चादर से ढका शव। शान्त चेहरा‚ कौन कहेगा इस चेहरे की भाव मुद्रा देख कर कि यह वही चेहरा है‚ जो चीखते वक्त गुस्से से कितना भयानक और कुरूप हो उठता था। तब तो मानना पड़ेगा कि हर व्यक्ति के चेहरे में किसी न किसी जानवर का अक्स छुपा होता है। रंग हल्का सा पीला हो गया है‚ जैसे हरे पत्ते को दबा कर रख दिया हो। दवाइयों के असर से नीले पड़े होंठ जो कि दांत न होने की वजह से अन्दर धंसे हुए हैं। पलकें स्वच्छ फैली हुई‚ देख कर प्रतीत होता है मानो कोई बच्चा गहरी नींद में सोया हुआ है। निर्विकारॐ शीशे की तरह स्वच्छ। विश्वास ही नहीं होता कि वे मर चुके हैं। लगता है अभी जागकर‚ हाथ उठा कर बैठने का इशारा करेंगे या पुकारेंगे —

पुष्पा। चाय लाओ। पानी दो। क्या कर रही हो वहाँ? यहाँ पर बैठो। जानबूझ कर अनसुना करते हो तुम लोग। बहाने बनाते हो। मगर नहीं‚ इस देह में स्पन्दन नहीं है। यह प्राणविहीन देह है। यही तो है मृत्यु से साक्षात्कार जो दिखाई नहीं दी। दबे पाँव आई थी।

कल इसी वक्त बात कर रहे थे अस्फुट स्वरों में‚ न जाने कितने नाम पुकार रहे थे? कौन से दृश्य उनके सामने आ रहे थे … सुबह से पेपर खोल रखा था। चश्मा खुला रखा था। ऑक्सीजन की नली निकाल कर बात किया करते थे। पेपर पढ़ लिया करते थे। संसार में क्या चल रहा है‚ यह जानना उनके लिये ज़रूरी होता था। लगातार हर विषय पर घण्टों बोलने वाले पापा अन्तिम समय में बोलने के लिये छटपटाये थे। पता नहीं और क्या क्या कहना चाहते थे। किन बातों के रहस्य‚ कितनी बातों का दर्द और किन किन लोगों से मिलने की अधूरी ख्वाहिश की वेदना लेकर चले गये। वो अन्तिम क्षण जब उसके देखते देखते आत्मा … शरीर छोड़ रही थी‚ कुछ क्षण या क्षणों का भी हिस्सा … जब उनकी गरदन कटी शाख की तरह एक तरफ झुक गई थी।

क्या यही हैं मेरे पापा? उनको सहकलाते हुए सोच रहा था वह। दूसरों के यहाँ होने वाली मृत्यु के बारे में सुनकर कितने हल्के ढंग से लिया करता था वह‚ बल्कि मज़ाक बनाया करता था…मगर आज जब स्वयं पर गुज़र रही है तो सब कुछ कैसा ठहरा हुआ सा लग रहा है। जब तक दोनों भाई‚ ताऊ‚ चाचा वगैरह नहीं आ जाते हैं तब तक पापा की देह इसी तरह ज़मीन पर पड़ी रहेगी। डॉक्टर अभी देख कर गया है‚ शव अभी ठीक है। बदबू पैदा नहीं हुई है। लेकिन ज़्यादा समय तक नहीं रख पाएंगे। सिकुड़े हुए हाथों को छुआ तो पूरा शरीर झनझना गया। खुली हुई मुट्ठियों में सिवा रेखाओं के कुछ भी तो नहीं है। कितना लड़ते थे तुमॐ पापाॐ क्यों? क्या इसी दिन के लिये? जीवन का शाश्वत सत्य जानते हुए भी क्यों बंधे थे माया के बन्धनों में। सब कुछ रखा रह गया नॐ जिन वस्तुओं पर तुम्हारा आधिपत्य था उनके लिये सभी ने तुम्हें क्या क्या नहीं कहा था। तुम्हारे जीवन की नहीं मौत की कामना ज़्यादा बलवती हो गई थी। निरन्तर जलने वाले दीपक की लौ में क्या आत्मा का निवास है या बाहर पेड़ पर या कहीं आस पास‚ कोने में या किसी शरीर में प्रवेश पा लिया।

अब तक चहल पहल कम हो गई थी। घर में मौत का सन्नाटा गहराता जा रहा था। इधर रात गहरा रही थी। उधर हृदय में कुछ धंसता जा रहा था — भय‚ शोक‚ विलाप ॐ बिछोह या अकेलापन या बाप का साया उठने का खालीपन। सारे अहसास अपरिभाषित थे। चींटियों ने सूंघ लिया होगा सो उनकी कतारें की कतारें आने लगीं थीं। आस पास आटे की रेखा खींच दी। इत्र छिड़क दिया। अगरबत्ती जला दी । उसकी गन्ध चारों तरफ महकने लगी‚ मगर उस महक में भी अजीब गन्ध थी। बाहर बैठे लोग बातें कर रहे थे अपनी अपनी बीमारियों की। बच्चों की। किसने क्या क्या दिया‚ क्या कियाॐ क्या क्या भुगत रहे हैं और शेष जीवन भोगने को विवश हैं।

ये बड़े बूढ़े अपने परिवार में एक दम अनुपयोगी हो चुके प्राणी थे। अपने जाने की प्रार्थना तथा मौत की आकांक्षा उनकी बातों में शामिल थी। इस नश्वर शरीर को त्यागने के लिये सृष्टि ने सब कुछ तय कर रखा है‚ इसलिये यहाँ बैठे बड़े बूढ़ों को अपने कष्टप्रद दिन शेष नज़र आ रहे थे। कछ लोगों को शाम की चाय पीने की तीव्र इच्छा हो रही थी‚ मगर चाय पीने में संकोच हो रहा था। कुछ लोगों को तेज़ भूख लग रही थी‚ मगर खाने में संकोच हो रहा था। लोग क्या कहेंगे कि मृत देह घर में पड़ी है और तुम खाने के लिये बैठ गये। मगर करें भी तो क्या? पूरी रात जो बितानी है। अन्दर कोई…कंपकंपाते …विषादयुक्त कण्ठ से सस्वर गीता पाठ कर रहा था। इस थरथराते कण्ठ से निकले श्लोकों के बीच कभी कभार हृदय को हिला देने वाली रोने की तेज़ आवाज़ आ जाती थी। फिर कोई समझाता‚ ” शान्त हो जाओ। क्या तबियत खराब करनी है?” फिर पाठ शुरू हो जाता।

पापा जिस कमरे में लेटते थे वहाँ का बिस्तर उठा दिया है। बिस्तर‚ कपड़े‚ पत्र – पत्रिकाएं‚ बहुत सारी पुरानी किताबें‚ डायरी और तमाम चीजें बांधकर रख दी गईं हैं। चूना सुपारी और पान की डिबिया नीचे पड़ी थी। आते ही पूछते

” क्यों मेरा चूना लाये? कत्था नहीं लाये? मेरी चीजों की याद क्यों रखोगे? सब अपने अपने कामों में लगे रहते हो। थोड़ा वक्त दे दिया करो मुझे। ज़िन्दगी पड़ी है कमाने के लिये। इन दीवारों में कैद हो गया हूँ मैं। मुक्त करो मुझे। ले चलो कहीं। अपने जन्मस्थान जाने को मन व्याकुल रहता है…मगर किसे फुरसत है…?
” क्या करोगे वहां जाकर? अब कौन है वहां आपका?
” सारा कुटुम्ब है।”

वे कई जगहों के नाम बताते पर सारी जगहें किसी न किसी परेशानी के कारण कैंसिल हो जातीं थीं और वे हर रोज़ पलंग पर बैठे बैठे दुनिया के बारे में सोचते रहते या किसी न किसी के साथ उनकी बहस छिड़ी रहती थी।

रिटायरमेन्ट के बाद उन्होंने अपना सब कुछ प्रिय बेटों के बीच बांट दिया था‚ ये सोचकर कि उन्हीं के साथ स्वयं को जोड़ कर काम करते रहेंगे। बेटे बाहर का काम देखेंगे वे अन्दर की व्यवस्था संभाल लेंगे। किन्तु कुछ समय बाद ही उन्होंने महसूस किया कि वे वहां कहीं नहीं हैं। उनका काम करने का ढंग किसी को पसन्द नहीं आता था। उन जगहों पर वे नहीं जा सकते थे जो उन्होंने खरीदी थी। उन चीज़ों को वे छू नहीं सकते थे जिनको उन्होंने स्वयं बनाया था। हर बात में तनातनी। हर बात में बहस। बेइन्तहां तनाव। सो एक बार फिर उन्हें अलग होना पड़ा था। शेष जीवन चलाये रखने की मजबूरी थी। चिन्ता थी। शरीर स्वस्थ था। दिमाग ताज़ा और सक्रिय। सोच सकारात्मक थी और जीवन से प्रेम भी था। सो नया काम जमाने की जद्दोजहद में लग गये। सब कुछ शुरू से शुरू करना था।

” क्या करना है यह सब करके ? “
” फालतू कैसे बैठूं ? वहाँ हमारे मिलने जुलने वाले जाते तो आपत्ति होती थी। जाति बिरादरी के काम में लगे तो सब कहने लगे‚ पापा घर लुटा रहे हैं। आखिर करें क्या? अकेले‚ दयनीय‚ दूसरों की दया पर चलें। मांगे उनसे कि जो मेरा है वही देदो।”
” कुछ नहीं कर पाओगे। आराम से बैठ कर पढ़ते लिखते। सुकून की रोटी खाते।”

फिर भी वे लगे रहे थे। कुछ वर्ष सब ठीक ठाक चलता रहा था। लेकिन जब शरीर थकने लगा था और काम नहीं संभाल पा रहे थे तो मंझला बेटा उनके साथ आकर रहने लगा था। सो उसके आने से फिर घर में कलह शुरु हो गई थी। ससुर – बहू के बीच जम कर कहासुनी होती थी।

” इसे समझाओ।”
” आप भी क्यों बोलते हो? जो कुछ कहना है मुझसे कहो।”
” उससे कहो कि मुझसे तमीज़ से बात किया करे‚ मैं उसके पति की तरह उसका गुलाम नहीं हूँ। डरता नहीं हूँ। बुढ़ापा है अन्यथा…।”
” अन्यथा क्या करते?” बेटे का ताव देख कर वे खामोश हो जाते।

उनकी नसें तड़कने लगतीं। खून खौलने लगता। इतना अपमान। वो ताकत अब शरीर में नहीं रही थी जिसके बल पर वे दहाड़ा करते थे। मन ही मन गहरी चिन्ता में डूब जाते। उदास हो जाते। मन फड़फड़ा उठता‚ ऐसे बच्चे निकलेंगे सोचा न था।

जब उनकी तबियत ज़्यादा खराब हो जाती तो रात भर कराहते। जागते। तड़पते। सांस खींचने के लिये संघर्ष करते। सारा घर दहल जाता। बेटा अर्धनिद्रा में बैठा पीठ थपथपाता। सिर की मालिश करता‚ फिर भी उनकी शिकायतों का पुलिन्दा खत्म न होता।

” बैठे बैठे चैन नहीं पड़ता आपको। क्या चाहिये आखिर? क्यों चैन नहीं लेने देते हो? मार दूं उसे? भगा दूं या मैं चला जाऊं? रात दिन कलह। रात दिन शिकायतें।” बेटा चिल्लाता।
” मैं मर जाऊंगा तब शान्ति से रहना। क्या करते हो सिवा अपने कामों के?”
” तो क्या आपकी वजह से काम छोड़ दूँ? चार साल से सिवा आपकी सेवा के किया ही क्या है?”
” वाह बेटेॐ यह भी बता दो कि चार साल में कितनी रोटियां खिलाई हैंॐ “
बेटा झुंझला कर बाल नोचने लगता‚ ” मैं बाहर नहीं जाऊंगा तो बच्चों को क्या खिलाऊंगा? आप तो देते नहीं एक पैसा निकाल कर। क्या साथ में लेकर जाओगे?”
” और क्या चाहते हो? सब कुछ तो दे दिया था। जो है वह भी दें दें‚ ताकि मेरे मरने पर अन्तिम क्रिया तक के पैसे न बचें। तुम लोगों का भरोसा‚ उसी समय लड़ने बैठ जाओ या हिसाब करने लगो कि कौन लकड़ियां लाएगा‚ कौन बांस। बस इतना ही पैसा है मेरे पास कि मेरी अन्तिम क्रिया आराम से हो जायेगी।”
” और ये मकान…उनका क्या करोगे?”
” मेरे जीते जी नहीं बिकेंगे।”
” कौन बकवास करे आपके साथ। रखे रहो। सिर पर लाद कर ले जाना। इस उम्र में आदमी भजन पूजा करता है। शान्ति से बैठता है और ये देखो तो कान लगाये बैठे रहते हैं। न जाने क्या चाहते हैं?”

वास्तव में क्या चाहिये था उन्हें? भरा पूरा परिवार था। कमाने वाले पुत्र। अपने परिवार में सुखी जीवन बिताने वाली पुत्रियां। नाती – पोते। फिर भी कहीं कोई अभाव था। अभीप्सायें थीं जो बेचैन रखती थीं। ऊपर से तो सब कुछ परिपूर्ण भरा पूरा दिखाई देता था पर अन्दर कोई सुरंग थी। जीवन के अन्तिम छोर पर बहुत सारी स्मृतियों के साथ रिश्ते जुड़े थे। वे अनदेखे रिश्ते थे। वे जाने पहचाने चेहरे उन्हें पुकारते थे। लुभाते थे। अपने मन की इस दबी छुपी चाह को‚ वेदना को बताते हुए डरते थे‚ सकुचाते थे।

खाट पर पड़ा मरणासन्न इन्सान असमर्थ था। फिर भी बड़े बेटे से उनका मन मिला हुआ था। दुनिया – जहान की बातें‚ शिकायतें‚ इच्छाएं वे उसी के साथ बांटते थे। सो इस प्रसंग को भी बताने के लिये छटपटा रहे थे।

” मेरा एक काम करोगे? ” जैसे ही वे बात शुरू करते‚ पत्नी आ कर बैठ जाती।
” तुम अपना काम करो। हम अकेले में कुछ बात करना चाहते हैं।”

पत्नी आशंका से देखती। कोई काग़ज़ तो नहीं है। वसीयत तो नहीं लिखी जा रही है। किसी प्रकार की लिखा पढ़ी तो नहीं की जा रही है। वरना मेरे पास क्या रहेगा जीवन बिताने के लिये। इनका क्या‚ ये तो अब चले या तब चले। बिना पैसे के कौन पूछेगा?

” पप्पू क्या तुम मुझे ले जा सकते हो? “
” कहाँ? कैसे? मैं तो ले चलूं पर …आपकी हालत।”
” एक बार मैं उससे मिलना चाहता हूँ। भरोसा दिलाना चाहता हूँ। ऐसा न हो कि अन्तिम समय में वह सड़क पर अकेले मरी पड़ी रहे। कोई कन्धा देने वाला न हो। कितने साल हो गये उसको देखे हुए।” वे उंगलियों पर गिनने लगे‚ “एक… दो… तीन… जब से बिस्तर पर हूँ। आने जाने में अशक्त हो गया। चिट्ठी भी तो नहीं लिख सकता।”
” पापा‚ तुम भी क्या बुढ़ापे में ये सब झमेले पाल कर बैठे हो। माँ को पता चलेगा तोॐ इतने वर्षों से सेवा तो वही कर रहीं हैं। चालीस साल से जो तुम्हारे साथ है‚ उसके न हो सके तुम‚ फिर जीवन के आखिरी समय में अपनी बेइज्जती करवाना चाहते हो। धोखेबाज माने जाओगे। सब गालियां देंगे। थूकेंगे।”
” पहले मेरी बात पूरी तरह से सुनो। वो ह्य पत्नी हृ तो कबसे मेरे मरने की राह देख रही है। क्या क्या नहीं सुनाती‚ इसलिये उसकी परवाह नहीं। रही तुम्हारी बात तो तुम्हारे पास वक्त है अपने बाप के लिये? वकालत मत करो मैं किसका पति हूँ? किसका बाप हूँ? सिर्फ मुझे देखो। मुझेॐ एक आदमी को। नैतिकता का पाठ मत पढ़ाओ मुझे। मेरे पास वक्त नहीं है। उसकी ज़िन्दगी का कुछ न कुछ इंतज़ाम तो मुझे करना ही होगा।” वे एकाएक उत्तेजित हो उठे। सांस फूलने लगी। निढाल से बैठ गये सीना पकड़ कर।
” हाँ बोलो।” उसका दिल धड़कने लगा। पता नहीं कौनसा रहस्य खोलने वाले हैं? पानी लाने के बहाने अन्दर गया‚ यह देखने के लिये कि कहीं माँ तो दरवाज़े के पास नहीं खड़ी हैं।
“किवाड़ अटका दो।” उन्होंने संकेत किया। फिर सिरहाने से कॉपी निकाल कर बोले‚
” ये जो कविताएं लिखता रहा हूँ…उनमें छुपे भावों को समझा है। वह भाव‚ वह वेदना किसने दी? उसनेॐ उसने दिया था जीवन जीने का साहस। आशा का आलोक। जब मैं नौकरी में मारा मारा फिरता था तब मेरे मकानों की रखवाली किसने की‚ उसने। मैं एक एक पैसा जोड़ कर लाता था। उसके पास रख देता था। जानते हो किसलिये… मकान बनवाने के लिये। मैं काम लगवा कर चला जाता था और वह देखती थी.। जैसे चिड़िया अपना घोंसला बनाती है‚ वैसे ही हम दोनों ने मिल कर बनाया था उन मकानों को। उससे वादा किया था कि ज़िन्दगी के आखिरी समय में यहीं आकर रहूंगा उन्हीं मकानों में। मगर तुम लोगों की वजह से …यहाँ वहाँ रहना पड़ा… लौट कर जा ही नहीं सके।”

उसके मन में कौतुहल जाग उठा। आगे की बात सुनने के लिये‚ सो बीच में टोका नहीं। कहानी अविराम जारी रही…

” बचपन में ही‚ छोटी उम्र में ही विधवा हो गई थी वह। कुछ समय तो माँ बाप के साथ रही। फिर भाई के पास। सीधी साधी औरत। भाई महामक्कार। भौजाई दुष्ट। माँ बाप भाग्य को कोस कर गालियाँ देते और भौजाई नौकरानी की तरह काम करवाती। अपने घर के पीछे से सब कुछ दिखाई देता था। सुनाई देता था। एक एक दिन की पीड़ा को देखता था मैं। उस पर हो रहे अत्याचारों को देखकर …मेरा मन घबराता था। शोक से भर जाता था। एक दो बार उन लोगों को डांटा। समझाया। मगर होता क्या था? ” वे चुप हो गये। खांसी का दौरा शुरू हो गया था। सांस फिर तेज चलने लगी थी। उनकी सारी ऊर्जा खत्म हो जाती थी इस तरह के दौरे पड़ने से। वह एकदम पस्त हो गये। वह पीठ थपथपाने लगा। सिर की मालिश करने लगा। मन उनकी बातों में अटका हुआ था सो जिज्ञासा का भाव मन को अधीर कर उठा।
” फिर क्या हुआ? ” सो पूछ ही लिया।
” भाई पुलिस में भर्ती हो गया था। उसके जाने के बाद स्थिति और भी बदतर हो गई। जवान विधवा स्त्री को अकेला जान कई मनचले लोग आसपास मंडराते। उसे छेड़ते। सन्देश भिजवाते। परेशान करते। उसका रूप और यौवन ऐसा कि आंखें चौंधिया जायें। एक ब्राह्मण विधवा स्त्री की इज्ज़त का सवाल था और ये मेरे खून और संस्कारों में नहीं था कि कायरों की तरह उसे यूं ज़लील होता देखूं या कोई बहला फुसला कर सौदा कर उसे कोठे पर ले जाकर बैठा या धर्म के ठेकेदार धर्म के नाम पर उसे सन्यासिनी या योगिनी बनाकर उसका शोषण करें। सो एक दिन तलवार ले जाकर चिल्लाया — सालों‚ हाथ पांव काटकर फेंक दूंगा। अगर दिखे तो। बूढ़े मां बाप की परवरिश करने के लिये मैं ने एक सिलाई की मशीन खरीद कर दी। बेचारी रूपा … पूरा जीवन एकाकी और योगिनी सा बीता। इन कविताओं में उसके जीवन के कितने रूप मिलेंगे।”
” आप तो कवि बन गये।” उसने मज़ाक किया‚ ” मैं तो सोच भी नहीं सकता कि आप इतने बड़े छुपे रुस्तम होंगे।”
” मज़ाक बनाते हो मेरा? तुमने देखा क्या है जीवन में ?”
तभी बाहर से किसी ने दरवाज़ा खटखटाया तो वे चुप हो गये। “कहना मत” इशारे से कहा उन्होंने।
” क्या बातें होती रहती हैं तुम दोनों की?” पत्नी ने शंका भरी निगाहें चारों ओर दौड़ाईं।
” पुरानी बातें। पुराने संगी साथियों से जुड़े किस्से कहकर मन बहला रहे थे।”
” हाँ‚ अब तो तुम्हें अपने ही लोग याद आएंगे। हम तो सदा ही पराये रहे।अपने खानदान वालों की बातें करोगे तो छुपकर ही करोगे।” पत्नी ने फिर व्यंग्य करते हुए कहा।
” तुम्हें तो नफरत है उन लोगों से।” वे तल्ख हो उठे।
” तो तुम मुझे ले चलोगे?”
” कहाँ?” पत्नी फिर बीच में ही चौंक कर बोली।
“सोचता हूँ पापा…।”
” बस एक बार बेटा। तुम नहीं समझोगे शायद… लेकिन मेरी बात तो माननी ही पड़ेगी।”

उन्होंने अपनी बात समाप्त कर दी और अनमने से लेट गये। दूसरे दिन जब वह पहुंचा तो वे हांफते हुए बैठे थे। दौरा पड़ा था सुबह। दवाइयों का असर कम ही होता है।

” क्या सोचा?” मुश्किल से शब्द निकल सके।
” इस हालत में जा सकोगे? सांस तो ले नहीं पा रहे। कुछ हो गया तो?” वह चिन्तित होकर बोला।
” मुझे उससे मिलकर कुछ कहना है। ज़्यादा वक्त नहीं बचा। कई बार तो लगता है सोते में ही प्राण न निकल जायें।”
” यहीं बुला लेते हैं।”
” किस बहाने? यहाँ नहीं। ये लोग अभी मेरे सामने ही निकाल देंगे।”
” तो मेरे घर। मेरे घर कुछ दिन रहने के बहाने चलो।”

वे गहरी चिन्ता में डूब गये। देर रात तक मौन हांफते रहे। कोई गहरा अवसाद उनके मन को मथे जा रहा था।

” यह ह्य पत्नीहृ भी तो जायेगी वहाँ। जबकि हम अकेले में बात करना चाहते हैं।”
” पापा‚ यह सब…।” कहते कहते रुक गया वह।

कल ही तो डॉक्टर ने बताया था कि वे ज़्यादा दिनों तक रहेंगे नहीं। मुश्किल से एक महीना। ऑक्सीजन सिलेण्डर घर में रखो। जब ज़रूरत हो लगा दिया करो। लेकिन यह भी कब तक? एक समय के बाद शरीर सब कुछ छोड़ देता है। प्रकृति अपना काम करती है। ईश्वर के बनाये विधान में कितना हस्तक्षेप कर सकते हैं हम? ज़्यादा दवाईयां‚ ज़्यादा ऑक्सीजन …मतलब उन्हें कष्ट ही देना है।

” तुम लोग मेरे पीछे पड़े रहते थे कि मैं वहाँ के मकान नहीं बेचता। पैसा नहीं देता। सब कुछ छिपा कर रखता हूँ। छाती पर रख कर ले जाऊंगा। कंजूस हूँ। स्वार्थी हूँ। ऐसा नहीं है बेटाॐ वे बहुत ही कोमल स्वर में बोले जा रहे थे। उनकी आंखें नम हो गई थीं।
” उन मकानों की कीमत तो मिल जायेगी। यहाँ तुम नया मकान लोगे। पैसा जमा कर लोगे। इन्होंने अपनी सुरक्षा के लिये अपना हिस्सा पहले ही लिखवा लिया पर सोचो उसका क्या होगा? वह कहाँ जायेगी? इतनी बड़ी दुनिया में कोई है उसका?”
” क्या बात चल रही है मकानों की? वे मकान तो फसाद की जड़ हो गये हैं। मनहूस हैं। पता नहीं ऐसा क्या मोह है कि बेचने नहीं देते हो। किरायेदार हजम कर लेंगे तब मानोगे।”
पत्नी ने मकान का नाम सुनते ही बड़बड़ाना शुरु कर दिया‚ ” हज़ारों रूपये किराये में चले गये‚ मगर इनका दिल नहीं पिघला…।”
” तुम क्यों पीछे पड़ी रहती हो? उनकी इच्छा नहीं ही तब?” वह झुंझला कर बोला।
” अपनी ही चीज़ अपनी नहीं रहेगी तब क्या कर लोगे?”
” कौन ले लेगा?”
” तुम जाओ यहाँ से। उठो।” उनका चेहरा गुस्से से विकराल हो उठा। उसे लगा‚ कहीं विवाद इतना न बढ़ जाये कि पापा सहन न कर सकें।”
” इन माँ बेटों को मकान और पैसों के अलावा कुछ नहीं सूझता। इनकी एक ही ज़िद है कि किसी तरह मकान बिके। रात दिन ताने मारते हैं। टॉर्चर करते हैं।”
वह बड़बड़ाती माँ को अन्दर ले गया। समझाने की कोशिश करने लगा‚ ” अभी कुछ मत बोलो माँ। देखती नहीं उनकी हालत। बहुत कम दिनों के मेहमान हैं।” कहते कहते वह द्रवित हो उठा ।

घर में तनाव सा छा गया। वे भी शान्त होकर पड़े थे। बिना मज्जा का शरीर … चारपाई से चिपका हल्के हल्के से काँप रहा था।

” बैठो‚ क्या कह रहा था मैं?” उन्होंने अधूरी छोड़ी बात को पुनÁ कहना आरम्भ किया —
” जब वो यहाँ आकर रहने लगी तो लोग मेरे ऊपर शक करने लगे। यह भी पता करवाती रहती थी। पर वो कोई सामान्य सम्बन्ध तो था नहीं जो दुनिया के चोट पहुंचाने या डराने धमकाने या बदनाम करने से टूट जाता। वो शरीर से परे था। इस संसार के नियम कायदों से अलग। उसमें भावना थी। विश्वास की रश्मियां थीं। बात सिर्फ औरत – आदमी के सम्बन्धों की नहीं थी। बात थी एक बेसहारा औरत की अस्मिता और जीवन रक्षा की। उसकी सुरक्षा और ज़िम्मेदारी की। ज़िम्मेदारी भी ऐसी जिसमें कोई स्वार्थ न था।” — वह अवाक् सा उनका मुंह देखे जा रहा था।
” तुम सोचो‚ हमें ले जाने का उपाय करो।”
” बड़ी गाड़ी का इंतज़ाम करना होगा।”
” हाँ ये ठीक रहेगा।”
” आपने इतने वर्षों में तो कुछ नहीं बताया अब जूनून सवार हो गया…।”
” चार पांच साल से मन ही मन सोचता आ रहा था। गुनता था। उतनी याद न आती थी। अपने जीने की आशा थी कि चार छह साल तो जियेंगे ही‚ मगर अपने हाथ में सब कुछ थोड़े ही होता है। जैसे जैसे जीवन कम होता जा रहा है‚ तकलीफें बढ़ती जा रही हैं वैसे वैसे मन उसकी तरफ दौड़ता है। उसकी चिन्ता सताने लगी है। यहाँ तो तुम सब हो। दवा है डॉक्टर भी। उसके पास तो कुछ भी नहीं है। बीमार होगी तब भी नहीं कहेगी। भूखों मरेगी तब भी मांगेगी नहीं। वहाँ से निकाल दोगे तो फुटपाथ पर भीख मांगेगी या किसी का जूठन साफ करेगी। मेरे जीवनभर के प्रयासों पर पानी फिर जायेगा। ऐसी ही दुर्दशा करनी होती तो इतना क्यों करता?”
” मैं यहाँ रख लूँ अपने पास? आप दो अक्षर लिख दो। बुलवा लेता हूँ।”

कहने को तो कह गया लेकिन अन्दर से उसका मन उस बात के लिये ज़रा भी तैयार न था। मां के सामने एक ऐसे जीते जागते हिस्से को लाकर रख देना जिसे वह कभी स्वीकार नहीं करेगी। और क्या पता पति पत्नी के बीच जो इतनी नफरत है‚ कड़वाहट है उसका कारण यही तो नहीं है?

” कुछ समय के लिये पापा को मैं अपने साथ रखना चाहता हूँ।”
” क्यों?”
” मैं चाहता हूँ कि उनके पास चौबीसों घण्टे रहूं। उनकी सेवा करुं। उनकी बातें करुं। इन दिनों वे अपने बीते दिनों तथा लोगों को बहुत याद करते हैं।”
” यहीं आकर रहने लगो। वहाँ कौन देखभाल करेगा? तुम दोनों के ऑफिस जाने पर अकेले पड़े रहेंगे। नौकर का क्या भरोसा? “
” जाने मत देना। इनका भरोसा नहीं। उनसे कहो कि उनका जाना असम्भव है.। अकेले में बच्चों या भाभी के प्रभाव में आकर मकान न लिख दें। ऐसी कौनसी बातें हैं जो घण्टों कमरा बन्द करके आपस में करते हैं?” मंझला लड़का मां को समझाने लगा।
” शाम को पत्नी आकर बैठ गई‚ प्यार जताते हुए समझाने लगी‚ ” वहाँ परेशान हो जाओगे। दोनों ऑफिस चले जाते हैं। नौकर रहता है। मैं यहाँ बच्चों को छोड़ नहीं सकती वरना …।”
” मैं तो जाऊंगा। उसके पास भी तो रहना चाहिये मुझे। वो ले जा रहा है।”
” ऐसी हालत में।”
” एक बार सबको देखने की दिली इच्छा है।”
” यहीं बुला लेते हैं सबको।”
” आदमी तो आ जायेंगे लेकिन मेरे मकान? मेरे पुरखों की धरोहर। वे जगहें।”
” वहाँ जाते जाते कुछ हो गया तो?”
” कुछ नहीं होगा। हो गया तो धन्य भाग अपनी जन्मभूमि पर जाकर मरुंगा।”

जाने की ज़िद सवार थी उन पर। वह क्या करता? एक तरफ जीवन की आशा छोड़ते‚ देह त्यागते पिता की प्रबल इच्छा का आग्रह तो दूसरी तरफ परिवार के दबाव। मां का विश्वास।

” उनको ले जाऊं?”

वह सोचता है‚ हो सकता है पापा ने जाने का विचार त्याग दिया हो। लेकिन हड़बड़ा भी जाता कि क्या पता कब सांस टूट जाये। कहीं ऐसा न हो कि मैं उधर जाऊं इधर वो चल दें। जब उनकी नींद खुली तो रात के ग्यारह बज रहे थे। खाने का निश्चित नहीं था। नमक बन्द था। थोड़े बिस्कुट या फल खा लेते थे। पत्नी तथा घर के अन्य सादस्य पिक्चर देख रहे थे और वह उनके करीब जा बैठा था।

” गये नहींॐ यहीं रुकोगे क्या? बोल कर तो आये? मन घबराता है। प्राण अटके पड़े हैं।”
” मैं हूँ न।” नसों भरे हाथों को सहलाते हुए बोला वह।
” तुम्हारे अलावा एक वही थी जो मुझे समझती थी। मेरे संघर्ष को। मेरी तकलीफों को। कभी ताना नहीं मारा कि मेरे जीवन का फैसला करने वाले तुम कौन होते हो? कभी कुछ नहीं चाहा। जो दिया उसीमें खुश। उसके चेहरे की लुनाई‚ सौम्यता अनोखी थी। बाल इतने लम्बे कि …।” वे अत्यधिक भावुक होकर सुना रहे थे जैसे कोई अंतरंग मित्र अपने मित्र को प्रेमकहानी सुनाता है। ” उसकी ज़िन्दगी बचाने का‚ उम्रभर इज्ज़त के साथ रखने का वचन दिया था मैं ने। जब तक वह ज़िन्दा है तब तक मकान मत बेचना। न उसको वहां से निकालना। ये लोग उस पर केस दायर करने की धमकी दे रहे थे।” वे याचना सी करने लगे।
” हाँ पापाॐ ऐसा ही करुंगा।”
” बस एक बार तुम्हारे सामने उसको भरोसा दिलाना चाहता हूँ।”

वह दुखी हो उठा। कैसी अजीब स्थिति बल्कि धर्मसंकट आ खड़ा हुआ है।

” अभी सपने में दिखी थी। वही वर्षों पुराना चेहरा। जब मैं जाता था और वो सामने आकर खड़ी हो जाती थी। ख्यालों से जाती ही नहीं है‚ बुला रही है या तकलीफ में है।”

वे उद्विग्न हो उठे। बस चलता तो उठकर चले जाते।

सबकुछ गुपचुप चल रहा था। इन वार्ताओं तथा मंत्रणाओं का असर घर के वातावरण में घुल गया था। सब संशय में डूबे थे। नाराज़ थे। पत्नी अपमान और गुस्से से भरी थी… कि ऐसी कौनसी बात है जिसकी हिस्सेदार वह नहीं है।

उस दिन उनकी तबियत कुछ ठीक थी । इसलिये उनको ले जाने की व्यवस्था की गई। वे बेहद खुश थे। आत्मविभोर थे। नये कपड़े पहने थे। नई चप्पलें। शेव बनवा ली थी। पूरा बदन पुंछवाया था। बालों में तेल लगवाया था। सबको ताज्जुब हो रहा था कि वे किसी को भी साथ क्यों नहीं ले जा रहे हैं? ज़रूर बाप बेटे की कोई साजिश है। कहीं कोर्ट या वकील के पास तो नहीं जा रहे हैं? अन्यथा ऐसी क्या बात हो सकती है‚ जिसमें कोई तीसरा शामिल नहीं हो सकता। लेकिन आधे रास्ते से लौटना पड़ा। रास्ते में ही उनकी तबियत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई। एडमिट होना नहीं चाहते थे। हॉस्पीटल मत ले जाना। ज़िद पकड़े रहे। उससे नहीं मिल पाऊंगा। उसका कोई नहीं है…जैसे शब्द निÁसृत हो रहे थे उनकी ज़ुबान से।

घर में ही डॉक्टर आये। ऑक्सीजन फिर लगा दी. बीच बीच में ऑक्सीजन हटा कर कुछ बोलते वह भी टुकड़ों में — ‘

” मुझे जाना है…उसको देखना है… मेरा घर …देखो … बाहर कोई खड़ा है।”

उसके हाथ पांव कांपने लगे। पापा सेमी कोमा में चले गये। क्या करुं मैं? किससे कह कर बुलवाऊं उन्हें? यह ऐसी बात थी कि किसी को बताई भी नहीं जा सकती थी। वहाँ ऐसा कोई व्यक्ति था ही नहीं‚ जिसे भेज कर रूपा को बुलाया जा सके। यह आशा टूटने का सदमा था या शरीर की थकान या अवसान की बेला। सान्ध्य बेला में अन्ततÁ वे संसार की यात्रा से अन्तिम विदा ले चुके थे। रात कब बीत गई बैठे बैठे। उन्हें देखते हुए। कुछ पता नहीं चला।

‘ पापाॐ ‘ उसके हृदय में एक हूक सी उठी।

बुढ़ापे को ही क्यों लोग याद करते हैं? इसलिये कि वह अभी अभी होकर गुज़रा है जबकि जवानी का वह समय जब आपने रात – दिन मेहनत की थी। कठोर परिश्रम किया था। अपनी फरमाईशें पूरी करने के लिये कितनी मेहनत करनी पड़ती है। कैसे चुन चुन कर अपने सपनों को साकार किया था‚ दुर्भाग्य कि किसी ने याद नहीं किया उन बातों को। सबने हिसाब – किताब पूरे कर लिये आपके साथ। आपको ही घोषित कर रखा था लालचीॐ स्वार्थीॐ

” उठ बेटाॐ हाथ मुंह धो लो बीमार पड़ जाओगे। तुम्हीं को सब कुछ करना है।” ताऊजी पास आकर बैठ गये।

लेकिन नहीं‚ वह एक पल के लिये भी नहीं उठना चाहता था। जब तक पापा का शरीर है‚ तब तक पवित्र रहना चाहिये। रात से लेकर अब तक कितनी बार इत्र छिड़का। अगरबत्तियाँ जलाता रहा। उसने वहाँ के कुछ पुराने परिचितों को खबर करवा दी। हो सकता है रूपा को पता चल जाये। वह आ जाये। उसके आने पर किसी प्रकार का तमाशा खड़ा न हो जाये इस बात की चिन्ता भी उसे थी। मां को कौन समझाएगा? पर उसकी अन्तरात्मा एक ही बात को मान रही थी कि इस समय कोई किसी का बेटा नहीं है‚ सिर्फ दो हृदय हैं। दो मन। दो आत्माएं‚ जो कि एक दूसरे के लिये जीती रहीं।

और यह क्या‚ दोपहर होते ही अन्तिम क्रिया की तैयारी शुरु हो गई। बांस की लकड़ियों से अरथी बनाई जा रही है।… पण्डित निरन्तर मंत्रोच्चार के बीच विधि विधान से क्रियाएं करवा रहा है। स्नान के बाद नये वस्त्र पहनाये गये। चन्दन का टीका लगाया गया। फूलमालाएं पहनाईं‚ लेकिन वह काम को धीमी गति से कर रहा है।

” थोड़ा और नहीं रुक सकते?”
” किसका इन्तज़ार करना है? लाश सड़ जायेगी।”
“उनके दोस्त और …।”
” रिश्तेदार तो आ गये न। बस अब नहीं रुकते। शव का रंग बदलने लगा है।”

उसका मन मस्तिष्क सुन्न सा हो गया। प्रतिक्रियाविहीन।

अब शव को अरथी पर रखा जा रहा था। दूर खड़ी गाड़ी तक कन्धा देकर ले जाना था। पूरे वातावरण में मंत्रोच्चार और लोगों की सिसकियां सुनाई दे रही थीं। छोटे से मटके में प्रज्वलित अग्नि से उठता हुआ धुंआ एक बारीक रेखा बन कर आकाश में अदृश्य होता जा रहा था। शून्य में फिर एक चेहरा आकर झिलमिलाने लगा… श्वेत केशराशि‚ गोरा झुर्रियों वाला चेहरा। उदासी की लकीरें खिंची हैं माथे पर‚ आंखों में वीरानगी का भाव – रूपाॐ

श्मशान घाट पर लोगों के बीच वह एकदम तटस्थ भाव से जुट गया। एक लकड़ी‚ दो लकड़ी फिर लकड़ियों के बीच पापा की निर्जीव देह…ढक गई। परिक्रमाएं‚ मुखाग्नि…फिर चटखती हुई धधकती लकड़ियों के बीच अग्नि में समाते पापाॐ

आहॐ कब से रुका हुआ बांध टूट पड़ा। लोगों ने आकर उसे थाम लिया —

‘ नहीं‚ बहुत हिम्मत दिखाई तुमने। जाने का समय आया तो चले गये। मृत्यु पर किसी का वश नहीं होता. कितने कष्ट थे। उन कष्टों के बीच जीने से अच्छा यह मुक्ति है। भरा पूरा जीवन जीकर गये हैं। कोई इच्छा शेष न थी। इस देह का क्या‚ पंचभूतों में विलीन होना ही इसकी नियति है। सांत्वना के शब्द उसके आंसुओं को सुखा देते हैं। मगर मन को कोई बहुत तेजी से झकझोर रहा है। पुकार रहा है।

चिता की लपटें जब शान्त हुईं तो सूर्यास्त हो चुका था। लोग जा चुके थे। सिर्फ परिवार के लोग बचे थे। बाहर से आये लोग रात में ही निकल जाना चाहते थे ताकि ऑफिस ज्वाईन कर सकें। घर के बाहर दूर तक झाड़ू लगा दी गई थी। और घर को खूब अच्छे से धो दिया था। पूरा घर चमक रहा था। पापा वाले कमरे को एकदम खाली कर दिया था। इतना बड़ा कमरा कितना छोटा लगता था। सारा सामान एक कोने में बिखरा पड़ा था कचरे के पास।

” ये किसने फेंका? ” एकाएक वह इतनी ज़ोर से चिल्लाया कि सारे लोग भाग कर आ गये।
” क्या हुआ?”
” इतनी जल्दी पड़ी थी सामान फेंकने की?”
” फालतू तो है‚ ढेर लगा कर रखते थे।”
” फालतूॐ वर्षों से रखी उनकी कॉपी‚ डायरी‚ अखबार‚ किताबें खोलकर देखा था किसी ने? बस तुम सबको तो उनकी पेटी से मतलब है। पेटी फेंकी तुमने? ” उसके मुंह से ऐसे कड़वे शब्द सुनकर सब हतप्रभ रह गये।
” कुछ मत बोलो होश में नहीं है। दो तीन दिन से पूरी पूरी रात जागता रहा।” किसी ने समझाया।

वह वहीं पालथी मार कर बैठ गया। एक एक सामान बीनने लगा. सहेज कर रखने लगा। इसमें उनका नितान्त व्यक्तिगत संसार बिखरा पड़ा था । छुपा था एक ऐसा रहस्य जिसके बारे में सिर्फ वही जानता था। सभी लोग नहा धोकर चाय पी रहे थे या खाना खाने बैठ गये थे। उनको खाते देख ऐसा लग रहा था कि जैसे वर्षों के भूखे हों।

” दाल अच्छी बनी है।” कोई कह रहा था।
” सब्जी नहीं बना सकती थी‚ चटनी बना लेती।” कोई दूसरा कह रहा था।

सुबह उठ कर अस्थियां चुनकर नर्मदा जी में विसर्जित करनी हैं। फिर इलाहाबाद जाना होगा। तेरहवीं कैसी करनी है? कौन कौन आया था? किस किस को बुलाना है‚ आदि बातों पर चर्चा चल रही थी। लेकिन वह उन सबसे अलग मौन बैठा था। उनकी तस्वीर के सामने। सब लोग एकाएक चुप हो गये कि उसे बुरा लग रहा होगा। शरीर को तसवीर बनने में कितना सा वक्त लगता है। मनुष्य के जीवन की यही परिणति है शायद? उसका मन विचलन से भर गया। उनके कमरे में जा बैठा। एकदम खाली सपाट कमरा। सारी चीजें निकाल दी गई थीं। एक शून्य सा फैला था। बचपन की एक एक बात याद आने लगी। एक तीखा अपराधबोध मन को रुलाने लगा। मैं उनकी इच्छा पूरी न कर सका। वे छटपटा रहे थे। तड़प रहे थे। और मैं प्रश्नों प्रतिप्रश्नों में उलझा हुआ था। कितनी तुच्छ थीं हमारी इच्छाएं कि हर वक्त मकानों को लेकर लड़ते रहे। उन्हें कोसते रहे। बेचने के लिये मजबूर करते रहे। उसे क्या पता था कि वहां उनकी आत्मा है। मन अटका पड़ा है‚ जीवन ज्योति है‚ जीवन का एक ऐसा अंश जो सजीव है। सोचते सोचते झपकी सी लग गई या शोक में डूबा था तभी लगा कि कोई दरवाज़े के बाहर खड़ा है। एक दुबली – पतली बूढ़ी कायाॐ झुकी हुई। वह तुरन्त उठकर गया।

” कौन है?”
” मैं हूँ भईया। यही घर है महाराज का?”
” हाँॐ” वह सिहर गया। न जाने क्या घटित होनेवाला हैॐ
” ये रूपा मौसी हैं भईया।” साथ वाले लड़के ने कहा।
” रूपाॐ” वह आश्चर्य से देख रहा था। पीछे मुड़कर देखा घरवाले कहाँ हैं।
” आज ही खबर लगी संझा को‚ वैसे ही चले आये।” वो पतली छायाकृति अब ठीक उसके सामने खड़ी थी। सीधे पल्लू की साड़ी। सिर पूरा ढका हुआ। गोरा रंग अब भी क्रिस्टल की तरह चमक रहा था।
” अन्दर चली आओ।”

वे अन्दर सकुचाती सी जा बैठीं। तस्वीर के ठीक सामने बैठी वह पापा को देखे जा रही थीं जैसे मौन सम्वाद चल रहा हो। पूरे घर में सघन नीरवता छाई हुई थी। रातभर के जागे लोग थक कर यहाँ वहाँ ज़मीन पर लुढ़के पड़े थे। उस नीरव कमरे में दीपक की लौ भी साथ दे रही थी। अकम्प लौ जैसे दिग – दिगन्त की हलचलों को थामे हुए हो। उसने गौर से देखा‚ झुर्रियों के आवृत से झांकती आंखें जो कभी बहुत सुन्दर भावप्रवण रही होंगी।

” ये कैसे आ गई?”
” आखिर है तो किरायेदार।” वह उनको लेकर सतर्क हो गया। अतिरिक्त सफाई देने लगा।
” अब आ गई ढोंग करने। इतने वर्षों से कब्जा किये बैठी है। बड़ी दया दिखाते थे वेॐ “

वह चुप रहा। वे जहाँ बैठी थीं जाकर बैठ गया। इस स्त्री के हृदय में क्या चल रहा है‚ महसूस कर सकता था वह.। पापा ने कहा था वह नितान्त अकेली है। दूसरे मकानों से जो किराया आता था‚ उसी से गुजर बसर होती थी। अब कौन उसको पैसा देगा…जबकि किराया लेने के लिये यहाँ से ताकीद की जायेगी?

” अन्तिम दर्शन न हो सके।”
” वे तो आना चाहते थे।” उसने चारों तरफ देखकर धीमी आवाज़ में कहा।
” चले गये।” वे फिर बुदबुदाईं। उसने उनका हाथ थाम लिया। नरम छोटा सा गुदगुदा हाथ। बेशब्द सांत्वना दी।
” ईश्वरॐ” वेदना से भरी आह निकली‚ उनके मुंह से। फिर उन्होंने साड़ी के पल्लू में से चाबियों का गुच्छा निकाला और उसके हाथ पर रख दिया।
” मकान की चाबी है।”
” आप कहाँ जाओगी? “
” कहीं भी…।” कैसे तो निर्विकार भाव से बोलीं वे।
” आप वहीं जाकर रहो। उसी मकान में। मेरी ज़िम्मेदारी है‚ आपको रखना। पपा ने कहा था।”

उन्होंने साड़ी का पल्लू ऊपर खिसका कर उसे गौर से देखा‚ जैसे परख रही हों।

अब तक सब लोग आस पास खिसक आये थे या जाने अनजाने उनके कान इधर ही लगे हुए थे‚ इसलिये जो बात जहाँ थी वहीं रुक गई। वह इस समय इस बारे में ज्यादा बातें भी नहीं करना चाहता था। मगर रूपा के लिये यही वक्त था फैसला करने का। वह उठकर बाहर जा खड़ी हुई। साथ में आया लड़का ऊंघ रहा था। उसका मन घुमड़ने लगा। पापा को अग्नि को सौंप वह किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ बैठकर बातें करना चाहता था‚ जो उनको बहुत चाहता हो। समझता हो।

” सुबह चली जाना।” उसने बाहर बैठते हुए कहा। वे बैंच पर बैठ गईं। वह बाकि के सदस्यों के जाने का इंतज़ार करने लगा ताकि एकान्त में पापा द्वारा कही बातें बता सके। उसने चाबी का गुच्छा वापस उनके हाथों में रख दिया।
” जैसे रहती थीं वैसे ही रहो। मैं हूँ नॐ ” उसने ज़ोर देते हुए विश्वास दिलाना चाहा।
” उन्होंने आपकी जीवन रक्षा की थी।” वह डर गया‚ कहीं ये बातें भाई या मां तो नहीं सुन रहे हैं‚ अन्यथा इस शोक में भी हंगामा खड़ा हो जायेगा। फिर वह पुनÁ बताने लगा‚
” आपसे मिलने आ रहे थे पर रास्ते में तबियत बिगड़ गई तो वापस लौटना पड़ा। नाम पुकारा था कई बार आपका। आप क्यों चिन्ता करती हो? ” उसने देखा अन्दर से भाई इशारा करके बुला रहा है।
“जाने दो इसको। क्यों यहाँ बैठी है? मकान खाली करवाना है. चालीस साल हो गये हैं। कानूनन कब्जा कर सकती है।”
” रात में कहाँ जायेगी?” उसने भाई को चुप रहने को कहा. ” ये वक्त है ऐसी बात करने का? कोई सुनेगा तो क्या कहेगा। अभी तो राख भी ठण्डी नहीं हुई होगीॐ “

वह गुस्से से बिफर पड़ा।

” अब देखते हैं कौन रोकता है? अब तक तो उनकी वजह से रुके रहे। भीख मागेंगी सड़क पर।”

न जाने कितनी देर बहस होती रही। सबको लग रहा था कि वह पिता के गम में एबनॉर्मल सा हो गया है‚ इसलिये कुछ भी बोले जा रहा है। थोड़ी देर बाद जब वह बाहर निकला तो देखा रूपा वहाँ नहीं है। सड़क से थोड़ी दूर चलकर कच्ची पगडण्डी शुरु होती है। आस पास लम्बी घास खड़ी है। लाईट का प्रकाश मद्धम पीला था। आंखें गड़ा कर देखने पर नजर आईं दो धुंधली आकृतियांॐ मन किया दौड़ पड़े। पता नहीं कितनी देर अकेला संज्ञा शून्य सा खड़ा रहा। फिर भारी कदमों से बाहर बेन्च पर कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा। कुछ चुभने पर हाथ झटका तो कोई चीज़ छन्न से गिरी। लाईट जलाई‚ देखा। वही चाबियां थीं। उसे लगा‚ वह चेतना शून्य हो गया है। शरीर में गति नहीं है। स्पन्दन नहीं है। आंखों के सामने एक उड़ती हुई आकृति है जिसे वह पकड़ नहीं पा रहा है।

” इतने बड़े शहर में बल्कि संसार में कहाँ खोजूंगा उन्हें? “

उसे यूं स्वयं से बातें करते देख सारे लोग घबरा कर बाहर आ गये। कोई कह रहा था शोक संतप्त है‚ कई रातों का जागा है। कोई कह रहा था बड़ा बेटा है‚ अपने हाथों से अग्नि को समर्पित किया है। सदमा बैठ गया होगा… दुÁख होगा क्यों नहीं‚ पिता ही तो थे। मगर उसके हृदय में तीव्र वेग से व्यथा की आंधी चल रही थी और कुछ ही शब्द निकल रहे थे। सबको लगा‚ अब वह विलाप कर रहा है।

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