Chughtaiनाम तो उनका अब्दुल हई था मगर दिलवालियाँ उन्हें प्यार से ‘हाय’ कहा करती थीं। वो थे भी सर से पाँव तक एक हसीन और दिलचस्प हाय। सोने की तरह दमकता रंग, सूरज की किरनों को शरमा देने वाले खमदार बाल, गहरी सब्ज़ आँखें…ऐसी कि एक बार कोई जी भर के उनमें झाँक ले तो जनम-जनम घनेरे जंगलों में भटकता फिरे। मीठी-मीठी मुस्कुराहट एक कहर कि शहीद होने को जी चाहे। उन्हें देखकर ख़ुदा की कुदरत याद आ जाती थी। मालूम होता था बड़ी फुरसत से मजे ले-लेकर उन्हें गढ़ा है।

कमसिनी (कमउम्री) ही से उन्हें दिल दुखाने का चस्का पड़ चुका था। आसपास की तकरीबन सब लड़कियाँ वक़्तन-फ़वक़्तन दिल हार चुकी थीं। जिस महफ़िल में चले जाते, दिलवालियों के कुश्तों के पुश्ते (टूटे दिलों के ढेर) लग जाते। शौहर अपनी बीवियाँ समेट कर चौकन्ने हो जाते। कँवारियों की माएँ फौरन उनकी बहनों और माँ पर बारी-सदके होने लगतीं। कॉलिज में ही थे कि पैग़ाम (विवाह-प्रस्ताव) झड़ने लगे। नौकरी लगते ही तो लोगों ने यलग़ार बोल दी। बहनों की सहेलियों की तादाद इस तेज़ी से बढ़ी कि शुमार करना मुश्किल हो गया। दे दावतों पे दावतें होने लगीं। एक से एक तीखी सलोनी हसीना मए गाड़ियों-जहेज़ से उन्हें जीतने पर तुल पड़ीं।

अगर बज़ाज़ पचास-साठ थान खोलकर सामने फैला दे तो अक्ल ऊँघ जाती है। इंतिखाब (चुनाव) मुश्किल हो जाता है। यही हाल बेचारे ‘हाय’ का हुआ। कभी एक पसंद आई, कभी दूसरी और कभी एक साथ कई-कई पसंद आ जातीं। और फिर सब जी से उतर जातीं। कोई उनके मुकाबले की थी भी कहाँ? वो थे भी हुकम का इक्का। उनके सामने कोई पान का अट्ठा था तो कोई नहला या दहला। वैसे दिलवालियाँ तो चउए-पंजे से ज़्यादा नहीं थीं। जानती थीं, वो उनकी दस्तरस (पहुँच) से बाहर हैं। मगर दिल से मजबूर थीं। उन्हें देखकर ठंडी आहें भरने और आँसुओं से तकिये भिगोने से उन्हें कोई रोक सकता था?

और बेचारी आलिमा निरी पान की दुक्की थी। फ़र्क इतना था कि उसके सीने में शायद दिल नहीं था। क्योंकि अगर दिल होता तो वो ज़रूर ‘हाय’ के दूध जैसे सफ़ेद पैरों तले लोटता होता। बदसूरत इंसान से उन्हें चिढ़ थी। खास तौर से औरत को तो बदसूरत होने का हक़ ही उनके नज़दीक न था। वो कहते थे कि अगर औरत हसीन नहीं तो है ही क्यों? इसीलिए आलिमा को देखकर उनके रोंगटे खड़े हो जाते थे। जी भर के काली, ऊपर से सींक-सलाई कि सुई के नाके में से घसीट लो…मुजस्सम (साक्षात) माशूक की कमर थीं। लोग उनके वालिदैन (माता-पिता) पर तरस खाया करते थे कि न जाने किस जनम की सज़ा भुगत रहे हैं। यहाँ अच्छी-भली हसीन जहेज़ वालियाँ उठाये नहीं उठती…ये अल्लाह की रहमत, इसे कौन अल्लाह वाला समेटेगा?…

थी तो सींक-सिलाई, मगर सेहत बनाने का बड़ा शौक था। रोज़ाना शाम को रैकिट हिलाती आ धमकतीं। बरसों से बैडमिंटन खेलने पर तुली हुई थीं, मगर मजाल है जो एक हाथ भी मार जाएँ। सारे कोर्ट पर मकोड़े की तरह ऊल-जलूल फुदका करतीं। इस अनाड़ीपन पर जल कर ‘हाय’ फ़ौरन रैकिट फेंक कर धम से सीढ़ियों पर बैठ जाते।

“अरे अब्दुल हई साहब इतनी जल्दी थक गये!” वो अपनी छोटी-छोटी आँखें टपटपातीं। लफ़्ज़ अब्दुल से हाय को चिढ़ थी, जैसे ऊपर के काम का छोकरा।
“वरज़िश कीजिए अब्दुल हई साहब वरना मोटे थुल-थुल हो जाएँगे…”
“शुक्रिया आपकी राय का आलिमा खातून साहिबा।”
“फिर…”
“हाँ फिर…?”
“कुछ नहीं।” आलिमा टाल गई।
“नहीं साहिब, तकल्लुफ़ न कीजिए…कहिए ना?”
“बेचारी दिलवालियों के ख्वाब चकनाचूर हो जाएँगे।” आलिमा बदसूरत ही नहीं, बदज़ौक़ (नीरस किस्म की) भी थीं।

उस रात किसी के हसीन तसव्वुर (खूबसूरत ख्याल) में गर्क होने की बजाय अब्दुल हई गुस्से से फनफनाते रहे, “काली माई…न जाने अपने आपको क्या समझती है। कमबख्त मरी हुई छिपकली! ख़ुदा कसम उबकाई आती है।”

जब आलिमा को मालूम हुआ कि हई उसे चिड़ी की दुक्की कहते हैं तो वो गिलहरी की तरह महीन-महीन आवाज़ में खूब हँसी। कहने लगी, “चलो जिंदगी में एक बात तो अक्ल की कही।” दिलवालियाँ हाय के बारे में ऐसी गुस्ताखी की बातें सुनकर काँप उठीं।

“तुम्हारे सीने में तो दिल नहीं, जूते का तल्ला है।” वो जल कर कहतीं।
“तल्ला बड़े काम की चीज़ होती है, पाँव में कंकर नहीं चुभते।” आलिमा फलसफा झाड़तीं।” क्या इरादा है, क्या उम्र भर शादी नहीं करोगी?”
“करूँगी क्यों नहीं?”
“और मुहब्बत?”
“मुहब्बत बगैर शादी कब होती है। वो तो तलाक़ होती है। कोई भला आदमी मिला तो फिर शानदार इश्क किया जाएगा। फिर…!”
“हाय के बारे में क्या ख़याल है?”
“ज़िक्र भले आदमी का था।”
“तो वो भले आदमी नहीं?”
“तौबा करो, भले आदमी तो क्या उनको तो आदमी कहना ही दगाबाज़ी है।”
“तुम्हारा मतलब है…?”
“अब्दुल हई आदमी नहीं, माशूक हैं! भई मुझसे तो माशूक न झेले जाएँ! अरे कहाँ मैं नखरे उठाती फिरूँगी!”
“तो तुम समझती हो कोई तुम्हारे नखरे उठाएगा?”
“ज़रूर उठाएगा।”
“कौन?”
“जिसे गरज होगी वो नखरे उठाएगा ही।”
“कभी आईने में मुँह देखा है?”
“रोज़ देखती हूँ और आईने से पूछती हूँ, आईने ऐ, आईने! है कोई दुनिया में मुझसे ज़्यादा हसीन? आईना कहता है, अजी तौबा कीजिए!” आलिमा अपनी बदसूरती का खूब मज़ाक उड़ाती।

एक नुस्खा था तीर-ब-हदफ़ (अचूक), हज़ार बार का आज़माया हुआ। जिसके इस्तेमाल से अब्दुल हई हमेशा सुर्ख-रू (कामयाब) हुए थे…और वो था इश्क के मैदान में दुश्मन को ललकारना, उसे अपने इश्क में गिरफ्तार करके सिसका-सिसका कर उसका हुलिया बिगाड़ देना। सख्त तिकड़मबाज़ी की ज़रूरत होती है। इस फ़न में लड़कियाँ पहल करके आशिक़ होने की आदी नहीं, पहले उन पर आशिक होने का मुकम्मल नाटक खेलना पड़ता है। रफ़्ता-रफ़्ता उनका खेल नाटक ही बन गया। पहली लड़की से उन्हें ख़ुद-ब-ख़ुद इश्क हो गया था। सोलह बरस के थे, वो भी इतनी ही होगी। मगर उन्हें शादी के बाज़ार में अभी आने में देर थी। चुनांचे दो साल बाद लड़की की शादी हो गई। और जब ये बरसरे-रोज़गार हुए तो वो चार बच्चों की माँ बन चुकी थी। इस अरसे में इन्होंने कई इश्क किये। इश्क की मश्क (अभ्यास) से इनमें बड़ी पुख्तगी आई। ऐसे-ऐसे गुर इन्होंने सीखे कि ख़ुद कोरे निकल आएँ और मुक़ाबिल (सामने वाला) चुप हो जाए। हाथ इतना साफ हो गया कि पलक झपकते फ़तूहात (विजय) हासिल होने लगीं। नज़र भर के देखा, दो-चार चटखते हुए जुमले तुली हुई आवाज़ में सरकाये, गम्भीर हरी-हरी आँखों से फंदा फेंका और माले-गनीमत समेट कर चल निकले।
मगर बदसूरत लड़कियों से इज़हारे-इश्क कोई कैसे करे। बदसूरत लोग अपने गिर्द चट्टानें खड़ी कर लेते हैं। तल्ला मज़बूत हो तो काँटा टूट जाता है। कम-उम्र भोली-भाली हसीना को बहलाना तो इन्हें आता था। और किसे नहीं आता? मगर आलिमा की तो वही मसल (कहावत) थी-ऊँट रे ऊँट तेरी कौन-सी कल सीधी। राह बनाने के लिए कोई तो रोज़न (खिड़की) चाहिए। खड़ंजे से सर फोड़ना कहाँ की समझदारी होगी?

ऐसी बेबसी उन पर कभी न छाई थी। सारी दिलवालियाँ भी मिल कर उस एक ज़ख्म का मरहम न बन सकीं जो आलिमा की इस किलेबंदी से रिसने लगा था। उन्होंने बहुत जाल फेंके, मगर जली-कटी बहसों के सिवा कुछ हाथ न आया। सोचा ज़ाहिरी हुस्न (बाहरी सौंदय) के ज़िक्र से कतरा कर रूहानी हुस्न का ज़िक्र छेड़ा जाए। मगर आलिमा फ़िजिक्स में रिसर्च कर रही थी। भूत-प्रेत से उसे दिलचस्पी न थी। वैसे वो कुछ ज़्यादा बाशऊर (सुसंस्कृत) और ख़ुश-खू (सुशील) भी न थी। बहुत मगरूर, कज-बहस (बेकार की बहस करने वाली), आवाज़ मीठी थी मगर बातें कड़वी-कसैली।

हई चिड़ गए। खिसियानी बिल्ली बन गए। अब वो मज़ाक में कहकहे लगाकर अपनी अम्मी से कहते, “भई इस हसीना, मह-जबीना (चंद्रमुखी) को हमारा पैगाम भेज दो कि हम इस पर एक नहीं सौ जान से आशिक़ हो चुके हैं। ऐ परी-रू, रहम फ़रमा! वल्लाह अम्मी!” लड़की ज़ात ये हरकतें करती तो अम्मा की नाक-चोटी कट जाती, लेकिन बेटे की हर दिल-अज़ीज़ी पर वो भी फूली न समाती थीं। जब किसी लड़की से पींग बढ़ाते तो वो भी होने वाली बहू पर आशिक हो जातीं। उसके वो चाओ-चौंचले करतीं कि तौबा! फिर जब हई उकता जाते और उनका रवैया बदल जाता तो माँ का इश्क भी यकलान (यकायक) रफू-चक्कर हो जाता, बहनें भी रुखाई बरतने लगतीं। सच है, वही सुहागन है जिसको पिया चाहे। एकदम उसके खानदान से किसी बात पर लड़ बैठतीं और बेटे की नाक रखने को कह देतीं, “अए भई, उस लड़की के तौर-तरीके ठीक नहीं…।” उसके बाद झट से एक लड़की की शादी हो जाती या कहीं दिल की मरम्मत कराने रवाना कर दी जातीं। और नयी उम्मीदवार के सामने माँ-बहनें मिलकर खूब उसका मज़ाक उड़ातीं, “अए, हई ज़रा सीधे मुँह बात कर लेता था तो पता नहीं क्या समझने लगी अपने आप को। मुझे तो फूटी आँख नहीं भाती थी।” फिर सब मिलकर कोई नई लड़की पसंद करतीं…उसका आना-जाना बढ़ातीं…फिर सेहरे के फूलों और चढ़ावे के सुहाने ज़िक्र छेड़तीं। मगर आलिमा के लिए मज़ाक में भी पैग़ाम भेजने का ज़िक्र सुनकर चाहत की मारी अम्मी सहम गई।

“ना बेटा, यूँ मज़ाक़ पराई लड़की का उड़ाना अच्छा नहीं, जो अल्लाह न करे उनके बाबा ने कुबूल कर लिया और…”
“तो क्या हुआ?”
“मुझे ऐसी बातें ज़रा नहीं भातीं। उनके बाबा वैसे ही खर-दिमाग हैं।”
“तो क्या हम उनकी साहब-ज़ादी (बेटी) को गाली दे रहे हैं? पैग़ाम ही तो भेज रहे हैं।”
“चल हट दीवाने (मूर्ख)। वो तो सर आँखों पर उठाएँगे पैग़ाम।”
शरारत हद से गुज़र जाए तो कमीनापन बन जाती है। ये मज़ाक कुछ इतना बढ़ा कि बात आलिमा के कानों तक पहुँची। सबने सोचा कि सुनकर रो ही तो पड़ेगी।

मगर तौबा कीजिए जनाब! आलिमा ने सुना तो कान पर हाथ रख कर बोली, “ना बाबा! मैं कहाँ जलेबियों की थाल पर से सारी उम्र मक्खियाँ उड़ाती फिरूँगी। अब्दुल हई साहब ठहरे माशूक, उनमें किसी का शौहर या बच्चों का बाप बनने की सलाहियत (योग्यता) ही नहीं। मुझ जैसी बदसूरत औरत की भी ये सज़ा नहीं होनी चाहिए। ऐसा छबीला दूल्हा मुझे कैसे हज़म होगा?”

“अंगूर खट्टे वाली बात है। ऐसा हसीन दूल्हा मिल जाए तो…” दिलवालियाँ किलस गईं।
“ना भई, मैं क्या करूँगी हसीन दूल्हे का? कोई मुझे किराए पर चलाना है क्या?”
हई ने सुना तो अनार की तरह छूट निकले, “बहुत सूर है कमबख्त! सूरत से बढ़ कर दिल काला है।”

उधर आलिमा अपने थीसिस पर लगी हुई थी। बैडमिंटन कभी का खत्म हो गया था। उसका ज़िक्र भी फीका पड़ चुका था। फ़िज़ा कुंद थी। हई ने बौखला कर दो-तीन और हाथ मारे। एक बुते-काफ़िर (हसीना) पाकिस्तान से भी आई। मगर मालूम हुआ कि माल एक्सपोर्ट के लिए नहीं, हाँ दूल्हे को इम्पोर्ट किया जा सकता है मए-अमरीकन फ़र्म में नौकरी। आलिमा ने सुना तो बिलक उठी, “अए-हए इन्हें एक्सपोर्ट करके चिलगोजे मँगवा लिए जाएँ। अल्लाह कितना फ़ायदा रहेगा…कौम का भी फ़ायदा और मुल्क भी सुर्खरू…।”
दिलवालियाँ लड़ पड़ीं। अंगूर खट्टे इसलिए थू-थू…और जो मिल जाएँ तो हिप-हिप।

मगर आलिमा अपनी बात पर अड़ी रही। “अब्दुल हई खाँ का वजूद क्रीम और मुल्क के लिए फख्र की बात नहीं। वैसे औरत ज़ात के लिए तो वो ज़हरीला बल हैं। वो दिलों से खेलते हैं और खेलते रहेंगे। बूढ़े खूसट हो जाएँगे, पर यूँ ही मैदान मारते रहेंगे। न जाने कितने घर बिगाड़ेंगे, कितनों की बीवियाँ भगाएँगे और न जाने कितनों का दिल खाक में मिलाएँगे!”
हई ने जब ये सुना तो खूब हँसे, “दरअसल आलिमा मुझ पर बुरी तरह आशिक़ है। इसलिए मुझे बदनाम कर रही है कि सब मुझसे ख़ौफ़ज़दा (भयभीत) हो जाएँ तो…”
अम्मा, बहनें तो आलिमा को कोसने लगीं। जल-कुकड़ी मुरदार और नयी उम्मीदवार के ख्वाब देखने लगीं। अए-हए लोगो ग़ज़ब है कि नहीं। शहज़ादों को शरमा देने वाली शक्लो-सूरत, कमाऊ पूत और कुँवारा बैठा है। कभी देखा न सुना।

उबैद साहब फ़िज़िक्स के प्रोफ़ेसर आलिमा को थीसिस लिखने में मदद देते थे। चालीस-पैंतालीस बरस के होंगे। बीवी कुछ साल हुए दो बच्चे छोड़कर मर चुकी थीं। उनकी तरफ़ से आलिमा के लिए पैगाम आया, जो मंजूर कर लिया गया। आलिमा की भी मर्जी थी। हई ने सुना तो कहकहों से घर सर पर उठा लिया, “राम मिलाए जोड़ी, इक अंधा इक कोढ़ी। चलो दो घर नहीं बिगड़े।”

जब शादी की मुबारकबाद देने गए तो कह ही दिया, “मगर आपने भी किस बोर से शादी का फैसला किया है…।”
“खैर ज़्यादा बोर तो नहीं…।”
“बहुत ज़्यादा बोर हैं। दूसरे इनकी शक्ल निहायत ख़तरनाक है। गंजे अलग हैं।”
“मुझसे भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक शक्ल है?”
“बिलकुल, उनके सामने तो आप हसीन हैं।”
“सच? तो फिर इससे बेहतर जोड़ कहाँ मिलेगा? दुल्हन ज़्यादा हसीन होनी चाहिए।” आलिमा चहकी।
“बुढे अलग हैं।”
“दुल्हन को दूल्हे से उम्र में कम ही होना चाहिए।”
“आपको उनसे मुहब्बत है?”
“आप कौन होते हैं पूछने वाले?” ।
“आप तो जानती हैं, मुहब्बत मेरी हॉबी है, इसलिए…”
“ओह…थीसिस तैयार कर रहे हैं?” आलिमा हँस पड़ी।
“हो सकता है?”
“मेरी थीसिस टाइप होकर आ जाए तब…”
“फुरसत से इश्क का प्रोग्राम बनेगा।” हई ने लुक्मा दिया…
“ऐं? खयाल बुरा नहीं।”
“बाकायदा प्रोग्राम बनाकर,” हई भन्ना उठे, “मुआफ़ कीजिएगा, ये निहायत चुगदपन (घटियापन) है…ऐसे मुहब्बत की जाती है?…गोया ये भी थीसिस हो गई।”
“क्यों? वो आप एक्सपर्ट हैं ना। ठीक, बिलकुल ठीक…तो आपकी क़ीमती राय से अगर मुस्तफ़ीद (लाभान्वित) हो सकूँ तो…वैसे कुछ आपसे सीखा तो है। अंदाज़न कुछ मुश्किल काम नहीं। आप तो मश्शाक़ (दक्ष/माहिर) हैं…खटाखट पाँच मिनट में मैदान साफ़।” आलिमा ने चुटकी बजाकर कहा।
“आप क़तई अनाड़ी हैं।”
“ऊँह, कोई बात नहीं, उबैद साहब कुछ इश्क-विश्क के साथ दिलचस्पी नहीं रखते। निहायत प्रैक्टिकल क़िस्म के आदमी हैं।”
“आप उनके साथ खुश रह सकेंगी?”
“खुश रहना इतना मुश्किल काम नहीं। अपना-अपना निजी तजिबा है। जहाँ तक मेरा तअल्लुक़ है, गरीबी, बदसूरती, बुरी सेहत, कोई बला भी मुझे आज तक पस्त न कर सकी। मुझे यक़ीन है मैं बहुत खुश रहूँगी।”
“ये शादी नहीं होगी!”
“क्यों?”
“क्योंकि आप इश्क की तौहीन कर रही हैं।”
आलिमा और उबैद साहब की शादी नहीं हो सकी। हई ने उबैद साहब से जाकर साफ़-साफ़ कह दिया कि आलिमा उनसे शादी नहीं करना चाहती।
“क्यों?” उबैद साहब भौंचक्के रह गए।
“क्योंकि वो किसी और से मुहब्बत करती है।”
“हैं? किससे?”
“मुझसे।” हई ने मिस्कीन (मासूम) सूरत बनाकर आँखें झुका लीं।
“मगर…मगर आप!”
“जी…” हई ने गर्दन झुका ली।
हई के जाने बाद उबैद साहब को यक़ीन हो गया कि आशिक वाक़ई अंधा होता है। घर में सफ़े-मातम (शोक-लहर) बिछ गई…मज़ाक़ की भी एक हद होती है।
“उस गरीब की ज़िंदगी बर्बाद करके तुझे क्या मिला?” अम्मा ने आँसू भर के कहा, “इस बदनामी के बाद अब निगोड़ी को कौन कुबूलेगा?”
“मैं ही भुगतूंगा कमबख्न को।” हई ने मुँह लटका लिया। आलिमा ने तूफ़ान सर पर उठाया, “क़यामत हो जाए, मैं इस पगले से शादी नहीं करूँगी। इसलिए मुझसे शादी करना चाहता है कि सब औरतें इस पर रहम खाकर मेहरबानियाँ करती रहें।”
“पगला कैसे हुआ?” लोगों ने पूछा, “तुम्हें पसंद करता है इसलिए?”
“हाँ, इसीलिए। मुझमें ऐसी कौन-सी बात है जो कोई बा-होशो-हवास इंसान पसंद करे।”
क्या-क्या हंगामे हुए। ख़ुदकुशियों की धमकियाँ चलीं।
“हाय तुझे तो चिड़ी की दुक्की से घिन्न आती थी,” अम्मा बिलखीं।
“वो तो आती है और आती रहेगी।”
“फिर तुझे क्या हो गया है मेरे लाल, क्यों अपनी जिंदगी मिट्टी में मिला रहा है?”
“काली माई ने जादू कर दिया है।” हई ने भोली सूरत बनाकर कहा और बड़ी धूमधाम से अपनी जिंदगी मिट्टी में मिला दी।
“देख लेना चार दिन में तलाक़ दे के मैके फिंकवा देगा,” सबने पेशीन-गोई (भविष्यवाणी) की।

आज उस ‘हादसे’ को ग्यारह साल हो चुके हैं। बेहंगम जोड़े को देखकर दिल से एक लम्बी-चौड़ी हाय निकल जाती है।
सच है चिड़ी की दुक्की अगर तुरुप की हो तो हुकम का इक्का कट जाता है।

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