विश्वविद्यालय, ढेरों किताबें, दुपट्टों के सुर्ख, फिरोज़ी, सरसों के फूलों से पीले, तो पत्तों से हरे रंग, सुरमयी काजल और पहले तो रानू के उपन्यास बाद में ढेरों दूसरे उपन्यास चहारदीवारी लांघ कर एक दूसरे के सिरहाने पहुँचने लगे थे। कोर्स की किताबो के बीच उनका महत्व बढ़ गया था। सुबह चार बजे उठकर होने वाली पढाई में अब वे ज़रूरी होते उपन्यास शामिल थे। ज़िंदगी की असली पाठशाला में उन दोनों ने ही प्रवेश कर लिया था। उनके लिए सब कुछ नया और कौतुकपूर्ण जो था। घर के दरवाजे तक बिछी लाल मिटटी भी अजब-गजब रूप में नज़र आती थी- जाने ये कैसे अल्हड दिन हो गए हैं . जमीला यह नाम उसकी उदास शामों को नमकीन बनाने लगा !
“घर आओ न “
” आऊँगी”‘।
जमीला कभी उसके घर नहीं आयी न वह लेकिन दोनों बंगलों के बीच बनी चहारदीवारी कहीं गायब हो गयी। आज कोई बात नहीं क्या ! इसी बात से इतनी बातें निकलतीं कि वे दोनों कश्ती को पूरी तरह मझधार में उतार शाम ढले वापस घर लौट आतीं। जमीला ! सुनो , कल रात सपने में एक लडके को ग़ज़ल गाते हुए सुना। उसकी बात पूरी न हुई कि जमीला के खिलखिलाते सवाल चले आये । कब? कहाँ ? तब वह जोर से हंसती ‘ सपने में ‘ और फिर बातें ही बातें , “तुम्हें मालूम है न जमीला कि मुझे ग़ज़ल कितनी नापसंद है , पता है जब भैया घर आते हैं और ग़ज़ल सुनते हैं मैं अपना दरवाज़ा बंद कर लेती हूँ। ” जमीला अचम्भे में पड़ जाती तब तुम्हें वह सपना कैसे आया। कहीं सपने वाला तुम्हारी ज़िंदगी में तो नहीं आ रहा। ” वह शर्मा जाती और जमीला की बांह पर एक ज़ोर की चिकोटी काटती ।
जमीला एक सप्ताह बाद आज मिली है। वह लम्बी यात्रा से लौटी है। ख़ुश है आज उसकी उदासी मिट गई है। उसके गुलाबी-गुलाबी होंठो के बीच से झलकते सफ़ेद दांत शुद्ध मोतियों की लड़ी लगते हैं। उसके पास हरदम कहानियां होतीं हैं।
“सुनो, कल रात ट्रेन में एक लड़का मिला “। वह घबरा गयी। जमीला कितने आराम से कुछ भी कह देती है लेकिन वह भी तो कुछ भी सुनना चाहती है।
” वह मुझे देखता रहा और मैं उसको।”
“फिर” ?
“फिर क्या ? इत्तेफाकन मेरी और उसकी बर्थ सबसे ऊपर थी, ठीक आमने-सामने। हम दोनों रात भर एक दूसरे को देखते रहे” – “सच में जमीला ? उसने कुछ कहा नहीं ?”
“क्यों नहीं ? बर्थ से उतरते समय उसने मुझसे मेरे घर का फोन नंबर माँगा ” – वह उत्सुकता से जमीला को देखने लगी।
” तुमने दे दिया?”
” हाँ।”
” तब तो वह तुम्हें फ़ोन करेगा।”
“नहीं , गलत नंबर दिया न।”
कहकर जमीला खूब जोर से हंसने लगी । वह भौचक सी उसे देखती रही फिर वह भी जमीला के साथ हंस पड़ी।
शीतल होती हुई शाम ढलने लगी थी ! दिन में खूब बारिश जो हुई है। वह जमीला से कहती कि – अब चलूँ, उसके पहले ही उसको जमीला के बंगले के बरामदे में दूर से ही उसकी अम्मी आती दिखाई दी ! ढली हुई शाम सी अम्मी का असर जमीला के चेहरे पर भी उसे साफ़ नज़र आया । उसने हंसती-खिलखिलाती जमीला का फक्क हुआ चेहरा देखा ! घबराहट और जल्दीबाजी में जमीला ने उस का हाथ जोर से दबाया। अपने बेशकीमती सपने उसे सहेज- कि आकर वापस लूंगी तब तक तुम इन्हें संभाल कर रख लो, जमीला दौड़ती हुई चहारदीवारी की ढलान उतर गई।
रात आसमान से उतर ज़मीन पर बिछ गयी है. उसने इस बात का ख्याल क्यों नहीं किया। अम्मी के रौद्र रूप की कल्पना से जब वह इतना डर गई तो जमीला कितना डरी होगी – हर बात का उपचार ढेर सारी हँसी ही कब तक रहेगी। वह सोचती है। उसे लगा जमीला के पावों के साथ उसका भी मन भाग रहा है -तभी तो वह संज्ञाहीन सी जमीला का डर और उसका भागना स्तब्ध हो देखने लगी। दौड़ती हुई जमीला बरामदे की सीढियों तक पहुँची उधर से आती हुई उसकी अम्मी पोर्च में मिल गयीं थीं !
”तेरा घर के अन्दर आने का समय अभी हुआ नहीं था क्या ?” अम्मी की फुफकारती हुई आवाज़ मुग्धा के कानों तक आयी –
“आ ही रही थी “
उसकी भारी भरकम अम्मी, धम्म धम्म करती उसके सामने आकर खडी हो गयीं थीं. वह सीधी हो पाती तब तक आगे को झूलती उसकी चोटी अम्मी के हाथ में आ गयी और उसके गाल के पास उनका एक झनझनाता हुआ थप्पड़ पड गया था ! जमीला के लम्बे, घने बाल और उसके वे गुलाबी कोमल रेशम जैसे गाल वह कल्पना भी न कर सकी। वह बरामदे की अंधेरी पथरीली दीवार से जा टकरायी ! जमीला का तीन साल का भाई जो उस समय अम्मी की गोद में झूल रहा था उसको विस्फारित आँखों से देखने लगा ! मुग्धा की आँखों के सामने पल भर में यह सब कुछ एक हादसे सा घट गया वह भारी मन से ढलान से उतर आयी। उसने ज़मीन पर बिछी हुई पावों से लगती नरम घास में बहुत चुभन महसूस की – घास का एक टुकड़ा उसके पावों से लिपट कर उसके साथ चलता रहा अगले दिन उसी ढलान पर जमीला से हुई मुलाक़ात में उसका मन खुला पडा था. सत्रह वर्ष क़ी कमनीय उम्र का ओजस्वी स्पंदन उसे धूल सा धूसर लगा –
जमीला चरागाह में मवेशियों से अकेली छूट गयी गाय है। अम्मी की स्मृति में पत्थर से मारे गए पानी सी बेचैन वह आइने के सामने जाने से किसी भी सूरत में बाज आती ही नहीं – उसकी आंसुओं से भरी आँखे कैसी लगती है यह देखना नहीं भूलती – यह बता वह हंस पड़ी। अनवर उसके जीने की वजह है लेकिन मरने के लिए तो सिर्फ एक वजह ही काफी होती है । जमीला जब दस वर्ष की थी तभी उसकी अम्मी उसे छोड़कर अल्लाह के घर चलीं गयीं थीं। थोड़ी देर उन दोनों बीच मौसम बहुत उदास रहा । मुग्धा ने अनवर की बात छेड़ दी।
” कैसे मिली थीं अनवर से “
जमीला की पहली किरण सी मुस्कान बंगले के आसपास खिले पलाश के फूलों को रंग गई।
“अनवर के पूरे परिवार को पापा ने दोपहर के खाने पर बुलाया था ” जमीला बोली ! “मैं पानी भरी पीतल की भारी बाल्टी गुसलखाने से ढोकर लायी थी – पापा के कहने पर मेहमानों के हाथ पाँव धोने की खातिर तौलिया और साबुनदानी में एक साबुन, बरामदे के एक कोने में रख दिया था ! तभी देखा कि भाईजान बाल्टी से पानी निकालकर छपाछप अपने हाथ पाँव धोये जा रहे हैं ! मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ तो मैंने दौड़ते हुए जाकर पीछे से भाई जान की पीठ पर जोर का एक मुक्का लगाया। मगर वे तो हमारे मेहमान अनवर भाई निकले, अनवर- मेरे मुंह से चीख निकल गयी ” जमीला ने अपना गुलाबी हुआ चेहरा अपने जॉर्जेट के सफ़ेद दुपट्टे से ढँक लिया था –
जमीला के चेहरे पर ऐसी निर्झर हँसी देख उसे अच्छा लगा था- वह बोली -“बरामदे में अँधेरा था इसलिए मैं साफ़-साफ़ देख नहीं पायी, मुझे गलियारे से वे हूबहू भाईजान ही लगे वैसे ही दुबले-पतले और छरहरे ! दरअसल काईदार ईंट की सीढ़ियों के पास जो घनी लताएँ हैं उनके कारण बरामदे में साफ़-साफ़ कुछ दिखाई नहीं देता”
वह बोली “मैं तो शर्म के समंदर में डूब गयी थी- वह तो अनवर की हंसी ने मुझे उबार लिया नहीं तो मैं तो मर ही जाती “उसने सोचा अनवर भाई ने सच में उसे उबार लिए था नहीं तो उसकी अम्मी – जमीला के गालों का शर्मीला गुलाबीपन उसे भटका ले गया।
‘वे बोले : मुझे दिल पे चोट लग गयी है- दवा लाओ “
“खाने की मेज़ पर वे बार बार खाने की तारीफ़ करके मुझे चोरी-चोरी देखते रहे ! बाद में जब दोनों परिवार एलबम देखने में मशगूल थे तभी उन्होंने मेरी फोटो धीरे से चुरा ली और अपने दिल के पास बनी कमीज़ की जेब में सबकी नज़र से बचाकर रख ली ! मुझे देखकर जेब को अपनी लम्बी खूबसूरत अँगुलियों से आहिस्ता दबाया और मुस्करा दिए !”
मुग्धा खुश है क्योंकि जमीला खुश है- दोनों मिलकर इस तरह खिलीं कि दोस्ती और परवान चढ़ गयी।
जमीला के हाथ से लिपटा एक कोरा पन्ना देखकर मुग्धा ने पूछा था- “यह क्या है जमीला”
“कविता “
वह बोली “कोरा पन्ना और कविता ? ” हंसने के अलावा और कुछ तो उन दोनों को आता नहीं। वे फिर हंस पड़ीं।
“नहीं अब यह कोरा नहीं रहा “
वह उससे फुसफुसाते हुए बोली -” मैं कवितायें लिखती हूँ उन्हें पीछे के बरामदे में रखी कबाड़ की आलमारी में छुपा कर रखती हूँ , उस बरामदे में कोई नहीं आता जाता नहीं है न – तब वह खुद को बहुत होशियार समझ रही थी। उसके मन की आँखों में प्रियंका की स्मृति आ गयी।
जमीला ने कहा- कागज़ की सलवटों पर मत जाना अलफ़ाज़ में सपने भरे हैं ! क्या वह इतना भी नहीं जानती। जमीला उसे हरदम कुछ न कुछ समझाती रहती है।
“अनवर के लिए है न ! ” जमीला ने उसके होंठों पर अपनी अंगुलियाँ रख दी।
” जमीला फुसफुसाते हुए बोल रही थी। कोई जान गया तो मारी जाउंगी मैं” –
” तुम केवल देखने में भोली हो “!
” भोली तो पहले थी, अब नहीं हूँ। प्रेम ने मुझे शातिर बना दिया है प्रेम ने मुझे झूठ बोलने को मजबूर किया है और चोर भी बना दिया है” वे दोनों हंसीं। प्रेम का रहस्य वातावरण पर हावी हो गया -वहां चल रहा क्रिकेट मैच ,बच्चों का शोर और छक्के की आवाज़ सब नेपथ्य में रह गए –
“प्रेम के ये कौन-कौन से रूप हैं जमीला कि तुम झूठी भी बन गयी और चोर भी “- उसने आश्चर्य से पूछा।
” प्रेम रोग है। जब लगेगा तब तुम भी जान जाओगी बैसे तो मैं प्रेम में बोली गयी हर बात को बेहद सच मानती हूँ जैसे नशे में बोली गई हर बात सच होती है “
” तब क्या प्रेम नशा है”।
उस शहर में अंग्रेजों के ज़माने के बने हुए पीले-सफ़ेद रंग में पुते हुए – मटमैले रंगों के कई बंगले थे जो बैठे हुए बगुलों से लगते थे-जब बाबूजी का ट्रांसफर इस पुराने शहर में हुआ था तब उन्हीं बंगलों में से एक बंगला उन्हें एलोट हुआ था -बाबूजी प्रशासनिक विभाग में सरकारी मुलाजिम थे -खान बख्तर साहब उस बंगले के मालिक हैं जो विदेश में रहते हैं और अक्सर हवाई जहाज से दिल्ली आया जाया करते थे- बोगेंनबेलिया की मनमौजी लताएँ और उनमें टंके गुलाबी फूल बंगले के लम्बे बाहरी बरामदे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक इस तरह छितरे हैं कि फूलों के अतिरिक्त और कुछ नज़र ही नहीं आता है – वह क्या जाने कि बरामदे के दूसरे छोर पर कोई कमरा भी है । उस बड़े से लॉन में अकेली टहलती नए शहर में सबकुछ होने के बाद भी वह उदास थी कि तभी उसकी मुलाक़ात जमीला से हो गयी थी और वह उसके कस्तूरी-आकर्षण मे इस तरह बंध गयी थी कि वह शहर उसके लिए खूबसूरत हो गया था । इस बार जाने कैसे वह तारीख से दो दिन पहले ही अवांछित -चक्र के फंदे में आ पड़ी थी इसलिए उसको विश्वविद्यालय की ज़रूरी कक्षा छोड़कर घर आना पड़ा था और चहारदीवारी के पास खडी झांकती जमीला मिल गई थी। अवांछित समय भी कितना उपजाऊ होता है उसने बाद में सोचा था। साजिद सिर्फ दो माह पहले बंगले के दूसरी ओर बने कमरे में रहने आया था -वह साजिद के आने के बहुत पहले इस बंगले में आ चुकी है –
साजिद के आने के कुछ दिनों पहले ही बाबूजी ने उस को बुलाकर साजिद के कमरे की चाभी सौंपकर कहा था कि साजिद खान साहब के किसी दोस्त का बेटा है और वह आकर इसी कमरे में रहेगा। हाथ के इशारे से बंगले दूसरी ओर बने उस कमरे की ओर दिखाकर वे बोले थे – उस शाम उसने बोगनबेलिया की लताओं के बीच से झाँक कर उस बंद कमरे के दरवाज़ों को देखा था। मन के भीतर कच्ची कल्पनाएँ थीं अनार के अंदर बंद रसभरे लाल दाने जितनी ।
चाभी उसने जिम्मेदारी से रख ली थी। बाबूजी की ओर से दी गयी दूसरी जिम्मेदारियों की तरह ,मसलन रात में सोने से पहले बाहरी कमरे की सिटकनी बंद है या नहीं यह देखना, सुबह पूजा के लिए सफ़ेद फूल तोड़ कर पूजा घर में रखना और माली के आने पर उसे ज़रूरी हिदायतें देना आदि आदि ।
और बहुत सी छोटी छोटी बातों की तरह साजिद को आना है यह बात भी उसे बिलकुल याद नहीं थी तभी उस दिन जब वह बैठी पढ़ रही थी और साजिद अपना सूटकेस हाथ में लिए दरवाजे पर प्रकट हुआ था, उसकी बड़ी बड़ी आँखें अचरज से फैल गयीं – “आप कौन ” ? सवाल जुबान से अधिक उसकी आँखों में था। उसका बहुत शालीन जवाब आया ‘ मैं साजिद ‘ वह शर्मिंदा हुई कि उसने नहीं पहचाना। बिना ठीक से दरवाज़ा खोले ही वह चाबी लाने घर में भागी । दौड़ती हुई लौटी मगर दरवाजे पर खड़े साजिद तक आते आते कदमों को संजीदा कर लिया और यंत्रवत उसने चाभी साजिद की फैली हुई हथेली पर रख दी। इसके बीच में एक बार उस की आँखें साजिद से मिली तो तुरंत वह उसे अनदेखा कर दूसरी ओर देखने लगी। वह खोयी हुई वापस लौटी , साजिद चाभी के साथ कब लौट गया यह उसे पता ही न चला । उसके लिए यह बहुत आश्चर्य से भरा था कि पल भर में वह कहाँ छूट गयी और अपना पाठ भी भूल गई जिसे याद कर रही थी- कालिदास का मेघदूत और वह श्लोक ‘कश्चित्कान्ता विरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः, शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येन भर्तुः।
वह साजिद के सामने खडी थी। सलवार को कमर में खोंसकर दौड़ी थी इसका ख्याल भी उसे तब आया जब उसने शर्म से अपनी निगाहें नीची की – उसकी फूलदार सलवार के पायचें उसके खिलंदड़ी घुटनों के आसपास थे, जल्दी से उन्हें ठीक किया – साजिद उसके पावों को देख रहा था.फूलदार लाल सलवार और नारंगी कुर्ता ओस और पसीने से भीगी उसकी देह पर ऐसे खिल रहे थे जैसे जंगल में सचमुच पलाश खिले हों। पहली कविता की तरह वह अपना छूटना सहेजती रही और जाने क्यों डरती भी रही – उसे लगा कि साजिद ने जानबूझ कर आँखें मिलाईं थीं नहीं तो इस तरह आँखों में देखते हुए उसने अब तक किसी को नहीं देखा था -इसके पहले भी वह इतने लोगों से मिली लेकिन कभी उसके साथ ऐसा तो नहीं हुआ- उसके मन में बिलकुल अनोखा सा कुछ अटक गया था कुछ धूप, कुछ नावें और कुछ सपने। तब वह प्रेम के बारे में कुछ भी न जानती थी। लेकिन सुना बहुत था। सबसे अधिक तो जमीला से ! उसके पास प्रेम के बड़े अनुभव थे-वह तो तब अपना दुपट्टा दांतों से दबाकर अचम्भे से जमीला को देखती रह जाती थी। खुद उसको प्रेम के नाम पर पसीने छूटते हैं ।
जाने कब वह प्रेम से डरने लगी थी या कि प्रेम और डर दोनों से उसका परिचय एक साथ हुआ था । प्रेम को सोचने के पहले ही बड़े भैया की बड़ी बड़ी आँखें याद आ जाती हैं उसको। कैसे गरजते हैं वे। ‘ खबरदार जो बिना बताये घर से निकली तो ‘वह मामा की आँखें याद कर कांपती लेकिन प्रियंका कितनी ढीठ थी , वह सोचती । प्रियंका के हाथ में समीर की चिट्ठी फिर भी पहुँच जाती थी। वह हंसती हुई आँखों से पहले पढ़कर तब अपना प्रेम पत्र उसे भी पढ़ाती थी। कनु को भी इस वायदे के साथ कि दादू को तो नहीं न बताएगी। कनु जब दोनों हाथों से कान पकड़ कर न कहती तब उसे भी समीर की चिट्ठी सुना देती। चिट्ठी में लिखा होता था ; ” लिखता हूँ ख़त खून से स्याही न समझना मरता हूँ तेरी याद में ज़िंदा न समझना”। आज मिलने आओ वहीँ । प्रियंका खूब हंसती थी। देखो कैसे मरता है मुझपर।
वह कहती – “लेकिन भैया ‘? प्रियंका कहती- ” उन्हें क्या पता” ।
वह सोचती – क्या प्रेम करने वाला डरना छोड़ देता है लेकिन प्रियंका को खुद पर इतना भरोसा करना बहुत महंगा पड़ा था । एक दिन समीर की चिट्ठी सच में भैया के हाथ पड़ गई थी और उसकी आँखों के पास और पीठ पर चोट के गहरे निशान बन गए थे- उसकी शादी होने तक उसे घर से बाहर निकलने की सख्त मनाही हो गयी थी। किसी को कुछ पता भी न चला- वह डरती कांपती रात दिन रोती रही – एक दिन जल्दी-जल्दी धूमधाम से मामा ने प्रियंका की शादी कर दी । उसके मन में प्रियंका और समीर के पवित्र प्रेम के लिए बहुत मान था। समीर उसे मिला था और उससे पूछा था ‘ वापस कब जाना है तुम्हें। वह कोई जवाब देती कि सामने से छोटी मौसी आ गयीं और वह उनके साथ हो ली-प्रियंका की तरह उसने भी कोई जवाब समीर को नहीं दिया था और अपने शहर लौट आई थी –
वह साक्षी है। समीर ने एक दिन उसके सामने ही प्रियंका से पूछा था “मुझसे ब्याह करोगी” ? तब समीर लड़का नहीं पुरुष लगा था। हरदम चुलबुली हरकतें करने वाली प्रियंका बहुत गंभीर हो गयी थी और कुछ बोले बिना ज़मीन पर अपनी नज़रे टिका दी थी। उस मौन के बीच वे तीनों अभियुक्तों की तरह थे- वह प्रेम से और भी डरने लगी थी- वापस लौटकर बहुत दिनों तक वह प्रियंका और समीर के बिछुड़ने से उदास थी। उसे बार बार उगती रेख वाले अनाम किशोर की याद आती रही जिसकी हिरन जैसी आँखें उसके मन पर छप गयी थी -प्रियंका से बिछुड़ने के दुःख में उसकी याद बरबस ही अपने साथ लिए हुए चली जा आयी थी जो बिना पलकें झपकाए एकटक उसे ही देखता रहा था। – वह प्रियंका की बारात में आया था – गुलाबी रंग की बनारसी साड़ी में सजी-धजी वह भी उसको कम नहीं देख रही थी। तब पहली बार उसने सम्मोहन को जाना था लेकिन थोड़ी ही देर में बरात के खाने पीने और उसके लौटने की आपाधापी में वह कहीं खो गया था – उसको वह जान बूझकर ढूँढना नहीं चाहती थी -उसे प्रियंका की बांह पर पड़े नीले निशान याद आ रहे थे प्रियंका के सुखों को फांसी देते हुए लेकिन घर आकर अक्सर लौटकर वह खिड़की से झांकती थी और वह अनाम उसे अपनी आँखों में मिलता था । उस अनाम की स्मृति के साथ उसे भैया का दहाड़ना याद आता , घर की कोई भी लड़की यदि मर्यादा तोड़ेगी तो मैं उसे गोली मार दूंगा । बड़े भैया की गुस्सैल लाल आँखों को याद कर के वह दहशत से भर उठती थी। इसी डर में वह हिरन सी मासूम आँखों वाले उस अनाम को भूलना चाहती थी। उसे याद आता जब वह बारह -तेरह साल की थी स्लेटी रंग की स्कर्ट और सफ़ेद ब्लाउज, पाँवों में काले जूते और सफ़ेद मोज़े पहने, स्कूल से लौटते समय , उस जामुन के बड़े से पेड़ के नीचे ठिठक के खड़ी हो गयी थी जब कहीं से मीठी आवाज़ में यह गीत कानों में पडा था ‘कहीं दीप जले कहीं दिल। —- ज़रा देख ले आके ओ परवाने , तेरी कौन सी है मंजिल ‘ गीत का अर्थ समझते घर पहुंचते-पहुंचते वह बड़ी हो गयी थी ! मंजिल क्या मिलती है – क्या होती भी है ?
उसकी और जमीला की बातों का सिलसिला थमता ही नहीं। वे दोनों कहतीं – बहुत अच्छा है कि इस दलान को सुनना नहीं आता और इस दीवार की आँखें नहीं हैं- यदि लिख सकती तो वह दलान अबतक जाने कितनी कवितायें उन दोनों पर लिख चुकी होती। दोनों एक साथ हंस देतीं। और उन्हें लगता कि इस तरह हंस कर बहुत सी बंदिशें , बहुत सी दीवारें एक साथ लांघ जातीं हैं।
प्रेमपर बात करते हुए और उसे छुपाते हुए हाँ और ना करतीं वे दोनों आपस में उलझकर इस कदर एक सी हो गयीं कि जीवन भर के लिए उनका अलग होना कठिन हो गया।
जमीला ने कहा – ” जिसे कवितायें अच्छी लगतीं हैं वह प्रेम करता है “
“लेकिन मुझे कवितायें बहुत अच्छी लगतीं हैं और मैं प्रेम भी नहीं करती ” वह बोली।
तभी सायकिल की सीट पर बैठे-बैठे ही पैरों से जमीन का सहारा लिए साजिद गेट से बंगले में दाखिल हुआ –
साजिद की सायकिल बरामदे की सीढ़ियों के पास रोज़ की तरह खडी हो गयी है। पूरे वातावरण में साजिद की दृष्टि-गंध छा गई है और उसकी पलकों में एक अलस अनोखा कुछ !
जमीला ने साजिद की ओर इशारा करके कहा – “उसे देखो वह तो तब से तुम्हें ही निहारे जा रहा है ” !
साजिद के घोर आकर्षण से ओट कर, वह बोली ” मुझे क्यों देखेगा ” उस ने सड़क के किनारे खड़े पलाश की ओर इशारा करते हुए कहा – “वह पलाश के फूलों को देख रहा है”
दोनों फिर हंस दीं –
” पलाश का जंगल देखा है तुमने” !
वह बोली – नहीं तो “।
“लगता है जंगल में आग लगी है। पत्ते नहीं रह जाते सिर्फ लाल दहकते फूल बचते हैं. “
जमीला एकाएक चुप हो गई
हंसते हंसते अचानक क्या हुआ ” उसने ने टोका
‘अम्मी की आवाज़ गूँज गयी –
वह अनमनी हो गयी-
बोली- ‘क्या मैं हंसते हुए सचमुच पगली लगती हूँ, मुग्धा ‘ अम्मी कहतीं हैं- ” हंसती क्या हो खी खी खी खी !एकदम पगली लगती हों-“
उसकी आँखों में नमकीन पानी उतर आया जिसमें तैरती मछलियों से उसके ख्वाब मिले।
” तुम हंसते समय सबसे सुन्दर लगती हो। तुम्हारी हँसी का रंग पलाश के फूलों जैसा है “
तुम फिर कविता लिख रही हो साजिद के आने पर पलाश की तरह तो तुम खिल जाती हो- जमीला धीरे से बोली-
“फिर कविता -” दोनो फिर हंस पडी-उनकी हंसी के झोंके में सारी उदासी आसमान में उड़ते फाख्तों सी खो गयी ।
साजिद में बला का आकर्षण है तभी तो उसे वह अपनी ओर खींचता है – उसको भर आँख देखता भी है और आँखों की भाषा में जाने क्या कहता भी है .अब वह उस भाषा को समझने लगी है . पहले थोडा थोडा और अब कुछ ज्यादा लेकिन कभी उसने शब्दों में कुछ नहीं कहा .
“यही है तुम्हारा चाहनेवाला – है ना, झूठ मत बोलो “
” नहीं नहीं ! यह नहीं है” वह कैसे स्वीकार करे – तुम प्रेम करती हो तो तुम्हें पूरी दुनिया ही वैसी दीखती है जमीला मैं अभी तो नहीं करती हाँ, इसको जानती हूँ। इसका नाम साजिद है – साजिद बोलते समय उसकी जुबान कहीं अटक गयी । …और जमीला की आँखों में चमक सी कौंध गयी।
उसने देखा तो साजिद सच में उसे ही देख रहा था –
“इस सांवले सलोने को अपना बना ले , रहम कर ” जमीला उसे ही चिढाने लगी . वह हंसी !
जी में आया कि कहे कि हाँ उसे भी वह खूब अच्छा लगता है कृष्ण का रंग उसे बहुत पसंद है ! मगर उसे लाज आती है मन की बात जुबान पर रोक लेती है .
वह जमीला के बारे में सोचती जा रही थी. जमीला ने बताया था-” माँ दूसरी तो पिता तीसरा हो जाता है कुछेक साल पहले जब अम्मी ब्याहकर आयी थी तब उनके जरी के भारी दुपट्टे से ढके चेहरे को निहार वह बहुत खुश हो गयी थी – उसे याद है दौड़-घूमकर नाच- नाचकर उसने अपनी खुशी बिखेर दी थी लेकिन उसका नाचना ,गाना , हंसना ,चहकना सब कुछ – अल्लाह के पास गयी अम्मी के साथ चला गया “
उसने मन ही मन प्रतिज्ञा की है कि उसे प्रेम-व्रेम के चक्करों में नहीं उलझना है” अम्मा जब मौका पातीं यही तो समझातीं किसी लडके से प्रेम करना पंक में गिरना है – वह भी जानती है -इस भंवर में पडेगी तो पढाई लिखाई से भी हाथ धो बैठेगी तब बाबूजी को क्या मुंह दिखाने के लायक भी रहेगी। लेकिन सच तो यह है कि वह साजिद को जानबूझकर नहीं देखती – उसकी आँखें उसे ढूंढती हैं – वह चाहे जितना बरज ले बेलगाम घोड़े सा मन रुकता नहीं है। उसका और साजिद का साथ बादल और बारिश का साथ लगता है .साजिद बादल और वह बारिश है या वह बादल है और साजिद बारिश – उसे लगने लगा है कि जितना ही वह प्रेम का प्रतिरोध करती है जितनी ही उससे डरती है उतनी तीव्रता से वह साजिद की ओर चली जाती है वह उसको बेध रहा है. उसका निशाना अचूक है -वह बच कर कैसे निकले .
सुबह-सुबह जब वह विश्वविद्यालय के लिए निकलती है तब उसे साजिद अपनी खिड़की पर खडा मिलता है – खिड़की की सघन जाली के पीछे खड़े साजिद को बिना देखे ही वह जान लेती है जब तक वह गेट के पार नहीं हो जाती तब तक साजिद उसे निहारता है – नम-नम सुबह का नीला रंग जिसमें वह चिड़ियों की चह -चह का संगीत सुनती है उसके चारों ओर उसके दुपट्टे सा लिपटा होता है उसके चेहरे से सौन्दर्य यों झरता है जैसे वह सूरज को उगाने वाली सुबह है और फिर वही लाली है .साजिद की आँखें हर जगह छायी होती हैं और उसकी दृष्टि-गंध भी जिसमें वह नहा जाती है . वह पृथ्वी की तरह हो जाती है और साजिद उसके ऊपर छाया हुआ घना आसमान।
उसे वह झरते हरसिंगार वाली पतली सड़क याद आती है जहाँ टहलते हुए सुबह-सुबह वैज्ञानिक अंकल ने एक दिन उसको रोक कर पूछा था –
“क्या नाम है तुम्हारा ?”उसकी आँखें उनके ज्ञान की ज्योति से मिचमिचा गईं थीं – वह बोली -” मुग्धा “
“यू आर वेरी प्रेटी ” और वे अपनी छड़ी लिए चल दिए .
लताओ के झुरमुट में दिखायी देते घर और सूखी पत्तियों का जहाँ-तहां गिर जाना मुग्धा को बहुत अच्छा लगता है – सूखे पत्तों की महक और भूरे, पीले रंगों से सराबोर रहती है। दुनिया में इतना सौन्दर्य जो न होता तो क्या करती वह –
जीवन को वह बंदिशों में रखना सीख रही है। रातरानी की महक के बीचोबीच जमीला का साथ ही बहुत है। जमीला की बातें हैं या इस धरती के खुशनुमा मौसम हैं – उसे लगता है जब पृथ्वी पर सिर्फ पेड़ और नदियाँ थीं जब सरहदें नहीं थीं मलयाचल की सुगंध लिए हवा जब उन्मुक्त बहती थी जब घने जंगलों से भरी-हरी पृथ्वी पर रात उतरती थी तब भी यह चहारदीवारी रही होगी जिस पर जमीला और वह एक पेड़ की दो डालों सी झुकी रहीं होंगी और प्रेम के बारे में नयी खोज करती रहीं होंगी । उसे साजिद से क्या वास्ता जब उसे प्रेम करना ही नहीं है – वह प्रियंका नहीं हो सकती। तब चौबीस घंटे साजिद का नाम ही क्यों लेती है।
बाबूजी को खेत में हिरन का एक बच्चा मिल गया है जिसे बचाने के लिए वे अपने साथ उठा लाये थे ।वह सोते समय हिरन के उस छौने को ठंढ से बचाने के लिए चादर और कम्बल मिलाकर अपने बिस्तर से लगाकर उसका बिस्तर भी बना देती है। उसका नाम उसने जाने क्यों टुहुक रख दिया ! वह पैर समेटे चुपचाप बैठता है उसकी आँखों में उसका जंगल रहता है .
आज जाने कैसे आँख जल्दी खुल गयी है – रजाई के भीतर का नरम एहसास बहुत सुरक्षित था। भूरे भूरे बालों वाले हिरन की बड़ी-बड़ी आँखें ठीक उसकी आँखों सी हैं . वह उठकर शीशे के सामने खडी हों गई और टुहुक से अपनी आँखों का मिलान करने लगी – एक ही नाप की लगतीं हैं !
उसने टुहुक को गोद में उठाया और दरवाज़ा खोलकर हिरन के उस बछेड़े के साथ धीरे से सोये हुए घर से बाहर लान में निकल आई !उजाला अभी ठीक से नहीं हुआ था ! सारी दुनिया व रात भर ओस की बूंदों से खेलने के बाद सुस्त पडी थी -भोर का ताज़ापन उसके खून में घुल गया है। हिरनी सी चंचला ,विकल सी वह लॉन में लगे रबड़ के पत्तों को सहला रही थी !
आसमान की गोद में दुबकी हुई सुबह अभी नवजात थी ! नई नई विदेशिनी चिड़ियों का कलरव और उनकी फुर्ती उसमें स्फूर्ति भर रही है – विशाल प्रांगण के हरे-भरे लान में हिरन के उस छौने को उसका जंगल मिल गया था ! पहली बार वह कुलांचे भरते हिरन का छौना देख रही थी – एक बार मन में एक झिझक सी हुई। बहुत दिनों से तेज़ दौड़ी नहीं वह। वह खुद को रोकने की कोशिशों में खुद को ही कितना तो भूल जाती है – टुहुक को कुलांचे लेते देख वहअपने पर काबू न कर सकी और उस के साथ उन्मुक्त दौड़ने लगी- कभी वह टुहुक से पिछड जाती थी और कभी उसकी बराबरी में दौड़ती। वह मन ही मन कह रही थी “तुम बहुत तेज़ धावक हो न ! लो मैं भी तुमसे कम नहीं हूँ ” अपनी सफलता पर मन ही मन रीझती वह बड़े से उस लान के कम से कम दस चक्कर लगाकर हांफने लगी -साजिद के कमरे की ओर धीरे से देखा तो उसके होंठों के ऊपर पसीने की बूँद छलक आई। उसके कमरे की बत्ती जल रही थी। टुहुक खड़ा हो गया और उसको टुकुर-टुकुर देखने लगा- साजिद जाने कब से अपनी खिड़की से उसे इस तरह दौड़ते हुए देख रहा था – उसे अचम्भा हुआ। वह इतनी सुबह जागता है क्या !
घबराकर टुहुक से बोली – ‘टुहुक चलो अब अन्दर चलो .. बहुत हो गया .. चलो चलो . अन्दर चलो” उसकी आवाज़ में एक अजीब सा नशा था ! इतना दौड़ने के बाद उसकी देह की असीम ऊर्जा और नमक एक साथ प्रज्वल्लित हो गये थे वह अनोखी आंच पर शहद सी जल रही थी – टुहुक अब भी खेल की धुन में था ! झपट कर बड़ी फुर्ती से उसने उस छौने को गोद में उठा लिया !
एक तो ऊपर से यह साजिद ! उसको सिहरन सी हुई अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसने पहली बार साजिद की ओर मन भर देखा और हिरन के बच्चे को गोद में लिए आतुरता से बरामदे की लाल लाल सीढियां चढने को हुई ही थी कि अचानक आकर साजिद ने उसका रास्ता रोक लिया !पहली बार उसने साजिद की राग भरी आवाज़ सुनी – आदम ने हौव्वा से इसी तरह कुछ कहा होगा – “सुनो “
‘आँ ! ” उसने मुड़ कर देखा।
‘कुछ कहा !” उसे अपनी आवाज़ सुनायी दी ।
” नहीं, पर कुछ कहना है तुमसे , लेकिन कान में ” सुबह का उजाला और साजिद की धीमी आवाज़ में छिपी हुई व्यग्र आतुरता में वह विचलित हो गयी।
“कान में “? उसने घबरा कर पूछा ! वह साजिद के सामने खडी थी। सलवार को कमर में खोंसकर दौड़ी थी इसका ख्याल भी उसे तब आया जब उसने शर्म से अपनी निगाहें नीची की – उसकी फूलदार सलवार के पायचें उसके खिलंदड़ी घुटनों के आसपास थे, जल्दी से उन्हें ठीक किया – साजिद उसके पावों को देख रहा था.फूलदार लाल सलवार और नारंगी कुर्ता ओस और पसीने से भीगी उसकी देह पर ऐसे खिल रहे थे जैसे जंगल में सचमुच पलाश खिले हों। बोगेनबेलिया की लताएँ खम्भे के सहारे उस पुराने बंगले की छत तक जा रहीं थी और उसके गुलाबी लाल फूल सुबह के उजाले को बरामदे में आने से पूरी तरह से रोक रहे थे सुबह धीरे-धीरे खिल रही थी। उसकी सांस तेज़ हो गयी थी !
वह साजिद की बात को अनसुना कर घर के अन्दर चली गयी मगर साजिद की अद्भुत आँखों ने उसे सोमरस पिला दिया हो जैसे। क्या कहना था उसे। वह भी उसके कानों में। अगले ही पल मन की अज्ञात आतुरता उसे साजिद के पास खींच लायी .वहाँ उस भोर में उसके और साजिद के सिवा कोई नहीं था .वह उस दृष्टि- गंध को जान लेना चाहती या या खुद को उसने उसी प्रेम के हवाले कर दिया था । सुबह उसकी आवाज़ में उतर गयी। उसने साजिद से पूछा ” क्या कहना है “
टुहुक उसके साथ था तो साजिद के पास आने में उसे सुभीता हुआ। क्या टुहुक भी उस अपरचित को जानता था ! “इधर आओ” साजिद की आवाज़ में अधिकार का भाव भी था। अनोखे अपरिचय में कोई पुराना परिचय था – वह आज्ञापालक सी हिरन को गोद से उतार कर साजिद के पास आकर खडी हुई और आँखें नीचे किये- किये ही पूछा- “क्या है” .
साजिद उसके कान के पास आया और उसके गाल चूम लिये ! यह क्या हुआ – विस्मृत सी वह पोर-पोर में चेतन हो गयी . जैसे जीवित मूर्ति हो – एक शब्द भी न कह सकी – सूरज की पहली किरण और आसमान का सारा नीलापन उसके भीतर एक साथ उतर गए ! वह इंद्रधनुष बन गयी ! टुहुक उन दोनों को देख रहा था उसके प्रथम प्रेम का प्रथम साक्षी ! वह उस चुम्बन के प्रति कृतज्ञ थी ! उसके गाल प्रेम की आदिम सेज हो गए …
वह जल्दी से खुले दरवाज़े से घर के अन्दर चली गयी ! अपने कमरे के कोने में थोड़ी देर तक निस्तब्ध खडी रही -ऐसी लाज कि खुले आँगन में न जा सकी – शीशे में देखा तो चेहरा सचमुच पलाश के फूल सा दहक रहा था !जमीला ठीक ही तो उसे पलाश का जंगल कहती है !कान लाल और नाक का नुकीला मुलायम सिरा भी लाल गालों के उठान लाल-लाल हो रहे थे- हथेली और पावों के तलुओं में भी लाली का सलज्ज नशा भर गया था -पलाश का जंगल थी वह सचमुच पलाश का जंगल, जहाँ पत्तों का भी कोई अस्तित्व नहीं था – साजिद के सामने दुबारा कैसे जा सकेगी ! उसकी दुनिया में एक अनोखा बवंडर था ! वह कमरे में खो गई थी पर साजिद की उस दृष्टि- गंध उसे ढूंढ ले आती थी जो उसके चारों ओर की हवा में तिर रही थी –
वह जब घर में घुस रही थी तब चाचा और माँ चाय पी रहे थे। चाचा ने माँ से पूछा यह लड़का कौन है ? माँ कह रहीं थीं साजिद है, खान साहेब का भतीजा। चाचा की गुस्से से भरी आवाज़ उसके कानों में पड़ी जिन कानों में अभी-अभी साजिद की आवाज़ थी। ” इस मुसलमान को यहाँ बसाने की जरूरत क्या है , इसको हटाओ यहाँ से। मुग्धा के चाल-चलन मुझे ठीक नहीं लगते। तुम्हें मालूम है कि वह सुबह-सुबह कहाँ है? इतनी स्वतंत्रता क्यों दी है तुमने ? साजिद से बात करते हुए यदि कभी मैंने उसे देखा तो अब उसकी खैर नहीं, समझा देना अपनी लाडली को । चाचा जब नहाने चले गए तब वह कमरे से निकल कर अम्मा के सामने जा खड़ी हो गयी और उन्हें गौर से देखने लगी . उनका चेहरा हमेशा की तरह मिला। वही निरंतर बहती प्रसन्नता लेकिन उसे आज अम्मा का चेहरा कुँए की तरह रहस्यमय लगा।
जमीला का निकाह अनवर से होना तय हुआ है। उसे साजिद याद आया – जमीला ने उसे अपनी एक-एक बात बतायी है अपने अंगिये का रंग भी – जमीला के दर्द तो उजालों के हवाले हो गये – उसके मासूम भोले प्रेम को जो अभी कोंपल सा कोमल है किस ने नाखूनों से खुरच दिया ! उसे प्रियंका और समीर याद आये। उसे लगा शायद दर्दों का सफ़र अब शुरू हो जाएगा –
लेकिन तभी उसे नरम पत्तों सी वह साजिद वाली सुबह याद आयी और ओस की तरह उसे भिगोता साजिद याद आया। जब तक यह धरती है तब तक ओस भी रहेगी। यह सोचते ही उसकी सारी पीड़ा किसी अनजाने पते पर चली गयी …
आज का विचार
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।
आज का शब्द
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।