वे तीन युवा पिंक सिटी ट्रेन से सुबह-सुबह छ: बजे मेरे बाद चढ़े थे। रेल के इस सबसे पीछे वाले, सुनसान पड़े डिब्बे की मानों रुकी हुई सांसें एकाएक चल पड़ी हों… तेज़ स्वर में बातचीत, छेड़छाड़ करते हुए तीनों सामान स्वयं लादे, विदेशी पर्यटकों की नकल में ये पर्यटक साफ-साफ देसी नज़र आ रहे थे। बात-बात में… फकिन… फकअप… फकऑल…! मुझे बहुत नागवार गुज़र रहा था।
आते ही धम्म से उन्होंने सारा सामान सामने की सीट पर पटक दिया था। एक खुल्लम-खुल्ला सी, मध्यवर्गीय मगर आधुनिक किस्म की लापरवाही उनकी हर बात से झलक रही थी, चाहे वह बातचीत का लहजा, सामान फेंकने का ढंग, चाल-ढाल या कि बाल हों, चप्पलें हों, चाहे बिना मोजों वाले जूते हों या… फेडेड जीन्स हो। वे जो कर रहे थे उनकी नज़र में फैशन था, आधुनिकता थी। इस आधुनिकता में उनका मध्यवर्गीय अभाव कुछ ढंक रहा था तो कुछ उघड़ रहा था।
पिंक सिटी दिल्ली के सरायरोहिल्ला स्टेशन से सीधे छ: बजे चलती है और दोपहर तीन बजे जयपुर पहुंचती है, सो सुबह साढ़े पांच बजे ही मुझे मेरा बेटा ट्रेन में बिठाकर, सामान व्यवस्थित कर, एक कप एस्प्रेसो कॉफी सामने के स्टाल से लाकर मुझे पकड़ाकर चला गया था।
पहले से बैठा… बल्कि खाली बैठा भारतीय यात्री… उस पर महिला यात्री… और फिर मेरे जैसा कल्पनाशील यात्री, हर नये चढ़ने वाले यात्री के वेशभूषा, शक्ल, बातचीत के लहजे, नामों के चलन के अनुसार उसका प्रदेश-परिवेश भांपने का प्रयास करता है, यकीन मानिए बस वैसा ही कुछ मैं भी कर रही थी। अजीब किस्म का शौक है ना… दूसरों के मामले में नाक घुसाने का नितान्त भारतीय शौक!
निश्र्चित रूप से तीनों गोआ के निवासी लग रहे थे, केवल शक्लो-सूरत से ही मैंने यह निश्र्चय नहीं किया था… क्योंकि लड़की ने जो टी-शर्ट पहनी थी उस पर सामने ही लिखा था, `माय गोआ, द हैवन ऑन द अर्थ।’ गले में काले धागे में चांदी का बड़ा-सा क्रॉस लटका हुआ था। यही नहीं वे कभी अंग्रेजी में और कभी कोंकणी भाषा में बात कर रहे थे। अपना गिटार, कैमरा, वॉकमैन के अलावा तीन पुराने से बैग, ढेर सारे चिप्स और कोल्ड ड्रिंक की बॉटल्स और कुछ पत्रिकाएं लेकर वे तीनों चढ़े थे… और अब वे मेरे एक दम सामने वाली सीटों पर अस्त-व्यस्त से जम गये। एक लड़की तो थी ही, बाकी दो लड़के थे। एक छोटा, एक बड़ा।
तीनों उत्तर भारत के टूरिस्ट मैप पर सर से सर जोड़कर नज़र गड़ाकर कुछ कार्यक्रम बना रहे थे… कोंकणी में। लापरवाही से उनका कैमरा सीट के कोने में रखा था, मैं मन ही मन कुनमुनायीज्ञ् लगता हैै इन्हें उत्तर भारत… खासतौर पर दिल्ली के जेबकतरों-उठाईगीरों का कोई अनुभव ही नहीं है या कभी कुछ सुना भी नहीं। मैंने सोचा आगाह करूं… पर मेरी तरफ डाली गयी उनकी उदासीन दृष्टि अब तक मुझे चिढ़ा गई थी सो मैंने सोचा, `हं मुझे ही क्या पड़ी है!’
मैप देखने के बाद तीनों अपनी-अपनी जगह पर खिसक गये। बैग ऊपर वाली बर्थ पर लापरवाही से फेंक दिये गये थे। गिटार बड़े वाले लड़के ने अपने पास गोद में बहुत प्यार से रख लिया, जैसे कोई पालतू जानवर हो। वॉकमैन छोटे से ने कान पर लगा लिया, खाने-पीने का सामान लड़की ने अपने पास के बैग में डाल लिया था।
लड़की सांवली होने के बावजूद आकर्षक थी। दरम्याने कद की, पतली और प्यारी सी। हां बाल बेढंगे से थे… घुंघराले काले कालों में, कत्थई और सुनहरे रंग की कई लटें रंगा रखी थीं। ऐसा लग रहा था कि सफेद बालों को घर पर मेंहदी लगाकर छुपाने की कोशिश हो। मुझे अपने कॉलेज की मिसेज बतरा याद आ गइंर्, वो अपने खिचड़ी बालों में मेंहदी लगाकर ऐसी ही लगा करती थी, पर यह फैशन है आजकल का, बेढंगा फैशन! मेरे अन्दर की प्रौढ़ होती महिला किचकिचाई!
लड़कों में से छोटा लड़का चेहरे-मोहरे से उसका भाई लग रहा था, (हां भई… उसकी नाक और होंठों कीी बनावट बिलकुल लड़की जैसी ही थी… वह लड़की ज़रा लुनाई लिये हुए सांवली थी और यह बिलकुल काला) वही… जिसने कानों में अब वॉकमैन के इयर प्लग लगा रखे थे और पैर हिलाते हुए गुनगुनाता जा रहा था…। कभी-कभी वह आस-पास के वातावरण से बेखबर ज़रा ऊंची आवाज़ में गाने लगता था… तब लड़की उसे कोहनी मार देती थी।
बड़े लड़के के हाथ गिटार के तारों को हल्के-हल्के सहला रहे थे, वह कोई अंग्रेजी गीत गुनगुना रहा था और मीठी नज़रों से लड़की को देख रहा था, लड़की ने मुस्कुराकर नज़रें खिड़की के बाहर दौड़ा दीं। स्टेशन पर चहल-पहल बढ़ गई थी। जिस खिड़की के पास वह लड़की बैठी थी… वहां दो-चार सड़क छाप मनचले मंडराने लगे थे। ठेठ सड़कछाप हिन्दी के कुछ गन्दे फिकरे कसे गये जो लड़की को समझ नहीं आये पर वह लड़की होने की छठी इन्द्री से समझ गई कि उसके कपड़ों पर कुछ कहा गया है।
उसने आधी खुली पीठ वाला, छोटा सा, बड़े गले का नाभिदर्शना टॉप पहना हुआ था। नाभि में चांदी की बाली पहनी हुई थी। बड़ा लड़का उसका असमंजस तुरन्त समझ गया, आवेश की हल्की परछाइंर् उसके चेहरे पर आई। उसने उसे बैग में से निकालकर एक लम्बी बांह की शर्ट पकड़ा दी थी। फिर छोटे लड़के को खिसकाकर खिड़की के पास बिठा दिया था। लड़की को बीच में बिठाकर वह उसके एकदम करीब उसके कंधों पर अपनी बांह का सहारा देकर बैठ गया। लड़की ने लापरवाही से उसकी दी हुई शर्ट को पहन लिया था, लेकिन बिना बटन लगाये।
अब तक ट्रेन ने सीटी दे दी थी। जिन्हें इस ट्रेन में चढ़ना था… चढ़ गये थे और अपनी-अपनी जगह खोजने लगे थे। यह एक सेकेण्ड क्लास का डब्बा था। मेरे बगल में एक अधेड़ सज्जन आ बैठे थे… और उनकी पत्नी भी। छोटा लड़का अब एकदम मेरे सामने था… उसने हरा बरमूडा और फूलों की छींट वाली पीली शर्ट पहन रखी थी। सामने के कुछ खड़े बाल सुनहरे होने की हद तक ब्लीच किये हुए थे। ट्रेन चलते ही इस छोटे लड़के ने वॉकमैन की आवाज़ बढ़ा दी थी। इतनी कि मैं तक सुन पा रही थी। एक घना शोर और बीच-बीच में किसी पॉप गायिका की आवाज़। एक मिनट बाद जब मुझसे शोर सहन नहीं हुआ तो मैंने उसके पास थोड़ा झुककर पूछ ही लिया, `मैडोना है ना!’ मैंने सोचा वह बात में छिपे व्यंग्य को समझेगा और आवाज़ धीमी कर देगा।
`हह…।’ उसने कहा।
लड़की ने सर हिलाया, बुरा सा मुंह बनाया और कहा, `शी इज़ नॉट फोर अवर जेनरेशन… ही लाइक्स शकीरा एण्ड ब्रिटनी।’
मैं साथ लाई किताबों में से कुछ भी नहीं पढ़ पा रही थी। पन्द्रह मिनट तक मैं वह कानफाड़ू संगीत सुनती रही। अध्ेाड़ व्यक्ति मेरी परेशानी भांप रहे थे। उन्होंने छोटे लड़के के घुटनों पर थपथपया। उसने इयरफोन हटाया और उनकी तरफ चिढ़े हुए अन्दाज़ में देखने लगा। संगीत इयरफोन्स में से निकलकर ट्रेन के सरपट संगीत से पूरी टक्कर ले रहा था।
`फॉर एवर%%% फॉर एवर%%% टनन्ना%%%’
`टों%%% छक छक छुक दुक..डडड टूंं%%%।’
`अगर तुम इतना तेज़ म्यूजिक सुनोगे तुम्हारे कान खराब हो जायेंगे’, अधेड़ सज्जन ने विनम्रता से धीरे से कहा।
लड़के ने सिर हिला दिया, यह संकेते देते हुए कि पहली बात तो वह कुछ सुन नहीं पा रहा दूसरे उसे हिन्दी नहीं समझ आती।
उन्होंने थोड़ी तेज़ आवाज़ में अंग्रेजी में कहा किज्ञ् `इफ यू विल लिसन लाउड म्यूजिक योर हियरिंग विल बी डैमेज्ड।’
`ह्वाट?’ उसने तेज़ आवाज़ में पूछा और वॉकमैन बन्द कर दिया।
`ही इज सेइंग… यू आर गोइंर्ग टू रुइन योर हियरिंग, इफ यू विल कन्टीन्यू प्ले म्यूजिक सो लाऊड।’ मैं सन्नाटे में जोर से चीख पड़ी।
अचानक वे तीनों जोर से हंस पड़े। छोटे लड़के ने हंसी रोकते हुए टूटी-फूटी हिन्दी में गोअन ढंग से कहाज्ञ् `अच्छा! शुक्रिया।’ और इयरफोन को गले से लटका लिया और वॉकमैन बरमूडा की लम्बी लटकती जेब में डाल लिया, जिससे वह और लटक गई।
मैं झेंपकर उठ खड़ी हुई और हैण्ड टॉवेल लेकर बाथरूम जाने का उपक्रम करने लगी। मेरे मुड़ते ही आवाज़ आई `… ह्वाट फकिन कन्सर्न दे ओल्डीज़ हैव!’ यह आवाज़ लड़की की थी।
`शटअप लीजा। शी इज राइट।’ यह गंभीर आवाज़ बड़े लड़के की थी।
मैं बाथरूम से लौटी तो बड़ा लड़का `डेबॉनेयर’ का सेंटरस्प्रेड देख रहा था। लड़की भी साथ झुकी थी… बीच-बीच में बड़े लड़के की धीमी आवाज़ में की गई किसी टिप्पणी पर वह उसके बाल खींच देती या पीठ पर मुक्का जमा देती।
वह अधेड़ सज्जन और उनकी पत्नी अब मेरी ओर सहानुभूति के साथ मुखातिब थे। आपसी परिचय से पता चला कि वे डाक्टर हैं। उनकी पत्नी अध्यापिका।
`यह हाल है हमारे देश की युवा पीढ़ी का!’ यह डॉक्टर साहब कह रहे थे।
`दिन पर दिन बदतमीज़ होते जा रहे हैं। संस्कार बचे ही नहीं।’ उनकी पत्नी ने अपने में मशगूल उस युवा त्रयी को घूरकर देखकर कहा। छोटा लड़का थोड़ा झिझका और प्रतिक्रिया में उसने अपने जांघ तक ऊंचे चढ़ गये बरमूडा को नीचे खींच लिया और खिड़की के बाहर देखने लगा।
`हमारी भी गलती है… हमारे पास समय कहां है, जो इन्हें संस्कारों का पाठ पढ़ायें।’ मैंने ठण्डी सांस लेकर कहा।
`देखने में तो मिडल क्लास लग रहे हैं… पर फैशन और रहन-सहन देखो। ये क्रिश्चियन तो होते ही ऐसे हैं। देख रही हैं न, कितनी बेशर्मी से गन्दी-गन्दी किताबें देख रहे हैं, बड़े-बूढ़ों का लिहाज ही नहीं है।’ज्ञ्डाक्टर की पत्नी ने फुसफुसा कर कहा।
`बात खाली एक जाति की नहीं है, हमारी यंग जेनरेशन पूरी की पूरी ही ऐसी है। कुछ वेस्टर्न कल्चर का असर था, बचा-खुचा टी.वी. चैनल्स ने पूरा कर दिया। इन लोगों को इतनी छूट है, हमें कभी थी क्या?’ ज्ञ्डॉक्टर ने कहा।
`हां, हर पीढ़ी में अच्छाइयां और बुराइयां रही ही हैं।’
`हां जी, पर यह पीढ़ी तो… इनमें समझदारी नाम मात्र को नहीं है। देखो इन्हें… बस फालतू जोश! कुछ कर दिखाने, कुछ बनने-बनाने की न तो काबिलियत है, न अक्ल, न हिम्मत। सोशल वेल्यूज के नाम पर ज़ीरो।’ अपनी तर्जनी अंगूठे से जोड़कर उन्होंने जीरो बनाकर दिखाया तो वह युवा त्रयी उन्हें आश्र्चर्य से देखने लगी। `दरअसल ये लोग भोगवाद में विश्वास करते हैं… जो आज मिल रहा है भोग लो… कैसे भी पैसा कमाओ और खर्च कर लो… मज़े करो बस। बाकी दुनिया जाये भाड़ में।’ डॉक्टर की पत्नी उन्हें घूर-घूरू कोस रही थीं। वे तीनों समझ रहे थे कि हमारी बात का विषय वे तीनों ही हैं…शायद इसीलिए छोटा लड़का वॉकमैन सुनते-सुनते जोर से गाने लगा था और उन्हें चिढ़ाते हुए वह लड़की लड़के से एकदम सट कर बैठ गई। लड़का गिटार पर कोई गोअन धुन बजाने लगा था।
`भोगवाद कहें या भौतिकवाद… इससे हम भी कहां अछूते हैं? हां पर यह युवा पीढ़ी कुछ ज्यादा ही लापरवाह है। जो भी हो इन्हीं पर हमारा भविष्य टिका है।’
`भविष्य! ये युवा हमें वृद्धाश्रम के अलावा क्या देंगे? महास्वार्थी है यह पीढ़ी। पहले कभी हमने भारत में वृद्धाश्रमों का नाम तक सुना था? हमारी सास तो आखिर तक हमारी छाती… मेरा मतलब हमारे साथ रहती रहीं।’
डॉक्टर ने सर हिलाया और किसी सोच में डूब गये। मानो उनकी पत्नी ने पते की बात कही थी। फिर अखबार उठाकर पढ़ने लगे। उनकी स्थूल पत्नी नाश्ते का सामान सजाने लगी थीं।
`लीजिये न कुछ।’
`जी नहीं… मेरा कात है।’ मैं सफाई से झूठ बोल गई। बचपन से मां की बंधाई हुई गांठ `सफर में किसी अजनबी से कुछ लेकर मत खाना’ कस गई।
डॉक्टर ने तीनों युवाआें से एक औपचारिक आग्रह किया… उन तीनों ने बिना संकोच के एक-एक पूरी उठा ली और खाने लगे। मुंह में पूरी ठूंसे-ठूंसे लड़की ने कहा, `वैरी डैलीशियस आन्टी, ह्वाट पिकल इज दिस?’ कहकर एक पूरी और उठा ली उस पर उंगली से अचार फैलाकर रोल बनाने लगी।
`टैंटी।’ वे उदासीनता से बोलीं।
`ह्वाट टी?’
`ए वाइल्ड फ्रूट।’ डॉक्टर ने समझाया।
`ओह आइ थॉट… दीज आर सी-फिशेज एग्ज।’
`नो नो वी आर प्योर वैजेटेरियन्स।’ कहकर अध्यापिका महोदया ने अपना टिफिन उनके सामने से खींच लिया और मेरी तरफ मुंह कर के खाने लगीं। मैं खिड़की से सटकर बैठ गयी।
क्रीं%%% किच कर के ट्रेन रुक गई। शायद चेन पुलिंग थी। यह दिल्ली के बाहर का औद्योगिक क्षेत्र था। यह तो रोज़ का किस्सा हैज्ञ् अनेक स्थानीय यात्री इस ट्रेन और फिर आठ बजे तक दिल्ली से चलने वाली हर ट्रेन में चढ़कर आते हैं, फिर बार-बार चेन पुलिंग होती है। दो घंटों में भी दिल्ली की सीमा से ट्रेन बाहर नहीं निकल पाती। शाम की ट्रेनों में भी यही हाल रहता है। काफी समय तो बरबाद होता ही है, साथ ही ये लोग प्रथम श्रेणी से लेकर, आरक्षित शायिकाआें तक हर जगह घुसे चले आते हैं। फिर यात्रियों के साथ बदतमीजी से पेश आते हैं। कोई लड़की या सुन्दर महिला यात्री दिख जाये तो उससे सट कर बैठ जायेंगे। उसके संरक्षक आपत्ति करें तो झगड़ा… फिर तो ये लोग ट्रेन को चलने ही नहीं देंगे। ट्रेन में तोड़-फोड़ करेंगे। यह व्यवस्था का ऐसा सुराख है जो बन्द नहीं हो सकता। सालों पुराना चलन है। यही देखते-देखते मैं युवा से प्रौढ़ हो चली हूं। आज भी मुझे इन लोगों से डर लगता है।
वो तो सौभाग्य से यह डिब्बा बहुत पीछे था सो इस डिब्बे में कोई झुण्ड नहीं चढ़ा… नहीं तो इस लड़की के कपड़ों और अदाआें पर यहां तो कत्ल हो जाते… और इसके ये दो मरगिल्ले से संरक्षक कुछ नहीं कर पाते। हिन्दी तक तो ठीक से समझ-बोल नहीं पाते।
मैं भी सोचने लगी, ये खुलापन, इनकी इस कदर लापरवाही क्या इन्हें खतरों की तरफ नहीं ढकेलती? पढ़ाई, काम-धंधा कुछ करते भी हैं कि नहीं? उम्र तो देखो, मुश्किल से अठारह-उन्नीस के होंगे, छुटका तो पन्द्रह का सा लगता है। उस पर कैसे होंगे वे दु:साहसी माता-पिता जो इन्हें अकेले दुनिया देखने भेज दिया। ये ही शायद ऐसे हैं… विद्रोही किस्म के बिगड़ैल बच्चे। मन किया कि मैं भी कहूंज्ञ् `ब्लडी फकिन ब्रैट्स!’
हमारे भी सहपाठी, सहकर्मी क्रिश्र्चियन रहे हैं… पर ऐसा खुलापन कभी नहीं देखा। क्या ये किसी मुसीबत को समझदारी से सुलझा सकेंगे? खतरों से बच सकेंगे? छोड़ो… मुझे क्या पड़ी है? भाड़ में जायें। अच्छा ही हुआ जो मैंने अपने बेटे-बेटी को बहुत संयम और कठोर अनुशासन में पाला है। बेटा तो चलो ठीक है, दिल्ली आई.आई.टी. में पढ़ रहा है, पर निशि…!!
मैंने एक ठण्डी सांस ली… ट्रेन धीमे-धीमे सरक रही थी।
मैंने स्वयं से सवाल पूछा… क्या मैंने बच्चों को सुरक्षित और कठोर अनुशासन में रखकर बहुत महान काम किया है? क्या निशि इस कठोर अनुशासन और अतिरिक्त सुरक्षित वातावरण में पल कर बेहद दब्बू बनकर नहीं रह गई। बस शादी कर देने भर से हमने क्या उसे सुरक्षित कर दिया?
अपनी होनहार एम. बी. ए. लड़की को बम्बई जाकर एक मल्टीनेशनल नौकरी नहीं करने दी…। हम दोनों ही डर गये थे। कितना रोई थी वह… पर हमारा मन नहीं माना। बाहरी दुनिया… यानी खतरों से भरी दुनिया। कह दिया था… यहीं रहकर करो नौकरी… या फिर कह दिया कि शादी के बाद कर लेना नौकरी। पति चाहे तो।
अब! एक-एक पैसे को पति का मुंह देखती है, कहने को बड़ा बिजनेस है उसके परिवार में, पर तीन भाइयों में सबसे छोटा उसका पति हमेशा बेवकूफ बनता है। खाने-पीने की कमी नहीं, बड़ा घर है, संयुक्त परिवार है। पर निशि अपने से कुछ खरीदना चाहे, कहीं घूमने जाना चाहे… वह सब नहीं हो पाता। मायके तक अब उसे अकेले ट्रेन में बच्चों के साथ आने में डर लगता है, दामाद के पास फुरसत नहीं कि वह छोड़ जाये। बस उसी को तो लेने जा रही हूं, निशि के पापा डायबिटिक हैं, वे घर से नहीं निकलते।
आज निशि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो… निशि को उन्होंने उसकी पसन्द से शादी करने दी होती तो! तो! आज निशि का चेहरा इस सामने बैठी लड़की सा चमकता! सत्ताइस साल की उमर में वह पैंतीस की नहीं लगती… हर समय एक स्थायी हताशा उसके चेहरे पर नहीं होतीी!… लेकिन… ये बेहयाई! खतरों को आमंत्रित करता खुलापन! मैं असमंजस में थी। मुझे निशि के हालातों पर रोना आने लगा था।
सामने की सीट पर बड़ा लड़का और लड़की एक दूसरे पर ढलके सो रहे थे। डेबोनियर के ऊपर हैल्थ और रीर्डस डाइजेस्ट भी रखी थीं…चिप मैग्ज़ीन अधखुली ट्रेन के फर्श पर लोट रही थी। तो…आज का युवा सब कुछ पढ़ता है! छुटके ने फिर वॉकमैन चला लिया था पर इस बार थोड़ा कम लाऊड। डॉक्टर और उनकी पत्नी बड़ी तल्लीनता से रमी खेल रहे थे। मुझे अपना आप अचानक बहुत अकेला लगा। पैर लटके-लटके सूज आये थे…बल्कि सुन्न पड़ने लगे थे…मैंने उन्हें ऊपर कर लिया। ट्रेन तेज़ रफ्तार से उष्ण कटिबंधीय जंगलों से गुज़र रही थी, अप्रैल का महीना था और मौसम गर्म होने लगा था। सुबह के दस बजे ही दोपहर का सा अहसास हो रहा था। भूख भी लग आई थी.. पर मेरे पास क्या धरा था? तीन सेब! एक सैण्डविच! एक भूला-भटका चाय वाला उधर से गुज़रा तो मैंने उसे रोक लिया…
मेरे पास खुले पैसे नहीं थे। छुटके से पूछा…तो उसका जवाब था…`वन मिनट…’ जेब से उसने तीन रुपए निकाल कर चुका दिये।
मैंने कहा भी कि `आय नीड चेन्ज ऑनली।’
`कमॉन मॉम…’ ज्ञ्कहकर वह
खी-खी हंसने लगा।
`सैंडविच?’
`नो थैंक्स…’ कह कर उसने जेब से भुने हल्के हल्के भूरे छिलकों वाले नमकीन काजू निकाले और मेरी प्लेट में रख दिये।
मैंने आश्चर्य में भरकर कृतज्ञता से कहा कि ऐसे काजू मैंने पहली बार देखे हैं बिना छिले भुने हुए। उसने बताया कि उनके घर के अहाते में चार काजू के पेड़ हैं…ये काजू उन्हीं पेड़ों के हैं। आते समय `मॉम’ ने जबरदस्ती उनके साथ बंाध दिये थे। मेरी कल्पना में एक सांवली छींट की फ्रॉक पहने, दुबली मगर हल्के से निकले पेट वाली वाली ममतामयी क्रिश्र्चियन महिला की छवि तैर गई। मैं कुछ और भी पूछना चाहती थी…एक आम भारतीय उत्सुकता के तहत उनकी निजता के पारदर्शी तरल को छूकर देखना चाहती थी। मसलन वह लड़की तुम्हारी बहन है क्या? तुम्हारी मां ने एक पराये लड़के को तुम्हारे साथ क्योंकर भेजा होगा? कहां जा रहे हो? कब लौट कर घर जाओगे? और ज़रा बताओ तो… क्या-क्या उगा रखा है तुम्हारी मां ने तुम्हारे आहाते में। तुम एंग्लोइण्डियन गोअन क्रिश्र्चियन हो कि कनवर्टी? छि: यह सब पूछकर वह क्या करेगी? कहीं उसने कह दिया यू नटी ओल्डी…व्हाट फकिन कन्सर्न डू यू हैव विद अस? उसे क्या? भाड़ में जाये यह और उसकी बहन। कमबख़्त कैसे सटकर उस जवान-जहान लड़के से चिपकी पड़ी है।
छुटके ने उत्साह से कहा कि कोई स्टेशन आ रहा है। इक्का-दुक्का नज़र आने लगे थे। कुछ कारखाने…और ट्रेन की पटरी का एक और जोड़ा हमारी ट्रेन के साथ दौड़ने लगा था। मैंने मन ही मन कहा, अलवर! हाय! जल्दी में मिठाई लेना भूल गई थी दिल्ली से…कमबख्त निशि ने भी तो अचानक फोन किया था कि मम्मी, मुझे सास ने कह दिया है जा हो आ मायके, तुम कल ही भैया को भेज दो।
`भैया कैसे आयेगा निशि, उसके एक्ज़ाम हैं।’
`तो मां…।’ बेचारी रुंआसी हो गयी थी।
`तू खुद चली आ न। जयपुर से तो कई सीधी रेल हैं दिल्ली की। करा ले रिज़र्वेशन।’
`मम्मी, तुम तो जानती हो, दो छोटी बच्चियों के साथ ये अकेले नहीं भेजेंगे मुझे। इन्हें फुर्सत नहीं.. फिर बताओ न…मैं भी कैसे आ जाऊं, कितनी दिक्कत होगी, दोनों तो गोदी चढ़ती हैं। हाय, मम्मी कितनी मुश्किल से सास का मुंह सीधा हुआ है मेरे मायके जाने के नाम पर।’
`अच्छा-अच्छा …मैं ही…’
`कल ही चल दो न मां। कितना तरस रही हूं मैं।’
`देखती हूं।’
बस फिर सुबह-सुबह ट्रेन में बैठती कि मिठाई लेती! अलवर से ही दो किलो मिल्ककेक ले चलती हूं। वहां जयपुर में तो स्टेशन पर दामाद लेने आयेंगे, उनके सामने मिठाई लेती भला अच्छी लगूंगी? मैंने अलवर आता देख पर्स संभाला। छुटके से कहा कि सामान का ख्याल रखे। डॉक्टर दम्पति ऊपर की खाली बर्थो पर जाकर लेट गये थे। लड़की कुनमुना कर लड़के से अलग हो उठकर खड़ी हो गयी थी। उठते ही चॉकलेट निकालकर खाने लगी।
ट्रेन रुक गई थी। डिब्बा सच में बहुत पीछे था। मिल्ककेक की दुकान दूर थी। स्टेशन पर काफी भीड़ थी। सारी भीड़ पिंकसिटी में ही समायेगी क्या, यह सोच मैं जल्दी-जल्दी ट्रेन से उतरी और लोगों से टकराते हुए… बड़े-बड़े डग भरते हुए दुकान पर हांफती हुई पहुंची। दो-दो डिब्बे मिठाई और पर्स सम्भालती हुई …मैं अपने गंतव्य से आधी दूरी पर ही थी कि ट्रेन ने सीटी दे दी… मेरे तो हाथ-पांव फूल गये। भीड़ को चीरती हुई मैं आगे बढ़ रही और मुझे दूरदर्शन का एक विज्ञापन याद आ रहा था कि भारत में स्टेशनों पर यात्रा करने वाले कम और उन्हें छोड़ने आने वाले ज्य़ादा होते हैं। उस क्षणांश में ही मुझे लग रहा था कि मैं चल ही नहीं पा रही… अपना डिब्बा मुझे दिखाई नहीं दे रहा… कि अचानक छोटे लड़के की चीख ने ध्यान दिलाया कि मैं डिब्बे के एकदम पास हूं- `आन्टी।’
दरवाजे के पास भीड़ थी… मेरे पीछे भीड़ थी… मैंने किसी तरह दरवाजे का हैण्डल पकड़ा और पैर बढ़ाया ही था कि ट्रेन थोड़ा तेज़ रेंगने लगी, मैं बुरी तरह से प्लेटफार्म पर गिर पड़ी। पैर ज्य़ादा बढ़ गया होता तो दरवाजे पर पटरियों के बीच घिसट रही होती। गिरते-गिरते मुझे छोटे लड़के की चीख सुनाई दी थी। उसके बाद मुझ पर झुकी भीड़ एक भंवर की तरह घूमती नज़र आई और फिर कुछ कहीं ग़़ड़%ब से डूब गया।
ठंडे पानी की तेज़ छपाक से मैंने अपने चेतन का छोर ढूंढा और अवचेतन की सीढ़ियां फांदती… होश में आने की जल्दी में मैं उस आघात की पारदर्शी झिल्ली के नीचे से मुटिठयां बांध-बांधकर चीख रही थी… जो कि अस्पष्ट गों गों में बदलती जा रही थी। आखिरकार मेरे प्रहारों से वह झिल्ली फटी.. गर्मी और उमस से भरे रेलवे के रिटायरिंग रूम में मैं बदहवास सी चारों तरफ देख रही थी।
`आन्टी, आर यू ओके!’ डॉक, शी ओपन्ड हर आइज़।’ छोटा लड़का मेरे चेहरे से सटा फर्श पर हड़बड़ाया सा बैठा था। उसकी आवाज़ में एक नेह भरी ऊष्मा की थरथराहट थी।
`कैसी हैं आप?’ एक अजनबी रेलवे के डॉक्टर ने झुककर पूछा, `चिंता की कोई बात नहीं… ये यंग्स्टर्स नहीं होते तो…! इनका और खुदा का शुक्रिया अदा करें। गनीमत है कि कोई सीरियस इंजरी नहीं हुई। पुराना खाया पिया काम आ गया।’ ज्ञ्हंसकर डॉक्टर ने मेरे हवास दुरुस्त करने की कोशिश की।
`बस अभी एम्बुलेंस आती होगी।’
मैंने थोड़ा उठना चाहा तो… वह लड़की आगे आ गई… अपनी बांह का सहारा लिये। मैंने देखा उसकी शर्ट का बड़ा हिस्सा खून से तर था। मैंने दाइंर् भौंह की तरफ पीड़ा महसूस की। छुआ तो वहां एक गीला स्कार्फ बंधा था, यह बड़े लड़के का था। दोनों घुटनों पर दो रूमाल बंधे थे।
इतने में बड़ा लड़का पसीने में तर-ब-तर हाथ में दवाआें, पटि्टयों का बण्डल लेकर आ पहुंचा।
`डोन्ट गेटअप, यू आर स्टिल ब्लीडिंग।’ बड़े लड़के ने मेरी चोट पर स्कार्फ दबाते हुए कहा, `डॉक फर्स्ट गिव हर टिटनेस इंजैक्शन।’
`यंग मैन, डोन्ट टीच मी माय ड्यूटीज़’। डॉक्टर ने हंसकर कहा और इंजैक्शन तैयार करने लगा। मैंने देखा, डॉक्टर छोटे कद का, काला सा, अनगढ़ नकूश वाला व्यक्ति था। शायद मुसलमान। इसीलिये… बार-बार खुदा के लिये… खुदा का शुक्र… किये जा रहा था।
एम्बुलेंस में मैंने हिम्मत करके लड़की से पूछ ही लिया।
`ओह गॉड आन्टी दैट सीन वाज़ हॉरीबल… एक घण्टा भी नहीं हुआ है अब्भी तो… आप तो बहूत बूरा गिरा था प्लेटफार्म पर। हाथ छूट गया हैण्डल से वरना ट्रेन के साथ… लटकता जाता। वो जो मेरा फियान्सी है न, रोज़र… उसने चेन पुल किया… फिर हम तीनों सब बैग लेकर उतरा… आपके पास पहुंच ही नइंर् सकने का था… सब आदमी लोगों ने कवर कर रखा था, तब मेरा भाई चिल्लाकर सबको दूर भगाया और आपको रिटायरिंग रूम में लाया। रोज़र स्टेशन मास्टर के रूम में रश करके भागा। तब डॉक्टर आया और…।’
`तुम तीनों ने मेरे लिये ट्रेन छोड़ दी!’
`हां! वही तो ज़रूरी था न। आपको उन स्टूपिड लोगों के बीच छोड़ना नहीं था न! तमाशा करके रखा था न आपका। कोई उठा नहीं रहा था…’
`वो डॉक्टर जो ट्रेन में था…।’
`वो%%%ह। ब्लडी सेल्फिश फैलो।’ यह छुटका था, `हिज वाइफ स्कोल्ड हिम नॉट टू कम विद अस एण्ड ही स्टेड बैक। वी लिटरली प्रेड टू हिम! बट ही टोल्ड आय कान्ट… गेट डाउन… आय हैव टू रीच टुडे।’
`लीव ना कीथ। होते हैं, आन्टी सैल्फिश लोग भी। हमको हमारा मम्मी बोला इन्सान का सेवा ही यीशू का सेवा है। आप बताओ न, आपकी जगह हम होते तो! आप नहीं रुकते क्या हमारे लिये?’
मैं सोच में पड़ गई थी! मैं क्या करती? मैं उतरती किसी घायल के लिये? इस उमर, सूजे हुए पैरों के साथ में किसी घायल के लिये मैं क्या कर सकती थी? ये तो जवान हैं। प्रौढ़ावस्था का बहाना खड़ा हो जाता।
प्रश्न वही था… बचपन में पढ़ी कहानी `मनुष्य, भेड़ और भेड़िया’ में से मैं क्या बनती? भेड़िया तो नहीं, इन्सान बनने की हिम्मत जुटा पाती या कि शायद… उस डॉक्टर की तरह जल्दी गंतव्य पर पहुंचने की चाह में आंखें मूंद भेड़ बनकर आगे बढ़ जाती!
लड़की बिलकुल मेरे करीब थी, उसका खून से सना शर्ट उसके हाथों में था। बड़ा लड़का आगे डॉक्टर के पास बैठा जयपुर जाने वाली ट्रेन के बारे में बतिया रहा था।
`नो वी वोन्ट लीव हर अलोन।’
`… …।’
`प्लीज कम्पलीट ऑल फार्मेलिटीज़ एण्ड गिव हर प्रॉपर मेडिकेशन। वी हैव टू लीव दिस प्लेस टुडे ऑनली। डोन्ट वरी… वी विल टेक केयर ऑफ हर।’
`… …।’
`नो… नो। वी वान्ट टू लीव फॉर जयपुर एज अर्लीी एज पॉसिबल। डे आफ्टर वी हैव फर्दर रिजर्वेशन्स आल्सो।’
`… …’
`थैंक्स डॉक्टर।’
हम रेलवे के अस्पताल पहुंच गये थे। डॉक्टर रशीद ने… (उनका यह नाम मैंने उनके कोट पर लगे नेमटैब पर पढ़ा था। क्या करूं यह उत्सुकता जन्मजात है।) मरहम-पट्टी कर दी थी। दो एक्स-रे भी हुए… पर डॉ. रशीद के अनुसार खुदा के फज़ल से सब कुछ ठीक था। अब हम तीन बजे की ट्रेन पकड़ सकते थे।
उन युवा और नेक फरिश्तों ने मुझे पूरी तरह से संभाल रखा था। उन्हें अपने आगे के कार्यक्रमों से ज्यादा मेरी चिन्ता थी। तीनों के कपड़े मेरी वजह से खून से सन गये थे। उन्होंने अपने सामान के साथ-साथ मेरा सामान संभाल रखा था। मैंने पास पड़ी मेज़ पर देखा… वहां मेरे पर्स के पास दोनों मिठाई के डिब्बे रखे थे। तन ताज़ा-ताज़ा साफ करके पट्टी किये गये चार-पांच बड़े और कई छोटे टीसते ज़ख्मों और मन आपस में उलझते तरह-तरह के विचारों से थक गया था। मैंने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे आंखें बन्द कर लीं। वे तीनों डॉक्टर के पीछे-पीछे अपने कपड़े बदलने चले गये थे।
दुपहर तीन बजे की ट्रेन में हम चारों फिर से बैठे थे। स्टेशन मास्टर ने हम पर एक अहसान किया था… इस ट्रेन में ए. सी. कम्पार्टमेंट में कूपे दिलवा दिया था। डॉक्टर रशीद घर से बिरयानी का लंच पैक करवाकर पकड़ा गये थे, `अपना ख्याल रखियेगा बहनजी।’ जुमले के साथ।
`वाउ… दिस इज़ माय फर्स्ट चान्स ह्वेन आय एम सिटिंग इन ए.सी. कम्पार्टमेंट।’ छुटका बहुत खुश था। उसने अपना वॉकमैन निकाला और लो वॉल्यूम में शकीरा सुनने लगा।
`कीथ प्लीज रेज़ द वॉल्यूम, लेट मी आल्सो लिसन!’ यह मैं थी।
वे दोनों युवा प्रणयी फिर एक दूसरे में मगन थे। लीज़ा रोज़र की उंगलियों को गिटार पर फिसलते देख रही थी।