मुझे जब वहाँ पहुँचाया गया, सारे मौसम बीत चुके थे। उन सारे बीते मौसमों को अपनी देह पर झेला था मैंने बगैर शिकायत के। शिकायत का प्रश्न इसलिये भी बेमानी था कि किससे? देह उन सारे भारों से काफी लचक गई थी। चोटें दिखाई न देने के बावजूद अपनी मौजूदगी का पूरा पता देती थीं। वैसे भी अब उस देह को भी बार-बार ठीक कराने का कोई वजन दार औचित्य तो नहीं था उनके पास, पर फिर भी उन्होंने एक और कोशिश की थी और मैं आखिर तक नहीं जान पाई थी कि ये किसी सामाजिक भय की देन था या कोई दया भाव! यूँ अब दोनों में कोई फर्क न कर सकने की तमीज अगर मुझमें थी भी तो किसी काम की नहीं थी। मेरे लिये दोनों ही बातें अर्थहीन थीं।
वह मेरे बिस्तर के ठीक पीछे खडा था – नीम अंधेरे में और मैं एक बिस्तर पर लेटी हुई थी। उजाले में वह अपनी सारी कोशिशें करके देख चुका था। और लगभग उसी समय जबकि खुद उसे भी विश्वास हो रहा था कि वह भी औरों की तरह बस लौट जाने वाला है, मेरा मन एक विचित्र भाव से भर गया। कोई और आएगा और फिर वही सब बार-बार। खेल-खेल में मैंने उसे रोक लिया। मैंने खुद उसे बताया कि इस उजाले में वह कुछ नहीं पा सकेगा। कुछ पाने के लिये हमेशा कीचड में उतरना पडता है.. कीचड…दलदल….गंदे… बहते नाले में उतर कर उस कीचड में घुटनों-घुटनों डूबे रह कर अपने हाथों से वह गुमी हुई चीज टटोलनी पडती है। हालांकि इतनी ज्यादा उम्मीद करना उससे नाइंसाफी जैसा करना था। वह उम्र और अनुभव दोनों में मुझसे कच्चा था और मुझे लगा, इसका हाथ पकड क़र वहाँ ले जाया जा सकता है, जहाँ न इसके पहले कोई आया था, न मैंनें किसी के आने की जगह बनने दी थी।
आप संस्कृत की किसी बेहद पुरानी किताब की तरह हैं…अनसुलझी, अलक्षित, अनसमझी जटिल सूत्रों से भरी गूढ रहस्यों से लिपटी वर्षों से एक ही जगह अटकी । वह कह रहा था कि कुछ कहते कहते झिझक गया। मैं इंतज़ार करती रही। फिर उसकी दृढ आवाज आई –
”हो सकता है , ये सूत्र मायनाखेज हों पर किस काम के? दुनिया इनके बगैर भी चल रही है आराम से। किसके पास इतनी फुरसत और वक्त है?” वह एकाएक चुप हो गया। जानती हूँ मैं यह सच्चाई। इन फुरसतों का इंतजार मैंने बरसों किया है। यह तो हमें बहुत बाद मैं पता चलता है कि चीजों की ही बहुत जगह होती है जीवन में, फीलींग्स की नहीं। वे सड ज़ाती हैं, खत्म हो जाती हैं कोई जानने की कोशिश तक नहीं करता। सारी कोशिशें तो बस चीजों को बचाए रखने की होती हैं। सो मुझे कुछ नहीं हुआ सुनकर। मैं जमी रही।
”आप ठीक होना चाहती हैं ?” पीछे से आवाज आई।
”नहीं चाहती तो आती क्यों?”
”आप नहीं आई हैं, ले आया गया है आपको। उपर से लगता है, ये आप पर हँस रहे हैं, तरस खा रहे हैं। पर दरअसल आप हँसती हैं इन पर, आप थूकती हैं इन पर। आप इनसे उस सबका बदला लेना चाहती हैं, जो उनके रहते हुआ नहीं और जाने उसकी जिम्मेदारी उनकी है भी या नहीं। हो भी सकती है। पर यह कोई तरीका नहीं बदला लेने का। समर्थ बनकर उनके किये को अनकिया करना या असमर्थ बनकर प्रतिशोध लेना, दो निहायत अलग चीजे हैं। उनका कुछ हुआ या नहीं, पर आपका क्या हुआ?”
मैं बगैर एतराज क़े सुनती रही थी पर आखिरी वाक्य सुनकर मुझे हँसी आ गई।
” हमारा क्या होता है डॉ इससे बढक़र? ”
” हार मान लो और सोचो कि कुछ नहीं हुआ। इस दुनिया में जो भी है वह सबका है, सबके लिये है। आपके पास नहीं तो इसकी जिम्मेदारी दूसरों पर क्यों? आप हाथ बढाइए, ले लीजिए। तब दो बातें हो सकती थीं। अब तो सिर्फ एक है। मैं आपसे फिर वह प्रश्न पूछ रहा हूं? ”
”आप ठीक होना चाहती हैं?”
मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
”अभी मत दीजिए कोई जल्दी नहीं। फिर कभी जब आपका जी चाहे।” वह क्षण भर ठिठका, फिर कहा-
”अब आप अपनी प्रॉब्लम कहिये।”
”आज मैं वापस जाना चहती हूँ।”
”कहाँ जायेंगी ? वहीं जहाँ आप बार-बार गई हैं और कुछ भी नहीं मिला आपको?”
”हाँ पर इस बार मैं खाली हाथ नहीं जाँऊगी।”
”शब्द बोझ होते हैं। वे छाती में बर्फ से जम जाते हैं, उनके नीचे फिर आहिस्ता-आहिस्ता सब खत्म होता जाता है, और अगर उस सबको बचाना है तो इस जमी बर्फ को पिघलाना होगा। तब जाकर छाती में से कोई झरना फूटेगा – ये सारे शब्द फिर उस वेग से बहते झरने में झर-झर कर बह जाएंगे और फिर सब कुछ शान्त हो जाएगा।”
उसने जो कहा मैं मान गई, बगैर एतराज क़े। असल में मानना उस वक्त उतना तकलीफदेह नहीं होता जब आपके पास कोई विकल्प न हो। चुनने की सावधानी बहुत यातनाओं के बाद आती है और यह भी सच है कि उससे बडी क़ोई यातना नहीं। आप इस यातना से बच सकते हैं , पर कितनी देर? वक्त अपनी पीठ दूसरी तरफ कर लेगा और आप नहीं जान पाएंगे कि जिस दलदल में आप गहरे धँसते जा रहे हैं, वह दरआसल आपका अ-चुनाव है। पर अब जबकि मैं मान गई हूँ कि मुझे उसकी सारी बातें सुननी हैं और वह सब कहना है, जिसे किसी ने नहीं सुना आज तक।
”सबसे पहले अपनी तकलीफ आप मुझे बताएंगी?”
इसमें और दूसरों में यह फर्क है कि यह बहलाने की कोशिश नहीं करता, यह मुझे बीमार, लाचार और हारी हुई समझ कर बात नहीं करता। यह इस तरह पेश आता है , जेसे एक व्यक्ति दूसरे के साथ आता है। एक खास दूरी और खास समीपता के एकदम मध्य बिन्दु पर अडोल।
”आपको बताया नहीं गया, कितनी-कितनी तरह से?” मैं धीरे से हँसती हूँ।
”मैंने आपसे कहा था न , वह सब मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ।”
”ओ के ” मैं पल भर सोचने को ठहरी कि उसने तुरंत कहा-
”सोचिये मत सिर्फ कहिये।”
”मुझे घूमते-फिरते, सोते-जागते एक अजीब सी बदबू आती है। जाने कहाँ से। कुछ सड रहा है जैसे कोई लाश। नहीं कई लाशें और खूब पके फल । मैं रात को सोती हूँ तो लगता है, बाहर कोई दरवाजा खटखटा रहा है। जोर जोर से चिल्ला रहा है। आहटें बहुत सी और बहुत सारा शोर। लगता है बाहर नहीं निकली तो दरवाजा तोड दिया जाएगा और मुझे घसीट कर सडक़ों के हवाले कर दिया जाऐगा और सडक़ों से मुझे बहुत डर लगता है।”
मेरे माथे पर ठंडा पसीना झलक आया। इसके पहले कि में कुछ सोच भी पाती , एक हाथ ने मेरा पसीना पौंछ दिया। कई पल मुझे सँभलने में लगे।
”सडक़ें डॉ साहब, इन पर कितना भी भागो ये कहीं रुकती नहीं। हर सडक़ के बाद एक नई सडक़ हर यात्रा के बाद एक नई यात्रा। और अगर बाहर की आवाज अनसुनी कर क्षण भर को मैं अपने भीतर झाँकती हूँ तो वहाँ बहुत से हाथ मुझे ईशारों से और फुसफुसा कर अपने पास बुलाते हैं। अंदर के नीम अँधेरों में वे परछाइयाँ बडी ड़रावनी लगती हैं डॉ साहब, किसकी परछाइयाँ हैं ये ! डॉ साहब, जब कोई मर जाता है तो परछांई बन जाता है है न! छोटी बडी होतीं ये परछाइयाँ जिस जमीन पर पडती हैं वही जमीन दलदली हो जाती है। पैर रखा नहीं कि फिसल कर जाने किस खोह में गिर जाने का डर। क्या ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ मैं सीधी खडी हो सकूँ।”
”बहुत अजनबी तो नहीं लगता यह सब, या कि लगता है।”
”नहीं बहुत नहीं। अब तो डर भी पहचाना हुआ लगता है।” मैं हँसने लगी
”तुम्हें यकीन नहीं होगा डॉ जितना मैंने अपने डर को देखा है, उतना कभी हमें तक नहीं देखा गया। हमें सचमुच का देखना हमेशा हमेशा स्थगित होता रहा और वही देखा जाता रहा जो देखना चाहा जाता रहा। यह जो हम आग की बातें लिखते हैं डॉ साहब, अपना आप जलाकर, क्या होता है इससे ? दूसरे सिर्फ सेंकते हैं अपने आपको हमारी भट्टी में और सिंक कर बाहर आ जाते र्हैं हल्के गर्मकुरकुरे।”
”हाँ। आपके घर वाले कह रहे थे कि आप जाने क्या लिखती हैं, उनकी समझ में नहीं आता।” पीछे से फिर आवाज।
”आपको क्या लगता है, मेरी समझ में आता है?” मैं फिर हँस पडी।
”आपको नहीं लगता इस सबके पीछे वही भाव है कि आओ देखो मुझे जानो मुझे। अपने अनुभव और अँधेरों से ज्यादा क्या लिखा जा सकता है?”
”इतने क्रूर मत बनो। चाहे यही सच है पर क्या इसे फिर कभी नहीं कहा जा सकता था?” मेरी आवाज मुझे सुखे पत्ते सी खाली लगी भारहीन।
”क्यों बचना चाहती हैं सच्चाई से। अब तो कोई वजह भी नहीं।”
”आपको सबसे ज्यादा नफरत किससे है?”
”अपने आप से।”
”और प्यार?”
”किसी से भी नहीं।”
”झूठ बोलती हैं आप। फिर आप क्यों बचाना चाहती हैं अपने आपको?”
”मैं नहीं बचाना चाहती खुद को।”
”फिर लिखती क्यों हैं?”
”शटअप..जस्ट शटअप।आपको क्या पता लिखना क्या है। अपने आपको नंगा करना है कि देखो क्या हूँ मैं ? यहाँ उंगली रखो….और यहाँ….और यहाँ….और यहाँ भी।”
आवेश में मैं हाँफने लगी। वह मेरे निकट नहीं आया शायद दूर खडा था।
” वे कह रहे थे आपको अपने जिस्म से बहुत प्यार है। आप बार-बार धोती हैं इसे…दिन दिन भर इसीके पीछे पडी रहती हैं…सजाना-सवाँरना फिर धोना।” पीछे से फिर उसकी आवाज आई।
”एक ही चीज थी बचाने को मेरे पास । मैं बचा लेना चाहती थी । बडी पवित्र होती थी मेरी निगाह में गंदी हो गई। कहाँ है मेरी?” देखो न! कितने सारे नाम लिखे हैं इसके उपर क्या तुम पढ सकते हो डॉक्टर ?
”मेरे जिस्म पर जिसने पहली बार नाम लिखा था, वह मेरा बाप था। इस तरह पहली बार उसने मुझे मेरी पहचान से वंचित कर दिया। फिर जब उसने किसी और को दे दिया तो उसने पूरा नाम मिटा कर नया नाम लिख दिया अब मैं किसी दूसरे की संपत्ति थी।”
” फिर? ”
” फिर जब मैं उससे अलग हुई तो तीसरे ने पास बुलाकर अपना नाम लिख दिया। मैं जिद और गुस्से से भर गई। मेंरा जिस्म तो साईन बोर्ड बनता जा रहा है। मैंने वह सारे नाम मिटा देने की ठानी।”
असहनीय उत्तेजना से मेरी देह काँपने लगी।
” पर पर वह तो मेरे लहू और साँस में इस तरह खोद दिये गए हैं कि अब उन्हें चाकू की नोक से ही काट-काट कर निकाला जा सकता है और जरा देखिये मेरे जख्म।”
कहते हुए मैंने अपना कुर्ता उपर कर दिया जगह-जगह चाकू से खोदे गए निशान…पुराने काले निशान….नए लाल निशान…. निशानों के नीचे अधमरे कीडों सी बिलबिलाती नंगी पीडा।