सुबह से मन कच्चा – कच्चा सा हो रहा था। राखी का दिन। बचपन याद आ रहा था। चूल्हे पर धीरे धीरे पकती खीर में पडी क़ेसर की खुश्बू! हाथों में मेहन्दी के फूल! राखी के रेशमी – चमकीले, रंगीन धागे! सुबह से नहा कर, नये कपडे पहन कर दोनों भाई – बहन घर में दौड लगाते रहते थे, एक रौनक – सी हो जाती थी घर में।

” ऐऽ मत खा मिठाई, मैं ने सुबह से कुछ नहीं खाया तुझे राखी बांधने के लिये। मैं अकेली क्यों भूखी रहूँ?”
” जा ऽ जा मैं तो खाऊंगा। तुझे राखी बांधनी है तो तू रह भूखी।
” जा मैं तुझे राखी ही नहीं बांधूंगी।”
” मैं तुझे पैसे भी नहीं दूंगा!”
” मत दे, वैसे भी पैसे तो पापा देंगे। तू कौनसा कमाता है।”
” मम्मीऽ मुझे भी पैसे देना, जितने इसको दो।”
” हाँ, मेरा राजा बेटा, तुझे भी पैसे मिलेंगेपहले बहन से राखी बंधवा ले।” बराबर के पैसे मिलने की शर्त पर राखी की रस्म पूरी होती। फिर तो वह थाली की दस की दस राखियां बांध कर दोस्तों को भरी कलाई दिखाने चल पडता।

कहाँ चला गया बचपन? कहां खो गये वो रिश्ते? एक ही कोख से जन्मे भाई – बहनों के बीच क्या ऐसे भी दूरियां आ जाती हैं? बहुत सारे आंसू आंख में भर आये। बहुत सूना – सूना सा लग रहा था आज का दिन, दोनों बच्चे अपने पापा के साथ बहुत जिद करके  कोई मिल गया  पिक्चर देखने चले गये थे, राखी की रस्म पूरी करके। बच्चों ने उससे चलने की बहुत जिद की थी पर वह रुक गई थी कि राखी का दिन है जाने कौनसी ननद चली आयें पास के शहर में ही तो तीनों रहती हैं। कोई आ गया तो कम से कम वह घर पर मिलेगी।

अब अकेलापन न जाने कितनी पुरानी स्मृतियां खखोर रहा था। बचपन, कैशोर्य के वो दिन जब वह उसका पूरा ख्याल रखा करता था, इस सहेली के घर से लाना, टयूशन पर छोड क़र आना, उसका पीछा करने वाले लडक़ों से झगड पडना। फिर भाई की पहली नौकरी की पहली तनख्वाह की गिफ्ट! उसकी शादी पर उसका घन्टों कमरा बन्द करके रोना। फिर भाई का एक विजातीय लडक़ी से प्रेम सम्बन्ध होना। उससे विवाह के लिये घर में उसका विरोध, लडाई झगडा, एक वही थी जिसने मम्मी को मनाया था उस विवाह के लिये। वह लडक़ी से मिली थी, उस लडक़ी ने कितने वादे किये थे – ” दीदी, जैसा मम्मी चाहेंगी वैसा होगा, मैं अच्छी बहू बन कर दिखाऊंगी, आपके परिवार की परम्परायें अब मेरी हैं।”

कितनी – कितनी दलीलें दीं उसने मम्मी को, भाई और पद्मा की शादी को लेकर। मम्मी जन्मपत्रिकाएं दिखवा कर कह चुकी थीं, ” बेटा जाति का झगडा छोड भी दूं तो यह लडक़ी शुभ नहीं है उसके लिये। कल ही तो जोशी जी पत्रिकाएं देख कर गये हैं, तेरे सामने।”
” मम्मी ये पुरातनपंती बातें छोडो। लडक़ी देखने में ठीक ही है। कर दो उसके मन की।”

उसीके मन की हो गयी थी। पर एक महीने में ही झगडे शुरु हो गये थे। फिर दोनों अलग हो गये। पास ही में अलग घर लेकर रहने लगे। मम्मी – पापा से मिलने आते जाते रहते थे। अलग हुए छ: महीने बीते भी न थे कि वह दुर्घटना घट गई, जिसमें उसका एक पैर चला गया। इतना बडा हादसा शायद फिर परिवार को जोड रहा था। लग रहा था, शायद उन दोनों को अपनी गलती का अहसास हो गया होगा। सुबह के भूले घर को लौट आयेंगे।

मम्मी अस्पताल में दिन – रात एक करके उसकी सेवा करती रहीं थी, अपना अशक्त बुढापा भुला कर। तन – मन – धन तीनों झौंक कर उन्होंने तीन महीने उसके साथ अस्पताल में बिताये, उसकी पत्नी अपने मायके में थी, उसे भी चोट आई थी। वह स्वयं घर – पति – बच्चे छोड क़र मायके के चक्कर काटती रही। हरसंभव सहायता करती रही। उसके पति भी पीछे नहीं रहे थे भाई की सेवा में, उसे गोद में उठा उठा कर एक्सरे वगैरह के लिये ले जाते। वह भी मम्मी के बहुत करीब आ गया था, दिन रात कहता, ” तुमने मुझे नयी जिन्दगी दी है। मेरा हाथ पकडे रहो। मुझे सुला दो बहुत दर्द है।” मम्मी आंसू बहाती उसके करीब रात रात खडी रहतीं। कभी कभी वह जिद करके मम्मी को घर भेज देती देती और स्वयं उसका युरिन बैग बदलती, गन्दा बिस्तर साफ करती। शर्म छोड एक बच्चे की तरह उसके कपडे बदलवाती। सबके सहयोग व सेवा से वह घर लौट आया था, कृत्रिम आधुनिक तकनीक वाले नये पैर के सहारे चलता हुआ। वह लौट कर अपने अलग घर में नहीं गया। पत्नी से कह दिया था, ” तुझे आना हो आ जाना, मैं अब अपनी मम्मी से अलग नहीं रहूंगा।”

पर कुछ सप्ताहों में ही फिर पासा पलट गया था। इस बार वह सारे रिश्ते ही तोड क़र चला गया, यह इल्जाम देकर कि , ” मेरे ससुराल वाले तो एयरोप्लेन से बम्बई ले जाते  मेरा पैर बच जाता, तुमने तो कटवा ही दिया।” सबने समझाया भी कि पैर में तो उसी दिन डिमार्केशन लाइन आ गई थी, बम्बई जाकर भी वह कटता ही। लेकिन अब वह किसी की बात नहीं सुन सकता था, सिवाय अपनी पत्नी के।

रिश्ते फिर किर्च किर्च बिखर गये थे। दिलों में दूरियां ही नहीं हुईं बल्कि अलगाव की मोटी अभेद्य दीवारें खिंच गई थीं। पर मम्मी के मन में उसके अपाहिज होने का दर्द हमेशा बना रहा।
” बेटा, अपाहिज न हो गया होता तो मैं उसे भूल जाती। पर मन में रह रह कर लगता है कि न जाने वह क्या करता होगा! कैसी कैसी नयी परेशानियां होती होंगी, रोजमर्रा की जिन्दगी में।”
” करता क्या होगा, कार चलाता है, बीवी को लेकर घूमता है। खुश रहता है।” पापा चिढ क़र कहते।
” अच्छा है, खुश रहे बस हमें क्या।”
स्वयं वह उसके लिये यहीं इसी अपंगता की वजह से पिघल जाती थी। आज बार बार दिल में आ रहा था कि आज राखी के बहाने भाई को फोन कर ले। क्या हुआ जो पिछली बार मायके जाने पर वह उसके सामने से मुंह मोड क़र निकल गया था, मुस्कुराया तक न था। वह भूल गया तो क्या, राखी पर उसका तो फर्ज बनता है। स्वयं को बहुत रोका भी पति के डर से  वह जरूर नाराज क़र कहेंगे कि वह ही जब रिश्ता नहीं रखता तो तुम क्यों मरी जा रही हो।

जब मन भावुकता के अतिरेक से भर गया तो उसने उसके मोबाइल पर कॉल किया, फोन उसकी पत्नी ने उठाया –

” हाँ, पद्मा, मुझे शान्तनु से बात करनी है।”
नेपथ्य में आवाजें गूंजी –
” उसीका फोन है, अरे वही ऽऽ कविताऽऽऽऽऽ।” पंजाबी लहज़ा और कठोर हो गया था उसका नाम लेते हुए।
” हलो।”
” हलो।” उसकी लरजती आवाज क़ी नमी भी, भाई की रूखी आवाज क़ो कोमल न कर सकी।
” कैसा है? ”
” ठीक हूँ।” सगे भाई की आवाज क़ा रूखापन उसकी आत्मा को छील रहा था।
” बस तेरी खैरियत जानने के लिये ही” आगे बोल पाने की गुंजाइश नहीं थीफोन कट चुका था।

फोन लिये वह संज्ञाशून्य बैठी रही। फूट फूट के रोना चाहती थी कि बाहर बच्चों का शोर सुनाई दिया।
” कोई मिल गऽऽऽऽऽऽयाऽऽऽ” गुनगुनाते हुए दोनों बच्चे घर में घुसे।

वह छिपा गई पति से फोन वाली बात। हाथ मुंह धोकर वह चाय बनाने किचन में जा ही रही थी तो बाहर ड्रॉइंगरूम में से इनकी आवाज आयी,
” सुनो कविता देखो कौन आया है?”
” अरे नीलू! कैसे हो?”
” थीक हैं जीऽज्जी। छोचा इछ लाखी पे अपनी जिज्जी से लाखी बंधवां आयें! आज पास हैं, कल टरान्सफर पे दूर चलीं गईं तो! ”
” कब चले? ”
” सुभे की टरेन से चले थे, संझा होने आई।
” अच्छा किया तुमने आकर। तुम बैठो मैं चाय ले आऊं।”
” न्ना चाय – फाय तो अब लाखी बंधवाय के ही पियेंगे। बल्के खानो ही थाय लेंगे सीधे। मम्मी ने कही थी लाखी बांध के ही कुछ खाइयों।”

उसकी मासूम बातें सुन कर उसका मन उत्फुल्ल हो गया था, उसकी दो साल से सूनी पडी राखी आज मनेगी। क्या हुआ जो उसका ये अपने सगे भाई का हमउम्र चचेरा भाई बचपन ही से मंद बुध्दि है। कम से कम अपनी इस बहन से प्यार तो रखता है। इतनी दूर से चल कर आया है, अपनी निश्छल – निस्वार्थ भावनाएं लेकर!

उसने जल्दी से रेशम के घुंघरू बंधे धागे थाली में रखे, मिठाई रखी, दिया जलाया, रोली – चावल लेकर, इस अनोखे स्नेहिल भाई के सामने आ गई, बडे स्नेह से टीका करके राखी बांधी, मिठाई खिलाई। नीलू उठा उसने पैर छुए और जेब से 100 रू का नोट निकाल कर थाली में डाल दिया।
” नहीं नीलू भैया हम आपसे इतने पैसे नहीं लेंगे, आप आ गये यही बहुत है। नहीं तो हमारी यह राखी भी सूनी जाती।” आवाज में उस फोन वाली घटना की पीडा थी।
” चिन्ता च्यों करती हो जिज्जी, हम भी अब कमाते हैं, एक फैक्तरी में काम करते हैं, तुम्हें लेने पलेंगे, वलना नाराज हो जायेंगे हां हम।”

उसके आंसू अब कैसे रुकते? वह फूट फूट कर रो पडी। नीलू भैया, पतिदेव, दोनों बच्चे हतप्रभ थे।

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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