नाव में वो सीधा लेटा था उसका चश्मा सीने पर रखा था और निगाहें…………..उस फूल पर थीं जो शालिनी के जूडे़ में उसने बरसों पहले लगाया था।
ठंडी नम हवा……..रेत की भीगी-भीगी खुशबू……….ये शालिनी भी हर वक्त-बेवक्त क्यों याद आ जाती है? नदी की हर लहर के साथ हलक में कुछ अटक सा जाता है।
सूरज का सुनहरा गोला नदी ने निगल लिया और अँधेरे ठंडे रेत के साहिल पर वो लेटा रहा, जे़हन में शालिनी के जूड़ेके फूल महक रहे थे, शालिनी को कितना शौक था फूलों का……….खुशबुओं का……….रंगों का………सुबह उठते ही गर्मियों में बेलें और मोगरे के फूल कानों में पहन लेती, करनफूल बना लेती…………चाँद बालियों में पिरो लेती, माला बना कर जूड़ेया चोटी में बाँध लेती।
जाड़े में हारसिंगार के कड़े बनाती गजरे बनाती, फूल में फूल फंसाती……….फूलों का श्रृंगार करती………….एकदम ‘‘वन कन्या’’………जंगली लड़की………..।
अंधेरा बोला, ‘‘कहाँ हो शालिनी’’? नदी की एक तेज लहर उठी और उसके ऊपर से गुजर गई। वो भीगा पड़ा रहा, यहाँ तक के आँखों में रेत किरकिराने लगी। ये फुरात नदी का साहिल था और इराक में वो कई साल से था, कितने साल…………मालूम नहीं………उसने तो अब दिन…………तारीखें़ भी गिनना छोड़ दिया था…………….।
डाकिया ख़त लेकर आ रहा है……………आ रहा है………..आ रहा है…………., शालिनी का दिल जोर-जोर से धकड़ रहा है। इंतज़ार………..इंतज़ार………….इंतज़ार……….आखि़र कब लौटोगे अहमद? क्या तुम्हारे इंतज़ार में ही मैं यूँ ही बूढ़ी हो जाऊँगी? स्याह बालों को तुम सावन की घटा कहते हो, उनमें चाँदी उतर आयेगी? इसी गांव में इसी टूटे छप्पर वाले स्कूल में बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते, राग-रागनियाँ सिखते-सिखते……….जिंदगी की शाम हो जाएगी? तुम क्यों चले गये? हम दोनों इसी स्कूल में पढ़ाते तो भी जिंदगी बसर तो हो ही जाती न? मैंने तो कभी बहुत दौलत के ख्वाब भी नहीं देखे, तुमसे कभी कोई फरमाइश भी नहीं की, सिर्फ साथ चाहा, फूल चाहे, नदी का पानी चाहा, तुम सोने के बिस्कुट बटोरकर क्या करोगे? तुम कहाँ-कहाँ भटकोगे? इरान, इराक, सऊदी अरब, तुम घर वालों के कहने पर इरान की नमक की झील ‘‘उरमीए’’ में काम करने निकल गए, सात बरस वहाँ नमक में गले, फिर काम बंद हो गया, इराक की सरजम़ीं पर टक्करें मारी, अब तेल के कुंए सऊदी अरब, उसकी तेज़ाबी महक, उफ! उफ!
‘‘दिल पे घटा सी छाई है
खुलती है न बरसती है’’
तुमको याद है न? बचपन में हम लोग साथ-साथ कई कोस पैदल चलकर नदी किनारे पेड़ों के नीचे लगी पाठशाला में जाते थे। फटा बस्ता, नंगे पाँव, खाली पेट, फटे टाट पर खुशी-खुशी बैठते थे, तख्ती पे खरिया (चाक) पोतते थे, सियाही की टिकिया दवात में पानी के साथ घोलते थे, तब सेठे (एक प्रकार की घास का डंठल) की कलम से शान से लिखते थे, क-से कबूतर, ख-से खरगोश, ग से ‘तुम’, तुम बार-बार यही कहती थी और हँसती थी (ग से गदहा) कितने खुश थे हम लोग……मास्टर साहब छड़ी से खूब मारते तब भी हम हँसते रहते, मुर्गा भी बनाये जाते। तुम लाई-चना, नमक-मिर्चा लाती जो हम मिलकर बांट कर खाते। कच्चे रास्ते में आम का पेड़ मिलता तो मैं चढ़ कर आम तोड़ता, कभी कमरख, कभी इमली, अमरूद, जामुन, शहतूत जो मिल जाता पेट भर के खा लेते, घर पर भूख खड़ी रहती।
कोकाकोला कंपनी का इश्तेहार करती कैटरीना कैफ कहती है ‘‘प्यास बढ़ाओ-प्यास बढ़ाओ’’
सूफी योगी कहते हैं ‘‘प्यास न बढ़ाओ’’
गौतमबुद्ध कहते हैं ‘‘ख्वाहिश न करो’’
जगाओ……..भागो………दौड़ों…….पकड़ो……
गुफा में आदिमानव जाग उठे तो इस दुनिया को देखकर कितना हैरान, परेशान होगा ये क्या है? कहाँ हैं मेरे पहाड़? मेरे जंगल? नदी, झील, नहर, बाग, ताल-तलैया? पूछेगा तो क्या जवाब देंगे?
सारा पानी भाप बनकर उड़ गया, सिर्फ नमक की झीलें बची, नमक की झीलें चमक रही हैं, आफताब की शोआएं नमक के ज़र्रों को सतरंगी धनक के रंगों में तब्दील कर रही है। उसको शालिनी की सतरंगी धनक रंग जयपुरी बंधेज की साड़ी याद आने लगी, उसने आँखें बंद कर ली, कम्बख्त बंद आँखों में भी वही मंजर कैद है। आफताब की तेज रोशनी में नमक हीरा बनकर चमक रहा है, नमक माफिया की आँखें भी चकाचैंध से चमक रही हैं, झील का दिल छलनी है और उसके चारों किनारों से नमक गायब हो रहा है, रातों-रात जैसे जिंदगी का नमक खत्म होता जा रहा है।
क्या वो सिर्फ अपने लिए यहाँ आया था या अपनों के लिए? अपना वतन, अपना गाँव छोड़कर, अपनी शालिनी को छोड़कर, खानदान वालों के तानों ने उसको यहाँ आने को मजबूर किया था, बेरोजगार था, सात भाई-बहनों का कुनबा, अम्मा-अब्बा बीमार, खर्च कहाँ से चलता? वही बड़ा था, कुर्बानी मांगी गई, बड़े चच्चा ने उसकी ज़मीन बेचकर उसको यहाँ भेजा, हर महीने मनी ऑर्डर भेजना हिदायत दी गई थी, हर महीने मनी ऑर्डर भेजता और फरमाइश आ जाती, छोटी की शादी है गहने बनवाना है और भेजो, अब्बा का इलाज बड़े डाॅक्टर से चल रहा है और भेजो, घर का दालान नया बन रहा है और भेजो, अभी न आना बिला वजह खर्च न बढ़ाओ……….ईद-बकरीद, होली-दिवाली सब गुजर गये, रेत…….रेत…….रेत……..
किसी ने ये नहीं पूछा सिवाय शालिनी के, कि तुम कैसे हो? किस हाल में हो? वापस वतन क्यों नहीं आते? शालिनी कहती सब छोड़कर आ जाओ, (प्यास न बढ़ाओ) अल अतश-अल अतश
कर्बला के मैंदान में गर्म रेत पर नन्हें बच्चे ऐड़िया रगड़ रहे हैं, अल अतश-अल अतश (हाय प्यास, हाय प्यास) इराक का फुरात का दरिया किनारे तोड़कर बाहर आ रहा है, मेरे ख्वाब में तुम सफेद साड़ी पहने आती हो क्यों, तुमको तो रंग पसंद है, फिर ये बेरंग साड़ी क्यों? नमक रंग की साड़ी, नहीं…….नहीं………नहीं…….
झमाझम बारिश हो रही है, बच्चे कागज़ की नाव बनाकर पानी में तैरा रहे हैं, अम्मा बरसात में बरहीं (चने की दाल भरे पराठे) पका रही हैं, ऊदे-ऊदे जामुन टपक रहे हैं, तुम जामुनी रंग की साड़ी पहन कर झूला झूल रही हो और राग मल्हार गा रही हो, छप्पर से पानी टपक रहा है, अब्बा ‘‘आब नेसां’’ (बारिश का पानी) जमा कर रहे हैं, घर के पुराने बर्तन छप्पर के बाहर रख दिये गये हैं, उनमें बूँदें टपक रहीं हैं टप….टप….टप….., कीचड़ में गाँव के बच्चे फिसल रहे हैं झम……झम…..झम…..परियाँ नाँच रहीं हैं, बरसात की रात जुगनुओं की बारात।
तेरी आवाज़ कागज़ में लिपटी हुई।
तेरा चेहरा लिफाफे में रखा हुआ।
शालिनी का खत फिर आ गया, ‘‘अब तो आ जाओ तुम्हारा घर भी नया बन गया, तुम्हारी छोटी बहनों अरफिया, फाख़रा की शादी भी धूम-धाम से हो गई, तुम्हारे छोटे भाईयों ने नये मकान बना लिये, सब अलग-अलग मकानों में रहते हैं अपने बीबी-बच्चों के साथ, अपनी अम्मी-अब्बा की कब्र पर फातिहा पढ़ने ही चले आओ’’……
तुमसे कैसे बताऊँ कि हम किस हाल में यहाँ रहते हैं? एक चाल में भेड़-बकरियों की तरह, बंधुआ मजदूर, छुप-छुपकर चूहों की तरह बिल में से रात के अंधेरे में निकलते हैं काम करने, मेरा पासपोर्ट मालिक के पास है और वो वीज़ा लगने ही नहीं देगा, वनवास काट रहा हूँ 14 साल……14 साल………मैंने पीछे मुड़कर देखा जिस दिन मुझे निकलना था, उस रात तुम्हारे छप्पर में लालटेन जल रही थी, अँधेरे की कतरने सामने पड़ी थीं, तुम्हारे नैन-नक़्श पर नूर और तारीकी से कई परछाइयाँ बनी और बिगड़ी, वही तस्वीर मेरे जहन में नक़्श हो गई।
अपने मन में डूबकर पा जा सुराग़े ज़िंदगी
तु अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन……..
शालिनी गा रही है……….
जमर्रुत के म़हल में जन्नत में अम्मी और अब्बा आराम कर रहे हैं, मेरे लिए दुआ कर रहे होंगे, प्यास के मारे मेरे हलक में कांटे पड़ गए हैं, मैं पानी के चश्मे की तरफ लपकता हूँ और नमक की झील में धंसता चला जा रहा हूँ………अल अतश-अल अतश
आज का विचार
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।
आज का शब्द
जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।