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वनगन्ध-10 निखिल के पत्रों ने उद्विग्न कर दिया था। एक बार फिर मैं सोचने लगी कि जा तो रही हूँ, कहीं फिर कमजोर न हो जाँउ, और फिर उनके समानान्तर चल पडूँ पर अब सामानान्तर रेखाएं कहाँ रहे हम! और तीसरा कोण मैं नहीं बनना चाहती! प्रेम की तिकोनी आकृति मुझे कभी पसंद नहीं! नहीं मुझे सर्तक रहना है, स्वयं को भावुक होने से बचाना है। अब तक मैं ने उन्हें उत्तर कहाँ दिया, बस अचानक जाकर चौंका दूँगी जैसे पहले वो चौंकाया करते थे। उनके लिये मैंने बहुत सी उनके पसंदीदा जंगली रंगो की टी - शर्टस, जैकेट्स खरीदी हैं। और खरीदा है एक वीडियो कैमरा। पहले वे मेरे बचकाने उपहार हँस कर रख लिया करते थे, जैसे वो सारस वाला टाई-पिन। चलो अब सोना चाहिये, अगर नींद न पूरी हुई तो लम्बा सफर बोझिल हो जाएगा। परन्तु अधीरता तो नींद की बैरी है। सुबह भी जल्दी नींद खुल गई। ब्रेकफास्ट और लंच का मिला-जुला सा ब्रंच कर जरूरी फोन करने लगी, युनिवर्सिटी, बी बी सी हेडक्वार्टर और कुछ मित्रों को सूचित करने में प्रणव को अनायास भूल ही गई। फिर उसी का फोन आया खीज भरा - ''क्या
बात है इतनी देर एंगेज क्यों था तुम्हारा फोन,
एक घण्टे से कोशिश
कर रहा हूँ। सामान तैयार है ना। छ: बजे की फ्लाईट है तो चार बजे निकलना
होगा,
एक घण्टे की तो ड्राईव है
फिर एयरपोर्ट की फॉर्मेलीटीज।''
सचमुच प्रणव चार बजे ही आया। रास्ते भर बेरूखी सी जताता रहा और हिदायतें देता रहा। ''
पापा को फोन किया?
कहा न दिल्ली एयर
पोर्ट पर आने के लिये? '' एयर पोर्ट पर मेरे सारे काम प्रणव ने साथ रह कर करवाए। कहा भी मैंने कि लौट जाए, लौटते में रात हो जाएगी। पौने छ: बजे जब अनाउन्समेन्ट हुआ तब प्रणव की खामोशी टूटी, ''
मानसी मैं तो बहुत अकेला हो
जाउंगा,
आई विल मिस यू! कह कर
उसने मेरे कन्धों को हाथों से घेर लिया।''
मेरे भी दोनों हाथ स्वत: ही आलिंगित कर बैठे उसे, जहाज पर चढते ही प्रणव का स्नेह सूत्र छूटने लगा। निखिल की स्मृति मुखर हो आई। अनन्त आकाश की ऊँचाईयों पर आकर मन की विकलता थोडी शान्त हुई। सहयात्री स्वयं उसकी तरह ही प्राईवेसी पसंद एक प्रौढ अमेरिकन था। आठ बजे मानसी ने वाईन, एपल जूस और मिन्ट का मिश्र पेय लिया, फिर बेमन से एक पत्रिका पलटती रही। बाहर ऊँचाईयाँ भी अँधेरों से सुरक्षित न थीं, अँधेरा हर चीज क़ो निगले जा रहा था। तीव्र गति से वह सरसों के खेतों और चलती रहट वाले देश मैं पहुँचने की कल्पना कर रही थी। हालांकि यह बात अब इतनी रूमानी और सच न थी। अब कितने खेत और कितने जंगल बचे होंगे। अपने अन्दर थोडा और डूबने पर पुलक के साथ साथ उसने खेद के नन्हे सूत्र को पकड लिया। पर अब उचित-अनुचित पर मन ही मन बहस कर कम अज कम आज रात अपने को मूडी नहीं होने देगी और इस भाव दशा से उबरने के लिये उसने अपने सहयात्री को देखा और मुस्कुरा दी, वह भी मुस्कुरा दिया। जरा देर में ही डिनर सर्व हो गया। हल्का-फुल्का खा कर उसे नींद आ गई। सुबह सुबह उद्विग्नता ने उसे जगा डाला, उसने घडी देखी छ: बज रहे थे। आठ बजे ये जहाज पालम एयर पोर्ट पर उतरेगा। उसका दिल धडक़ गया। उस प्रौढ अमेरिकन ने पूछा, ''
घर लौट रही हो?
'' इस समय जो भी अनुभव कर रही थी उसे एक वाक्य में कैसे अभिव्यक्त करती? किन्तु प्रश्न कर्ता को उत्तर की अपेक्षा थी इसलिये हँस कर कहा, '' जस्ट वंडरफुल... '' वक्त को तो धीमे या तेज गति से बीतना था सो बीत गया। आठ बजते-बजते लैण्डिंग का अनाउंसमेंट हुआ। मानसी की हथेलियाँ पसीजने लगीं, जहाज लैण्ड हुआ। वह अपना हैन्डबैग लेकर हवाई जहाज से उतरने लगी। सीढीयाँ उतरते समय उसने उत्सुक आँखों से चारों ओर देखा पर एक भी परिचित चेहरा दिखाई नहीं दिया। कैसे दिखाई देता? प्रणव के लाख कहने के बाद भी उसने किसी को भी अपने आने की सूचना तक नहीं दी। एक बार फिर रैलिंग पर झुके आत्मीयों को लेने आए लोगों की पंक्ति को देखा, उसे लगा वह भावुक हो रही है। रैलिंग पर लटके लोग वेग से हवा में बाँहें लहरा रहे थे। मानसी अन्य यात्रियों के साथ लाउन्ज में पहुँची। कस्टम ऑफिसर युवा था, कन्धे अकडे हुए और पूरी मुद्रा में स्थिति का निर्णायक होने का भाव। विदेशियों को पहले निबटाना मानसी को बुरा न लगा, इतनी भद्रता तो निभानी ही चाहिये। उसकी बारी आने पर उसने संयत भाव से उसे चाभियाँ और पासपोर्ट कस्टम ऑफिसर को पकडा दिया। उसने पासपोर्ट देख कर एक दृष्टि मानसी पर डाली, फिर एक और। वह जानती है कि हर पुरूष उसे दो बार देखता है। पहले सरसरी तौर पर पर दुबारा कुछ ध्यान से। कागजों पर हस्ताक्षर करने की अंतिम औपचारिकता पूरी कर मानसी जब मुडी तो उसे फिर याद आया कि उसे आखिर जाना कहाँ है, वहाँ उसे यूँ जाना भी चाहिये या नहीं? वह इन्डियन एयरलाईन्स के इन्क्वायरी बूथ की ओर बढी, असमंजस अब भी था, फिर भी उसने गौहाटी की अगली फ्लाईट का समय पूछ लिया, पता चला रात तीन बजे है। '' अब? '' इस प्रश्न को उलटते-पुलटते मानसी जहाज से उतरे सामान को लेने कनवेयर बैल्ट की ओर बढी। अपना सामान ट्राली में रख उसकी आँखे अन्यमनस्क भाव से टैक्सियों की भीड को ताकने लगी। वैसे दिल्ली में उसकी कॉलेज के दिनों की एक सहेली नीरजा रहती तो है। उसने टेलेफोन बूथ जाकर डाईरेक्ट्री में उसके पति का नाम ढूँढा। आधे ही घण्टे में नीरजा और उसका पति उसे ढूंढते हुए वेटिंगरूम में आ गए। उसे लगा कि वह उबर गई। नीरू और राजीव दोनों डॉक्टर्स हैं। उसे घर लाकर दोनों थोडी-थोडी देर के लिये अपने अपने अस्पताल जाकर अपने मरीज देख आए। तब तक वह आराम से नहा धोकर एक घण्टा सोई, और इस बीच उसने अपना गौहाटी जाने का निर्णय पक्का कर लिया था। राजीव को कह कर पहले काजीरंगा नेशनल पार्क के मेन ऑफिस फोन किया जनाब वहाँ नहीं थे साईट पर थे। फिर वहाँ मैसेज देकर एक फैक्स भी किया। खैर यह तो पता चला वहीं है वह, अब गौहाटी पहुँचना कठिन नहीं। नीरजा ने पूछा भी
, ''
कौन है ये निखिल?
पहले घर नहीं जाएगी? '' संक्षिप्त उत्तर देकर वह उसकी बेटियों के साथ खेलती रही। उस सुख से भरे पूरे घर में एक दिन एक सुख का पल बन कर बीत गया। रात दो बजे राजीव उसे एयरपोर्ट पर छोडने आए। बरसात का मौसम था, फ्लाईट एक घंटा डिले हो गई। ये दो घंटे का सफर उस चौदह घंटों के सफर से ज्यादा निकला। मन में आकुलता घनीभूत हो गई। जहाज मैं एक मीठा सा स्वर गूंजा, हम पन्द्रह मिनट में गौहाटी एयरपोर्ट पर लैण्ड कर रहे हैं, कृपया सभी यात्री अपनी सेफ्टी बेल्ट बाँध लें। धन्यवाद। मानसी ने उत्कंठा से अपना चेहरा खिडक़ी से सटा दिया। वह नीचे की हलचल देखना चाहती है। उसे अपनी इन संवेदनाओं से डर लग रहा है, ना कमजोर मत होना मानसी। वह जहाज से नीचे उतर सीधे लाउंज की ओर तेजी से बढी। फ़िर वही औपचारिकताएं, खीज गई और चैकिंग काउंटर से निवृत्त हो इधर-उधर देखने लगी तब तक उसका सामान भी आगया। उसकी नजरे इस अजनबी एयरपोर्ट पर इधर-उधर दौड रही थीं। लाउंज के बीर्चोंबीच ही तो
निखिल खडा था,
यात्रियों के चेहरों में उसे
ढूंढता
हुआ।
''
ओह निखिल क्यों नहीं भूले
तुम मुझे.. ''
स्वगत ही कहा और उसके एकदम पास जाकर कहा, उफ! मैं उसके इतने करीब हूँ जिसे अरसा पहले यहाँ छोड क़र गई थी मन में अथाह पीडा लिये। मानसी का मन कर रहा था उसके हाथों में अपने हाथ गूँथ दे। '' पर नहीं मन भावुक मत होना प्लीज!! '' मानसी ने कोई उत्तर नहीं दिया, ठीक ही तो है अब क्या शेष रह गया है उस साझ स्वप्न में? अगर मैं बदला और मेरे जीवन-मूल्य बदले तो क्या वह न बदली होगी? अब वह भोली मिनी थोडे ही है, महत्वाकांक्षी मानसी है। मैं प्रतीक्षा करना छोड क़र भी न जाने क्यों प्रतीक्षा करता रहा। बहुत खिली धूप का दिन था वह, मैं जंगल में दूर तक चला आया था। एक घायल तेन्दुए को ट्रेस करना था, मेरे जाने की आवश्यकता तो न थी, रैन्जर्स और गार्ड ही उस काम को सरंजाम दे सकते थे, पर एक कुतुहल और जानवरों के प्रति प्रेम के तहत मैं चला गया। मेरे साथ एक आसामी वेटरनरी डॉक्टर भी था, मैं ही जीप चला रहा था, उसके पास ट्रेन्क्वेलाईजिंग गन थी। दोपहर भर बहुत भटक कर भी उसकी थाह न मिली। अंतत: एक पानी के बडे ग़ङ्ढे के पास कुछ खून की सूखी बूंदे दिखीं, और टेढे-मेढे पग-मार्क्स दिखे, उसके अन्दाज पर आगे बढे। क़ुछ गार्डस छोटे कैन्टर में एक केज लिये धीरे-धीरे बढ रहे थे। बडा रोमांचक माहौल था, तेन्दुआ एक घनेरी जंगली झाडी क़े पीछे पडा था और कराहट भरी गुर्राहट से हमें आगे बढने से रोक रहा था। दूर से पता ही नहीं चल रहा था कि आखिर वह है किस स्थिति में है। चोट कहाँ और कितनी है। आखिर धीरे-धीरे गाडी आगे बढाई तो वह हमले की मुद्रा में सामने आगया, उसके पिछले पैर को लगभग चबा डाला गया था, और एक आँख चली गई थी, उसकी खाली कोटर में से खून बह रहा था। कल ही गार्डस ने बताया था कि दो तेन्दुए आपस में उलझ पडे थे। फिर भी उसकी आक्रामकता में कहीं कमी न थी। शीघ्र ही मेरे अनुभवी साथी ने उसे दन्न से बेहोशी की नींद में सुला दिया। उसके नीम बेहोश होने की कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद उसे पिंजरे में डाल कर गौहाटी वेटरनरी कॉलेज ऑपरेशन्स के लिये भेजा गया। लौटते-लौटते मैं थक गया था। खाना खाते ही मैं जल्दी सो जाता अगर दिल्ली से हेडक्र्वाटर आए एक फैक्स की कॉपी सोमा मुझे न पकडा जाता तो। आज सुबह आया था यह? और दिल्ली से? ओह! मानसी तुम नहीं सुधरोगी। इसी सुबह पाँच बजे आ रही है और मेरे पास कोई तैयारी नहीं, यहाँ ठहरना पसंद करेगी? सुबह पाँच बजे गौहाटी एयरपोर्ट पर पहुँचने के लिये यहाँ से कम से कम तीन बजे चलना होगा। फिर भी सोमा को हिदायतें दे, अपने साथियों को सूचित कर उसके लिये सुविधाएं जुटाता हूँ। उसकी पसंद की चीजे एकत्र करता हूँ। जैसे आर्किड्स के गुच्छे, कुछ पुरानी गज़लों की कैसेट्स बॉक्स से निकालता हूँ। पिछले तीन दिन से एक टाईगर के अनाथ बच्चे को सोमा मेरे ही घर में पाल रहा था, मैं उसे भी मँगवा लेता हूँ। मुझे याद है मिनी की बिल्ली किटी जिसे भी हमने सडक़ पर उसकी माँ के शव के पास से उठाया था, बडी मुश्किल से थैले में बाँध उसे लाए थे, अन्यथा वह तो दुश्मन समझ कर अपनी पिद्दी सी जान लगा गुर्रा और पंजे मार रही थी। फिर तो मिनी ही उसकी माँ थी, साथ रखना, खिलाना-पिलाना, वह कमबख्त भी सीधे कंधे पर चढती थी , एक बार उठा कर फेंक दिया तो, घण्टों रूठी थी मिनी तो मिनी, किटी भी। आज उसी कौतुकप्रिया को लेने जा रहा हूँ। सोमा ने रात तीन बजे अकेले न जाने दिया, दो और गार्डस को गन्स के साथ जगा कर ले आया। मैंने आर्किड्स के गुच्छों को सहेजा, सोमा ने बेंत की डलिया में नन्हे शेरखान को रखा, न जाने कब गले में नन्हा घुंघरू बाँध दिया। उसे पता चल रहा था कि साहब का कोई बहुत अजीज ग़ेश्ट आ रहा है। हमारा कारवां चल पडा, दो घंटे की ड्राईव के बाद एयरपोर्ट पहूँचे। फ्लाईट थोडी लेट थी। बुरी तरह धडक़ते दिल के साथ प्रतीक्षा बोझ लग रही थी। बहुत अधीर हो रहा था मैं, जाकर पास के स्टॉल से दो बडे-बडे चॉकलेट्स ले आया। उधर सोमा हैरान सा एयरपोर्ट देख रहा था। मैंने सख्त ताकीद कर रखी थी कि उस नन्हे जानवर को छिपा कर रखे, पर वह कम्बख्त म्याँऊ-म्याँऊ करे जा रहा था, है तो कमबख्त जंगली बिल्ली ही ना। प्रतीक्षा के निश्चित पल बीते और मानसी मेरे सामने आ खडी हुई। ''
बदल गई हो!
''
मेरे मन ने मन से कहा। ये सधी चाल,
स्थिर आँखे ( जो
पहले दौडती-भागती लोगों में गलतफहमी पैदा करती थीं),
कपडों में आभिजात्य
की झलक,
अब वह कृश तनु कन्या नहीं
रही थी,
अमृता शेरगिल के पुष्ट
सेल्फ पोर्टेट सी अनुपातों में ढली थी। सीधे स्थिर दृढ भाव से मुझ पर
आक्रमण किया, ''
हलो निखिल!
'' इतने में सोमा पास से हवाईजहाज देखने का गर्व लिये मेरे पास आया। ''
शाब जी
,
जहाज देखा काँच में से उधर
से,
कितना बडा है!
'' मानसी मुस्कुरा दी। ''ये शाब जी ने आपको देना है बोला! '' मानसी ने बेंत की टोकरी पर से कपडा उठाया, तो फिर छलकता उत्साह रोके न रुका। नेह भरी आँखों से मुझे देखा और आँखों से ही शिकायत की कि बस इन्हीं प्यारी हरकतों से मैं उसे बरगलाता रहता हूँ। बरगलाया कभी नहीं मानसी ये प्यार ही है बस। ''
बहुत क्यूट है,
निखिल! कह कर हाथ
में उठा लिया। '' मैंने स्नेह से उसे कन्धों से पकडा और सहेज कर बाहर ले आया। मैं उम्र के इस पडाव पर आकर भावुक हो रहा था और वह स्थिर थी। शायद यह तीस के आस पास की उम्र ऐसे ही कठोर बना जाती हो, एक असुरक्षा के तहत, व्यवहारिक होने की हद तक। तब इसी उम्र पर आकर तो जिंदगी को छूट कर निकलते देख मैं ने कठोर निर्णय लिया था, तब अगर थोडा कम उम्र होता तो लड ज़ाता मानसी के लिये, या आज की इस चालीस के आस-पास की उम्र में होता तो भी अपना लेता ये सोचकर कि अब इतनी गुजर गई जरा सी उम्र और है, अब साथ ही जी लें। ये तीस की उमर ही बस घबरा कर जिन्दगी का दामन पकड लेना चाहती है। आज मानसी उसी पडाव पर है। हम एयरपोर्ट लाउन्ज से बाहर बने एक कैफे में आगए। कॉफी पीते हुए मैंने उससे सफर की खैरियत जान कर कहा, ''
यहाँ आकर अच्छा किया मानसी!
'' हम दोनों बातों के सूत्र ढूंढ रहे थे, और सूत्र थे कि मिलते ही नहीं थे। बस बार बार मुस्कुरा देते, एक दूसरे को देख। जो असली सूत्र थे वह स्वर्णसूत्र थे, वे हमारे हृदयों में बिंधे थे। छूने पर पीडा होना स्वाभाविक था। सारे रास्ते वह शेरखान से
खेलती रही। या
सोमा से जंगल की बातें करती रही,
मुझसे न कुछ पूछा न कहा।
मन किया कि पूछ
लूं
, ''
अब भी नाराज हो?
'' सुबह की पहली किरण के साथ ही मैं उसे अपनी कॉटेज में ले आया। उससे पूछा था कि बाहर ऑफिसर्स गेस्टहाउज में ठहरना पसंद करेगी या मेरे पास कॉटेज में। उसकी सहमति मेरे साथ अन्दर जंगल में रहने की थी। जहाँ से जंगल शुरू होता था वहीं से उसके चेहरे के कठिन भाव सरलतर हो गए। ''
आप सचमुच स्वप्निल दुनिया
में रहते हैं। '' कॉफी मैं ने ही बनाई, जिसे पी कर वह नहाने चली गई। लौटी तो उसमें मैंने अपनी मिनी को ढूंढ निकाला। भीगी-भीगी सी, पीछे को संवारे भीगे बाल, उघडा मस्तक, धनुषाकार भवें, दीप्त आँखे, छोटी सी नाक, खूबसूरत सुर्ख होंठ और ऊँचा कद। वक्ष से लगा लेने का मन हो आया। ''
आज आप काम पर नहीं जाएंगे?
'' '' मेरे उत्साह में भँवर पड ग़या। '' ''
अरे इसमें मुँह उतारने की
क्या बात है?
वैसे ही बस से उतार लाना
जैसे पहले मेरे रूठ कर घर जाने के वक्त एक बार किया था।
'' बाहर हवा अपने पंख फडफ़डाती है। बाँहों के घेरे में मानसी को बाँधे मैं सोचता हूँ, यही विशुध्द सुख है, आत्मिक बंधन। पर मानसी न जाने क्या सोचती है और स्वयं को मुझसे विलग कर पूछती है कि आज का क्या प्रोग्राम है। ''आज कुछ नहीं, बहुत थका हूँ। आज पूरी दोपहर आराम, शाम को देखा जाऐगा। जितनी देर दिल्ली से गौहाटी तुमने मजे क़ी हवाई यात्रा की है उतनी देर मैंने बीहड ज़ंगल में ड्राईव किया है। उससे पहले भी कहाँ सो सका? '' सच ही थका था, अब वह उम्र तो नहीं थी कि उठाई बाईक और चल पडे दुनिया भर मैं जहाँ भी महबूब का डेरा हुआ। पार्श्व में मेंहदी हसन की गजल चल रही है। '' रंजिश ही सही... '' दोपहर का खाना खा हम फिर दीवान पर आ बैठे। ''
क्या किया इतने साल वहाँ?
'' मानसी का उत्तर मिला, मैं फिर से प्रश्न को ठीक से गढ क़र उससे पूछने की चेष्टा करता हूँ। '' तुम अब भी विगत की सोचती हो कभी? '' मानसी का स्वर उदास हो आया, पर निष्कम्प वाणी में उसने कहा, '' विगत को सोचने से क्या होगा, तब जो मैं थी, अब वह नहीं हूँ। हर समय जो बीतता है, जीती हूँ, उसके बाद पहली सी कहाँ रह जाती हूँ मैं। अब भी यहाँ से जाने के बाद मैं... '' मानसी उदास हो अपना चेहरा निखिल के कन्धों पर रख देती है। कमरे में ज्यादा रोशनी नहीं है, पेडों की कतारें सूरज की किरणों को रोकती हैं। कहीं-कहीं मलिन रोशनी झर रही है, पेडों की नजर बचा कर। इसमें मुख के भाव नहीं पढे ज़ाते पर आकृतियाँ दिखती हैं। पहले निखिल की एक चप्पल नीचे गिरती है। फिर मानसी के ढीले बंधे बाल खुल जाते हैं। दूसरी चप्पल वह खुद निकाल कर रख देता है। |
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