अंतिम लीला

                                                                       भूमिका

इस नाटक के पात्रों में हिंदू देवी-देवताओं के साथ कुछ स्लाविक पौराणिक ईसाईपूर्व देव-देवता भी हैं, जिनका ऐतिहासिक आधार हिंदू चरित्रों की तुलना में कहीं कम प्रमाणित किया गया है, यहाँ तक कि कुछ वैज्ञानिक इन चरित्रों को नवरचित भी मानते हैं। कारण यह है कि ईसाई धर्म आने के बाद पुराने रूस (जो कि अधिकतर आधुनिक युक्रैन का ही नाम हुआ करता था) में पुराने धर्म-सिद्धांतों का नामोनिशान मिटाने का पूरा प्रयास किया गया था। फिर भी स्लाविक सनातनी परंपराओं की कुछ बची हुई झलकें आजकल एक नई परंपरा में विकसित हो रही हैं और इसके कार्यकर्ताओं की मूल प्रेरणा वैदिक सानातनी संस्कृति से ही आ रही है। ऐतिहासिकता का कोई दावा न लगाते हुए स्लाविक मिथकीय चरित्रों को इस नाटक में मात्र प्रतीकवादी रूप में लाया गया है।

                                                                  पात्र

कृष्ण

लेल – कुछ लोककथाओं के अनुसार पौराणिक  स्लाविक वसंत और प्रेम का देवता, जो कृष्ण की भांति एक चरवाहा था और मुरली या वीणा बजाकर लड़कियों-महिलाओं को मोहित करता था। उन्हीं कथाओं के अनुसार उसकी बहन लेल्या वसंत की देवी होती थी। दोनों के नामों को संस्कृत “लीला” शब्द से जोड़ा जाता है।

रुसावा, ज़्लाता, होर्दाना – स्लाविक जनजाति की युवतियाँ।

प्रिलेस्ता – स्लाविक वैद्य महिला।

 ज़ोर्याना, क्विताना – प्रिलेस्ता की दो चेलियाँ (निःशब्द)

भारतीय नर्तकियाँ (निःशब्द)

शक्ति देवी (काली और लक्ष्मी के रूप में)

यमराज

स्लाविक मृत्यु देवी (निःशब्द)

गायन दल

                                                      दृश्य 1

एक पवित्र उपवन, पेड़ों के बीच एक छोटा खुला मैदान, ऐसे स्थान स्लाविक जनजातियों के पूजास्थल हुआ करते थे।

संगीत बजने के साथ रुसावा, ज़्लाता और होर्दाना पुरानी शैली की लंबी, कढ़ाई से सजी सफ़ेद कमीज़ें पहने और हाथों में जलते दीप लिए मंच पर निकलती हैं। दीपों को केंद्र में फ़र्श पर ऱखकर, घुटने और माथा टेककर अग्नि को प्रणाम करती हैं, फिर उठकर अग्निआराधना का नृत्य करती हैं। नृत्य पूरा होने के बाद फिर से दीपों को प्रणाम करती हैं। फिर ज़्लाता और होर्दाना उठकर जाने को तैयार होती हैं, किंतु रुसावा बैठकर दीपों की लौ को घूरे जा रही हैं मग्न दृष्टि से, अपने में खोईयह देखकर उसकी सहेलियाँ वापस आकर फिर बैठ जाती हैं उसके साथ।

ज़्लाता – प्रसन्नता की बात है यह तो! रुसावा पर तो हावी हो गया है अग्नि देव, अब इसकी आंखों में भी नाच रहा है…

रुसावा – ह्दय में भी… शरीर और आत्मा की जो सीमा है उसको पिघालकर…

होर्दाना (मुस्कुराकर) – इस सुंदर भाव को न भी लाना चाहोगी शब्दों में तो चलेगा। बस यह बताओ, ह्दय में जो दीपक जल उठा है उस पर किसी का नाम भी चित्रित होगा न?

रुसावा (आँखें बंद करके) – निश्चय! पढ़ने दो तो… अरे अनजानी सी है भाषा!

तीनों हँसती हैं।

ज़्लाता – वह तो होगी ही, यहाँ की भाषा थोड़ी न आती है उसको।

होर्दाना (नाटकीय ढंग से) – किसको?

ज़्लाता (उसी ढंग से) – अरे सुना है लेल का कोई मित्र आया है बहुत दूर से। उसी के दिव्य सांवले रूप और रात्रि से गहरे नैनों में मोहित हो गई है अपनी भोली सी सखी!

रुसावा – मैं तो नहीं समझी हूँ अब तक कि वह किस काम से आया है हमारे देश में उतने दूर से… मिलते ही लेल का भाई बन गया। दोनों में जो भरा है प्रेम का रस…अब दोनों मिलकर जब नाद-यंत्र बजाएँ  तो… मानो एकसार -संतुलन सा फैल जाता है तन-मन में, प्रकृति में… अद्भुत लगता है। पर उसके आगमन में एक रहस्य है…

होर्दाना (आँख मारकर) – कहीं सपना तो नहीं देखा था उसने जिसमें तुम जैसी कोई उसे अतिदूर से आने के लिए बुला रही थी !

रुसावा (मुस्कुराकर) – पागल नहीं लगता है वह।

ज़्लाता – पर तुम लगने लगी हो, बहन!

रुसावा (गंभीर होकर) – उसकी मगन कर देनेवाले नैनों से मस्ती तथा संगीतमय ध्यान की झलकें बरस रही हैं… किंतु उन्ही नैनों में किसी दुख की गंभीर छाया भी दिखी मुझे … इस लंबी यात्रा का कोई गहरा-सा कारण होगा…

मुरली की धुन सुनाई देती है।

होर्दाना – लेल की मुरली! लगता है वह अकेला है अभी, पूछ लेती हैं उससे…

लेल आता है मंच पर। लंबे बाल, स्लाविक शैली के प्राचीन कढ़ाई वाले वस्त्र, हाथ में मुरली।

ज़्लाता – देर से क्यूँ आए हो, हमारे प्यारे लेल? हमारा नृत्य नहीं देखा तुमने! रुसावा तो विलीन ही हो गई प्रेम-अग्नि की आराधना में…

लेल – जय हो! यही विलीनता सर्वश्रेष्ठ आराधना है, सुंदरियो। (रुसावा को ध्यान से देखकर मुस्कुराते हुए) किंतु तुम्हारे हृदय में यह इतना विशेष  प्रेम-अगन किसने लगवाया है?

रुसावा (बेझिझक, सहज भाव से) – उसी ने, जिसकी बांसुरी की संगति में तुम्हारी इस मुरली का जादू दोगुना बढ़ा है… तुम्हारे भाई ने जो बोलता कम है, मात्र अपनी उपस्थिति से अपनी अभिव्यक्ति को संप्रेषण की सब से बड़ी उंचाई तक ले जाता है…

रुसावा की बातों से लेल के चेहरे पर आश्चर्य और आनंद की मुस्कुराहट खिल जाती है।

होर्दाना – क्या नाम है उसका?

 लेल – वह कृष्ण है…

रुसावा – कृष्ण… जितना रहस्यपूर्ण व्यक्तित्त्व है, उतना ही नाम भी…

होर्दाना – पर आया क्यों है? वह कौनसी खोज है जो यहाँ तक लेकर आई है उतने अद्भुत चरित्र को? 

ज़्लाता – विलास-देवता लगता है, वह तो कई बार… (हँसकर) स्त्रियों पर हावी भी तुम्हारी भांति! फिर भी उतने गहरे स्वभाव को देखकर कदापि यह नहीं लगता  कि बस अपने आस-पास की देवियों के प्रेम से ऊबकर विदेश के हृदयों को भी मोहने निकला हो… बात तो गंभीर ही होगी न?

लेल – वह बात तुम लोगों को बताने के लिए उसने मना किया है।

होर्दानाज़्लाता (एक स्वर में) – क्यों?!

लेल (हँसकर) – यह कहकर कि तुम लोग अज्ञानता में अधिक सुंदर लगती हो।

होर्दाना – लो, कर लो बात!

लेल मुस्कुराकर और होंठों से मुरली लगाकर एक सुंदर धुन बजाते हुए मंच से चला जाता है। तीनों युवतियाँ आपस में कुछ फुसफुसाकर अपने दीप लिए उसके पीछे भाग निकलती हैं।

                                                                      दृश्य 2

वही पवित्र उपवन

लेल और कृष्ण मंच पर आते हैं। कृष्ण अपने पारंपरिक ढंग से सज्जित हैं , पर राजकीयता का कोई लक्षण नहीं है, मुकुटहीन, खुले बाल, कम आभूषण

कृष्ण (मोहित भाव से दृष्टि घुमाते हुए) – यहाँ की प्रकृति की शांत और नरम सुंदरता से अभिभूत रहता है मेरा मन…

लेल – फिर तो वातावरण सही ही होगा, भाई। हमारा जो संवाद अभी शब्दों में व्यक्त नहीं हुआ है, उसको इस शांति और नरमता में आज उतार ही लेते हैं… तुम जैसे अतिथि का स्वागत करने योग्य होना एक सौभाग्य है जिसका हम लोगों को यह सुख मिला है। तुम कुछ गंभीर कहे बिना भी रहना चाहो, तो रहो न, युगों तक यहाँ, हमें तो सुख ही होगा। सच पूछो तो मस्ती भरी तुम्हारी चिंताहीन छवि जो इधर की सभाओं-खेलों में प्रकट हुई है वही  यहाँ की युवतियों को सर्वश्रेष्ठ लगती है, वे स्वयं जो रहती हैं वैसी ही… किंतु उन्होंने भी यह भांप लिया है कि कृष्ण चिंता-मुक्त नहीं है… रोमांचकता, युवावस्था का जोश, प्रेम-रस और सौदर्य के दर्शन – इसके सिवा कुछ औऱ भी है, गहरा और पीड़ा से भरा, जो यदि तुम न भी बताना चाहो, तुम्हारी आँखों एवं बांसुरी की धुन में झलकता है स्पष्ट। अपने प्रिय अतिथि से मिलकर जो आनंद मिलता है, उस आनंद में डूब हम तो आने का कारण भी पूछते नहीं… पर कृष्ण जैसा सब का प्यारा किसी गहरी सोच में जब डूबे आए, वह भी अकेला…तो …..

कृष्ण (हँसकर) – अपनों से कुछ नहीं छुपता है न? युग बदलते निकल रहे हैं, वह भी प्रलय की ओर… युग-परिवर्तन का मैं साक्षी बन गया था, मेरी आँखों के सामने लाखों मर गए, ब्रहमांड के युग करवट की भांति बदलने भर में… और दोषी किस को था ठहराया गया, जानते हो ?

लेल (आह भरकर) – उस महायुद्ध के बारे में सुना है… यह भी पता है, भाई, कि तुम्हारा कोई दोष नहीं था उस में। और होता भी तो तुम दोष-भाव को  अंदर लेकर इस प्रकार कहाँ फिरते… एकांत में चले जाते पर्वतों-वनों में… या फिर, अधिक स्वाभाविक, उसके परे हो जाते प्रलय को अनिवार्य समझकर…

कृष्ण – एकदम सही तुम बोल रहे हो, भाई। संसार के सर्वनाश का उत्तरदायित्त्व मैं ले सकता हूँ अपने ऊपर, उन पीड़ितों के लिए दोषी बन सकता हूँ जिन्हें आवश्यकता होती है दोषी की, श्राप ले सकता हूँ, बस उनका मन थोड़ा हलका हो जाए… पीड़ा से तंग आकर बच्चा जब रुठकर उगलता हो क्रोध तो कौनसा है वह बुद्धिमान बड़ा जो भागे दोष मान लेने से ? बच्चे को सांत्वना मिल जाए बस… पर वह सब है ब्रह्मांड का बोझ जिसको उठाना हम जैसों के भाग्य में तो है ही, मानवीय दुख-उदासी में कहाँ दिखता है वह… सुनने में तो विचित्र लग सकता है पर दुख जितना अधिक वैश्विक हो जाता है, हलका भी होता है उतना ही…

लेल – सत्य! मुझे  भी तो वही लगा कि यदि बात बस कलियुग-प्रलय की होती तो उसकी छाया को मुख पर कृष्ण  क्यों आने देता!

कृष्ण – भीतर के द्वंद्वयुद्ध से ही वह छाया आती है… (हँसता है) अब यह समय आया है, भाई, कि अहंकार को भी श्रेय देना होगा यह सत्य मानकर कि दुख वही होता है सब से भारी जो व्यक्तिगत हो…

लेल (हँसकर) – तो फिर रुक जाओ एक-आध सहस्राब्दी और। उसी व्यक्तिगत दुख से भी बचाने वाला आएगा इस युग में, मैं ने भविष्यवाणी जो सुनी है। तुम्हारे देश का ही महात्मा होगा। नाम क्या था…

कृष्ण – सिद्धार्थ… गौतम बुद्ध भी लोग कहेंगे उसको। हाँ, वह तो स्वयं जीवन को ही दुख की परिभाषा देगा… (हँसता है) पर जब तक नहीं आया है बचाने इस जीवन नाम के दुख को भोगना है मुझे !

लेल (हँसकर) – अकेले भोगोगे?  यह कैसी मित्रता!

कृष्ण (नाटकीय भाव से) – भ्रम में नहीं पड़ना है, वत्स। अकेला कैसा हो सकता है वह जिसमें पूरा ब्रह्मांड पच्चीकारी बनके सजा हो… हाँ, इस सत्य का यह भी एक पक्ष है कि कौन हो सकता है इस ब्रह्मांड से भी अधिक अकेला!

लेल (हँसकर) – अब उन सन्यासियों की टांग खींच रहे हो न, जो पर्वतों में जाकर ध्यान को प्राप्त हो जाते हैं संसार को त्यागकर! सुना है कि अद्भुत शक्ति आ जाती हैं उन में, अद्भुत वरदान तथा क्षमताएँ… बस व्यक्तिगत दुख का क्या होता है उधर, वह नहीं पता…

कृष्ण (अचानक गंभीर होकर) – एक ऐसे योगी को मैं जानता हूँ… उस जैसा अब तक कोई भी नहीं बना है। त्रिलोक टूटने लगता है कांपकर उसके मात्र नृत्य से… क्षमताएँ वास्तव में अद्भुत ही हैं…  मेरे एक प्रिय प्राणी को जिसको आध्यात्मिक भाई मानता हूँ उस योगी ने अपनी मात्र दृष्टि से राख कर दिया है… (जैसे गहरी सोच से निकलकर) किंतु हम उसकी बात नहीं करेंगे… (फिर मुस्कुराकर) हम बात करेंगे… (लेल के साथ एक स्वर में)  देवियों की! (दोनों हँसते हैं)

दोनों की हँसी बुझ जाने के साथ धीमे से ध्यानात्मक संगीत बजने लगता है। एकदम शांत होकर लेल सुनने की अवस्था में नीचे धरती पर बैठ जाता है। कृष्ण धीरेधीरे चलता है इधरउधर कुछ सोचते हुए। फिर बोलने लगता है।

कृष्ण – संसार का अंत… प्रलय… सर्वनाश… यह सब तो होना ही है, क्या करें… अब मानव-इतिहास पढ़ाया जाएगा बस युद्धों के आधार पर, न कि महात्माओं की सीखों के… जैसे किसी की जीवनी लिखी जाए उसके स्वयं व दूसरों से झगड़ों के क्रम से, न कि उपलब्धियों, शुभ अवसरों के… कभी कभी समझ में नहीं आता कि दोनों में से किसके बढ़ते जाने से अधिक होता है दुख, क्रूरता के या फिर मूर्खता के… संभवतः ये बस दो पहलू हैं  “पुरुष” नाम के इस खोटे होते जा रहे सिक्के के… पर ऐसा क्यों कि लालच, स्वार्थ, हिंसा जन्मने लगे हैं उस पुरुष के अंदर जो प्रकृति-सी पवित्र स्त्री का जीवन-साथी होता है? क्या माँ, बहन, पत्नी का प्रेम पर्याप्त नहीं है कि पुरुषों का मानसिक पतन संभव ही न रहे?.. गलत मत समझना मुझे , लेल भाई, इस वैश्विक दुर्घटना का दोष नर-नारी में से किसी एक को नहीं सौंपना चाहता… मैं असमंझस में हूँ बस… पुरुष को देखकर आश्चर्य कम होता है, वह है ही मूर्ख… अन्यथा “महान” बनने-कहलाने की इच्छा क्यों होती उसको अपनी आदिमहानता को भुलाकर… प्राकृतिकता, स्वाभाविकता, सहजता, दिव्यता  – इस सब के पतन से उठते हैं असंतोष तथा घमंड, फिर युद्ध… साक्षी बनकर कड़वी मुस्कान के साथ वह सब निहारने की क्षमता है मुझमें… बस प्रेम का पतन नहीं देखा जाता!.. (थोड़ा चुप रहकर) आंधी जितनी भी हो भयनक चारों ओर से, अपने आंगन में खिले सुंदर से निर्दोष पुष्पों को देखकर मन झूम उठता है नई प्रेरणा और आशा से… किंतु वे भी दिखें मुरझाते तो मन कहाँ उर्जा-संतुलन पाए, स्वयं की सकारात्मकता को फिर बचाए कैसे रखें?.. (फिर चुप रहकर) प्रेम ही रहा है मेरा सार सदा से, उसी में मैं पला-बढ़ा हूँ, वही बांटता गया अपने प्रियजनों में… मवेशियों, खेतों, वनों के बीच युवतियों के साथ। तुम्हारे ये खेल  देखकर मुझे अपनी युवावस्था स्मरण हो आती है… और तुम तो जानते हो कि प्रेमिका की आँखों में आनंद की चमक देखने से बड़ा नहीं है कोई सुख… स्वयं को भूलकर जब जी भर देते हो प्रेम तो मानो जीवन देते हो, उतना नवीन और पूर्ण कि कोई भी शक्ति फिर उसकी आत्मा को बंदी नहीं बना सकती… जब प्रेम बंधन न होकर एक चेतनावस्था बनती है तो ध्यान-तपस्या में प्राप्त किए प्रबोधन से कदापि कम नहीं है वह… ऐसा ही मैंने प्रेम किया है, अहंकारहीन, स्वामित्व-भाव से मुक्त… इसी स्वभाव के कारण फिर “नारायण” समझ बैठे लोग मुझे… मैंने कभी मना नहीं किया उनकी आवश्यकता को भांपकर… पर दुख हुआ इस बात का कि अपने अंदर के नारायण को जगाने के बजाय सब बाहर वाले की भक्ति में लग गए… कोई कहेगा बात बुरी नहीं है… क्या पता… उतना मैं जानता हूँ कि शांति बहुतों को मिल गई है उससे… “नारायण वह है, मैं बस भक्त हूँ, उस जैसा थोड़े ही मैं बन सकता हूँ!”… शिष्य या भक्त होने में सुविधा है न? उसमें संसार की छोड़ो, अपने जीवन का उत्तरदायित्व कहाँ है!.. पर मानव सोच तथा आध्यात्मिकता की इस दिशा से जो झटका लगा वह फिर भी उस झटके से कम ही था जो प्रारंभ में लगा था… जब मैं अनजान था इन सब बातों से और स्वयं को दूसरों से भिन्न सोच भी नहीं सकता था… जब मस्त यौवन की रास-लीला के चरम-बिंदु पर अचानक कुछ विचित्र-सा भाव  छा गया प्रेमिका की मग्न आँखों में… जब बोले उसके होठ : “तुम केवल मेरे हो! मैं जी नहीं सकती बिना तुम्हारे! अब देखना, यदि तुमने हृदय तोड़ दिया, मर जाऊंगी! ”… (फिर थोड़ी देर चुप रहकर, आह भरकर) यहाँ तुम लोग बड़े सुंदर, प्रतीकात्मक प्रकार से सूर्य को पूजते हो जीवन-उर्जा के स्रोत के रूप में… कोई इस ग्रह पर जी नहीं सकता उसके बिना… उस के प्रति कृतज्ञ होकर मैं भी प्रत्येक सूर्योदय का करता हूँ स्वागत बांसुरी की धुन से… उसकी किरणों में तृप्त रहता है मेरा मन… पर यह कितना विचित्र होता न, यदि मैं सोचूँ कि सूर्य देव का जीवनदायक यह उजाला मेरे लिए है बस!.. यदि चेहरा वह फेर भी ले पृथ्वी से और मृत्यु हो जाए मेरी भी , मर जाऊंगा मैं यह सुख लेकर कि उजाले-धूप का अनुभव मैं ने जिया है! उस पर आरोप लगाने की तो सोच कैसे सकता हूँ! “तुम्हारे बिना जी नहीं सकूँगी” – यह है प्रेम?! इंद्र भी तो जी नहीं सकता बिना सोमरस के… काली रक्त-बलिदान भर से जीवित रहती है… किंतु प्रेम?.. अब खाद्य-पेय पदार्थ से भी इसकी  तुलना करें?? अब सूर्य को भी बांधके रखा जाए?! आशीष के रूप में दिया जाने पर प्रेम स्वयं में ही क्यों हो जाता है बंदी? प्रेम पाकर भी यह ईर्ष्या, डर और पीड़ा क्यों?? इस सब में विवश होकर प्रेम यदि स्वयं को ही खो बैठे तो?!.. प्रेम से स्वतंत्रता छीन लो और प्रेम रह जाए, यह एक भ्रम है! एक ही है दोनों!.. (फिर चुप रहकर आह भरता है)  मेरी प्रेम-लीलाएँ प्रसिद्ध हुई हैं इसका मुझीको आश्चर्य हुआ सब से बड़ा… क्योंकि असीमता तथा मुक्ति के सिवा प्रेम का कोई अन्य रूप मेरी कल्पना को भी उपलब्ध नहीं था, यही लगता था फिर कि इसमें ऐसा क्या है जो अद्भुत लगता है!.. चेतनावस्था तथा प्रेमावस्था का एक ही होना अचानक क्यों दुर्लभ हुआ है इस संसार में!..   स्वर्ग की परी सी सुंदर राधा से जो प्रेम किया था, उसमें मैं पूर्ण था और मस्त… उसी के साथ बनी फिर जुगल-मूर्ति  लोगों के हृदय तथा गीतों में… कैसे कहूँ कि उसके भी कमल-से नैनों में मैंने भांपी थी तिरस्कार की छाया… बस इसलिए कि मैंने  दूसरी गोपियों से मुंह नहीं फेरा था… कैसे फेरता! क्या ऐसा हो सकता है कि मैं सांस लूँ बस किसी एक के सामने और दूसरी कोई हो तो बंद करूँ!.. जब प्रेम ही मेरी जीवन दायिनी वायु है जनम से!.. प्रेम में कूटनीति नहीं आती है मुझको… जिस महिला ने भी कभी ईर्ष्या दिखाई मुझसे प्रेम करके उसने कभी यह सोचा भी नहीं था कि क्या झटका लगा होगा मुझे उससे हर बार? … यही सोचा होगा कि इस विलासी प्रेमी का बस मन बहका रहता होगा, कि इसका हृदय ही भरता नहीं होगा प्रेम-संबंधों में, कि अब इसको ठिकाने पर ले आने के लिए कांड ही रचाना चाहिए, तभी भला कुछ हो सकता है  इस अपरिपक्व का!.. (मुस्कुराकर)

मेरा विवाह कैसे हुआ, पता है? राजा बनकर भी कुछ समझ मुझ में कहाँ आई… एक प्रेम-चिट्ठी मिली एक राजकुमारी से जिससे मैं मिला भी नहीं था कभी… उसको किसी अप्रिय के साथ विवाह करने को विवश कर रहा था परिवार… एक प्रेम-विलाप था उस संदेश में, घोर निराशा… और भावों की उतनी गहराई  थी कि क्षण भर भी नहीं लगा मुझे  निर्णय लेने में… विवाह के दिन ही इकट्ठे हुए अतिथियों, सब राजा-राजकुमारों की आँखों के सामने उसका अपहरण करके निकल गया मैं… दांव पर प्राण लगाकर! स्तब्ध रह गए सब उस दुस्साहस से… अब तुम बताओ, भाई – जिसको बस खेलना होता है स्त्रियों के भावों से वह ऐसा कभी कर सकता है? या फिर तुम्हें भी उन सब पुरुषों की भांति यह लगता है कि उस दुस्साहस में स्वयं को उनसे अधिक योग्य वीर प्रमाणित करने की इच्छा थी मेरी, या “महान योद्धा एवं प्रेमी” की “अमर जीवनी” में एक “उज्ज्वल” अध्याय जोड़ने की मेरी चाह? (लेल नामें सिर हिलाता है, उसका चेहरा गहरे भावों से चमक रहा है) नहीं… मेरी आँखों के सामने उस चिट्ठी में व्यक्त किए गए वे पीड़ा तथा प्रेम थे बस… सहज रूप से हृदय भरा था पूरा प्रेम से… उस प्रेम से जिसके वास्ते प्राण भी दे सकता हूँ निस्संकोच… जो प्रेम भरपूर दिया भी उसको ब्याह करके… फिर और राजकुमारियाँ महल में आईं, जो राजनीति का भी होता है भाग… फिर ज्ञात हुआ एक दिन कि मेरी रुक्मिणी उलझ गई शेष रानियों के साथ विचित्र विवाद में कि उन में से मुझे  किससे सब से अधिक लगाव है!.. (फिर थोड़ा चुप रहकर) कभी कभी मुझे  लगता है, भाई, कि मेरी चेतना किसी भूल से सत्य-युग से निकलकर यहाँ टपक पड़ी है, इसीलिए ठेस खाती है बार बार… (हँसकर) लोग भी विचित्र हैं, देखो! मेरी चेतनावस्था अपनाने से डरते हुए भी मुझे  भगवान बना दिया!  (जैसे कुछ याद करके) पर हाँ, अपनेपन की गहरी झलक एक देवी में मिली थी… उसके लिए भी बंधन होने के बजाय प्रेम शुद्ध मनोस्थिति ही थी… तभी वह हलके हृदय से पांच भाइयों की पत्नी बनकर उन में समा सकी बिना स्वयं को बांटे… पर उसके भाग्य में कहाँ था समझा जाना… उसके पति भी आपस में जलते रहे… हम दोनों को कोई संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं थी, पहले से एक आयाम में जो जुड़े थे… एक दूसरे को पहचाना गहरे मौन में… बस आश्चर्यचकित होते रहे सब इस बात से कि जब भी कोई संकट उस पर आता था तो पतियों से शीघ्र मैं पहुंचता था उसकी सहायता करने… (थोड़ा रुककर, आह भरकर) फिर महायुद्ध… और मृत्यु चारों ओर… और फिर अपनों के बीच में रहकर भी यह घोर अकेलेपन का भाव… अपनों में भी फिर युद्ध और सर्वनाश!.. फिर ऐसे ही निकल गया मैं भटकते हुए… एक ओर से मेरी यात्रा लक्ष्यहीन है… पर दूसरी ओर कहीं गहरे में एक जिज्ञासा फिर भी जागी है कि आगे क्या है इस संसार के भाग्य में… और प्रेम के भाग्य में… तुमसे मिलकर मैनें स्वयं की चिंताहीन युवावस्था पहचानी तुम में, प्रसन्न हुआ है हृदय… ऐसा ही अनुभव मैं चाहता था, संभवतः… रुसावा भी… मोतियों जैसे चमकते हैं उसके नैन और चिड़ियों की चहचहाहट से भरे उपवन जैसा है उसका मन… बस घबरा जाता हूँ पुरानी आदत से… मेरा तो जाने का समय अब आ रहा है… क्या हल्के हृदय से विदा कर पाएगी ? या वह भी बोलेगी वह वाक्य जिसे अभी तक मैं नहीं समझा हूँ, जिससे डरता हूँ मृत्यु से कहीं अधिक  : “तोड़ा है तुमने मेरा हृदय!” ?.. क्या ऐसा हो सकता है, भाई, कि मदिरा डालने से स्वर्ण पात्र टूट  जाए या सूर्य-किरण के पड़ने से टूटे हीरा?!… (हँसकर) विचित्र हूँ, न?.. युद्धों के संकटों तथा प्रलय के अनुभवों से गुज़रकर भी अटक गया हूँ फिर प्रेम-लीला के इस असमंजस में!.. वैश्विक से व्यक्तिगत अधिक दुखता है… और जब व्यक्तित्व ही हो प्रेम तो कैसे न दुखे?..

कुछ समय तक सन्नाटा फैल जाता है। लेल  ध्यानावस्था में बैठे आँखें बंद करके मानो कृष्ण के वचन पर विचार रहा हो। कृष्ण टहलते हुए आस्मान को देख रहा है।

लेल (आँखें खोलकर) – मैं खो ही गया, भाई, तुम्हारे भावों में, अपने से जो लगे… अब चाहकर भी नहीं जोड़ पाता कुछ तुम्हारी इस विवेचना में। प्रलय की छाया इधर भी दिखाई देती है समय समय पर किंतु तुम्हारी भांति उसकी गहराई को कहाँ जिया है मैं ने… तुम ने सही कहा, अभी मैं उस चंचल विलासी अवस्था में हूँ जिस में तुम भी हुआ करते थे राज करने से पूर्व… (हँसकर) संभावना भी तो कम ही है कि इस में कुछ बदलेगा। (गंभीर होकर) किंतु प्रेम संबंधों में नकरात्मकता आने से जो झटका लगता है वह अनुभव किया है मैं ने भी…

कृष्ण (हँसकर) – तुमको दुखी किया है तो नहीं इस वृद्ध ने ?

लेल ( उठकर) – अरे नहीं! तुमने तो मुझमें जिज्ञासा जागृत की है।  मुझे  भी जानने की इच्छा है अब कि आगे इस संसार में होगा क्या…  इस बात को लेकर एक विचार भी आया है। अपनी बस्ती में एक अद्भुत वैद्य महिला रहती है, जिसको कुछ लोग तो “डायन” भी कहते हैं, प्रिलेस्ता नाम की… हमारी मृत्यु देवी “मरा” ने उसको विशेष वरदान दिया है… भविष्य के वह दर्शन कर सकती है! घबरा गया था मैं पहले भी कई बार जब उसने मुझे  ध्यान से देखकर यह कहा था कि कुछ भयानक सा दिखता है उसको इस भूमि के भविष्य में… फिर भी अपने में होकर मस्त कुछ अधिक ध्यान नहीं दिया था मैंने उसकी बात पर… मुझे भविष्य में तो झांकना ही नहीं था, भाई, सदा से जो लगा था कि एक सूर्यास्त के सौंदर्य को जी लो खुले-खिले हृदय से तो वह भी है पर्याप्त कि यह संसार तथा यह जीवन चिरकाल का स्वर्ग रह जाए मन में… किंतु तुम्हारी बातों से लगा कि कुछ तो है जो जानने योग्य है… चलो, मिल लेते हैं उससे! आज पूर्णिमा की रात है न। आज अपनी चेलियों के साथ “गंजी पहाड़ी” पर वह आएगी मरा से बात करने… वह ऐसा स्थान एक है हम लोगों का जहाँ डायनें-जादूगर मिलकर अपनी सभाएँ, पूजाएँ व नृत्य करते हैं। तुम्हें अच्छा लगेगा वह सब देखकर!

कृष्ण – निश्चित! भविष्यवाणियों में अपनी शांति खोजनेवालों में से मैं नहीं हूँ। पर पूजा-नृत्य के दर्शन सहित कुछ बातें भी हो जाएँ ज्ञानियों से तो भला ही होगा। (हँसकर) हमें तो अंततः मनोरंजन की ही पड़ी है न!

 लेल (हँसकर) – एकदम सही! चलो!

दोनों मंच से चले जाते हैं। थोड़ी देर बाद मंच पर निकलती है रुसावा। उसका चेहरा एक ही समय घबराया हुआ और आनंदित भी लग रहा है। भावुक से ढंग से अपने आप से ही बोलने लगती है।

रुसावा – अब कोई कह भी दे कि छुपकर दूसरों की बातें सुनना सुशीलता के विरुद्ध है तो वह भी मैं हँसके सुन लेती!  क्योंकि मुझे  सुशील नहीं बनना है, कृष्ण… बनना है बस तुम्हारे जैसी… अपने भावों में, अपने प्रेम में पूर्ण! और जाने क्यों लगता है कि तुम्हें यह मेरी गुप्त उपस्थिति पता थी, कि केवल लेल को तुम अपनी व्यथा नहीं बता रहे थे! किंतु एक बात का आश्चर्य हुआ मुझे … जिन देवियों के तेवरों से तुम दुखी हुए थे उन से इस भांति हृदय खोलकर क्यों नहीं की बात? अपने ही अंदर क्यों रखा है सब? कौन जाने, संभवतः शांति कब की मिल गई होती… मुझसे भी बोलोगे नहीं, मुझे  पता है… किंतु आवश्यकता भी तो नहीं है अब… बिजली के वार की भांति मेरे हृदय पर तुम पड़े… पर वह टूटा नहीं, चमक उठा!.. इस बात को लेकर तुम घबरा रहे हो कि हलके हृदय से तुम्हें विदा नहीं कर पाऊंगी तुम्हारी यात्रा के लिए … घबराना मत! विदा करने आऊंगी ही नहीं… मेरे लिए जा ही कहाँ रहे हो, कृष्ण!.. (संगीत बजने के साथ नृत्यात्मक ढंग से मंडराते हुए मंच से चली जाती है)

                                                        दृश्य 3

गंजी (वृक्षहीन चोटी वाली) पहाड़ी पर प्रिलेस्ता अपनी दो जवान चेलियों के साथ पूर्णिमा को समर्पित एक नृत्य करती हैं डफलियाँ बजाती हुई। नृत्य के बाद युवतियाँ मंच से चली जाती हैं, प्रिलेस्ता अलाव के पास बैठकर ध्यानावस्था में आग को निहार रही है। उस पर पारंपरिक कढाई वाली सफ़ेद कमीज़, तांत्रिक के जैसे हार और कंगन। खुले बिखरे बाल, चेहरे पर सौंदर्य एवं कठोरता दोनों का छाप है। लेल और कृष्ण आते हैं।

लेल (मुस्कुराकर) – प्रसिद्ध डायन को प्रणाम! तुम कैसी हो, प्रिलेस्ता?

प्रलेस्ता (उनको देखकर, नाटकीय भाव से, हलका मुस्कुराकर) – अच्छा? मेरे प्रियतम को मेरा स्मरण तो  आया  अंततः ?

लेल (चंचलता से) – मैं भूला कब था! क्या करें, विश्व को चमकाते फिरना तारों जैसे यह तो हमारा भाग्य है, तभी तो तारों ही की भांति मिल रहे हैं तुमसे, एक बार अनंतकाल में… हाँ, देवी, अनंतकाल से कम नहीं लगा मुझे  यह एक सप्ताह!

प्रिलेस्ता (हँसकर) – तुम आओ और ऐसी बातें न करो – हो ही नहीं सकता! पर यह ‘डायन’ क्यों विश्वास करे तुम्हारा हर समय युवती की भांति?  (कृष्ण को देखकर) यह है तुम्हारा श्याम सा सुंदर भाई? बहुत सुना है लड़कियों से… क्या नाम है इस अनुभवी महोदय का?

कृष्ण (मुस्कुराकर) – तुम्हारी इस छुपी उर्जा और इस दृष्टि के सामने यही करता है मन कि कोई नया नाम ले लूँ ज्वालामुखी के मुख से…

प्रिलेस्ता (फिर हँसकर) – अरे! लगता है कि तुम दोनों अग्नि-देवी को और गर्म करने का मन बनाकर आए हो! सावधान! ज्वालामुखी के जाग जाने का परिणाम क्या होता है वह लेल से पूछो!

लेल (नाटकीय डर से) – वह मृत्यु आने के समान है, भाई! देवी की बाहों में मरकर सवेरे फिर जाग जाते हो पुनर्जन्म लिए शिशु की भांति, निर्दोष व स्मरणहीन…

कृष्ण – बस “दंतहीन” नहीं कहा है तुमने, फिर चलेगा!

तीनों हँसते हैं। लेल और कृष्ण प्रिलेस्ता के दोनों ओर बैठ जाते हैं।

लेल – ये आर्यवर्त से आए कृष्ण हैं ।

प्रिलेस्ता – कृष्ण?.. तुमको पहले भी देख चुकी हूँ मैं… भविष्य में जब झांका था…

कृष्ण – अच्छा? अब मिलकर भी झांक लें एक बार?

प्रिलेस्ता (कृष्ण को ध्यान से देखकर) – ऐसे भी देख सकती हूँ तुम में गहरा दुख… अब उसको और बढ़ाना चाहते हो?

कृष्ण – तब तक हृदय से दुख नहीं छुटता जब तक बढ़कर उतना बड़ा न होए कि हृदय में समा ही न सके… शांति मिलती भी है तो बस कड़वे जल के कुएँ के तल के नीचे…

प्रिलेस्ता – अब देख सकती हूँ कि तुम योग्य हो मेरी भविष्यवाणी के… श्वेत दाढ़ीवाले ऋषि के प्रकार जो बोलते हो… लेल को भी कब से कुछ बताना था… (चेली को बुलाते हुए) ज़ोर्याना! पानी लाओ!

युवती पानी से भरा एक सुंदर पात्र लाकर प्रिलेस्ता के हाथों में दे देती है, फिर चली जाती है। हाथों में पात्र लिए और आँखें बंद किए प्रिलेस्ता कुछ देर के लिए स्तब्ध रह जाती है, बस उसके होठ कुछ फुसफुसा रहे हैं। फिर आँखें खोलकर वह ध्यान से पानी को घूर रही है।

प्रिलेस्ता – तुम दोनों के स्वभावों में समानताएँ पर्याप्त हैं, सुंदर देवों…पर भाग्यों में धरती-गगन का अंतर है। एक को है भूला जाना जब दूसरे को विश्व-भर में फैलना… और इन दोनों में कौनसा भाग्य श्रेष्ठ है – उतना आसान नहीं है यह कहना… कि एक फूल को खिलते ही उखाड़ा जाना है, दूसरे को उगकर, वृक्ष बनकर उनको भी छाया देना है जो इसका मूल्य समझेंगे ही नहीं… जिसकी कहानी छोटी है, उसकी बताती हूँ पहले… हाँ, लेल, तुम भूले जाओगे… पता है, तुम्हारी यह महत्वाकांक्षा भी नहीं है कि लोग तुम्हें स्मरण रखें, किंतु… इस भूमि की जो मौज-मस्ती व सुंदरता है वह तब तक ही बनी रहेगी जब तक तुम्हारे सौंदर्य भरे गीतों को गुनगुनाती रहे… तब तक स्वस्थ जोड़ियाँ एक दूसरे का हाथ थामे ग्रीष्म संक्रांति की रात के अलाव के ऊपर से छलांग लगाएंगी… और चांदनी के सिवा कुछ न पहने सुंदरियाँ नदी में मोमबत्तियों से सजे फूलों के सेहरे बहाएंगी अपने प्रेम-पात्र की ओर… उस सब में पूर्णता तथा शुद्धता रहेगी… पर जिस दिन प्रेम की सहजता व दिव्यता खो जाए तथा प्रकृति-पूजा बंद हो जाए तब मृत्यु देवी झूम उठेगी तथा पक्षी सी मुक्त चेतना के पंख तोड़ डालेगी…

लेल – सुनने में तो डरावना ही लगता है… तुमने सही कहा, प्रेम-देव बने रहने की कोई महत्वाकांक्षा मेरी नहींहै, न कोई आपत्ति है भूले जाने से… किंतु सुरीली स्लाविक चेतना का यह भाग्य… यह सब क्यों होगा अंततः?

प्रिलेस्ता – बाहर से अंधकार तभी आ पाता है जब अंदर का दीया बुझ जाए… समुद्रों पार से जो भी त्रासदी आए उसके टिक पाने का आयोजन तो यहीं पहले से होता है… युद्धों व प्रतिदिन की कठिनाइयों के कारण स्वयं के दिव्य होने पर से लोगों का विश्वास उठेगा… फिर दक्षिण से विचित्र धारणाओं का प्रचार आकर फैलेगा जिस से लोगों की सोच बहकावे में फंसे अब तक अनजाने दास्य भाव को पालने में लगेगी… फिर मानव को प्रकृति से और आत्मा को परमात्मा से जिस गर्भनाल ने जोड़ रखा था वही कट जाएगा… यीशू के नाम!

कृष्ण (आश्चर्य से) – यीशू? पहले भी कई बार यह नाम भविष्यवाणियों में उभरा है, इतना सुना है मैंने… उसी को लेकर यह जगत घबराया क्यों लगता है? उससे पहले भी तो आ जाएंगे कई महान पुरुष। सिद्धार्थ को ही ले लो… उतना कोलाहल तो नहीं है उसको लेकर !

प्रिलेस्ता – जैसे सूर्योदय की प्रतीक्षा प्रकृति करती है सुखद मौन में, वैसे ही यह धरती प्रतीक्षारत है सिद्धार्थ के जनम की… किंतु यीशू का आना रक्त से रंगी एक भोर है… यद्यपि वास्तव में वह एक महात्मा ही है।

लेल – महात्मा से क्या हानि हो सकती है फिर?

प्रिलेस्ता (दुखपूर्वक मुस्कुराकर) – महात्मा से नहीं, उसको महात्मा कहनेवालों से… जब दास्य-भाव से पीड़ित लोगों के समाज में अचानक कोई एक अपनी मुक्ति व दिव्यता की खोज कर ले और उससे प्रेरित होकर बोले : “देखो, मैं भगवान हूँ!” तो कितनी आशा है कि लोग यह बात समझेंगे सही ढंग से? (कृष्ण से) तुम ही बताओ, तुम्हारे देश के साधु तपस्या और ध्यान करके जब यह घोषित करते हैं कि  “मैं ही परमात्मा हूँ!” तो सुननेवाले उससे क्या संदेशा प्राप्त करते हैं?

कृष्ण – यही कि मानव चेतना को ब्रह्मांड की चेतना से अपनी अखंडता का अनुभव हुआ है। अहं ब्रह्मस्मि! सिद्धांत के रूप में तो सब जानते हैं यह बात पर घोषित बस वही करेगा जिसने गहरे से जाना हो…

प्रिलेस्ता – वही तो! उसी शरीर को वे परमेश्वर समझकर उसी की पूजा तो नहीं करने लगेंगे न! और कर भी लें तो प्रतीकवादी ढंग से। कोई नहीं कहेगा  : “यही परमात्मा है जो मानव बनकर उतर आया है हमारे बीच, और शेष सब झूठे हैं!” पर यीशू का यह भाग्य देखो! उसके परमात्मा होने का सीधा सा अर्थ निकालेंगे वे लोग! और दूसरे जो न मानेंगे इस बात को उसकी हत्या कर देंगे सूली पर चढ़ाकर! और माननेवालों के नए धर्म में यीशू के जीवन की तुलना में उसकी उस मृत्यु का अधिक महत्व रहेगा, वही चित्रित करते फिरेंगे सभी स्थान। फिर ऊपरवाले का अपना यह कृत्रिम व भयानक रूप विश्व भर पर थोपने का प्रयास करेंगे शेष सारी धारणाओं व सोचों को पाप से भरे व राक्षसी ठहराकर, उन सब को नष्ट करते हुए! यीशू से उनका तथाकथित “प्रेम” महाहिंसा को सुकर्म कहने का मात्र तर्क रहेगा! ब्रह्मांड की चेतना के उदाहरण के रूप में स्वयं को देना चाहकर यीशू रह जाएगा केवल महाबुत बनकर… उसी की अपनी भूल वह होगी… अपने समाज में परिवर्तन लाने का इच्छुक वह उत्सुकता से सत्य बोलेगा समाज की “योग्यता” को बिना भांपे! उतनी भयानक मृत्यु भी इसीलिए तो होगी… और उसके अनुयायी फिर आ जाएंगे यहाँ और लेल जैसे सहज व दिव्य पात्रों के हर स्मरण का विनाश करेंगे…

लेल (आश्चर्य में हथेली से माथा पकड़के) – धारणा तो कोई भी अपनाओ, परंतु… दूसरों पर क्यों वह थोपा जाए! आध्यात्मिक सोच किसी की भिन्न हो – यह शत्रुता का कोई कारण है?!

प्रिलेस्ता – जो मानसिक तथा धार्मिक पाबंदियों से स्वयं को बांधकर अंदर दुखी रहता है, वह दूसरों को सुखी क्यों होने देगा! यही सब से बड़ा संकट है आनेवाले युग का, अंदरूनी असंतुष्टता का कारण समझने और समाधान ढूँढ लेने के बजाय उसको हिंसा में परिवर्तित होने देंगे लोग। यीशू तथा उसके पश्चात आनेवाले मुहम्मद के शिष्यों का यही रक्तरंजित दान रहेगा आध्यात्मिकता के पतन में… और कृष्ण का देश भी बचकर न रह पाएगा  उस से…

कृष्ण (कड़वी मुस्कान से) – शिष्यों से ही अधिकतर आते हैं संकट… इसीलिए “गुरु” कहलाना व्यर्थ है, कहीं अपने ही चेलों पर लज्जा न आए फिर…  

प्रिलेस्ता (हँसकर) – लज्जा से तुम तो बच गए, पर चेलों से नहीं! हाँ, “गुरु” बनकर तुमने कभी नहीं सिखाया है, तुमने जिया है पूर्णता से, बस! तुम्हारी जीवनी के तो ग्रंथ रचेंगे, मंदिर बनेंगे भी तुमको समर्पित। विस्मरण का नहीं है कोई लक्षण। किंतु तुम्हारी दिव्य जीवन-शैली से प्रभावित होकर तुम्हारे भी उस “अहं ब्रह्मस्मि” को भिन्न प्रकार से समझने लगेंगे लोग… बचपन से ही रहे तुम उतने आकर्षक और मुक्त कि मिथकों में तुम प्रारंभ से ही रहोगे आदर्श – सरूप देवता, नारायण, आदिपुरुष… सब बोलेंगे : “भगवान हुआ अवतरित, स्वयं विष्णु!”  और विष्णु के अवतार से कोई भूल हो ही नहीं सकती… कोई नहीं कहेगा : “स्वयं की दिव्यता विकसित की उसने ढेर सारी कष्ट उठाकर”… उनकी दृष्टि से तुम जनम से अतिचेतना लेकर आए थे, अपनी भूलों से सीखते आत्मविकास का अधिकार नहीं मिलेगा तुमको… तुमने जो कुछ किया हो जीवन में, “भगवान की लीला” वह कहलाएगा। बचपन की सब लड़ाइयों का भी निकलेगा  “दिव्य अर्थ”। जिन पशुओं को भी मार डाला था आत्मरक्षा करते हुए, क्रोध में या डर से, वे सब निकलेंगे “राक्षस“ जो आये थे दुष्ट योजना लेकर तुमहारा वध करने की…

कृष्ण (आश्चर्य से) – अरे! यह तो निरादर हो गया उन जीवों का!

प्रिलेस्ता (हँसकर) – मनुष्य से पशु तो बुद्धिमान हैं इस विषय में,  अपनी सुख्याति की चिंता नहीं पड़ी है उनको। तुम जीवन सीख रहे थे… और मरने-मारने का यथार्थ प्रकृति से अधिक कहाँ मिलता है देखने को…

कृष्ण –  हाँ, मैं अधिक ही चंचल था प्रारंभ से ही, अतिसक्रिय, जोश से भरा… ऐसे बच्चों से क्या नहीं होता है, विशेषकर जब स्वतंत्रता-प्रिय परिवेश में पाले जाएँ।

प्रिलेस्ता – हाँ, बुद्धिजीवियों तथा प्रकृति-प्रेमियों के परिवेश में तुम बड़े हुए जिस में बच्चे का भी परामर्श लेने से लज्जा नहीं करते थे वृद्ध, हाँ  यदि परामर्श वह अच्छा हो। किंतु… तुम्हारी जीवनी प्रतीकों से नहीं भरेगी कुछ अधिक ही? भविष्य वालों को तो सीधा अर्थ निकालने की बहुत आदत रहेगी।  कई तो सच मान बैठेंगे यह बात कि इंद्र के क्रोध से अपने लोगों को बचाने के लिए तुमने उंगली  पर वह पहाड़ उठाया था!

कृष्ण (हँसकर) – अरे नहीं! मैंने बस इतना कहा था बड़ों से कि प्रकृति के परिवेश में रहकर अदृश्य देवों की यह पूजा छोड़ो, इतना जब सौंदर्य भरा है जीवन चारों ओर तो इसी की स्तुति गाओ! चाहो तो इस पहाड़ी को ही पूजो जो इंद्र से तुम्हारे कहीं अधिक  निकट तथा विद्यमान है, जबकि इतना सारा कुछ मिलता है हम को इससे! वृद्धों ने प्यार से तब सराही मेरी बात। वर्षा भी रुक गई कुछ दिनों में तो परिहास के रूप में सब कहने लगे कि मैंने ही रुकवाई!

 प्रिलेस्ता – अच्छा हुआ वह सब, किंतु अपने असपास की प्रकृति को अधिक भाव न देकर कितने लोग जाएंगे उसी पहाड़ी का परिक्रमा लगाने, जानते हो? (कृष्ण बेबसी के भाव से सिर हिलाता है) विचित्र नहीं लगेगा लोगों को कि ऐसे चमत्कार बस मिथकों में होते हैं तथा उनको प्रदर्शित करनेवाले पात्र केवल अतीत-भविष्य में… वर्तमान में असंभव!

कृष्ण (हँसकर) – सही कहा है तुमने, उससे बड़ा तो यह था चमत्कार कि गंभीरता से मेरी बात सुनी थी मेरे उन अपनों ने जिनको बहुत सताया था बचपन से… वह मेरी नटखटी ही मेरी दृष्टि से पर्याप्त है कि मानव का बच्चा ही समझा जाए मुझको!

प्रेलेतस्ता – यही तो दिक्कत है कि स्वयं के बच्चों को देव न मानकर तुम्हारे उन किस्सों का आनंद लोग उठाएंगे। अपना बच्चा करे – तो डांट या मार!  

कृष्ण – ऐसा नहीं है कि मुझे नहीं पड़ती थी!  

प्रिलेस्ता – किंतु सिखाएंगे वही कि परमेश्वर होकर वह करे कुछ भी, पर तुम रहो सीमाओं में, नहीं तो पाप लगेगा! और थोड़े बड़े होकर वे अधिक प्रश्न न उठाएँ इसलिए जो रास-लीलाएँ तुमने रचाईं  गोपियों के साथ उनसे शारीरिकता हटवाएंगे, मधुर मिलन का मात्र आध्यात्मिक पक्ष ही प्रकाश में लाकर। संदेह न हो तो यह भी दावे से बताया जाएगा कि तुम छोटी आयु के थे उन सब घटनाओं के समय… अब सोचो जिस प्रेम-लीला से तुम्हारी राधा के मन-शरीर दोनों को ही आध्यात्म को प्राप्त होने का अनुभव मिला था, वह एक दस वर्षीय  बालक की कैसे हो देन?

कृष्ण (माथा सहलाते हुए) – समझ में नहीं आता है हँसूँ या रोऊँ… अब कुछ भी प्रतीकात्मक ढंग से देखा या समझाया जाए, कुछ तर्क तो होना चाहिए उस में! शारीरिकता से इतना बैर क्यों?!

प्रिलेस्ता – सब वस्तुओं-घटनाओं के मूल कारण मैं भी नहीं देख पाती हूँ… बस ये कई उदाहरण दिए हैं कि प्रकृति से होती जाती दूर मानव की चेतना में जीवन-विकास का सहज क्रम कितनी कृत्रिमता से समेटा जाएगा… इतना मैं कह सकती हूँ कि उन्ही यीशू तथा मुहम्मद की नई धारणाओं में अपना शरीर ही मानव का प्रथम शत्रु बनेगा… और ऐसा हो तो मानस कैसे स्वस्थ रहे! उस सब का छाप तुम्हारे अतिसुंदर भारतवर्ष पर भी पर्याप्त पड़ेगा… तुम, कृष्ण, भूले नहीं जाओगे किंतु लोगों के तुमको समझने-पहचानने में विकृतियाँ आ जाएंगी… (मुस्कुराकर) फिर भी उससे तुम्हारा यह चरित्र कम उज्ज्वल तथा आकर्षक नहीं बनेगा। इन सब विचित्र परिवर्तनों में भी तुम चेतना-पुनर्जन्म की एक संभावना बनकर लोगों को प्रेम और दिव्यता की ओर खींचते रहोगे, भला वह उनका अनुभव किया खिंचाव अचेत भी क्यों न हो!

कृष्ण मौन में उदासी और कृतज्ञता भरी दृष्टि से प्रिलेस्ता को देख रहा है।

लेल (मुस्कुराकर) – जैसा भी हो, इस बात की तो प्रसन्नता हुई है कि उस बदले हुए संसार को भी चमकाते तुम रहोगे, भाई! उसी से हम सभी की जीत प्रमाणित होगी प्रलय-युग में!

कृष्ण (भावुकता से) – तुम्हारा ही तो दूसरा नाम हूँ, भाई! (मुस्कुराकर) उतना तो अवश्य चमकाने का प्रयत्न करूँगा कि तुम भी स्मरण आओ लोगों को एक दिन…

प्रिलेस्ता (थकी हुई, पानी में देखते हुए) – बस! आगे कुछ नहीं दिखता… धुंधला सा हो गया…

कृष्ण – कैसे नहीं होगा, पहले से जो इतना झमेला है! बस, रहने दो, देवी… (हाथ जोड़कर) साधुवाद!

लेल कृतज्ञता में अपना दाया हाथ अपने हृदय पर रखकर हलका सिर झुकाता है। प्रिलेस्ता हलका मुस्कुराकर पानी का पात्र सामने धरती पर रखती है और स्वयं विश्राममुद्रा में बैठी हुई आँखें बंद कर लेती है।

लेल (चंचलता से) – बस एक ही बात समझ में नहीं आई। अधिक प्रसन्नता की बातें तो नहीं बताई  तुमने… फिर क्यों बताना चाह रही थी मुझको यह इतने दिनों से? मेरे हँसते हुऐ चेहरे से ऊब गई थी क्या?

प्रिलेस्ता (बिना आँखें खोले हँसकर हलका सिर हिला लेती है) – बहाना ढूँढ रही थी तुमसे बात करने का। यह डायन तो बिना डराए भला किसी से बात करती है क्या! तुम कम डरते हो मुझसे तो यही उपाय था। संसार का भाग्य जाए भाड़ में…

लेल (उसको ध्यान से देखकर) – मात्र नैन बंद होने से आँसू  नहीं छुपते… इतनी भी साहसी मत दिखा करो… भारी तो पड़ रहा है तुमको यह सब जानना…

प्रिलेस्ता (आँसू भरे आँखें खोलकर, कठोरता से) – अब तुम लोग जाओ! (लेल से) कल कृष्ण जा रहा है न? इसको जब छोड़कर लौटो तो आ जाना रात को…

लेल और कृष्ण भावुकताभरे मौन में उठकर प्रिलेस्ता को प्रणाम करते हैं, फिर मंच से चले जाते हैं। कुछ देर तक प्रिलेस्ता उनको जाते हुए देखती है, उसकी आँखों से आंसू बह रहे हैंफिर जैसे होश में आकर वह सिर हिला लेती है, आंसू पोंछती है।

प्रिलेस्ता (चेलियों को पुकारते हुए) – ज़ोर्याना, क्विताना! इस स्थान को ठीक करो, सामान ले जाओ! शहद की मदिरा फिर लेकर आना घर पर! आज पीना है मुझे …

उठकर मंच से चली जाती है। युवतियाँ आकर पानी भरा पात्र, डफली आदि लेकर चली जाती हैं।           

                                                       दृश्य 4

भोर का समय। स्लाविक बस्ती के बाहर का चौराहा। दूर से प्राचीन उक्राइनी लोकगायन सुनाई देता है। कृष्ण मंच पर आता है। शॉल  ओढ़ा हुआ है, कंधे पर प्राचीन प्रकार का कढ़ाई वाला थैला। रुककर प्रेमकरुणा भाव से अपने असपास देख रहा है। फिर लेल भी दोड़कर आता है।

लेल – थोड़ी सी देर लगी, एक काम था, भाई… तुम्हारा मन नहीं बदला है? रुकते और थोड़ा…

कृष्ण (मुस्कुराकर) – आजीवन भी यदि रुकता तो थोड़ा न भरता हृदय इन गीतों से! किंतु अपनी धरती की भी पुकार अद्भुत होती है… तुम भी आ जाना किसी दिन! (हँसकर) किंतु उसके लिए तुम्हें यहाँ एक महायुद्ध रचवाने की आवश्यकता नहीं है! (थोड़ा हिचककर) अभी साथ जाने को नहीं बुला रहा हूँ, क्योंकि…

लेल (भावुकता से) – जानता हूँ! अकेले में तुम्हारे इस प्रस्थान का मैं महत्व भाँप सकता हूँ, भाई… यह भी लगता है कि यदि एक वर्ष पश्चात मैं आ भी जाऊँ तो तुम नहीं मिलोगे…

कृष्ण भावुक होकर उसको गले लगाता है। फिर थोड़ी चिंता के साथ आसपास दृष्टि घुमाता है।

कृष्ण – रुसावा नहीं आई… यद्यपि जानती है कि जा रहा हूँ…

लेल (मुस्कुराकर) – यही तो काम था! उसके घर की फूलवाड़ी देखकर आ रहा हूँ… वहीं थी वह, पौधों की ओस बटोर रही थी… सुरीले आनंद में तुम्हारा नाम भी गा रही थी… एक बूंद भी दुख नहीं था उसमें! मैं स्पष्ट सा अनुभव कर पाया, भाई, वह है प्रबोधन, बावलापन नहीं…

कृष्ण (प्रसन्न होकर) – जय हो तुम्हारी, भाई, तथा तुम्हारी प्रेम भरी धरती की! अब मेरी यात्रा निश्चय होगी शुभ!

लेल – महानता में अनुपम भारतवर्ष को हमारा देना प्रेम!

दूर के गायन का स्वर थोड़ा ऊंचा बजता है। दोनों फिर गले लगाते हैं। फिर भिन्न भिन्न ओर मंच से चले जाते हैं।  

अंतिम लीला – 3

                                  यूरी बोत्वींकिन  (युक्रैन)

                                                                       भूमिका

इस नाटक के पात्रों में हिंदू देवी-देवताओं के साथ कुछ स्लाविक पौराणिक ईसाईपूर्व देव-देवता भी हैं, जिनका ऐतिहासिक आधार हिंदू चरित्रों की तुलना में कहीं कम प्रमाणित किया गया है, यहाँ तक कि कुछ वैज्ञानिक इन चरित्रों को नवरचित भी मानते हैं। कारण यह है कि ईसाई धर्म आने के बाद पुराने रूस (जो कि अधिकतर आधुनिक युक्रैन का ही नाम हुआ करता था) में पुराने धर्म-सिद्धांतों का नामोनिशान मिटाने का पूरा प्रयास किया गया था। फिर भी स्लाविक सनातनी परंपराओं की कुछ बची हुई झलकें आजकल एक नई परंपरा में विकसित हो रही हैं और इसके कार्यकर्ताओं की मूल प्रेरणा वैदिक सानातनी संस्कृति से ही आ रही है। ऐतिहासिकता का कोई दावा न लगाते हुए स्लाविक मिथकीय चरित्रों को इस नाटक में मात्र प्रतीकवादी रूप में लाया गया है।

                                                                  पात्र

कृष्ण

लेल – कुछ लोककथाओं के अनुसार पौराणिक  स्लाविक वसंत और प्रेम का देवता, जो कृष्ण की भांति एक चरवाहा था और मुरली या वीणा बजाकर लड़कियों-महिलाओं को मोहित करता था। उन्हीं कथाओं के अनुसार उसकी बहन लेल्या वसंत की देवी होती थी। दोनों के नामों को संस्कृत “लीला” शब्द से जोड़ा जाता है।

रुसावा, ज़्लाता, होर्दाना – स्लाविक जनजाति की युवतियाँ।

प्रिलेस्ता – स्लाविक वैद्य महिला।

 ज़ोर्याना, क्विताना – प्रिलेस्ता की दो चेलियाँ (निःशब्द)

भारतीय नर्तकियाँ (निःशब्द)

शक्ति देवी (काली और लक्ष्मी के रूप में)

यमराज

स्लाविक मृत्यु देवी (निःशब्द)

गायन दल

                                                        दृश्य 5

भारतवर्ष में स्थित मधुवन

मंच पर भारतीय शास्त्रीय नर्तकियों के वस्त्र पहने युवतियों का दल शास्त्रीय संगीत के साथ कृष्ण को समर्पित नृत्य प्रस्तुत कर रहा है। उनकी गति और अभिव्यक्ति में विरह की उदासी छाई हैनृत्य के मध्य में अचानक संगीत में बांसुरी का स्वर मिल जाता है। नर्तकियाँ एक क्षण के लिए स्तब्ध रह जाती हैं, फिर उनके चेहरे आनंद से चमक उठते हैं। मंच पर मस्त अवस्था में, बांसुरी बजाते हुए कृष्ण आता है, अब बिना शॉल और थैले के। आनंद की चीखों के साथ लड़कियाँ उसको घेर लेती हैं। नृत्य का शेष भाग वह कृष्ण को घेरकर कर रही हैं, उनकी तुरंत बदली हुई अभिव्यक्ति  श्रृंगार रस तथा हर्ष से भरी दिखाई दे रही है। कृष्ण मध्य में अपनी लोकप्रिय मुद्रा में खड़े बांसुरी बजा रहा है। संगीत और नृत्य बंद हो जाता है, कृष्ण नर्तकियों को प्रणाम करता है।

कृष्ण – हर्षित हुआ है मेरा हृदय, देवियो! सुखी रहो! और बात करता तुम लोगों से किंतु इस यात्री को विश्राम की है आवश्यकता।

युवतियाँ कृष्ण को प्रणाम करके सुखपूर्वक मंच से चली जाती हैं। कृष्ण प्रेम, आनंद और करुणा से कुछ देर चारों ओर दृष्टि घुमाता है। फिर भावों से भरकर फिर बांसुरी बजाने लगता है। इस बार बांसुरी की धुन में अचानक दूर से भैरवी शैली का संगीत मिल जाता है, ऊँ नमः शिवायःमंत्र गूंजता है और दूसरे कोने से मंच पर आती है शक्ति देवी काली के रूप में। बिखरे लंबे बाल, रक्तरंजित मुंह, कपालमाला, लाल साड़ी, हाथों में तलवार, आँखों में विनाशक किंतु शांत ठंडक। उसको देखकर कृष्ण बांसुरी नीचे करता है। एक पल के लिए सन्नाटा फैल जाता है।

कृष्ण – शक्ति… मैं जानता था कि राधा से पहले तुम आओगी… (उसकी बिखरी हुई अवस्था देखकर, व्यंग्य से) सजने-संवरने में उसको अधिक समय लगता है…

शक्ति (उसके व्यंग्य को नज़रअंदाज़ करके) – उसको नहीं पता है कि तुम आए हो। इन लड़कियों को भी मैंने बताने से मना किया है।

कृष्ण (दृष्टि नीचे करके) – इसका यही है अर्थ कि जानती हो हमारे इस मिलन का परिणाम…

शक्ति (एक कदम आगे रखकर, भाव से) – काश नहीं जानती! किंतु कैसे?.. इतना गहरा जब तुम में उपस्थित हूँ…

कृष्ण (फिर उसको व्यंग्य से देखकर) – जितना शिव महादेव में उपस्थित हो – उससे भी गहरा?

शक्ति – तुम्हारा क्या है उससे लेना-देना?! महायोगी के साथ एकता प्राप्त की थी मैंने!

कृष्ण (ठंडे भाव से) – एकीकरण के उस मिलन में मग्न, दोनों उस तृतीय को कहाँ देख पाए जो घायल अग्नि की तड़प में सिमटकर रक्तरंजित वेदी पर निःशब्द चिल्ला रहा था… वह थी कामदेव की निर्दोष आत्मा…

शक्ति (क्रोध से) – तुम चुप रहो! तुमने कम रक्त बहाया है?!

कृष्ण (कड़वाहट से) – बहुत बहाया… सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं को मरवाया मैंने मर्यादा भूलकर और गंदे षड्यंत्र रचाकर… अब तुम को भी श्राप देना है?

शक्ति (शांत होकर) – अन्याय को तुम हराना चाहते थे किसी भी मूल्य पर…

कृष्ण (भावुकता से) – नहीं! कम से कम तुम उन भोले से भक्तों की भांति मत बनो! अन्याय के पक्ष को बस हराना होता तो उसी पक्ष में अपनी सेना मैं क्यों भेजता, उसमें जो मेरे ही अपनों की निश्चित मृत्यु थी और उनके हाथों से इस पक्ष के योद्धाओं की भी! शांति-समझौते की मेरी कोई बात उन रक्त के प्यासों के हृदय तक जब नहीं पहुंच सकी तो एक ही शेष उपाय था – उनको उन्हीं का सार दिखलाना! वे दोनों युद्ध में जब सहायता मांगने आए थे तो मेरा यह अंतिम प्रयास था समझाने का : नहीं जुड़ पाते हो भाइयों की भांति तो मुझे भी तोड़ो! मेरे अपनों को भी लड़वा दो मुझसे! मुझे बड़ा ही निपुण योद्धा था बनना उनके विरुद्ध निहत्था खड़े होकर, ऐसा न?! (दुख में सिर हिलाता है) दुर्योधन से तो आशा कम ही थी किंतु मेरे प्रिय मित्र अर्जुन को भी कहाँ समझ में आया वह संकेत!  फिर दोनों ने अपना अपना चुनाव किया प्रसन्न होकर! यदि मैं सीधे समझाता उस समय संभवतः युद्ध स्थगित भी हो जाता , परंतु उनकी वह आपसी घृणा बढ़ती ही जाती! मेरी वह घोर निराशा फिर अचानक राक्षस बनकर मन मैं बैठ गई, फिर मैंने न केवल होने दिया, किंतु उकसाया भी!..

शक्ति – अर्जुन तो रुकने को तैयार भी हो गया था!

कृष्ण (कड़वी मुस्कान से) – निश्चय! नहीं… मुझे  उसको दिखाना था कि वास्तविक प्रबोधन कैसा होता है, वह आधा पाप करने पर नहीं आता… उसकी शंका में भी एक पाखंड था। सही भी होता वह यदि अर्जुन घबराया होता युद्ध और नरसंहार से… किंतु वध से नहीं, “अपनों के वध” से ही घबराया वह!  शेष लाखों सैनिकों की उसको क्या पड़ी थी! एक योद्धा होकर युद्ध करता वह आया था और उसका हाथ पहले कभी कांपा नहीं था। और इधर भाई तथा गुरु लोग खड़े हैं सामने… अब बड़े मानवीय हुए हो, भाई?! अब आ गई दया?! अवश्य होगा हृदय-परिवर्तन… किंतु इन्हें भी मारने के पश्चात!! (थोड़ा चुप रहकर, आह भरकर) क्या-क्या नहीं कहना पड़ा मुझे  उसको लज्जित करते हुए… (हँसकर) और अब सुनने में आया है कि एक पवित्र ग्रंथ उस बातचीत का बना है, उनेक अध्यायों का! वे कौनसी दो मूर्ख सेनाएँ रणभूमि में प्रतीक्षारत खड़ी रहेंगी उतनी देर कि दो सखाओं  का एक लम्बा गपशप पूरा हो जाए! नहीं, इस बात का तो अर्जुन को श्रेय देना बनता है, कम ही शब्दों में वह समझ गया… पर कोई आपति नहीं है, प्रबोधितों ने ही किसी भले उद्देश्य से वह पुस्तक रची होगी…

शक्ति (हँसकर) – फिर तुमको आनंद-सा भी आने लगा न, विनाशक बनकर सर्वनाश को जब चलाया?

कृष्ण (सिर हिलाकर, गहरी सोच में) – नहीं… निराशा जब सीमाएँ पार करके फूट जाए तो एक विचित्र सा उत्साह अवश्य आता है, किंतु आनंद नहीं…

शक्ति – और वह क्या शत्रुता हुई तुम्हें मर्यादा से कि धोखा कर करके दिलवाते गए जीत?

कृष्ण – वही, दर्पण दिखलाना था मर्यादा के रखवालों को… अब कोई एक कहे  “धोखे से मारो शौर्य भूलकर!” और दूसरा मारे – किसके चरित्र का अधिक हुआ खुलासा? उनकी दृष्टि में यदि मैं नारायण हूँ तो अब कुछ भी कहूँ?! और वे करेंगे?! उस राक्षसी उत्साह में मैं रुका नहीं… पर वे भी तो नहीं रुके! तुम सोच नहीं सकती हो कितनी आशा थी मेरे हृदय में कि कोई उनमें से मेरा विरोध करके अपना सम्मान और मेरा लोगों पर विश्वास बचाए!! किंतु नहीं…..

शक्ति – उतने यदि केवल परखनेवाले थे तो भीष्म पर क्यों भड़क गए उतना कि रथ का छत्र उठाकर उसको मारना चाहा?

कृष्ण (धीमे, कठोरता से) – क्योंकि वह था तुम्हारे शिव के जैसा…

शक्ति (आश्चर्य और क्रोध से) – अर्थात?!

कृष्ण – एक व्यर्थ सी प्रतिज्ञा लिए उसने भी तो कामदेव को मारा था, अपने ही अंदर… ऐसा नहीं किया होता भीष्म ने और गंगा देवी के ही वंशज राज करते तो संभवतः यह घोर संकट नहीं आता इस पूरे देश पर… अब आ गई समझ में बात? प्रेम को ठुकराने से ही आता है प्रलय!

शक्ति (क्रोध से) – फिर से वही!

कृष्ण – हाँ, बहुतों की मृत्यु का मैं कारण हूँ किंतु वे सब थे योद्धा या शत्रु, उनका मरना फिर भी कर्म-धर्म का भाग था… किंतु जो स्वयं अमृत जैसा होकर अपने उदारता भरे हाथों में ले आए प्रेम-वरदान, उसकी हत्या…

शक्ति (क्रोध से) – बस भी करो!

कृष्ण – फिर क्या… जिसने तुम्हारे अनुरोध पर तुम्हारे प्रेम के वास्ते त्यागे प्राण, बस कुछ समय पश्चात उसी के राख के ऊपर कदम रखकर गृहस्थिनी बनी तुम महायोगी की, फिर तंत्र की भी ऊंचाइयों को छूकर महाशक्ति कहलाई…

शक्ति (तलवार उठाकर) – काट डालूंगी तुम्हें!!

 कृष्ण (हँसकर) – काट दो! मुझे बड़ा पड़ता है अंतर…

शक्ति (शांत होकर, तलवार नीचे करके) – नहीं पड़ता है, जानती हूँ… इसीलिए कुछ कर नहीं सकती हूँ…

उतने में काली के क्रोध की आवाज़ पर मंच पर आता है यमराज। किंतु यह देखकर कि वह किससे बहस कर रही है रुक जाता है भयभीत होकर।

क़ृष्ण (उसको देखकर, व्यंग्य से) – अब देखो, मृत्यु देव यमराज पधारे हैं तुम्हारे क्रोध का स्वर सुनते ही। तुम क्रोध करो और कोई न मरे – यह कैसे हो सकता है! (यमराज की ओर बढ़ते हुए, हँसकर) आधा ही मर गया हूँ, भाई, आ जाओ, शेष करो!

कृष्ण को आते देख यमराज डरकर पीछे हटने लगता है, किंतु कृष्ण उसकी धोती का छोर पकड़कर उसको मंच के केंद्र की ओर खींचने लगता है।

यमराज (डरकर, छूटने का प्रयास करते हुए) – छोड़ो मुझे , दुस्साहसी कहीं के! अब मेरे लोक में भी तुम्हारी हरकतों का भय फैला हुआ है! छोड़ो! जाने दो! (छूटकर मंच से भाग जाता है, शक्ति ठहाका लगाकर ज़ोर से हँसती है)

शक्ति – बढ़ा है वास्तव में असीमता तक तुम्हारा यह दुस्साहस! पहले कभी नहीं देखा है मैंने कि कोई हँसकर खींच रहा हो अपनी ओर मृत्यु के देव को और वह अभागा भाग रहा हो डरकर! (कृष्ण के थोड़ा पास आकर) तुम्हारी आँखों में जीवन की पूर्णता तथा मृत्यु से निडरता दोनों ही है… यमराज इन आँखों से दृष्टि नहीं मिला सकेगा। वह पीछे से वार कर सकता है, कृष्ण… सावधान रहना!

कृष्ण – निश्चय ही कर सकता है… तुम्हारा ही तो सेवक है…

शक्ति (तलवार धरती पर रखकर) – इतने क्यों क्रोधित हो मुझसे, बताओ! सर्वश्रेष्ठ योगी से जुड़कर मैंने उसकी सहायता की थी महाशक्ति का परिचय संसार को देने में! कामदेव तो स्वयं ही प्रसन्न होता इसके लिए अपने प्राण देने को…

कृष्ण – प्रसन्न तो होता ही… प्रसन्नता, हलकेपन और संतुलन के सिवा उसमें तो था ही क्या?!.. न स्वयं से छुपी घृणा, न विश्व को नष्ट करने की चाह… बस जीवन-रस और आनंद बांटने की इच्छा… यही कहेंगे न, कि शिव के क्रोध से वह जला दिया गया था? झूठ! क्रोध से नहीं – ईर्ष्या से!.. वसंत के पुष्प सी वह चेतनावस्था कहाँ उपलब्ध थी क्रोधी तपस्वी को?!..

शक्ति – तुम्हें लगता है कि संहार का देवता होना कोई अयोग्य भाग्य है और बस वही उसे चुनता है जो प्रेम और आनंद से डरता हो?! ब्रह्मांड के सृजन में ही दोनों थे, अमृत और विष! तुम्हारे पुष्प से सकरात्मक देव इस दुविधा को जानकर डर गए थे! अंधेरे पक्ष का उत्तरदायित्व किसी को लेना था ही अपने ऊपर! और बस वही ले पाया जिस में न केवल सामर्थ्य सब से अधिक था, किंतु उदारता भी!

कृष्ण (आह भरकर) – महान है वह, कोई संदेह नहीं है… किंतु संसार को शिव से कौनसी सीख मिली है? यही कि प्रेम एक बाधा होता है आध्यात्मिकता के मार्ग में!! अब काम मरेगा प्रतिदिन ज्ञान व शक्ति के प्यासे सिद्धों की कठोरता से!

शक्ति – वह शिव का मार्ग था बस! अपनी यह साधना किस पर थोपी उसने?! और वैसे भी प्रेम का वरदान ग्रहण करने की क्षमता वास्तव में होती लोगों में तो क्या लगता है, शिव का उदाहरण उन्हें रोक पाता?! तुम्हें रोक पाया?!!

कृष्ण बेबसी में मंच पर रखे एक पत्थर पर बैठ जाता है दृष्टि नीचे करके। शक्ति कपालमाला भी उतारकर नीचे रखती है, फिर एक कपड़ा और छोटा सा शीशा निकालकर मुंह से रक्त पोंछती है। फिर कृष्ण के निकट आकर खड़ी हो जाती है।

शक्ति – हर कोई थोड़े ही तुम्हारे जैसा भाग्यवान होता है कि बचपन से ही प्रेम ही प्रेम मिलता रहे और मन रहे संतुलित! संतुलन से पहले प्रेम-सिद्धि असंभव है! अपने बिखरे भावों व क्रोध पर दृढ़ नियंत्रण पाने के प्रयास में शिव पर क्या बीती है वह तुम कहाँ जान पाओगे!  (थोड़ा रुककर) मेरी ही भूल थी वह कि प्रेम में पागल होकर कुछ देख नहीं सकती थी अपनी चाह के आगे! शिव तब तैयार नहीं था, एक भयानक आंधी चल रही थी उसके अंदर! वह मेरा अहंकार ही था जो काम के चरणों में गिर पड़ा! और पुष्प-सा देव मना नहीं कर पाया… अनुचित वह समय था… तुम सोचते हो कि उस घटना से मेरे हृदय को कम ठेस पहुंची?! फिर भागी क्यों वहाँ से उतना दूर और फिर स्वयं संयासिनी बनकर उस पाप का प्रायश्चित करने लगी?!.. (अचानक मुस्कुराकर) पर भाग्य का यह खेल तो देखो! कामदेव का जादू होकर ही रहा! जब शिव का असंतुलन और मेरा अहंकार नहीं रहे तब जुड़ गए हम दोनों दिव्य योग में! तुम पूछ रहे थे कौनसी सीख मिली संसार को इस घटना से, न? यही कि प्रेम-संबंध तभी पवित्र बनता है जब दोनों हों पहले से आत्मनिर्भर! अपरिपक्वता, क्रोध, वासना से मुक्त होकर ही रुद्र-पार्वती बन पाए शिव-शक्ति!!

कृष्ण सिर उठाकर शक्ति को देखता है, उसकी आँखों में पीड़ा और श्रद्धा दोनों मिली हुई हैं।

शक्ति – हाँ, शिव ने काम का वध किया है! किंतु अर्धनारीश्वर को भी तो वही प्रकट कर पाया, न?! और तुम?! तुमने तो प्रेम कभी नहीं ठुकराया, न? स्वयं को देखो! विस्थापित, श्रापित, विचलित, अकेले!.. अब भटककर यहाँ फिर आए यह भ्रम लेकर कि पूर्व समय की भांति प्रतीक्षारत मिलेगी राधा?.. मूर्ख! अब वह रही कहाँ इस लोक में!..(यह बोलते हुए शक्ति की आँखों में आँसू निकलते हैं)

कृष्ण सिर नीचे करके हथेलियों में चेहरा छुपा लेता है।

शक्ति (आँसू पोंछते हुए) किंतु एक बात तो अवश्य है तुम में, कृष्ण… इस काली को तुम्हीं रुला सकते हो…

कृष्ण (सिर उठाकर, आँसू भरी आँखों से उसको देखते हुए) – मैंने तुम्हें दुखी किया है, देवी!..

शक्ति ( रोने के प्रयास में आँखें बंद करते हुए और हाथ से कृष्ण को रुकने का संकेत देते हुए) – चुप !! यही हो तुम!.. यही तुम्हारा सार है!.. लहू-लुहान हो स्वयं का हृदय फिर भी सब की पड़ी रहती है!.. तुम्हारा क्या करूँ?!

शांत हो लेने के लिए शक्ति गहरी साँस लेते हुए इधरउधर चलने लगती है, कृष्ण फिर चेहरा हाथों में छुपा लेता है।

शक्ति (थोड़े शांत भाव से) – तुम्हारे अंदर मेरी जिस गहरी उपस्थिति की बात कही थी मैंने, उसका तुम पूरा अर्थ नहीं समझे हो… मैं वह स्त्री-रूप हूँ जो तुम्हारे साथ भिन्न-भिन्न शरीरों में रहा जनम से और उससे पहले से भी… सर्वप्रथम मैं देवकी हूँ, तुम्हारी माँ, जिसका तुम्हारे इस व्यक्तित्व में योगदान लोगों के ठीक से समझ पाने के परे रह जाएगा… बहुत फिर बोलेगा विज्ञान गर्भावस्था में माँ-बच्चे के नाते पर… कि माँ का प्रत्येक भाव, सुख-दुख, भय-साहस, हँसना-रोना कितना गहरा प्रभाव छोड़ जाते हैं बच्चे के मानस पर गर्भावस्था में ही… अब सोचो, कारागार में डाली हुई स्त्री घोर आतंक में तथा अपने इतने बच्चों के मारे जाने की अकथ्य पीड़ा में रहती हुई… वह कैसे भाव अपने पेट में पलते उस नवीन जीव के साथ बांट पाती?.. मनोविज्ञान की तुम सुनो तो अवश्य तुमको जन्मना था किसी मानसिक अस्थिरता या फिर विकलांगता के साथ!..

कृष्ण (आश्चर्य से चेहरा उठाकर) – किंतु… कैसे कर पाई तुम?!..

शक्ति (दुखपूर्वक हँसकर) – यही होती है स्त्री-शक्ति! दबते-दबते, दुखते-दुखते एक सीमा आती है अचानक जिसके उस पार भाव ही नहीं रहते हैं… विचित्र, अलौकिक स्थिरता… तथा असीम शक्ति… तब स्त्री बनती है काली!..  हाँ, तुम्हें उस कारागार के आतंक से बचाने के लिए देवकी ने मेरी ही चेतनावास्था अपनाई थी!.. तुम्हें पहचाना सा लगा सुनने में, न? वही तो होती है तुम्हारी भी मनोस्थिति जब किसी संकट का करते हो सामना! समग्र, निडर, उर्जावान, उत्साहित, बंधन-मुक्त!.. एकसाथ अतिभयानक एवं अतिसुंदर!.. देवों के भी अपने और राक्षसों के भी!.. क्या सोचा सब ने? कि तुम्हारी यह विशेषता विष्णु-अवतार होने से आई है?! घंटा! यह मेरी देन है!! माँ की देन!.. (थोड़ा रुककर, फिर हँसकर) किंतु चिंता की बात नहीं है, ग्रंथों में काली-पुत्र नहीं कहलाओगे!..

कृष्ण भावपूर्ण मौन में प्रेमश्रद्धा के भाव से आँखों में आँसू लिए शक्ति को देखे जा रहा है।

शक्ति रुककर अपने बिखरे बाल संवारकर बाँध लेती है, साड़ी थोड़ा ठीक करती है, फिर धरती पर पड़ी नर्तकियों की छोड़ी फूलों की माला उठाकर गले पर डालती है, अलग से एक फूल बालों में लगा लेती है। फिर पत्थर पर बैठे कृष्ण के पास आकर उसके सामने धरती पर उतरकर घुटनों के बल बैठ जाती है उसकी आँखों में देखते हुए। कृष्ण हाथ बढ़ाकर उसके चेहरे पर गिरे हुए कुछ बाल ठीक करता है प्यार से

कृष्ण – लक्ष्मी के रूप में कितनी सुंदर हो…

शक्ति (नरमता से) – मेरा यही रूप फिर प्रकट हुआ यशोदा में जिसको सर्वप्रथम श्रेय जाता है तुम्हारे प्रेम करने के इस अद्भुत सामर्थ्य का… संभवतः कुछ अधिक ही उसने तुमको दिया स्नेह, पर जो कठोरता लेकर तुम जन्मे थे उसको संतुलित करने हेतु वह सही था… पड़ोसियों की वह उलाहनाएँ सुनना, तुम्हारे क्रोध को देखकर घबरा जाना, बिना घबराहत को दिखाए, तुम्हारे रुठने पर भी सोच-समझकर डांटना… और फिर बड़े हो जाने और घर से छूटने पर प्रत्येक युद्ध-सामाचार को थमे हृदय से सुनना कि क्या दुस्साहस अब की बार कर डाला होगा राजकुमार बने गोपाल ने!.. गांधारी ने तो तुमको श्राप दिया था अपने पुत्रों की मृत्यु का दोष देकर, किंतु उस श्राप की पीड़ा सर्वाधिक किसने भोगी, पता है?.. जब तक एक माँ का प्रेम है जीवित इस संसार में तुम प्रेम के कौनसे पतन की बात करते हो?!..

कृष्ण की आँखों से फिर आँसू बहने लगते है।

शक्ति – फिर वे सब गोपियाँ… तुम्हें तब क्यों लगा कि युवतियों के प्रेम में शुद्ध भक्ति के साथ जो पाए तुमने स्वामित्व-भाव तथा ईर्ष्या वह उनका कोई दोष था? तुम्हारा जो स्वभाव तुम्हें मिला था माओं के परिवेश से वह था अपने में परिपूर्ण, ईर्ष्या या स्वामित्व का कोई स्थान नहीं था उसमें! किंतु सभी का वह नहीं होता! तुम्हें अपने महत्व का पक्का हो अनुभव तभी न तुम कुछ पाकर भी नहीं डरोगे उसको खोने से! यदि किसी लड़की ने तुमसे प्रेम करके जताया तुम पर अधिकार, तो क्या, तुम्हें बस जलनेवाली प्रेमिका दिखी? असुरक्षित बच्ची नहीं?! (थोड़ा रुककर) इसके सिवा एक स्पष्ट सी बात तो यह भी है कि जिसको प्रकृति ने कोख में शिशु पालने का दायित्व सौंपा है, उसके लिए प्रेम-संबंधों में सावधान रहना और प्रेमी के टिकने का अनुमान लगाना स्वाभाविक ही है। और स्त्री के प्रेम की परमावस्था का यह एक मुख्य लक्षण है कि उस में माँ बनने की चाह जाग जाती है! रास-लीलाओं की नायिकाएँ तुमने देखी उनमें, किंतु उन्होंने तुम में एक पिता भी देखा… (रुककर) फिर भी, तुम न रुठो तो ध्यान भी सीख लिया उन्होंने, अपनी कल्पना की शक्ति से तुम्हें बसा लिया अपने ही अंदर… जिसको कहेंगे : कृष्ण बंट गया, हर गोपी का हुआ अपना-अपना…

कृष्ण रोने को थामते हुए आँखें बंद करके समझने के भाव से सिर हिला रहा है।

शक्ति (रोमांचक भाव से) – फिर मैं बनी थी राधा रानी… बस वह अकेली थी जो आरंभ से ही जानती थी कि तुम नहीं रहोगे साथ… फिर भी समा गई तुममें… उत्साह भरी थी वह, बहुत ही भावुक, उस अवस्था में उसने खेल ही खेल में जो झगड़े किए तुमसे और डांटा अन्य गोपियों की बात को छेड़कर, तुम, बावले, उससे भी दुखी हुए?! (रुककर) जिसमें हो स्वामित्व, क्या नहीं वह होता है प्राण देने को तैयार? और राधा से यदि किसी ने तुम्हारे लिए जीवन त्यागने को कहा होता तो पलक की झपक भर में तैयार हो जाती!.. तुम्हारे जाने और विवाह करने के पश्चात भी…

कृष्ण फिर चेहरा हाथों में छुपा लेता है, उसके कंधे कांप रहे हैं।

शक्ति – फिर रुक्मिणी… उसे किसी व्यर्थ प्रतियोगिता में उलझना नहीं था… किंतु जिस दिन से तुम उसको बचाकर घर ले आए थे तब से वह इस पर आश्वस्त होने को तड़प रही थी कि वह तुम्हारा प्रेम ही था, न कि उदारता, चयन ही था, न कि विवशता… और तुम कितना आश्वस्त कर पाए?..  प्रेम तो करते थे उससे तुम किंतु घर भी कितना रहते थे? राजनीति में जो व्यस्त थे… फिर और रानियाँ जब आईं तो वही हुआ होने लगा मनोरंजन – मिलकर गपशप, बहस भी। जब उन्हीं के साथ रहने लगी तो पीछे क्यों छूटे?.. उस बात को भी अधिक ही कुछ गंभीरता से लिया तुमने…

कृष्ण का कंपन बंद हो जाता है, अब वह बस चेहरा छुपाकर बैठा है।

शक्ति – फिर वह श्रेष्ठ नायिका तुमहारी, जिसको देखकर तुम्हें दिखा अपना ही प्रतिबिंब… तुम्हारे ही जैसे जो लीन थी उच्च प्रेम-अवस्था में…

कृष्ण चेहरा उठाकर ध्यान से उसको देख रहा है।

शक्ति – सही पहचाना तुमने मुझको द्रौपदी में… भविष्य में फैलेगी अटपटी सी बात कि बस कुंती के बिना सोचे बोलने पर उसे बनना पड़ा पांच भाइयों की पतनी… किंतु वह दासी तो नहीं थी न, एक नवविवाहित राजकुमारी थी! और युग भी तब यह नहीं आया था की स्त्री-सम्मान की सुरक्षा न हो… कृष्णा थी वह… इसीलिए बिना कुछ बोले ही गूं जता रहा एक वाक्य बीच तुम दोनों के : हम दोनों का अभाव न हो संसार को, अपनाना होगा यह अभाव एक दूसरे का… (दुखपूर्वक मुस्कुराकर) किंतु प्रलय की गति देखो!  अनेक प्रेम-संबंधों में उलझे पुरुष को “कन्हैया” कहा जाए तो शर्माकर भी फूलेगा गर्व-प्रसन्नता से, किंतु  यदि “द्रौपदी” पुकारा जाए स्त्री को तो एक घोर अपमान!..  “कृष्णा” तो वह तुम्हारी होगी, कृष्ण… संसार के लिए रह गई  वह बस “पांच पुरुषों की स्त्री”…

अब ऐसा लगता है कि कृष्ण में रोने के लिए भी शक्ति नहीं रही है, वह बेबस होकर पत्थर से नीचे फिसलकर शक्ति के पास ही धरती पर बैठकर अपना सिर उसके कंधे पर रखता है।

शक्ति (मुस्कुराकर) – जहाँ से घूमकर आ रहे हो न, वहाँ भी तो मुझसे मिले थे… रुसावा नाम की गोरी सुंदरी… जो पेट में अब तुम्हारा शिशु पाल रही है…

कृष्ण (झटके से सीधे होकर, आश्चर्य से उसकी आँखों में देखता है) – शिशु?!…

शक्ति – तुम्हें नहीं बताया भोली ने… वह डर रही थी न कि फिर तुम्हें यह न लगे कि सूर्य बांधने का प्रयत्न हो रहा है..

कृष्ण नीचे गिरकर शक्ति की गोद में चेहरा छुपाता है।

शक्ति (मुस्कुराते हुए) – और हाँ, वह प्यारी सांवली बालिका जो राजकुमारी जैसे पाली जाएगी लेल की जनजाति से – वह भी तो मैं ही हूँगी…

कृष्ण के कंधे फिर कांप रहे हैं। शक्ति उसके बाल सहला रही है।

शक्ति (प्यार और भावुकता से) – मेरे पिता… मेरे सखे… मेरे तुम प्रेमी हो… मेरे पति… और पुत्र… मेरे सब कुछ!.. मेरे नारायण… नहीं है तुम में कोई दुष्टता… तुमने किसी की पीड़ा नहीं चाही…  समर्पित होते गए विश्व को सूर्य की भांति… इसीलिए करती हूँ तुमसे प्रेम!.. सर्वाधिक प्रेम करती हूँ तुमसे…  (अब शक्ति की आँखों में आँसू निकलते हैं)

थोड़ी देर बाद कृष्ण का शरीर शांत हो जाता है। फिर वह धीरे से उठकर खड़ा हो जोता है। फिर शक्ति को हाथ देकर उसको भी उठा लेता है। दोनों खड़े होकर एक दूसरे को देख रहे हैं। कृष्ण के अभी रोए हुए चेहरे पर एक अद्भुत अलौकिक शांति है।

कृष्ण (मुस्कुराकर) – अब मुझे  देखनी है अंतिम छवि तुम्हारी…

शक्ति (घबराकर और एक कदम पीछे हटकर) – तुम्हारा अर्थ क्या है?!…

कृष्ण – यमराज से कोई शत्रुता नहीं है। किंतु तुम जानती हो कि उसका मुख बिना हँसे मैं नहीं देख सकता… लेल के वहाँ एक ऐसी मृत्यु का संदर्भ सुना था जो स्त्री-रूप धारण करके आती है… मैं जानता हूँ कि वह भी तुम ही हो…

शक्ति (डरकर और पीछे हटती ) – तुम्हें पता भी है क्या बोल रहे हो?! वह स्त्री है वृद्ध, दुर्बल, कुरूप! तुम्हें नहीं मिलेगा आनंद उससे मिलकर!

कृष्ण – सभी डरते हैं उससे… किसी ने प्रेम नहीं किया होगा… इसीलिए कुरूप और दुर्बल हो गई है… युवावस्था भी छूट गई होगी क्योंकि किसी ने उसमें प्रेम-उर्जा नहीं भरी थी…

शक्ति – इन बातों से डरा रहे हो मुझे , कृष्ण! यदि उस रूप में मैं तुम्हें दिखी न, तो फिर कभी तुम्हारे साथ नहीं हो पाऊँगी!..

कृष्ण – तुममें ब्रह्मांड भर की जीवन-उर्जा है, शक्ति देवी, जिससे तुम माँ कि भांति पाल रही हो सब को… तुमने मुझे  अपने सहयोग की पूर्णता भी दी है… और पूर्ण प्राप्त करके अधिक मैं कैसे मांग सकता हूँ… अब जानना है तुम्हें उस पक्ष से भी जहाँ… जहाँ संभवतः कोई पक्ष नहीं है…

शक्ति – किंतु मैं चाहती हूँ तुम्हें इस विश्व में देखकर आनंदित रहना! तुम तो अपनी हँसी और अपने प्रेम से इस विश्व को बदलने की भी क्षमता रखतो हो!!

 कृष्ण – मेरी हँसी और मेरा प्रेम यहीं रहेंगे… किंतु तुम्हारा यह अमृत  मैं नहीं पी सकता हूँ और… अपने पूरे अस्तित्व से मैं प्रेम करता हूँ तुमसे!! करता हूँ प्रेम… इसीलिए तो खोने को तैयार हूँ…

कुछ देर दोनों मौन में एक दूसरे को देखते हैं। फिर एक दूसरे को प्रणाम करते हैं। शक्ति मंच से चली जाती है।

कृष्ण प्रेम भरी दृष्टि से एक बार चारों ओर देखता है, फिर धरती पर गिरी अपनी बांसुरी उठाता है। उतने में मंच के जिस कोने मे शक्ति चली गई थी उससे मृत्यु देवी जाती है। उदास, उतरे रंग का चेहरा, ऊपर से नीचे तक एक काले कपड़े में लपेटी हुई। उसको देखकर कृष्ण के चेहरे पर एक अलौकिक चंचलता की मुस्कान खिल जाती है और वह बांसुरी बजाने लगता है। अचानक बांसुरी की धुन सुनकर मृत्यु मंच के मध्य में रुक जाती है, आधी बंद आँखें खुल जाती हैं, भावहीन चेहरे पर आश्चर्य सा भाव जाता है जो धीरेधीरे आनंद में बदल जाता है। बांसुरी की धुन में दूसरे संगीतयंत्रों के स्वर भी मिल जाते हैं और मृत्यु अचानक नृत्यात्मक ढंग से हिलने लगती है। फिर वह काला कपड़ा खोलती है और कढ़ाई से सजी लंबी सफ़ेद कमीज़ पहनी, लंबे सुनहरे बालोंवाली एक सुंदर युवती में बदल जाती है। आनंद के भाव से वह नृत्य करने लगती है बांसुरी बजाते हुए कृष्ण के चारों ओर मंडराते हुए। जब उसका नृत्य अपने चरम् बिंदु के निकट आता है तो संगीत थोड़ा धीमा हो जाता है और कृष्ण बोलता है।

कृष्ण (आनंद से मृत्यु को देखते हुए) – बच्ची जैसी पवित्र और सुंदर है यह तो!.. इससे भयभीत न रहकर यदि लोग मात्र अपनी दृष्टि बदल लें तो मस्त रहेगा जीवन भी! (आगे दर्शकों की ओर देखकर बोलता है) सुखी रहो, अद्भुत संसार! मैं धन्य हूँ! क्षमा करना यदि पड़ा हूँ तुम पर भारी! रख लो बदले में यह मेरा हलकापन! प्रिय भारतवर्ष… सब ज्ञान की खोज में आएँगे यहाँ… किंतु तुम प्रेम ही देना सर्वप्रथम! मेरे न होने पर भी लीला रची जाए!.. शक्ति-देवी… मेरी सर्वस्व… कहूँ ही क्या… शब्दों में वह नहीं है जो हृदय में है, जो है इस आनंदपूर्ण प्रस्थान में, मृत्यु के सुंदर नृत्य में!.. इतना कहूँगा बस कि फिर नहीं मिलेंगे तुम से… हर मिलन में आवश्यकता होती है दो की… और हम हैं एक!..

कृष्ण की बांसुरी धरती पर गिर जाती है। कृष्ण मृत्यु की ओर मुड़कर मुस्कुराते हुए बाहें खोलता है। मृत्यु नाचते हुए उसकी बाहों में दौड़ आती है। अचानक एक क्षण में संगीत रुक जाता है और रोशनी बुझ जाती है। अंधेरे और सन्नाटे में कृष्ण की अंतिम हँसी सुनाई देती है जो धीरेधीरे बुझती है

कुछ देर बाद रोशनी जल जाती है। मंच पर गायकों का दल खड़ा है। वे गोविंदम अदिपुरुषमका गायन करते हैं।

इति

यूरी बोत्वींकिन  (युक्रैन)

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