चारू तुम भी आ रही हो न हमारे साथ !’’ लंच ब्रेक में उसकी मेज की ओर आती हुई मालती ने पूछा था
‘‘कहां भाई ?’’ उठते हुए पूछा उसने
‘‘ल्यो…इनको कुछ खबर ही नहीं रहती – अरे भई, इस बार अपनी गैंग ने कुल्लू का दशहरा देखने का प्लान किया है— अभय का कन्फर्म था तो लगा तू भी साथ होगी —’’
‘‘माने ?’’ उसने त्योरी चढ़ायी ‘‘अभय का कन्फर्म था, तो मेरा कैसे हो गया…।’’
‘‘तू…उससे अलग है क्या ?’’
‘‘फिलहाल अलग ही हूं ’’
‘‘मूड क्यों खराब है देवीजी का ,साथ नही आना चाहती , प्रायवेसी चाहिए, तो ठीक है — पर बता तो दो तुम दोनो कहां जा रहे हो — ?मालती ने आँखें चमकाते हुए कहा
मालती का आँखें चमकाना चारु को बहुत बुरा लगा ‘‘मूड खराब है नहीं — तुम खराब कर रही हो अपनी बातों से । मैं कहीं किसी के साथ नहीं जा रही !” उसने तीखे स्वर में जवाब दिया
‘‘छुट्टियां यों ही स्पॉयल करने का इरादा है क्या ” मालती उसे यूँ ही नहीं छोड़ने वाली थी।
‘‘नहीं …स्पॉयल नहीं होंगी छुट्टियाँ । मैं गोरखपुर जा रही हूं छुट्टियों में… अपने गाँव। “
‘‘गोरखपुर ….!’’ ये अभय की चौंकती आवाज थी, जो पास आते हुए उसकी बात सुन चुका था।
‘‘ हां , दशहरे में पापा हर बार गोरखपुर जाते हैं । इस बार मुझसे भी कहा है आने के लिए । कई वर्षः से नहीं गई मै .।’’
‘‘गोरखपुर जाओगी तुम..?’’ मालती ने आश्चर्य से आँखें फैलाई
‘‘हाँ , पापा का कहना है अभी जब तक मेरी शादी नहीं हुई है तब तक तो मैं आ ही सकती हूँ। फिर एक बार शादी हो गई तो लड़कियों का मायका ही छूट जाता… भला गाँव जाने का कहाँ होश रहेगा। “
‘‘पर यार . . . !’’ अभय के स्वर में निराशा के साथ थोड़ा गुस्सा भी छलक गया ।अजीब बात है, चारु ने अपना प्रोग्राम बना लिया और उससे डिस्कस भी नही किया। कभी कभी वो बिल्कुल नहीं समझ पाता चारु को। पल भर में इतनी पास लगेगी और दूसरे ही पल अजनबीयत से भरी हुई एकदम औपचारिक । अब यही देखो, गाँव जा रही और भनक भी न लगने दी। पता नहीं फ्लाइट का टिकट कराया है या, ट्रेन का।
लंच ब्रेक ओवर हो गया था। सब अपने अपने टेबल की ओर चल दिये। अभय का फूला मुंह देखकर चारु समझ गई थी कि, उसे बुरा लगा है। अब लगा है तो लगा करे। हर वक्त वो वैसे नही रह सकती जैसी उसे पंसद है। दोस्ती में स्पेस का भी अपना महत्व है। हर बात उसे बताना जरुरी है ऐसा कोई एग्रीमेंट तो नहीं हुआ था उनके बीच। वह जब जाती तो बता तो देती ही। अब उसे कोई प्रोग्राम बनाने से पहले ही क्यों बताए, डिस्कस करे। फिर अभी तय भी नहीं है कि, वो ये सब करेगी भी। क्या पता वो जाये ही न कहीं भी। और क्या पता अकेले ही चल पड़े कहीं भी।
उसके गोरखपुर जाने के नाम पर सभी कैसे तुनक गये थे। आख़िर इसमें आश्चर्य करने जैसी क्या बात थी? दरअसल उन्हें चारू का ये फैसला किसी भी तरह हजम नहीं हो रहा था । आखिर वो भी तो उन्हीं में से एक थी जो उन्हीं की तरह ये मानती आयी थी , कि उन्हें अपने पैरेन्ट्स की तरह जिंदगी नहीं गुजारनी। एक अदद नौकरी पाने तक पढ़ते रहो फिर , शादी कर लो खूब ठोक बजाकर । शायद दुनियां में कहीं भी इतने स्टूपिड तरीके से विवाह नही होता होगा। जैसा भारत में आज भी प्रचलित, प्रासंगिक है । यहाँ आप पढ़ लिखकर कितने भी ऊँचे पद पर पहुँच जाओ बड़ी बड़ी कंपनी चलाओ , अपने कार्य क्षेत्र के बड़े बड़े फैसले लो, लाखों करोड़ों कमाओ पर विवाह के मामले में आपसे अपेक्षा यही होती है कि, आप इस मामले को अपने अभिभावको पर छोड़ दें। भारत में एक विवाह योग्य लड़का लड़की के लिए मात्र उसके माता पिता ही चिंतित नहीं होते बल्कि सारे रिश्तेदार, पड़ोसी जान पहचान का हर व्यक्ति, यहाँ तक कि, घर में दूध देने वाला , सब्जी देने वाला ,घर की बाई भी चिंतित रहते। लड़के के लिए अगर कोई रिश्ता आता तो सभी को दिलचस्पी हो जाती। सभी को लड़की की तस्वीर में देख रहे नाक नक्श पर टिप्पणी करने का अधिकार होता। बस लड़का या लड़की की राय सबसे बाद में ली जाती।
चारु ने कितने ऐसे जोड़े देखे हैं, जिन्हें देख वह हैरान होती रही है। बचपन में उसे याद है, उसके पड़ोस में उसकी सहेली के बब्बा की । लम्बे, गोरे कॉलेज में प्रोफेसर थे समीरा के बाबा। दर्शनीय व्यक्तित्व, ज्ञान से दीपदीपाता चेहरा। पर दादी थीं ठगनी सी सांवली मोटी। पापा के दोस्त परिगत अंकल काले नाटे से ,पर उनकी पत्नी रुपाली आंटी जैसे ब्यूटी क्वीन । ऐसे बेमेल शादियां खूब सक्सेज होती देखी है । विवाह , बच्चे, बच्चों का कैरियर, उनकी शादी . . . . नाती-पोते और जिंदगी खत्म! विवाह घूमना, फिरना, दुनिया देखना . . . . . ये सब स्थगित मोड पर . . . .। पर उन्हें वैसे नहीं जीना! जीवन आज में स्थित है ! आज की पीढ़ी की तरह वह भी आत्मनिर्भर सोच की लड़की थी। आत्मनिर्भरता की पहली शर्त आर्थिक स्वतंत्रता होती है . . . उसे बखूबी पता था ! अपने जीवन को चलाने के लिए उसे किसी और पे या फिर किस्मत पे नहीं निर्भर रहना ! पैसा कमा सकना एक बडी लियाकत है ,इस बात पर कोई संदेह नही । अपना पैसा एक अलग तरह का वजन पैदा करता है व्यक्तित्व में। लिहाजा उसने पढ़ाई के दौरान ही लक्य बना लिया था। नतीजन इस समय वह एक राष्ट्रीय बैंक में कार्यरत थी।

अभय उसके साथ काम करता है। दोनों सहकर्मी ही थे आरम्भ में , लंच टाइम में जो तीन चार लोगों का उनका ग्रुप साथ बैठता था उसमें अभय भी शामिल था। धीरे धीरे दोस्ती हुई दोनों की और अब ये दोस्ती की हद से कुछ आगे बढ़ चुके हैं ,ऐसा उनके ग्रुप में सभी को लगता है।
वह चार लड़कियाँ एक फ्लैट शेयर करती हॅैं – टू बी.एच.के.। दो-दो लड़कियाँ एक कमरे में! किचन और हॉल कॉमन है। कई बार चारू अभय के फ्लैट में रह चुकी है . . . जब कभी उसका दोस्त शहर के बाहर गया होता है। अभय के दोस्त से भी वो परिचित है । वह एक दूसरे बैंक में कार्यरत है, जल्द ही उसका विवाह होने वाला है। लड़की उसके माँ-बाप की पसंद की है . . . . एम.एस.सी., बी.एड. है। आजकल उसकी गैंग उसके वुड-बी के लिए यहां के अच्छे स्कूलों में जॉब ढूँढ़ रही है . . . इस महानगर में दोनों के काम किये बिना गुजारा भी तो नहीं।
अभय पिछले बहुत दिनों से उससे बार-बार कह रहा है , दोस्त की शादी के बाद वह दूसरे फ्लैट में चला जायेगा . . . तुम आ जाओ।’’
‘‘हद है. . . . ऐसा कैसे हो सकता है? माना इस महानगर में तमाम लोग ऐसे रहते हैं,”
” क्यों नहीं हो सकता…? बुराई क्या है? आखिर मुझे कोई दूसरा पार्टनर तो ढूंढना ही है… तो फिर तुम ही क्यों नहीं ।”
इस महानगर में अकेले फ्लैट का खर्च उठाना सचमुच मुश्किल है ,पर वो अभय के साथ एक ही घर में?
ठीक है वह दोनों साथ हैं . . . दिनभर मैसेज करना, वीकेंड साथ गुजारना . . . एक ही बकेट से पॉपकॉर्न खाते हुए मूवी देखना और कभी-कभार साथ सो लेना . . . . पर एक साथ रहना ? उसका मन इसके लिए हामी नहीं भरता . . . !
दफ्तर से वह जल्दी निकल गयी थी . . . कुछ खरीदारी कर लेगी ! पापा-मम्मी, बाबा-दादी के लिए छोटे भाई के लिए भी। सबकी पसंद की चीजें ढूंढ़ने में समय तो लगता ही। अभय भी पीछे पीछे लपकता हुआ उसके पास आया…
” जल्दी जा रही ? “
” हाँ, कुछ शौपिंग करनी है…”
” मै चलूं साथ…?
” देख लो… मुझे कोई एतराज नहीं। “
” फिर रुको, बताकर आता हूँ !” कहकर अभय अॉफिस के भीतर चला गया। चारु खड़ी रही ।कुछ देर में अभय बाहर आता दिखा और उसे इशारा करते हुए पार्किंग की ओर चला गया। अभय का फ्लैट अॉफिस के पास ही था अतः वो बाइक से आता था। चारु दूर रहती थी, उसे लोकल से जाना आना पड़ता ,।अक्सर अभय ही उसे बाइक से स्टेशन तक छोड़ता । चारु जल्दी जल्दी गेट की ओर बढ़ी ,अभय बाइक लेकर उधर ही आयेगा।
अभय के साथ शौपिंग करने की चारु को आदत पड़ती जा रही थी। अभय बहुत रुचि लेता था और बहुत धैर्य भी था उसमें । थोड़ा भी इरीटेट नहीं होता था । बाइक खड़ा कर शौपिंग बैग कंधे पे लटकाये कभी उसके पीछे पीछे इस दुकान से उस दुकान दौड़ता तो कभी बाइक से टेक लगाकर अपने मोबाइल में व्यस्त उसका इंतजार करता। आज भी दोनों खूब थक गये। अभय ने दोनों के लिए अलग अलग बिरियानी पैक करवाई और उसे स्टेशन छोड़ने चल दिया ।
” कब का टिकट है तुम्हारा ?” बाइक स्टेशन पर रोकने हुए कहा उसने।
” कल दोपहर तीन बजे की फ्लाइट है भोपाल की… सुबह अॉफिस नहीं आउंगी, पैकिंग करनी होगी। “
” लौटोगी कब? “
” कुल दस बारह दिन तो लग ही जायेंगे , भोपाल से गोरखपुर की कब की टिकट है पापा लोगों की… अभी ये भी नहीं पता। गोरखपुर से फिर सब गाँव जायेंगे… “
” ये इस बार अचानक तुम गाँव क्यों जा रही …कुछ खास बात है क्या? ” अभय के स्वर में संशय का पुट था
” गाँव जाकर मुझे सुचि बुआ से मिलना है… वहीं पास के गाँव है उनका। “
” ये कौन है…. तुम्हारी बुआ? “
” मेरी नहीं ,मेरे पापा की बुआ लगती हैं… मेरी तो दादी लगेंगी ,पर मै और गोलू उन्हें बुआ ही कहते। बल्कि सारे बच्चे ही उन्हें बुआ कहते। “
” लेकिन उनसे मिलने की तुम्हें इतनी उतावलापन क्यों “
” उनकी तबियत बहुत खराब है इसलिए उन्हें देखना चाहती हूँ ” चारु अचानक उत्साह से बोली, ” पता है अभय… मैने अबतक के अपने जीवन में सुचि बुआ जैसी सुन्दर बुड्ढी औरत नही देखी है… अपनी जवानी में बेहद सुंदर रही होंगी वो…उनका जीवन भी अजीब सा रहस्यमय लगता है। कभी उनके जीवन पर एक कहानी लिखूंगी…। “
अभय दिलचस्पी से सुन रहा था । चारु का बोलना ,उसे बहुत भाता था। जब अपने जीवन के सपनो, जीवन की प्लानिंग की बाबत उससे बात करती तो वह गहरे सुकून से भर जाता। कोई, किसी पर बहुत भरोसा करके ही उसे अपने सपनो के बारे में बता पाता है। चारु को ये भरोसा है उसपर, ये बात उसे बहुत सुकून देती है उसे उस दिन का इंतज़ार है जब चारु के जीवन के सपने उसके साथ चलने के लिए तैयार हो।

दशहरे में गोरखपुर जाना चारू के परिवार का नियम था . . . . पहले बाबा ने और फिर पापा ने यह नियम बनाये रखा। गोरखपुर से मात्र तीस किलोमीटर की दूरी पर उनका गाँव था । सिर्फ बाबा ही नही बाबा के अन्य भाईयों के परिवार भी आते वहाँ। बाबा उ.प्र. सरकार में ही कार्यरत रहे और ज्यादातर बस्ती, गोंडा, मऊ, देवरिया, आजमगढ़ में पदस्थ रहे। सबसे दूरस्थ पदस्थापना उनकी बहराइच जिला था। जबकि पापा प्रायवेट जॉब में थे और ज्यादातर बड़े शहरों में पोस्टेड रहे। बावजूद इसके चारु के मम्मी पापा कुछ अपवादों को छोड़कर . . . हर दशहरे में गोरखपुर गये।
बचपन से ही दशहरे में गाँव जाने का खूब उत्साह रहता था चारु को। हफ्ते भर का प्रोग्राम होता था , जिसमें गोरखपुर जाना फिर अष्टमी के दिन गाँव जाना। अष्टमी की रात को गाँव की औरतें दुर्गा जी के थाने जाती थीं कढ़ाई चढ़ाने । मेला लगता था दुर्गा जी के थाना पर। गाँव भर के परिवार की लड़कियां, बहुयें इकट्ठी होती थीं, नयी दुल्हने देखने में खूब मजा आता था . . . सोचते हुए चारू के चेहरे पर मुस्कुराहट खिल गई।
राम रतन सिंह , चारू के बाबा , रिटायरमेंट के बाद गोरखपुर में मकान बनवाकर रह रहे थे । जहाँ से उनका गाँव मात्र 30 कि.मी. पर था । गोरखपुर में ही उनके अन्य भाइयों के परिवार भी थे, कुछ लोग इलाहाबाद, लखनऊ, दिल्ली जैसे शहरों में भी बस गये थे। अपने गाँव से कुछ दूरी पर ही, अपनी बुआ द्वारा मिले जमीन के अपने हिस्से पर उन्होने फार्म हाउस बना लिया था, इस जमीन के सात हिस्से हुए थे, तीन भाई उनके और चार चचेरे! सबने अपनी जमीनों पर कुछ न कुछ कर रखा था। किसी ने एकदम सामने सड़क के किनारे दुकानें बनवा लीं, तो किसी ने पोल्ट्री फार्म खोल लिया! ये सारा कुछ इधर के चार-छै वर्षो में डेवलप हुआ। — पहले इस जमीन पर संयुक्त रूप से गेहूँ की फसल होती थी, अधिया पर — फिर उसका हिस्सा बंट जाता, शहर वाले अपना हिस्सा बेंच देते। दादी ही जाती थीं ये काम करने . . . और लौटकर तो पैसा बाबा को नहीं देती थीं – ‘‘इ हमार ह’’
दादी को फार्म हाउस बिल्कुल नहीं सुहाता था . . . . एतना पइसा लग गइल पर मिलेला कुछु नाही’’ बी.ए. पास । दादी ठेठ भोजपुरी में कहतीं . . .‘‘पिछले साल एतना आम भइल रहे, पर अचारो डाले के नाहीं पइनी जा . . . ’’
बाबा को शौक था बागवानी का। जबतक नौकरी में रहे . . . सरकारी आवास में आगे-पीछे खूब जमीन रहती . . . चपरासी रहते . . . तो खूब अपने मन के पेड़-पौधे लगाये . . .
आलू, प्याज, लहसुन . . . उगाये . . ।. अब गोरखपुर के मकान में कुछ गमलों में फूल पौधे उगाकर उनका जी नहीं भरता . . . लिहाजा फार्म हाउस बनवा लिए . . .! आम, पपीता, भले न खाने को मिले पर तैयार हो रहे सागौन तो बाबा के गर्व का कारण थे ही –
गाड़ियों का काफिला गोरखपुर से निकल चुका है — काफिला मतलब, चारू के पापा की गाड़ी और पापा के तीनो चचेरे भाईयों की गाड़ियां . . . और क्या पता आगे पीछे और भी पट्टिदारी के लोगों के गाड़ियाँ मिल जायें — ज्यादातर लोग अष्टमी को ही तो गाँव पहुंचते
‘‘काका हो – . . . . अड़सा हो ता त एक जनि के हे में भेज द . . . जगह बाटै।’’ सुधीर ताऊ ने बगल से कार निकालते हुए चिल्लाकर कहा – – – वैसे भी चारू को लगता है कि इस फैमिली में सबको खूब चिल्लाकर बात करने की आदत है – – – कोई बाहरी व्यक्ति सुन ले तो सोचे झगड़ा हो रहा है। सचमुच इस गाड़ी में अड़सा तो था ही . . . . गोलू फौरन उतर कर सुधीर ताऊ की कार में चला गया।
चौमासे का आखिरी पखवारा . . . हवा में घुली हुई नमी! नौसड़ चौराहे पर इनकी कार पेट्रोल भरवाने रूकी तो बाकी गाड़ियां आगे निकल गयीं।
‘‘चल सभै आगे पीछे पहुंचबे करी . . . जल्दी का बा . . .’’ बाबा सिगरेट सुलगाते हुए बोले . . . . आगे की बात खांसी में दब गयी
‘‘ बाबा – – – आपको डॉक्टर ने मना किया —’’ चारू ठुनकते हुए बोली
‘‘अरे बेटा बहुत कम हो गइल बा — चार पैकेट से दू पैकेट
‘‘पापा, आप सुचि बुआ के यहां भी जाने को कह रहे थे न —’’ चारू के पापा ने अपने पापा यानि चारू के बाबा से पूछा –
‘‘हाँ . . . बहुत बीमार है सुचि दीद्दा . . .’’ सुचि यानि चारू के बाबा की चचेरी बहन बबुआ के सौतेले बड़े भाइै की छोटी बेटी! तीनो बखरी में इकलौती बेटी थीं तब वो
‘‘पापा, हम भी चलेंगे — आप लोगों के साथ ’’ चारू ने उत्साह में भरकर कहा था —
दादी का मुंह बन गया था। सुचि बुआ के नाम पर दादी का बना हुआ मुंह देखने की तो चारू को बचपन से आदत थी
‘‘कल जाइब रउरै – – – आज कहां टाइम मिली? ” दादी भुनभुनाई
‘‘अरे तू लोगन के घरे छोड़कर हमनी के निकल जाइब — शाम तक आ जायेके —’’ बाबा बोले —
‘‘हम भी चलेंगे —’’ चारू ने फिर दोहराया-
‘‘क्यों – तुम भी नहीं चलोगी — दुर्गा जी के थाने. . .? दादी . . . अपने पोता-पोती से खड़ी हिन्दी ही बोलतीं।
‘‘दादी . . . कढ़ाई तो रात में चढ़ेगी . . . तब तक तो हम लोग आ जायेंगे —!
सुचि यानि सुचिता! चारू के बाबा के बाबा की दो पत्नियां। पहली पत्नी से एक संतान हुई बाबू जगत नारायण — अंग्रेजों के जमाने के कलेक्टर हुए। जब दस वर्ष के थे तभी माताजी चल बसीं। विमाता से कभी माँ सा स्नेह नहीं मिला हाँ दोनो सौतेले छोटे भाइयों पर और छोटी बहन पर जरूर उनका अपार स्नेह रहा जीवन पर्यन्त। बहन दमयन्ती ने जब अपनी जमीने सगे दोनों भाइयों के नाम करके सौतेलापन जताया तब भी उनके स्नेह में कमी नहीं आयी।
दोनों भाइयों के कुल सात जीते पुत्र थे। कुंवर नारायण के चार और राम नारायण के तीन। इन्हीं रामनारायण के तीन पुत्रों में छोटे पुत्र थे रामरतन सिंह जिनकी पोती थी चारू।
जगतनारायण के दो पुत्र आद्या, विद्या और पुत्री सुचिता थी। नौ भाइयों में अकेली सुचिता का परिवार में बड़ा सम्मान था। बाबू जगत नारायण जी जब अंग्रेजों की कलेक्टरी को ठोकर मार गांव लौटे थे तो दोनों बेटों ओैर बेटी को बनारस हॉस्टल में डाल आये थे।
गर्मी की छुट्टियों में सारे बच्चे फुआ के पास चले जाते। बड़ी जमींदारी थी फुआ की। ससुराल में सगा कोई न था । पति की मृत्यु साँप के काटने से हो गई थी, कोई बच्चा भी नहीं था । फुआ का सारा प्यार-दुलार अपने भतीजों-भतीजी पर बरसता ! बच्चे भी फुआ के यहाँ खूब मजा करते पूरी गर्मी की छुट्टियों भर । फुआ बड़ी व्यवहारीं थीं — ससुराल में सगा कोई न था — पर पट्टिदारों से खूब बना कर रखतीं — हर पट्टिदार यही सोचता फलाना बो उन्हीं की सगी है। और उनका हिस्सा तो उन्हें ही मिलेगा।
बड़ी सी हवेली थी फुआ की। बड़े-बड़े हाथी दरवाजे । ढेर सारे नौकर-चाकर ! हवेली के अंदर भी बड़़-बड़े कई आंगन। फुआ के चचेरे ससुर लोगों का परिवार भी खूब बड़ा था। कुछ लोग बाहर शहरों में भी रहते थे। वो और उनके बच्चे भी छुट्टियों में आते। फुआ के बड़े ससुर के छोटे बेटे का परिवार कलकत्ता में रहता था, छुट्टियों में वो भी आते! उनका बेटा राजकुमार सिंह , फुआ को ससुराल में एकमात्र प्रिय व्यक्ति ! आज उन्हीं राजकुमार सिहं के साथ कैसे तो संबंध बताया जाता है सुचि बुआ का। चारू ने घर में दादी और मम्मी या अन्य औरतों के बीच बुदबुदाहटों में चलती बातों का सिरा पकड़ने की कितनी तो कोशिशें की हैं — पर हमेशा नाकामयाब रही है। चारू ने बचपन में राजकुमार बाबा को भी देखा है गोरखपुर वाले घर में । बाबा से मिलने आते थे कभी-कभार! क्या भव्य रूप था . . . एैसा गोरा रंग कि घोप दो तो खून बहने लगे । सचमुच के राजकुमार लगते थे, राजकुमार बाबा। लेकिन इनके साथ सुचि बुआ का क्या रिश्ता….
सुचि बुआ क्या कम सुन्दर थीं ? चारू ने पहले कभी इतनी सुन्दर बूढ़ी औरत नहीं देखी थी अपने जीवन में । एक आलौकिक आभा में लिपटा उनका व्यक्तित्व कितनी रहस्यमयता समेटे था । उनका जिक्र आने पर दादी की बुड़बुड़ – ‘‘ का फायदा इ सब शान टंटा का ? आपन घर-दुआर, आदमी-बच्चा सब छोड़ इहाँ बइठी हैं . . . अरे कउन आदमी बिना मतलब के केहू अउरत के नामें घर जमीन, बाग-बगीचा लिख दी . . . अपनी सगी ब्याही स्त्री के नाम तो जल्दी कउना आदमी कुछ लिखने नाहीं. . . !
बाप, दादा के नाम पर कालिख पोत अपने शान से रहत बाली – कुल बोरनी . . . ’’
हाँ उन्हें कुल बोरनी ही माना जाता था। लड़कियों के कमजोर कंधों पर जो दो घरों की इज्जत का बोझ सवार रहता है , सुचि बुआ ने उसे अपने कंधों पर लेने से इंकार कर दिया था । मान्य परिभाषाओं के तहत न तो वो सुशील बेटी साबित हुई न ही सुलक्षणा बहू। एक साथ तीन तीन खानदानों की अगले पिछले सभी यशगाथाओं पर धूल झोंक दी उन्होंने।

पर, सुचि बुआ के बारे में कही गई ये रहस्यमय कथायें चारु के गले नही उतरती थीं। कैसा दैवीय रूप था उनका और कैसी निश्छल चेहरे की भावभंगिमा। कभी कभी वो गोरखपुर वाले घर में भी आती थीं, जब कहीं बाहर जाने के लिए उन्हें ट्रेन पकड़नी होती। उनके इस बाहर जाने को भी संदेह से देखा जाता। फुसफुसाहटों में ये भी अफवाह रहती कि वर्ष में एक बार वो पन्द्रह दिन के लिए किसी न किसी पहाड़ पर जाती थीं और वहाँ राजकुमार सिंह उनसे मिलने आते थे।
उनका टिकट वगैर रामरतन ही कराते थे। वो कहाँ गई हैं, कब लौटेंगी ये सब उनको पता होता था। उनके लौटने वाले दिन कन्हाई सुबह ही कार लेकर गाँव से आ जाता था। वैसे ही कार चीज समान से भरी होती। मौसमी फल और सब्जियां तो जब भी किसी काम से उनकी कार शहर आती तो बुआ भिजवाती ही रहती।
चारु को ये बात भी बड़ी अजीब लगती कि, मम्मी दादी और गाँव में भी बाकी लोग सुचि बुआ के बारे में कितनी बातें बनाते हैं पर उनके सामने उन्हें पूरा आदर मान देते हैं। सुचि बुआ को पता था, दशहरे के समय उनके मायके के सातों बखरी के लोग जुटते ही हैं। वो नवमी या दशमी के दिन जरुर आ जातीं ,सबसे मिलने। अंदर बारामदे में तख्त पर बैठी सुचि बुआ कितनी भव्य लगतीं थीं। कन्हाई, घर के नौकरों के साथ मिलकर कार से सामान निकालता। हर छोटे बड़े के लिए बुआ कुछ न कुछ ले आतीं ।
-पिछली गर्मी तिरुपति बालाजी गई थी दर्शन करने, सबके लिए कांजीवरम् ले आई…
-मसूरी से लाई थी ये गरम शाल
गरज ये कि, हर प्रांत का मशहूर समान कपड़ा सुचि ले आती और औदार्य से सबमें बांट देती। उनके सामने सभी उनकी भव्यता से चमकृत रहते और उनके जाते ही आलोचना का पिटारा खुल जाता। उनकी लायी हुई वस्तुओं को प्रकट में मुंह बनाते हुए स्वीकार्य होता बाद मे बड़े जतन होते उन सामानों के। वो समान कीमती तो होते ही थे बेहद नफीस भी होते थे।

सुचि बुआ के कॉटेज नुमा घर के सामने कार रूक गयी थी। चारों तरफ हरियाली और बीच में लाल, सफेद रंग से पुता हुआ उनका घर। दीवारों पर गेरु और चूने से ग्रामीण चित्र उकेरे हुए थे। लाल बजरी की सड़क और दोनों ओर सुंदर क्यारियों में लगे फूल पौधे। छोटा सा लॉन जिसपर बेंत की दो कुर्सी और एक मेज रखा था । कुर्सी पर राजस्थानी टाई एंड डाई प्रिंट वाली गद्दी और कुशन। बारामदे में टैराकोटा और चीनी मिट्टी के गमले, हाथी, घोड़े । दीवार पर ध्यान मुद्रा मे भगवान बुद्ध का बड़ा सा अॉयल पेंट किया हुआ चित्र। बारामदे मे ही एक तख्त भी था जिसपर भी राजस्थानी दीवान सेट बिछा था। गमलों में पॉम, क्रोटन आदि सजावटी पौधे लगे थे। दो झबरे कुत्ते उसी पर चढ़ कर बैठे थे। घर से सटा ही स्कूल था। घर के पीछे गाय भैंसों की जगह । गेट पर दरबान । बगीचे में माली।
‘शान्ति देवी मेमोरियल पब्लिक स्कूल’ एक बार चारू ने पूछा था – ‘बाबा ये शान्ति देवी कौन थीं—-? रामरतन सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया था – वह बताते, ये राजकुमार दादा की माँ का नाम था — तो चारू और कई सवाल करती — उनकी माँ के नाम के स्कूल में सुचि बुआ सर्वेसर्वा कैसे ! ये स्कूल तो बुआ का है न —
कन्हाई बाहर ही खड़ा था —
सुचि बुआ का अनन्य सेवक —
‘‘अरे बाबू साहेब — आईं आईं, — दीदी बड़ी बेराम बाली — खटिया से लग गइल हई ।”
रामरतन सुचि दिद्दा के कमरे की ओर जाते सोच रहे थे —‘ दिद्दा कितना और चल पातीं ?’ राजकुमार दादा मई में गुजरे थे — खबर पाकर वो सीधे दिद्दा को बताने आये । दिद्दा ने सुना , क्षण भर आँख बंद कर दोनों हाथ जोड़ माथे से लगा लिए थे। उस चेहरे का तेज क्षण मात्र में बिला गया था। उठकर अपने कमरें में जाकर दरवाजा बंद कर लीं थीं। वो बाहर बैठे दरवाजा खुलने का इंतजार करते रहे थे । बहुत देर बाद जब दरवाजा खोलकर वो बाहर आईं थीं तो क्षण भर तो रामरतन उन्हें पहचान ही नहीं पाए थे। जैसे जीवन ही न हो वहाँ। चेहरे का सारा तेज किसी ने जैसे निचोड़ लिया हो। पल भर में वर्षों की बीमार ,असहाय ! तभी वो जान गए थे दिद्दा उसी ओर चल दी हैं, जिधर राजकुमार दादा गए हैं। मात्र सांस चलना ही जीवित होना नहीं होता।
” रतन, नदी तरफ जा रही हूँ… चलोगे साथ? ” रामरतन बिना कुछ पूछे चल दिये थे दिद्दा के साथ। कन्हाई ने कार सड़क पर ही रोक दी थी । आगे नदी तक पैदल ही जाना था। कभी कभी सुचि आती थी यहाँ। बाकी गाँव वाले इस तरफ नहीं आते थे। मुख्य घाट पर ही भीड़ भाड़ नाव की आवाजाही रहती थी ,इस तरफ नहीं ।
नदी के किनारे एक पत्थर बैठ कर उस पार उनकी आँखें टिक गई थीं। उधर बाँध के पार राजकुमार सिंह का बगीचा था फिर उसके बाद उनकी कोठी । उस कोठी की सबसे ऊपरी मंजिल से सामने का बगीचा, बाँध और फिर बहती हुई राप्ती दिखती थी, जैसे यहाँ बैठी दिद्दा को कोठी का ऊपरी हिस्सा बस नज़र आता था। दिद्दा जानती थीं, बड़े आदमी अपनी ही जमीनों पर आग पाते हैं। राजकुमार सिंह भी अपने बगीचे मे कहीं जलाये गये होंगे, उनके राख फूल यहीं इसी नदी में विसर्जित किए जाएंगे। कुछ क्षण बैठकर वो वापस आ गयी थीं। बाद में रामरतन को कन्हाई से पता चला था वो अक्सर वहाँ जाकर बैठने लगी थीं।

दिद्दा हड्डियों का ढांचा मात्र रह गई थीं —
‘‘आओ रतन — अच्छा किये आ गये — हम कन्हाई से संदेशा पठाने वाले थे —।
‘‘कउनो काम था दिद्दा —?’’
‘‘अब कउन काम भइया — अब तो चलने की बेरा है — बस, अपने हिसाब में किसी का कुछ बचा न रह जाये . . .
‘‘आप निश्चिंत रहो दिद्दा — जैसा आप चाहती हैं, सब व्यवस्था हो जायेगी . . . ।
‘‘बस भइया इ कन्हाई हमें छोड़े के नही तैयार . . . ‘‘श्मशान घाट तक पहुंचा के ही हमार पिंड छोड़ी इ बउरहवा . . . ।’’
‘‘कन्हांई कहना चाहता था – ‘‘कैसे छोड़ दे साथ . . . मालिक को वचन दिया था , दुनिया पलट जाये पर अपने जीते जी सुचि दीदी के साथ न छोड़ब . . .। मालिक इतनी शान्ति से आंख मूंद लिये , जानते थे उनकी सुचि के साथ कन्हाई है।
चारू, सुचि बुआ की लाइब्रेरी में घुसी थी, इस घर का यूँ तो हर कोना उसे खींचता था पर लाइब्रेरी उसकी सबसे पसंदीदा जगह थी। पापा बाहर बाग-बगीचे और स्कूल की नई बन रही बिल्डिंग देखने में व्यस्त हैं। बाबा और सुचि बुआ जाने कौन सी गूढ़ वार्ता में लगे हैं।
बाप रे! कितनी तो किताबें थीं बुआ के पास! ज्यादातार भाषाओं के क्लासिक्स के हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद।

बिस्तर लगी कृषकाय काया को देख रामरतन सिंह की आँखें भर आयी थी — कैसा एकांत चुन लिया था दिद्दा ने !
कलेक्टर साहब अपनी बेटी को राजरानी से कम कहाँ मानते थे। दिद्दा थीं भी तो तीक्ष्ण बुद्धि और नाजुक मिजाजी की बेजोड़ संगम। नाक पे मक्खी न बैठने देने वाला तेवर आये दिन कोई न कोई मसला खड़ा करता।
अम्मा कपार ठोक लेती – हे ठाकुर जी . . .इ लड़की के सद्बुद्धि देई . . . रउरा दुनिया में कहाँ खपिहे इ बचिया . . .।
अट्टिदारी – – पट्टीदारी, रिश्तेदारी के जितने भाई लोग थे, वो अपनी बीवियों को उनसे दूर रहने की हिदायत देते – ‘ओकर दिमाग त खराब बटले बा, तू हूँ लोगन अपना दिमाग खराब कई ल —।
हर गलत बात की मुखालफत करना माने दिमाग खराब होना मान लिया जाता ! अम्मा समझा-समझा के हार गई . . . क्या जरूरत है, नेतागिरी झारने की . . . और वो भी घर में ?
सुचि के कान में जू न रेगती अम्मा की फट्कार से। वो तो अपने ही नियम कानून से चलती थी । कभी बड़की अम्मा की बहू को झिड़कती – ‘ क्यों आप बड़की अम्मा की बातें चुपचाप सुन लेती हैं — वो, आपको , आपके सारे खानदान को जब जो चाहे कह दें . . . आपके मुंह में जबान नहीं दी ईश्वर ने ? कम से कम विरोध तो कर सकती हैं . . . कैसी बेटी हैं आप? कोई मेरे अम्मा बाबूजी को एक शब्द तो कहके निकल जाये . . . मुंह न तोड़ दूँ उसका . . . ।
कभी अपनी छोटी भाभी पर बरसती – भाई साहब जब चाहे तब, आप पर चिल्ला पड़ते हैं बिना बात के। आपको गुस्सा नहीं आता?

ऐसी थी सुचि दिद्दा . . . बरसों बरस हुए उस छूटे हुए वक्त को . . .
फुआ का घर, हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सारे बच्चे वहीं इकट्ठा थे गर्मी की छुट्टियों में। फुआ की बड़ी सी हवेली. . . और हवेली के भीतर भी कई खण्ड। वो दिन क्या कभी भूल सकते हैं रामरतन सिंह।, वो और राजकुमार सिंह फुआ के पास बैठे थे । राजकुमार दादा अपने कॉलेज , हॉस्टल के किस्से सुना रहे थें . . .और रामरतन बड़ी दिलचस्पी से सुन रहे थे। यों भी राजकुमार दादा की हर बात उन्हें प्रिय थी । और भी बच्चे थे वहीं । कोई कैरम खेल रहा था तो कोई नदी- नहाने चलने का प्लान बना रहा था। सुचि नहीं थी वहां । वो ऊपर कमरे में लेटी कोई किताब पढ़ रही थी । फुआ के घर की लाइब्रेरी बहुत समृद्ध थी। कई दुर्लभ किताबें वहां मौजूद थीं। कहते हैं फूफा बहुत शौक़ीन थे किताबों के। देश विदेश के क्लासिक्स उनकी लाइब्रेरी में मौजूद थे। बेचारे ने जीवन ही बहुत कम पाया था । विवाह को साल भर भी नहीं बीते थे कि ,गाँव के बड़के पोखर में डूबने से उनका देहांत हो गया। बुआ को उस लाइब्रेरी, और उसकी किताबों से विरक्ति थी। समय समय पर साफ सफाई करवा देती थीं और जब गर्मी की छुट्टियों में उनके मायके और ससुराल के सारे बच्चे इक्ट्ठा होते तो लाइब्रेरी खुलवा देतीं । उन्हें पता था, उनकी भतीजी सुचि, भतीजा रामरतन और चचिया जेठ का पुत्र राजकुमार इस लाइब्रेरी के परम लालची हैं। सुचि को तो किताबों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं । किताब हाथ मे हो तो उसे दीन दुनिया का ख्याल नही रहता।आज भी सारे बच्चे यहाँ बैठे हैं ,और वो ऊपर कमरे में किताब मे किसी है।
एकायक सुचि दिद्दा द्वार पे प्रकट हुई थीं … बदहवास । राजकुमार ने अपने बड़े फूफा साहब को तेजी से आंगन पार करते बाहर जाते देखा था। सुचि का चेहरा देख . . . वह दंग था! गुस्सा, अपमान, बेचारगी। बुआ जाने क्या समझीं . . . जो शायद और कोई नहीं समझ पाया . . . या शायद राजकुमार भी समझ गये थे। सुचि हकलाते हुए कहने की कोशिश में थीं . . “. बुआ वो . . . वो . . .’’ पर उमड़ पड़ी रूलाई में उसकी बात पूरी नहीं हो पा रही थी । . . . पर फुआ ने ‘आँखें’ ततेर कर उन्हें चुप कराया था ‘बस्स –चोप्प–! खबरदार जो एक शब्द कहा . . . का जरूरत थी अकेले ऊपर के कमरे में पसरकर किताब पढ़ने की —’’
जमाना तब भी वही था — बड़ी सी हवेली । ढेरों परिवारजन . . . उससे ढेरो नौकर-चाकर . . . पर लड़कियों के लिए तब भी घर के अंदर का एकांत भी वर्जित । घर के अंदर भी उन्हें एक अनजाने शत्रु की उपस्थिति से भयभीत रहना होता था। असवधानी का नतीजा उन्हें ही अपराधी ठहरा कर दिया जाता था।
रामरतन सिंह को वो सारी बातें आज भी याद थीं । ये भी कि , मंदिर वाले चबूतरे पर अकेले बैठी सुचि दिद्दा कैसे तो तमतमा गयी थीं . . . बेचारगी में आंखें छलक आयी थीं। राजकुमार दादा ने उनके गुस्से और अपमान से लाल पड़े चेहरे को देखा था और उनके पास बैठ उनके दोनों हाथ थाम लिए —’’ सिर्फ एक बात सुनों . . . जीवन में कभी भी गलत बात नहीं सहोगी . . . किसी की भी नहीं . . . मुझे यहीं गुस्से वाली तमतमाती सुचि पसंद है . . . ऐसे ही रहना हमेशा !
पर कहाँ रह पायी थीं सुचि दीद्दा वैसे ही , उनकी पसंद की सुचि बनकर — हमेशा। विवाह हुआ जमींदार परिवार में । पति, परिवार के सबसे छोटे और सबसे बिगड़े बेटे थे। विवाह के बाद जब जिम्मेदारी पड़ती है, अपना परिवार बनता है तो अच्छे अच्छे बाद बिगड़ैल सुधर जाते हैं इसी सनातन सोच से छोटे ठाकुर के अम्मा, बाबूजी भी ग्रसित थे। वैसे भी ठाकुर ठकारों की तो पहचान ही यही है। रातों की महफ़िल, दोस्तों के साथ कई कई दिन के लिए शिकार पर निकल जाना, पीना पिलाना । आखिर जवान जहान लड़का और क्या करे? नौकरी तो करनी नहीं उसे किसी की। सुचि का रिश्ता लेकर जब पंडित जी आये तो उनकी बड़ी ख़ातिर हुई और मेहमान खाने में ठहराया गया। रात में खाने के लिए जब ठाकुर साहब भीतर आए तो पत्नी को सुचि की फोटो जब पंडित जी ने दिखाई तो ,ठकुरानी तो तुरंत मुग्ध हो गयीं। विवाह तो इसी से होगा उनके छोटे बेटे का। यही उनके बिगड़ैल बेटे को साध सकती है। बाकी बहुओं को भी फोटो पसंद आ गई। बड़ी बहू ने देवर जी को तस्वीर दिखाने की जिम्मेदारी ली । छोटा देवर उनका मुंह लगा था ।
विवाह की पहली रात सुचि ने पति का जो परिचय पाया वो उसकी परिष्कृत रूचि और नाजुक मिजाजी के लिए ग्राह्य नहीं था ! न ही प्रेम , और न ही इज्जत जैसी कोई चीज मन में उगी। जल्द ही ये भी बात खुल गई कि वो सस्ती औरतों से रिश्ता रखता है . . . और पास के कस्बे में चौराहे पर कमरा लेकर एक-एक रखैल भी रख रखी है। इन बातों ने सुचि को परेशान नहीं किया उल्टे राहत ही दी।
सुचि के चेहरे पर एक चैन बिछ जाता तब वो हफ्तों कोठी पर पड़ा हो। हवेली में उसकी खिलखिलाहट मंदिर की घंटियो सी गूँजती। जिठानियों के साथ ठिठोली करती , तो कभी बच्चों के साथ उनके खेल में शामिल हो जाती। हवेली के नौकर-चाकर आश्चर्य करते, कैसी बहूरानी है ये — न श्रृंगार-पटार, न गहनों की लदान फिर भी दिप-दिप करती! पति से मानों कोई वास्ता ही नहीं । दो बच्चों की माँ बन गयी तब भी अभिन्न नहीं बन पाई पति की। कोई मलाल भी नहीं अभिन्न न हो पाने का। न उसके लिए कोई चिंता न अपने लिए कोई हीनता बोध।
मायके जाती , तो उसकी खामोश आँखों से उसके दिल का हाल पता न लगता । भाभियां हंसी करती’ – सुचि बच्ची तो एकदमै बदल गयीं . . . कितनी शांत हो गयीं — कहाँ तो नाक पे मक्खी न बैठने देती थी। ससुराल अच्छे-अच्छों की नकेल कस देती है। उनकी हंसी के साथ साथ सुचि भी हंस देती उनके कहे का अनुमोदन करती सी हंसी।
ऐसे ही बाईस वर्ष बीत गये। सुचि भरे-पूरे मायके से भरे-पूरे ससुराल आती-जाती रही । बच्चे परिवार के अन्य बच्चों की तरह बोर्डिंग स्कूल भेज दिये गये पढने . . .। स्कूल से कॉलेज गए और फिर पढ़ाई खत्म । बेटी की शादी हो गयी। ठाकुर साहब का रवैया पूर्ववत था। उनकी अय्याशियाँ उम्र बढ़ने के साथ बढ़ी ही, कम नहीं हुई।
ऐसा नहीं था कि, उनकी यशगाथा से सुचि का मायका अछूता हो । सभी जानते थे, सबकुछ पर ये कोई अनोखी बात तो थी नहीं। कौन आदमी एक ही औरत से ताजिंदगी बंधा रहता है । बड़े आदमी के तो ये लक्षण होते हैं . . .सुचि को तो किसी चीज की कमी नहीं लगती . . .भरा-पूरा संसार है उसका . . . एक औरत को और क्या चाहिए . . .? सुचि अच्छे से जानती थी , उसके मायके में भाभियां, चाचियां, दादियां सभी नयी पीढ़ी की लड़कियों को उसका ही उदाहरण देती हैं – जब सुचि जैसी लड़की बदल गयी तो तुम लोग क्या चीज हो। उसके जैसी तेजस्विता लड़की कैसी चुप्प गाय सी सोझ हो गई है। लड़कियों को ऐसा ही होना चाहिए, पानी सा। जिस पात्र मे डाल दो, वैसी ही बन जाएं। न बने तो कैसी थू थू मचे सब ओर। मायके के सम्मान का भार भी तो बेटियों को ढोना होता है। हमारी सुचि बहुत समझदार लड़की थी। कितना ऊंची पढाई पढ़ी थी, कब कैसा व्यवहार करना चाहिए, उसे सब पता है ।
ऐसे सबके दिलो में बसने वाली सुचि बुआ एकाएक कैसे मायके ससुराल सब जगह वर्जित नाम हो गयीं ? कहानी के इस पन्ने की सच्चाई कभी किसी को नहीं बताई सुचि ने। बस रामरतन, कन्हाई, राजकुमार सिंह और स्वयं वो, जिन्होंने इस कहानी को रचा था, कलंक को आगे बढ़कर बची सारी जिंदगी के लिए माथे लगाया सौभाग्य की तरह, सिर्फ और सिर्फ यही साक्षी थे उस कहानी के…
पाँच दिन के प्रवास के बाद उस दिन जब ठाकुर साहब कोठी से घर आये तो साथ में सोलह-सतरह वर्ष का एक किशोर भी था ! सुचि चौंकी थी . . . चौंका वो किशोर भी था।
‘इसे काम चाहिए था— ड्राइवरी आती है. . . मैं ले आया, मेरी गाड़ी चलायेगा ! ‘सुचि को फुआ के यहाँ के ललकू बाबा का छोटा नाती याद आ गया— छोटा सा वो बच्चा अपनी माँ के साथ आता था, फुआ की हवेली में . . . उसकी माँ फटकने – बीनने का काम करती या फिर अनाज, गल्ला, धूप में सुखाती उठाती।
‘‘कन्हाई हो न —! सुचि का चेहरा कांप गया था । कन्हाई को भी सुचि दीदी की याद हो आयी थी । दीदी यहाँ ! उसे थोड़ा बहुत याद था। सुचि दीदी हर समय कोई न कोई किताब ली रहती हाथ में। रात में वो इआ के खटिया में सोता था। इआ राजा रानी, राजकुमारी की कहानी सुनाती थी। एक बार एक राजकुमारी के हाथ में सुई चुभ गयी और वो सौ साल के लिए सो गई। सौ साल बाद एक राजकुमार आया और उसने उस राजकुमारी को जगाया और फिर उससे शादी कर ली। कन्हाई को खूब आश्चर्य होता, सौ साल बाद भी राजकुमारी, राजा रानी सब वैसे ही थे ,बुड्ढे नहीं हुए थे । कहानी सुनते हुए कन्हाई को ये भी लगता, कि कहानी वाली राजकुमारी सुचि दीदी हैं और राजकुमार अपने राजकुमार दादा ! लड़कपन की बातें सुचि दीदी को देख फिर याद आ गयीं। लड़कपन में तो वह यह भी सोचता था कि सुचि दीदी और राजकुमार दादा की शादी होगी एक दिन।
पाँच साल पहले गाँव से भाग गया था। गाँव के बाहर साधुओं की एक टोली डेरा जमाये थी। हवेली के राम बाबू ( सुचि की फूआ के पितिआउत देवर थे राम बाबू। फक्कड़ आदमी थे, शादी नहीं किए थे। कहते हैं अपनी विधवा भाभी से प्रेम था उन्हें । उनके और उनके दो बच्चों की ख़ातिर विवाह नही किया। साल छै महीने के लिए घर से गायब हो जाते थे । कभी काशी कभी हरिद्वार चले जाते । ) का आश्रय मिला उन्हें। कन्हाई भी उनकी सेवा टहल करता, चिलम भरते भरते, कश लेना भी सीख लिया । जब साधुओं का डेरा उठा तो वो भी पीछे चल पड़ा। उनके साथ साथ खूब भटका। बहुत से काम भी सीख लिए उसी दौरान। तरह तरह का खाना बनाना सीखा। जीभ के स्वाद और पे ट की भूख को नियंत्रित करना सीखा। एक बार साधुओं की टोली कुंभ के दौरान इलाहाबाद में थी । संगम पर उनका भी डेरा था। वहीं एक बहुत बड़े इलाकेदार भी पत्नी सहित कल्पवास कर रहे थे। कन्हाई उनसे खूब हिल मिल गया। मेम जैसी गोरी चिट्टी ठकुरानी बड़ी नरम दिल थीं । उनके टेंट में एक छोटी सी गृहस्थी बसी थी। एक मतवा थीं जो खाना बनाती थीं और एक बूढ़े बाबा थे जो ठाकुर साहब की हर छोटी बड़ी बात का ख्याल रखते थे अब इस कुनबे में कन्हाई भी शामिल हो गया था। लड़कवा था तो जांगर भी खूब चलता था। ठकुरानी उसे लेकर पूरा मेला घूम आतीं। संगम क्या कोई छोटा मोटा स्थान था? जहाँ तक नजर जाती टेंट ही टेंट। पूरे देश से श्रद्धालु आते थे माघ महीने में कल्पवास के लिए। दुनियां भर के साधुओं और धर्म गुरुओं का भी डेरा जमा रहता था वहाँ । कन्हाई ठाकुर परिवार के साथ खूब घुल मिल गया था। ठाकुर साहब उसे कहते रहते -मेला खत्म होने पर मेरे साथ चलना… क्या साधुअन के साथ जिंदगी खराब कर रहा है। ठकुरानी को भी कन्हाई से मोह हो गया था। लिहाजा, मेला खत्म होते ही कन्हाई ठाकुर साहब के लाव लश्कर के साथ उनके गाँव चल दिया।
ठाकुर साहब के यहाँ खाना ,कपड़ा, रहना सोना सब बात का आराम था। पर कन्हाई भी बड़े सहज मन से उस परिवार का हो गया था । खेत का काम मवेशियों का काम घर के काम, कोई भी काम करने को तैयार रहता। वहीं रहकर उसने ट्रैक्टर, ट्रक, जीप, कार भी चलाना सीखा। ठाकुर साहब के लठैतों के संग लाठी भांजना भी सीखा। उसका उत्साह और हर कार्य को करने की ललक और परिश्रम ने उसको खूब निखारा। ठाकुर साहब का लड़का भी उससे स्नेह करता था ।अपने साथ साथ रखता। छावनी पर ले जाता, शिकार पर ले जाता। जिस दिन खुश होता अपनी बंदूक उसे थमा देता – चलाओ!
पहली बार बंदूक हाथ में ली तो लगा अभी हाथ से छूट जाएगी । इतनी भारी होती है, नही पता था। बाद मे तो सब तरह की बंदूक, रिवाल्वर चलाने में महारत हासिल कर लिया। छोटे ठाकुर की रिश्तेदारी थी इस परिवार में। एक बार आये तो कन्हाई पे रीझ गये। कन्हाई का मन भी उस समय बहुत उचाट था। बड़े ठाकुर और ठकुरानी सात महीने के अंतराल में स्वर्ग सिधार गये थे ।पहले ठाकुर साहब पीछे ठकुरानी। अनाथ हो गया वो। इतना तो अपने बप्पा के मरने पर उसे नहीं अखरा था।
छोटे ठाकुर ने एक बार पूछा उससे – चलेगा मेरे साथ, मेरे गाँव? वो फौरन तैयार हो गया बोरिया बिस्तर बांधकर। और आ गया उनके साथ यहाँ सुचि दीदी को देख अपने लड़काई की बातें याद आ गयीं । बहुत साल बाद अपनी उस लड़कई की सोच वो बेध्यानी में ठाकुर साहब को भी बता गया — बहुत बाद में — बिटिया के ब्याह के बाद. . . ! तब तक तो कन्हाई छोटे ठाकुर और सुचि दीदी के लिए सबसे जरूरी व्यक्ति हो गया था ! छोटे ठाकुर के साथ कन्हाई है तो सुचि भी निश्चिंत है — और घर वाले भी निश्चिंत हैं —!’ और सुचि दीदी के सरताज छोटे ठाकुर कन्हाई के लिए देवतुल्य ! छोटे ठाकुर भी कन्हाई से स्नेह रखते — मूड में होते तो खूब बतियाते दुनियां जहान की बातें। उसकी बीती जिंदगी की बात। उसके बचपन की बात। वह भी रौ में आकर सब बताता चला जाता। न बताने वाली बात भी बता देता। कौन सी बात का कैसा मतलब निकाल लिया जाएगा उसके सादा दिल दिमाग में इसे समझने की सहालियत नही थी।
उस दिन ऐसे ही रौ में आकर कन्हाई बताता चला गया । कैसे सुचि दीदी, उनके भाई लोग छुट्टियों में अपनी फूआ के यहाँ जाते थे। सुचि दीदी तो अब पहचानी नहीं जातीं। तब कैसी अल्हड़, मस्त रहती थीं। तेज सिर्फ चेहरे पर नहीं था, जबान में, चाल में बात में सब में तेज भरा था !’ और हमरे राजकुमार भईया, लाखों में एक ! हम सब लरकई में इहै समझते थे कि सुचि दीदी — हमरे राजकुमार भइया की दुलहिन बनिहे —! पता नहीं छोटे ठाकुर ने कन्हाई की बातों का क्या मतलब लगाया पर अपनी माननी पत्नी का मान भंग करने हेतु एक दुखती रग उनके हाथ में आ गयी थी।
उस रात ठाकुर साहब को कमरे में आता देख सुचि चौंकी भी थी और परेशान भी हुई थी । वर्षों से ठाकुर साहब कमरे में आना छोड़ चुके थे। कभी कभार ऊपर चढ़ते भी तो कमरे के बाहर रखी कुर्सी पर ही बैठकर बातचीत कर लेते । इस बातचीत में निज कुछ नहीं होता था । बच्चों, परिवार, रिश्तेदार से सम्बन्धित बातें ही होती थीं। सुचि और वो एक कमरे में नहीं रहते, साथ नहीं सोते प्रकट रूप में ये बात एक पत्नी के लिए अपमान जनक था , पर यही बात सुचि के लिए राहत थी — बड़ी राहत । शराब के नशे में लड़खड़ाते शरीर को सहना उसे अभी तक पीड़ा से भर देता — शुक्र था ये पीड़ा कभी-कभार की थी ओर फिर धीरे-धीरे ठाकुर साहब ने ऊपर अपने कमरे में आना ही छोड़ दिया था —
उस रात ठाकुर साहब का आना सामान्य नहीं था। वह दहाड़ते हुए आये थे . . . बार-बार राजकुमार सिंह का नाम लेते, सुचि के चरित्र पर लांछन लगाते ! शोर-शराबा, हंगामा सुन सभी अपने कमरो से बाहर आ गये। घर भर के लिए ये नाम अजनबी था।
कन्हाई सुचि के पैरों में गिर पड़ा – दीदी, हमरा के जूता से मारी रउरे, हमरे करियर जीभै से बाबू साहेब के नाम निकल ह —! सुचि सन्न!! कुछ देर लगी थी उसे ये समझने में कि, आखिर बात क्या है?

अब तो ये आये दिन की बात हो गई। रोज पीना और गंदी गोलियां बकना। जिस पत्नी के दैवीय और गर्वीली चितवन ने पहली ही रात उन्हें पराजित कर दिया था और इस सच से साक्षात्कार भी करवा दिया था, कि दुनिया इधर की उधर हो जाये पर सात फेरों में बाँधकर वह जिसे अपनी पत्नी बनाकर लाये हैं, वह उनकी हवेली की छोटी बहू तो बन गयी है पर सात जनम वह उसके हृदय कपाट को खोल नहीं पायेंगे। अजीब सी बात थी , न वह कुछ कहती न उनकी किसी बात का विरोध करती थी । बिस्तर से लेकर कमरे के बाहर वह उनके हर कहे को शिरोधार्य करती रही। कभी अपनी इच्छा अनिच्छा कुछ जाहिर नहीं किया। हसरत ही रह गयी उनकी, कि कभी तो ये औरत अधिकार से उनसे कुछ मांगे , लड़े झगड़े ।पर वह तो निष्ठुर पाषाण प्रतिमा ही बनी रही।
विवाह में जो गहने इधर से चढ़े या उधर से मिले . . . उन गहनों के अलावा पिछले पच्चीस वर्षों में शायद उसने अपने लिए एक अंगूठी भी नहीं बनवाई । सास, जिठानियाँ, ननदें जब कपड़ा-लत्ता खरीदतीं उसके लिए भी खरीद लिया जाता । जिठानियों को अपनी देवरानी पर लाल, हरा सजता लगता — तो वे वही ले आतीं — सास को लगता – उनकी छोटकी बहू तो पीले रंग में सोने सी दमकती है, तो वे पीला ले आतीं। ननदों को अपनी सुंदरी भाभी पर गुलाबी भाता तो गुलाबी आ जाता । गरज ये कि, अलमारी में हर रंग थे . . . पर किसी को नहीं पता था कि सुचि को दरअसल कौन सा रंग पसंद है।
उस दिन शाम से ही अधियाये हुए थे छोटे ठाकुर – ‘‘रंडी. . . कहीं की – महतारी बाप दलाली करते थे बेटी से धंधा कराते थे । आंगन में चीख-चीख कर कहे जा रहे शब्द सुचि के कानों में अंगारे बरसा रहे थे ।
कन्हाई हाथ जोड़कर मुनहार कर रहा था – बाबू साहेब, कमरा में चलीं. . .! पर बाबू साहेब तो उन्मत्त हाथी की तरह चीघाड़ रहे थे, कमरें में बैठी सुचि का चेहरा पत्थर की तरह कठोर हो गया था। उसी दिन आधी रात के बाद हवेली से दो छायायें निकली थीं, सिर पर सुचि का संदूक लादे कन्हाई और उसके साथ दुबली सी एक स्त्री छाया ।
महज चालीस – पैंतालीस किलोमीटर दूर था कन्हाई का गाँव . . . याने फूआ का गाँव —यानि — राजकुमार सिंह का गाँव — तीन दिन लगे थे पहुँचने में . . . रात-रात चलते थे दोनों, सड़क से दूर खेतों-खेतों . . . किसी अमराई या खण्डहर में दिन गुजारते . . . कन्हाई खाने-पीने की व्यवस्था करता । सत्तू, गुड़ जैसी चीजें . . .! सुचि मन से टूटी हुई . . . तन भी बीमार — ठंड लग गयी . . . बुखार चढ़ गया । राजकुमार सिंह की बड़ी सी हवेली. . . के बगल वाली गली में थें, दोनों . . . सुचि धक्क से रह गयी — ये हवेली, ये घर, ये गली, सब पहचाने हुए — हवेली के आगे बड़ा सा अहाता मंदिर — फिर बांध —- बांध की चढ़ाई चढ़ते सुचि हांफ गयी . . . इसी बांध पर कैसे दौड़ते हुए चढ़ जाया करती थी —!
दीदी जी भोर होने को है — बाबू साहेब अभी कुछ देर में आयेंगे . . . टहलने . . .!’’ कन्हाई ने कहा. . . सुचि अंधेरे में देखने की कोशिश कर रही थी . . . सामने राप्ती बह रही थी अपनी पूरी रवानी से,
‘‘आप इधर बइठे . . .’’ कन्हाई ने नदी की तरफ उतार पर एक पेड़ के नीचे कपड़ा बिछा दिया। सुचि वहीं पर गुड़ी-मुड़ी होकर पड़ गयी. . . कुछ-कुछ अचेत सी — इसके बाद उसे होश आया तो इस खण्डहर नुमा घर में —
राजकुमार सिंह रोजना की तरह बाँध पर टहलने आये थे— ये उनका नियम था —! कन्हाई ने दूर से उनको आता देख लिया था। दौड़ता हुआ करीब पहुँचा।
” बाबू साहेब… बाबू साहेब… ” उसकी पुकार सुनकर और उसे दौड़ता हुआ अपने करीब आता देख राजकुमार थमक कर खड़े हो गये।
” कौन, कौन है? “
” बाबू साहेब ,हम हम कन्हाई हैं !”
” कौन कन्हाई? ” आवाज मे कड़क थी। अंधेरा अभी छंटा नही था । फिर ये आदमी इस गांव का नहीं लगता। इससे पहले कभी दिखा नहीं।
” ललकू बाबा का नाती… छोटे में आते थे अम्मा के साथ ” कन्हाई समझ नहीं पा रहा था, कैसे परिचय दे अपना। जमाना बीत गया, अब कहाँ याद होगी उनको उसकी? पता नहीं सुचि दीदी की याद है या नहीं…
” अरे तू तो भाग गया था न… कहाँ था अबतक? ” कन्हाई की सांस मे सांस आई, आखिर बाबू साहेब को याद आ गया।
” लम्बी कहानी है बाबू पर वो उधर दीदी साहब… ” हाथ से इशारा करते कन्हाई रुआँसा हो गया
‘‘ क्या बात है कन्हाई? कोन है ये —’’ पेड़ के नीचे अचेत पड़ी उस महिला पर तबतक उनकी नज़र पड़ चुकी थी। शाल से बाहर निकले हाथ पैरों की कोमलता देख किसी बड़े घर की महिला र दिखी . . . कन्हाई के साथ कैसे —
‘‘दाऊ . . . सुचि दीदी — हैं —!’’
‘‘सुचि —?’’ राजकुमार सिंह को लगा, कुछ गलत सुन लिया है उन्होने — न समझने के अंदाज में उन्होंने कन्हाई को देख और उधर बढ़ गये थे, जिधर सुचि पड़ी थी।
‘‘अरे इसे तो बहुत तेज बुखार है—!’’ सुचि सन्निपात की हालत में थी—! क्या करें— हवेली में ले जाना क्या ठीक रहेगा—? नहीं. . . फिर . . .
‘‘जा देख — कोई नाव हो — आस-पास “
कन्हाई दौड़ गया देखने . . . कुछ देर में ही वापस आ गया — नाविक भी साथ था — नदी के उस पार उनकी छावनी थी. . .
राजकुमार सिंह के बाबा वहीं रहते थे — अब वो घर खण्डहर सा हो गया था — खेती बारी का काम देखने राजकुमार सिंह, वहाँ आते-जाते रहते थे— सुचि को वहीं भेजना होगा —। नदी के उस पार था वो गांव पर जिला दूसरा हो जाता था – देवरिया— इस पार का गांव गोरखपुर में पड़ता था—
कन्हाई सोच में डूबा था — नाव तक कैसे पहुंचाये सुचि दीदी को— वो तो बेहोश हैं . .
‘‘सुचि — सुचि—!’’ राजकुमार सिंह सुचि को पुकार रहे थे। -महीनों की बीमार लग रही ये औरत सूचि है, विश्वास करना कठिन था।
एक पल को सोचा था राजकुमार सिंह ने और फिर सुचि को अपनी बाहों में उठा किनारे की ओर बढ़ गये थे —! सुचि की कमजोर काया को बाहों में उठाये, उस क्षण उन्हें ये महसूस हुआ — इसे इस तरह उठाकर तो वो सारी जिंदगी चल सकते हैं . . .
अचेत सुचि और कन्हाई को लेकर नाव उस पार चली गई थी।लौटकर उन्होने जीप निकाली थी — पास ही के कस्बे के पी.एस.सी. के अस्पताल में पदस्थ रामरतन सिंह के पास पहुँचे थे, उन्हें लेकर वापस वहीं राप्ती के तट पर आये थे – जीप सहित नाव से नदी पार कर — छावनी पर पहुँचे थे — उनके बाबा के जमाने का ये घर, खपरैल का था— दो चार कमरे ही ठीक हालत में थे जिसमें जब वो या परिवार कोई आता तो रहता रुकता था। — उन्हीं में से एक में कन्हाई ने सुचि को लिटाया था—! बुखार में बेसुध सुचि को देख रामरतन भी सन्न रह गये —
कन्हाई ने सारी कहानी सुनाई —।
‘‘पर तूने उनकी बात मानी क्यों — ? क्यों साथ चला आया —? ’’ रामरतन कन्हाई पर ही झल्ला पड़े थे।
‘‘बाबूजी — दीदी सन्निपात की हालत में थीं — साथ न आता तो कुछ कर बैठती —’’ कन्हाई रूआंसा हो गया —
रामरतन ने फौरन दो-तीन इंजेक्शन लगाये — सिरहाने बैठे सुचि का सिर सहलाते रहे— राजकुमार सिहं बाहर आराम कुर्सी पर बैठे सिगार फूंकते सोच में गुम—कभी कभी सिर घुमाकर अन्दर कमरे में देख लेते ।
रात तक में सुचि का बुखार उतरा था— वो चैतन्य होकर बैठ गयी थी।
‘‘दिद्दा अब कैसी हो —? रामरतन ने पूछा था।
‘‘ठीक हूँ — भइया — राजकुमार जी को बुला दो —
‘‘यही हैं — बुलाता हूँ —।’’ कहकर रामरतन बाहर बैठै राजकुमार सिंह को बुला लाये— राजकुमार आकर उसी कुर्सी पर बैठ गये— जिसपर रामरतन बैठे थे । चुपचाप सुचि का चेहरा देखते रहे। कितना समय बीत गया , पर क्या कभी अपनी स्मृति से ओझल कर पाये थे वो सुचि को। दुबली-पतली ये प्रौढ़ा — धंसी हुई आँखें, पीला चेहरा — उलझे बाल। इस रुप में ऐसे भेंट होगी कभी, ऐसी कभी कल्पना भी नहीं की थी। जीवन कब कैसा रुप धरकर सामने आ जायेगा, कोई कहाँ जान पाया है? विधि के लेख वही जाने।
‘‘‘सुचि —! ’’ कहकर उन्होंने उसका हाथ थाम और उनकी आवज टूट गयी थी । और मानों कोई बांध सा टूट गया हो । सुचि बिलक-बिलक कर रो पड़ी थी , उनका हांथ पकड़कर लगभग उस हाथ पर झुकी हुई। इतना करूण रूदन —! कन्हाई बाहर बरामदे में जाकर सिसक उठा था । रामरतन को लगा , सुचि दिद्दा को कुछ हो न जाये । पहले ही बुखार में पस्त है । वह संभालने के लिए आगे बढ़े थे पर राजकुमार सिंह ने आँख के इशारे से उन्हें रोक दिया था । वह रूक गये थे , पर राजकुमार सिंह पर उन्हें खीज हो आई थी — कैसे तो निश्चल बैठे हैं — बुत, जैसे ! क्या वह सुचि दिद्दा को सांत्वना के दो बोल भी नहीं कह सकते ? दिद्दा भी कहाँ लौ लगा   बैठीं ?
कुछ देर बार सुचि स्वयं चुप हो गयीं
‘‘पानी पियोगी ? राजकुमार सिंह ने पूछा था
उन्होंने हाँ में सिर हिलाया । राजकुमार ने सिरहाने रखे लोटे से गिलास में पानी डालकर दिया उन्हें। एक सांस में गुटक गयी थीं सुचि दिद्दा गिलास भर पानी! और जब बोली तो आवाज साफ संयत थी ।
‘‘कुछ मागूंगी तो दोगे मुझे—!’’ सीधे राजकुमार सिंह की आँखों मे देखते हुए कहा
‘‘कुछ भी— तुम कहो. . .!’’ राजकुमार सिंह की आवाज में दृढ़ता थी।
‘‘मुझे, अपनी रखैल बना लो —’’ सीधे उनकी आँखों में देख रही थीं— दिद्दा—! रामरतन आज भी उस दिन को याद कर सिहर उठते हैं —
‘‘बोलो दोगे मुझे ये ओहदा ? राजा हो । तुम्हारे लिए क्या मुश्किल है — मेरे नाम जमीन, मकान करना, बगीचा, तालाब करना —। मैं वादा करती हूं , मरने तक तुम्हारी रखैल कहलाउंगी । पर तुम भी एक वादा करो । कभी खकुछ भी हो जाये — मुझसे मिलने मत आना । कर पाओगे ये घाटे का सौदा —? “
‘‘दिद्दा, पागल हो गई हो क्या — होश भी है क्या कह रही हो ? ” रामरतन चीख उठे थे । राजकुमार सिंह ने एक बार भरपूर नजर से सुचि को देखा था और कमरे से बाहर निकल आये थे। पीछे पीछे हड़बड़ाते लड़खड़ाते रामरतन दौड़े
” दादा, उनकी बात पर ध्यान न दीजिए। अभी बहुत गुस्सा है उनको। मै ले जाता हूँ अपने साथ…कुछ दिन हमलोगों के साथ रहेंगी, फिर मैं स्वयं इन्हें घर पहुँचा आउंगा। “
राजकुमार सिंह ने उन्हें कंधे से घेरकर उदास आवाज में इतना ही बोले – अपनी बहन को अबतक नहीं जान पाये तुम भाई… वो मर जाएगी पर लौटकर फिर उस घर में नहीं जाएगी। मुझे उसे जीवित रखना है …उसके जीवन के लिए उसकी कोई भी शर्त माननी होगी भाई। अपने साथ उसे जोड़कर रखने का कभी सपना देखा था… इस तरह जुड़ना होगा नहीं पता था… “
अगली बार जब वो आये थे तो , वो मकान , जमीन जाने कितने बीघा खेत— मकान से सटा बगीचा सब सुचि के नाम कर कागज थमाने । स्कूल का काम शुरू करवाने की पूरी योजना , और स्कूल की मैनेजर सुचि दिद्दा—! उसके बाद फिर कभी राजकुमार सिंह उस गाँव में नहीं देखे गये पर अफवाहों का क्या — सुचि — उस पूरे क्षेत्र में राजकुमार सिंह की रखैल जानी जाने लगीं। —
एक ही दिन में तो स्कूल खड़ा नहीं हो गया था । न ही वो छोटा सा मकान ही एक दिन में बना। पूरा तैयार होते होते साल डेढ़ साल लग गये थे। तबतक सुचि बुआ और कन्हाई उसी खण्डहर से मकान मे रह रहे थे। रामरतन सिंह ही पर उनकी सारी जिम्मेदारी थी। राजकुमार सिंह फिर कभी सुचि बुआ के इर्द गिर्द भी नजर नही आये। सुचि बुआ के पति अपने लठैतों के साथ उनके मायके जाकर खूब बक झक कर आये। लठैतों के साथ भीतर जनाने में घुसकर सुचि बुआ की तलाश में एक एक कमरा छान मारा। गुस्से में मुंह से झाग उगलते पूरे घरवालों को माँ बहन की गाली देते रहे। गाँव इक्ट्ठा हो गया । पूरा तमाशा बन गया। फिर तो ये आये दिन का कांड हो गया। महीने डेढ़ महीने में ये दोहराया ही जाता। ठाकुर साहब शराब के नशे में चूर होकर जीप अपने ससुराल की तरफ दौड़ा देते । खूब गाली गलौज करते और थककर वापस लौट जाते ।राजकुमार सिंह के पीछे उन्होंने अपने जासूस भी रख छोड़े थे। जो उन्हें राजकुमार सिंह के पल पल की खबर देते थे। वो कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, किससे मिलते हैं, सारी बातें उन तक पहुँचतीं। सुचि और कन्हाई का कुछ पता नहीं था। पता नहीं धरती लील गई उन्हें कि आसमान खा गया।

दिन बीत रहे थे और उसी अनुपात में सुचि बुआ की बदनामी एक गाँव से दूसरे गाँव, दूसरे से तीसरे गाँव पहुँच रही थी, और पहुँचाने वाले उनके परमेश्वर ही थे। जब कहीं पी लेते, पत्नी के चरित्र की धज्जियां उड़ाने के अलावा उन्हें कुछ और नहीं सूझता । नौकर के साथ भागी उनकी पत्नी उनके गले में मछली के कांटे के समान अटकी थी। जो निगलने उगलने दोनों कोशिश में दुखती। पर मायके वालों को जबतक सुचि प्रकट नही हो गई तबतक ,यही लगता रहा कि, उनकी सुचि ने जरुर किसी नदी में कूद कर जान दे दी है, और कन्हाई मारे डर के कहीं दूर देश निकल गया है।
आखिरकार वो दिन भी आ गया जब स्कूल और मकान तैयार हो गया। जिले का पहला बोर्डिंग स्कूल था वो। अखबारों में विज्ञापन दिया गया। प्रिंसिपल के नाम की जगह सुचिता सिंह था, मैनेजर भी वही थीं । खबर छोटे ठाकुर तक भी पहुँची। जासूसों ने भी सुनिश्चित कर दिया कि, ये उनकी ही सुचिता हैं। स्कूल, जिसकी सर्वेसर्वा उनकी पत्नी थीं वो राजकुमार सिंह की जमीन पर बना है, ये पता चलते ही ये समझना कोई मुश्किल नहीं था कि, सारा रुपया भी उन्हीं का लगा है। आखिर वो सही थे। भागकर अपने आशिक के पास ही गयी थी रंडी। गुस्से में उनके दिमाग की नसें फड़कने लगी थीं। जीप निकलवाये और चार आदमी के साथ पहुँच गए सुचि को लिवाने। पर सुचि ने कठोर शब्दों में मना कर दिया।
” अच्छा हुआ तुम आये, अपनी आँखों से देख लो। तुम्हारे साथ जाने का तो सवाल नहीं है। जो लांछन तुमने मुझपर लगाये थे उसे सच में जीउंगी मैं। तुम्हारी पत्नी घर के नौकर के साथ भाग गयी थी न… ऐसा तुम्ही ने प्रचारित किया है, अब बाकी की जिंदगी हर तरफ मैं प्रचारित करूँगी, कि मै राजकुमार सिंह की रखैल हूँ। अपने जीते रहने के एवज में… इस जमीन, मकान, स्कूल के एवज में राजकुमार सिंह के साथ यही सौदा हुआ है मेरा। “
हालाँकि किसी ने भी राजकुमार सिंह को न सुचि बुआ, न उस स्कूल और न उस गाँव के इर्दगिर्द कभी देखा फिर भी पूरे इलाके में दबी जबान खुसफुस में उन्हें राजकुमार सिंह की रखैल ही मानते थे लोग। आखिर कौन सा आदमी सेंत में किसी औरत को कुछ देता है । यहाँ तो एक साम्राज्य ही खड़ा कर दिया था सुचि के लिए राजकुमार सिंह ने।
उनकी नीली फिएट उस पूरे इलाके में लोग पहचानते थे। ड्राइविंग सीट पर बैठे कन्हाई को भी सभी पहचानने थे। कन्हाई का भी विवाह हो गया था। उसका परिवार भी वहीं स्कूल में रहता। पत्नी और एक बेटी, यही परिवार था कन्हाई का पर उसकी दुनियां तो सुचि दीदी थीं। सुचि भी उसके परिवार को अपना ही परिवार मानती । पत्नी राधा जहाँ सुचि की रसोई संभालती उसकी छोटी सी बेटी उसी स्कूल में पढ़ाई कर रही थी। कन्हाई और उसके परिवार के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए बैंक में स्कूल की कमाई का कुछ पैसा, था ही, बकायदा उसकी और राधा की तनख्वाह बंधी थी जो सीधे बैंक मे जाती थी । कुछ जमीन भी कर गये थे उसके नाम राजकुमार सिंह। बाकी तो सुचि का रख रखाव रहन सहन किसी महारानी वाले ठसके से कम नहीं था। अपनी तनख्वाह सारी वो शान शौकत और अपने यहाँ काम करने वालों में लुटा देती थी। उन्हें अच्छे से पता था, उनके मरने से पहले कोई भी इस साम्राज्य को उनसे नहीं ले सकता। और बाद में भी सारा इंतजाम उन्होंने कर दिया था ।

बस्स, यही इतनी ही तो कहानी थी सुचि बुआ की । हर बार गाँव आने पर चारू मन ही मन संकल्प लेती , इस बार लौटकर पहली कहानी, सुचि बुआ पर ही लिखनी है । पर हर बार कलम साथ छोड़ देती ! कितनी ही बार मन हुआ कि अरुण को सुचि बुआ के बारे बताए। सुचि बुआ और राजकुमार सिंह बाबा के प्रेम के बारे में बताए। पर एक संकोच आड़े आता है। संदेह है कि अरुण समझ सकेगा इस प्रेम को, सुचि बुआ के विराट व्यक्तित्व को…! एक बार सुचि बुआ ने कहा था- ‘बिट्टी जीवन में एक भी ऐसा व्यक्ति पा सको जो तुम्हारे होने पर बिना कोई प्रश्नचिन्ह किये विश्वास कर ले, तो जान लेना तुम्हारी रईसी कोई नहीं छीन सकता — मैने तो ऐसे तीन व्यक्ति पाये इसी जीवन में । तुम्हारे बाबा , कन्हाई और राजकुमार सिंह —
उसे अभी संदेह है कि, अरुण उसके जीवन का वही एक व्यक्ति है, जो उसके होने पर बिना किसी संदेह विश्वास करे।

चारू का बड़ा मन हुआ था पूछे — बुआ इतना बड़ा निर्णय ले लिया — कभी अपनी संतान के बारे में नहीं सोचा। इस तरह का जीवन चुनने से पहले अपनी विवाहित बेटी के विषय में नहीं सोचा! नैहर के जरा से कलंक से बेटियों के सिर ससुराल में हमेशा नीचे रहते हैं — फिर, अपनी माँ का ये अपयश उनकी बेटी ने किस तरह संभाला होगा —

चारू ये सवाल सुचि बुआ से तो नहीं पूछ पायी थी, पर वर्षों बाद उनकी बेटी से मिलने पर ये सवाल करने से खुद को नहीं रोक पाई थी।

अंजली बुआ, उसके ब्याह में आई थी — पहली बार उन्हें चारू देख रही थी — उनकी हंसी देखकर कोई भी कह सकता था, वो सुचि बुआ की ही लड़की है — चारू जानती थी — ये शायद उनकी पहली और आखिरी मुलाकात हो! वो अमेरिका में रहती थीं . . . संजोग से इस समय यहाँ थीं। चारू ने सारा संकोच त्याग अकेले में उनसे पूछ ही लिया – आपको अपनी ससुराल में कभी किसी ने — बुआ को लेकर कोई तंज नहीं कसा? अंजली मुस्कुरा दी थी – ‘बिट्टो – ससुराल और पति बड़ी टेढ़ी चीज होते हैं’- पत्नी का मान उसका पति बनाता है। शुरू शुरू में तुम्हारे फूफा साहब ने भी अम्मा को लेकर कुछ हल्की ओछी बातें करके मुझे नीचा दिखाना चाहा।

मैने एक दिन अच्छे से समझा दिया,’’ आगे फिर कभी मेरी माँ कि लिए इस लहजे में बात करने से पहले एक बात जान लो — मैं भी उसी माँ की बेटी हूँ . . .ऐसा न हो वही कहानी इस घर में भी दोहरायी जाये —’ तुम्हारे फूफा साहब डिप्लोमेट थे, बड़े-बड़े राजनीतिक मसलों में कब कौन सी नीति अपनानी है भली-भांति जानने वाले— अपने घर के मसले पर कैसे चूक होती उनसे— वो दिन और आज का दिन कभी माँ को लेकर कोई हल्की बात नहीं कहीं उन्होंने —’’

चारू आश्चर्यचकित सी सोच रही थीं काश आज सुचि बुआ जिंदा होती — काश वो जान पाती- उनकी जात का भरोसा सिर्फ तीन लोग नहीं करते थे — उनका अपना खून — उनकी अपने बेटी भी शामिल थी उन भरोसा करने वालो में — सच कितनी रईस थीं सुचि बुआ !

One Reply to “Apni si rang dinhi re ….”

  1. सुंदर। स्त्री के मन की दुनिया। कुछ ऐसी ही होती है। पर इसे जीवन में सुचि जैसी जीवट वाली कोई कोई ही होती हैं। यही इतिहास भी बनाती हैं। कहानी में उल्लिखित सभी जगह जानी पहचानी है तो पढ़ने से ज्यादा देखने का अनुभव साथ दे रहा था, बधाई 💐

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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