बिन रोई लड़की
– सूर्यबाला
वह लड़की अचानक एकदम सामने आकर खड़ी हो गई है!
घर का पूरा सामान करीब-करीब पैक हो चुका है। सिर्फ थोड़ी सी तितर-बितर चीजें और अपने लिखने की टेबल को छोड़कर- उसी पर झुकी मैं बेतहाशा कलम दौड़ाती जैसे किसी तेज बहाव में बहती चली जा रही हूं।
हठात मेज पर झुकी मैं चौंक पड़ती हूं। दरवाजे के पीछे से दो बड़ी-बड़ी खूब कजरौटी आंखें झांकी हैं और फिरोजी दुपट्टे का एक छोर आहिस्ते से लहराया है। लम्हे भर को वह झिझकी, शरमाई सी दरवाजे पर ठिठकी रही। फिर हंसती सी ऐन मेरे सामने आकर खड़ी हो गई।
‘‘आंटी!’’
हाथों में थमा लंबी डंडियों वाले खूब ताजा एर्स्ट्स के फूलों का गुच्छा उसने मेरी और बढ़ा दिया है।
‘‘यह, आपके लिए!’’ आंखे, वापस एक निरीह संकोच से झुक गईं।
थामते हुए मैंने देखा, हरे-चमकीले फर्न से घिरे छह-सात ताजा एर्स्ट्स… पीले, रेशमी रिबन से बंधे हुए!
‘ओह-थैंक्स, थैंक्स अलॉट… बेहद खूबसुरत फूल हैं।’ कहती हुई मैं ऊपर से नीचे तक बुरी तरह हड़बड़ा उठती हूं। समूची चेतना पर एक भूकंप सा। सबकुछ उलट-पलट डॉंवाडोल सा करता हुआ। उधेड़-बुनों में फंसा एक शक्की सवाल इधर-उधर से घेर-घारकर खुफियागिरी करता न लगता है अचानक भला कहां से?… कैसे, क्यों आ गई?
मेरी दृष्टि पड़ते ही वह सहमकर बेहद निरीह सी हो आई। जैसे आ तो गई, लेकिन अब कैसे, क्या कहे। साफ लग रहा था कि उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा है।
फिर किसी तरह पूरी हिम्मत और शक्ति जुटाकर-
‘कैसी हैं… आंटी आऽऽप?’
‘मैं? अॅ? हां, बिलकुल ठीक हूं।’ मैंने अपनी हकलाहट पर काबू पाते हुए कहा।
‘लेकिन ठहरो, पहले मैं इन फूलों को वाज में अरेंज कर दूं, है न!’ और मैं उसकी आंखों का सामना करने से कतराती फूलों का गुच्छा लिये किचन में भाग आती हूं। मुझे, सचमुच थोड़ा समय चाहिए था अपने को पूरी सहजता से पेश कर पाने के लिए अपने छितरे वजूद को समेट पाने के लिए।
उफ, वह मीठी निर्मल सी दृष्टि और मेरे अंदर आया झंझावात! यह, यह क्यों आई है? हो सकता है सिर्फ ऐसे ही। हमारा ट्रांसफर जो हो रहा है। कितने लोग आ जाते हैं ऐसे ही मिलने-जुलने, हाल-चाल पूछने कोई मदद जरूरत? लेकिन यह भला क्यों आई? (जैसेकि सब आएं तो आएं, लेकिन उसे तो बिलकुल नहीं आना चाहिए था) आशंकित चौकन्ने सवालों की थिगलियां वापस यहां-वहां बिखरने लग जाती हैं। यंत्रचालित सी मैं फूलों को एक खूबसूरत वाज में रख रही थी। फूलों से ज्यादा, अपने आपको करीने से पेश कर पाने की हड़बड़ी। जैसे ‘उसका’ सामाना करने को तैयार।
‘देखो, कितने खूबसूरत लग रहे हैं न!’
मैंने वाज से सजे एर्स्ट्स कार्निश पर रख दिए हैं। उसने उसी संयत, सलज्ज भाव से मुसकराकर सिर हिला दिया हैं।
‘आप हमेशा फूल बहुत अच्छे अरेंज करती हैं आंटी, ये गुलाब भी तो…’
मैं गर्वोन्नत हो अगराई हूं। सचमुच, बीचोबीच कांच की गोल मेज पर मैंने आज सुबह ही ताजा क्रीम, गुलाबी और शोख लाल गुलाब सजाए थे।
और कॉर्नर की तिपाई पर रजनीगंधा की पांच-छह डंडियां।
लेकिन मुझे इन दोनों के सामने जाने क्यों, सफेद एर्स्ट्स बेहद सीधे लग रहे थे। बहुत विन्रम, चुप, शांत, सहमे और संकोची! कुछ इस तरह, जैसे सारी उम्र कोई अपने को समझे जाने के इंतजार में खड़ा रह जाए।
क्या मैं इस उदास और निरीह मसकान की सबब जानती हूं?
नहीं-नहीं, बिलकुल नहीं! जैसे पीछे से आकर कोई मेरा मुंह दबोच लेता है और मैं कतराकर चोर दरवाजे से निकल भागती हूं। लेकिन मेरे साथ-साथ एक ढीठ सवाल भी मेरा पीछा करता मुंह बिराता चला आ रहा है कि मैं सहज भाव से उस लड़की से कुछ पूछ, कह क्यों नहीं पा रही? ठीक उसके सामने बैठी मुझे सामान्य शिष्टाचार के दो-चार शब्द भी क्यों नहीं सूझ रहे? उलटे वही मुझसे बेहद शालीन लहजे में पूछ रही है-
‘जा रहे हैं आंटी… आप लोग यहां से?’
‘ओह! हां… देखो न, अब क्या कहें, जाना ही है।’
‘कब तक?’
एक निरीह अवसाद में डूबे, कांपते से शब्द, अपने आपको बखूबी संभाले हुए।
‘कब तक, आंटी?’
बेहद सादा सवाल, लेकिन मेरा शक अब पक्का हो रहा है। मैं वापस चौकन्नी हो उठी हूं। बड़ी चतुराई से पैंतरा मारकर बात को चौखानों में काट गई हूं।
‘बस… कभी भी, कुछ कह नहीं सकती! देखों न, सबकुछ बिखरा पड़ा है यहां-वहां।’
मेरे पैंतरे से अछूती वह निर्दोष सहानुभूति से चारों तरफ छितरी चीजों को देखती है।
‘‘आऽऽप…. सचमुच थक जाती होंगी न! कैसे-कैसे क्या क्या पैक करना, मैं खुद चाहती थी थोड़ी मदद….’
‘नहीं-नहीं…’ मैं तत्क्षण सहानुभूति की उस धार को काटकर दो टूक कर देती हूं।, ‘वह सब तो प्रोफेशनल-पैकर्स पूरी मुस्तैदी से कर रहे हैं, थैंक्स!’
वह फिर से सहमकर चुप सी हो रहती है।
मैं उस चोर दरवाजे के पीछे से आजमाती हूं। क्या यह जानती है कि मुझे इसके यहां आने का मकसद थोड़ा-बहुत मालूम है? लेकिन वह मकसद क्या सचमुच इसकी ढिठाई है? या किसी बेहद अनछुई अनुभूति की भावनात्मक बगावत! एक तलफलाहट, एक निरीह, अबश लाचारी… नहीं… नहीं, यह सब सिर्फ मेरा अनुमान है। असलियत है तो सिर्फ इतनी कि मुझसे मेरे परिवार से इस लड़की की थोड़ी बहुत जान पहचान मात्र है बस! साथ ही ‘ब्राइडल मेकअप’ यह बहुत बढ़िया करती है। इसीलिए अपनी बेटी की ब्राइडल-मेकअप के लिए खासतौर से इसे बुलवा भेजा था। सुनते ही इसने खुशी-खुशी स्वीकारा था और प्राणपण से इसे दायित्व के निर्वाह के लिए जुट गई थी। मेरी बेटी को सामने बिठाकर तीन-चार दिन पहले से जाने कितने ट्रायल्स कर करके मुझे दिखाए एप्रूवल के लिए। और विवाह वाले दिन तो उसकी तन्मयता देखकर मैं अभिभूत थी। एकदम सच कहूं तो मेरी बेटी के श्रृंगार में तन्मय, वह मुझे अपनी बेटी से भी ज्यादा खूबसूरत दिखाई दे रही थी। एक तरफ से सभी ने वधू के श्रृंगार की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और अब, मेरी बेटी नई-नई दुलहन बनी ससुराल में थी।
‘मेधा अच्छी तरह हैन, आंटी?’ वह बहुत आहिस्ते से स्तब्धता तोड़ती है।
‘हां-हां… खूब अच्छी तरह…..’ चौंककर हड़बड़ाते हुए मैं मन ही मन एक चोर अपराधी भाव से ग्रस्त हो जाती हूं। छिह! एक वाक्य तक नहीं बोला, पूछा गया मुझसे। आखिर क्यों? और किसी तरह एक चालू जुमले का जुगाड़ कर ले जाती हूं।
‘पिछले संडे आई थी मेधा, तुम्हें भी पूछ रही थी।’
‘ओह सचमुच।’ मेरे शब्द जैसे उसे कृतकृत्य कर गए। उसकी उदासी में एक जगमगाहट सी कौंधी, लेकिन तुरंत विलुप्त भी हो गई।
उफ! कैसी दिख रही थी वह! किसी मर्म-बिंधी करूण रचना की शुरूआत सी। अचानक मुझे सूझा-काश! यह सबकुछ, ठीक ऐसा का ऐसा मैं अपनी लिखी जा रही रचना में उतार पाती। वह मेरी सबसे मार्मिक देने होगी साहित्य को- यह मीठी धार सी निर्मल दृष्टि, घनी बरौनियों के झुके छाजन और उनमें बहुत धीमे-धीमे टिमटिमाती एक नन्ही लौ।…
नक्काशीदार सुनहली घाटियों वाले बोन चाइना में लगे हुए गुलाब महिमामंडित आभिजात्य से हलके से झूमे हैं, रजनीगंधा की डंडियां आत्ममुग्धा सी इठलाई हैं, लेकिन एर्स्ट्स वैसे ही शालीन, विनम्रता से खड़े हैं, एक इंतजार सा करते हुए। सिर्फ उनमें एक सिहरन सी व्यापी है… जैसे सामने बैठी लड़की के प्रकंपित होठों में।
एर्स्ट्स, बोल नहीं सकते।… लेकिन लड़की तो बोल सकती है।
उसके होंठ सचमुच फिर से कांपे हैं। लेकिन कहां बोली वह?
शायद वह जो कुछ कहना चाहती है, उसके लिए शब्द अभी ईजाद नहीं हो पाए हैं। इसलिए हर बार कुछ बोलने की कोशिश करती लड़की हारकर असहाय आंखों से एर्स्ट्स की ओर देखने लगती है।
और तब एर्स्ट्स बड़ी मुश्किल से किसी तरह सिर्फ इतना कह पाए हैं कि इस लड़की को अपना दर्द रोप पाने के लिए एक क्यारी चाहिए।
दर्द? हड़बडा गई हूं मैं वापस।
दर्द-वर्द की बात कहां से आ गई बीच में! बात तो हरे फर्न, पीले रिबन और मेरी सद्यप्रसता रचना की हो रही थी। उस खूबसूरत हदबंदी को तोड़कर दर्द की बात? और फिर कहां की यह लड़की कहां की मैं जरा सी? बेगानी सी जान पहचान इसके किसी नामी बेनामी दर्द के िएल मुझसे क्यारी खोदने की अपेक्षा करना जरा ज्यादती नहीं क्या? इसके किसी दर्द की जानकारी मुझे भला कहां से होगी?
तभी जैसे किन्हीं अदृश्य हाथों ने मेरी आवाज का गला घोंटकर धमकी भरे स्वर में पूछा है सचमुच नहीं पहचानतीं इस लड़की के दर्द को?’
‘न-नहीं’ मेरी घुटती आवाज कॉपी है।
पकड़ सख्त हो गई है, ‘और इस लड़की को? इसे पहचानती हो या नहीं?’
‘वह… वह मैंने कब नकारा! जानती हूं। अगली लेन के तीसरे फ्लैट की बालकनी वाली लड़की है यह। कई बार, बैजनी फूलों से लदी उस बॉलकनी के बीचोंबीच रेलिंग पर झुकी दिखी है। फूलों के बीच से झांकता उसका चेहरा नरगिस के ताजा धुले फूल जैसा ही… और उस लेन, उस बॉलकनी के नीचे से गुजरता मेरा अलमस्त बेटा! सुबह जॉगिंग के ट्रैकसूट में, शाम को टेनिस का रैकेट उछालता… ऊर्जा शक्ति और जिंदादिली से सराबोर! शौक है उसे बॉडी बिल्डिंग का, कहकहे लगाने का और शोर-शराबा करके हंगामा बरपाने का!’
यह लड़की जब मेरी बेटी के श्रृंगार के ट्रायल्स किया करती थी, तब भी वह सारी-की-सारी इकट्ठी लड़कियों को चिढ़ा-चिढ़ाकर, खिझा-खिझाकर परेशान कर डालता था। हंसा-हंसाकर उनकी आंखों से आंसू ला दिया करता था।
‘तबीयत तो ठीक है न आंटी आपकी अब!’
‘अं? हां-हां!’
‘मेधा की शादी में कितना ‘लो’ हो गया था आपका ब्लडप्रेशन!’
‘हां…’ कहती हुई मैं सोच रही थी कि यह भी कैसी बात कि बगैर किसी ऊपरी जिक्र के यह लड़की भी उन्हीं घटनाओं, उन्हीं कालखंडों के इर्द-गिर्द घूम रही है, जिनमें मैं कैसे वह ठीक उसी जगह चुपचाप सहमी सी आकर खड़ी हो जाती है, जहां मैं भटकती होती हूं।
मेरा मन उससे कहने को हुआ कि हां, उस लो ब्लडप्रेशर के समय तुमने मेरी कितनी देखभाल की थी, मैं कभी उससे उऋण नहीं हो पाऊंगी, लेकिन तत्क्षण मैंने अपने आपको वह बेवकूफी भरी गलती करने से रोका और कृतज्ञता ज्ञापनवाली बात दरकिनार रखते एक चालू फिकरा जड़ दिया-
‘और…. तुम्हारे घर के सब लोग कैसे हैं?,
‘ठीक हैं, आंटी।’
मैं जान-बूझकर ऐसे सवाल कर रही थी कि कहीं किसी भी छोर के सहारे वह अपनी सीमा उल्लंघन का दुस्साहस न कर बैठे। सचमुच वही हुआ। वह निरीह-सी रह गई। मौन लंबा हुआ, फैलाव इतना कि हम दोनों की असहजता उजागर-सी हो उठी। इस बीच उसके होंठ रह-रहकर खुले, फिर बंद हो गए, चिड़ियों के पंख फड़फड़ाते बच्चों से।
लेकिन अब तक उसने अपने कांपते होठों को साध लिया है और किसी तरह पूरी शक्ति लगाकर पूछ गई है- याचना के से स्वर में- ‘आंटी-जहां आप लोग जा रहे हैं, वहां का कुछ अता-पता?’ और मेरी दृष्टि से दृष्टि मिलते ही घबराकर, ‘मम्मी पूछ रही थीं।’
‘ऑ?… पता?…. कहां? अभी तो कुछ भी मालूम नहीं है अपना पता-ठिकाना।’
एक बहुत अवश, लाचार- ‘जी… अच्छा।’
घने कुहरे के बीच जैसे एक झील तरतराई हो, हताश थमी सी आंखें प्रश्न के रूप में एक अनुनय, एक याचना सी करती गिड़गिड़ा उठीं- ‘आंटी, क्या आप सचमुच नहीं समझीं?’
तब भी नहीं जब मेरी आंखों के सूनेपन का मर्म थहाती जया ने आकर आपसे बातों-बातों में पूछा था कि आंटी, स्नेहल आपको कैसी लगती है? और जब खुद-ब-खुद उसने जोड़ा था, ‘बहुत अच्छी लड़की है, आंटी, बहुत संकोची, बहुत सीधी। अपना दुःख किसी से न कहने बांटने वाली। मेरी मम्मी कहती है, कि मेरे कोई भाई होता न, आंटी, तो वे…’
हां, जया अपनी सीमा, सामर्थ्य भर जितना बन सकता था, कह गई थी। यह नासमझी मेरी सबसे बड़ी समझदारी थी; जबकि मैं हर बार उसकी ढकी पलकों के उठाते ही उसमें अपने अलमस्त, बिंदास बेटे के हजारों हजार अक्स एक साथ देख सकती थी। हां, वह रहा, वो क्या बारौनियों के जाल बंधें और टेनिस के ‘शॉटस’ से पैवेलियन गूंज उठा। पलकें उठीं और एक तेज ह्विसिल के साथ छपाक से स्विमिंग की फ्री-स्टाइल में उसकी डबाडब भरी आंखों में छपाछप हाथ मारता मेरा बेटा।
उफ! मैंने घबराकर उसकी ओर देखा है- यह लड़की कहीं रो ही न दे, लेकिन तभी वह, उसी निरीहता में मुसकरा लेती है!
मुझे हैरत होती है ऐसे भी कोई मुसकरा सकता है क्या!
ठहरो-ठहरो, एकदम यहीं… यहीं मेरी अजनमी रचना की प्राण-प्रतिष्ठा का चरम क्षण है। रूको, रूक जाओ- सहमे एर्स्ट्स और चटक गुलाबों के रंगो! रूक जाओ। भाव-भावना, अनुभूति और संवेदनाओं की ऊष्माओ! और, इस लड़की की आंखों के आंसुओं….!
वहीं के वहीं रूके रहो सब-के सब! अभी एकदम, अभी पहले प्राण-प्रतिष्ठा हो लेनी है, मेरी इस सद्यःप्रसूता रचना में। एक रचनाधर्मी के लिए इससे ज्यादा चरम आह्लद के क्षण होते हैं क्या? उफ! कितनी अवसाद भरी अछूती प्रेम कथा! सामान्य, सतही प्रेम कहानियों से सर्वथा अलग।
‘आंटी…’
प्राण-प्रतिष्ठा के चरम क्षण का आह्लाद खंडित होता है।
‘चलूं मैं…’ पलकें झुकीं जैसे पंखुडियां झरी हों।’ हम, शायद अब कभी न देख, मिल पाएं न, आंटी।’
पूरी शक्ति, पूरे साहस का, जर्रा-जर्रा जोड़कर कहे कुछ शब्द। कांपे-होंठ… जैसे आधी रात के समंदर का पूरा हाहाकार समेटकर बंद किए हुए हैं अपने अंदर।
और वह पूरा समंदर मेरी पथरीली चट्टान पर माथा पटककर अभी-अभी लौटा है।
‘हम शायद अब…’
‘अरे, नहीं-नहीं… ऐसा कुछ भी नहीं। जिंदगी में लोग मिलते-बिछुड़ते रहते ही हैं। लो, चॉकलेट लोगी तुम?’
उसने उसी भव्य शालीनता से हथेलियां बढ़ा दी थीं। और फिर चारों तरफ से जैसे अपने आपको पूरी तरह समेटते हुए उठ खड़ी हुई थी।
‘तो फिर, चलती हूं आंटी…’
बूंद-बूंद अवसाद से उतरते स्वर।
मेरा सबकुछ जैसा-का-तैसा मेरे हवाले करते हुए।
मुझे पूरी आश्वस्ति और इत्मीनान सौंपते हुए, हलकी होती हुई मैं अचानक बेहद बेतुकेपन से कह पड़ती हूं-
‘अरे! अच्छा… सुनो, तुम मेरे साथ खाना खा लो न!’
कुछ इस तरह जैसे एवज में, फिरौती के तौर पर मेरा भी तो कुछ फर्ज है।
वह पूरी शिष्टता से कहती है कि मां इंतजार कर रही होंगी। यह तो वह कॉलेज से लौटते वक्त ऐसे ही आ गई थी।
‘बाऽऽय आंटी…’
उफ! रो पड़ती सी लड़की उसी गरिमा से मुसकराई है और दरवाजे से बाहर होती चली गई है।
कहानी बन चली है बेहद मार्मिक आपसे आप।
मैं सच कहती हूं, अचानक मेरा जी चाहा है, मैं उसके पीछे भागती चली जाऊं और उसका निरीह चेहरा अपने हाथों में थामकर कहूं कि हां, मैं जानती हूं तुम मेरे पास क्या कहने आई थीं और बिना कहे वापस चली जा रही हो। मैं जानती हूं, क्या चाहती हो तुम और शायद मैं तुम्हें वह दे भी सकती हूं, तुम्हारी पलकों के हर स्पंदन में मेरे बेटे का अक्स है- उसके अनजाने।
लेकिन मुझे माफ करना, मैं अपने बेटे को तुम्हारी इस बहुत निर्मल, बहुत अछूती, कोमल भावना से, यही समझ लो, दूर रखना चाहती हूं।
उफ! यही तो कहानी की मार्मिकता है।
तो? कहानी का पॅथॉस मैंने जीवन में भी उतार ही दिया।
दूर जाती हुई लड़की ने आखिरी बार मुझे पीछे मुड़कर देखा है और चली गई है।
मैं वापस लौटकर कार्निस पर रखे सफेद एर्स्ट्स को सहलाते हुए सोच रही हूं, वह लड़की यहां से जाने के बाद कहां गई होगी?
शायद वह अपने मकान की छत पर जाए और मुंडेरों के साए में बैठकर एक खत लिखे, बिना पते का।
और फिर जिंदगी के तमाम बचे सालों में उस खत के लिए एक पते की तलाश करती रह जाए।
अचानक मैं चौंककर पलकें उठात हूं। एर्स्ट्स मेरी तरफ हैरान, विस्फारित आंखों से देख रहे हैं।
मैं घबराकर उठ आई हूं।
जैसे एस्टर्स के फूलों ने लड़की को नहीं, मुझे मुंडेरों के साए में एक बिना पते का खत लिखते हुए देख लिया हो।
– सूर्यबाला