पीपल का यह वृक्ष बंबई के एक विरले शांत कोने में खड़ी इस रिहायशी इमारत के विस्तृत प्रांगण के पूर्व में स्थित है। उसकी धूप से पकी भूरी शाखाएँ चौड़े गिर्दाब में फैली हैं। उसके विशाल तने पर, जहाँ से छाल कुछ–कुछ छिल गई है, हल्के सलेटी धब्बे हैं। नाज़ुक पीताभ डंडियों से लटकी गहरी हरी पत्तियों की नुकीली चोंचें सदा लरजती, झूलती रहती हैं। उसके कद और फैलाव के सामने कंपाउंड के अन्य सभी वृक्ष ओछे हैं। हर सुबह उगते सूर्य की किरणें उस पर जिस गलबहियों की–सी नर्मी से पड़ती हैं, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि वह सूर्य का पुरातन सखा है और तब से धरती का वह कोना अगोरे खड़ा है जब सूर्य एक जवान सितारा था। और जिस कदर वह हरा–भरा और छतनार है, उससे पता चलता है कि उसने कभी किसी तरह का प्रतिबन्ध जाना ही नहीं।

हालाँकि पीपल मनुष्य की स्मृति से अधिक पुराना है, इस रिहायशी कॉम्प्लेक्स से जुड़ी उसकी कहानी सब जानते हैं, मैनेजर से लेकर अदने माली तक। वह कहानी कुछ यों है – पिचहत्तर-अस्सी वर्षों पहले, कुछ विलायती कंपनियों के देशी–विदेशी नियंताओं ने नगर की भीड़-भाड़ से अलग और आम जन की पहुँच से कतराते हुए घर बनाने का निर्णय किया। ये घर इतनी खूबी से बने होने चाहिए थे कि उनकी सहूलियतों में वे बंबई के देशीपन का दुःख भूल जाएँ। चुनाँचे इस महत्वपूर्ण काम के लिए बहुत से पाउंड देकर लंदन से एक युवा वास्तुकार बुलवाया गया। वह वास्तुकार मुंबई के उजले आकाश और अरब सागर वाले सौन्दर्य पर मोहित हो गया। लेकिन युवा होने के बावजूद वास्तुकार अनुभवहीन नहीं था। देशी–विदेशी साहबों पर उसने अपना मोह ज़ाहिर नहीं होने दिया। जब भी वे बंबई की गर्मी या भीड़ की शिकायत करते तो वह सिर हिलाना ना भूलता। उसने कोलाबा से लेकर नेपियन–सी रोड तक के सारे इलाके देख डाले। कहीं पर समुद्र की नमकीन हवा की झार तीखी थी तो कहीं बच्चों और कुत्तों और नौकरों की जमातों के लिए सुविधा नहीं थी। घूमते-फिरते वह सागर तट से सभ्य दूरी बनाए, शाइस्ता गोलाई में शहर के ऊपर उठी मालाबार हिल पहुँचा। बस यह जगह उसे ठीक जँची और उसने पहाड़ी का एक हिस्सा, जहाँ से सागर का नज़ारा दिखता था, चुन लिया। ज़मीन के मालिक की वह टुकड़ा बेचने की इच्छा नहीं थी, वह एक छोटा-मोटा राजा था और निकट ही एक विशाल हवेली में रहता था। लेकिन उसकी इच्छा अनिच्छा से कहाँ अंतर पड़ता था? झटपट फ़रमान भेज दिया गया और मालाबार हिल के उस सुरम्य कोने के साथ वही हुआ जो बाक़ी हिन्दुस्तान के साथ हुआ था– उसे औने-पौने दामों में साहबों के लिए हथिया लिया गया।

वास्तुकार भूमि के निरीक्षण और नाप-जोख में जुट गया। पूर्व में खड़े महाकाय पीपल को उसने देखा, तो देखता रह गया। उस पर पीपल का श्याम-हरित जादू गहरा चला। वह देर तक उसके तने के चिकनेपन को अँगुलियों से छूता रहा, उसकी नीली छाँव में पड़े हरे–सुनहरी धूप-धब्बों को देखता रहा। आसपास के वट, ताड़ और नाग केसर के वृक्षों का पुरखा-सा यह पेड़ नहीं काटा जाएगा, उसने अपनी डायरी में लिखा, यह इसी प्रकार पूर्वाभिमुख, प्राचीन यतिवत सूर्यवंदना में हरिताभ बाँहें बढ़ाए रहेगा।
बस वहीं पीपल के नीचे बैठ कर उस युवा वास्तुकार ने बिल्डिंग का ख़ाका बनाया और अपनी निगरानी में पहाड़ी के सपाट किए कोने पर इमारतों का निर्माण करवाने लगा। इमारतों की संयोजना में पीपल का अहम् स्थान था और उस पर आंच न आने देने के लिए इमारतों का संयोजन एक क़तार के बजाए अर्धचंद्र आकार में किया गया। जल्दी ही एक दूसरे से एक सुसंस्कृत दूरी बनाए हुए पाँच छः-मंज़िली इमारतें मलाबार हिल की देह में गड़ गईं। हर मंज़िल पर एक बड़ा हवादार फ्लैट, साहब लोगों और नौकरों ले लिए अलहदा सीढ़ियाँ, गाड़ी– घोड़ों के लिए गैराज। पीपल को उचित पृष्ठभूमि देने के लिए वास्तुशिल्पी ने भारतीय और विदेशी फूलों से संपन्न, हरी मखमली घास से सजे एक उपवन की संकल्पना की। निर्माण सम्पूर्ण होने पर अंग्रेज़ वास्तुशिल्पी अपने देश लौट गया। वास्तुशिल्पी के कला-कौशल की निशानी के तौर पर उसके बनाए पीपल के स्कैच बिल्डिगों में अब भी जगह-जगह लटके हैं और बाग़ के एक छोर पर अब भी विशालकाय हरे गुलदस्ते-सा पीपल अपना अधिपत्य जमाए है।

इसी पीपल की शाखा–प्रशाखाएँ जानकी की खिड़की तक फैली हैं, उसके पत्तों से छनी धूप से कमरा हरियाया रहता है, शाम पड़े सुघड़ छायाएँ दीवारों पर बनती-मिटती रहती हैं। चाचा ने पीपल के इस निकट संसर्ग पर शुरू में ही आपत्ति उठाई थी।

“इस पेड़ की डालियों ने तमाम खिड़की को ढँक रखा है, कीट–पतंगे आएँगे घर में इससे और बंबई के मानसून में जो थोड़ी बहुत धूप दर्शन देती है, उसे यह पेड़ हजम कर जाएगा। कमरे में सीलन रहेगी। इसकी छँटाई होनी चाहिए।”

“आप कैसे बॉटनिस्ट हैं, चाचा? आपसे इसकी हरियाली देखी नहीं जा रही? ऐसा सुंदर, मर्मर-भरा परदा लगाया है इसने मेरी खिड़की पर और आप इस पर वायलेंस करना चाहते हैं?” जानकी ने पीपल की और से पैरवी की।

चाचा चिढ़ गए। “अव्वल तो मैं बॉटनिस्ट नहीं हूँ। फिज़िसिस्ट हूँ, इतने सालों में किसी कुंद-जेहन को भी यह पता चल गया होता। दूसरे इस पीपल को किसी के तरफ़दारी की ज़रुरत नहीं है, घोर अवसरवादी पेड़ है, फ़िग फ़ैमिली की सबसे कड़ियल और अड़ियल संतान। जहाँ जड़ जमा ले, भूकंप छोड़ किसी और तरह न निकले।”

“देखिए आपको पेड़ों के बारे में इतना मालूम है! बॉटनिस्ट आप कैसे नहीं?! और अगर ये महानुभाव दूसरे के सिर पर पैर रख कर इतने बड़े हुए हैं तो उसमें बुराई क्या? आपने ही तो सरवॉयवल ऑफ़ फिटेस्ट के बारे में पढ़ाया था मुझे।”

चाचा ने बोर्ड की परीक्षाओं के लिए जानकी को दफ्तर से छुट्टी लेकर साइंस पढ़ाई थी। जानकी की दिलचस्पी विज्ञान में कम ही थी, वह ध्यान नहीं देती थी, बार-बार पढ़ाया हुआ पाठ भूल जाती थी, लेकिन चाचा एक हताश निश्चय के साथ जुटे रहते थे। जब दसवीं की परीक्षा के बाद जानकी ने अकाउंटिंग लेने का निश्चय किया तब जा कर चाचा ने आशा छोड़ी।


“तुम बनियागीरी पढ़ती हो, साइंस का जिक्र न ही करो। इस पीपल के मच्छर-मक्खियों और सीलन के जब बीमार पड़ जाओगी तब इवोल्यूशन की सारी थ्योरी उलटी पड़ जाएगी। तुम सुपीरियर स्पीशी की हो, तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए इस पीपल को कटवाना पड़ेगा।”

“हम कहाँ से सुपीरियर हो गए? लाख वर्षों से ही तो हैं यहाँ जबकि ये पीपल महाशय कल्पों से डटे हैं।”

“फालतू की बहस है ये। भाई”, चाचा जानकी के पिता की और मुख़ातिब हुए “आपको बिल्डिंग की मैनेजमेंट कमिटी में पेड़ों की छँटाई की बात उठानी चाहिए। मैंने तो आपको पहले ही इतने पुराने कॉम्प्लेक्स में घर लेने से मना किया था, इतने नए डिवेलपमेंट्स हैं…”

“बिल्कुल मत उठाइएगा कटाई वगैरह की बात, पापा”, जानकी ने गुहार लगाई “ये पेड़ और पुराना गार्डन ही इस जगह को इतना स्पेशल बनाते हैं…”

बहस वाकई व्यर्थ साबित हुई। बिल्डिंग के प्रबंधन नियम वही अंग्रेज़ वास्तुशिल्पी लिख गया था। उनमें बिल्डिंग के कंपाउंड में लगे पेड़ों की छँटाई पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे। पीपल का विशेष उल्लेख था – पूर्वी छोर पर लगा प्राचीन फ़ाइकस रिलीजिओस’ संरक्षित वृक्षों की श्रेणी में है। म्युनिस्पैलिटी व नगर की नैचुरल हैरिटेज कमिटी को उसके विषय में जानकारी दी गई है तथा मानसून की अनिवार्य छँटाई से लिखित में छूट ली गई है, केवल गिरने वाली डालियों को ही काटने की अनुमति है, हरी डालियों को किसी प्रकार कि हानि पहुँचाने पर जुर्माना। जानकी यह सुन कर हँस पड़ी।

जानकी अपने परिवार के साथ इन्हीं गर्मियों में कोलकाता से मुंबई आई थी। उसके पिता एक बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर थे। हैड ऑफिस की नियुक्ति पर मुंबई आए थे। पदोन्नति की आशा थी, जिम्मेदारी का ओहदा था, शाम अक्सर देर से घर लौटते थे थे। अच्छा था कि चाचा पहले से मुंबई में थे, शादी वगैरह उन्होंने की नहीं थी। उनकी शामें और सप्ताहांत जानकी के घर में ही बीतते थे।

“भैया से बड़ा सहाय है”, मम्मी कहतीं “मुंबई घर जैसा लगने लगा है दो ही महीनों में।”

“आपको ही लगता होगा चार मौसम वाले कोलकाता के बाद ढाई मौसम वाला मुंबई।” जानकी की सहेलियाँ कोलकाते में ही छूट गयी थीं। ये मुहावरा उसने पापा से सीखा था, “मुंबई में सिर्फ गर्मी और बारिश, यही मौसम होते हैं। और जैसी-तैसी बमुश्किल सर्दियाँ, ढाई मौसम!”

लेकिन वस्तुतः चाचा का सहारा था। शाम को जानकी के साथ बातचीत, नोंक-झोंक कर लेते, घर में कुछ रौनक हो जाती। उनके आने के कारण मम्मी भी रोज कुछ न कुछ नया पकवातीं। जानकी कॉलेज की प्रवेश-परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी, सारा दिन घर में खिड़कियाँ, दरवाजे बंद कर बैठने में उसे घुटन लगती। ऐसे में पीपल की साँवली छाँह का ठंडक-भरा वादा आकर्षक था और शाम को वह पीपल के नीचे जा बैठती। पीपल-तले तिपतिया, छोटी नरसल और दूसरी जंगली घासों का मोटा कालीन ठंडा और मुलायम था। वह तने की टेक लगा कर पढ़ती रहती। एक रोज़ घर में काम करने वाली सुनीता ने देखा तो शिकायत की। “जानकी बाबा पीपल के नीचे बैठीं थी। कुंवारी लड़की हैं, पीपल पर जिन्न-भूत रहते हैं। साँझ पड़े मत बैठने दो…”

खाने की मेज़ पर मम्मी ने बात उठाई, “सुनीता को डर है जानकी पर पीपल का भूत सवार हो जायेगा।”

चाचा सलाद की प्लेट से चुन-चुन कर टमाटर के टुकड़े खा रहे थे। बोले “उस डर के लिए देर हो चुकी है। पीपल का भूत इस पर पहले दिन से सवार है।”

“हाउ सैल्फिश चाचा। कुछ टमाटर मेरे लिए भी छोड़िए! और मुझ पर नहीं आप पर सवार है पीपल का भूत – इसे छँटवा दो, खिड़की से हटवा दो, बीमारी का घर है ! खुद आ कर देखिए क्या हवा चलती है उस पेड़ के नीचे। और कहीं पत्ती भी नहीं हिलती लेकिन पीपल के पात हमेशा डोलते रहते हैं।”

“तुम्हें कौन कॉलिज में दाख़िला देगा? जाहिलों की सी बातें करती हो। पीपल के ड्रिप लीव्स होती हैं, पत्तियों का जुड़ाव डंडियों से ऐसा लचकीला होता है कि बिना हवा के भी हिलती हैं।”

“अच्छा ये पीपल पर बहस नहीं है।” मम्मी ने नौकर को चाचा और पापा की थालियों में रोटी परोसने का इशारा किया, “बात इतनी है कि शाम को गीली घास-मिट्टी पर बैठी रहोगी तो कपड़ों में दाग लगेंगे और तुम्हें ज़ुकाम लगेगा।”

“मम्मी उसकी जड़ में इतनी मखमली घास और मौसेज़ हैं, आपका भी बैठने मन हो जाए!”

मम्मी और चाचा एकबारगी साथ आपत्ति कर उठे। चुपचाप खाना खाते पापा ने चम्मच बिना आवाज दाल की कटोरी में रख दी। “कल से घास में मत बैठना, जानकी, फोल्डिंग चेयर ले जाना।”

“आप उसे उस जंगल-नुमा पेड़ के नीचे बैठने दे रहे हैं?” चाचा ने चुनौती दी।
“क्यों नहीं? तुम्हें पीपल के जिन्न भूत पर विश्वास है?”
चाचा सिटपिटा कर चुप हो गए।

मई का महीना था और उमस नाम पूछ रही थी। एक शाम जानकी पीपल के नीचे बैठी पढ़ रही थी।

“तुम अपने सिंहासन पर डटी हो?” चाचा सीधे दफ्तर से चले आ रहे थे। उनके हाथ में लंच-बैग था और कंधे पर एक बस्ता-नुमा थैला।

“चाचा, यू लुक सो क्यूट! कॉलिज के लड़के दिखते हैं आप। आपकी उम्र क्या है?”

“जो इस पीपल की है। इतने अँधेरे में आँखें फोड़ रही हो?”

“बस घर जाने ही वाली थी मगर यहाँ इतनी शांति है कि मन नहीं हो रहा! आप ध्यान से सुनें तो इसकी जड़ों से तने और तने से डालियों में खिंचते बूँद-बूँद रस की आवाज़ सुन सकते हैं।”

“जमीन से पानी सीप होने की आवाज़ है।” चाचा ने पीपल के नीचे की काई को जूते से दबा कर देखा। “बहुत नमी है, चिकनी मिट्टी है यहाँ, पानी ड्रेन नहीं होता। मच्छर नहीं हैं यहाँ?” उन्होंने जानकी के बिना बाँहों के कुर्ते पर उचटी नज़र डाली।

“मच्छरों को इस पीपल के जिन्न खा गए हैं। लेकिन देखिए, इस पर ये क्या आ रहा है?” जानकी ने पीपल की डालियों पर जड़े फलों की ओर इशारा किया। “पीपल पर फल आते हैं, नहीं जानती थी। पहले ये हरे थे अब लाल हो गए हैं।”

“फाइकस के फ़िग्स हैं, अंजीर जैसे, लेकिन हमारे लिए अखाद्य, बेहद कसैले।” चाचा ने बाँह बढ़ाकर एक गठियल, घुंडीनुमा फल तोड़ लिया। “दरअसल ये सिर्फ फल नहीं है, इस पीपल के फूल भी हैं। जैसे तुम्हारी मम्मी छोटी-बड़ी चीजों को एक-में-एक सहेजती हैं, वैसे ही ‘नेचर’ ने फूल, फल, बीज सब इस छोटे फ़िग में सफ़ाई से सहेज दिए हैं। वेरी इकनोमिकल।” चाचा ने अँगुलियों से दबा कर फल को तोड़ दिया। उसके भीतर का पीलापन लिए गुलाबी गूदा और राई के दानों से छोटे-छोटे बीज बिखर गए। “अभी कच्चे हैं, थोड़े दिनों में पकेंगे तो चिड़ियाँ खाएँगी।”

चाचा की भविष्यवाणी ठीक सिद्ध हुई। फल पकने लगे और पीपल चिड़ियों के लिए सदाव्रत बन गया। सुनहरे, कजरारी आँखों वाले पीलक, माथे पर लाल टीका चमकाए बसंथा, चोटीदार बुलबुले और तरह-तरह की छोटी मुनियाएँ उस पर दिन भर शोर मचाने लगीं। शाम को पीपल-तले की धरती अधखाए फलों से पटी होती जो जानकी के पैरों के नीचे दब कर करारी आवाज़ के साथ टूट जाते।

इन्हीं दिनों, जब कि पीपल से एक अपरिचित रसीली गंध उड़ रही थी, एक शाम चमगादड़ आए। गोधूलि के नील-गुलाबी गगन में वे दल-के-दल उड़ते आए। जानकी पीपल-तले ही थी। उसने झटपट किताबें समेटी और एक ओर हट कर देखने लगी। दूसरी छोटी चिड़ियों की तरह वे चमगादड़ पंख नहीं मार रहे थे, न ही चीलों की तरह तिर रहे थे, अपने कमानीदार परों को उठाते-गिराते, वे आकाश में चप्पू-सा चला रहे थे। वे छोटे-बड़े सभी आकारों के थे– कार्बन की कतरनों से नन्हें और विशाल पतंगों से लहीम-शहीम। एक-एक कर वे पीपल पर उतरने लगे। जानकी घर लौट पड़ी।

पापा कई दिनों से दफ्तर के काम से शहर से बाहर थे। उस शाम ही लौटे थे और चाचा के साथ लिविंग रूम में चाय पी रहे थे।

“भाई, आपके कारण आज जल्दी आ गई है वरना अँधेरा हो जाता है और ये वहाँ मच्छरों का भोजन बनी बैठी होती है।” चाचा ने कहा।

जानकी ने पापा के हाथ में थमा चाय का कप लिया और चुस्की लेकर मुँह बनाया, “आज भी फीकी है। चाचा, ज़रा अपनी चाय दीजिए ना।”

“रसोई में जाने का कष्ट कीजिए न।”

“क्या चाचा।” जानकी ने प्लेट से अंजीर की तराश उठाई, “बाइ द वे पीपल पर आज चमगादड़ आए हैं। बाप रे बाप, कितने सारे ! कैलकटा में भी थे, लेकिन इतने एक साथ कभी नहीं देखे। सुनीता दी कहती है चमगादड़ खून चूस लेते हैं, कान काट लेते हैं…”

“वाह, वाह, बहुत अच्छे! सारे ज्ञान का स्रोत सुनीता है तुम्हारे। ऐसी बुद्धि लेकर क्या करोगी? सच नॉनसेंस।”

“तो काटते नहीं हैं चमगादड़?”

“परेशान करने पर तो गिलहरी, चूहे भी काट लेते हैं लेकिन चमगादड़ मनुष्यों को नुकसान नहीं पहुँचाते बल्कि खेती ख़राब करने वाले चूहों वगैरह को खा लेते हैं। यहाँ जो चमगादड़ दिखते हैं वे इंडियन फ़्लाइंग फ़ॉक्स हैं, मैगा काएरोप्टैरा सबऑर्डर के। जैसा कि तुम जानती हो, या कम से कम मेरी पढ़ाने की मेहनत के बाद तुम्हें जानना चाहिए, ये मैगा काएरोप्टैरा फ्रूट बैट्स हैं, फलाहारी, बिल्कुल साधु-संतों की तरह।”

“काएरोप्टैरा,” पापा ने दोहराया, “पुरानी ग्रीक में पाँख–हाथ। बहुत खूब।” पापा को शौकिया तौर पर भाषाएँ सीखने की लत थी। हवाई जहाज़ में, गाड़ी में, गुसलखाने में जहाँ वक्त मिलता, पढ़ते रहते।

“बिल्कुल। चिमगादड़ ‘मैमल्स’ हैं, हमारी तरह। उनके पर चमड़े की झिल्ली हैं जो उनके हाथों की अँगुलियों के बीच तनी है। ग़ज़ब जीव हैं ये बैट्स। फ़्लाइंग फ़ॉक्स की दृष्टि तो फिर भी ठीक-ठाक है लेकिन ज्यादातर की आँखें कमजोर होती हैं, ध्वनि के सहारे रास्ते की अड़चनें जान लेते हैं।”

“लेकिन चमगादड़ तो बोलते नहीं बस अमावास की रात को बोलते हैं।”

चाचा ने गहरी साँस ली। “ये भी सुनीता ने बताया होगा। आज सुनना कैसा शोर मचाते हैं। रास्ता ढूंढने के लिए अलबत्ता अल्ट्रासोनिक ध्वनि का प्रयोग करते हैं जिसका पिच इतना ऊँचा होता है कि मनुष्य के कान उसे सुन नहीं सकते।”

“लेकिन…”

“देखो जानकी, एक शाम में मैं इससे ज्यादा घनीभूत विज्ञान का अज्ञान नहीं झेल सकता। लो, तुम मेरी चाय पी लो।”

जानकी ने हँसते हुए चाचा के हाथ से कप ले लिया।

उस रात जानकी खिड़की के पास की पीपल की डालियों पर चमगादड़ो की अफ़रा-तफ़री देखती रही। पेड़ की फुनगी से लेकर डालियों तक वे कागज़ी कंदीलों से लटके थे और नट-बाजीगरों की-सी चटुल गरिमा से शाखाओं पर यहाँ-वहाँ आ-जा रहे थे। एक ने जानकी का ध्यान विशेष रूप से खींचा। वह एक बड़ा भारी चमगादड़ था और जानकी की खिड़की के सबसे निकट वाली डाली पर लटका था। यद्यपि खिड़की के पास की डालियाँ फलों से लदी थीं, उन पर उसके अतिरिक्त कोई और चमगादड़ नहीं था। जानकी खिड़की पर और झुक कर उसे गौर से देखने लगी। वह डाली पर धीरे-धीरे एक सिरे से दूसरे सिरे तक तफ़रीह कर रहा था। जानकी के देखते-देखते उसने पंजा बढ़ा एक पका फल तोड़ा और फल को पंजे में थामे-थामे झूलता सा घूमा। जानकी ने देखा कि उसका मुंह वाकई कुछ-कुछ लोमड़ी-सा था– नर्म, नुकीली थूथन, चमड़े की पत्तियों से कान और काले मनकों सी आँखें। उसके गले के गिर्द लाल-सुनहरी रोयों का रंगीन मफ़लर-सा था। जानकी ने होंठ गोल कर हल्की सी सीटी बजाई। चमगादड़ डाली पर सरका और बिल्कुल सिरे पर आ रहा, इतना निकट कि यदि जानकी हाथ बढ़ाती तो उसे छू लेती। उभरी, चमकीली आँखें जानकी की ओर लगाए, वह पंजे में थमा फल खाने लगा। अपने नुकीले दाँतों से उसने फल को छेद डाला और उसका रस और नर्म गूदा चूस गया। फिर एक नर्तक की अदा से उसने अपने चौड़े पर फैलाए, पीपल पर घिरा अँधियारा जैसे और गहरा हो गया। चमगादड़ की अनावृत्त देह जानकी को एक बड़े चूहे-सी लगी, हल्के पीताभ अधोभाग में उसका गहरे रंग का लिंग उभरा हुआ साफ़ दिखाई दे रहा था। जानकी ने भौहें उठाई और खिड़की से हट गई।

सुबह के सात ही बजे थे परंतु धूप पीपल की डालियों में घुसपैठ कर रही थी और ललमुँहा सूरज आकाश में ऊँचा उठ गया था। सूर्य को अर्घ्य देने खिड़की पर आई जानकी चाँदी की लुटिया से जल-धार गिराती सविता देवता वाला मंत्र बुदबुदाने लगी। निकट की डाली पर हलचल हुई। वही रात वाला चमगादड़ था, फिर से डाली के छोर पर आ गया था। अपने पर उसने दुशाले की तरह कस कर अपने चौगिर्द लपेटे हुए थे और उसकी गर्दन पर के रोएँ धूप में चिलक रहे थे। पीपल पर दिन की चिरैयों की गहमा-गहमी होने लगी थी और वह अकेला ही चमगादड़ रह गया था। जानकी ने गीली अँगुलियों में अटकी पानी की बूँदें चमगादड़ की ओर छिटक दीं। “लो तुम भी अर्घ्य लो, चमगादड़ों के राजा! मुझे तुम्हारी वंदना का कोई मंत्र नहीं आता, लेकिन इतने स्पेशल हो कि तुम्हारी अर्चना होनी चाहिए! ये मंत्र कैसा रहेगा – हे महान चमगादड़, तुम्हारे पंखों में रात बसती है और कंठ पर उषा…”

“हाय राम! जानकी बाबा, तुम अकेले किससे बातें कर रही हो?”

“इस चमगादड़ से। ये रात भर मेरी खिड़की के पास लटका रहा। इसके सब साथी कहीं चले गए हैं लेकिन ये यहीं है।”

सुनीता के माथे पर आड़े-सीधे बल पड़ गए और उसने झपट कर खिड़की बंद कर दी। चमगादड़ एक बड़ी पोटली सा वहीं लटका रहा।

उस शाम पीपल-तले बैठी जानकी की गोद में एक फल आ गिरा, चिकना ललौंहा, कड़ा। उसने सिर उठाया। चमगादड़ ठीक उसके ऊपर की डाल पर झूल रहा था। वह मुस्कुराई “सलाम। फल के लिए शुक्रिया। आप दिन भर से यहीं हैं?” चमगादड़ धीरे-धीरे झूलता रहा। जानकी ने किताबें बटोरीं। “लीजिए आपकी प्रजा आ रही है, मैं चलती हूँ।” आकाश में घिरती गहराती गोधूलि में चमगादड़ों के दल प्रकट हो गए थे और पीपल की ओर आ रहे थे। डाली पर लटके चमगादड़ ने एक चुभती चीत्कार की और डैने खोल पीपल के ऊपर मंडराने लगा, आने वाले चमगादड़ों का रास्ता छेंकता। जानकी उसके हवाई पैंतरे देखने लगी। ज्यों ही चमगादड़ किसी डाल पर उतरने की कोशिश करते, पीपल वाला चमगादड़ टेर लगाता, एक आड़ी रेखा में उड़ता और आगंतुकों का रास्ता काटता। कुछ मिनट यह कशमकश चलती रही। अंत को आने वाले चमगादड़ मुड़ गए और रात वाला चमगादड़ पर झुलाता पीपल की गहरी छाँव में गुम हो गया।

“सुना तुम सुबह चमगादड़ से बतिया रही थी।” चाचा ने मम्मी के हाथ कैरी के पने का गिलास लिया। “तुम्हारी साइंस-टीचर अभी-अभी बता रही थी।”

ट्रे लेकर खड़ी सुनीता रसोई में हो गई। “ऐसी बास आ रही थी उस कनकटे से।” जाते-जाते वह छौंकन लगाती गई।

“कहाँ की बास?” जानकी ने अपनी किताबें मेज़ पर धर दीं। “वो बैट एकदम स्पैशल है। अभी-अभी उसने चमगादड़ों के ग्रुप को भगा दिया। शायद वही इस पीपल का देव है। गार्डियन ऑफ़ दी पीपल ट्री।”

“रबिश। अब तुम अपनी गुरु से भी आगे निकल गई हो। फ़्लाइंग फ़ॉक्स ग्रिगेरियस होते हैं, बेहद सामाजिक, बड़ी कॉलोनीज़ में इकट्ठे रहते हैं।” किताबें एक ओर सरका कर चाचा ने खाली गिलास मेज़ पर रख दिया। “और चमगादड़ों का ग्रुप नही कहा जाता कैंप कहा जाता है – ए कैंप ऑफ़ बैट्स। फ़्लाइंग फ़ॉक्स अकेले नहीं रहते।”

“ये वाला रहता है। बिल्कुल अकेला सारी रात मेरी खिड़की के पास झूलता रहा। आय स्वैर, चाचा, मुझे देख रहा था और आज शाम तो उसने मुझे एक फ़िग दिया।”

पापा और मम्मी खाने की मेज़ पर आ चुके थे।

“तुम्हारा इमैजिनेशन कमाल है! ठीक है, वह पीपल का देव है और तुम्हें प्रसाद दे रहा था।” चाचा ने पापा की बगल वाली कुर्सी खींची।

“कल्पना नहीं सच। ही लाइक्स मी, आय थिंक।” जानकी भौहें नचा कर हँसी।

“जानकी, बेवकूफों सी बातें मत करो। बैट्स घरेलू जानवर नहीं हैं। रेबीज़ के सबसे बड़े कैरियर्स हैं ये। खिड़की बंद रखा करो अपनी।” चाचा के तल्ख़ स्वर पर जानकी का मुँह बन गया।

“मैंने एक बार चमगादड़ के बच्चे पकड़े हैं।” पापा कौर निगल कर बोले। “तुम्हें याद है?” उन्होंने चाचा की ओर देखा। चाचा ने गुब्बारे सी फूली रोटी में छेद कर भाप निकाल दी।

“कब पापा?”

“बचपन में। चमगादड़ ने बिजली के मीटर बॉक्स में घोंसला बनाया था। बार बार फ्यूज़ उड़ जाता था। माली ने निकाला था घोंसला। तुम्हारे चाचा और मैं छोटे-छोटे बच्चों को हथेली में लेकर मैया को दिखाने ले गए थे।”

“भाई मुझे ये सब याद नहीं। एनी वे, उनसे दूर रहना अच्छा है। ‘दे आर नॉट सेफ़’।”

“ओहो ! उस दिन ‘हार्मलैस’ कह रहे थे और आज ‘नॉट सेफ़’ !” जानकी ने जड़ा, “पापा कैसे दिखते थे चमगादड़ के बच्चे? छूने में कैसे थे?”

“चूहों जैसे दिखते थे और काग़ज़ जैसे रूखे-सूखे थे।” चाचा चिढ़ कर बोले, “माली बेवकूफ़ था, मैया ने लताड़ लगाई थी उसे।”

“लीजिए, अब सब याद आ गया!” जानकी की हँसी से कमरा लहर गया।

चमगादड़ ने चाचा के ज्ञान को झुठला दिया। वह पीपल के पेड़ पर दिन-रात अकेला रहता, किसी और पक्षी या दूसरे चमगादड़ के आने पर कोहराम मचा देता। पेड़ के फल खाने का साहस सिर्फ़ उद्धत मैनाएँ या तोतों का झुंड ही कभी-कभी कर पाते। जैसे ही जानकी की कुर्सी पीपल के नीचे लगती, वह निकट की किसी शाखा पर आ लटकता। कभी वह नट-सा डैने फैलाए घूमता, कभी गर्दन तिरछी कर जानकी को देखता। जानकी उसके करतबों का वर्णन खाने की मेज़ पर अक्सर करती और चाचा का मुँह फूल जाता।

जून माह की शुरुआत थी। नमी के मारे हवा भारी थी और पेड़-पत्ते, चिड़िया-कुत्ते, मनुष्य सभी निढाल थे। जानकी तीन दिनों से मम्मी के साथ शाम को बाज़ार जा रही थी। घर के लिए परदे लेने थे और मम्मी को अकेले रंग और डिज़ाइन चुनने में परेशानी होती थी। “अब आज नहीं,” जानकी ने चौथे रोज़ कहा, “एग्ज़ाम पास है, आज मैं पढूँगी। और कपडे की दूकानें और हाँ जी- हाँ जी करते सैल्समैन नहीं झेल सकती। वैसे भी जो मैं पसंद करती हूँ, आपको जँचता नहीं।”

“तुम कैसे घर बसाओगी? इतनी जल्दी ऊब जाती हो।”

“चुनने में आपके जितना वक्त नहीं लगाऊँगी।”

“भई हमको चुनने के मौक़े कम ही मिलते थे। खैर, वो नीला और ग्रे कपड़ा जो कल देखा, वो अच्छा था। कतरनें तो लेकर आए थे, एक बार तुम्हारे पापा और चाचा को भी दिखा लेते हैं।”

“हाँ, अड़ोसियों -पड़ोसियों को भी दिखा लीजिए, अपनी पसंद का तो आपको भरोसा है नहीं।” जानकी सीढ़ियाँ उतर गई।

पीपल के नीचे अभी भी कुछ ठंडक थी। वह कुर्सी पर पीठ टिका कर बैठ गई। डालियों में सरसराहट हुई। वह पढ़ते-पढ़ते मुस्कुराई। “कुछ दिन मैं नहीं आई तो आज आप देर से आए!” जब सरसराहट रुकी नहीं तो उसने आँखें उठाईं। चमगादड़ डाली के बजाय पीपल के तने से चिपटा धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था। देखते-ही-देखते वह बिल्कुल धरती पर आ रहा। अपने बघनखे से अंगूठों को पीपल की उभरी जड़ों में अटका वह इंच-इंच सरकने लगा। जानकी के निकट पहुँच उसने एक पर बढ़ाया और जानकी का पैर सहलाने लगा। उसकी काली मनकों सी आँखों में सूर्यास्त के सुनहरी रंग प्रतिबिंबित थे, उसके लाल-सुनहरी रोएँ जाने किस बयार में लरज रहे थे। जानकी निश्चल बैठी रही और चमगादड़ ने अपनी समूची देह जानकी के पैरों पर टिका दी। जानकी धीरे से झुकी, हाथ बढ़ाया और चमगादड़ के गले पर के रंगीन रोयों को नरमी से छुआ। चमगादड़ ने हल्की चीत्कार की और उसके खुले मुख से आश्चर्यजनक रूप से लंबी जीभ निकल आई। वह जानकी का पैर चाटने लगा, उसकी जीभ जानकी के पंजे से ऐड़ी तक दुलारने लगी, टखने की उभरी हड्डी और हड्डी के नीचे के गढे को सहलाने लगी। साँझ फूल कर बुझ गई और घरों में बत्तियाँ जलने लगीं। “जानकी बाबा…” सुनीता जानकी को बुलाने नीचे आई। जानकी के पैरों पर पड़े चमगादड़ को देख कर वह चीख पड़ी और उल्टे पैरों दौड़ी। जानकी हड़बड़ा कर उठी। चमगादड़ उसके पैरों से फिसल कर धरती पर गिर गया। घर की सीढ़ियों को चढ़ते हुए जानकी के कानों में चमगादड़ की कुरलाहट गूँजती रही।

“भाभी वो राक्षस चमगादड़… वो जानकी बाबा को काट रहा है… जल्दी चलो।” सुनीता हाँफ रही थी।

जानकी घर में दाख़िल हुई। “सुनीता दी ऐसा कुछ नहीं है। मम्मी वो चमगादड़.. वो काट नहीं रहा था… वो…”

“इतना बड़ा था, ताड़ के पत्ते जितना! कोयले से काला। जानकी बाबा के पैर पर…”

“जाओ फर्स्ट एड बॉक्स ले आओ।” मम्मी हड़बड़ाईं, “और गर्म पानी। जल्दी।” मम्मी ने उसको हाथ पकड़ कर कुर्सी पर बैठाया।

“मम्मी, प्लीज़… मुझे कुछ नहीं हुआ।” जानकी ने चप्पलों से पैर निकाले। “देख लीजिए।” चिकनी, गुलाबी त्वचा पर कोई दाग़ नहीं था।

“लेकिन इतनी देर उस पेड़ के नीचे बैठने का क्या तुक? और चमगादड़ की क्या कह रही है सुनीता ?”

“कुछ भी नहीं मम्मी…”

“कुछ कैसे नहीं? ऐसा राक्षसी मुँह उसका, भाभी, पूरा फाड़ रखा था। अगर मैं चिल्लाती नहीं तो जानकी बाबा को खा जाता।”

चाचा भीतर पापा की एयर-गन साफ़ कर रहे थे। हाथ में लिए-लिए ही बाहर आए। “क्या हुआ?”

“होगा क्या, काला जादू है पीपल वाला। जानकी बाबा हिल भी नहीं रही थी, साब। मैं कितनी चिल्लाई।”

“तुम अब भी चिल्ला रही हो। जानकी, क्या हुआ?”

“चाचा, वो पीपल वाला चमगादड़ आज नीचे उतर आया…”

“नीचे माने ज़मीन पर? कुछ बैट्स जमीन पर रहते हैं, लेकिन फ़्लाइंग फ़ॉक्स नहीं। वह नीचे कैसे आया?” “चाचा वो बेचारा बिल्कुल अकेला है। मुझे देख कर आ गया। बस इतना ही…”

“बेवकूफी की बात मत करो, जानकी। बैट्स जंगली जानवर हैं, तुम्हे पहले भी कहा है।” चाचा का स्वर ऊँचा हो गया।

पापा घर में घुसे। “क्या बात? आवाज़ें बाहर तक आ रही हैं।”

“ द बैट अटैक्ड जानकी, बिल्कुल हमला ही कर दिया उस पर आज।”

“नहीं, पापा हमला नहीं। वो लोनली है…”

“रियली भाई इसे सरेशाम वहाँ पीपल के नीचे नहीं बैठना चाहिए। एक तो अनहैल्दी जगह है और अब वहाँ ये पागल चमगादड़ है।”

“फिर मैं शाम को घर में बंद रहूँ एयर कंडीशनर की भन-भन में? बाहर ऐसी भाप उठ रही है कि लगता है सॉना में आ गए हैं, बस उस पीपल के नीचे ही कुछ ठंडक है। और मुझे वो चमगादड़ अच्छा लगता है, ही`ज़ हैंडसम।”

“कैसी बेतुकी बात करती हो। पंजे देखे हैं उसके? और उसके दाँत? जंगली कुत्तों जैसे नुकीले होते हैं।”

पापा ने भौंहें उठाई। “ये इतनी बहस का विषय है? जानकी समझदार है। अगर पीपल गीला-सीला और रक्त-पिपासु जीवों से भरा है तो वह आरामदेह नहीं हो सकता और अगर जानकी को आरामदेह लगता है तो इतना बुरा नहीं हो सकता।” वे कपड़े बदलने चले गए।

मौसम में नमी बढ़ती ही गई। साँस लेना दूभर हो गया। धरती से वाष्प-सी उठने और आकाश राख के रंग का हो गया। जानकी बारीक़ मलमल के कुरते में भी पसीने से तरबतर हो जाती। ऐसी ही एक शाम वह पीपल-तले बैठी थी। चमगादड़ निकट की एक डाल पर झूल रहा था। “आज तो गर्मी बर्दाश्त के बाहर है, चमगादड़ों के राजा।” उसने पसीने से माथे, गालों पर चिपकी बालों की लटें झटकीं, “घर जल्दी जाऊँगी।” चमगादड़ धीरे-धीरे डोला। सहसा उसने डाली पर से अपनी पकड़ छोड़ दी। एक पत्थर सा वह जानकी की गोद में आ गिरा। उसके पर जानकी की जाँघों पर फैल गए और नुकीले पंजे जानकी के कुर्ते की रेशमी कढ़ाई में उलझ गए। जानकी का शरीर कंटकित हो गया, गले के गढ्ढे में एक नस फड़कने लगी। वह होंठ पर होंठ कसे मुट्ठियाँ भीचे, बैठी रही। चमगादड़ ने सर उठाया। उसकी धीमी टेरों से जानकी के कान गुंजारने लगे। फिर जैसे अचानक वह जानकी की गोद में आ पड़ा था, वैसे ही एकबारगी उसने अपने पर फड़काए। जानकी को धक्का देता सा वह उड़ा और उसके माथे की ओर झपटा। उसके चमड़े के परों की रगड़ से जानकी के गाल छिल गए। जानकी कुर्सी से लुढ़क गई, उसकी चीख निकल गई। चमगादड़ आधी उड़ान में पलटा, उसके चौड़े डैने पीपल की टहनियों से उलझ कर छिद गए। वह तीखी आवाज़ में चिल्लाता जानकी से कुछ दूरी पर गिर पड़ा और छटपटाने लगा। तब जानकी को उसके पंजे में कसा तिकोना विषैला सिर और लंबी, हल्की भूरी, कशा-सी लहराती देह दिखाई पड़ी। साँप का जबड़ा फैला और वह फुत्कार रहा था।

जानकी की चीखों और चमगादड़ के शोर सुन घरों की खिड़कियाँ खुल गईं। “जानकी, जानकी…” मम्मी की पुकार गूँजी। पापा और चाचा धड़धड़ाते हुए सीढ़ीयाँ उतरे। चाचा के हाथ में एयरगन थमी थी। उन्होंने जानकी के पैरों के पास धरती पर लोटते चमगादड़ को देखा और हाथ में थमी एयरगन उसकी ओर घुमा दी। क्षण भर में धरती गोलियों से बिध गई। चपटे, नन्हें डमरुओं-से छर्रे चमगादड़ के कोमल सीने और पेट में घुस गए, उसके चमकदार रोएँ लहू से काले पड़ गए। वह पीड़ा से चिचियाता तड़पने लगा, साँप पर उसकी पकड़ ढीली नहीं हुई किंतु।


“अरे साँप…” चाचा चौंके। उन्होंने एयरगन के कुंदे से साँप का सर कुचल दिया। “ये वाइन स्नैक… बेहद जहरीला… पेड़ों में रहता है। जानकी, जानकी, तुम ठीक हो?”

पापा की बाँहों में जकड़ी जानकी के आँसू झर रहे थे, भरे गले से वह गालियाँ दे रही थी और प्यार के शब्द पुकार रही थी।

चमगादड़ की छटपटाहट थम गई थी।

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मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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