थी। लग्नोत्सव में कौन-कौन आया कौन न आ पाया ऐसी बातें लोग कर रहे थे। घर के सब से बडे बुजुर्ग
गला खखार कर बोले, ''अं....हं.....सुनो
तो जरा...''
और
दादा जी की आवाज सुनते
ही धीमे से सन्नाटा छा ''
हां तो मैं क्या
कह रहा था...?
हां याद आया सभी को खूब बधाई और आभार! आप सभी
ने खूब मन लगा कर काम किया तभी तो इतना सुंदर उत्सव रहा! शाबाश!!
'' सब लोग
मुस्कुराने लगे।
''अच्छा
आज एक छोटा सा सवाल पूछूं?
''
दादाजी ने हाथ हिला कर सबको शान्त होने की संज्ञा दी। फिर सब शान्त हो गये। दादाजी ने अपनी संयत व मधुर अवाज में पूछा, ''अच्छा बताओ तो कौन सा फूल सबसे श्रेष्ठ है। '' प्रश्न सुन कर सब अश्चर्य चकित हो कर मुस्कुराने लगे। अरे! दादाजी को यह आज क्या हो गया है? यह कैसा प्रश्न इस अवसर पर? परंतु दादा जी का दबदबा ऐसा था कि स्वतः कोई कुछ बोला नहीं। सब प्रश्न का उत्तर सोचने लगे। स्त्रियां भी सोच में पड ग़यीं। दादाजी अब जरा मुस्कुराए। कहा, ''अरे भाई मैं कोई गूढ ग़म्भीर प्रश्न नहीं पूछ रहा। सीधा सा छोटा सा सवाल है। तुम सब अपने मन से जो उत्तर निकले कह देना। इतना सोच में पडने जैसा कुछ नहीं। सारे लोग निःश्वस्त हो कर मुस्कुराने लगे। छोटे चाचा जी जो बडे बातूनी थे झट से बोले, '' बाबा मैं तो गुलाब को ही सर्वश्रेष्ठ कहूंगा। '' दादाजी बोले, ''चलो ठीक है नवीन, गुलाब ही सही.... तो तुम्हारी पसंद गुलाब का फूल है। ...और कोई '' उन्होंने आगे पूछा। अब हर दिशा से एक फूल का
नाम सुनाई देने लगा।
किसी ने पुकार
कर कहा, ''दद्दू
सूरजमुखी....
वो तो कितना बडा
फूल है ना और जिस-जिस दिशा में सूर्य
बडी चाचीजी कुछ सोच कर बोलीं, ''केवडा भी तो फूल ही कहलाएगा क्यों? गणेश जी के आगे पूजा में रखती हूं तो वही श्रेष्ठ है। अम्मा जो दुल्हन की मां थीं बोलीं, ''कमल! लक्ष्मी मैया जिस पर विराजे रहती है, मैं तो उस कमल के पुष्प को ही श्रेष्ठ कहूंगी... सबमें। '' दादाजी अब खुल कर मुस्करा रहे थे। सभी के सुझाव भी सुनते जा रहे थे। अलग-अलग फूलों के गुणों तथा उनकी महत्ता के बखान को सुनकर सब खुश हो रहे थे। दादाजी ने अब भी किसी फूल को श्रेष्ठ नहीं कहा था। अब देसी फूलों से चल कर विदेशी फूलों के नाम भी आने लगे - लिली, लवंडर, टयूलिप, कारनेशन, एस्टर वगैरह वगैरह। धीर-धीरे सबके स्वर मंद पडने लगे। दादाजी आंखें मीचे कुछ सोचे जा रहे थे। तभी सारे चुप हो गये। वातावरण शांत हो गया। ''दादु....''
एक महीन स्वर उठा।
यह मधुर स्वर था नई नवेली दुल्हन का। सारे संबंधी नववधू की ओर देखने
लगे। वह लजा गयी। आंखें नीची किये वह शर्म से गठरी हो गयी। दादू सतर्क
थे। कहा, ''बेटी
शर्माओ मत। बोलो तुम्हें कौन सा फूल पसंद है। बोलो बेटा...
''
दादाजी के ममत्व से भीगे
प्यार दुलार भरे आग्रह से कुछ हिम्मत जुटाकर कन्या मीठे स्वर में कहने
लगी, ''
दादु श्रेष्ठ फूल है रूई का।
'' ''क्या कहा?
कोई आश्चर्य से चौंक
कर बोल उठा - ''रूई
का फूल? ''मेरी नन्हीं बिटिया! हां तुम्हारा उत्तर भी श्रेष्ठ है और तुम्हारी पसंद भी। सच कह रही हो - कितना उपयोगी पुष्प है रूई का। दीपक होता है पुरूष जिसका प्रकाश सारा संसार देखता है। परंतु रूई की बाती तिल-तिल कर के दीपक में लौ बन कर समाई जलती रहती है। वह बाती स्त्री है।'' दादु ने फिर बिटिया को प्यार से गले से लगाया। भर्राए गले से गंगा सी पवित्र अश्रुधारा से उसे आशीर्वाद सा अभिसिक्त करते दादाजी ''मेरी बिटिया, मेरी भोली बेटी '' कह कर आंखें मीचे खडे थे। छलछलाते आंसुओं की भावधारा से विभोर दादु की लाडली क्षण भर के लिये सबकुछ भूल गयी। सारी भीड इस परम पावन दृष्य को एकटक देख रही थी। अनेकों आंखें भर आयीं। सभी की आंखों के आगे अपने शैशव से अबतक बिताए अपने जीवन के पल चलचित्र की तरह साकार हो रहे थे। सोच रहे थे, ''यही तो संसार की रीत है। '' लग्न हवेली के प्रवेश द्वार से तभी विदाई के सुर छेडती शहनाई गूंज उठी। विदा वेला आ पहुची थी। दादु अपनी प्यारी दुलारी बिटिया को थामे हुए हृदय पर पाषाण रखे उसे अपने वर के घर विदा करने के लिये एक एक पग अहिस्ता आहिस्ता आगे बढाते हुए चल पडे। क़न्या के विदा की मार्मिक वेला आ पहुंची थी। - लावण्या शाह |
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