ये जगह थी तो कॉलोनी के एक छोर पर ही, मगर फिर भी शहर की बदहवासी में लोग इधर आना भूल जाते थे. बदहवासी बहुत सी चीजें भुला देती है। भूले हुए को सिरे से गायब होना नहीं आता बस दूसरे सिरे पर बैठा रहता है एक खींच के इंतजाऱ में। एक उचकी मिले और पहले सिरे पर फिसल आता है, जैसे मैं।

कभी मैं किताबें पढ़ने का शौकीन था। किताबें मतलब सब तरह की किताबें। हिंदी अंग्रेजी साहित्य, दर्शन, मनोविज्ञान कभी कभी जासूसी भी। ज़ब से नौकरी लगी तब से मैं गर्दन झुकाये जे.डी.ए. की अप्रूव्ड कॉलोनियों के नक्शे बनाने में इतना बदहवास हुआ कि किताबों के साथ और भी बहुत कुछ भूल गया। जिंदगी का असल नक्शा भी। लोग कहते मुझे सरकारी नौकरी के तौर-तरीके नहीं आते। उनका मानना था कि मैंने इस पद का अपमान किया है जिसका खामियाजा बहुत से लोगों ने मेरे पद पर रहते भुगता है और मुझे बुढ़ापे में भुगतना पड़ेगा। रिटायरमेंट पहले आया या बुढ़ापा मुझे नहीं पता। या बुढ़ापे की खबर मुझे नहीं हुई… रिटायरमेंट की हुई ऐसा भी कह सकते हैं.। लोगों को बुढ़ापे और रिटायरमेंट दोनों की हुई और वे ज़ब तब मुझे बुढ़ापे के आगमन की खबर दिया करते जो मेरे कंधे को छू पीठ से फिसल उतर जाया करती, जिसे कुछ लोग पीठ पीछे से फिर चढ़ाने की फिराक में लगे रहते। सम्पत्ति जिसे कहते हैं उसमें अब तक मेरे पास कुछ था तो वो दो सौ गज का मकान और रिटायरमेंट में मिला और टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ा थोड़ा बैंक बैलेंस। बच्चे थे नहीं और पत्नी भी स्मृतिशेष थी। मतलब अब मैं एक बदहवास जिंदगी से निकल कर पूरी तरह होशोहवास की जिंदगी में आ गया था। ये मेरा मानना था। लोगों का मानना या कहना था कि असल मुसीबतों का पहाड़ तो अब ही टूटने वाला है।

मैं जहाँ रहता था वो ज्यादा भीड़ भरी जगह नहीं थी बल्कि यूँ कहें कि काफ़ी शांत कम आबादी वाली कॉलोनी जिसमें लोगों को एक दूसरे में दिलचस्पी सिर्फ कुछेक बातों को लेकर ही होती है, मसलन… नए मॉडल की गाड़ी किस घर में आई …. किसका सुपुत्र विदेश गया …. किसकी सुपुत्री ने प्रेम विवाह किया… या आज उस घर में पुलिस क्यूँ आई थी। आमतौर पर कॉलोनी में या उसके आस पास एक पार्क का होना उसकी रेपुटेशन में इजाफा कर देता है। ये कॉलोनी इस मामले में काफ़ी रेपुटेटेड थी। यहाँ दो पार्क थे। दो विपरीत ध्रुवों पर। थे छोटे, मगर थे। लेकिन दो पार्क होने का असल फायदा कॉलोनी के किसी बंदे को मिला तो वो मैं था। कॉलोनी की सारी भीड़ सवेरे शाम पूरब की तरफ भागती और मैं पश्चिम की तरफ। अगर कॉलोनी के बीच में तराजू का कांटा लगा दिया जाता तो सुबह शाम पूरब की ओर का पलड़ा जमीन में धंस जाता और पश्चिम का आकाश छूता। मैं अपने आप को उसी आकाश छूते पालड़े में बिठा देता। मैं पूरब की ओर और बाकी लोग पश्चिम की ओर क्यूँ नहीं जाते थे इसके कई सारे कारण थे। पूरब का पार्क छोटा था मगर था सुंदर। सुंदर पौधे फूल पत्तियां, पक्की पगडंडियां झूले…  वही सब जो एक पार्क में होता है। पश्चिम हिस्से की तफसील से समीक्षा करूँ तो इसके दो तरफ ना बराबर सी टूटी फूटी बाउंड्री का श्मशान है जिसका गेट इधर नहीं है, सड़क के उस पार है। तीसरी तरफ बड़े पेड़ हैं और चौथी तरफ रेलवे ट्रेक है। श्मशान और रेलवे ट्रेक का होना दो ऐसे कारण है जो लोगों के इधर न आने के लिए उन्हें ज्ञात हैं। मेरे संज्ञान में जो है वो ये कि बदहवासी में वे इधर आना भूले बैठे हैं, जैसे मैं भूला बैठा था। जिस दिन होश में आएंगे या एक उचकी मिलेगी फिसल आएँगे इधर।

मेरे इधर फिसल आने का भी एक किस्सा है। जिस रोज़ मैं रिटायर हुआ लोगों को मुझ पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ने से पहले की ख़ुशी मनानी थी। सड़क पर टेंट लगा कर उनकी इच्छा पूरी की गई। शाम को बचे खुचे खाने को देख ख्याल आया कि ( चुंकि मैं थोड़ा होश में आने लगा था इसलिए ऐसा ख्याल आया ) इसे डस्टबिन के हवाले करने के बजाय जानवरों को खिला दिया जाए, तो बस जानवर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते मैं इधर आ निकला। खाना थोड़ा ज्यादा था तो आधे घंटे तक वहीं बैठ कुत्तों और कौवों को जिमाता रहा। पटक कर भी आ सकता था लेकिन जैसा मैंने पहले कहा कि मैं थोड़ा होश में आ गया था तो पटक कर नहीं आ सका। उस रोज़ मैंने देखा वहाँ पूरी तरह से उद्दाम अराजकता पसरी है और यही वो चीज़ थी जिसने मुझे आकर्षित किया। मैंने देखा है कि हमें अक्सर वही चीजें आकर्षित करती हैं जिनकी कमी हम अपने आस-पास महसूस करते हैं। निरुद्देश्यता का स्वाद मैंने यहीं चखा और उसे बड़ा स्वादिष्ट पाया। हालांकि ये निरुद्देश्यता इस भौतिक जगत में ज्यादा देर टिकती नहीं है ख़ासकर बुद्धि का साथ इसे नहीं भाता। मैंने इसके साथ काफ़ी समय गुजारा, बगैर ये जाने कि इसी निरुद्देश्यता में जीवन का सबसे महीन उद्देश्य छिपा है। धरती फाड़ अपने आप उग आने वाली कठोर घास और खूबसूरती से बेपरवाह लुंज पुंज से कटे फ़टे सलेटी परत जमे गंदली पत्तियों वाले पौधे यहाँ निरुदेश्य, बस थे। एक पीपल.. एक शीशम… एक करंज…एक खेजड़ा… एक बबूल… एक नीम और बाकी जगह पर एक नज़र में पपीते  से दिखने वाले मेरे जित्ती ऊँचाई के पेड़ों के झुंड के झुंड, बस थे। बाद में पता चला कि ये झुंड तो अरंडी के है जिसका तेल बुढ़ापे में बड़े काम की चीज़ है। हालांकि मुझे उनकी कभी जरूरत नहीं पड़ी।

अक्सर ऐसी जगहें गार्बेज डंपिंग जोन बन जाती हैं लेकिन ये जगह इस मामले में भाग्यशाली रही क्यूँ कि श्मशान के परली तरफ बड़ा गार्बेज डंपिंग जोन था। बड़े ने छोटे को बचा लिया था अपने माथे सारी आपदा लेकर। फिर भी यहाँ रेलगाड़ी की खिड़की से फ़ेंकी थैलियां, कागज,प्लेटें  छिलके जैसा कुछ कचरा सूखी पत्तियों झाड़ियों में उलझा दिख जाता था। कभी कुत्तों का लाया कबाड़ भी, जैसे पुराना जूता, टूटा बैग या पर्स, कोई कपड़ा या टायर का टुकड़ा। कभी-कभी श्मशान की ओर से घसीट लाई गई हड्डी भी। ये रेलवे ट्रेक शहर के सबसे बड़े रेल जंक्शन से कुछ पहले ही है तो यहाँ गाड़ियाँ अक्सर लाइन खाली होने के इंतजाऱ में रुक जातीं हैं। मैंने ज़ब यहाँ आना शुरू किया तब बेंच से पीठ टिका बस यूँ ही बैठ जाता क्यूँ कि यहाँ आकर देखने या न देखने का सिलसिला खत्म हो जाता था। हालांकि मुझे बाद में पता चला कि देखने का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता बस करवट बदल लेता है। बैठने के लिए यहाँ दो लोहे की बेंचे थी। वैसे थीं तो चार मगर बैठने लायक दो ही थीं। ज़ब मैं यहाँ बैठता तब तराजू का पलड़ा कुछ ऊपर को उठ जाता। ऐसा मैंने बाद में महसूस किया, कुछ दिनों बाद। चीजें होती तो अपनी जगह पर ही हैं बस हमें महसूस होनी देर से शुरू होतीं हैं और जैसे ही महसूस होनी शुरू होती हैं उनके साथ जुडी और चीजें भी पास खिसक आती हैं। मेरे पास भी खिसकी। शुरू में मैं अपने साथ खाने का बचा सामान लाया करता था और दूसरी बेंच पर कागज बिछा कर रख दिया करता था जिसे कुत्ते और कौवों के साथ कुछ गिलहरियाँ कीड़ियाँ कीड़े और कभी दो चार लाल रंग वाले टिड्डे भी खाने आ जाते। लाल रंग वाले टिड्डे मैंने यहीं देखे थे। उनका एंटीना और सपाट चेहरे के नीचे के मैंडीबल्स मुझे दूसरे ग्रह में पंहुचा देते। कुछ देर उस ग्रह पर विचरण कर मैं उतर आता। मैं उन्हें एक-एक कौर कुतरते निगलते और कुंडे से पानी पीते देखता, बस देखता। इस ‘बस देखता’ से ही देखना करवट बदल लेता है बगैर संज्ञान में आए जैसे हम नींद में करवट बदल लेते हैं। यहाँ के पेड़ों पर मैंने देखा पक्षी भी कम उतरते हैं। उतरते भी हैं तो ज्यादा देर टिकते नहीं हैं। इस दुनिया में आने के बाद लगता है कोई भी होश में आना पसंद नहीं करता। लोग सोचते हैं कि होश में आना कष्टप्रद होता है। मेरा मानना था कि ऐसा कतई जरुरी नहीं। हाँ ये जरूर है कि आपका सुख दूसरे को कष्ट नज़र आए। हर नजर की अपनी काबिलियत अपनी खासियत। पहाड़ चट्टान ढेले कण सूरत सीरत। अणु परमाणु उजाला अँधेरा सत असत। मोटा पतला महीन। संत जोगी जहीन। ससीम असीम निस्सीम। उजाले के भीतर अँधेरा या अँधेरे के भीतर उजाला। मैले के भीतर प्रेम या प्रेम के भीतर मैला। कुछ देख कर भी न देख पाएं, कुछ बिन्देखा हाल सुनाएं। कुछ तीर होकर भी भेद न पाएं कुछ पाँख सी भीतर तिर जाएं। मेरे सुख को सबने अपनी-अपनी नज़र से देखा मगर मेरी नज़र से किसी ने न देखा।

 ज़ब से यहाँ आना शुरू किया, काम वाली बाई शिकायत करने लगी कि वह पाँच लोगों का खाना नहीं बनाएगी। मैंने कुछ उसकी चिरौरी की, कुछ पैसे बढ़ाए, तब बात बनी। कभी-कभी किसी खास दिन किसी घर को कौवों की जरूरत पड़ती तब कोई हाथ में खीर पूड़ी ले यहाँ तक आता, आँख नाक कान बंद रखता और जल्द से जल्द पटक कर लौट जाता। कभी कोई मुझे थमा कर लौट जाता। एक रोज़ ज़ब शाम सलेटी ही थी और मेरे सामने की बेंच पर कौवे और कुत्ते बारी-बारी से खाना खा रहे थे, ठीक मेरी बेंच के नीचे से किकियाने की आवाज़ आई। नीचे झाँका, एक कुतिया प्रसव पीड़ा से गिरिया रही थी। उस रोज़ पहली बार मैं रात भर यहीं रहा और बेंच की सोई पीठ से पीठ टिका सो गया। उस रात महसूस हुआ मैं बेंच के साथ आकाश में झूल रहा हूँ और हवा हम दोनों को थपकियां दे रही है। बस, उस रात के बाद मैं एक पतली सी गद्दी और चादर काँख  में दबाए यहाँ आता और बस सो जाता, खुली बंद आँखों से। ये खुली बंद आँखें बहुत से गुल खिलाती हैं ये मुझे बाद में पता चला। अब मेरी रातें भी यहीं गुजरने लगीं।  चार पाँच रातों के बाद ही…. जैसा कि होना ही था… कॉलोनी वालों के कान खडे हुए और उन्होंने मुझे सनकी… पागल… अकेलेपन का मारा बुड्ढा… जैसे नामों से नवाज़ा और मुझसे पहले से भी ज्यादा दूरी बना ली। कुछ ने पूछा भी कि मैं वहाँ क्यूँ जाता हूँ, मगर मैं उन्हें कभी अपनी बगैर रागात्मकता की अमूर्त सी प्रसन्नता नहीं समझा सका। जिसे मेरे लिए भी समझना मुश्किल था उन्हें क्या समझाता। सर्दी में बेंच दिन भर की सूरज से इकठ्ठा करी गरमाहट मेरी पीठ में रात भर उतारती रहती और गर्मी में चाँद से जिद कर शीतलता खींच लाती। बारिश होती तो मैं खुद को और बेंच को त्रिपाल उढ़ा लेता। कुतिया ने चार बच्चे दिए थे। थोड़े दिनों बाद ही सब मेरे कंधों पर चढ़ खेलने लगे और रात में मेरे साथ सोने लगे। वे मेरे साथ घर के दरवाज़े तक आते और मेरे निकलने का इंतजार करते फिर साथ-साथ बेंच तक आते। कौवे गिलहरी कीड़े कीड़ी टिड्डे सब यहीं रुके इंतजाऱ करते रहते।

आप सोच रहे होंगे कि कोई कैसे श्मशान के इतना नजदीक रात गुजार सकता है लेकिन सच कहता हूँ ये उतना ही आसान है जितना अँधेरे कमरे में सोना। ज़ब दो अंधकार मिल कर एक होते हैं तो बीच का प्रकाश खो जाता है। प्रकाश के साथ वो सब कुछ खो जाता है जिसे खोना ही है। ज़ब श्मशान की ओर से उठते धुएँ के साथ नारंगी कण ऊपर उठते तो अंधकार में जुगनू से चमक जाते। वे कण अलग-अलग शकलें बनाते। उस वक़्त कुत्ते कौवे पेड़ सब उन्हीं शकलों को ताकते रहते। जीवन और मृत्यु की गंध के बीच वे शकलें गोल गोल घूमती। कभी खिलखिलाती कभी हताशा से भरी होती, कभी संतुष्ट लेकिन अक्सर वे क्रोध में चट्ट चट्ट चटचटाती। ज़ब वे जुगनू पत्तों पर टिकते तो पत्ते धीमा सा संतोष उनमें उतार देते और वे सलेटी हो जाते। इस दौरान पत्तों पर कुछ छेद बन जाते जिसकी शिकायत वे कभी नहीं करते। कभी कभी ये जुगनू रेल की पटरियों पर ज़ा टिकते।  नारंगी से सलेटी होने की प्रक्रिया के दौरान हम एक दूसरे को देखते रहते। ज़ब पूरे सलेटी हो जाते तो मुझसे पूछते – अब क्या? मेरे पास कोई जवाब न होता। ज़ब मैं कमरे में सोता था तो रेल की आवाज़ से मेरी बेचैनी बढ़ जाती थी और मैं ज्यादा बदहवास हो जाता था। यहाँ मुझे रेल की आवाज़ कम आती। कई बार रेल गुजर जाती बगैर बताए। ज़ब वह यहाँ रूकती, जो कि अक्सर रूकती ही है तब कूपे की खिड़कियों का भीतर, कूपे में बैठे लोगों की आँखों पर चढ़,बेंच पर आ बैठता मेरे नजदीक। तब मुझे लगता कि मैं कूपे में ज़ा बैठा हूँ, पेड़ कुत्तों और कौवों के साथ, कभी कभी जुगनू भी आ टिकते। सवेरे खिड़कियों से बच्चे बाहर झाँकते, कुछ मेरी ओर इशारा कर माता पिता से सवाल पूछते दिखते। माता पिता उन्हें कुछ और दिखाने लगते, क्यूँ कि मैं देखने लायक चीज़ नहीं दिखता था। बच्चों की जिज्ञासा मुझ पर से उतर, इधर उधर फैल जाती। रात के अँधेरे में रेल की खिड़कियाँ अक्सर बंद रहती। तब मैं देखता कि बच्चे सो गए हैं और बडों में अंधकार  के लिए कोई जिज्ञासा नहीं हैं। मैं कुछ देर उनकी लुप्त जिज्ञासा को टटोलता वहाँ बैठता और रेल ज़ब खिसकने लगती तो फिर बेंच पर लौट आता। 

एक रोज़ अंधकार में पोंsss पोंsss की गर्जना के साथ रेल रुकी। उस वक़्त जीवन मृत्यु की गंध गोल घेरा लगा रही थी और सलेटी कण शकलें बनाने में मगन थे। उन्हीं शकलों की चमक में रेलगाड़ी के माथे पर लिखा नाम चमका – प्राग टू हिदुस्तान। ये रेल मैंने पहली बार देखी थी। खिड़की के भीतर कूपे में बगैर वायु के प्रकम्पित से तीन आदमी बैठे नज़र आए। मैं, पेड़ कुत्ते और कौवे सब उनकी बगल में जा बैठे। मैंने देखा- एक कोट पेंट में नौजवान सा दिखता अंग्रेज है जिसके गले में लकड़ी के लॉकेट पर अंग्रेजी का K बना है। दूसरा पेंट शर्ट काले फ्रेम के चश्मे में कुछ हिंदुस्तानी शहरी सा दिखता है। तीसरा एकदम हिंदुस्तानी देहाती किसान सा दिखता है, धोती कुर्ता चेहरे पर झुर्रियाँ, सफ़ेद होती मूँछे। जैसे तीन समय आपस में बतियाने बैठे हों। मुझे याद आया मैंने इन तीनों को किताबों के पिछले प्रशठों पर देखा है।

अंग्रेज की आँखों में गाढ़ी हताशायुक्त पीड़ा थी जैसे उस कोठरी में बंद होने पर होती है, जिसका रास्ता गुम हो। उसके अधसिले से होंठ हिले -मैं तो अब तक किसी को समझा नहीं पाया कि मेरे भीतर क्या चल रहा है, ज़ब खुद को ही नहीं समझा पाया तो दूसरों को क्या समझाता।

शहरी कुछ असमंजस में था – ये दुनिया असल में जिगसॉ पजल है, कहीं ऐसा तो नहीं आप गलत खाने में आ गए या फिर आप सही जगह हैं और लोग गलत खाने में बैठे हैं! मेरा ख्याल है कि इस दुनिया को खाली पडे खाने नज़र नहीं आते… भरे हुए गलत खाने ही उन्हें सही लगते हैं। 

देहाती की झुर्रियाँ और गाढ़ी हुई। भग्नह्रदय में गड़ी मनोव्यथा निकली – गलत और सही, न्याय और नीति सब लक्ष्मी के खिलौने हैं वही उन्हें नचाती है। चाटुकारिता और सलामी का जमाना है भाई, तुम विद्या के सागर बने गलत सही जगह तय करते बैठे रहो कोई सेत भी न पूछेगा।

तब क्या हमें अपने कागज कलम जला नहीं देने चाहिए? अंग्रेज घोर निराशा में था।

लेखक तो होता ही अतीतजीवी है और मृत्यु की छाया बहुत पहले से एक अनलिखी लिपि की तरह लिखे शब्दों के बीच मंडराती रहती है। जला देने से भी ये मिटेंगे तो नहीं। लिखना ही हमारी आत्मा की शरणगाह है। ये शहरी हिंदुस्तानी के उदगार थे।

ऐसा लगता है हमारे हिस्से ही सारा दुख देखना बदा है या दुख के हिस्से में हम आए हैं। देहाती अब और दुखी था।

ग़र हम दुख न देख पाएँ तो लिखेंगे कैसे? और दुख देखने के बाद भी न लिखें तो आत्मदंश हमें मार डालेगा। 

तभी तो कहता हूँ लेखक के हिस्से दुख ही बदा है।

दुख को कह लेने का… मतलब लिख देने का सुख भी तो है। ये सुख कितनों को मिलता है?

फिर हमें अपने अग्रजों के ऋण से उऋण भी तो होना है।

अचानक उन तीनों ने मुझसे पूछा – क्यूँ भई… तुम तो लेखक नहीं लगते… तुम्हें क्या लगता है… दुख लिख देने से कितना गल जाता है और कितना बचा रहता है?

मैं कुछ कहना चाहता था लेकिन कूपे में हलचल हुई, वो खिसकने लगा और मुझे उतर जाना पड़ा। मैं कहना चाहता था कि दुख लिख देने से टुकड़ा-टुकड़ा हो जाता है… फिर शायद एक दिन इतना टुकड़ा-टुकड़ा हो जाए कि नज़र ही न आए। होकर भी नज़र न आना…।

खिसकती खिड़की से आवाज़ आई – अगले जन्म में लेखक होना … तब पूछेंगे तुमसे… असंख्य के नज़र न आने का रहस्य…।

उस रात के बाद दुख इतना असंख्य हुआ… इतना टुकड़ा-टुकड़ा हुआ कि हर जगह नज़र आने लगा। उस एक दुख का नाम था कोरोना।

कोरोना ऐसी खींच बन कर आया जिसने बदहवास लोगों को होश की तरफ फिसला दिया। लेकिन ये खींच इतनी जोर की थी कि इसने होश में टिकने का समय ही नहीं दिया। कॉलोनी में पहले ही चहल पहल कम थी अब सूनी हो गई। लोग खिड़की दरवाज़े खोलने से भी डरते… कहीं कोरोना बाहर न खींच ले। धीरे-धीरे कोरोना घरों के अंदर हाथ डाल कर बाहर खींचने लगा।  श्मशान से उठता धुआँ और नारंगी कण शाश्वत सत्य बने गोल-गोल घूमते ही रहते अनवरत। सोलह कलाओं वाले चंद्र के तले भी पेड़ों के पत्ते झुलसने लगे, खाली पड़ी पटरियाँ सलेटी परत से ढकी आग उगलती। कुत्तों और कौवों की आँखों में गलियों का सूनापन उतरने लगा। कॉलोनी में मुर्दा गाड़ी की आवाज़ बढ़ती जा रही थी। एक रोज़ शाम के वक़्त देखा एक घर के बाहर चादर से ढका कुछ है…. चादर हटाई… पहचाना… ओह्ह्ह… शर्माजी…। गाड़ी के इंतजाऱ में। इन्हीं शर्माजी को कितनी ही बार देरी से आने के लिए अपने ड्राइवर से लड़ते देखा था। मैं बैंच से पीठ टिकाए गाड़ी की आवाज़ का इंतज़ार करने लगा…. अँधेरा उतर आया मगर गाड़ी की आवाज़ नहीं आई। उस रोज़ मैंने और कुत्तों ने मिल कर शर्माजी को चादर में बांध, श्मशान तक घसीटा। पहली बार टूटी फूटी बाउंड्री के पार आया। जो देखा वो सब बेंच से नहीं दिखता था। हाँ, बेंच यहाँ से भी दिखती थी। लकड़ियों के ढेर पर लाश नहीं बल्कि लाशों के ढेर पर लकड़ियाँ जल रहीं थीं। लकड़ियाँ जल चुकती तो लाशें एक दूसरे को जलाने लगतीं, फिर भी अधजली रह जातीं। अंग और अधजले अंग देखने में बहुत बड़ा फर्क है। अधजले अंग पीड़ा से अकड़ आपको जकड़ लेते हैं। आप कहीं भी जाओ वो लटके रहते हैं। अधजली टांग टांग पर… बाँह बाँह पर… आँख आँख पर… छाती छाती पर… होंठ होंठ पर… आंते आंतों में रेंगती सी लगतीं हैं। इनसे मुक्ति असम्भव सी जान पड़ती है। लकड़ियों की कमी की वजह से कुछ को जमीन में गड्डा खोद पटक दिया गया था। कुछ बिन जली यूँ ही पड़ी थीं। जिस जगह को मैं दूर से सिर्फ श्मशान समझे था वहाँ तो श्मशान सिमिट्री  टावर ऑफ़ साइलेंस सब मिले हुए थे। या ये कह सकते हैं कि जिसे बदहवासी अलग किए बैठी थी उसे एक खींच ने मिला दिया था।

अचानक उड़ते सलेटी कण तीन चमकीली शकलों में बदल गए।

 दुख टुकड़ा-टुकड़ा होकर भी गलता नहीं है… दुख टुकड़ा-टुकड़ा होकर भी जलता नहीं है… दुख हमेशा बचा रह जाता है…

क्या तुम्हें नहीं लगता कि होश में आना कष्टप्रद होता है? उनका सवाल गोल घेरे बनाता मेरे भीतर उतर रहा था।

उस रात तराजू का पलड़ा पश्चिम की ओर जमीन को छूने लगा। उस रात मैं सिर्फ बैठा नहीं रह सका… सिर्फ देखता नहीं रह सका… दुख न गलता है न जलता है… लिहाफ बदल लेता है।

तब क्या सुख भी दुख का एक लिहाफ है? मैंने पूछा। मगर वहाँ कोई नहीं था जवाब देने को।

उन पंद्रह रातों में मैं और कुत्ते चार लाशों को घसीट चुके थे। पलड़ा जमीन में धंस जाना चाहता था। अब मैं बैंच पर बैठता तो वैचारिक डिसअप्रूव्ड नक्शे बनने लगते। सुख और दुख के समानांतर लकीरों वाले नक्शे। श्मशान के… सिमिट्री के… टावर ऑफ़ साइलेंस के ख़डी धारियों वाले नक्शे। नारंगी जुगनुओं वाली शकलों के उलट पुलट जाल वाले नक्शे। लेकिन मैंने तो कभी ऐसे नक्शे बनाए ही नहीं थे। 

कुछ दिनों बाद वह दिन आया ज़ब ये सब नक्शे घिस मिस हो कर गोल हो मेरी आँखों के गोलो में बैठ गए। अब मैं बैंच से उठने की हालत में नहीं था। मैं सारी रात और पूरा दिन वहीं लेटा रहा। मेरी देह तप रही थी। कुत्ते मेरी देह सहला देते। कौवे कहीं से रोटी के टुकड़े ढूंढ़ लाते जिन्हें कुत्ते मेरे मुँह में डालने की कोशिश करते। गिलहरियाँ हड़बड़ी में मुझे देख जातीं फिर कुछ और गिलहरियों को खबर करने दौड़ जातीं। कुछ अपनी झबरी पूँछ पानी के कुंडे में भिगो मुझ पर छिड़क देतीं। दो लाल टिड्डे अपने एंटीने से मुझे गुदगुदाते रहे। वो दूसरी रात थी। मैंने देखा प्रगाढ अंधकार में ट्रेन से तीनों आदमी उतर कर मेरी ओर आ रहे थे। तीनों के चेहरों पर बेचैनी और उलझन थी।

आखिर तुमने दुख को पकड़ ही लिया। एक ने कहा।

दुख जोंक है… एक बार चिपका तो छोड़ता नहीं है… दूसरे ने कहा।

बोटी बोटी नोच कर भी छोडने वाला नहीं । तीसरे ने कहा।

वे तीनों बारी बारी से मेरे कान में कह रहे थे – होश में आना कष्टप्रद होता है… लेकिन होश में न आना उससे ज्यादा। 

उनकी आत्माभिव्यक्ति की बेचैनी मुझमें उतर रही थी। मेरी आत्म शांति भंग होने के कगार पर थी।

मेरी देह होश खो रही थी और कुत्ते उसे हिला हिला कर होश में लाना चाहते थे। कौवे अपनी छठी इंद्री से आगत देख चुके थे। काफ़ी समझाइश के बाद उन्होंने कुत्तों को राजी किया। अब वे सब मिल कर मेरी देह श्मशान की ओर खींच रहे थे। आखिरकार मैं बगैर नक्शे वाली जगह पहुँचा दिया गया। देर तक कुत्ते और कौवे मेरी देह पर बैठे उसे सहलाते रहे फिर जलती लकड़ी उठा मेरी देह पर रख दी। अब मैं आधा मिट्टी में था और आधा सलेटी चमकते जुगनूओं में था। मुझे अचरज हुआ कि मैं अब भी देख पा रहा हूँ। अचानक जुगनूओं में वही तीन शकलें दिखी।

मुझे अचरज है मैं अब भी देख पा रहा हूँ!  मैंने कहा।

वे तीनों हँसे, पहली बार और अपनी-अपनी जेबों से निकाल कलम मेरी ओर बढ़ा दी।

यही अब तुम्हारी आँखों में बैठे नक़्शे को जमीन दे सकती है। तुम लेखक बनने के कगार पर हो। 

कह कर वे गुम हो गए। तब से मैं आधा जमीन में आधा जुगनुओं में रह गया। धीरे-धीरे श्मशान की लपटे ठंडी हुईं और श्मशान सिमिट्री टावर ऑफ़ साइलेंस फिर अलग हो गए। पटरियों पर रेल रुकने लगी। कुत्ते कौवे गिलहरियाँ टिड्डे कीड़े बेंच के आस-पास मंडराते रहते। तराजू का पूरव पलड़ा जमीन में धंसने लगा और पश्चिम पलड़ा फिर से हल्का हो आकाश छूने लगा।  एक दिन मैंने देखा, एक आदमी उसी बेंच पर पीठ टिका आ बैठा है। बस बैठा है। बस देख रहा है। फिर एक दिन वो खुली बंद आँखों से वहीं सो गया और मैं धीरे से उठ कर रेल की खिड़की में ज़ा बैठा।

(साहित्य समर्था विशिष्ट कहानी पुरस्कार 2023)

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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