पूरे वृंदावन में बादलों का एक भी टुकड़ा न था।
सोना घोष अपनी झकी हुई कमर के साथ सूरज की तेज़ धूप में चली जा रही थी, भजनाश्रम की ओर, रुकते-बैठते, धीरे-धीरे चलते। वह घड़ी भर के लिए किसी पेड़ की छाँह में साँस लेने बैठ जाती, तो उसके मन में आवाज़ें उठतीं, ‘हे राधे, ये कौना-सा दिन दिखाया तूने। अभी और कितना और कब तक चलना है इस काया के लिए?’
पर इन उठती हुई आवाज़ों का कहीं से कोई जवाब नहीं मिलता। उसके अपने ही ख़याल हवा में घुमते-घुमते वापस लौट आते उसी के पास। वह क्या करे इन सवालों का? इन सवालों का कोई जवाब उसके पास नहीं था, लेकिन ये सवाल थे जो दिन में न जाने कितनी बार उसके ज़हेन से टकराते। उससे पूछते रहते कि उसे और कितना चलना होगा और कब तक चलना होगा? पर इन सवालों का उसे कोई जवाब नहीं मिलता। उसका जी करता कि वह किसी पेड़ की छाया तले बैठ जाए और फिर वहाँ से कहीं न जाए। कब तक वह इसी तरह रोज़ सूरज की तेज़ धूप से बचते-बचाते चलती रहेगी? कब तक वह हाँफ-हाँफ कर भजनाश्रम में पहुँचती रहेगी? कब तक दो मुठ्ठी चावलों के लिए वह इसी तरह भजनाश्रम में आती रहेगी? यही धीरे-धीरे चलते-चलते सोच रही थी कि पानू बाला की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, ‘जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा माई, ज्यादा देर हो गई तो गेट बंद हो जाएगा।’
यही धीरे-धीरे चलते-चलते सोच रही थी कि पानू बाला की आवाज़ उसके कानों में पड़ी, ‘जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा माई, ज्यादा देर हो गई तो गेट बंद हो जाएगा।’
पानू बाला की आवाज़ सुनते ही सोना घोष की चाल थोड़ी तेज़ हो गई। भजनाश्रम का गेट बंद होने का मतलब उसे पता था। गेट बंद हो गया तो उसे टोकन नहीं मिलेगा और टोकन न मिलने का मतलब था चावल न मिलना और तब यमुना जी का पानी पीकर ही उसे रात गुज़ारनी पड़ेगी।
उसके पाँवों में थोड़ी तेजी-सी आ गई।
एक वैभवपूर्ण इतिहास था सोना घोष का, जिसे वह कभी-कभी याद करती थी, लेकिन अब उसे अपने उस इतिहास से कोई मोह नहीं था। उसका स्वामी, उसके माँ-बाप, सब धुँधले होकर गायब हो गए। जो कुछ उसने तीस सालों में सहेजा था, सब खत्म हो गया। अब तो केवल तपते हुए दिन थे और तपती हुई रातें थीं। अपने स्वामी की मृत्यु के बाद वह घर से क्या निकली गोया लोगों के जीवन से ही निकल गई। रिश्तेदारों के अनेक घर, भाई-बहनों के अनेक घर, पर किसी ने भी मुड़कर उसकी ओर नहीं देखा। किसी का उसके प्रति कोई आकर्षण नहीं था। कोई मोह नहीं था। अब बस उसके मन में एक चाह-सी रह गई थी कि जो कुछ आज है, वह ठीक-ठाक चलता रहे। कम से कम उसमें कोई रुकावट न हो। भजनाश्रम से उसे रोज़ दो मुट्ठी चावल मिलता रहे। वह यमुना जी का पानी इसी तरह पीती रहे और वह अपनी कोठरी में अपने जीवन के अंतिम पड़ाव को चुपचाप पार कर ले।
आज उसे देर हो गई थी। देरी का कारण एक छोटी-सी झपकी थी। सोना घोष को भजनाश्रम में चार बजे पहुँचना था और इस समय सवा चार बज रहे थे।
‘जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा माई, देर हो गई तो टोकन बाबू चला जाएगा। टोकन नहीं मिलेगा।’ पानू बाला ने कहा।
‘चलती हूँ बेटा,’ उसने अस्फुट-से स्वर में पानू बाला से कहा और अपनी वृद्ध काया को आगे बढ़ाने की हिम्मत जुटाने लगी।
सत्तर वर्ष की उम्र रही होगी। झुकी हुई कमर और हडि्डयों में सिऱ्फ खाल चिपकी-सी रह गई है। चेहरे पर झुर्रियाँ थीं जिनमें उसके संघर्ष थे, उसकी सफलताएँ थीं, असफलताएँ थीं। कभी अपने घर की रौनक रही होगी सोना घोष। अपने घर के केंद्र में रही होगी। पूरे घर को सँभाले रखा होगा। पर आज एकदम अकेली है। न कोई उनसे मिलने आता है, न उन्हें किसी से मिलने की ख़्वाहिश है। अब तो बस वह है। उसके साथ वाली माई पानू बाला है। भजन है। भजनाश्रम है। दो मुट्ठी चावल हैं। उसकी बीमारियाँ हैं। उसके दु:ख हैं। बड़ी-बड़ी रातें हैं। बड़े-बड़े दिन हैं। टूटे हुए छपर वाली उसकी कोठरी है जहाँ रात की गर्म हवा उसे चैन नहीं लेने देती और दिन की लू उसे झुलसा देती है।
सूरज अपने पूरे ताप के साथ अपकी किरणें पृथ्वी के इस छोटे-से टुकड़े पर फेंक रहा था। गर्म हो रहा था वृंदावन उसके ताप से। झुलसा देने वाली धूप थी।परिंदे तक पेड़ों की छाँह में दुबके हुए थे। ज़मीन आग उगल रही थी। पाँवों में उसकी गर्मी महसूस हो रही थी।
‘माई…’ साथ चल रही माई का अस्फुट-सा स्वर सोना घोष ने अपनी कानों के करीब महसूस किया।
‘क्या है…?’ उसने आँखों ही आँखों में पूछा।
‘दीपांकर आया है, कलकत्ता से मिलने।’
‘दीपांकर…!’ उसने कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहा।
‘कब…कब आया है?’
उसके स्वर में उल्लास-सा आ गया।
‘आज ही आया है।’ पानू बाला ने ख़ुश होकर उसे जानकारी दी।
‘कहाँ है…? उसका उल्लास और बढ़ गया।
‘भजनाश्रम में राह देख रहा होगा तुम्हारी।’
‘किसने बताया तुमको?’ माई के चेहरे पर उमंग की रेखाएँ उभर आई थीं।
‘बाबू ने सुबह बताया था। शाम को भजनाश्रम में आने के लिए कहा है।’ पानू बाला ने बताया।
न जाने कौन-सा जादू इन शब्दों में था। माई का ख़ून दौड़ने लगा। माई ने अपना पसीना अपनी मैली साड़ी से साफ़ किया और चाल में तेज़ी ले आई। चेहरे पर वात्सल्य की छाया आ गई।
बारह बरस का रहा होगा दीपांकर, जब उसकी माँ छोड़कर चल बसी थी। कुछ समय बाद दीपांकर के पिती तपन की मृत्यु भी कारख़ाने में काम करते हो गई। परिवार में कोई नहीं बचा था जो दीपांकर की देखभाल करता, उसे बड़ा करता। दर-दर की ठोकरें खाता था गाँव में। सोना घोष ने उसे सहारा दिया और वक़्त-बेवक़्त उसे खाना दे देती। पता नहीं कब दीपांकर ने उसी को अपनी माँ समझ लिया था। उसी ने दीपांकर को बड़ा किया था, हज़ार दु:ख सहते हुए। दीपांकर जब बड़ा हो गया तो चला गया कलकत्ता, नौकरी के लिए। गाँव में सोना घोष का भी कोई नहीं था। पहले स्वामी, फिर बहू, फिर बेटे के मरने के बाद उसके ऊपर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ा था। दीपांकर के जाते ही वह अकेली रह गई। खेत-ज़मीन सब साहूकार के पेट में समा गए थे। मिदनापुर में वह किसके सहारे रहती? दीपांकर के जाते ही सब कुछ ख़त्म हो गया था। किसी ने दया करके वृंदावन का रस्ता दिखा दिया और वह आ गई यहाँ वृंदावन में भजन करती माइयों के बीच। जब वह यहाँ शुरू-शुरू में आई तो दीपांकर हर साल आया करता था, पर धीरे-धीरे उसका आना कम होता गया।
भजनाश्रम में गूँजते ढोल, मँजीरे, खड़ताल की आवाज़े दूर से ही सुनाई दे रही थीं। ज्यों-ज्यों वह अपने लड़खड़ाते क़दमों से भजनाश्रम के पास पहुँच रही थी, ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे…’ की आवाज़ें तेज़ होकर उसके दुखते कानों में पड़ रही थीं।
भजनाश्रम के द्वार पर उसकी आँखे दीपांकर घोष को ढूँढ़ रही थीं, लेकिन वहाँ सन्नाटा था। दीपांकर घोष कहीं नहीं था। भजनाश्रम की दो-तीन माइयाँ वहाँ रखे कूलर से ठंडा पानी पी रही और अपने ठंडे हाथ को अपने सर पर रखती थीं और सूरज की तेज़ गर्मी को उस ठंडे पानी से चुनौती दे रही थीं।
बड़ा-सा भजनाश्रम का अहाता था। हरे राधे, हरे कृष्ण के भजन होते थे वहाँ। सैकड़ों माइयाँ थीं उस अहाते में। उनकी आँखों में भिक्त और उल्लास कम, बेचारगी और उदासी ज्यादा दिखाई देती थी। छोटे-से अहाते में एक चलता-फिरता बँगला था। माइयों का बेचैन-सा दिल धड़कता था कि कहीं कुछ न हो जाए। परेशान और उदास चेहरे। उन चेहरों पर उम्र साफ़ पानी की तरह दिखाई देती थी। अपना घर, अपने बच्चों, अपने गाँव, अतीत की स्मृतियों को सँजोए वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर थीं। अपने अतीत के प्रति आर्कषण भी और गुस्सा भी, नफ़रत भीऔर आक्रोश भी। रह-रहकर उनके मन में एक ही सवाल उठता था कि क्यों हुआ ऐसा उनके साथ? कृष्ण कन्हैया! तूने भी कुछ नहीं किया। तेरा ही आसरा था। क्यों हुआ हमारे साथ ऐसा?
‘लड़का आया था…?’ गेट के अंदर क़दम रखते ही पानू बाला ने टोकन देने वाले बाबू से पूछा।
‘न, कोई नहीं आया।’ कहकर बाबू ने उन दोनों को टोकन दे दिया और कहा, ‘आज फिर देर हो गई।’
‘क्या करें बेटा, भरी दोपहरी में थोड़ी नींद आ गई।’ सोना घोष ने अपनी काँपती आवाज़ से स्पष्टीकरण दिया गोया उसने कोई बहुत बड़ा अपराध कर दिया हो।
‘पंड़ित देख लेगा तो नाराज़ होगा, जाओ…अंदर, जल्दी जाओ।’
‘पर सुबह तो तुम कह रहे थे कि लड़का शाम को आएगा।’ पानू बाला ने उसकी सुबह की बात को दोहराते हुए कहा।
‘हाँ, शाम को सात बजे आएगा। अभी तो अंदर जाओ, भजन शुरू हो चुका है।’ उस बाबू ने कहा।
सोना घोष ने अपनी रबड़ की चप्पलें भजनाश्रम के बाहर फ़र्स पर उतारीं। फ़र्श कम तवा ज्यादा था। आग बिखरी हुई थी फ़र्श पर। चप्पलें उतारकर सोना घोष भी उन भजन करती माइयों में शामिल हो गई। वहाँ सभी माइयाँ समूह में भजन गातीं पर सोना घोष उन भजनों को दोहरा न पाती, चुपचाप होंठ हिला देती। राधे कृष्ण की मूर्तियों को वीरान आँखों से देखते हुए भजन करती हर माई का चेहरा पतझड़ के पेड़ों की तरह लग रहा था। उन आँखों में जहाँ पहले सपने थे, आकांक्षाएँ थीं, अब उन आँखों में सूनापन था।
शाम सात बजे भजन पूरा हो गया। सोना घोष जब चावल लेने के लिए बाबू के पास गई तो उसने बताया कि कोई लड़का उनसे मिलने आया है।
दीपांकर…! नाम गूँजा सोना घोष के ज़ेहन में।
‘कहाँ है?’ उसके स्वर में उत्सुकता थी।
वह देखो, सामने खड़ा है।
टोकन देने वाले बाबू ने सामने की ओर इशारा करते हुए कहा।
सोना घोष ने सामने देखा। पच्चीस-तीस साल का गोर-सा लड़का था। सुंदर-सा चेहरा। काले बाल। भावपूर्ण आँखे। बड़े स्नेह से वह सोना घोष की तरफ़ देख रहा था।
‘लो, आ गया तुम्हारा पोता, जिसका तुम्हें बेसब्री से इंतजार था।’ पानू बाला ने माई का हाथ पकड़ते हुए कहा।दीपांकर ने आगे बढ़कर माई के पैर छुए। सोना घोष ने ढेरों आर्शीवाद दिए। बड़े-श्नेह से उसकी पीठ पर हाथ फेरा।
‘बहुत दिन लगा दिए इस बार आने में।’ सोना घोष की आवाज़ में एक उलाहना था।
‘हाँ अम्मा, इस बार बहुत दिन हो गए।’ उसके स्वर में थोड़ा पश्चात्ताप था।
‘अच्छा किया तू आ गया, बहुत दिनों से तेरे ख़याल आ रहे थे।’
दीपांकर कुछ नहीं बोला। चुपचाप सोना घोष को देखता रहा। कुछ देर चुप रहकर उसने पूछा, ‘तबीयत कैसी है तुम्हारी?’
‘अब मेरी तबीयत का क्या है?अब तो चलने की तैयारी है। देखो, कब तक राधा मैया यहाँ रहने देती हैं? पानू बाला ने बुझते स्वर में कहा।
‘ऐसा क्यों कहती हो अम्मा!’
‘और क्या कहूँ बेटा?अब सब कुछ तो ख़त्म हो गया। इस तरह के दिन भी गुज़ारने पड़ेंगे, कभी सोचा नहीं था।’ कहते-कहते उसकी आँखें डबडबा गइंर्।
दीपांकर चुप रहा, कुछ बोला नहीं।
‘बहू कैसी है?क्या नाम है उसका? मैं तो नाम ही भूल गई।’ सोना घोष ने किसी अतीत को याद करते हुए कहा।
‘तारा…तारा नाम है उसका ।’ दीपांकर ने अपनी पत्नी का नाम बताया।
‘हां, तारा।’ सोना घोष के चेहरे पर उल्लास-सा आ गया।
‘कैसी है वह?’
‘ठीक है।’ उसने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।
‘और बच्चे…’
‘वह भी ठीक हैं।’
उसकी बातों को बीच में टोकते हुए पानू बाला ने कहा, ‘बहुत कष्ट है माई को, यहाँ से ले जाओ इसे अपने साथ।’
‘अब हम कहाँ जाएँ, राधे कृष्ण को छोड़कर, यमुना जी को छोड़कर। अब यही है सब कुछ।’ सोना घोष ने दीपांकर को पानू बाला के बारे में बताया।
दीपांकर ने पानू बाला को नमस्कार किया तो पानू बाला का गला भर आया।
‘खुश रहो।’ उसने कहा।
‘आप कब से हैं यहाँ?’ दीपांकर ने पानू बाला से पूछा।
‘हम…!’ पानू बाला ने हैरानी से पूछा।
‘हाँ, आप।’ दीपांकर ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
पानू बाला हैरान रह गई कि कोई उससे भी कुछ पूछ सकता है।
‘हम तो बचपन से हैं यहाँ।’
‘बचपन से…!’ दीपांकर ने कुछ हैरानी से कहा।
‘हाँ, बचपन से। बचपन में ही विधवा हो गई, तब से है यहाँ।’
‘ओह…!’ दीपांकर को कुछ-कुछ समझ आया।
‘कहाँ था घर…?’
‘कलकत्ता में…’
‘तो फिर यहाँ कैसे?’
‘स्वामी के मरने के बाद। बहुत काम करता था वहाँ, लेकिन स्वामी के मरने के बाद सब ख़त्म हो गया। सबको छोड़कर चली आई यहाँ।’
पानू बाला ने अपना थोड़ा-सा अतीत बताया।
‘कहाँ रहती हैं?इसी भजनाश्रम में…?’ दीपांकर ने पूछा।
‘नहीं, किराए की कठोरी में माई के पास।’ उसने बताया।
उसके कटे बालों को देखकर दीपांकर ने पूछा,’अपने बाल क्यों कटवाए?’
‘आश्रम के पंडित ने बाल कटवाने के लिए कहा।’ उसने बताया।
‘क्या कहा…?
‘यही कि बाल कटवा लो तभी भजन करने की इजाज़त मिलेगी, तो बाल कटवाना पड़ा न!’
‘पंडित ने ऐसा क्यों कहा?’ दीपांकर ने जानना चाहा।
‘यहाँ वृंदावन में सब तरह के आदमी हैं। बालों से चेहरा सुंदर दिखता है, इसलिए पंडित ने बाल कटवाने के लिए कहा।’
‘अच्छा!’… दीपांकर को जानकर हैरानी हुई।
‘सब राधे कृष्ण की मूर्तियों पर ही पैसे चढ़ाते हैं। यह नहीं कुछ पैसे हमें भी दे जाएँ, कुछ चावल हमें भी दे जाएँ।’ उसने अपनी यातना को दबे स्वर में बताया।
दीपांकर चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा।
‘ऐसा नहीं हो सकता कि हमें भजन करने के लिए भरी दोपहरी में दो-दो कोस से न आना पड़े। हमारी कोठरी में ही हमें दो मुट्ठी चावल मिल जाया करें।’ उसने बहुत ही बोझिल मन से दीपांकर को अपने मन की बात बताई।
‘हो तो बहुत कुछ सकता है।’ दीपांकर ने मन ही मन सोचा, ‘पर करे कौन?’
‘अम्मा, यह लाया हूँ तुम्हारे लिए।’ कहते हुए दीपांकर ने एक बैग सोना घोष को दिया। उसमें शायद कुछ कपड़े थे सोना घोष के लिए। दो चादरें थीं, कुछ फल थे और शायद कुछ और भी।
सोना घोष ख़ुश हो गई उस बैगको लेकर। उसे लगा कि आज भी उसका कोई है, उसका अपना, जो उसके बारे में सोचता है।
‘बहुत ख़ुशकिस्मत हो माई कि तुम्हारा दीपांकर तुम्हारे लिए कुछ लाया है।’
पानू बाला ने माई की ओर देखते हुए कहा।
पर दीपांकर ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। वह क्या करे, जिससे उनके कष्ट दूर हो जाएँ? वह कर भी क्या सकता है? वह खुद तो यहाँ रहता नहीं है। जब इनके घरवालों ने ही इनके कष्टों से मुँह फेर लिया तो भजनाश्रम के लोग क्या करें?
उसे चुप देख पानू बाला ने कहा, ‘कुछ नहीं कर सकते तो हमारा एक छोटा-सा काम कर दो।’
‘काम…कौन-सा काम?’ दीपांकर ने हैरानी से पूछा।
‘अगली बार आओ तो हमारे लिए एक पंखा लेते आना।’
‘पंखा…!’
‘हाँ, पंखा।’
‘यहाँ ख़ूब गर्मी लगती है।’ पानू बाला ने बताया।
‘अच्छा, लेता आऊँगा।’ दीपांकर ने हामी भरी।’
‘रज़ाई…’
‘हाँ, रज़ाई, यहाँ सर्दी भी ख़ूब लगती है।’
‘अच्छा, वह भी लेता आऊँगा। चलो, मैं तुमको तुम्हारी कोठरी तक छोड़ दूँ।’ दीपांकर ने विदा लेते हुए सोना घोष से कहा।
‘नहीं, मैं चली जाऊँगी। तुम आ गए, बहुत अच्छा किया। तुमको देखकर बहुत अच्छा लगा, तुम खुश रहो।’ सोना घोष ने आर्शीवाद देते हुए कहा।
दीपांकर चलते समय जब सोना घोष के पैर छूने लगा तो उसका गला भर आया। बड़ी आँखों से आँसू टपकने लगे अविरल। आँखों से बहते आसुओं कोपोंछते हुए उसने रुँधे गले से कहा, ‘अगली बार बहू और बेटे को भी लेते आना। बहुत दिन हो गए उन्हें देखे। अब पता नहीं और कितने दिन चले।पता नहीं यमुना मइया कब बुला लें अपने पास।’
कहते-कहते वह रो पड़ी। उसने दीपांकर के आगे सिर झुकाकर झुर्रियों-भरे दोनों हाथ जोड़ दिए और कहा, ‘अबकी इतनी देर मत करना। जल्दी आना। तुम्हें देखने के लिए ज़िंदा रहूँगी। राधे कृष्ण तब तक साँस चलाएँगे मेरी।’
दीपांकर कुछ नहीं बोला।
उसे चुप देख पानू बाला ने कहा, ‘चल माई, ज्यादा देर हो गई तो अँधेरा हो जाएगा। अँधेरा ज्यादा हो गया तो ठीक से दिखाई नहीं देगा। और फिर दो कोस का सफ़र तय करके वापस अपनी कोठरी में भी पहुँचना है।’
पानू बाला से यह सुनते ही सोना घोष चल पड़ी अपनी कोठरी की तरफ़ दीपांकर का थैला लिए।
दीपांकर उसे कोठरी की तरफ़ जाते तब तक देखता रहा, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गई। शाम ढल चुकी थी। सूरज यमुना जी में डूब चुका था। रात आने से पहले का अँधेरा था, जो थोड़ी ही देर गहरा हो जाएगा।
भजनाश्रम के बाहर सड़क आकर दीपांकर ने देखा कि इस अँधेरे में भी वृंदावन के मंदिरों के बुर्ज चमक रहे थे। सोना घोष और पानू बाला के दु:खों से ऊपर उठकर।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.