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वनगन्ध-6 जब दो व्यक्ति प्रेम में डूबे होते हैं तो वे सोचते हैं उनका प्रेम छिपा है बस उनके दिलों में, उन्हें कोई नहीं देख रहा। उनके प्रेम का बिरवा उनकी गुँथी हुई हथेलियों छिप कर बढ रहा है। किन्तु पता नहीं कब इस पौधे के बडे-बडे सब्ज हरे पत्ते हथेलियों से बाहर आ दुनिया को चौंका जाते हैं। मानसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में फिर हॉस्टल चली गई। मेरे आई एफ एस में सलेक्शन होने की खबर पाते ही घर में शादी का दबाव बढ ग़या। मैंने बहाना बनाया इन्टरव्यू के बाद सोचूँगा। इधर मानसी और मेरे सम्बन्धों की खबर मम्मी तक पहुँचने लगी। वे अस्वस्थ तो थी हीं इस चिन्ता ने उन्हें असहिष्णु बना दिया। बस बात
झगडे में बदल गई, ''
चाहो तो उसे लेकर
कहीं भी घूमते रहो,
ये घर छोड दो।''
अस्वस्थ माँ को लगातार कष्ट में डाल रहा था। उधर मानसी भावनाओं का दलदल था और मैं धँसा जा रहा था। एक दिन दीदी का फोन आया, पहले तो उन्होंने भाइ-दूज पर न आने का ताना दिया फिर शादी की बात शुरू कर दी। मेरे रूचि न लेने पर काफी वाद-विवाद हुआ। '' तुझे शादी नहीं करनी तो बहाने क्यों बनाता है।'' जैसे ही कोई प्रपोजल आता है मीन-मेख निकालने लगता है। क्या करता? स्थिति असहनीय हो गई थी। बहुत जद्दोजहद के बाद मानसी को पत्र लिखा। '' अब बर्दाश्त के बाहर है सब कुछ। तुम अगर अपने सुखी भविष्य की और किसी अन्य पुरूष से विवाह कर सैटल होने की गारन्टी नहीं दे सकतीं तो आठ दस दिन का समय निकाल कर आ जाओ। ताकि एक झटके में बाकि सब लोगों से सम्बन्ध तोड तुम्हें ही सुखी कर लूं। जिन्दगी कहीं नहीं पहुँच पा रही। तुम्हारे साथ शायद कहीं पहुंच सकूँ। यह निर्णायक समय है। मैं बत्तीस वर्ष पार कर चुका हूँ, यदि जीवन को हाथों से निकलने नहीं देना है तो बस अभी ही निर्णय लेना होगा। मैं तुम्हें अकेले अविवाहित रहने देने के मूल्य पर अपने किसी सुख की कल्पना कैसे कर पाता? तुम रति ज़रूर हो मगर अभिशप्त नहीं। मैंने तुम्हें मन से चाहा है। यही चिरन्तन सत्य है शेष सभी समझौते हैं। '' मेरे तुम्हारी ओर बढे क़दमों की शुरूआत कर्तव्यों से हुई थी वह भी आदर्शों, नैतिकताओं के दायरे में। आज मैं शर्मिन्दा हूँ कि मुझसे एक चूक हो गई जिसे तुम जीवन भर नहीं सुधारने देना चाहती हो। मैंने बहुत चाहा कि तुम्हें परे कर सकूँ, पर अब यह हृदय भी तुम्हारे कोमल हृदय की लय में धडक़ने लगा है। पुरूष हूँ यदि भावुक न होता तो अब तक तुम्हारे साथ न होता। फिर भी कैसे विश्वास दिलाऊँ कि ये विवाह होगा या एक फाईल में हमारे साथ रहने के परमिट के दस्तावेज? सप्तपदी का संस्कार तो पूरा न हो सकेगा, वैसे भी कहो, क्या शेष है सप्तपदी में? इतने महत्वपूर्ण कदम साथ उठाए हैं, सो उन सात कदमों में पूर्णता मत ढूंढना। उद्देश्य तो हमारा जीवनभर साथ रहना है ना! अब भाग्य यदि कुछ होता है तो वही समयचक्र चलाएगा। मैं तो नालायक निकला, जनकों का ॠण नहीं चुका सका, तुम लिखना तुम्हारे पेरेन्टस के बारे में। अपने उचित-अनुचित, वर्तमान, भविष्य पर विचार कर ही निर्णय लिखना। रह सकोगी मेरे साथ जीवन भर? पूरे पन्द्रह दिन बाहर लॉन में चहल-कदमी करता डाकिये की प्रतीक्षा करता रहा फिर उसके हॉस्टल फोन किया लेकिन वह नहीं मिली , इतने बडे यूनिवर्सिटी हॉस्टल में कौन किसे बुलाने जाता है। यह सोच एक पत्र और डाला तब कहीं जाकर उसका पत्र आया। '' व्यस्त थी । बहुत सारे कॉम्पीटीशन्स में अपीयर हो रही हूँ, कोचिंग्स में पूरा दिन निकल जाता है। जर्नलिज्म जॉइन किया है अभी ही। और हाँ! जीवन में सभी कुछ पा लिया आपको जितना पा सकी उतना पाकर। अब आप जनकों का ॠण चुका लें। इस समाज में जहाँ समाज के बीच की गई शादियाँ तक अपनी ताज़गी खो देती हैं तो ये दस्तावेजी शादी कैसा रूप लेगी इसकी कल्पना कर पा रही हूँ मैं। मैं इस अद्भुत रिश्ते को ऐसे ही रहने देना चाहती हूँ, मत बाँधिये इसे। आप शादी कर लें, मैं और मेरा भविष्य, हमें स्वतन्त्र छोड दें। आपने कहा था कि जब पौधे पेडों में बदल जाते हैं तो स्वयं अपना पोषण ले लेते हैं धरा से।'' थोडा बहुत और अनमना पत्रव्यवहार हुआ, परिणाम वही अनिश्चितता कैसे उसे अपने हाल पर छोड दूँ? मिनी तो एक नाज़ुक फर्न है और मैं एक घना शीरीष, मैं कटा तो वह भी सूख जाएगी। इसी उपापोह में इन्टरव्यू में सलेक्ट होकर मैं देहरादून चला गया। कम से कम एक साल के लिए शादी के प्रश्न से मुक्त हो गया मैं। पत्र लिखता रहा उसे, उसके पत्रों का वह स्नेह तिक्तता में बदल रहा था। उसकी मानसिकता में हो रहे हताश परिवर्तन पत्रों में प्रतिबिंबित होते। कई बार बस पत्र में कुछ काव्यमय पंक्तियाँ होतीं और कुछ नहीं। मसलन - ''
यदि प्रेम मृगतृष्णा है और
सत्य स्वप्न नहीं तो मेरे अज्ञान की यवनिका मत उठा,
यह विचार मात्र कि
तू स्नेह सम्बन्धों से जुडा है,
मेरे जीवन के जीवन
को काफी है... तुम्हारे हाथ से गिर कर चूर-चूर होने में ही मेरी माधवी
भरी जीवन-प्याली का अखण्ड सौभाग्य है।
'' उसके ऐसे उद्गारों पर मैं काँप जाता। क्यों कर रही है वह ऐसा? ऐसे में अपने बेहद अन्तरंग मित्र की सलाह ही मुझे व्यवहारिक लगी थी। '' अब तू उसे अकेला छोड दे। जब तक जुडा रहेगा वह लौट-लौट कर तेरे बारे में परेशान होगी और अपने बारे में ऐसी हताश बातें सोचेगी। एक झटके में काट दे ये टीसते सम्बन्ध, जब वह होश में तो आए तब अपने बारे में सोचे। अब तक तेरी पर्सनालिटी ने उसे ऐसे ओवरलैप कर रखा है कि उसे अपना आप लगता ही नहीं। कोई और लडक़ी होती तो झट से शादी के लिये हाँ कर तुझे लेकर अलग हो जाती। मानसी वहाँ भी तेरा सोचती रही है।'' हाँ सच तो है। ऐसे तो न वह मुझसे शादी करेगी ना ही स्वयं को काट सकेगी मुझसे। परिणामत: ट्रेनिंग पूरी होते ही मेरी सगाई स्वर्णा से हो गई। असमंजस तो टूटा मगर टूट गए वो सारे सेतु जो स्वर्ण तन्तुओं से मेरे और मानसी के बीच गुँथे थे। सगाई के बाद एक बार मानसी हॉस्टल से लौटते ही सीधे मेरे घर चली आई, उसके व्यवहार से लगा आन्टी उसे बताने का साहस नहीं कर सकीं थीं शायद, मेरे बताने का तो साहस उसका चेहरा देख कबका चुक गया था। मुझे अकेला पाते ही अपनी क्षीण बाँहें मुझ पर फैला दीं। मैं मन ही मन रो पडा। इतने में मम्मी चली आईं- '' अरे मिन्नी तू आई नहीं...कितना तेरी मम्मी को कहा बुला लो वरना देखती निक्की की बहू कितनी अच्छी है। ठहर तुझे सगाई की एलबम दिखाती हूँ।'' कह कर वो एलबम उठा लाईं। मैं पास रखा तौलिया उठा कर बाथरूम में चला गया। पता नहीं बाहर कैसा तूफान गुजरा होगा। मैं जानबूझ कर देर तक नहाता रहा, जब निकला तो वह जा चुकी थी। मम्मी किचन में कोई विवाह गीत बन्ना-बनी गुनगुना रहीं थीं। उस दिन तो न जा सका अगले दिन सुबह मानसी के घर पहुंचा.. तो वह आन्टी की गोदी में खण्डिता सी लेटी थी। बेटी की जरूरत समझ आन्टी ने छुट्टी ले रखी थी। एक अजीब त्रासद शान्ति थी वहाँ। मुझे देख वह उठ बैठी। दो स्त्रियों के थके उदास चेहरे मुझे अपदस्थ कर रहे थे। कहाँ से बात शुरू करूं इसी असमंजस में घिरा पास की कुर्सी पर बैठ गया। इतने में आन्टी उठीं और मुझसे पूछा, '' पानी लोगे निखिल? और हमें एकान्त देकर चली गईं। मानसी उदास जरूर थी पर कुछ था उसका आन्तरिक भाव जो उसे दृढ बनाए था। शायद आन्टी ने देर तक समझाया हो। चाहे आन्टी के बारे में कुछ भी सुना हो ,वे एक स्नेहिल , शान्त किस्म की महिला थीं। उनकी गहरी आँखों में ज़माने भर के अनुभव थे। मैं मानसी के निकट जा बैठा और धीरे से बोला, ''
अगर बहुत कठिन हो रहा हो तो
मैं कुछ कहूँ?
उसने पलकें उठाईं... याद है
न तुमने लिखा था जनकों का ॠण चुका दूँ,
यकीन मानो वही कर
रहा हूँ।''
इतने ही में आन्टी आ गईं और बोलीं, इसे अपने आप उबर आने दो निखिल, देखो ना ऐसे में भी एक अच्छी बात हो गई और इसका सलैक्शन ऑल इण्डिया रेडियो में प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव के लिये हो गया है। परसों ही इसे जॉइन करने जोधपुर जाना है। कल यही खबर देने तो आई थी तुम्हारे पास।
एक क्षीण स्मित उसके सूखे होठों पर उभरा और विलीन हो गया, जैसे आस्मान में तारा टूट कर पल में खो जाता है। ट्रेन ने हॉर्न बजाया और एक धक्के के साथ सरकने लगी। वह पल बहुत घनीभूत था, न जाने कब आन्टी-अंकल, मिलिन्द से उसने विदा ली। मैं समझ नहीं पाया कि कैसे विदा लूं इस बेहद प्रिय स्नेही से। मैं धीमे सरकती ट्रेन के साथ दौडने लगा और तब तक दौडता रहा जब तक स्टेशन की सीमा खत्म हुई और कच्चा और नीचा फर्श आ गया। मन पर मनों बोझ लेकर लौट आया। उसी रात स्वर्णा का फोन आया जिससे अन्यमनस्कता घटी नहीं बढ ही गई। बता रही थी कि पण्डित ने अगले महीने की दस तारीख का मुर्हूत तय किया है। बाकी अंश - | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | Top |
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