हिमालयी संगीत की खनकती धुन…
समूची बस पर सवार है यह लहराती धुन…
सवारियों के दिलों में…आंखों में…सरगोशियों में…
एक युगल स्वर को खामोशियों में गूँजाती हुई धुन-
‘‘हर सुबह तुमसे जन्म लेते हैं, हर शाम तुम में खो जाते हैं…
तुम जगाते हो तो जगते हैं, तुम सुलाते हो तो सो जाते हैं… ‘‘
इन शब्दों में सबको अपना-अपना मंतव्य और गंतव्य मिल जाता है।

यह नृत्यों और गीतों की घाटी है… सीढ़ीदार खेतों और बागों में उगी उमंगों की आहट बचाती घाटी!
संगीत और शब्द बस में तो नाच ही रहे हैं… मानो इंजन और टायरों में जा कर भी सांस लेने लगे हैं।
बगल में नदी और चहुंओर कुदरत के खुले नजारे!
हर मोड़ जीवन जगाता एक जादू…

एक लंबी और चुस्त लड़की खड़ी है सामने मोड़ पर…
जिंदगी भी और जादू भी… यकीनन!
लड़की के हल्के से संकेत पर बस ठहर जाती है…
सबकी नज़रें उस लड़की के लिए स्वागत से भर गई हैं… उसे नदी की ओर खिड़की वाली सीट मिल गई है।
किसी को कोई जल्दी नहीं है। इस घाटी में फुर्सतें अभी बरकरार हैं। सड़क पर पहुंचते ही कोई न कोई बस आसानी से मिल जाती है… जरा सा हाथ हिलाया नहीं कि बस ठिठक कर खड़ी हो जाती है। ड्राइवर और कंडक्टर जानते हैं कि सामने जो हाथ हिलता है, उससे रोजगार चलता है और नई – नई सवारियों से पहलू बदलता एक विस्मय संसार भी…
बस में लिखा भी है –
‘अपनी सवारी जान से प्यारी!’
ओ, लड़की! तुमने पढ़ा क्या? पता नहीं हिंदी जानती भी हो कि नहीं? पूरी एलियन लग रही हो… पीठ पर बैग लटकाए… दूर देश की गोरी छोरी! और… बजते हुए गीत का दृश्य हो गई हो। सो स्वीट एंड सो ग्लैमरस!
यह लो… प्रायवेट और लोकल बस का युवा ड्राइवर स्मार्ट हो गया… उसने उसके गाल में पड़ते टोये… यानी दिपदिपाते डिंपल देखते ही पंजाबी गाना चालू कर दिया- ‘गाला गोरियां ते विच टोये… असी मर गए… ओये-होये! …कुड़ी कढ के कालजा लै गई…’
सामने बैठी एक स्त्री मन ही मन कह रही है- ‘पता नहीं कलेजा ले गई कि पूरा कॉलेज ही ले गई? पंजाबी विच हर गल दे दो मतलब! ठीक है… तुसी मर ही जाओ… ओए होय… तुहाडा बेड़ा गर्क होय! सानूं थल्ले ल्हा देओ ते तुसी जाओ ऊपर!’
‘अपनी सवारी जान से प्यारी’ के मतलब और भाव बदल गए… कुछ नजरें हट ही नहीं रहीं।
लेकिन वह लड़की तो कहीं और है… उसकी गहरी और खोई-खोई आंखें उसकी बेखयाली को गा रही हैं। पीछे बैठे दो लड़के अपनी जुबान एक-दूसरे के कान से सटाए हुए हैं- ‘‘हर बार अचानक नए मोड़ पर आ जाती है… नए भेस में… इसका पता लगाना पड़ेगा। ‘‘
हां… सिर्फ अपना पता भूल कर!
अंतःपुर में बजने वाले नूपुर हर किसी के पल्ले पड़ते भी नहीं। घर बैठे धूप तापना कितना आसान है! सूरज और किरण को किसने छुआ है?

आज धूप वाला दिन है…
पहाड़ पर दिसंबर में पहली बर्फ के बाद की धूप… यानी अघोषित उत्सव! लोग घरों से बाहर उमड़ पड़ते हैं… रंगबिरंगे कपड़े पहने… औरतें अपने दरवाजों पर अनाज बीनती, लकड़ियां और घास सहेजती या सब्जी काटती आसानी से दिखाई दे जाती हैं। कई दिनों के बाद नीले आसमान के नीचे धुलने वाले कपड़े सूखने को टंगे हैं- मीठी धूप को हौले-हौले पीते हुए… एक बिल्कुल नए समय में… नया सूरज तापते…
उसे यह घुमावदार सड़क अच्छी लगती है, इसलिए वह अक्सर कुछ बसों को छोड़ भी देती है और नदी के किनारे-किनारे काफी आगे तक पैदल निकल जाती है। नदी पार देवदारों के झुंड उसे हर बार नया रूप पहने खड़े मिलते हैं। इस बार भी वह नदी के इन तटों को जी भर कर देखने के बाद बस में चढ़ी है। खिड़की के बाहर बर्फ से लदे पहाड़…उनके बीच हरियाली और पतझर के नजारे… पाइन्स प्रजातियों को छोड़ कर हर कहीं ठंड से झुलसे पेड़…पीले पत्ते… सर्दी में दुबली हो जाने वाली नदी के आर-पार और बीच में उभर आई दूधिया चट्टानें… गोल-मटोल मटमैले और संगमरमरी पत्थर…
बंधनमुक्त होने का अहसास उसे आज कुछ अधिक है…
उसे ब्यास नदी का पौराणिक नाम याद आता है-विपाशा ! तटों के बंधों में भी पाशमुक्त है नदी…क्योंकि उसमें प्रवाह है…वह किसी की कुछ नहीं लगती, इसीलिए सबकी है…हर अंजुरी को उसने अपनी रवानी से पानी दिया है और हर घटना से विरक्त-मुक्त हो आगे निकल गई है।
उसे दो अनोखे शख्स शिद्दत से याद हो आए, जिनके प्रेम से वह जन्मी थी… जिनकी घुमक्कड़ी के दरम्यान उसे हिमालय में एक गुमशुदा सी जिंदगी मिली… जो उसे दूर-दूर छिपाते बरसों अपने पिछले रिश्ते-नातों में आते-जाते रहे… जिन्होंने उसे सिखाया कि सच्ची जिंदगी की रचना स्वयं करनी होती है… झूठों से बनने वाली संगठित दुनिया में… अक्सर अपने वजूद को छिपा-छिपा कर… नए-नए लिबास देकर… अपने सच की हिफाजत के लिए दुनियावी झूठों के औजार लेकर…
एक दूधिया नाले के पुल से बस गुजरी… लंबे मोड़ पर मुड़ी… और उसके चेहरे पर धूप आ पड़ी… आज फिर वह अपनी रूहपसंद जगह पर पहुँचेगी और वहां अपने और इस मौसम के कुछ और रूपरंग देखेगी… पता नहीं क्या-क्या?
आकस्मिक और मारक हैरानियां उसकी जिंदगी हैं…

‘अनंतकाल तक बार-बार इन वादियों में आना है मुझे… यह सब मुझमें है… मुझसे है… यह सब इसलिए है कि मैं इस सबमें अपने खोए हुए खुद को खोज सकूं… हर चीज पर शंका और प्रश्न कर सकूं… यह भी कह बैठूं कि सिद्ध करो कि यह संसार सच में है… कि मैं हूं… मगर मैं… मैं तो हूं ही… चाहे कुछ हाथ न आए… समूचे संघर्ष और उत्कर्ष के बाद खाली हाथ जहां मैं लौटता हूं, वह कौन है? मैं! सोहम्! अस्तित्व का सबसे बड़ा सच… जहां से सब शुरू होता है, और जहां सब लौट आता है… अनासक्त प्रेम की तरह!
‘इस संसार में एक ही चीज शाश्वत है- मुझमें सदा से अज्ञात की सांस लेता- प्रेम! लेकिन कितना नवरूप और कितना क्षणजाया! समझ सको तो कितने प्यारे एडवेंचर हैं दुनिया में आने और जाने के!’
कितनी-कितनी बार वह इन अजात शब्दों को अपने भीतर नहीं जी चुकी? जैसे रोज एक नया पोस्टकार्ड उसके हाथ लगता है… एक नया संदेश… कि जो आशियाना तुम्हारे नाम है, उसे ढूंढ निकालो…
उस रोज वह कितने पास आ गया था…
कुछ लम्हों की वह मुलाकात… जैसे पानी का झलमला… जैसे हवा का झोंका… कितना काल्पनिक… कितना वास्तविक! पता ही नहीं चलता कब वह क्षण तुम्हारी बगल की सीट पर आकर बैठ जाता है और तुम उससे बातें करने लगते हो… अक्सर होंठ हिलाए बिना…
ऐसे ही तो आया था वह…
फिर एक झलक के साथ कुछ इबारतें भर देकर अपने रास्ते निकल गया था… उसे उसकी चुनी हुई जगह सौंपता। क्या अब कभी मिलना होगा? और क्या यह संभव होगा कि अचानक मिलें और फिर उसी तरह अपने रास्तों पर निकल जाएं? पीछे मुड़ कर देखें तक नहीं?
ऐसे लोग क्यों बीच पगडंडी पर सामने आ जाते हैं, जिन्हें आप पहली नजर में पहचान तो लेते हैं, मगर पीछे से जरूरत भर आवाज में पुकार भी नहीं पाते? कोरे कागज की फड़फड़ाहट बन कर… अनलिखी किताब की आहट होकर रह जाते हैं…

संगीत बदलती बस रुकती चलती रही… और बर्फ ढके पहाड़… और नदी भी।
क्या है इन जगहों पर कि वह बार-बार चली आती है… अकेली… बिना थके… बिना रुके? नग्गर… सोलंग नाला… रोहतांग… केलांग… चंद्रताल… सिंधु नदी के आर-पार का लद्दाख… सांगला… ताबो, काजा, किब्बर… स्पिति… ये ऊंचे-नीचे पहाड़ी रास्ते- अपनी पीठों पर घास के गट्ठर लादे, ढलानों से उतरती हंसती-मुस्कराती स्त्रियां… छोटी-बड़ी लड़कियां… सत्तर-अस्सी साल तक की औरतें… जन्म से ही पहाड़ की जिंदगी… या पहाड़ सी जिंदगी को सहज स्वीकृति देतीं!
हमारी पिछली यात्राएं ही अगली यात्राओं के डिजायन फंदे बना-बना कर बुनती हैं… हम उन्हें ठीक से समझ कर स्वीकार न करें तो आगे के सफर खुशनुमा कैसे हों? ‘लेकिन मैं?’ वह खुद से पूछती रहती है-
‘क्यों भटकती हूं बार-बार… लगातार… यहां?’

‘‘तू पैदा कहीं भी हुई हो, है तू पहाड़ी परिंदा ही! ‘‘ एक औरत की सधी हुई आवाज थी… जब लद्दाख की सीमा तक पंजाब था… पांच आबों… सिंधु और चंद्रनीरा चन-आब से लेकर सजलुज तक पांच नदियों का बहुरंगा आयाम था… जब हिमाचल उसी के भीतर था… तब की एक जवान औरत की आवाज उसे उसकी मिट्टी में खड़ा कर देती है-
‘‘ये पहाड़ तुझे हमेशा पुकारते रहेंगे और तू एक दिन सदा के लिए इन्हीं की होकर रह जाएगी… तेरे मां-बाप भी दूर-दूर की दिशाओं से आकर यहीं तो मिले थे… तुझे जंगलों में छिपी-छिपी एक पगडंडी पर उतारने! बस, वो… एक क्षण… वो सहजन्मा लम्हा…जो तुझे तलाश कर रहा है… जिसे तू शिद्दत से लपक कर पकड़ लेना चाहती है… वो तुझे दिख भर जाए… और उसे देखते ही कोई जनूनी तड़प जग जाए तुझ में किसी भी बहाने… यों ही नहीं सीखी है तुमने यहां की जुबानें… यों ही नहीं छान मारे हैं तुमने सोहनी-महिवाल के मानीखेज अफसाने… यों ही नहीं आ गई तू एक ऐसी औरत की कोख में जन्म पाने, जिसमें कई नस्लों से आया रहस्य-रक्त अपनी देह के लिए सांचा तलाश करता है… अपनी रूह की रचना के नए सूत्र ढूँढता है… बेआवाज चीख में पुकार-पुकार कर… बेआहट कदमों से दौड़-दौड़ कर… ‘‘
सहसा वह औरत इस घाटी की भाषा में भीगी हुई करवट बदलती है- ‘‘ऐंढी शोभली बांठण री कैंढी शोभली शोहरी… तू! (ऐसी बणी-ठणी स्त्री की कैसी सुंदर छोकरी है… तू!)… और मैं? जाने दे… मेरे जाने के बाद जानेगी कि पहाड़ कैसे-कैसे पुकारते हैं अपनी खोई हुई बारिशों और बर्फों को… हवाओं और पानियों को। इलाकों को लकीरों में बांट देने से तासीरें मर नहीं जातीं… स्रोत पर स्वाद सनातन है… तू बचाएगी उसे… अपने उस ‘आप’ को, जिसे आज तक कोई समझ ही नहीं सका… न तुमने किसी को भनक लगने दी… ‘‘
वह उस औरत… अपनी नानी को देखती रह गई थी… नई हैरानी से!
इस तरह से पहले कभी नहीं बोली थीं वे…
आज दिन भर दोनों खेत में काम करती रहीं… गांव से आई हुई सहायक स्त्रियों के साथ… खाना भी खेत में खाया। बचपन की आदतें नहीं जातीं, हाथों में चढ़ी मिट्टी चाहे रोज समूची हटा देना आसान है।
रात सन्नाटा ओढ़ चुकी थी। उसने देखा था, नानी रोशनी बुझा कर ऑल इंडिया रेडियो से बह रही नदी में डूब गई हैं- मायूसी को गाकर भी बुझते जीवन को संजीवनी देने वाली लता की आवाज में… ‘जहां ठंडी-ठंडी हवा चल रही है… किसी की मुहब्बत वहां जल रही है…’ वे कितने ही गीतों को उसकी मां और अपने माजी से जोड़ कर उदास हो जाती हैं… लेकिन यह उदासी किसी से कोई शिकायत नहीं करती… न मांग। आगे चलकर यह गीत उसके मां-बाप पर कुछ ज्यादा सही बैठता है- ‘न तुम बेवफा हो… न हम बेवफा हैं… मगर क्या करें? अपनी राहें जुदा हैं…’ कम-अज़-कम उनकी तीन पीढ़ियों की दास्तान तो यह गीत कहता ही है- बर्फ में दबे अंगारों की… ‘ज़माना कहे मेरी राहों में आ जा… मोहब्बत कहे मेरी बांहों में आ जा…’
उस रोज वह नानी का हाथ अपने सिर पर कंपता पाकर उनकी बगल में चुप सो गई थी। जब सारे हाथ साथ छोड़ देते हैं, हम बेसाख्ता किसी एक हाथ से समूचा सुकून पा लेना चाहते हैं… कोई हाथ सारे बिछड़े हुए हाथों को साथ लेकर चला आता है… फिर वे तो नानी थीं… असंभव सी…
सुबह उसने रात के अपने सपने का अर्थ उनसे पूछा था- ‘‘मैं सपने में एक लेख पढ़ रही थी… शीर्षक था- ‘कृष्ण कहते, मैं गायिकाओं में लता मंगेशकर हूं’! ‘‘
‘‘मगर यह लेख तो बरसों पहले मैंने सच में पढ़ा था… मेरे हाथ ने तेरी खोपड़ी के रास्ते तेरे दिल में पहुंचा दिया होगा… इसका सीधा-सा अर्थ है- ‘हमारे खामोश गीतों से बनी गीता को रच सकने वाला कोई भी कृष्ण यही कहेगा कि नारीत्व दर्द की बारिश है और जो उसमें नहाना जाने, वही अमृत को पहचाने! अमृत ऊपर किसी जन्नत में नहीं बनते, हमारे भीतर कसीद होते हैं… हमसे बहते हैं। हर ‘ऊपर’ के मायने हर ‘भीतर’ के उरूज़ हैं… भीतरी बुलंदियों से लेकर बाहर की हदबंदियों के पार तक… जो औरत की छातियों… उसके उरोजों के भीतर परवान चढ़ते हैं और हर नए ईश्वर को दूध पिलाने को मचलते हैं… तमाम रूहानी आब लेकर… तमाम आसमानी शराब लेकर! देवकी जन्म दे और यशोधा दूध… वरना किसी स्त्रैणवंचित अप्रकृत पूतना के स्तनों में संचित विषदुग्ध को चूस फेंकने का हुनर और हौसला कोई कृष्ण कहां से लाए? ‘‘
और मैया से मासूमियत के साथ कैसे पूछ सके कि ‘राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला?’
विष पीता हर कृष्ण कन्हैया… तुम कहते यूपी का भैया!

लीजिए…
पतली कूहल बस स्टाप आ गया।
कुल्लू-मनाली रोड की सबसे ज्यादा सवारियां यहीं उतरती-चढ़ती हैं… विश्वप्रसिद्ध कलास्थली नग्गर को यहीं से दाहिने को रास्ता मुड़ता है। किसी वक्त यहां सिर्फ पानी की पतली सी धार बहती थी। आज उस धार के आर-पार एक छोटा सा शहर बस गया है- पतली कूहल! बहाव आगे निकल जाते हैं… समंदर होकर आकाश पर छा जाने को… और बहावों के आर-पार मनुष्य ठहर जाते हैं संगठित सरोकारों में रोने को… जीने के नाम पर कबाड़ ढोने को… पतली हो या हरिद्वार या बनारस जितनी चैड़ी, हर घाट पर आज जलधार लाचार है।
बस आबादी से आगे बढ़ी तो नदी फिर साथ थी…
दस मिनट के भीतर स्पैन रिसार्ट आ गया, जहां के विपाषतट पर दुनिया भर के संगठित अहंकार द्वारा बहिष्कृत अमीर फकीर ओशो ने कुछ दिन बर्फबारी के नीचे डेरा डाला था।
और… ओ, हेलो… यह लो…

15 मील आ गया…
वालीवुड वालों का मशहूर शूटिंग स्थल… 15 माइल्स…
वह जैसे कहीं दूर से लौटी और हड़बड़ा कर कुछ लोगों के पीछे बस से नीचे उतरी। बस अपना नया गीत गाती मनाली की तरफ निकल गई। उतरे हुए लोग पुल के रास्ते जंगल पार अपने गांवों की तरफ चले गए।
वह नई-नई दोपहर की खिलती धूप में अकेली खड़ी है…ब्यास नदी पर बने झूला पुल को एकटक देखती…फिर पुल पार के 15 माइल्स के समूचे विस्तार को…
कहीं कोई नहीं था…

अगर किसी फिल्म की शूटिंग चल रही होती तो भीड़ होती और वह लौट जाती चुपचाप…लेकिन उसकी नजरें अभी जंगल और नदी तट को छान रही थीं… कहीं ’कोई’ तो हो…

नहीं… कोई नहीं है।

तो कोई नहीं आएगा अब

उसने अपनी आंखें भीतर को मोड़ीं और जैसे जन्मों से जमी हुई प्रतीक्षा की ठंडी चट्टान को छुआ… जो बिना हिलेडुले पड़ी रहती है भीतर। वह पुल की ओर बढ़ी। दोनों तरफ से लोहे के रस्सों पर कंपता हुआ पुल… रस्सों के साथ बंधी बौद्ध मंत्रों से भरी कपड़े की झंडियां… दैवी शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए रंगे हुए मंत्रचीर… अब इनसे कुछ नहीं ढांका जा सकता- ये झंडियां हवा में कांपती रहती हैं, आत्मा भीतर ठिठुरती रहती है।

पुल के बाद सीधी-सपाट पक्की सड़क… दोनों तरफ देवदार और कैल के लंबे-घने पेड़… उनसे छन कर आती गुनगुनी घूप- जो कुछ देर पहले नीचे उतरती ठिठुर रही थी। पांवों के नीचे रात की ओस से सने नुकीले पत्ते, जो नए हरे पत्तों के लिए जगह छोड़ कर धरती की बिछावन हो जाते हैं। देवदार से झड़े गुलाबनुमा भूरे फूल… और उसके सखा… यानी चीड़ के अग्रज कैल से झड़े लंबे-भूरे लक्कड़फूल…

धूप के टुकड़े के तले आकर उसने एक लंबा फूल उठा लिया और उसे नाक के करीब लाकर उसकी महक लेने लगी। सहसा उसे किसी की संकोच भरी चेतावनी सुनाई दी-

‘‘हेलो… फूल को संभल कर पकड़िए… इन फूलों का गोंद हाथों और कपड़ों से बुरी तरह चिपक जाता है और आसानी से नहीं छूटता…’’

नहीं… किसी ने नहीं कहा… कहीं कोई नहीं था… यह तो ’उस’ ने तब कहा था जब पहली बार मिला था… अचानक पास आकर… उसी के जैसा भटकता परिंदा… उसी के जिस्मोजान की पहचान सा… उसी की देहभाषा को गाता… कितना कंगाल- फटेहाल… और कितना मालामाल…

उस वनैले क्षण की काष्ठ -गंध में समा कर एक नई और आत्मीय गंध उसके भीतर चली गई थी… पुरुषगंध… लेकिन सबसे अलग… पहले दिन से विकसित… आदिम और अदम्य…

‘‘मैंने जो कहा– उसका पता यदि आपको पहले से है… और अगर आप पता होते या पता न होते हुए भी परवाह नहीं करतीं तो मेरी बात पर ध्यान न दीजिएगा… ‘’

वह अपने भीतर हिली… ध्यान क्यों न दूं, उसी होश पर तो निश्चिंत हैं मेरी बेपरवाहियां… सुनती सब हूं… छूता वही है जो छू सके…

‘‘ओ. के. ‘’ प्रकट में वह इतना भी ठीक से नहीं कह पाई थी कि-

‘‘कुछ खुशबुएं इतनी प्यारी होती हैं कि आप उनकी कैसी भी संभावित छुअन से नहीं डरते… किसी भी हद तक! एवरी मोमेंट इटसेल्फ… टेक्स इट्स केयर… तो भी… प्लीज़ बी अवेयर… ‘’

कह कर वह अपने रास्ते पर जाने के लिए मुड़ने लगा तो वह उससे आंखें मिला कर होंठों पर कुछ लाते-लाते चुप रह गई… और अपने चुप रह जाने के रहस्य को पकड़ लिए जाने को देखती रह गई… अपने उस सपने को पकड़ लिए जाने को… जो समझ में आ भी जाए, पर हाथ में नहीं आता…

उसके होंठों पर जम गए शब्दों को पिघला गया वह- उस घड़ी के अपने इन शब्दों से- ‘’आय केन लिसन द सौंग ऑव योर साइलेंस इन माय मोमेंट… इस क्षण में बन रही एक ग़ज़ल में… ‘’

‘‘ग़ज़ल!’’ वह बिना बोले होंठ हिला कर रह गई।

‘‘तेरे बियाबां से मेरे याराने हैं… ये जंगल मेरे जाने-पहचाने हैं…”

‘‘ओह…” वह जहां की तहां ठहर गई… अपनी आंखों में उसके कहे का जवाब लेकर… उसे समूचा सुनते हुए-

‘‘मैं जब अपने होने पर हैरान होता हूं तो सहसा कोई आवाज सुनता हूं कि यहां तो अस्तित्व तक नहीं जानता कि वह क्यों है! उसे ‘क्यों’ का नहीं- ‘है’ का शायद अबोध सा कुछ बोध हो। कहकशाओं या नक्षत्रों की ज्वलंत हैरानियों को… और मेरे या आपके होने की परेशानियों को यहां कौन पूछता है? बस, अटको मत… सतत भटको… चरैवेति… ‘‘

‘‘आह! ‘‘ वह होंठों पर एक तड़पती जुंबिश लेकर रह गई।

दोनों की नजरें अब एक सेकेंड भर को मिलीं और जो होना था, वह हो गया… पता नहीं क्या?

उसके मुड़ते-मुड़ते वह अपने होंठों पर आए कुछ शब्दों में से अंतिम शब्द को खुद भी सुन सकी थी- ‘‘थैंक्स… ‘‘ बोली वह इससे आगे भी थी… ‘‘… ओ, वंडर… वांडरर… थैंक्स.. ‘‘

वह चला गया… वह उसे दरख्तों में ओझल और खुद में उदित होते देखती रही।

आज वह उस मुलाकात को जैसे फिर से देख रही है… और उस दिन के बाद अपने यहां तीसरी बार आने को भी… कि उसके भटकाव की पुकार अब किस मुकाम पर है? अब किसको खोज रही है? ‘वह’ क्या अब मिलेगा भी? क्या उसे मालूम है कि वह उसके ‘होने’ के साथ हो ली है? क्या उसने उसके मुंह से निकला वह ‘थैंक्स’ सुना भी था? वरना एक पुरुष के लिए क्या यह एक शब्द काफी नहीं था ठिठक जाने और दुनियावी परिचय पा जाने को?

उसने जो कहा था, वह दो के बीच का अनकहा अद्वैत था… मगर जो आसानी से समझा जा सकता है, वह साफ है… हर नए को छूने से पहले आसानी से भरी एक सावधानी बरतो… मस्ती से भरी एक कीमियागरी…वरना आगे खतरा है। रिश्तों की गोंद थोड़ी दूरी से छुओ… एक फासले से ठीक सा फोकस करके देखो तो कहीं कोई भय नहीं…

देखने और छूने के ढंग अर्थ को बदल देते हैं… पर ये अर्थ भी आखिर हैं क्या? वह, जो तुम तय करते हो, या वह, जो वास्तव में है? लेकिन इस ‘वास्तव’ को भी कौन तय करेगा? पहाड़, जंगल और नदी के भीतर अगर हमारे फलसफे प्रवेश कर जाएं तो रचना तो दूर, बचना असंभव हो जाए कुदरत के लिए… वरना चांद तक को खबर नहीं कि धरती पर उसके लिए हार्दिक आहें भरता मनुष्य उसे दिमागी तरीके से रौंद भी चुका है… अपने ज्ञान या विज्ञान की षान में… अपनी धरती को श्मशान बनाते हुए…

दिमागी तर्क चिल्लाते हैं, दिल की दस्तकें सहमी-सहमी पुकारती हैं…

सभी पुकारों को अनसुना कर उसने नदी की अतर्क्य पुकार को सुना और नदी की तरफ निकल गई… अपनी जीन्स के पांवचों को दो बार ऊपर को मोड़ा, जैकेट उतार कर बैग में डाला और बैठने के लिए एक सुनहरी-भूरी चट्टान चुन ली…

एक चट्टान को दूसरी चट्टान चुनती ही नहीं… गुपचुप सुनती भी है।

बैठते ही एक गर्म लंबी सांस बाहर फेंकी तो जवाब में अनायास भीतर नदी की नमहवाई सांसें भर गईं… अप्रयास…

शीशे जैसा पारदर्शी पानी… और शीशे सा साफ मानी भी… कि बैठे मत रहो किनारे पर… कम एंड लेट फ्लो द सेल्फ… योर… प्योर सेल्फ! उसने खुद को थामे रखा। तभी लाल दुम वाली एक नन्हीं चिड़िया जाने कहां से आई और सामने की चट्टान पर उतर कर पानी में अपनी चोंच डुबोने लगी। परवाज को आसमानी रंग का पानी चाहिए आकंठ… और तरबतर हो पंख फटक-झटक कर सुंदरतर असुरक्षित उड़ान को…

वह अपने भीतर उस रोज से लरजती एलियन इबारतों को भीतर थपक कर बाहर देखने लगी…

पानी में उभरती चट्टानें… जैसे बड़े-बड़े कछुये बैठे हों… सिर्फ इतना नहीं, बल्कि अदृष्य में विचरती एक दूसरी दुनिया का अहसास भी… सिर्फ विज्ञान की ही मानें तो भी केवल हम रूपधारी लोग ही नहीं हैं इस प्लेनेट पर… अरूपों का एक बड़ा संसार भी है। उनसे बात करने का मन होता है… ओए, माहणुओ… परमाणुओ… सुन रहे हो न? हम तुम्हें तंग तो नहीं कर रहे?

हाथ हिलाते ही ध्यान आता है कि पता नहीं कितने अदृष्य जीवों को परे हटा दिया… और उन्होंने हमें फिर-फिर घेर लिया होगा… एक संसार में कई संसारों के होने की अनुभूति उसे शिद्दत से पानियों से सटे निर्जन वनों में होती है।

उसके विचार आहिस्ता-आहिस्ता मद्धम होते गए… भीतर जाकर नस-नस का रस हो चुका वह हदपार का हादसा अब शांत था। वह आत्मलीन हो आंखें बंद किए वहीं बैठी रही।

आवाज से उसका ध्यान टूटा…

वह संभली… देखा- नदी पार से कुछ लड़के मस्ती में सीटी बजा कर पुकार रहे हैं। एकांतों में अकेले विचरते ऐसी सीटियां सुनने की आदत है उसे… छोटे-छोटे लड़के भी जान जाते हैं कि लड़की का अकेले होना सदा से संदिग्ध है… या एक तमाशा…

उसने झुक कर पानी पिया… बहुत ठंडा बर्फीला पानी… भीतर तक सिहरन दौड़ गई। फोन कैमरे से कुछ तस्वीरें उतार कर वह उठ खड़ी हुई। लड़के अभी सीटी बजा रहे थे। उसका परदेशी रूपरंग उन्हें कुछ ज्यादा शह दे रहा होगा। वह लौट चली… चट्टानों को कूद-कूद कर फलांगते हुए…

पेड़ों की घनी ओट में पहुंच कर भी उसे लगा, वह देखी जा रही है। उसने पेड़ों के बीच के हर रिक्त स्थान पर नजर दौड़ाई… कहीं कोई नहीं था… लेकिन जो देख रहे हैं, उन्हें तुम नहीं देख सकतीं… क्योंकि अस्तित्व की निराकार नजरें सदा हम पर लगी रहती हैं… बड़ी उम्मीदों के साथ… ताकि हमारे जरिये स्त्री और पुरुष तत्त्वों से संपन्न यह विकासमान सृष्टि बची रह सके… क्योंकि सृष्टि को खतरा भी सिर्फ मनुष्य से ही है… उस मनुष्य से जो अभी बन रहा है… श्रेष्ठतम होने की खुशफहमियां पालता… सजातीय गिरोहों के आसरे पलता… प्रदर्शन की सत्ता के महानायकों की गलबंहिंयों का शिकार होता… मेहनत और शोहरत को जनमत के लिए भुनाता… कीच उछालने की सुविधा को साहित्य समझता… जीवंतता और अद्वितीयता से सदा चिढ़ा-कुढ़ा और भिड़ा हुआ मुर्दा मनुष्य… इसे अपने दम पर निर्भय जीने वालों से सदा बैर रहा… वह भी उधार का और संगठित!

दरख्तों में से गुजरते हुए एक नए छोर पर उसे बैठने की अच्छी जगह मिल गई, जहां वह आराम से कुछ खा सके। सामने के टीले से एक झरना फिसल रहा था। उसने बैग खोला और नानी की दी हुई चीजें निकालीं…

जैसे ही उसने एक सैंडविच उठाया, उसके सिर के ऊपर संकोच भरी आवाज मंडराई-

‘‘मे आय सिट हेयर… कैन आय,अगर आपको बाधा न पहुंचे? ‘‘

उसने सिर उठाया और देखती रह गई…

‘‘ओ… यू…? ‘‘ जैसे उसकी रूह उसके तन-मन के हाथ पकड़ कर नाच उठी। उठने लगी तो उसने उसके कंधे पर हौले से हाथ रख कर रोक लिया और खुद भी बैठ गया।

वह उसे कंधों पर से भारी-भरकम सैक उतारते देखती रही।

‘‘कैसी हैं आप? ‘‘ वह आवाज उसकी नसों में उतरती चली गई।

‘‘व्हेयर हैव यू बीन सो लौंग? जैसे 15 माइल्स में मेरे पंद्रह जन्म बीत गए… ‘‘ बोलते हुए वह उसकी आंखों में चाह कर भी नहीं देख सकी।

दोनों जानते थे कि सिर्फ पंद्रह दिन पहले वे यहां मिले थे।

वह उसकी पलकों के पीछे की चमक को देखता बोला, ‘‘हां… जैसे पंद्रह युग बीत गए… उस दिन लगा था कि बिछुड़े हुए मिल गए… ‘‘

‘‘और मिलते ही बिछुड़ गए… ‘‘

‘‘आज फिर मिलने को… ‘‘

दोनों हंस पड़े।

‘‘सोचता था, आप जहां से आई हैं, वहां लौट गई होंगी। ‘‘

‘‘तब आप यहां आते ही क्यों? ‘‘ वह शरारत से मुस्कराई।

‘‘पौ फटते ही रोहतांग जाने को निकला था… पीठ पर यह ढेर सामान लेकर… लेकिन मनाली से आगे रास्ता बंद था… लौटते हुए घर तक की टिकट ली, मगर पता नहीं क्यों यहां उतर गया? ‘‘

‘‘नहीं जानते हम… कि कौन उतर आता है हम पर… और कहां उतार दिए जाते हैं हम… अंतिम सांस तक… या पहली सांस तक वापस… ‘‘

‘‘एक्जेक्टेली… नहीं जानता था कि आपके पास जा रहा हूं… आपको आपके बावजूद तलाश करने… इवन इनसाइड मायसेल्फ… उन निशानियों को फिर से देखने जो पिछली बार भीतर रह गई थीं… ‘‘

‘‘निशानियां आपने छोड़ी थीं, मैं तो अवाक् थी… ‘‘

‘‘मैं उस वक्त भी बता सकता था कि आप क्या कहना चाहती हैं… और अब भी… लेकिन नहीं बताऊंगा… क्योंकि आप मेरे जानने को तब भी जान गई थीं और अब भी जान रही हैं… ‘‘

‘‘कुछ छोड़ते ही नहीं आप मेरे लिए… क्या कहूं? ‘‘ वह अपने हाथ में पकड़े सैंडविच को देखने लगी।

‘‘यह भी छूटा रह गया है आपसे… ‘‘ उसने उसके हाथ को पकड़ कर सैंडविच उसके मुंह से लगाया और खुद दूसरा सैंडविच उठा लिया।

‘‘थैंक्स… ‘‘

‘‘किस बात का? ‘‘

‘‘क्योंकि आप जान गए कि मैं भूखी हूं और आप भी… ‘‘

वह जोर से हंसा। फिर संजीदा स्वर में बोला- ‘‘आज मैंने दूसरी बार सुना… आपका थैंक्स… ‘‘

‘‘आह! ‘‘ उसकी जान निकल गई- ‘‘उस रोज सुन लिया था न! ‘‘

‘‘हां… ‘‘

‘‘देन अगेन थैंक्स… सोचती थी आप बहरे हैं। ‘‘

‘‘और मैंने तो गूंगी मान ही लिया था आपको। ‘‘

अब दोनों बहुत हंसे… एक लंबी खामोशी में जाते-जाते…

देर बाद-

‘‘मैं आज तक ‘15 माइल्स’ नाम का रहस्य नहीं समझी… ‘‘

‘‘यह जगह कुल्लू शहर से 15 मील आगे पड़ती है… यहां आबादी होती तो शायद कोई दूसरा नाम होता। अच्छा हुआ यह कुदरत बची रह गई और 15 माइल्स एक कुदरती नाम हो गया… रहस्यमय नाम… ‘‘

‘‘हमारी तरह… ‘‘

‘‘दैट्स व्हाय… ‘‘ वह पेड़ों के झुरमुटों में नजरें घुमाता और उसके गाल पर पड़ते भंवर तक लौटता बोला, ‘‘तभी तो दिस ‘15 माइल्स’ स्माइल्स… एंड दिस इज़ अवर न्यू माइलस्टोन… ‘‘

उसने क्षण भर को उसकी आंखों के पार की लौ को देखना चाहा।

‘‘आपके लिए कुछ लाया हूं… अपने कॉटेज वाले बगीचे से… आप न मिलतीं तो अकेला इन्हें छू भी नहीं सकता था… ‘‘ वह अपने थैले की बाहरी जेब पर झुका और बहुत से अखरोट उसके सामने रख दिए। दोनों की नजरें देर तक मिलीं… दो जोड़ी पारदर्शी आंखें उन दोनों के अक्स अपनी पुतलियों में लेकर कुछ क्षण के लिए मुंद गईं। जैसे नदी ने अपनी तरलता और जंगल ने अपनी हरियाली भी उन आंखों में रख दी। अस्तित्व ने चुपके से उनकी तस्वीर उतार ली… क्लिक… अपने रिकार्ड के लिए।

वह अखरोट तोड़ने लगी।
‘‘जब आप लेने का आग्रह नहीं रखते तो नेचर आपको आपका हिस्सा देने को मचल उठती है… ‘‘ वह उसकी हथेली पर अखरोट की गिरी रखते हुए बोली। हवा उनके नवेले रोमांच को अपने पंखों में लेकर पेड़ों पर जाकर गुनगुनाने लगी। वे सहज भाव से अपने साथ लाई चीजों को खा रहे हैं… मानों कई दिनों से साथ हों… जैसे सदा से… दूर-दूर रह कर बहुत पास…
कभी-कभी समय और उसका बोध गिर जाता है… बहती नदी में जिस पल ‘वह’ मिला, वही पल उसका… सूखे हुए पत्ते हों, तिनके हों, टूटी हुई टहनियां हों या बड़े-बड़े तने… या जंगल घने… या नदी में झिलमिलाते पहाड़ अनमने… मन षोर न मचाए तो हर चीज अपनी जगह ठिकाने से है… चैन से… अपने सही पते पर…

दोनों पास की एक पगडंडी की तरफ उतरे, जो फूलों से भरी कंटीली झाड़ियों से घिरी थी। एक जगह हाथ बढ़ा कर वह झाड़ी को हटाने लगी तो उसने कहा, ‘‘इन्हें छुइए मत… बस सिर को झुका कर निकल जाइए। ‘‘ उसने वैसा ही किया और आगे निकल गई।

चलने के सलीके आ जाएं तो कांटे भी रास्ता देते हैं।

एक खुली जगह पहुंच कर वे ढलान की तरफ पैर लटका कर बैठ गए। सामने नदी नए रूप में थी।

‘‘यहां धूप गुलाबी है… और जोगिया भी… आपके गालों की तरह… ‘‘

ये शब्द उसके भीतर कुछ जोर से पड़े… वह एक टंकार से भर गई और मुड़ कर उसकी आंखों में देखा… शरारत नहीं, एक सच था वहां… अविचलित!

‘‘मुझे नदी के बहाव के निकट बैठना बहुत अच्छा लगता है… पल-पल बदलने वाले जीवन जैसा बहाव… जो बीत जाता है, वह वापस नहीं आता… आप क्या सोचते हैं? ‘‘
‘‘आप यह भी जानती हैं कि कुछ ऐसा भी है जो नहीं बदलता… रूप चाहे कितने भी बदले… जैसे आकाश… जैसे धरती… जैसे… ‘‘

‘‘जैसे? ‘‘

‘‘जैसे आप… यह देखिए, अपना एक रूप… ‘‘ उसने उसके सामने अपने मोबाइल कैमरे की स्क्रीन कर दी, ‘‘आप चट्टान पर बैठी जब झुक कर पानी पी रही थीं, मैंने छिप कर आपकी तस्वीर उतार ली थी… लगा था कि कोई परी उतरी है आकाश से नदी पर… कितनी अनोखी हैं आप इस तस्वीर में… लेकिन घूमफिर कर हैं तो आप ही! ‘‘
वह चकित थी… मैं इस तस्वीर में हूं या इस तस्वीर से बाहर? या दोनों से पार… कि दोनों में?’ वह एक आब्जर्वर हो गई… वह कौन है जो देह और छवियों के न रहने पर भी रूप धरने आता-जाता रहता है और हमसे ‘हमारा’ मिला कर ही मानता है?
लेकिन एक शाश्वत अजनबी भी तो बैठा है भीतर।

‘‘क्या सोच रही हैं? ‘‘

‘‘आप बताइए… या अपनी रची किसी ग़ज़ल से बुलवाइए! ‘‘

‘‘जब भी खुद को हूबहू देखा, एक पराया शख्स रूबरू देखा… ‘‘

‘‘हां… यही… हूबहू… ‘‘

वे लौट आए हैं…

वह बैग में से पानी की बोतल निकाल रही है, जिसमें पानी बहुत कम रह गया है…

‘‘अभी जाकर पानी लाता हूं… ‘‘ वह बोतल लेकर नदी की ओर चला गया… वह उसे देखती रही… कैसे मिल गया है यह मुझे इस तरह? किसकी साजिश है यह? इसने मेरी प्रतीक्षा को हवाओं में… अपनी शिराओं में महसूस किया होगा… अपनी खोज की पगडंडियों पर मेरी आहट सुनता आया होगा… कैसे मिल गई मैं इसे? यह किसकी प्लान है?

वह पानी लेकर लौट रहा है… पेड़ों में से छनती धूप में लंबे डग भरता चला आ रहा है… उसे इस तरह अपनी तरफ आते देखना कितना आह्लादकारी है… अपनी ही रहस्यमय आत्मीयता से सहसा साक्षात्कार!

उसके भीतर एक नृत्य उठा… उसके लहू में नानी का प्रिय सूफियाना गीत ठाठें मारने लगा:

‘यार पाया सैंयो… मैं तां अपणा आप गंवा के नी…’

वह कुछ और नजदीक चला आया है… वह देख रही है…

‘मैं ता हर इक जाप भुला के नी… यार पाया सैंयो…’

हर जोग या संजोग उसी के लिए है, जिसमें हम समूचे उद्घाटित होते हैं।

उसने पानी उसके हाथ में दे दिया है…

वह बावरी सी हो गई है… ‘हां…इस अमृत की तलाश में थी मैं… बस, यही एक… पढ़ लिया हमने इक-दूजे को… एक हुए हम… जिसमें हम हो सकते हैं, उस एक को अपने में ले लो… इक अलफ पढ़ो, छुटकारा है! अब क्या चाहिए? हम एक-दूसरे में से सारे वसंत उगा लेंगे… देहरियां और नेहरियां बना-बना कर… अपना एक घर… एक नगरी… और वो सारे रंग, जो हमसे बनने हैं…’
उसे अपने वजूद से फूटती कोंपलें महसूस हो रही हैं… पता नहीं कितने तप से मिली है यह दुर्लभ देह? कितने निराकार तरसे होंगे इस आकार के साकार को?

‘एहि नगरी में होरि खेलो, री!’ उसने पानी का घूंट ऐसे भरा, जैसे पानी समेत पानी लाने वाले को घूंट-घूंट पी रही हो… ‘अस्तित्व ने मुझे जो सबसे बड़ी नेमत दी है… मेरी काया… आज पहली बार उस पर सही-सही दस्तक सुनाई दी है…’ वह नानी के सारे गीतों का मर्म जानने लगी है… वे जब बहुत सुकून में होती हैं तो गाती हैं-

‘धन! मोरी आज सुहागन घड़ियां…
निहुरि-निहुरि मैं अंगना बुहारूं…’

वह उसे पानी पीते देख तृप्त हो रहा है… उसे पानी पकड़ा कर अब वह उसे देख रही है… पिछली बार उसने काली जैकेट पहन रखी थी, आज काले कोट में है…
‘तुम्हें काला रंग बहुत पसंद है क्या?’ वह मन ही मन उससे पूछती है और खुद ही उत्तर देती है- ‘नहीं, तुम्हारी खोज में सारे रंग एक रंग में छिप गए थे… विछोह के रंग में! अब देखना कितने रंग निकलेंगे, इस राज़ भरी रजनी में से…’

‘‘बहुत ठंडा है न पानी… भीतर तक जमा देता है… ‘‘ वह उसके अंतिम घूंट के बाद बोली।

‘‘नहीं, भीतर तक पिघला देता है… बर्फ के भीतर एक खास तरह की गर्मी होती है… कभी स्नोफाल के तले देर तक घूम कर देखना… हवा ठहर जाती है… पसीने पड़ते हैं… ‘‘
‘सब जानती हूं… बर्फ में जन्मी हूं मैं… लेकिन अभी नहीं बताऊंगी… छकाऊंगी बाद तक… देखना… सिर्फ हिंदी भर जानने वाली परदेशन समझ लिया है तुमने मुझे…’ वह मन ही मन बोली। फिर जाने कैसे हंसती-हंसती कह गई, ‘‘तुम्हें पड़ते हैं पसीने? ‘‘

उसने उसकी हंसी को सलज्ज और रक्तिम कर दिया, ‘‘जितने इस वक्त पड़ रहे हैं, उतने नहीं! कहां से आ गई हो तुम… अकस्मात्? कैसे सहेजूं… कैसे संभालूं? मेरा पात्र छोटा पड़ गया है… कहां से लाऊं ऐसी बांहें, जिनमें यह नूर भरपूर समा सके… ‘‘
वह आंखें झुकाए हंसी और मन ही मन बोली, ‘कुछ उपाय करो न!’ फिर चेहरा घुमा कर सामने चट्टानों से फिसलते झरने को देखती रही।

जब तक वह उसकी ओर मुड़ती, वह अपने लंबे बैग में से अपना नन्हा तंबू निकाल पर उसे बगल में तान रहा था। वह हैरत से देखती रही… उसे याद आया कि उसकी मां के पास भी ऐसा ही नन्हा तंबू हमेशा रहता है। देखते ही देखते तंबू तन गया… वह उठी और उसमें घुस गई।

‘‘मेरा घर… ‘‘

‘‘हां… सिर्फ तुम्हारा… ‘‘

‘‘हमारा… ‘‘

वह उसकी गोद के तकिये पर आंखें बंद किए पड़ी है।

‘‘तुम हो तो सब कुछ है… ‘‘ वह उसके भूरे बालों से खेल रहा है।

वक्त ठहर गया है।

‘‘क्या सोच रहे हो? ‘‘

‘‘आय विल स्टे हियर टुनाइट… ‘‘

‘‘अलोन? ‘‘

‘‘विथ माय ऑल इन वन! नाउ आय’म नॉट अलोन… ‘‘

‘‘यह तंबू कहां-कहां जा चुका है तुम्हारे साथ? ‘‘ उसने बात बदली।

‘‘हिमालय के कितने ही सीमांतों तक… लद्दाख में फौजियों के बीच… मस्त घुमक्कड़ों के रैनबसेरों में… कितनी ही कहानियां हैं… कुछ लिखी भी हैं… ‘‘

‘‘हम जैसे लोग रचे बिना कहां रह सकते हैं? ‘‘

‘‘हां… ओव्हरफ्लो होता है… इमेजिनेशन के पार… हकीकत के द्वार पर… दुनिया के बनाए सच से अलग… वहां तक, जहां हम नहीं रह जाते… कोई और चला आता है हम में हमारी कहानियां रचने… ‘‘

वह उसे देखते-देखते सहसा धीमे से कह उठी- ‘‘तुमसे नया जन्म लूँगी मैं… एक नाम मिलेगा मुझे! अभी तक तुमने मेरा नाम भी नहीं पूछा… ‘‘

‘‘तुम में पनाह मिलेगी मुझे… मेरे द्वार को पार करोगी तो हमारे नाम हमारे होंठों पर आ जाएंगे… ‘‘ वह उसके देखने को देखता रहा।

‘‘हम सिर्फ साक्षी हैं इस होने के… है न? ‘‘ वह कहीं डूब गई।

‘‘हम इस कायनात के प्रति खुले रहें तो हमें पंख लग जाते हैं… क्योंकि हम स्वयं सृष्टि हैं… इसके स्वभाव का हिस्सा… एक ऐसी नथिंगनेस, जो अपने स्वभाव में ही एवरीथिंग है। ‘‘

‘‘असंभव का चिंतन सारे लॉजिक तोड़ देता है… ओ, मेरे ‘नथिंग’… नाचीज… मेरे षून्य… ‘‘ उसके अंतिम शब्द पर वह चैंका। वह कहती रही-

‘‘कुछ और कहो… कहते रहो… ‘‘ उसने उसके माथे पर अपने दहकते होंठ रख दिए और अपनी गर्दन पर गर्माते उसके होंठों और सांसों को पीती रही।

‘‘वर्ड्सवर्थ अपनी रचना से जहां पहुंच जाते हैं, वहां आइंस्टीन हक्केबक्के हैं… जहां पहुँचते हैं, वहां भी उन्हें कहना पड़ता है कि कहीं नहीं पहुंचे… यात्रा भी बाहर ही होती रही… जो खोजा, वह हिरोशिमा और नागासाकी हो गया। तुम देखो… राधा या मीरा अपने चांद इसी धरती पर पा लेती हैं और टैगोर अपनी रचना में समूचे प्रेम को… ‘‘

‘‘मैं इसके अलावा कुछ नहीं जानती कि हमने एक-दूसरे को जाना है… ‘‘ उसने उसके सीने से लग कर उसके गले पर अपने होंठों को तड़पता-मचलता छोड़ दिया।

‘‘हां… यही! मेरी प्रकृति… मेरी वनपाखी… वन्या! ‘‘

अब वह चैंकी उसके अंतिम शब्द पर।

‘‘यहीं से हम हर कहीं पहुंचते हैं अप्रयास… तुम्हें भूख लग रही होगी… ‘‘ वह उसका हाथ पकड़ कर बाहर आ गया और आसपास पड़ी सूखी लकड़ियां बीनने लगा। वह देखती रही… उसने दो पत्थरों से चूल्हा बना कर सुलगाया और थैले में से एक बहुत छोटा पतीला निकाला। उसमें पानी डाल कर चढ़ाया, फिर एक लिफाफे में भरा हुआ चाय का सामान निकाल लिया। चुटकियों में चाय बन गई और दो गिलासों में छन भी गई।

वह अपने थैले से बिस्कुट निकालते हुए सहसा जोर से हंसी- ‘‘क्या हुआ? ‘‘

‘‘जब तुमने कहा कि मुझे भूख लग रही होगी… तब खयाल आया था कि शायद मेरी भूख के तले तुम्हें अपनी गर्दन खतरे में दिखाई दे रही है। उस घड़ी हंसना असंभव था मेरे लिए… ‘‘

‘‘भयंकर हो तुम! ‘‘

‘‘प्रलयंकर! ‘‘ वह नजरें नीची किए रही।

‘‘बुरा फंसा! चलो, इक बार फिर से…अजनबी बन जाएं हम दोनों… ‘‘

‘‘जरूरत नहीं है… वह हम सदा से हैं-स्त्री-पुरुष… असाध्य अजनबी! एंड दिस इज़ द ब्यूटी ऑव अवर एनकाउंटर… इसी में यात्रा है… नवनीत! बहुत तड़पेंगे हम मिलन और विछोह में… देखना! मुझे जैसे यह अहसास मां के गर्भ में हो गया था… मिलते ही नए रहस्य और नए दर्द हाथ लगते हैं… शायद भीतरी जगत में अभिन्न होने तक! ‘‘

‘‘कहां से आई हो तुम? ‘‘ वे फिर से तंबू में हैं।

वह उसके सीने की टेक लिए सामने थिरकते झरने को देख रही है चुप… बंद आखों में उसके गर्म श्वासों की आंच से तपती… सिहरती…

‘‘बताओ न… ‘‘

‘‘यहीं पास से… पर्वत की बुलंदी वाले एक बाग से… अपनी ग्रेनी…नानी के यहां से… और मां बाप… ‘‘

‘‘मां-बाप…? ‘‘

‘‘वे जब एक-दूसरे से अलग होकर अपनी दिशाओं में निकल गए तो मैंने नानी को चुना। मेरे अधिकांश फलसफे नानी से विकसित हुए हैं… जैसे मेरी सखी हों… उनके भीतर एक ठेठ पहाड़न, एक पुरानी पंजाबन और अंततः एक एवरग्रीन लड़की हमेशा रहती है… मेरी भाषाओं… मेरे गीतों… मेरी सारी भीतरी यात्राओं की हमराज हैं वे… ‘‘

तभी बगल में पड़ा उसका फोन बजने लगा-

‘‘कहां है मेरी हवा-हवाई? ‘‘
‘‘एक जन्नत की आगोश में! आपका ही जिक्र था जुबान पर… कुछ और उम्रदराज हो गईं आप! नानी… आज रात यदि मैं इस जन्नत में रुक जाऊं तो? ‘‘
‘‘अगर वह जन्नत तुम्हें गहरा सुकून और पनाह देती लगती हो… और तुमसे खुद को धन्य पाती हो तो रुक जाओ… यू कैन चूज योर हर इक चीज़… एंड चीज़ी… जस्ट बिकम मोर ईज़ी… ‘‘

‘‘लव यू, ग्रेनी… सुबह के सूरज के साथ आपको फोन करूंगी। ‘‘

‘‘खुश रहो… आय’म नॉकिंग हैवन’स डोर… आज तक के तमाम रूहानी रिश्तों और फरिश्तों से कहती हूं कि तुम्हारी और तुम्हारी जन्नत की हिफाजत और परवरिश करें… द एवर अननोन विल टेक केयर ऑव यू… ऑव योर यूनिवर्सल अवेरनेस… योर दिव्य दीवानगी… ‘‘

वह ठगा सुनता रह गया, फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हारी नानी के कदमों में झुक गया हूं… ऐसा क्या करूं कि उनकी यह अमानत उनके पास लौटने तक उनके लिए और भी बेशकीमती हो जाए… और उस अमानत के पहलू में मैं भी…? ‘‘

‘‘… … … ‘‘

‘‘कुछ सोच रही हो? ‘‘

‘‘नहीं… सुन रही हूं… ‘‘

‘‘कहीं और भी पहुंच गई हो… ‘‘

‘‘अपनी अनोखी मां की डायरी का एक प्रेम-पन्ना याद आ रहा है… सुनो… डायरी के उस पन्ने पर उनकी रची ये पंक्तियां भी हैं…

‘मन ने जो माना, किया हमने…

तन ने जो जाना, जिया हमने…

छण ने जो छाना, पिया हमने…’ ‘‘

‘‘ओह! ‘‘ वह ठगा रह गया- ‘‘तुमने कभी उन्हें गाते सुना है? ‘‘

‘‘अब तो भीतर ही भीतर गाती होंगी… नानी बताती हैं कि जब मां मेरी उम्र की थी तो अकसर बाहर बाग में तंबू लगा कर सोतीं… देर रात नानी अचानक बाहर आतीं तो मां को गाती सुनतीं… ‘‘

‘‘जैसे? ‘‘

‘‘लता के गाए हुए गीत… जैसे ‘शम्मा हो जाएगी जल-जल के धुआं आज की रात… आज की रात बचेंगे तो सहर देखेंगे…’ अकेलापन… आउटसाइडर होने का अहसास… मिट जाने के क्षण की रचना… ‘‘

‘‘उन्हें क्या अच्छा लगता है? ‘‘

‘‘घूमना, पढ़ना… और लिखना… मगर वे न सिर्फ दूसरों का लिखा, बल्कि अपना लिखा भी इन्वर्टेड कॉमाज़ में ही रखती हैं… इसके लिए कोई सफाई नहीं देतीं… ‘‘

‘‘सफाई तो उथलेपन को चाहिए। जो सचमुच रचा जाता है, वह हमारे बावजूद आता है… हम तो बीच में होते हैं माध्यम भर… या इन्वर्टेड  कॉमाज़ से बाहर… हम जितना भी अनावश्यक रचते हैं, उसमें ही रचनाकार होने का दावा और छलावा कर सकते हैं। ‘‘

‘‘कितने अपने निकले तुम! ‘‘ वह देर तक आंखें मूंदे उसकी बांहों में पड़ी रही। फिर उसके होंठों से सिहरती… अपने तन, मन और क्षण को एक साथ लेकर उसके सीने में चेहरा छुपाए बोली- ‘‘पता नहीं कहां से आए हो… और क्या नाम है तुम्हारा? मगर इतना जानती हूं, मेरे लिए आए हो… हमारी आंखें अगर निर्मल हैं तो हम जो कर गुजरें वो कम… कयामत से कम न रह जाएं हम! ‘‘

वह उसके होने में अनहोना सा हो गया।

‘‘अनकंडीशनल सरेंडर का शिकार हैं हम… ‘‘ वह उसके हाथों में मचलती बिजली से तड़पी, ‘‘हम थे ही नहीं कहीं और के! यहीं जान जानी थी… नहीं रह गए हम कहीं के… ‘‘

‘‘आंधी हो तुम! अब बस करो… ‘‘ जैसे उसने उसके कंपनों में छिपे पागलपन को सुन लिया।

‘‘अब तो यह आंधी तुम्हारा हर टैंट उखाड़ कर जाएगी… बहुत शिद्दत से… इंपॉसिबल सी इंटेसिटी से पुकार पहुंचती रही है मुझ तक तुम्हारी… तुम्हीं ने पुकारा था न? अब डूबेंगे समंदर में… उड़ेंगे बवंडर में… और सुनो… ‘‘

सहसा वह शाँत हो गई। उसने उसके छिपे हुए चेहरे को हाथों में लेकर उठाया, फिर उसकी बंद आंखों से फूटती धार को देखता रहा…

निश्शब्द का सितार बजता रहा… उसने उसके आंसुओं को होंठों से छुआ… वह सिहर कर उसमें समा गई… उनके जिस्म और रूह एक होकर अपने सफर पर निकल गए… वहां… जहां सारे दुनियावी हवास ठगे रह जाते हैं… जहां कॉस्मिक मिलन से नक्षत्र थिरकते हैं। एक-दूसरे में समाने को विकसित होती हैं जिनकी अदृश्य बांहें, उन्हीं के नाजुक पांवों तले जमाने के दस्तूर चूर हो जाते हैं…इससे पहले कहीं कुछ अगर रचा जाता है तो वह सिर्फ ढोंग है या खुद को और दूसरों को दी जाने वाली खोखली तसल्लियां।

रात का चैथा पहर…

‘‘कितनी अब्सेंट हो गई हो… कहां हो तुम… वन्या? ‘‘

‘‘शून्य में… तुम्हारे होने में विसर्जित… लव इज़ देयर… एवरीव्हेयर… ‘‘

‘‘अनगिनत शब्दकोषों में छानता फिरा मैं… तुम्हारा नाम… ‘‘

‘‘और तुम्हारा नाम… कि जब मैं पुकारूं तुम्हें… तो सुनूं सिर्फ मैं ही! ‘‘

‘‘व्हाट डू यू फील… माय लावन्या? ‘‘

‘‘द ज़ीरो एक्सपीरिएंस… मैं अपने नहीं होने को प्यार करती हूं, जो तुम्हारे होने से संभव है। ‘‘

सुबह…

‘‘मेरी बहुत प्यारी और बहुत सारी नानी… सुन रही हैं आप? ‘‘

‘‘मेरी आवारा छोकरी… स्तब्ध हूं… आज तुम्हारी आवाज में एक नया ही साज़ है… एक म्यूजिकल और मदहोश सुर! चाहो तो शाम तक अपनी जन्नत में और रह लो… जी भर… ‘‘

वह उनकी बातें सुन रहा है… उसने फोन के करीब मुंह लाकर कह ही तो दिया-

‘‘नानी… हमारी जन्नत आप हैं… मुझे अभी मिलना है आपसे… आपके कदम चूमने हैं… हम आ रहे हैं… ‘‘

‘‘अरे! मुझे तो पता ही नहीं था कि इस छोकरी ने किस जन्नत की बात कही है… यह तो और भी करिश्मा हुआ! तो मेरी अरण्या ने ढूँढ ही लिया तुम्हें! ‘‘
‘‘अरण्या? क्या यह इस वन्या का नाम है? सच? ‘‘
वह चहक कर बोला- ‘‘और… नानी… मैं शून्यम्… ‘‘

अब अरण्या चैंकी। उधर से नानी बोली- ‘‘बेड़ा गर्क… मेरे खानदान का! अब तक तुम लोगों को एक-दूसरे का नाम तक मालूम नहीं था? सिरफिरो…. कुछ होश करो! ‘‘

अरण्या आशु कविता करने लगी- ‘‘होश वालों को अगर होश होते, तो सारे शादीशुदा ख़ानाबदोश होते… ‘‘
देर तक रक्स करते तीन ठहाके गूंजते रहे।

‘‘शून्यम्…मैं पांच दिन और यहां हूं…फिर अपने काम पर लौटूंगी… परदेस… ‘‘
‘‘ये पांच दिन और पांच रातें मुझे मिल जाएं… ‘‘
‘‘बस? मेरे सारे क्षण… तमाम दिनरैन तुम्हारे हैं… हम इसी तरह मिला करेंगे… अचानक… और भरपूर… ‘‘
‘‘बहुत अद्भुत और अकस्मात् हो तुम! ‘‘
एक सन्नाटे में आने के बाद भी दोनों मुस्कराए।

‘‘शून्यम्… कैसे मानूं कि ‘मैं’ ही अंतिम सत्य है… कि हर कहीं से लौट कर हम अपने ही पास चले आते हैं… अलोन! मैं नहीं मानती… ‘‘
‘‘कहो, क्या कहना चाहती हो? मेरा ही अनकहा कहोगी तुम… ‘‘

‘‘मैं नहीं तो तुम भी नहीं… शून्य है सब कुछ! अपने पास लौट आना और अपने पास बने रहना कितना आसान है… कहीं कोई चैलेंज नहीं…जुनून नहीं दूसरे में घर कर जाने का- अपने अज्ञात से छिटके होने के मस्त ऐलान का साहस! अहसास एक हो तो यहां सब अखंड है… शून्य में सबको समाना है और उसी में से रह-रह कर नवरूपों में लौट आना है… मैं ही तुम हूं… तुम ही मैं हूं… मेरे लौटने तक इस अलख को जगाए रखना… ‘‘ उसकी आंखें बरसने लगीं।
‘‘अरण्या… यह अलख हमारी गहरी नींदों के बावजूद जगता रहता है… अलख ही हो जाना है हमें… अलक्ष्य… अनदेखा… क्योंकि हम दोनों एक सी समरसता तक एक हैं… अदेखे से… एकोहम्!… विकास का सहवास हैं हम… रेयर एंड अवेयर… ‘‘
‘‘अपने पास मैं तब लौटूंगी जब तुम्हारा पुरुष मेरी स्त्री को पूरा कर देगा… और मेरी स्त्री तुम्हारे पुरुष को! जब हम एक घर में घर कर जाएंगे… बेघर होकर… ‘‘
शब्द उनके अहसास को बयान करने में लाचार हो रहे थे।

देर तक वे लिपटे खड़े रहे… खामोश।
बस स्टॉप पर पहुंचे ही थे कि मनाली से आने वाली बस उनके निकट आ कर ठिठकी और उन्हें लेकर चली…
‘‘कहां का टिकट दूं, मैडम? ‘‘ कंडक्टर ने उसे पहचान लिया।
‘‘जेमी जॉनसन गेट… राफ्टिंग पाइंट के पास… ‘‘
‘‘साढ़े सात रुपए… मैडम… ‘‘
‘‘एक नहीं… दो टिकट… ‘‘
‘‘पंद्रह… ‘‘ कंडक्टर मुस्कराया।
पंद्रह मिनट भी नहीं बीते थे कि स्तब्ध कर देने वाला फोन-
‘‘ऐरन… हाउ आर यू? ‘‘
‘‘प…अ… ‘‘ उसका गला रुंध गया।
‘‘आर यू ओ. के. ? ‘‘
‘‘हं…अ…ह… ‘‘ जैसे उसकी आवाज चली गई।
‘‘प्लीज़… ऐरन… अरण्या… माय चाइल्ड… प्लीज़… ‘‘
‘‘प…आ…पा… ‘‘ वह संभली, ‘‘आय’म सो हैप्पी… ब्लैस्ड आय’म… ‘‘
‘‘इज़ इट? ‘‘
‘‘आज का दिन आबेहयात है, पापा… आय’म फ्लाइंग हायर… ‘‘
‘‘वेट-वेट… लिसन एंड गो टु द हाइएस्ट… ‘‘
‘‘सरप्राइज़…? ‘‘
‘‘नेक्स्ट टु द नोबल एंड ग्लोबल प्राइज़… द कॉस्मिक वन! लिसन…योर मदर इज़ विद मी… ‘‘

‘‘मां…? ओह… रियली? ‘‘
उधर से मां- ‘‘हां, अरण्या… हम साथ हैं… कैसी हो तुम? ‘‘
वह रो ही पड़ी- ‘‘तुम थे… कि थी कोई उजली किरण… तुम थे… कि कोई कली मुस्काई थी…और फिर चल दिए…तुम कहां… हम कहां… ‘‘
‘‘संभलो, बेटा… वी चूज़ अवरसेल्व्स… बियोंड चॉइस… क्या करें? ‘‘
‘‘… … ‘‘ अरण्या के आवेग का बांध टूट गया है।

‘‘मैं जानती हूं, बेटा… बहुत नाराज हो तुम… फोन नंबर तक बदल लिया है तुमने… ‘‘
‘‘पता नहीं आपको कैसे हिचकी लग गई? मुझे तो आपकी जरा भी याद नहीं आती… ‘‘ उसकी हिचकियां बंध गईं।
‘‘कुछ भी कहो… पर कहो… तरस गई थी तुम्हारी आवाज को… ‘‘
‘‘मुझे चांद सितारे नहीं चाहिए… बस… मिसिंग यू… बोथ… टैरिबली… कहां से लाऊं तुम्हें? ‘‘
‘‘बेटा… हम दोनों कुछ रोज पहले अचानक मिले… अकेले-अकेले तो बुझ ही चले थे… तुम्हारे पापा की हालत आजकल ठीक नहीं है… पता चला चार महीने से बीमार थे… यह तो अच्छा हुआ मैं अचानक इनसे मिल गई… थोड़ा स्वस्थ हुए तो सोचा इस बार की बर्फ तुम्हारी घाटी में देखें… तुम्हारे साथ… मां के साथ… अपने उन दिनों के साथ… ‘‘

‘‘सच? ‘‘

‘‘तुम जैसा सच! तुम जितना खरा सच! बेटा… कुछ दिन देना हमें… अभी-अभी शिमला पहुंचे हैं… उड़ने ही वाले हैं… एक घंटे में कुल्लू के भूंतर एयरपोर्ट पर होंगे… है न अजूबा? ‘‘

‘‘वाकई… आप दोनों जितना! … और मैं आपको एयरपोर्ट पर सामने खड़ी मिलूंगी… आप जैसे एक और अजूबे के साथ… ‘‘

‘‘अभी कुछ देर पहले मां से तुम्हारा नंबर लिया तो उन्होंने भी इशारा किया कि हमारी पगली की मन्नत को कोई जन्नत मिली है… तुम्हारी आवाज भी उसी राज़ से महक रही है… आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे… मेरी बच्ची… सारे आकाश तुम्हारे… ‘‘

वह आंसुओं का सैलाब लेकर शून्यम् के सीने में छिप गई है… सुन्न!

कंडक्टर पास ही खड़ा टिकट काट रहा है…

‘‘राफ्टिंग पांइट से भूंतर कितना है? ‘‘ शून्यम् ने कंडक्टर से पूछा।

‘‘उतना ही… ‘‘ कंडक्टर सहमा सा मुस्कराया-

‘‘15 माइल्स… ‘’

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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