” अविनाश पहुँचते ही फोन कर देना वरना तुम्हारी माँ को चिन्ता हो जाएगी।”
” जी मामा जी।” और बस चल पडी थी।

बस मामा जी और माँ की ही जिद है, उसका तो बिलकुल मन नहीं था माऊन्टआबू जाने का। उसकी एक शादी से माँ का जी नहीं भरा जो इस दूसरी शादी के लिये माँ ने मामा से कह – कहलवा कर विवश कर दिया है। माना मामा अन्त तक कहते रहे हैं कि –

”अविनाश तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिये भेजा जा रहा है। वहाँ मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहाँ तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने जा रहा है। उन्होंने तुझे बचपन में देखा था। बडा बुला रहे थे। मैं अगले सप्ताह पहुँच जाऊंगा।”

पर वह जानता है यह जाल शादी के लिये ही बिछाया जा रहा है।

बस चलते ही, अच्छा मौसम होने के बावजूद , यह बात सोच अविनाश का मन कडवी स्मृतियों से भर गया, आँखे जलने लगीं और उस अपमान को याद कर पूरा ही वजूद तिलमिला गया। नहीं करनी अब उसे दूसरी शादी।

हालांकि पहली ही शादी शादी न थी, कोर्ट में शून्य साबित कर दी गई थी। पर उसका मन ही मर गया था। उसके बाद, हर स्त्री एक छलावा लगती थी। नौ साल हो गये उस बात को। पर मन के छाले हैं कि सूखते नहीं बल्कि बार बार फूट कर उसे आहत करते हैं। उसका क्या गुनाह था?

कितने अरमानों के साथ उसकी विधवा माँ ने स्कूल में टीचिंग कर उसे अच्छे आदर्शों के साथ पाला, और फलस्वरूप उसका एन डी ए में सलेक्शन हुआ। जब वह आर्मी ऑफिसर बन कर माँ के सामने आया तो माँ कितनी गर्वित थी। उसने बडे चाव से ढेरों रिश्तों में से एक बेहतरीन रिश्ता चुना था उसके लिये, एक बहुत बडे आई ए एस अधिकारी की बेटी अल्पना। माँ तो बस घर बार और लडक़ी की सुन्दरता पर और उनकी शानदार मेहमाननवाजी पर रीझ गईं। देखने दिखाने की रस्म के बाद सबके कहने पर एकांत में उसने एक संक्षिप्त बात की और वह अचानक उठ कर चली गई , तब उसे लगा था कि शर्मा रही होगी।

उन लोगों और माँ की जल्दी की वजह से उसे शादी के लिये छुट्टी लेनी पडी। तब भी एक दो बार उसने फोन पर बात करना चाहा पर किसी न किसी वजह से बात न हो सकी। उसने सोचा लिया था कि अब तो शादी हो ही रही है। शादी के ताम झाम के बाद जब अपनी जीवन संगिनी से मिलने की वो इत्मीनान की, एक दूसरे को जानने की रात आई तो  शादी के शानदार पलंग पर फूलों की सजावट के बीच उसे लाल जोडे में अपनी दुल्हन नहीं मिली। काली नाईटी में अल्पना पैर सिकोडे सोई थी। जगाने पर बहुत ठण्डी आवाज में उसने कहा था,

” मुझे छूना मत। यह शादी नहीं है, अविनाश, समझौता है।”
” किस तरह का समझौता?”
” मैं बात नहीं करना चाहती इस वक्त।”
” अरे, तभी मना कर देना था तुम्हें।”
” किया था बहुत, कोई माना नहीं।”
” …अब?”
” अब क्या! कुछ भी नहीं। मैं नहीं रहूंगी यहाँ।”

वह सुन्दर चेहरा वितृष्णा से भर गया था।

उसके बाद जब वह अगले दिन मायके गई तो उसकी जगह लौट कर विवाह को शून्य साबित करने के लिये उसके वकील का नोटिस आया, जिसमें आरोप था कि वह नपुंसक है और विवाह के योग्य नहीं। वह जड होकर रह गया। माँ और मामाजी ने उसके घरवालों से कहासुनी की, कोर्ट का फैसला होने तक अपमान उसे जलाता रहा। हालांकि वह आरोप साबित न हो सका, पर अब उसका ही मन न था कि यह सम्बंध बना रहे। उसने तलाक मंजूर कर लिया।

उसके बाद उसने अपनी पोस्टिंग लेह करवा ली थी वहाँ से भी लगातार फील्ड पोस्टिंग्स लेता रहा जानबूझ कर और मां की दूसरे विवाह की जिद को टाल गया था। पर अब माँ की अस्वस्थता की वजह से उसे जोधपुर पोस्टिंग करवानी पडी। और माँ के साथ रह कर उनकी जिद न टाल सका। बार बार शादी की उम्र निकल जाने की बात कह कर भी माँ को जीवन भर अविवाहित रहने की बात के लिये मना न सका। हर बार वही बहस

” माँ इस अगस्त में 35 का हो जाऊंगा। अब कोई उमर है शादी की।”
” चुप कर! 35 की कोई उमर होती है आजकल।”

पिछले कई दिनों से यह माऊंट आबू प्रकरण माँ और मामा चलाए जा रहे थे। माँ के इमोशनल ब्लैकमेल और पिता जैसे मामा के समझाने पर वह टाल न सका। इस बार मामा छाछ भी फूंक फूंक कर पीना चाहते थे सो वह उसे लडक़ी और उस के परिवार के साथ पूरे पन्द्रह बीस दिन छोडना चाह रहे थे। ब्रिगेडियर सिन्हा मामा के कलीग रह चुके हैं, उनकी एक बहन है अविवाहित, उसने भी किन्हीं कारणों से शादी नहीं की।

उसके मन में किसी बात को लेकर कोई उत्साह नहीं है। उसे मलाल हो रहा है, उसने सोचा था कि इस बार एनुअल लीव लेकर माँ के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएगा और माँ के साथ लम्बी यात्राओं पर जाएगा पूरा भारत घूमेगा। पर माँ ने ही कह दिया कि-

” औ मेरे श्रवणकुमार, मैं तो तीर्थ कर ही लूंगी, पहले तेरी शादी करके गंगा नहा लूं।”

बहुत सारे ख्यालों से उसका मन भारी हो चला है, वह सर झटक कर बस के बाहर झांकता है, शाम का झुटपुटा रास्तों और पहाडियों पर उतर आया है, झुण्ड का झुण्ड तोते शोर मचाते हुए लौट रहे हैं, हवा में सर्दी के आगमन की खुनकी महसूस होने लगी है, वह पूरी खुली खिडक़ी जरा सी सरका देता है, बस के अन्दर नजर डालता है। सामने वाली सीट पर एक विदेशी युवति बैठी है, उसे देख मुस्कुरा देती है। वह उस बेबाक निश्छल मुस्कान पर जवाब में मुस्कुराए बिना नहीं रह पाता। अचानक न जाने किस गुमान में उसके हाथ बाल संवारने लगते हैं। अपनी इस कॉलेज के लडक़ों जैसी हरकत पर उसे स्वयं हंसी आ जाती है और उसे दबाने के लिये खिडक़ी के बाहर देखने लगता है। मन हल्का हो गया है। वैसे आजादी में कितना सुकून है। अब उम्र के पैंतीस साल मुक्त रह कर विवाह के पक्ष में वह जरा भी नहीं पर यहाँ भारत में जिस तरह बडी उमर की लडक़ियों का कुंवारा रहना संदिग्ध होता है वहीं बडी उम्र के कुवांरे भी संदेहों से अछूते नहीं रह पाते। समाज का इतना दबाव होता है कि आप को कोई चैन से नहीं बैठने दे सकता। वह बस अपनी नौकरी के बीस साल पूरे करते ही, एब्रोड चला जाएगा। नहीं करनी शादी-वादी। बेकार का बवाल! उसकी नजर फिर उधर चली गई, वह भी इधर ही देख रही थी। दोनों ने फिर मुस्कान बांटी।

लडक़ी आकर्षक है।

शाम ढलने लगी थी। लगता है आबू रोड से उपर माऊंट आबू पहुंचते पहुंचते दो घंटे और लग जाएंगे और रात आठ बजे से पहले नहीं पहूँचेगा वह। फिर वह रात किसी होटल में ठहर कर सुबह ही ब्रिगेडियर सिन्हा के घर जाएगा। ठण्ड गहराने लगी थी, उसने मां की जबरदस्ती रखी हुई जैकेट निकाल कर पहन ली। उस लडक़ी ने फिर उसे देखा इस बार उसकी आँखों में आकर्षण था उसके प्रतिवह मुस्कुराया नहीं इस बारएक गहरी नजर डाल, खिडक़ी के बाहर फैलते अंधेरे में दृष्टि डालने लगा। पहाडों – पेडों की सब्ज आकृतियां धीरे धीरे स्याही में बदल रही थीं, उसके मन पर अन्यमनस्कता के साये फिर घिर आए। कहाँ जा रहा है वह और क्यों बेवजह? क्या समझौते की तरह दो लोगों के बंधने से जरूरी काम कुछ और नहीं? बेकार है यह विवाह नामक संस्था। मामा क्यों कहते हैं कि शारीरिक जरूरतें तो हैं ही, एक साथी के लिये मानसिक जरूरत भी होती है। शारीरिक जरूरतों का क्या है, उस जैसे आकर्षक पुरुष के लिये लडक़ियों की कमी है क्या?

जैसे जैसे अंधेरा गहरा रहा है, वह उस विदेशी युवति की नजरों को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा है। उसने चेहरा घुमा लिया है खिडक़ी की तरफ फिर से हालांकि इस एक पोस्चर में उसकी गर्दन दुखने लगी है। पर वह किसी किस्म की गलतफहमी उसे नहीं पालने देना चाहता।

बस ने आठ की जगह साढे आठ बजा लिये हैं। बसस्टॉप पर उतर कर वह अपना सामान डिक्की से निकलवा रहा है। तभी उसके कन्धे पर उसे हाथ महसूस हुआ,

” हलो, जेन्टलमेन, आय एम ब्रिगेडियर सिन्हा।”
” गुडईवनिंग सर।”
” वेलकम डियर।”
” आपने क्यों तकलीफ की सर मैं पहुंच जाता ।”
” तुम हमारे मेहमान हो आखिर। रामसिंग सामान गाडी में रखो।”
” सर।”
” अविनाश तुम हमारे साथ ठहरोगे।”
” लेकिन।”
” लेकिन क्या भाई? ”
” आपने मुझे पहचाना कैसे? ”
” ओह, हा हा हा। यार इतने सारे यात्रियों में एक फौजी अफसर को पहचानना क्या मुश्किल है?”

अंधेरे में पहाडी रास्तों से होकर ब्रिगेडियर सिन्हा के बंगले पर पहुंचते पहुंचते पन्द्रह मिनट लग गये। सारे रास्ते वे बोलते रहे वह सुनता रहा, कि कैसे फौज छोड क़र वे यहा सैटल हुए, यहाँ उनका फार्म हाउस भी है। फार्मिंग में उनकी शुरू से रुचि रही है। वे उसमें स्ट्राबैरीज उगाना चाह रहे हैं इस बार। माऊंट आबू का मौसम कैसा है? यहाँ वे बहुत लोकप्रिय हैं आदि आदि। उनके बंगले के गेट से पोर्च तक एक मिनट की ड्राईव से लग रहा था कि खूब बडी ज़गह लेकर घर बनाया गया है। अन्दर पहुंच कर, रामसिंग को उनका सामान गेस्टरूम में रखने का आदेश देकर, उसे हालनुमा ड्राईंगरूम में बिठा कर वे अन्दर कहीं गायब हो गये। हॉल की सज्जा कलात्मक थी। किसी के हाथ से बनी सुन्दर पेन्टिंग्स, जिनमें ज्यादातर राजस्थानी स्त्रियों के चेहरे थे, सांवला रंग लम्बोतरे चेहरे, खिंची हुई काजल भरी आंखें और तीखी नाक वाले। पूरे हॉल पर नजर घूमती हुई एक जगह आ टिकी, दरवाजें में हल्के नीले परदों पर बने आर्किड्स के जामुनी फूलों के बीच एक पेन्टिंग का सा ही चेहरा चस्पां था, वह चकराया, उसके गौर से देखने पर उस चेहरे ने पलकें झपकाईं और चेहरा हंस पडादूधिया हंसी।

” ऐ नॉटी गर्ल।” ब्रिगेडियर साहब आते आते उस जीती जागती पेन्टिंग को साथ लेकर परदे में से बाहर आए।
” अविनाश ये मेरी बेटी है नीलांजना। बी एस सी सैकण्ड ईयर में पढती है।”
” हलो ।”
” हलो।”
” बेटा जाओ मम्मी को भेजो और किचन में चाय और स्नैक्स के लिये कहना।”
” अविनाश ड्रिन्क्स? ”
” सर आज नहीं! टयूजड़ेज मैं नहीं पीता।”
” ओह नाईस! ”

श्रीमति सिन्हा के साथ साथ अरदली चाय का टीमटाम लेकर आ गया। श्रीमति सिन्हा एक सुन्दर व सभ्रान्त महिला लगीं। चाय की औपचारिकता के बाद वह र्फस्ट फ्लोर पर बने गेस्टरूम में आ गया। रूम क्या था एक छोटा मोटा सा समस्त सुविधाओं से युक्त फ्लैट ही था। पूरा घूमघाम कर देख कर उसे याद आया दस बजे डिनर के लिये नीचे उतरना है।

”अविनाश अंजना मेरी वाईफ से तुम मिल चुके हो। नीला से भी, ये सुधा है मेरी बहन, जे जे आर्टस में फाईन आर्टस की लैक्चरर है, वैसे बॉम्बे रहती है, पर अभी मेरे साथ वेकेशन्स बिताने आई है। मयंक मेरा बेटा, आई आई टी बॉम्बे से इलेक्ट्रानिक्स में इंजीनियरिंग कर रहा है। ये मयंक का दोस्त केतन है। ये सभी लस्ट वीक से यहीं थे कल जा रहे हैं।और ये हैं मेजर अविनाश मेरे कलीग और दोस्त लेफ्टीनेंट कर्नल चौहान के भतीजे। ये भी हमारे साथ छुट्टियां बिताएंगे।”

औपचारिक अभिवादन के बाद हल्के फुल्के ड्रिन्क्स, सूप के साथ औपचारिक बात चीत होने लगी।

” सुधा तुम तो रुकोगी ना! ”
” जी दादा, परवोएक एक्जीबीशन थी मेरे स्टूडेन्ट्स की”
” बुआ! रूक जाओ नाभाई को जाने दो कल, आप अभी तो आई थीं।”
” ठीक है।”

उसने पहली बार सुधा को गौर से देखा। ताम्बई रंग, स्निग्ध त्वचा, बडी बडी क़ाजल से लदी आँखे, भरे होंठ और थोडी चौडी नाक चेहरे पर बहुत परिपक्व सधा हुआ भाव। भरे सानुपातिक जिस्म पर बातिक प्रिन्ट का भूरा कुर्ता और जीन्स, घने काले लम्बे बालों को आकर्षक मगर बेतरतीब जूडे में लपेटा हुआ। एकाएक आप पर छा जाने वाला प्रभावशाली दृढ व्यक्तित्व। बात करने के ढंग और शब्दों के चयन से लगता है कि बुध्दिजीवी और कलाकार बात कर रहा है। फिर नजर घूमी तो नीला पर जा टिकी चम्पई रंग, बुआ की सी ही बडी-बडी लम्बी आँखे पर नाक और होंठ मां जैसे सुघढ। पतली दुबली सी लम्बी काया।

” क्या देख रहे हैं आप, पापा देखो ना आपके मेहमान खाना तो खा ही नहीं रहे।”
” ओह हाँ अविनाश लो न ।”

सुबह वह देर से उठ सका। उठते ही खिडक़ी में आया तो देखा नीचे मयंक और उसका दोस्त जिप्सी में सामान रख रहे थे।
मयंक ने वहीं से चिल्ला कर अलविदा ली और ब्रिगेडियर सिन्हा उन्हें छोडने चले गये। वह नहा धोकर नीचे उतर आया। नीलांजना जल्दी जल्दी ब्रेकफास्ट कर कॉलेज जाने की तैयारी में थी। उसके लिये भी वहीं चाय आ गई।

” मेरा मन नहीं कर रहा कॉलेज जाने का पर आज मेरा प्रेक्टिकल पीरीयड है, बाहर बुआ एक पेन्टिंग बना रही है, देखते रहियेगा बोर नहीं होंगे। शाम को मैं आऊंगी तब घूमने चलेंगे।”

वह हंस पडा। चाय पीकर वह बाहर आ गया। सुधा सचमुच एक पेन्टिंग में व्यस्त थी। वह पीछे जाकर खडा हो गया।

” ओहआप।”
” जी।”
” आप ने छोड क्यों दिया इसे पूरा करिये ना।”
” कोई बात नहीं। वैसे भी यह पिछले साल से चल रही है पूरी हो ही नहीं पाती। इसके बीच न जाने कितनी पेन्टिंग्स बना डालीं। यह अटकी हुई है। दरअसल बॉम्बे होती तो पूरी हो जाती, इसे नीला ले नहीं जाने देती है। ”
” फिर तो यह जरूर आपक मास्टर पीस होने वाली है।”

दोनों हंस दिये। हंसती हुई सुधा अच्छी लगती है। हंसी के चेहरे पर से गंभीरता के मुखौटे को खिसका जाती है। उसने पेन्टिंग को ध्यान से देखा, उसे वह नीला की पोर्ट्रेट लगी। चेहरा अभी अधूरा था, बडी आँखें, चेहरे पर बिखरे सुनहरे बालों का गुच्छा, लैस वाला गुलाबी टॉपबाकि पीछे बैकग्राउण्ड अधूरा थातस्वीर अधूरी होने की वजह से उदास सी लग रही थी। सुधा ने बालों से लकडी क़ा मछली के सिर वाला कांटा निकाला, जो कि उसकी रुचि के अनुसार कलात्मक था और बाल कमर तक फैल गये और पहाडी बयार में उडने लगे। वह गौर से देखे बिना न रह सका सुधा ने उसकी नजर को उपेक्षित कर दिया और ब्रेकफास्ट यहीं लाने के लिये कह कर चली गई। ब्रेकफास्ट बाहर लॉन में लग गया और परिवार के बचे हुए सदस्य वहीं आ गये। ब्रिगेडियर सिन्हा ने कश्मीर मसले पर बात छेड दी तो वह चर्चा देर तक चलती रही। सुधा ज्यादा रुचि नहीं ले रही थी। वह उठ कर लाईब्रेरी में चली गई तो ब्रिगेडियर साहब मुद्दे पर आ गये।

” तो अविनाश तुम्हारा सुधा को लेकर क्या ख्याल है?

वह अचकचा गया। क्या कहे?

” देखो बेटा, मुझे तुम्हारा अतीत मालूम है, सुधा को भी मैं ने बताया है। अब तुम दोनों को ही विवाह को लेकर निर्णय ले लेना चाहिये। यह समझ लो यह आखिरी गाडी हैउसके बाद या तो सफर टाल दो, या इसी में चढ ज़ाओ।”
” जी।”
” मैं चाहता हूँ तुम दोनों अधिक से अधिक समय साथ बिता कर अपना अपना निर्णय बता दो।”

लंच के बाद वह अपने कमरे में आने के बाद देर तक इस विषय पर सोच सोच कर उलझता रहा। सुधा आर्मी के माहौल में रही है, अच्छी लडक़ी है। क्या हाँ कह दे?

” हाय! क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में?”
” नीला तुम कब आई? ”
” अरे कब से आकर खडी हूँ, कॉफी लेकर । आप हैं कि गहरी सोच में गुम हैं।”
” कॉलेज कैसा रहा?”
” एज यूजवल।”

शलवार कुर्ते में नीला बडी बडी लगी। दोनों ने कॉफी पी ली तो नीला ने उसे खींच कर उठा दिया-

” जाईये जल्दी चैन्ज करिये ना। हम घूमने चलेंगे।”
” हम कौन कौन।”
” जाना तो मुझे भी है पर मम्मी कहती है आप और बुआ ही जाएंगे। प्लीज अविनाश अंकल आप कहिये ना मम्मी को कि मैं भी चलूंगी।”
” अंकल? क्या मैं इतना बडा लगता हूँ।”
” लगते तो नहीं परतो क्या कहूँ फिलहाल अविनाश जी चलेगा!
” हाँ।”

उसने नीला को साथ ले ही लिया। सुधा ने भी पैरवी की क्योंकि दोनों ही टाल रहे थे एकान्त का साथ। एक उमर के बाद कितना मुश्किल हो जाता है किसी को अपनाना, प्रेम करना और जिन्दगी भर निभाने का प्रण लेना, महज कुछ शारीरिक जरूरतों और सहारे के लिये। वह भी शायद यही सोच रही होगीअपनी अपनी आजादियों की लत लग गई है हमें। और उम्र में तो वह मुझसे भी दो साल बडी ही है। उम्र कोई मायने नहीं रखती, क्या उसके कई अच्छे दोस्त उससे बडे नही? पर फिर भीनहीं कर सकेगा अभी वह हाँ।

” हाय अविनाश जी, चलें!” नीला ने आकर हाथ पकड लिया, एक उष्ण और उत्साह से भरा स्पर्श।
” आपकी बुआ जी कहाँ हैं? ”
” उन्हें तैयार होने में बहुत वक्त लगता है।”

सुधा आ गई। साडी में भी वही कलात्मक स्पर्श।

”कौन ड्राईव करेगा?”
” ऑफ कोर्स मैं नीलू, अविनाश जी को कहाँ इन पहाडी रास्तों का अन्दाजा होगा! और तुम्हें दादा ने मना किया था न।”

नीला ही बोलती रही सारे रास्ते दोनों खामोश थे अपने अपने दायरों मे। एक मंदिर की सीढियों के पास जाकर सुधा ने गाडी रोक दी। उपर चढते हुए उसने कहा मैं अभी आई।

” क्या तुम्हारी बुआ जी बडी धार्मिक हैं? ”
” ऑ.. ज्यादा तो नहीं अभी तो वह इस पुराने मंदिर में अपने एक स्कैच के लिये फोटो लेने गई हैं। आपने क्या सोचा कि वे मन्नत मांगने गईं हैं कि  है भगवान इस हैण्डसम फौजी से अब मेरी मंगनी हो ही जाए। गलत फहमी में मत रहियेगा। मेरी बुआ ही सबको रिजेक्ट करती हैवरना कब से शादी हो जाती। वो तो मिस बॉम्बे भी रह चुकी है अपने जमाने में।”
” ”
”बुरा तो नहीं माना न।”
” नहीं नीला, बच्चों की बात का बुरा मानते हैं क्या?”
” बाय द वे अविनाश जी मैं बच्ची नहीं हूँ, एक बार अंकल क्या कह दिया आपने बच्चों में शुमार कर लिया।”
” अच्छा मिस नीलांजनातो आप क्या कह रही थीं।”
” श्श्बुआ आ गई।” कह कर उसने मेरा हाथ दबा दिया।

वह अब नीला के बारे में सोच रहा था, कितनी जीवन्त है यह लडक़ी। कितनी निश्छल।

नक्की लेक पर पहुंचते पहुंचते शाम हो गई थी। सुधा को बोटिंग में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, सो वह शॉल लेकर किनारे रखी एक बैन्च पर बैठ गई, मैं न चाह कर भी नीला के साथ बोटिंग पर चला गया।

” अविनाश जी, सन सेट के वक्त सबकी आँखों का रंग बदल जाता है,
देखोआपकी और मेरी। ”

नीलांजना की आँखों में समुद्र उफान पर था। उसके खुले सीधे सीधे भूरे बाल सोने के तार लग रहे थे। हवा में उडता उसका लैस वाला कॉलर।

” अविनाशजी!”
” क्या देख रहे थे? ”
” यही कि तुम बहुत सुन्दर हो।”
” हाँ हूँ तो। पर उससे क्या फर्क पडता है। प्रकृति में हर चीज सुन्दर है। मुझे तो हर चीज सुन्दर लगती है।”
” हाँ तुम्हारी उम्र में मुझे भी सब कुछ सुन्दर लगता था।”
” अब।”
” अब! अब नजरिया बदल गया है। रियेलिटीज अलग होती हैं।”
” सबका सोचने का ढंग है अपना अपना! क्या ये झील रियल नहीं? वो जलपांखियों का झुण्ड रियल नहीं?”
” है नीला।”
” अविनाश जी, पापा से सुना था आप कविताएं लिखते थेफिर छोड क्यों दीं? ”
” तुम्हें रुचि है? ”
” हाँ। बहुत। पर आपने क्यों छोडा”
” वही।”
” रियेलिटीज।” नीला ने दोहराया और दोनों हँस पडे।

नीला तुम जैसी वास्तविक प्रेरणा होती तो, शायद लिखता रहता। तुम्हें क्या मालूम जिन्दगी कितनी बडी ग़ि्रम रियेलिटी है, जिसे तुम्हें बता कर डराना नहीं चाहता। ईश्वर करे तुम्हें जिन्दगी उन्हीं सुन्दर सत्यों के रूप में मिले। डरावने मुखौटे पहन कर नहीं।

” अविनाश जी, चलिये किनारा आ गया। आप क्या सोचते रहते हैं? ”
” कैसी रही बोटिंग, अविनाश जी।” सुधा चलकर पास आ गई थी।
” इंटेरैस्टिंग।”

थोडी चढाई चढ क़र हम सेमीप्रेशयस स्टोन और चांदी की ज्यूलरी की दुकान पर आ गई।

” नमस्ते सुधा जी। ब्रिगेडियर साहब कैसे हैं? ”
” अच्छे हैं गुप्ता जी। आप बताईये इस बार मेरे लिये क्या है?”
” आप बहुत दिनों बाद आई हैं। पता है आपने जो फिरोजा का पेन्डेन्ट डिजायन कर के बनवाया था, वो फॉरेनर्स में बहुत पॉपुलर हुआ।”
” आपने मेरी डिजायन कॉमन कर दी गुप्ता जी।”

मैं और नीला बाहर की ओर बैठ गये।

” तुम्हें ज्यूलरी में इन्टरैस्ट नहीं।”
” बुआ जैसी ज्यूलरी में नहीं। कहाँ कहाँ से आदिवासियों के डिजायन कॉपी करवा के, सिल्वर का ऑक्सीडाईज्ड़ करवा कर पहनती है। मेरा बस चले तो कानों में बबूल के गोल फूल पहनूं, बालों में रंगबिरंगे पंख लगा लूं।”
” वनकन्या की तरह( दोनों हंस दिये )वैसे नीला सुन्दर स्त्रियों को जेवर की जरूरत ही कहाँ होती है?”
” हां। जैसे मुझे! ( फिर एक साझी हंसी खिली) जब से आप आए हैं हम कितना ह/से हैं ना। हमारे घर में किसी को हंसने का शौक ही नहीं है।”
” नीलू।”
” जी बुआ।”
” देख ये एमेथिस्ट जडा कडा पसन्द है तुझे? तेरे परपल सूट के साथ मैच करेगा।”
” अच्छा है बुआ।”
” अविनाश जी यह आपके लिये।”
” मेरे लियेक्या।”
” देख लीजिये।”

एक्वामेराईन स्टोन के बहुत सुन्दर कफलिंक्स थे।

” थैंक्स।”

पहली बार सुधा ने अपनी आँखों में आत्मीयता भर मुस्कुरा कर उसे देखा था। यानि? फिर भी अभी भी वह वक्त लेगा। हाँ करने से पहले। ऐसे ही न जाने तीन दिन कब बीत गये। वो और नीला बहुत आत्मीय हो गये थे दो दोस्तों की तरह।

” मैं बुआ की जगह होती तो बहुत पहले आपसे शादी के लिये हाँ कह देती।”
” मैं किस की जगह होता फिर।”

फिर एक हँसी।

” आपके बारे में कुछ सुना था।”
” सच ही सुना होगा।”
” कैसी होगी वह लडक़ी, जिसने आपको बिना जाने ।”
” छोडो न नीला, शायद उसकी ही कोई विवशता हो।”
” क्या वह किसी और से प्यार करती थी?”
” शायद।”
” ऐसा क्यों होता है अविनाश जी? शादी जबरदस्ती का सौदा नहीं होनी चाहिये ना! ऐसे तो अधूरे रिश्तों की कतार लग जाएगी। आप से वह प्यार नहीं करती थी और शादी हुई, आप किसी को प्यार करें और शादी किसी से हो जाए, फिर उसकी जिससे शादी होवह । ऐसे जाने कितनी प्यार की अधूरी तस्वीरें ही रह जाती होंगी हमारे समाज में और फिर शादी एक औपचारिकता बन कर रह जाती है।”
” तुम अभी छोटी हो नीला, जिन्दगी के सच समझने के लिये। प्यार से परे दुनिया और समाज बहुत बडा होता है जिसके कर्तव्य भावनाओं पर आधारित नहीं होते।”
” यही तोअच्छा आप बुआ से शादी करेंगे? ”
” पता नहीं नीला। दरअसल मैं यह सब सोच कर ही नहीं आया हूँ। बस मामा की बात रखने के लिये चला आया।”
” आप बहुत भावुक हैं और बुआ बहुत प्रैक्टीकल।”
” मैं भावुक हूँ कैसे जाना? ”
” जिन्हें आप एडमायर करते हैं उन्हें आप जान भी लेते हो।”
”।”
” आप बहुत अच्छे हैं।” नीला की आंखें तप रही थीं। होंठ अधखुलेनाईट सूट के ढीले कुर्ते में धडक़ते सुकुमार नन्हें वक्षों की धडक़न खामोशी में मुखर हो गई थी।
”।”
”नीला! रात हो गई अब जाओ।”
” कॉफी! ”
” नहीं।”
” गुडनाईट।”

मेरा मन अजानी आशंका और एक अजाने भाव से थरथरा रहा था। ठण्डी रात में भी वह पसीने में डूब गया। सुबह देर से उठा, बाथरूम से मुंह हाथ धोकर निकला तो सामने सुधा चाय और ब्रेकफास्ट दोनों लेकर खडी थी।

” देर तक सोये आज आप। लगता है यह नॉवेल पढते रहे देर रात तक।” सुधा ने नॉवेल उठा कर देखा फिर रख दिया। मैं हतप्रभ था, नॉवेल?
”आज आपके मामा जी का फोन आया था, रात को पहुंच रहे हैं।”
” ओह हाँ।”

चुपचाप चाय पी गई। ब्रेकफास्ट भी हुआ। अचानक सुधा ने पूछा।

”आज हम दोनों को कनफ्रन्ट किया जाएगा। आपने क्या सोचा है?”
” मैं ने तो कुछ सोचा ही नहीं।”
” तो सोच लीजिये, जवाब तो देना ही है।यही प्रयोजन है कि आप यहाँ आए और मैं ने अपनी छुट्टियाँ बढवा लीं।”
” सुधा… हम जानते ही क्या हैं अभी एक दूसरे के बारे में?”
” जानने की मुहलत बस इतनी ही थी अविनाश जी, फिर जिन्दगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं।”
” मेरे बारे में सुना होगा।”
” हाँ, वह अतीत था अविनाश आपका, सबका कुछ न कुछ होता है। उसे छोडिये।”
” क्या तुम्हें पसन्द आएगा इतने दिनों की आजाद जिन्दगी के बाद बंधना? ”
” उम्मीद है आप ऐसा नहीं करेंगे। मैं भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में विश्वास करती हूँ !”
” तुम्हारी जॉब? ”
” जॉब तो मैं नहीं छोड सकती अविनाश। लम्बी छुट्टियाँ मीन्स विदाउट पे लीव्ज अफोर्ड कर सकती हूँ। फिर देखते हैं।”
” तो…सुधा तुमने फैसला ले लिया है? ”
” हाँ अविनाश थक गई हूँ, लोगों की सहानुभूति और सवालों से।”
” थक तो मैं भी गया था सुधा, पर क्या यह समझौता नही? ”
” शायद अविनाश हम एक दूसरे को पसन्द करने लगें।” मुस्कुरा कर सुधा प्लेट्स उठाने लगी।
” तो शाम को डिनर टेबल पर आने तक अपना फैसला कर लेना। मुझे नैगेटिव हो या पॉजिटिव कोई प्रॉब्लम नहीं है।”

सुधा के जाते ही उसने नावेल उठाया,  सेवेन्थ हेवेन एक रोमेन्टिक नॉवेल था, उसके अन्दर एक पन्ना

मुझे नहीं पता मैं कहाँ बह रही हूँ। लेकिन जब से आप आए हैं मुझे अपना होना अच्छा लगने लगा है। आप बहुत बडे हैं, यह खत पढ क़र जाने क्या प्रतिक्रिया करें। पर अगर मैं ने न लिखा तो मैं घुटन से मर जाऊंगी। आप पहले पुरुष हैंऔर मैं खुद हैरान हूँ कि क्यों खिंची जा रही हूँ मैं आपकी ओरकल रात न जाने क्यों लगा कि सौंप दूं अपने हाथों की नमी और धडक़नों के स्पन्दन आपको। लेकिन

नीला! ओह! उसे लगा कि वह चक्रवात में घिर गया है। उफ यह पेपर सुधा के हाथ लग जाता तो? वह क्या सोचती? वह घबरा कर तैयार होकर बाहर निकल आया। रामसिंग ने पूछा भी गाडी के लिये पर मैं मना करके पैदल तीन चार किलोमीटर चला आया वह। पहाडी ढ़लवां रास्ते और पहाडी वनस्पति, बडे पेड और उन पर उछल कूद मचाते बन्दर। वह एक चट्टान पर सुस्ताने लगा और आंखें मूंदते ही नीला का चेहरा सामने आ गया। मासूम आंखें, सीधे रेशमी बालों में खुल खुल जाती लाल साटिन के रिबन की गिरह, तिर्यक मुस्कान।

‘नीला तुम मुझे प्रिय हो, तुम्हारी निश्छलता मुझे पसन्द हैतुम वह अनगढ क़ोमल स्फटिक शिला हो जिसे मैं मनचाहा गढ सकता हूँ। तुम्हारा समर्पण बहुत कीमती और नाज़ुक है, और नियति बहुत क्रूर है नीला। जिस संभावना को हम सोचते डरते हैंवह संभव तो हो ही नहीं सकती ना। मैं कल ही यहाँ से चला जाऊंगा। आज रात डिनर पर मामा जी से क्या कहूंगा। मना कर दूंगा।’

जब बहुत देर भटक लिया तो लौटने लगा। वह ब्रिगेडियर सिन्हा के घर के जरा नीचे वाले मोड पर मुडा ही था कि नीला सायकल पर उतरती दिखाई दी। पास आई तो परेशान लगी।

” क्या हो गया आपको। पता है पापा और बुआ परेशान थे। ”
”।”
” मेरा इन्टेशन वह नहीं था, अविनाश जी बस, कनफेस किये बिना न रह सकी।”
” और मैं किससे कनफेस करुं ? ”
” आप….ओह अभी यहां से चलिये….घर नहीं मुझे आपसे बात करनी है।”

हम एक घने पेडों से भरे एकान्त में उतर आए। उसने एक जगह रोक कर उसका हाथ पकड नीची पलकों में एक आंसू छिपा कर कहा-

” अविनाश जी, जो कुछ मैं ने लिखा वह सच था, मेरे लिये आप र्फस्ट क्रश हैं। आपको देख कर मुझे पहली बार अपोजिट सैक्स वाला आकर्षण हुआ था। मैं कभी आपको नहीं बताती, पर कल रात आपको एक दम करीब बैठा पाकर। अविनाश आय एम पजेज्ड़ बाय यू, मुझ पर छाया पड ग़ई है आपकी ।
” नीला मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा मैं उलझ रहा हूँ।”
” अविनाश जी, क्या करती मैं भी! ”
” कुछ नहीं नीलामैं जा रहा हूँ, यहां से यही उचित होगा, तुम्हारे, मेरे लिये। मुझमें साहस नहीं है, एक साथ बहुत लोगों का विश्वास तोडने का! ”
” और बुआ।”
” क्या बुआ, बेवकूफ लडक़ी वो खत जो छोड आई थीं उसके हाथ पड ज़ाता तो? मुझे नहीं करनी शादी वादी। कहाँ फंस गया मैं।”

बुरी तरह झल्ला गया अविनाश और सर पकड क़र पुलिया पर बैठ गया। नीला सुबकने लगी। वह उसके पास उठ आया, उसके मुंह पर ढके हाथ हटा कर बोला,

” क्या करुं मैं नीला? तुम्हारे मासूम से प्यार ने भी मेरे मन में जगह बना ली है। और मुझे अच्छी तरह पता है कि यह हम दोनों के लिये ही घातक है। मुझे जाना ही होगा।”

नीला उसकी बांह पर टिक गई और रोते हुए बस इतना कह सकी,

” आप बुआ से शादी कर लो अविनाश जी। आज आपके यूं चले आने पर मैं ने उसे पहली बार टूट कर बिखरते हुए देखा है। वो पापा से कह रही थीं कि,  दादा, अविनाश को देख कर पहली बार लगा कि शादी कर लेनी चाहिये, और देखिये ना मेरी किस्मतउसे मैं पसन्द ही नहीं। वह चुपचाप निकल गया।
”और तुम….”
” मैं मेरा क्या अविनाश जी।”

ओह ओह ये स्त्रियां! अजूबा हैं। नहीं समझ पाता मैं इन्हें। नीला को वक्ष से लगा लिया उसने। नीला की पतली बांहों ने उसे कस लिया। कुछ देर बाद अविनाश ने नीला को अलग किया-

” चलो नीला। मुझे खुद नहीं पता शाम को क्या होना है। पर तुम अब कोई बेवकूफी नहीं करोगी।”

वह लगभग उसकी बांह पकड क़र खींचता हुआ उसे ले आया। दोनों जब घर पहुंचे तो सब नीला की लाल आंखें और तनावग्रस्त अविनाश को देख कर खामोश हो गये। क्या सोचा सबने पता नहीं। किसी ने कुछ पूछा नहीं यही राहत थी। लंच के लिये अविनाश ने मना कर दिया। शाम को जब मामा जी आए सब सामान्य दिखने के प्रयास में थे। डिनर के समय सुधा और नीला दोनों नदारद थीं। मामा जी और ब्रिगेडियर साहब के घेरे में अविनाश ना नहीं कह सका। उसके हाँ में सर हिला देने के बाद का समय अविनाश के लिये यूँ बीता कि जैसे वह दर्शक हो सारी प्रक्रिया का और अविनाश का किरदार निभाता कोई और है। सगाई, शादीउसे बस याद है शादी की रस्मों के बीच नीला की हंसी और कहकहों के बीच हिचकी सा बिखर जाता दर्द। घर का वही हिस्सा जो गेस्टहाउस था, शादी के बाद अविनाश और सुधा का हो गया। तीन दिन के बाद दोनों को अलग अलग दिशाओं में जाना है। उसकी बांहों में अलसाती सुधा उसका हाथ खींच अपने वक्ष पर रख लेती है। दो बजे हैं और वह उठ कर सिगरेट जलाता है, खिडक़ी में उठ कर आता है तो पाता है नीला के कमरे की लाईट जली है। कुछ टूटता है मन के भीतर। उसे नीला के शब्द याद आते हैं।

” मन का क्या है अविनाश वह तो टूट कर फिर जुड ज़ाता है।”

कहते वक्त वह अपनी अधूरी तस्वीर सी ही लग रही थी वह।

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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