बस पूरी तरह रुकी भी नहीं थी कि राजेश स्टॉप पर कूद पड़ा। उत्तेजना के मारे। वह जल्दी से जल्दी अपने कमरे में पहुंचना चाहता था। एक सेमिनार में उसे अनायास ही ऐसी सूचना हाथ लग गयी थी कि उत्तेजना से भर उठा था। वह तेजी से लक्ष्मी नगर की संकरी गलियों में धंसता चला गया।
दिल्ली आने पर उसे पहले खुली जगह रहने के मिली थी। वह भी मुफ्त। उसके मामा बैंक में अधिकारी थे। उनका तबादला हो गया तो राजेश के लक्ष्मी नगर की संकरी गली में कमरा दिलवा गए थे। लक्ष्मी नगर ऐसे ही स्वप्नशील नौजवानों का पनाहगाह था। राजेश लेखक बनना चाहता था। ज्यादातर प्रकाशक, पत्रिकाएं, रेडियो और टेलीविजन के चैनल दिल्ली में थे। कहानी लिख कर झारखंड की राजधानी रांची में जिंदा रहना मुश्किल था और उसे प्रसिद्ध लेखक होने तक जिंदा रहना था। आकांक्षा इतनी भर थी कि लिखने-पढ़ने से संबंधित कोई नियमित काम मिल जाए ताकि वह बचे समय में निश्चिंत होकर अपना लेखन कर सके। थोडा-बहुत काम तो उसे मिलने लगा था लेकिन नियमित नहीं था। न ही काम एक जगह मिलता। उसे काम की तलाश में पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन कंपनियों के दफ्तरों में भटकना पड़ता। शाम होते-होते वह निचुड़ जाता। कमरे पर आकर करता भी क्या ? इसीलिए उसकी कोशिश रहती कि शाम में किसी सेमिनार या विमोचन समारोह में पहुंच जाए। वहां मीडिया, साहित्य, कला-संस्कृति की मशहूर हस्तियों के विचार सुनने को मिलते। जलपान, चाय-कॉफी मिलने का सुख अलग से था। जान-पहचान का दायरा बढ़ता। कुछ बड़े लोग उसे पहचानने भी लगे थे पर….
बड़े लोग नौकरी देना तो दूर, उसे काम देने में भी हिचकिचाते थे। काम पाने का तरीका था- किसी बड़ी हस्ती के दरबार में नियमित हाजिरी लगाना। बड़ी हस्ती को कभी न कभी नियमित दर्शनार्थी में गुण नज़र आ ही जाएगा। यह आज़माया नुस्खा था। इस पर वह अमल भी कर रहा था। वह प्रेमदयालजी के कैम्प में दरबार करते करते घुस ही गया था। इससे उसे थोडा-बहुत काम भी मिलने लगा था। उसे अब सेमिनारों में भटकने की ज़रूरत नहीं थी। फिर भी वह अपनी बौद्धिक खुजली मिटाने सेमिनारों में पहुंच ही जाता। वहां श्रोताओं की कमी आम तौर पर रहती। श्रोता को आया देखकर आयोजक खिल जाता। इसलिए निमंत्रण-कार्ड के बगैर भी जाओ तो कोई आयोजक एतराज नहीं करता था। वैसे भी ज्यादातर आयोजन खुले होते थे। बाकायदा अखबारों में आमंत्रण वाला विज्ञापन छपता। ऐसे जलसों से लौटते समय उसे अकसर लगता कि जाना बेकार हो गया। लेकिन शाम को कमरे पर आकर करता भी क्या ? वहां कोई नहीं होता था। आठ बजे के बाद ही मोहिन्दर और शुभ्रकमल पहुंचते थे। तब जाकर त्रिभुज बन पाता।
त्रिभुज के तीन सदस्य। राजेश, मोहिन्दर और शुभ्रकमल। प्रकाशित रचनाओं की परस्पर प्रशंसा करते हुए तीनों परम मित्र बन गए थे। तीनों लेखक थे। उनकी आकांक्षा एक ही थी। वे एक साथ रहते थे। इससे असुरक्षा की भावना काबू में रहती थी। दो की जेब खाली होती तो तीसरा कमरे का किराया दे देता। कभी पहला बनिये का बिल भर देता तो दूसरा बस पास। तीनों मिल-जुलकर खाना पकाते, कपड़े धोते। एक दूसरे के सुख-दुख में साझीदारी करते।
मोहिन्दर अंबाला से आया था। अंग्रेजी में एम. ए. करते-करते वह लेखन की तरफ मुड़ा था। अब अनुवाद कर गुजारा कर रहा था। लंबा-तगड़ा मोहिन्दर अपनी हरियाणवी हिन्दी, अंग्रेजी बोलता। उसके पिता एक आर्डिनेंस फैक्ट्री में काम करते थे। उनका तबादला होता रहा था। इसलिए उसकी स्कूली पढ़ाई कई प्रांतों में हुई। इसलिए उसे कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में घुलमिल जाने का अभ्यास था। कॉलेज की पढ़ाई उसने जरूर अंबाला में अपने ताऊ के यहां रहकर पूरी की थी। लंबे-तगड़े मोहिन्दर का चेहरा स्त्रियों जैसा कोमल था। वह हमेशा नीचे सुर में बोलता जिससे दूसरों को भ्रम हो जाता कि वह सीधा-सादा है। उसका असली रूप कमरे में दीखता- खुला, आक्रामक और अनगढ़।
शुभ्रकमल त्रिभुज ज़ी दूसरी बांह था। वह इंदौर से आया था। वह पत्रज़रिता की पढ़ाई कर इंदौर के एक अखबार में अच्छी-भली नौकरी कर रहा था। कहानियां लिखता था। उसका बॉस दिल्ली के एक अखबार में आ गया तो वह भी दिल्ली फतह करने दिल्ली चला आया। उसके बॉस की मालिक से नहीं पटी तो शुभ्रकमल भी अपने बॉस के साथ नैतिकआधार पर इस्तीफा देकर बाहर आ गया। फिर तो उसे नए शहर में एक से एक ज़िल्लत उठानी पड़ी। उन्हीं दिनों उसके पत्र-मित्र राजेश ज़ी चिट्ठी घूम-घामकर उसके पास पहुंची तो उसके ज़्मरे पर मिलने गया और उसी के कमरे का होकर रह गया।
कमरा राजेश का था। राजेश त्रिभुज ज़ी दूसरी भुजा था। तबादला होने पर उसके मामाजी ने अपने बैंक के चपरासी का कमरा राजेश को दिलवा दिया था। मिश्रा बैंक की ड्यूटी के बाद पान की दुकान चलाता था। राजेश के कमरे के नीचे ही मिश्रा पान भंडार था जो शाम को खुला करता, रात को बारह बजे बंद हुआ करता। वहां पान-सिगरेट के साथ कोल्ड ड्रिंक में भांग, दारू बिका करती थी। मिश्राजी ने इस बड़ी कमाई के बूते अपना मकान खड़ा कर लिया था। राजेश उसे दो-तीन महीने तक किराया न देता तो मिश्राजी सोचते- ‘साहब का भांजा है, किराया तो आ ही जाएगा। कमरा बड़ा था। साथ में संकरा बाथरूम, बेतरतीब रसोई और बेपनाह लंबी छत थी। तीनों फर्श पर गद्दे डालकर सोते थे। कमरे में एक मोबाईल फोन था, जिसज़ किराया तीनों मिलकर देते। त्रिभुज को नौकरी की तलाश थी। वे इसके-उसके छोटे-मोटे काम कर थक चुके थे। उन्हें भविष्य पारे की तरह फिसलता नज़र आ रहा था। कहां नियुक्ति की गुंजाइश है, इसका पता वे लगाते रहते। अपना रेडियो का विज्ञापन तो अखबारों में छपा था। बड़ी संस्था में नियुक्तितयां होनी थीं। लेकिन वहां नौकरी पाने का कोई जरिया उन्हें नहीं मिल पा रहा था। तभी राजेशमहतो को एक नायाब जरिया मिल गया था। और, वह प्रसन्न मुर्गे की तरह अपने कमरे की तरफ तेजी से भागा जा रहा था।
राजेश कमरे में घुसा तो उसका चेहरा खुशी के मारे दमक रहा था। प्याज़ काटता मोहिन्दर आंसू पोंछ रहा था। शुभ्रकमल आटा गूंथ रहा था। मोहिन्दर के टू इन वन सेट पर फिल्मी गाना आ रहा था- ‘जाएं तो जाएं कहां। समझेगा कौन यहां, दर्द भरे दिल की जुबां! शुभ्रकमल ने उसे देखते ही कहा – आ गया मेरा शेर! बस जरा बर्तन धो लो। फिर अपन खाना खायेंगे। सब्जी बन गयी है। सलाद बन रहा है। रोटियां मैं सेंकने ही वाला हूं।`
‘धत! साले!` राजेश चीख पड़ा- ‘तुम्हें गंदे बर्तन की चिंता है। यहां मैं जबर्दस्त खबर लाया हूं। … हमारी बेकारी अब खत्म समझो। अपना रेडियो जिंदाबाद!` राजेश का उभरी
हड्डियों वाला सांवला चेहरा चमक रहा था। प्रसन्नता की उत्तेजना में वह सनसना रहा था। आंखें सपनीली हो रही थीं।
प्याज़ के आंसू पोंछते मोहिन्दर ने पूछा- ‘अबे नारे ही लगायेगा कि कुछ बताएगा भी ?`
‘अपना रेडियो वाले इंटरव्यू में प्रेमदयालजी विशेषज्ञ होंगे। खुल गयी न अपनी लॉटरी!`
‘प्रेमदयालजी विशेषज्ञ होंगे? तुम्हें कैसे पता ?`- आटे की थाल सरकाते शुभ्रकमल ने पूछा।
‘मानवाधिकार वाले सेमिनार में प्रेमदयालजी से ही पता चला।`
‘उन्होंने तुम्हें यह गोपनीय बात बता दी। तुमने या उनसे बात की थी ?`
‘नहीं। मैंने तो बस नमकार किया था। वे अपने एक मित्र से कह रहे थे- अगले सोमवार को डिनर मत रखो। ‘अपना रेडियो` में इंटरव्यू लेना है। वैसे मामला दिन भर का है पर इंटरव्यू खिंचता ही है, रात हो जाएगी।`
‘चुगद कहीं के ! जब सुन ही लिया तो उनसे मिलने का टाईम मांग लेते।`
‘वहां फौरन यह बात करना ठीक होता क्या ? फोन कर लेंगे।`
‘उज़बक! तूने आज दिमाग का इस्तेमाल कर कमाल कर दिया।` मोहिन्दर उठा और नल पर जाकर हाथ धोने लगा।
‘चल! फटाफट प्रेमदयालजी ज़े फोन लगा।` शुभ्रकमल भी हाथ धोने चला गया।
कमरे में मंडराता रहनेवाला अवसाद गायब हो गया था। प्रेमदयालजी ने अगली सुबह राजेश को मिलने के लिए बुला लिया था। मोहिन्दर और शुभ्रकमल दोनों को लगा कि उनके फेफड़े अब ज्यादा खुलने लगे हैं। वे खुलकर सांस लेने लगे थे। तीनों में योग्यता थी। वे रेडियो लेखन करते रहे थे। वे प्रसिद्ध किव या लेखक न थे पर संस्कृति की भीड़ में खड़े अनजान, अचीन्हे चेहरे भी न थे। राजेश प्रेमदयालजी के साथ कई छोटी-मोटी परियोजनाओं में काम कर चुका था। राजेश की वजह से बाकी दोनों भी प्रेमदयालजी से परिचित थे। इसलिए ‘अपना रेडिया` में उनके चयन की संभावना तो थी ही। उनके भीतर की भाव-धारा अचानक बदल गयी थी। अवसाद, चिड़चिड़ापन और क्रोध की जगह प्रसन्नता आ गयी थी। उम्मीद और सपनों की जमीन से उगी प्रसन्नता।
मोहिन्दर का सम्पर्क कई रम-प्रेमियों से था जो न केवल उसे पिला देते थे बल्कि सस्ता रम मुहैय्या भी करा देते थे। मोहिन्दर ने खुशी के मारे अपना ‘सुरक्षित पेय भंडार` खोल दिया। तीनों के हाथ में रम के पेग थे। मोहिन्दर में मनोवेग बढ़ता तो एक बड़ा पेग बगैर जल के गटक जाया करता। उस दिन तो पूरे कमरे में मनोवेग की लहरें उठ रही थीं। तीनों उसमें भींगे थे। जोश में रम वाले उनके ग्लास ऐसे टकराये कि रम छिटककर उनके कपड़ों पर जा गिरा। थ्री चीयर्स!
सुबह शुभ्रकमल जगा तो एक क्षण को उसे उम्मीद से लबरेज रात वाला कमरा याद आया। हुडक न उठने के बावजूद सिगरेट खूब पी गयी थी। मंडराता धुआं वातावरण को अभी भी रहस्यमय बनाये हुए था। वातावरण नम्य और शिथिल था फिर भी सुबह में ही उसे नई शुरुआत करनी थी। आगामी इंटरव्यू के लिए एक स्क्रिप्ट लिखनी थी। लेकिन उसके पहले ज़रूरी था कि प्रेमदयालजी से चयन का आश्वासन ले लिया जाए। शुभ्रकमल ने देखा नौ बज रहे हैं। उसे हड़बड़ी महसूस हुई तभी उसकी नज़र सोये मोहिन्दर पर गयी। उसकी बगल लेटा राजेश गायब था। उसका थैला भी नहीं था। पट्ठा जरूर प्रेमदयालजी के यहां सुबह-सुबह निकल गया। अब शुभ्रकमल को इत्मीनान आ गया। अगर तीनों एक साथ सिफारिश के लिए पहुंचते तो प्रेमदयालजी चिढ़ जाते। उन्हें क्या एक ही मुहल्ले में नौकरी बांटनी थी।
तीन दिनों के भीतर तीनों ने उम्मीद के फेरे ले लिए थे। तीनों को प्रेमदयालजी का आशीर्वाद मिल गया था। वे तीन थे। उनमें बड़ी एकता थी। सपने, सुख, दुख एक जैसे थे। इसे देखते हुए शुभ्रकमल ने इस समूह का नाम त्रिभुज रख दिया था। तो… यह त्रिभुज इंटरव्यू की तैयारी में लगा था। प्रेमदयालजी की नसीहत उन्हें याद थी। ` स्क्रिप्ट अनूठी हो और भाषा… भाषा पर ध्यान देना। रेडियो पर बोलना फुटबॉल खेलना नहीं है कि बॉल सामने आयी और किक लगा दिया। रेडियो पर समझ-बूझकर बोलना होता है। लाखों-करोडों लोग उसे सुनते हैं।`
प्रेमदयालजी ज़ी सदाशयता से तीनों लबालब भरे थे। वे प्रसिद्ध मीडिया विशेषज्ञ थे। जन-सम्पर्क में माहिर थे। वे किसी को ना नहीं बोलते। काम नहीं होने पर वे स्वयं को बरी करने के लिए ऐसा तार्किक बहाना निस्संकोच बोलते कि सामने वाला लाजवाब हो जाता। जिसका काम नहीं हुआ, उसे प्रेम-आदर से बिठलाते, खिलाते-पिलाते और प्रशंसा करते। गरज ये कि प्रेमदयालजी व्यावहारिक प्रेम में कोई कमी नहीं रहने देते। इसलिए उदास, निराश प्राणी भी उनके यहां से लौटता तो प्रेमदयालजी को नहीं, बल्कि अपने भाग्य या परिस्थितियों को कोसता। किसी-किसी का काम हो भी जाता था। वह घूम-घूमकर प्रेमदयालजी का गुणगान करता। जिसका काम न भी होता, वह भी उनक गुणगान ही करता। इसलिए प्रेमदयालजी की सर्वसुलभ, उदार और सहायक छवि बनी हुई थी। राजेश, मोहिन्दर और शुभ्रकमल तीनों उस उदार छवि के मुरीद थे। वे नमूने का स्क्रिप्ट लिखने, पुराने स्क्रिप्ट की फोटो कॉपी करवाने, कपड़े धोने, बाल कटवाने और जूता चमकाने जैसे जरूरी कामों में लगे रहे। इसी बीच इंटरव्यू के स्थल और समय की सूचना का फोन आ गया था। उनकी उम्मीद गुब्बारे की तरह फूल रही थी।
सब कुछ ठीक चलता देख उनके मन में सुखद कल्पनाएं मंडराने लगी थीं। मसलन – नौकरी लगने की सूचना घरवालों को कैसे दी जाए कि वे सबसे अधिज़् चौंकें ? मोहिन्दर तो अंबाला पहुंचकर अपने ताऊजी को हरी झंडी देने वाला था कि अब मेरी शादी का रिश्ता देखो। शुभ्रकमल का मामला उलटा था। उससे बड़ी दो बहनें कुंवारी थी। शादी के लिए पैसे जोडे जा रहे थे। उसमें वह अपना योगदान देने की कल्पना कर रहा था। तीनों के बीच एक कल्पना साझे की थी। ‘उसकी आवाज़ दिग् -दिगन्त में गूंजेगी! अमीन सयानी ज़ी तरह उसकी आवाज़ को कई पीढ़ियां पहचानेंगी। बातचीत का एक टुकड़ा सुनते ही लोग पूछ बैठेंगे- आप रेडिया वाले फलां साहब तो नहीं हैं?`
आवाज़ के जादू में अमरता का खेल घुस गया था। वे तीनों भविष्य के नशे में थे। झूमते पर बाहोश।
राजेश और शुभ्रकमल इंटरव्यू में साथ ही गए थे। लेकिन मोहिन्दर को अनुवाद के पांच सौ रुपए कहीं से वसूलने थे, इसमें देर हो गयी। वह हांफता-हांफता पहुंचा था। ख़ैरियत यह रही कि इंटरव्यू के लिए उसज़ नाम नहीं पुज़रा गया था। राजेश और शुभ्रकमल इंटरव्यू के इंतजार में थे। वहां और भी उम्मीदवार थे। मोहिन्दर ने देखा- लडकियां बहुत हैं। सजी-संवरी, बिन्दास और आत्म-विश्वास से भरी लड़कियां। वातावरण में कई प्रकार के स्प्रे-सेंट, डियोडोरेंट की खुशबुओं का घमासान था। लड़कियां चबर-चबर बोल रही थीं। वे अपनी-अपनी आवाजों की मिठास जताना चाह रही थीं। कोई इंटरव्यू से बाहर आती तो वह लड़कियां के गिरोह में फौरन घुस जाती। फुसुर-फुसुर बताती- क्या- क्या सवाल पूछे गये। इंटरव्यू कौन-कौन ले रहा है।
मोहिन्दर ने दो लड़कियां से हैलो-हाई कहा भी पर उत्साहवर्द्धक उत्तर न मिलने पर बुझ गया। उसके पास तीन अपरिचित उम्मीदवार बैठे थे। वे मोहिन्दर को यूं घूरने लगे मानो कह रहे हों- ‘बेवकूफ! इनके पचड़े में मत पड़ो। तुम इनके काबिल नहीं हो।` लेकिन मोहिन्दर पर इसका ज़ेई असर नहीं हुआ। वह प्रेमदयालजी के आश्वासन से जो भरा था। उसने सोचा- ‘मूर्खो! नौकरी मुझे मिलेगी। तब तुम मुझे उज़बक नहीं समझोगे। और लड़कियों ! तुम लोग तो मुझसे मिलने के लिए सिफारिश की तलाश करोगी।` तभी एक क्लर्क आया और मोहिन्दर से बोला- ‘आप अभी आए हैं? चलिए, आपज़ी रिकार्डिंग कर लें।` मोहिन्दर ने सवालिया तरीके से राजेश को देखा- ‘जा न! सेम्पल रिकार्डिंग करेंगे। हम लोगों ज़ी रिकार्डिंग पहले हो चुकी।` मोहिन्दर को तसल्ली हो गयी। वह क्लर्क के साथ चला गया।
वहां उसकी आवाज़ की पहचान होनी थी। आवाज़ के साथ अजीब था कि कोलाहल से मिलते ही उसका चरित्र भ्रष्ट हो जाता। अच्छी आवाज़ भी कानों तक आते-आते साधारण या कर्कश बन जाती। लेकि कुछ आवाज़ें ऐसी भी होती हैं जो कोलाहल से मिलकर और सम्पन्न हो उठती हैं। लेकिन रेडियो के कोलाहल के असर से मुक्त, एकल और चरित्रवान आवाज़ चाहिए होती है। रेशा-रेशा साफ आवाज़। निचले सुर में भी साफ और ऊंचे सुर में भी न फटनेवाली आवाज़, जिसमें पानी जैसी आर-पार तरलता हो और चांदी जैसी निष्पाप चमक।
तीनों अपनी आवाज़ को लेकर लापरवाह रहे थे। वे उसे बोलने के काम में लाते थे। बस। कभी खांसी हो गयी तो गोली खा लो। उन्हें पता नहीं था कि माइक्रोफोन, कोलाहल से मुक्त साउंडप्रूफ रिकॉर्डिंग रूम और रिकॉर्डिंग मशीन उनकी आवाज़ के साथ क्या शरारत कर सकती थी। वे रेडियो से कविता-कहानी का पाठ कर चुके थे, इसलिए सोचते थे कि उनकी आवाज़ अच्छी है। उन्हें पता नहीं था कि कविता-कहानी में रचना और रचनाकार की प्रतिष्ठा देखी जाती है, न कि स्वर परीक्षा का परिणाम। अलग-अलग स्केल में उनकी आवाज़ें रिकॉर्ड कर ली गयी थीं। उसमें उन्हें अपनी ही स्क्रिप्ट का वाचन करना पड़ा था। इसमें वे आवाज़ में उतार-चढ़ाव, नाटकीयता, आत्मीयता के जो-जो करतब उन्होंने रेडियों से सुन-सुनकर सीखे थे, उन्हें आजमाया था।
मोहिन्दर रिकॉर्डिंग से लौटा तो पस्त था। बड़बड़ बोलने का उसका अभ्यास उसे रोजमर्रा का था, पर वहां तो सतर्कता थी। आवाज़ के फिसलने का बोध था। इन सतर्कताओं ने उसजका तनाव बढ़ा दिया था। गोकि रिकॉर्डिंग रूम एअर कंडीशंड था, फिर भी मोहिन्दर पसीने से लथपथ हो उठा था। राजेश ने उसका कंधा थपथपाया। शुभ्रकमल आत्मीयता से मुस्कुराया। धीरे-धीरे मोहिन्दर सहज और आश्वस्त हो गया।
दो बज गए थे। भूख पेट से निकल चेहरों पर आ गयी थी। अब उम्मीदवार पांच रह गए थे- त्रिभुज और दो लड़कियां। वे बार-बार अपने सूखे होंठों पर जुबान फिराते। रेडियो वाले भले निकले। सबों ज़े पैकेट लंच और पानी की बोतल थमा गए। खाते-खाते उम्मीदवारों क परिचय हो गया। गोरी-चिट्टी, चेहरे पर ढेर सारा बचपना लीपे कामिनी नज़ीबाबाद से आयी थी जहां वह स्थानीय रेडियो में बतौर कैजुअल आर्टिस्ट कार्यक्रम प्रस्तुत किया करती थी। राधा दिल्ली के ही एक टुटपुंजिया अखबार में रिपोर्टर थी। सरकारी रेडियो में कई बार कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुकी राधा मुंहासों के बावजूद आत्मविश्वास से भरी थी। वह मीडिया में हाहाकार की तरह छा जाने को उतावली थी। मोहिन्दर ने सोचा- देवियो! कितना भी अनुभव हो, चयन तो हम लोगों का ही होगा। तुम लोग कहां प्रेमदयालजी को जानती होंगी! कामयाब तो हमारा त्रिभुज ही होगा।
इंटरव्यू में प्रेमदयालजी ने त्रिभुज से मनोनुकूल प्रश्न ही पूछा। मालिक से भी प्रशंसा की – ‘ये वो लोग हैं जिन पर मीडिया की उम्मीद टिकी है। प्रतिभा और परिश्रम इनके गुण हैं। इनके आने से प्रतिष्ठान का गौरव बढ़ेगा।` मालिक बेमन से सिर हिलाता रहा। वेतन की बाबत पूछा गया तो तीनों ने बारह हजार रुपए की रकम बतायी थी। पर आखिर में मालिक ने नर्मी से कह दिया- ‘हम अपने निर्णय की सूचना आपको स्वयं दे देंगे। आपको पूछताछ की तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी।`
त्रिभुज जब भवन से बाहर आया तो उसके मन में कुछ खटक रहा था। आखिरी जुमला- ‘आपज़े पूछताछ की तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी।` क्यों कहा ? मालिक इससे क्या संकेत देना चाह रहा था? चयन हुआ कि नहीं, यह कैसे पता चले? प्रेमदयालजी से अभी पूछना या इसके लिए बार-बार संपर्क करना उचित नहीं होगा। राजेश के चयन हो जाने का भरोसा अधिक था। वह आश्वस्त करने के अंदाज में बोला, ‘यह एक रुटीन बात है। हर इंटरव्यू में कही जाती है।` वे चलते हुए मेन स्क्वायर पर पहुंचे तो देखा कि कामिनी और राधा उनके इंतजार में खड़ी थीं। उन्हें लग गया था कि ये इसी शहर में रहते हैं, इसलिए ये चयन के परिणाम का पता जरूर कर लेंगे। इनसे सम्पर्क बनाये रखना ठीक होगा।
लड़कियों को देखकर मोहिन्दर खुश हो गया। शुभ्रकमल ज़ी गंभीरता थोडी घटी। और राजेश तो फड़क उठा। फिर तो चाय पी गयी। पतों और टेलीफोन नंबरों का आदान-प्रदान किये गए। त्रिभुज ने उन्हें ऑटोरिक्शा में बिठला दिया। तय यही हुआ कि जिसे भी कोई सूचना मिलेगी, वह फोन पर दूसरों को सूचित कर दे।
त्रिभुज कमरे पर आया। निढाल। बगैर परिश्रम की थकान। जैसे सारा जल निचुड गया हो और शरीर गीले कपड़े ज़ी तरह अलगनी पर टांग दिया गया हो। त्रिभुज सो गया। मन में उम्मीद और आशंका की कश्मकश थी। इस कश्मकश के गुंजलक ने ही उन्हें निचोड डाला था। न खाना पकाया, न मंगवाया। उनकी जब नींद खुली तो रात के ढाई बजे थे। पास-पड़ोस की बत्तियां बुझ गयी थीं। सड़क का कोलाहल थम गया था। कभी-कभार चौकीदार की सीटी बज उठती। वे बाथरूम गए। पानी पिया। बाहर छत पर आए तो अजीब नजारा था। कई महीनों बाद आज रोशनी से लदबद इस शहर के आकाश में तारे दिख रहे थे। चांद भी शराफत से मुस्कुरा रहा था। वह चांद अंबाला, इंदौर और रांची जैसा ही था। त्रिभुज खुश हो गया। सिगरेट से नसों को और राहत दी गयी, फिर सोने की कोशिश होने लगी।
तीन दिनों बाद नजीबाबाद से कामिनी का फोन आया कि उसका चयन हो गया है और वह अगले सप्ताह आकर उन लोगों से सम्पर्क करेगी। जिस सवाल को त्रिभुज ने तीन दिनों से दबा रखा था, वही सवाल विकराल रूप में उनके सामने खड़ा था। कितने पद थे, कामिनी के चयन के बाद कितने पद बचे? चयन की सूचना दूर नज़ीबाबाद में पहुंच गयी, हमारे पास क्यों नहीं आयी ? अब दो बातें थीं। चयन हो गया और सूचना डाक से आ रही होगी या फिर चयन नहीं हुआ। प्रेमदयालजी के होते चयन नहीं होने का सवाल ही नहीं था। कुछ गड़बड़ है। प्रेमदयालजी के पास जाना ही होगा। खटका था कि फोन पर मिलने का समय मांगों तो कहीं सफाई से मना ही नहीं कर दें। इसलिए बगैर बताये सुबह ही पहुंच जाओ। तय हुआ कि बारी-बारी से जाया जाये और सबसे पहले मोहिन्दर जाए।
सात बजे मोहिन्दर निकलने ही वाला था कि राधा का फोन आ गया- उसे आज ही ज्वायन करना था। मोहिन्दर बस की सीट पर बैठा कसमसाता रहा। ‘लो, इस नकियानेवाली का भी चयन हो गया। अंग्रेजी और दिल्ली की सड़क छाप हिंदी में अनाप-शनाप लिखती थी। जैसे- सुरैया तब बहुत हसीन थी आज भी बहुत ब्यूटीफुल मानी जाती है। वे एजिंग ब्यूटी हैं। वह ऐसे ही अखबार में लिखा करती थी। चीफ रिपोर्टर उसे रोज डांटता पर वह आंखें मटका कर, मुस्कुरा कर उसे निरस्त कर देती। बेचारा चीफ उसकी हिंदी को शुद्ध हिंदी बनाने में जुट जाता। वे अखबारों, किताबों की दुनिया में मंडराया करते थे। उन्हें पता था कि वहां भाषा की शुद्धता सर्वोपरि है। अशुद्ध भाषा लिखकर सिर्फ हास्यास्पद हुआ जा सकता था- यह त्रिभुज को भी पता था। त्रिभुज तो सरकारी और निजी रेडियो और टेलीविजन की अत्यंत गाढ़ी और हास्यास्पद भाषा पर हंसा करता था। वर्षों के अभ्यास के बाद त्रिभुज शुद्ध और प्रवाहपूर्ण भाषा के संसार में प्रवेश पा सका था।
मोहिन्दर को राधा के चयन पर हैरत थी। बहिर्मुखी मोहिन्दर को नकलें उतारने का शौक था। वह रेडियो के डिस्क जॉकी की तरह अपनी आवाज़ को हिलाता, डुलाता, उछालता, दबाता, निचोडता, मसलता। वह भाषा को खींचकर व्याकरण के बाहर वाले मैदान में ले जाता और पटक-पटककर पीटता। वह कभी टेलीविजन के वीडियो जॉकी की तरह हाथ, कमर, कंधों और गर्दन को हिलाकर भाषा को पछाड़ता। वह आंख मटककर, होंठों को दांत से काटकर अश्लीलता की सीमा में प्रवेश कर जाता। शुद्ध भाषा के शब्द एक सीमा तक ही अश्लील हो सकते थे। परायी भाषा में अश्लीलता की शर्म कम महसूस होती थी। अंग्रेजी में अधिक अश्लील हुआ जा सकता था। यहां शुद्ध हिंदी पिछड़ जाती थी। वह लोक-भाषाओं के शब्द लेती तो अश्लीलता के अखाड़े में कभी न पिछड़ती। वैसे भी अश्लील शब्द वाय-तरंगों में गुम हो जाते हैं, छप जाने पर उनकी आत्मा हमेशा के लिए कैद हो जाती और शब्द की अश्लीलता स्थायी हो जाती है। मोहिन्दर के अनुसार राधा की आवाज़ ही अश्लील और कामुक थी। ऊपर से वह आवाज़ के उतार-चढ़ाव के लटके-झटके का इस्तेमाल करती थी। उसको तो भाषा के आधार पर ही छांट देना चाहिए था। आवाज़ तो इकहरी और बेकार थी ही। तब चयन किस आधार पर हुआ? या आवाज़ ने भाषा को पछाड़ दिया था? सवाल अनेक थे। लेकिन निश्चित उत्तर किसी प्रश्न के नहीं थे। सिर्फ अनुमान थे जिनसे इस वर्ग-पहेली का हल नहीं मिल पा रहा था।
मोहिन्दर से प्रेमदयालजी ने बस इतना कहो- ‘कोशिश तो की पर कामयाबी नहीं मिली।` इतने संक्षिप्त उत्तर के बाद मोहिन्दर ने आगे कुछ भी पूछना मुनासिब नहीं समझा। प्रेमदयालजी से उसज़ी निकटता राजेश जैसी नहीं थी। वह खुलकर कुरेद नहीं सकता था। एक प्याला चाय पीकर वह उठ आया। अवसाद से घिरा मोहिन्दर दिन भर मंडी हाउस के गोल चक्कर काटकर घास पर लेटा रहा। अपनी व्यर्थता की कोई व्याख्या उसके पास नहीं थी। वह बस गोल चक्कर पर घूमती रंग-बिरंगी गाड़ियों को देखता रहा। आप गाड़ियों से घिरे हों पर कोई गाड़ी आपकी नहीं हो। ‘इसी शहर में दूसरे फ्रीलांसरों की नौकरी लग जाती है, मेरी क्यों नहीं लगती?` आखिर मोहिन्दर कपड़े झाड़कर उठा और कमरे के लिए चल पड़ा।
मोहिन्दर का संक्षिप्त उत्तर सुनकर राजेश भड़क उठा। ‘तुम मुझसे कहां तक छिपाओगे? साफ क्यों नहीं बताते कि तुम्हारा चयन क्यों नहीं हुआ? प्रेमदयालजी ने क्या- क्या कहा ?`
मोहिन्दर ने चिढ़कर कहा- ‘उनके एक लाईन के उत्तर को मैं रबड़ की तरह तान दूं? हां, उनज़ी आवाज़ में बर्फ जैसा ठंडापन था। टोन यह थी कि स्थिति बता दी, अब तुम यहां से चलते बनो। समझे?` शुभ्रकमल को भी विश्वास नहीं हो रहा था- ‘तुमने स्क्रिप्ट तो ठीक लिखा था। इंटरव्यू भी तुम्हारा अच्छा था। प्रेमदयालजी ने कोशिश की। फिर गड़बड़ी कहां हुई?` सोचते हुए राजेश ने कहा- ‘अब दो ही संभावनाएं हैं। तुमने अपनी रिकॉर्डिंग ठीक नहीं करवायी होगी या फिर मालिक को तुम पसंद नहीं आए।` मोहिन्दर ने चिढ़कर कहा – ‘जो भी हो, अब मुझे सोने दो।` वह खाये-पिये बगैर सो गया।
चयन रोकने वाला खलनायक कौन था? यह रहस्य प्रेमदयालजी ही खोल सकते थे। राजेश और शुभ्रकमल का चयन हुआ या नहीं, इसज़ी पुष्टि भी प्रेमदयालजी ही कर सज़्ते थे। तय यह हुआ कि राजेश और शुभ्रकमल अगली सुबह प्रेमदयालजी के यहां जाएंगे।
सुबह की चाय पीते वक्त मोहिन्दर ने अपने जनकपुरी जाने की योजना बतायी। राजेश और मोहिन्दर साथ ही कमरे से बाहर निकले और ज़ीने के पास रुककर शुभ्रकमल का इंतजार करने लगे। शुभ्रकमल कमरे से बाहर तो आया पर ठिठक गया- ‘राजेश, तुम प्रेमदयालजी के यहां जाओ। मैं यहां फोन का इंतजार करता हूं। या पता आज अपना रेडियो से फोन आ जाए।`
प्रेमदयालजी बालकनी में बैठे चाय पी रहे थे। राजेश को देखते ही उनके चेहरे पर कसाव आ गया, उसे बैठने का इशारा किया और उसके प्याले में चाय ढालने लगे।
‘मुझे अफसोस है, राजेश। तुम्हारा चयन नहीं हो पाया।…`
‘वो… शुभ्रकमल का।…`
‘राजेश, उसका भी चयन नहीं हो सका। इंटरव्यू के लिए बुलावा तो भिजवा दिया था। इंटरव्यू में भी उतनी तारीफ की पर… समझ रहे हो न? मालिक तो फायदा देखता है। तुम लोगों ज़ी स्क्रिप्ट अच्छी थी पर उसे शुद्ध उच्चारण वाली भाषा चाहिए। टू इन वन। लिख भी दे, प्रस्तुत भी करे। लिखे कोई, वाचन कोई और करे, अब यह नहीं चलता… अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम अपनी भाषा को मीडिया फ्रैंडली कर लो, जरा चलताऊ, रेसी भाषा हो। उच्चारण शुद्ध हो और लहजा लहकदार हो… हताश होने की बात नहीं है। थोडे से रियाज़ से हो जाएगा, उनके यहां जगह तो खाली होती रहती है। बस रियाज़ कर लो।`
राजेश रूआंसा हो उठा। वह अपना चयन निश्चित मान रहा था। प्रेमदयालजी उसकी लिखित भाषा के प्रशंसक रहे हैं। अब कह रहे हैं- चलताऊ भाषा, शुद्ध उच्चारण और लहकदर लहजा। इस बार जब उसे नौकरी नहीं मिली तो कभी नहीं मिल पाएगी। वह यूं ही अनिश्चितता के दलदल में हाथ-पांव मारता मीडिया का दिहाड़ी मजदूर बना रहेगा। चाय खत्म कर वह नि:शब्द बाहर निकल आया। प्रेमदयालजी का वाक्य दरवाजे तक उसका पीछा करता रहा- ‘मिलते रहना राजेश।`
राजेश ज़े ग़म पीने की आदत थी। यूं उसके विफलता का रहस्यमय कारण सामने आ चुका था। जिस भाषा के चक्कर में उसने दुनिया भर ज़ी किताबें पढ़ीं। नयी-नयी भाषा-शैलियों को अपनाने का रियाज़ किया। जिस नयी भाषा-शैली के चलते साहित्य में उसे थोडा पहचाना जाने लगा, आज उसी भाषा ने उसे विफलता की सलीब पर उलटा टांग दिया था। भाषा संवारने में लगे उसके दस वर्ष सार्थक के बजाए मूर्खतापूर्ण प्रहसन लगने लगे। दस साल की लगातार गलती। गलती दर गलती। उलटे एहसास यह कि भाषा के क्षेत्र में नया कर रहे हैं। मेरी भाषा ऐसी क्यों है? या इस भाषा-अवगुण की और भी परतें हैं? लेकिन उसे उत्तर नहीं सूझ पा रहा था योंकि दुख का कुहासा बहुत घना था और उसके आसपास सिर्फ प्रश्नों के ज़ंटे थे।
कमरे में पहुंचकर राजेश शुभ्रकमल से इतना भर कह पाया- ‘हमारा चयन नहीं हुआ। शुभ्रकमल ने चिढ़कर पूछा- ‘ क्यों?` राजेश भाषा की शर्म में डूबा था। आगे बोलने की उसकी इच्छा नहीं हुई। शुभ्रकमल को मामला थोडा अर्थगर्भित लगा। ‘राजेश का चयन नहीं हुआ क्योंकि उसे पत्रज़रिता का कोई खास अनुभव नहीं था। पर मैं तो बड़े अखबारों में रह चुका हूं। मेरा मामला कुछ और होगा।` बहुत कुरेदने पर राजेश ने उसे पूरी बात बतायी तो शुभ्रकमल भी सनाका खा गया। भाषा ने ही उसे भी लंगड़ी मारी थी। वह भी शर्म के मारे चुप हो गया। मौन से बेहतर कोई कवच नहीं होता। वे दिन भर इधर-उधर भटकते रहे। मोहिन्दर एक बुकस्टाल पर इन दोनों से टकरा गया तो उसे बस इतना पता चल पाया कि राजेश और शुभ्रकमल का भी चयन नहीं हुआ। विस्तार से बताने के लिए वे उत्सुक नहीं दिखे।
मोहिन्दर को यह मामला अजीब लग रहा था। राजेश और शुभ्रकमल ऐसे चुप थे मानो उनसे कोई संगीन अपराध हुआ हो। चयन तो मोहिन्दर का भी नहीं हुआ था, पर वह तकलीफ, क्लेश वगैरह ज्यादा देर तक नहीं पाल पाता था। वह मन के मरोड को भड़भड़ाकर बाहर ले आता और फिर हाड़तोड परिश्रम की सीधी राह पर चल पड़ता। इसलिए उसे अपनी चिंता नहीं थी। राजेश ज्यादा ही खुद को अपराधी महसूस कर रहा था। अपने चयन के अलावा, उसे उम्मीद थी कि वह शुभ्रकमल और मोहिन्दर का भी चयन करवा लेगा। शुभ्रकमल को अपनी प्रतिभा और अनुभव पर गुमान था, पर यह गुमान एक झटके में मुलम्मे की तरह उतर गया था। मोहिन्दर ने सोचा- ‘अपनी तो जैसे-तैसे कट जायेगी पर राजेश और शुभ्रकमल भीतर ही भीतर घुल रहे हैं, इनका क्या करें? इनकी मनहूसियत तो मुझे भी डुबो देगी। आखिर त्रिभुज में ये दोनों भी हैं।`
त्रिभुज का नियम था कि जो कमरे में आएगा, वह खाना पकाना शुरू करेगा। मोहिन्दर कमरे में घुसा तो दो पर्चियां पड़ी थीं। राजेश और शुभ्रकमल नौ बजे रात में लौटने वाले थे। यानी उनके लौटने में चार घंटे बाज़ी थे। वह थैला लेकर नीचे गया और भव्य शाम ज़ी तैयारी में जुट गया।
राजेश और शुभ्रकमल दोनों साथ ही आए थे। कमरे में ग़ुलाम अली का कैसेट बज रहा था और कुर्सी पर बैठा मोहिन्दर अपनी जांघ पर ताल दे रहा था। एक झटके में ही उसने ताड़ लिया कि इनकी गंभीरता बस नाटक है। ये दुख को छिपाने के लिए चुप हैं। जब तक ये खुलकर नहीं बोलेंगे, बतायेंगे, इनका दुख हल्का नहीं होगा। इसलिए अप्रिय सवाल भी इनसे पूछना ही होगा।
‘ क्या हुआ? कैसे हुआ? जरा विस्तार से बताओ प्यारे?`
शुभ्रकमल जुराबें उतार रहा था। राजेश बाथरूम जाकर वापस लौट आया था।
मोहिन्दर के सवाल में शुभ्रकमल की भी सहमति जैसी थी। वे दोनों उत्सुकता से राजेश को देखने लगे।
‘नहीं हुआ यार! अंग्रेजी में चटर-पटर करने वाली लड़कियां सारे पद लूट ले गयीं।` राजेश ने उकताये अंदाज में कहा- ‘बस एक कामिनी को अपवाद समझो। हमें तो भाषा ने मारा। …छोडो भी अब पेट-पूजा का इंतज़ाम करते हैं।`
सामने चटाई पर कुछ सामग्री अखबार से ढंकी थी। उसे देख राजेश नकली मुस्कान ओढ बोला- ‘लगता है, मोहिन्दर ने सब्जी काट ली है। आटा गूंधकर रख दिया है।`
शुभ्रकमल ने बेरुखी से ज़्हा- ‘मुझे तो भूख ही नहीं है।`
‘ऐसी हालत में खाना बनाना जंजाल लगता है।` राजेश जूता उतारते बोला।
मोहिन्दर ज़े जैसे इसी मौके का इंतजार था। वह बंदर की तरह उछला और बिछे अखबार ज़े उसने उलट दिया। प्लेट में सलाद सजा था। तीन ग्लास करीने से रखे थे। बेसन वाली मूंगफली, भुने चने और कच्चा पनीर प्लेट में सजे थे।
‘आज खाना नहीं पकाना। सब बाज़ार से ले आया हूं। बिरियानी के दो पैकेट केने में पड़े हैं। ऊपर से ये! ` उसने कोकोकोला वाली बड़ी बोतल उपर उठाते कहा, ‘इसमें वो… वो भी मिला दी है।`
‘किस खुशी में ये सब? हम सब दुखी हैं और तुमने ये सब…`, राजेश ने झल्लाकर कहा।
‘हम कब तक दुखी रहेंगे?` मोहिन्दर ने बात काट दी, कब तक यूं मुंह लटकाये खून के आंसू पीते रहें? साले! तुम लोग बकवास हो! न तुम्हें दुखी होना आता है, न सुखी। दुख है तो रो लो, बस छुट्टी। सुख है तो खा-पीकर मस्ती कर लो। सुख से भी फुरसत। हर चीज़ को सीने में दफन कर देते हो, उसे बाहर नहीं आने देते। …चलो आओ बैठो।` वह ग्लास में रम वाला कोकोकोला ढालने लगा।
‘पर खुशी भी एक ज़रण होता है। खुशी की भी एक भाषा होती है।` राजेश ने वातावरण को गंभीर बनाने की कोशिश की।
‘छोडो भाषा को यार! इसी भाषा ने मारा हमें। भाषा के चलते ही हमारा चयन नहीं हुआ।` शुभ्रकमल की खीझ फट पड़ी।
‘एं! भाषा के आधार पर हमें छांट दिया गया!` मोहिन्दर ने हैरत को काबू किया- ‘तो समझ ले यार! आज ज़ी शाम भाषा के नाम। …नहीं-नहीं। इसे साहित्य में कैसे ज़्हेंगे… आज भाषा की शाम है। चीयर्स।`
बेमन से ही सही, पर चीयर्स सबों ने कहा। और, वे एक ही सांस में पूरा ग्लास पी गए। उन्हें भूख भी लगी थी। वे जल्दी-जल्दी पनीर और सलाद पर हाथ साफ करने लगे। जल्द ही दूसरा पेग भी सबों ने पी लिया। तेज उत्तेजना से उनके स्नायु ढीले पड़ने लगे। उनकी जुबान भी नरम पड़ गयी थी। अब वे जो थे, वैसे हो गये थे। शुद्ध भाषा के बाहर। अपने अशुद्ध उच्चारण के साथ। मोहिन्दर पार्क और स्कूल के बजाए ‘पारक` और ‘सकूल` के साथ खड़ा था। शुभ्रकमल मैं की जगह ‘अपन` और पैसे ज़ी जगह ‘पेसे` के साथ तो राजेश खैर की जगह ‘खायर` के साथ। राजेश सबसे ज्यादा दुखी और गुस्से से भरा था।
‘अच्छा हुआ। हमें अपनी औकात का पता चल गया। हम सब अपराधी हैं। हम हिंदी की खाते हैं, हिंदी पर इतराते हैं और सुद्ध हिंदी तक नहीं बोल सज़्ते। हम कवि हैं, लेखक हैं, पत्रकार हैं। कुच्छ नहीं हैं हम। हम सब भुच्च देहाती हैं। हद से हद कस्बाई। जीन्स की पेंट पहन, झोला लटकाकर हम अपने सांस्कृतिक पिछड़ेपन को नहीं छिपा सकते। हम सब अपराधी हैं।`
मोहिन्दर तड़पकर बोला- ‘राजेश हम अपराधी कैसे हैं? हममें पिछड़ापन है। क्यों न हो? सबकुछ इन लोगों ने महानगर में समेटकर रखा हुआ है। जहां से हम आए, वहां क्या था? सकूल था, शिक्षक घसियल थे। अस्पताल था, डाक्टर नहीं था। कहीं दवाएं नहीं थीं। गड्ढों वाली सड़क थी, हम सीधे चल नहीं सकते थे। मामूली मकान थे, अट्टालिकाएं नहीं थी। कोई सीधी, साफ जुबान नहीं बोलता था। सब मातर भाषा शैली में हिंदी बोलते थे। हमने वही सीखा, बचपन से स्कूल ज़े सकूल, पार्क को पारक कहना सीखा। हम अपराधी कहां हैं?`
‘शुद्ध उच्चारण ही सब कुछ नहीं होता। जेफ्री बॉयकॉट अपनी कमेंट्री में क्रिकेट शब्द तक शुद्ध नहीं बोल पाता। हमेशा बोलेगा- क्रिकिट!` शुभ्रकमल बेसनवाली मूंगफली को हथेली पर मसलते बोला।
‘यही गलती की हमने। हम जेफ्री नहीं हैं। वह इतना बड़ा खिलाड़ी है,कुछ भी बोले, चलेगा। हम समानता के मारे हैं। हम खुद को जेफ्री बॉयकॉट समझने की भूल करते रहे। अपराधी हमारा शरीर है। हमारी जीभ बुरी है। गला, तालू गंदे हैं। वे लचीले नहीं, सख्त हैं। हम उन्हें ऐंठ नहीं सज़्ते। हम सब ऐंठे हुए हैं। जहां रहेंगे, अकड़ के साथ। इसी अकड़ ने हमारी भाषा को भासा बनाकर रखा है।` मोहिन्दर खाली ग्लासों को भरने लगा।
त्रिभुज भाषा के भंवर में घिरा था। वे जल्दी-जल्दी पी रहे थे। सिगरेट का धुआं कमरे की छत से जा लगा था। राजेश ने सबको अपराधी बताकर बर्र के छत्ते पर पत्थर फेंक दिया था। उसे दोनों तरफ से जबाब मिल रहा था पर वह ‘हम अपराधी हैं` वाली अपनी टेक पर जमा था।
‘हम अपराधी हैं। हमारा गरीब समाज अपराधी है। गरीबी से बढ़कर कोई और अपराध होता है क्या? मैं या करता? मेरे सिक्षकों का उच्चारन सुद्ध नहीं था। मेरे माता-पिता, मेरे रिस्त्तेदार, किसी की बोली रेडियो के उदघोसकों जैसी नहीं थी। वे हिन्दी हो, अंग्रेजी हो, उसे नगपुरिया बना देते थे।…`
मोहिन्दर ने झट से बात काटी- ‘ये कहां नहीं है? हमारे यहां भी किस् अपनी जुबान पर काबू रखना आता है? भाषा के मामले में सब फिसल जाते हैं। चार शब्द हिंदी के, दो पंजाबी और दो हिंदी शब्द मिलाकर वाक्य बनता था। उनके जुबान की सूई मातर भाषा के टूटे रिकॉर्ड पर अटक जाती है।`
राजेश ने तकिये पर जोर से हाथ मारा- ‘मैं भी तो यही कह रहा हूं। मेरे पास तो भाषा नहीं, बोली है। नगपुरिया बोली। भासा से भी छोटी चीज। मैं उसमें आधुनिक विसयों पर बहस नहीं कर सज़्ता। हमारी भासा में इच्छा है, भाव, प्रवृत्ति है। विचार नहीं है। ऐतिहासिक भौतिकवाद जैसा शब्द नहीं है। इसीलिए नगपुरिया बोलता हूं तो वह टूटी-फूटी हिंदी बन जाती है। हिंदी बोलता हूं तो नगपुरिया उच्चारन सैली जीभ से नहीं छूट पाती।`
‘कैसे छूटेगी?` मोहिन्दर ने बात लपक ली- ‘हम सब शुद्ध भाषा लिख सकते हैं। पर उस शुद्ध भाषा को, उसके उच्चारण को अपने रिफ्लेक्स एक्शन में नहीं घुसा सकते। वहां थोडी-सी जगह है जहां हरियाणवी, पंजाबी, बुंदेलखंडी या नगपुरिया समा सकती है।`
‘सुनो-सुनो! शुभ्र! ये क्या कह रहा है?` राजेश ने हैरत से पूछा।
‘ये बड़ी बात कह रहा है। इसके तर्क में दम है। हमारे दिमाग का भाषा वाला सॉफ्टवेयर छोटा है। उसमें क्या- क्या ठूसेंगे? इसके लिए प्रकृति को क्या दोष देना? और सवाल यह नहीं है। असली सवाल है, हिंदी किसकी है? राजभाषा वालों की, व्याकरण वालों की? नाटक, फिल्म या धारावाहिक वालों की? साहित्य वालों की या बाजार वालों की? या अंग्रेजी वालों की? हमारी यों नहीं है? अंग्रेजीदां, हिन्दीदां सुसंस्कृत हैं। हम अपभ्रंश हैं, भदेस हैं। क्यों? शुभ्रकमल की बातों में हमेशा की तरह चिंतन ज़ी गहराई थी।
‘क्योंकि पहले भासा से मीडिया बनता था। अब मीडिया से भासा बन रही है। हमें मौलिक चिंतन करना होगा कि…` राजेश की बात अधूरी रह गयी।
‘यहीं तो मार खाते हो प्यारे! मौलिक चिंतन तुम्हें अकडू बना देता है।` मोहिन्दर ने कटाक्ष किया। वे हमें ज्ञान से नहीं, भाषा से मात कर देते हैं। यह सपाट चिंतन है। अंग्रेजी वाले, शुद्ध भाषा वाले लचीले होते हैं। फायदा हो तो कहीं भी झुक जाएंगे। हम गांव से, कस्बे से आकांक्षा लिए चले आते हैं। अपनी शर्त पर आकांक्षा की पूर्ति करना चाहते हैं। वह कैसे हो पाएगा? हर आकांक्षा की अपनी शर्त, अपनी कीमत होती है प्यारे?` मोहिन्दर सिगरेट सुलगाने लगा।
‘कुछ भी ज़्हो, मेरी नगपुरिया सुद्ध भासा का जीवाश्म है। वह अंदर तक धंसा है। वह मुझे मनुस्य तो रहने देगी। सफल नहीं होने देगी क्या?` राजेश ने गर्व से कहा।
‘नहीं!`शुभ्रकमल ने मोहिन्दर को देखते कहा – ‘हम मीडिया पर कब्ज़ा करने काज़ मूर्खतापूर्ण सपना लेकर आए थे। आज अपन खुद ध्वस्त हो गए। हमारी भासा आदर्श है। बाजार आदर्श नहीं है। चालाक लोगों ने ज्ञान, हुनर को ही नहीं, भासा को भी रोटी बना डाला है।`
राजेश तैश में बोल पड़ा- ‘तो क्या हम अपनी भासा छोड दें? मैं उस सुद्ध भासा में एक गाली तक बेसाख्ता नहीं दे सकता। हमें गाली तक ढूंढनी पड़ती है। मैं यहां नगपुरिया सुनने के लिए तरस जाता हूं। उस दिन नेहरू प्लेस में कंस्ट्रक्शन वर्कर्स नगपुरिया में बतिया रहे थे। माचिस मांगने के बहाने मैं बात करने लगा। मन में घर का खाली कोना भर गया। मुझे लगा कि मैं इसका विस्वास कर सकता हूं। यह अपना है। एक ऑटो रिक्सावाला मेरी भासा सुनकर बेईमानी भूल गया- कहने लगा- मीटर तो बस यूं ही है। आप तो जो चाहे दे दें। आप तो अपने हो।- भासा से वह मनुस्य हो गया।`
‘फिर वही आदर्शवाद! मनुष्यता को चाटते रहना।` मोहिन्दर भड़क उठा- ‘जूतियां घिस गयी हैं नौकरी ढूंढते-ढूंढते। किसी दिन एड़ी भी घिस जाएगी। बेकारी तुम्हारी ‘भासा` से बड़ी चीज है। बड़ी समस्या है। हमें ‘भासा` को छोड़ना ही होगा।` शुभ्रकमल ने कह दिया- ‘मोहिन्दर ठीक कह रहा है। तुम्हारी भासा सांस्कितक पिछड़ेपन का पता देती है। उससे तुम्हारी अस्मिता दूसरे-तीसरे दर्जे वाले नागरिक की हो जाती है। इस भासा को छोडो वरना अपन डूब जाएंगे।`
कमरे में सन्नाटा खिंच गया। शुभ्रकमल नाखुन कुतरने लगा। लेटा राजेश उठ बैठा। झटके से।
‘कहना आसान है। आसान है कहना- भासा छोड दो। उस दिन मैं प्रेमदयालजी से वादा कर आया था- भासा छोड दूंगा। तब से मैं कोसिस करता रहा कि उच्चारन सुद्ध हो, लेकिन जरा-सा भावनात्मक आवेग बढ़ता है, मैं भासा में गिर जाता हूं।` राजेश ज़ी रुलाई फूट पड़ी- ‘भासा! सबको सुद्ध भासा। लेखक, संपादक, आलोचक सबको। सब सुद्ध भासा, नयी भासा मांग रहे हैं। मैं या करूं? …आज ही साम प्रेमदयालजी ज़े एक गोस्ठी में देखा। वे कवियों, लेखकों से घिरे थे। मैं उनकी नजर बचाकर खिसक गया। मुझे डर लगा कि वे कहीं पूछ न बैठें- ‘भासा का क्या हुआ? मैं या कहता? किस मुंह से कहता कि भासा का कुच्छ नहीं हुआ।…`
राजेश रोता जा रहा था। मामले ज़ी गंभीरता देख शुभ्रकमल और मोहिन्दर रोते राजेश से लिपट गए। अब वे भी अपनी भासा में रो रहे थे।