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   वनगन्ध-4

वही विरोध उसकी आँखों में उभरा पर वह चुपचाप अपनी साईकिल उठा उस समूह में जाकर शामिल हो गई।  सजा के तौर पर ही मैं ने ऐसा किया था।  जानता था खूब आहत होगी।  मैं भले ही अपने इस कृत्य पर पल भर को संतुष्ट हुआ, पर उसकी आँखों की वह विरोध भरी कातरता मेरा पीछा करती रहीइस सबमें मेरा एक स्वार्थ भी तो था, मेरे ही ग्रुप की एक आकर्षक लडक़ी , मिनी के सामने कैसे आकर्षित करता? मिनी के लिये मेरा आदर्श कैसे कायम रहता?

वह तो बाद में पता चला मेरी आदर्श प्रतिमूर्ति व्यर्थ थी, वह तो मेरे सम्पूर्ण की आकांक्षी थीमैं तो उसे नादान, छोटा और अपना नन्हा फॉलोअर समझता रहा।  किन्तु वह अठारह वर्षीय पूर्णत: वयस्क युवती थी, अपने तमाम प्राकृतिक आवेगो-स्पन्दनों से युक्त।  चाहे मुझसे वह आठ वर्ष छोटी ही सही पर अब ये अन्तर महत्वहीन था।  वह सम्पूर्ण स्त्री थी और मैं एक पूर्ण पुरूष

मैं उसे जम कर उपेक्षित करता रहा।  उसे मेरा बाइनोक्यूलर पसंद था और उसका अधिकार था उसे माँग लेने का पर उसने माँगा नहीं।  अनमने भाव से आँखों से ही पक्षी देख कर डायरी में कुछ लिखती रही।  शाम जब चाय पीने के लिये सब एकत्रित हुए तब भी अन्यमनस्क थी।  उसका उत्साह अब खामोशी में कैद था।  सब अपने मित्रों में गपशप में मशगूल थे।  उसका तो मैं ही एकमात्र मित्र, शत्रु सभी कुछ था, और मैंने है एक संकीर्ण संरक्षक की तरह उसे लडक़ों से मित्रता न करने की सख्त ताकीद की थी और यहाँ तो लडक़े-लडक़ियाँ सभी ग्रुप में थे।  उसका तीव्र आकर्षण ही मुझे डराता था।  अपने मित्रों में भी उसे लेकर कुछ ही पर विश्वास करता था।  वह अकसर कहती कि घुल-मिल न पाने की वजह से और लोग उसे स्नॉब समझने लगे हैं

उस शाम वह निस्पृह सी मेज क़े कोने पर अकेली बैठी रही।  मैंने देख कर भी उसे नहीं देखा।  आज मैं स्वीकार करता हूँ, कि मेरी तीव्र उपेक्षा ने उसके मन में आकर्षण का तीखा काँटा बोया था।  अगर मैं उसे अपने साथ हमेशा की तरह सहेज कर रख लेता तो वह मासूम बनी रहती और उसका आकर्षण मन की तहों में सोया रहता।  जब मैंने उसे सारे रास्ते में बस में अन्तराक्षरी खेलते-गाते देखा और उसे सबके बीच अपनी जगह बनाते पाया तो वह मेरी असुरक्षा ही थी, जिसके कारण मैं चिढ ग़या था

फरवरी के आरम्भ के दिन थे वे, पतझड क़ी जाती पदचापों और बसंत की आहटों के दिन।  रात होते होते हल्की बूंदा बांदी होने लगी थी।  हम सब हॉल में बैठे दिन भर के अनुभव को बाँट रहे थे।  आराम और गपशप का दौर चल रहा था।  मैं उसे जेब में रखे फूल की तरह भूल गया था।  अचानक मैं ने देखा उसने दो चम्मच चावल खाए और उठ गईमैं उसके इस रवैय्ये से और चिढ ग़या था।  आखिर चाहती क्या है।  यहाँ आई है तो रहे सहज होकर।  मन ने शीघ्र ही अपनी कमजोरी पकड ली।  मैं ही तो साग्रह उसे लाया था, उसका उत्साह मुझसे ही नहीं झेला गया, ऐसा क्या गलत किया उसने? बस लडक़ों के साथ अन्ताक्षरी खेल ली, थोडी उन्मुक्तता जी ली।  ऐसे तो मैं उसे कुण्ठित कर दूँगा।  मेरा मन तरल हो उठा।  मैं क्यों यहाँ लाकर इसे दुख दे रहा हूँ?

खाना खाकर हम चौकीदार के जलाए अलाव के पास आ बैठे ।  वह भी एक छोटे पत्थर पर आ बैठी।  फिर अन्ताक्षरी हुई, उसने एक भी गाना नहीं गाया, सबके कहने पर भी नहीं।  उसे कैसे पता चला कि इसी वजह से मैं नाराज़ था।  मेरा ध्यान गया कि उसने बस एक पतला स्वेटर पहना था।  ओह।  उसकी जैकेट तो मेरे सूटकेस में बन्द थी।  मैंने अपनी जैकेट तो निकाल ली उसकी जैकेट भूल गया।  आई स्वेयर! सच ही भूल गया था।  पर फिर भी उठ नहीं पाया शेखर आ गया तो उसके साथ ट्रिप के अकाउंट्स देखने लगा।  हमारे अन्य साथी जो मानसी के लिए कुछ परिचित थे, कुछ नवपरिचित तो कुछ अपरिचित, उन्होंने मानसी को अपने साथ कॉनफ्रेन्स हाल में चलने का आग्रह किया, जहाँ केवलादेव की वाईल्ड लाईफ पर फिल्म दिखाई जानी थीउसके बाद में मेरे साथ आने का जवाब पाकर वे सब चले गए।  मैं अकेला हिसाब-किताब देखता रहा, वह मेरे सामने बैठी रही, अव्यक्त और अस्पष्ट सी

अपना हिसाब पूरा कर मन ही मन कुछ जोडता-घटाता मैं उठ खडा हुआ और चल पडा।  ओह मैं फिर उसे भूल रहा था।  मैं पाँच-सात कदम उलटा लौटा, वह स्तब्ध बैठी थी, नाखूनों को दाँतों से काटती हुई।  आक्रोश उसकी आकृति मात्र से उत्सर्जित हो रहा था

'' चलो मानसी।'' यह पहला वाक्य था जो दिन भर में मैंने उसे सम्बोधित करके कहा था।
''
नहीं! कहीं नहीं जाना मुझे! ''वह गुस्से से उठ कर, तेजी से सीढियाँ चढ लडक़ियों वाले हॉल में चली गई। लकडी क़ी सीढियों पर उसके तेज क़दमों की गूँज मेरे सर पर हथौडे बरसाती रही।  मैं अपना बिखरा स्वाभिमान बटोर कर चला आया कॉनफ्रेन्स हाल में

मैं फिल्म देख तो रहा था पर मन वहाँ था जहाँ वह प्रगल्भा रजाई ओढ सिसक रही होगी।  मेंरे लिये और बैठे रहना मुश्किल हो गया, मैं उठ कर बाहर चला आया।  वह सो चुकी थी, थकान और तनाव के दोहरे संघर्ष पर विजय पाकर, कम्बल का एक छोर उसकी मुठ्ठी में बन्द था।  मैंने उसके चेहरे पर बिखर आए बालों को पीछे हटाया तो उसकी कच्ची और आहत नींद के तार खिंच गए, उसने पलकें खोल दीं।  मुझे देख कर उनमें तरलता घिर आई।  मैं मुस्कुराया तो उसे समझ ही नहीं आया कि प्रतिउत्तर में कैसा भाव दे वह।  मैंने ठण्डे हाथों से उसके गालों को छू दिया।  उसकी आँखे तप्त हो गईं, यही तप्त भाव मैं पिछले कई दिनों से महसूस कर रहा था।  पहली बार तब जब मैं दाढी बढा कर मम्मी-पापा के पास से लौटा था फिर हर जाने अनजाने स्पर्शों के बाद।  ये तप्त भाव बडा रहस्यमय है, कभी लगता मात्र सराहना का भाव है, कभी गहन आकर्षण लगता।  इस पल तो एसा लगा कि जैसे मैं एक समुद्र होते हुए भी चाँद के आकर्षण में पूरा-पूरा ज्वार में उफन कर उसे छू लेना चाहता हूँ।  मैं जिस सम्बन्ध को इतना सहज व सीधा-साधा समझ रहा था वह इस पल आकर बुरी तरह उलझ गया था।  वातावरण अलौकिक हो उठा था।  अपने ही ज्वार में मैं डूब रहा था।  जिस आकर्षण से अन्य पुरुषों को दूर करता रहा था, उसी ने मेरी आत्मा, मेरे मस्तिष्क और मेरे समूचे अस्तित्व को ग्रस लिया था

इस आकर्षण की अभिव्यक्ति का असमंजस ज्यादा देर न संभाल सका।  प्रथम सोपान मेरा ही था।  मेरे साथ वह भी चली आई।  बस एक छोटा सा तप्त पल था वह और सारी रात मेरे होंठों को जलाता रहा।  वह सिहर कर करवट ले सो गई, मैं धीरे से सीढियाँ उतर आया

उसके बाद दो दिन मैं उसकी दीवानगी में बराबर का शरीक था।  उसे अपने साथ साईकिल पर बिठा कर घूमा, उसकी कविताएं सुनी।  उसके जाने-अनजाने स्पर्शों से छलकता रहा।  केवलादेव के जंगल और भी रम्य और झीलें और पारदर्शी हो उठी थीं।  घनेरे पेडों से छन कर आते सुनहरी धूप के टुकडों के बिम्ब मैं ने स्वप्नों की तरह मानसी के आँचल में भर दिये थे।  उसने स्वयं को अमरबेल कहा किसी कविता में तो मैंने उसकी डायरी में लिखा -- ''तुम परजीवी नहीं हो सकतीं, तुम तो मेरे मूल में हो स्वयं एक पोषण की तरह। ''
 ''वाह ! आप कबसे इतनी अच्छी हिन्दी लिखने लगे? ''
 ''मेरी हिन्दी इतनी बुरी कभी नहीं थी, वो अलग बात है तुम्हारे साथ रह कर मेरे लिटरेरी टेस्ट सुधरे हैं, न जाने क्या-क्या पढाती सुनाती रहती थीं।  मोहन राकेश के नाटक, प्रसाद की कामायनी, धर्मवीर भारती की कनुप्रिया और अपनी कविताएं भी तो।''
हम लौट आए थे, मीठी स्मृतियाँ बटोर कर

अब उसका फाइनल सैमेस्टर था।  मैंने बहुत कहा घर चली जाओ छुट्टियाँ बाकि हैं , वहाँ जाकर पढना फिर इम्तिहानों तक लौट आना पर उसे गवारा कहाँ था।  वह हर सप्ताहान्त मेरे साथ बिताती, मैं स्वयं पढता और उसे पढाता।  मेंरे इन्टरव्यू की तारीख बार - बार आगे बढ ज़ाती और मेरा भविष्य उतना ही अनिश्चित।  उधर पापा चिन्तित थे और फोन करके मुझे आई एफ एस के एग्जाम्स पर ही पूरा ध्यान लगाने को कहते।  मिनी भी यही कहती आप लैक्चरर बनने के लिए नहीं बने हैं।  मैं असमन्जस में था और विकल्प के रूप में दोनों में से कुछ भी नहीं छोडना चाहता था

एक शाम जब मैं लाईब्रेरी से लौटा तो पाया मिनी मेरे कमरे में लेटी है।  छूकर देखा तो भीषण ज्वर, तुरन्त अपने डॉक्टर मित्र को कर्नल अंकल के घर से फोन करके बुलाया।  उसे दवाएं दीं, कर्नल राव और आंटी भी आ गए।  आंटी ने ही सूप बना कर पिलाया और सुला दिया।  फिर उन्होंने ही उसकी वार्डन को फोन करके सूचित किया कि वह बीमार है और यहीं रहेगी।  रात तीसरे पहर वह उठ बैठी।  मैं ने टेम्परेचर लिया तो बुखार उतर चुका था।  उसे पानी दिया और फिर से सुलाने की चेष्टा में मैं उसका सर सहलाने लगा।  उसने मेरा हाथ पकड लिया।  एक आवेग से काँप रही थी वह।  मैं ने अपने पैर जमाना चाहे, पर ज्वार तीव्र था और दैहिक आवेग का सुनहरा ड्रेगन निर्ममता से हमें लील गया

सुबह आग नहीं थी न ही राख , बस बर्फ थी हमारी धमनियों में जमी हुई।  अपराध बोध मुझे खाए जा रहा था, माना पहल उसने की पर वो तो निरी नासमझ है।  मैं सुबह ही उसके उठने से पहले ही बिना नहाए-धोए वहाँ से अपने उसी दोस्त के हॉस्टल चला आया।  वहीं चाय पी और सोचता रहा कहीं ऐसा तो नहीं बाड ही खेत को निगल गई? लौटा तो वह जा चुकी थी , एक संदेश छोड क़र - '' इस सब में अपराध या दोष किसी का नहीं है। आज भी अब भी आप उतने ही सम्माननीय हैं।  लोगों से, परिस्थितियों से भागना मुझे नहीं आता, फिर भी आपको अपने समक्ष असहज और नजरें चुराते हुए नहीं देख पाऊँगी, इसीलिये जा रही हूँ।  आप सुबह-सुबह चले नहीं गए होते तो मैं ने आपको बताया होता कि मेरी निर्मिति आपके सुख मात्र के लिये हुई है।  मेरे स्नेह के एकमात्र अधिकारी आप ही हैं , आज से नहीं तब से जबसे आपने मुझे वह डेजी-लार्क वाला चैप्टर पढाया था।''  

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