The Invisible Man (Novel Summary) : H. G. Wells

एक अदृश्य आदमी (उपन्यास सारांश ) : ऍच. जी. वेल्स

अनुवाद : प्रकाश शुक्ल
फरवरी की ठिठुरती रात ! मोटे-मोटे दस्ताने, मुलायम फेल्ट हैट ! सर्दी से कांपता शरीर! ऊपर से नीचे तक वस्त्र से ढके उस अजनबी को सराय की मालकिन ने तुरंत कमरे में पहुंचा दिया। आगंतुक को शीत के प्रकोप से कुछ राहत मिल सके, यह सोच कर सराय की मालकिन ने झटपट अंगीठी में आग डाल कर कमरे को गरम कर दिया। वह चाहती थी कि आगंतुक बर्फ में लिपटे गीले कपड़े उतार कर अपने शरीर को सेंल ले। किंतु वह फिर भी वैसा ही बैठा रहा। आगे बढ़ कर सराय की मालकिन बोली, ‘अपना कोट-हैट मुझे दे दीजिये। मैं सूखने के लिए डाल दूंगी।’

किंतु हठपूर्वक आगंतुक ने कहा, ‘नहीं, ऐसे ही ठीक है।’

नासमझ आगंतुक पर अचरज भरी दृष्टि डालती हुई वह रसोई में चली गयी। थोड़ी देर बाद नाश्ता तैयार करके जब लौटी तब भी वह अपने कंधों के बल झुका, कोट का कॉलर उठाये, बिलकुल जड़-सा खड़ा था। उस के सारे चेहरे पर पट्टियां बंधी थीं। यहां तक कि लाल-लाल नाक के अलावा चेहरे का कोई भी भाग तनिक न दीख रहा था। आंखों पर उस ने एक बड़ा-सा काला चश्मा चढ़ा रखा था किंतु उसके अंदर से भी एक अजीब-सा खोखला-पन झांक रहा था।

आगंतुक ने उस समय अपना कोई विशेष परिचय न दिया। सराय की मालकिन ने भी सोचा कि अवश्य ही वह किसी भयंकर दुर्घटना का शिकार हुआ है जिस से या तो उस का चेहरा विकृत हो गया अथवा उस के चेहरे पर कोई बड़ा ऑपरेशन हुआ है ! आगंतुक के हाव-भाव एवं रुख को ध्यान में रखते हुए उस ने भी फिर पूछ-ताछ करना उचित न समझा।

जब वह थोड़ी-बहुत झाड़-पोंछ कर बाहर आने लगी तो आगंतुक ने टोका, ‘मेरे कुछ बक्से आने हैं, जल्दी-से-जल्दी कब तक आ सकते हैं?’

‘शायद कल तक !’

‘क्यों? इस से पहले संभव नहीं?’ वह चुप रही।

‘पहले आप को परिचय न दे सका क्योंकि तब मैं बहुत थका था। दरअसल एक बड़े महत्त्वपूर्ण शोध में व्यस्त हूं।’

‘अच्छा !’ वह कुछ प्रभावित हुई।

‘मेरे बक्सों में उसी से संबंधित वस्तुएं हैं। यहां आ कर ठहरने का मेरा प्रयोजन भी यही है कि मैं शांतिपूर्वक अपना शोध-कार्य आगे बढ़ा सकू।’ वह कहता जा रहा था, ‘इस के अलावा मेरे साथ एक दुर्घटना हो गयी है जिस के फलस्वरूप मुझे कुछ दिनों के लिए बिलकुल अलग रहना पड़ रहा है। मेरी आंखें बहुत कमजोर हो गयी हैं। कभी-कभी तो मैं इसी वजह से बंद कमरे के घने अंधकार में घंटों पड़ा रहता हूं। ऐसे अवसर पर किसी के द्वारा तनिक भी छेड़ा जाना मुझे असह्य लगता है।’ उस ने क्षण भर रुक कर कहा, ‘मेरे विचार से अब आप मेरी मनःस्थिति भली-भांति समझ गयी होंगी!’

सराय की मालकिन ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘ठीक है। लेकिन……’

‘बस, इतना ही काफी है,’ कह कर अजनबी ने फिर बैठते हुए दृढ़तापूर्वक बात काट दी।

मालकिन ने अब आगे कुछ पूछना व्यर्थ समझा।

दूसरे दिन उस का सामान भी आ गया। दो ट्रंक के अलावा, मोटी-मोटी पुस्तकों से भरे बक्से, और उन के साथ शीशे के उपकरणों तथा अन्य प्रकार की बोतलों से भरे पैकिंग भी थे। अभी सामान बाहर उतर ही रहा था कि स्वयं को उसी प्रकार ऊपर से नीचे तक ढके अजनबी झटपट कमरे के नीचे उतर आया और उतावलेपन से सामान अंदर पहुंचवाने लगा।

सामान जब कमरे में पहुंच गया तो उस ने स्वयं को भी कमरे के अंदर बंद करते हुए सराय की मालकिन को चेतावनी दी, “मैं बड़े विलक्षण शोध में लगा हूं, इसलिए मैं नहीं चाहूंगा कि किसी भी कीमत पर मेरा ध्यान बंटाया जाये। और न ही किसी को मेरी आज्ञा के बिना कमरे में घुसने दिया जाये।’

‘ठीक है। आप चाहें तो दरवाजे में भीतर से ताला भी लगा सकते हैं!’

‘यही ठीक रहेगा।’

उस व्यक्ति का जीवन वहां के निवासियों के लिए कुछ अजीब-सा था। धर्म में उस की कोई आस्था न जान पड़ती थी। दिनचर्या भी अव्यवस्थित लगती थी। कभी-कभी वह तड़के उठ कर काम में जुट जाता और फिर कब दिन बीता, उसे खबर न रहती। इस के विपरीत कभी-कभी वह सुबह काफी देर से उठता। कमरे में इधर-उधर टहलते हुए सिगरेट फूंकता और फिर निढाल-. सा आरामकुरसी पर पड़ा रहता। कभी-कभी लगता-जैसे बंद कमरे में वह अकेले स्वयं से बातें कर रहा हो! अपनी इस विलक्षण दिनचर्या के बीच उस का बाहर के किसी भी व्यक्ति से संपर्क न रहता था।

यह भी अजीब बात थी कि कभी-कभार अगर घूमने के लिए बाहर निकलता भी था तो शाम के धुंधलके में। तब अपने को पूरी तरह से ढंक लेता। और टहलने के लिए गांव के सूने रास्ते को ही चुनता।

यद्यपि उस ने अपना परिचय शोध में रत वैज्ञानिक के रूप में दिया था तथापि गांव के कुछ लोगों का विचार था कि वह कोई अपराधी है जो स्वयं को किसी प्रकार छिपाता फिर रहा है। कुछ ऐसे लोग भी थे जो उसे किसी षड्यंत्र से संबंधित विप्लवकारी मानते थे। उन के विचार से वह व्यक्ति निश्चय ही संदेहास्पद था। इन बातों के विपरीत गांव के एक बड़े वर्ग के विचार में वह कोई पागल था, मात्र एक पागल ! किंतु इन विभिन्न धारणाओं के बावजूद उस के प्रति किसी की भी भावना अच्छी न थी। प्रायः सभी उस से घृणा करने लगे थे।

उत्सुकतापूर्ण रोमांच से भरे ऐसे ही वातावरण में गांव के डाक्टर कस ने उस से मिल कर रहस्य को उधेड़ने की ठानी। सराय की मालकिन को समझा-बुझा कर एक दिन वह अजनबी के कमरे में जा धमका। मालकिन भी अपनी जिज्ञासा को अधिक न दबा सकी। दरवाजे के बाहर कान लगा कर चुपचाप सुनने लगी।

कमरे के अंदर कुछ देर तो शांति रही, फिर परस्पर वार्तालाप की हल्की-सी बुदबुदाहट सुनायी पड़ने लगी। वे क्या बात कर रहे हैं, ठीक से समझ न पायी।

सहसा कमरे के अंदर से किसी व्यक्ति के चीखने की तेज आवाज आयी। साथ ही पैरों के रगड़ने का स्वर, कुरसी का खिसकना और इन से मिली-जुली एक क्रूर हंसी। सराय की मालकिन हैरान-सी कुछ सोच रही थी कि भारी कदमों से चलते हुए किसी ने कमरे का दरवाजा झटके से खोल दिया। पीले, भयभीत चेहरे से पीछे ताकता हुआ कस बाहर निकला और गिरते-पड़ते सीढ़ियों से उतरने लगा। दरवाजे के पीछे से एक हल्की-सी हंसी फिर सुनायी दी और नपीतुली पदचाप ने आ कर दरवाजा झटके से बंद कर दिया।

कमरे के भीतर एक बार फिर गहन नीरवता छा गयी।

कस भागता हुआ गांव के पादरी के पास जा पहुंचा, ‘मैं… मैं…. क्या पागल हो गया हूं?’

‘क्यों, क्या हुआ?’

‘वह जो सराय में आया है न !’ ‘हां….हां !’

‘नर्स-फंड के लिए चंदा मांगने उस के पास गया था। मैं ने उस से कहा कि सुना है कि आप वैज्ञानिक गतिविधियों में बड़ी रुचि लेते हैं। उस की स्वीकारोक्ति पा कर मैंने चंदे की बात शुरू की। साथ ही मैं कमरे की हर वस्तु पर खोजपूर्ण दृष्टि भी डाल रहा था। बोतलें, रासायनिक द्रव्य, तराजू, परख-नली आदि वस्तुएं चारों ओर फैली थीं। कुछ देर वार्तालाप के बाद मैं उस से सीधा प्रश्न कर बैठा कि क्या वह कुछ आविष्कार कर रहा है। उस ने स्वीकार करते हुए उत्तर दिया कि वह काफी लंबे समय से आविष्कार कर रहा है। बात को समाप्त कर देने के विचार से कुछ अनखता हुआ वह बोला कि इस सिलसिले में उस ने कुछ दवा भी ले रखी है।

‘कोई विशेष प्रकार की दवा ले रखी है?’ मेरे इस प्रश्न पर वह बौखला उठा, ‘आखिर आप चाहते क्या हैं?’ मैं ने तुरंत क्षमा मांग ली। लेकिन तभी खिड़की से हवा का तेज झोंका आया और वहां रखे कागजों में से एक कागज उड़ कर अंगीठी पर जा पड़ा। इस पर वह व्यक्ति कुरसी से उठा और कागज को आग से खींच लेने के लिए उस ने अपना हाथ बढ़ाया।’

‘फिर?’

‘लेकिन कपड़े की बांह के अंदर कोई भी हाथ न था ! हे भगवान ! मैं तो समझा कि उस के हाथ को कुछ हो गया है और उस ने नकली हाथ उतार कर रख छोड़ा होगा। किंतु मुझे अपना विचार युक्तिसंगत न लगा। उस की कपड़े की बांह कैसी तनी थी ! जब कि उस के अंदर कुछ ठीक नहीं दीख रहा था ! यह बात सामान्य न थी ! अतः मेरे मुख से अनायास चीख निकल पड़ी। वह रुक गया और काले चश्मे के अंदर धंसी अपनी सूनी आंखों से घूरने लगा। फिर एकाएक उस का ध्यान अपनी बांह की ओर चला गया।’

‘अच्छा !’ पादरी बोला।

‘उस की बांह फिर जेब में चली गयी। मैं कह रहा था कि नुस्खा जल रहा है। बात को. संभालते हुए वह बोला। लेकिन मेरा धीरज तो टूट चुका था। उस की बात अनसुनी कर मैं पूछ बैठा कि ‘यह खाली बांह घुमा सकना आप के लिए कैसे संभव हो रहा है?’

‘खाली बांह?’

‘हां…..खाली बांह!’

‘तुम इसे खाली बांह कहते हो? तुम ने देखा है?’ कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ। मैं भी खड़ा हो गया। वह तीन-चार कदम चल कर रुक गया।

‘तुम्हारे विचार से यह खाली बांह है?’

‘बिल्कुल।’

‘मुझे घूरते हुए उस ने अपनी बांह कोट की जेब से पुनः निकाली और अपने हाथ को मेरी ओर ऐसे बढ़ाया जैसे वह मुझे कुछ दिखाना चाह रहा हो! धीरे-धीरे उस की बांह मेरी ओर बढ़ रही थी और मैं बड़े गौर से उस खाली बांह को बढ़ते देख रहा था। रहस्य का वह हर क्षण मुझे पहाड़-सा लगने लगा और अंत में मैं ने गला साफ करते हुए कह ही डाला, ‘देखो….इस में कुछ भी तो नहीं है’! उस की बांह धीरे-धीरे बढ़ती हुई मेरे चेहरे के केवल छह इंच दूर रह गयी। मुझे लगा जैसे किसी ने अंगुली और अंगूठे से पकड़ कर मेरी नाक दबा दी हो!’

पादरी हंसने लगा।

कस लगभग चीखता हुआ बोला-‘वहां वस्तुतः कुछ भी न था। मैं बिलकुल बौखला गया। मैं ने जोर से उस की अदृश्य बांह को झटका दिया और घूम कर भाग खड़ा हुआ।’

सांस लेने के लिए डॉक्टर रुका, ‘जब मैं ने उस की खाली बांह को झटका तो, भगवान की सौगंध, बिलकुल ऐसा लगा था जैसे मैं किसी हाड़-मांस से बने हाथ को झटका दे रहा हूं…..’

‘…..जब कि उस बांह के अंदर हाथ नाम की कोई चीज न थी? कहानी तो विलक्षण है।’ पादरी ने सिर हिलाते हुए उपहास किया।

किंतु सोमवार को पादरी के यहां रहस्यपूर्ण ढंग से चोरी हुई थी। पादरी को चोर के आने और उस के चलने-फिरने की आहट मिली। अपनी पत्नी के साथ वह कमरे में चोर का पीछा करता रहा किंतु पकड़ में आना को दूर, कहीं किसी की झलक तक न दिखी। हैरत में डूबे पादरी और उस की पत्नी चोर की धीमी पदचाप सुनते रहे। मेज की दराजें खुलती बंद होतीं। परदेदरवाजे हिलते, पर दीखता कुछ न था। उन के सामने ही उन का धन उड़ कर गायब हो गया और वे आंखें मल-मल कर देखने पर भी चोर को न देख पाये।

दोपहर के लगभग बरामदे का दरवाजा एकाएक खुला और अजनबी बार में बैठे तीन-चार व्यक्तियों को घूरता हुआ उन से सराय की मालकिन के विषय में पूछने लगा। थोड़ी देर में मालकिन हाथ में एक पर्चा लिये दाखिल हुई और बोली, ‘क्या आप को अपना बिल चाहिए?’

वह गरजा, ‘नहीं, मेरा नाश्ता क्यों नहीं भेजा गया? मेरे भोजन का क्या हुआ? इतनी देर से मैं क़मरे की घंटी बजा रहा हूं लेकिन कोई क्यों नहीं सुनता? मैं पूछता हूं, क्या मैं बिना कुछ खाये-पिये ही जिंदा रहूंगा?’

”आप ने बिलों का भुगतान क्यों नहीं किया? मैं भी जानना चाहती हूं।’

‘मैंने तुम्हें तीन दिन पहले ही बता दिया था कि मेरा पैसा अभी आने वाला है….’

मैंने भी आप को तीन दिन पहले बता दिया था कि अब मैं अधिक इंतजार नहीं कर सकती। अगर मैं पांच दिन से भुगतान की प्रतीक्षा कर सकती हूं तो आप को नाश्ते की प्रतीक्षा करने में एतराज नहीं होना चाहिए।’

अजनबी आग्नेय नेत्रों से उसे घूरने लगा।

‘मैंने बताया न कि मेरा पैसा अभी नहीं आया है। फिर भी मेरी जेब में कुछ – – -‘ उस ने कुछ सोचते हुए कहा।

‘लेकिन आप तो तीन दिन पहले से कह रहे हैं कि आप के पास एक दमड़ी भी नहीं!’

‘नहीं थी, किंतु अब है।’

बार में उपहास-भरी हलकी-सी भनभनाहट गूंज गयी।

‘बड़ा आश्चर्य है। कहां से मिल गये पैसे?’ वह बोली।’

अजनबी एक बार फिर झल्ला उठा, ‘क्या मतलब?’

‘मतलब यह कि पैसे कहां से मिले? मालकिन ने पूछा, ‘यही नहीं, इस के पहले कि मैं आप से पैसे लूं या आप के लिए नाश्ता लगाऊं, मैं आप से कुछ बातें और जानना चाहूंगी और ये बातें मैं ही नहीं अपितु सभी जानना चाहेंगे। क्या आप बता सकते हैं कि कमरे में रखी कुरसी फर्नीचर आदि के साथ आप को खिलवाड़ करने का क्या अधिकार है? कल रात आप कमरे से कब गायब हुए और फिर कब दाखिल हुए? दरवाजे से होकर तो आप गुजरे नहीं! आने-जाने के लिए हर व्यक्ति को बड़े दरवाजे का ही उपयोग करना होता है-यह सराय का नियम है।’

अजनबी की मुट्ठियां भिंच गयीं। पैर पटकता हुआ वह गरजा, ‘चुप रहो !’

उस की आवाज में अजीब-सी हिंसा भभक उठी, ‘तुम नहीं जानतीं कि मैं कौन हूं? अच्छा, अभी बताये देता हूं…..’

कहते हुए उस ने अपना खुला पंजा चेहरे पर रखा और फिर हटा लिया। उस के चेहरे पर नाक के स्थान पर अब एक बड़ा सा गड्ढा नजर आने लगा।

‘ये लो!’ कह कर वह आगे बढ़ा और सराय-मालकिन के हाथ में कुछ दे दिया। भयविस्मित मालकिन ने भी उसे यंत्रवत पकड़ लिया। फिर अचानक मुट्ठी खोल कर उस वस्तु को देखा तो उस के मुंह से चीख निकल पड़ी और वस्तु हाथ से छूट कर फर्श पर जा गिरी। वह अजनबी की लाल चमकीली नाक थी जो गत्ते के टुकड़े की तरह एक ओर लुढ़क गयी थी।

बार में बैठी भय-त्रस्त जनता के देखते-देखते उस ने अपना काला चश्मा हटा दिया, टोप उतार फेंका और क्रोध से उबल कर मुंह पर बंधी पट्टियां खोल डालीं।

लोगों के हृदय धक-से रह गये। सब उठ कर बाहर की ओर भागे। सराय की मालकिन को तो जैसे काठ मार गया हो। वह कुछ क्षण खड़ी रही, फिर जोर से चीख कर बाहर की ओर दौड़ी। उस के सामने जो व्यक्ति खड़ा था, कपड़ों से ढका होने पर तो उस का ‘शरीर’ हाड़मांस का लगता था किन्तु देखने पर शरीर नाम की कोई वस्तु न थी!

अदृश्य व्यक्ति के विषय में ऐसी रोमांचकारी बातें सुन कर सड़कों पर भगदड़ मच गयी। तरह-तरह की अफवाहें फैलने लगीं। पुलिस आनन-फानन में सराय में आ धमकी। सराय की मालकिन के साथ बच-बच कर सावधानी से अंदर बार में दाखिल हुई। धुंधली-सी रोशनी में उन्हें केवल कुछ कपड़े खड़े दिखायी दिये। एक बांह के आगे चढ़े दस्ताने में डबलरोटी और दूसरे दस्ताने में पनीर का टुकड़ा पकड़े वह खड़ा था।

‘वही है…वही…’ मालकिन चीखी।

दरोगा आगे बढ़ा।

‘खड़े रहो !’ अदृश्य व्यक्ति चिल्लाया और उस ने अपने हाथ की रोटी और पनीर फेंक दी। पीछे हटते हुए उस ने अपने बायें हाथ का दस्ताना उतार लिया और दरोगा के गाल पर जोर का चांटा जड़ दिया। तुरंत दरोगा ने उस की कलाई पकड़ ली। साथ ही उस की गरदन भी पकड़ में आ गयी।

दोनों में हाथापाई होने लगी। लड़ते-झगड़ते पास पड़ी कुरसी से वे टकरा गये और फर्श पर जा गिरे।

जल्दी पैर पकड़ लो…’ दरोगा उस से उलझते हुए चिल्लाया। सिपाही पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ा किंतु उस की पसलियों में एक जोरदार अदृश्य ठोकर लगी और वह अलग हो गया।

दरोगा नीचे दब चुका था। अब तक अदृश्य वैज्ञानिक की बांह वेस्ट कोट पर जा पहुंची और उस के बटन तेजी से खुलने लगे। फिर लगा कि जैसे वह जूते और मोजे उतार रहा हो।

भीड़ में से एक व्यक्ति बोला, ‘वह आदमी है ही नहीं! केवल खाली कपड़े हैं…देखो…’ कह कर उस ने हाथ बढ़ाया तो लगा, जैसे उस का हाथ हवा में किसी शरीर से छू गया ! उस ने घबरा कर हाथ खींच लिया। साथ ही वैज्ञानिक का स्वर सुनायी पड़ा, ‘कृपया अपनी अंगुली मेरी आंख में न घुसेड़िये।’

हवा में वही स्वर गूंज रहा था, ‘यह सच है कि मैं आदमी हूं-सिर, हाथ, पैर सब कुछ हैं मेरे…किंतु मैं अदृश्य हूं। यह बात भयानक हो सकती है किंतु सत्य है। फिर इस का यह अर्थ नहीं कि मुझे इस तरह परेशान किया जाये।’

अब तक उस के कपड़ों के सारे बटन खुल चुके थे और कपड़े हवा में ऐसे झूल रहे थे, जैसे हैंगर में टंगे हों।

उत्तेजित भीड़ में से कोई फिर बड़बड़ाया, ‘ऐसा हो सकता है?’

‘ठीक है ! यह बात रहस्यमय भले ही हो लेकिन कोई अपराध तो नहीं। फिर मुझे क्यों पुलिस द्वारा घेरा जा रहा है….?’

‘यह बात नहीं’, दरोगा बोला ‘तुम्हारे अदृश्य होने से मुझे कोई सरोकार नहीं। बस, केवल तुम्हें पकड़ने में कुछ कठिनाई हो रही है। तुम्हारी गिरफ्तारी तो दरअसल चोरी के सिलसिले में है।’

‘क्या?’

‘हां ! कुछ ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं।’

‘सब बकवास है।’

‘हो सकता है। किंतु मैं विवश हूं।’

वैज्ञानिक कुछ सोच कर बोला, ‘अच्छा मैं चलता हूं पर मुझे ऐसे पकड़ने की जरूरत नहीं।’

‘यह कानून है।’

‘नहीं, ऐसे नहीं…..’

‘मैं विवश हूं।’ दरोगा बोला।

वह ‘आकार’ एकाएक बैठ गया और इस से पहले कि कोई कुछ समझ सके, उसने मोजे, जूते और पतलून उतार फेंके। फिर तेजी-से उठ खड़ा हुआ और कोट भी उतारने लगा।

दरोगा चौकन्ना हो गया।

‘पकड़ो !’ कहते हुए उस ने लपक कर उस की बंडी पकड़ ली, लेकिन बंडी का कोना फट कर हाथ में आ गया। भीड़ में हल्ला मच गया, ‘पकड़ो-पकड़ो….भागने न पाये….खिड़की-दरवाजे बंद करो….’

‘मिल गया,’ दरोगा एकाएक चिल्ला उठा। पूरी शक्ति के साथ वह किसी अदृश्य-सी वस्तु से उलझ गया किंतु अब उसे अपना दम घुटता-सा लगा। उस का चेहरा सुर्ख पड़ गया और नसें फूल उठीं। घुटती हुई आवाज में वह अंतिम बार चीखा और फिर एक ओर गिर पड़ा।

चारों ओर केवल ‘पकड़ो-पकड़ो’ का शोर सुनायी देता रहा।

लॉन की मुलायम घास पर लेटे गिबिंस की बगल में कोई खांसता-बड़बड़ाता-सा निकल गया। गिबिंस अचकचा कर उठ बैठा। मील-दो मील तक अगल-बगल कोई न था। फिर भी उसे विश्वास था कि उस ने कोई आवाज अवश्य सुनी है। गिबिंस को प्रातः सराय में घटी घटना के विषय में कुछ भी पता न था। अतः ऐसे ‘अदृश्य’ स्वर को सुन कर वह स्तब्ध रह गया। उस की दार्शनिक स्थिरता भंग हो गयी और वह एकदम उठ खड़ा हुआ। घबराहट के मारे उस के हाथ-पांव फूल गये थे और वह पहाड़ी की ढलान से जल्दी-जल्दी उतर कर गांव की ओर लपका।

आइपिंग से लगभग डेढ़ मील बाहर बैठा टॉमस मार्वेल अपने बड़े-बड़े मजबूत जूतों से उलझ रहा था कि किसी ने उस से प्रश्न किया। मार्वेल ने वैसे ही सिर झुकाये सामान्य-सा उत्तर दे दिया। किंतु फिर कुछ और प्रश्न पूछने पर जब उस ने सिर उठा कर प्रश्नकर्ता की ओर देखा तो आश्चर्य की सीमा न रही। आस-पास कोई भी न था। मार्वेल बुदबुला उठा, ‘मैं क्या कुछ ज्यादा पी गया हूं। जरूर मैं किसी सपने में डूबा हूं। तो क्या अब तक मैं अपने आप से ही बातें कर रहा था।’

‘घबराने की आवश्यकता नहीं,’ वही स्वर फिर हवा में सुनायी दिया, मार्वेल उछल कर खड़ा हो गया, ‘आप कहां से बोल रहे हैं?’

‘घबराओ नहीं।’ फिर स्वर गूंजा।

मार्वेल परेशान-सा इधर-उधर देखने लगा। ‘हैं, मैं ने कोई आवाज सुनी… क्या सचमुच मैं कुछ सुन रहा हूं!’

‘हां, तुम ने सचमुच आवाज सुनी है। यह सच है।’

मार्वेल के पांवों तले जमीन हिलने-सी लगी। उस ने आंखें बंद कर लीं। एकाएक उसे लगा, जैसे किसी ने उस का कॉलर पकड़ कर उसे जोर से झकझोर दिया हो।

‘पागल हुए हो क्या?’

मार्वेल को लगा, जैसे उसे पिशाच ने पकड़ लिया हो।

‘सुनते हो!’ अदृश्य संयत स्वर कुछ तीखा हो उठा।

‘हूं!’ उस की छाती में कोई अंगुली गड़ रही थी।

‘तुम्हारे विचार से मैं कोरी कल्पना-मात्र हूं?’

‘और हो ही क्या सकता है?’ गरदन सहलाते हुए मार्वेल ने धीरे-से उत्तर दिया।

‘अच्छा!’

एकाएक पत्थर के टुकड़े इधर-उधर हवा में बिखरने लगे। मार्वेल सकते में आ गया। घबरा कर उस ने भागने की चेष्टा की तो किसी अदृश्य वस्तु से टकरा कर वह गिर पड़ा।

एक पत्थर का टुकड़ा हवा में उछला और शून्य में टंगा रह गया।

‘अभी भी मैं कल्पना-मात्र लगता हूं?’ आवाज गूंजी।

मार्वेल ने उठने की चेष्टा की किंतु वह फिर लड़खड़ा कर गिर पड़ा।

‘अगर तुम ने हाथापाई करने की चेष्टा की तो मैं यह पत्थर तुम्हारे सिर पर दे मारूंगा।’ अदृश्य स्वर ने धमकी दी।

मार्वेल कराहता हुआ उठ बैठा। उस का आश्चर्य सातवें आसमान पर जा पहुंचा था।

‘मैं अदृश्य हूं।’

‘क्या?’ उसे विश्वास नहीं हुआ।

‘मैं भी एक साधारण मनुष्य हूं-हाड़-मांस का। मुझे भी भोजन, वस्त्रादि की आवश्यकता है। अंतर केवल यह है कि मैं अदृश्य हूं।’

‘अगर सचमुच तुम्हारा कोई अस्तित्व है…’ मार्वेल ने अपना हाथ हवा में आगे बढ़ाया। उसे अनुभव हुआ कि सचमुच ही उस की कलाई के आस-पास अदृश्य अंगुलियां आ कर लिपट गयी हैं। वह आश्चर्य में डूब गया।

मैं तुम से कुछ सहायता चाहता हूं। मेरी बात सुनोगे? विवश हो कर पागल-सा इधर-उधर घूम रहा हूं अकेला, त्याज्य, विजातीय! मैं क्षुब्ध हूं, क्रोधित हूं; मेरे मानस पर उन्माद आ गया है। मैं चाहता हूं किसी की गरदन पकड़ कर मरोड़ दूं।’

‘हे भगवान !’

‘तभी तुम मुझे दीखे तो ऐसा लगा जैसे तुम भी संसार से अलग हो, तुम्हें भी निष्कासित कर दिया हो। मुझे कुछ राहत मिली और सोचा कि तुम मेरे काम आ सकते हो।’

‘मैं भला किस काम आ सकता हूं?’ ‘तुम मुझे वस्त्र दो, शरण दो। आगे और भी काम निकलेंगे….तुम्हें वह सब करना पड़ेगा।’ उस के स्वर में एकाएक धमकी उभर आयी, ‘तुम्हें मेरी मदद करनी ही होगी। बदले में मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ कर सकता हूं। अदृश्य व्यक्ति बड़ा शक्तिशाली होता है।’

उस ने जोर से नाक सुड़की और आगे बोला, ‘लेकिन यदि तुम ने मुझे धोखा देने का प्रयत्न किया या तुम ने वह न किया जो मैंने तुम से कहा तो…’

उस ने मार्वेल के कंधे जोर से थपथपाये। अदृश्य व्यक्ति के स्पर्श से मार्वेल भयभीत हो उठा, ‘नहीं, नहीं, मैं आप को कभी भी धोखा नहीं दूंगा। आप जो कुछ कहेंगे, वैसे ही करूंगा।’

दूसरे दिन अदृश्य वैज्ञानिक ने मार्वेल की सहायता से अपने जरूरी कागजात और पुस्तकें सराय से चोरी करवा लीं।

दस बजे के लगभग मार्वेल उस छोटी सराय के सामने पड़ी एक बेंच कर थरा-हारा जा बैठा। उस की दाढ़ी बढ़ी थी। चेहरे पर बेचैनी तथा उलझन के चिन्ह स्पष्ट उभर आये थे। बारबार वह अपना हाथ जेब में डालता, फिर बाहर निकाल लेता और बीच-बीच में गहरी सांसें छोड़ता जाता था। कुछ ही देर बाद एक नाविक हाथ में अखबार पकड़े सराय से बाहर निकला और उस की बगल में आ बैठा।

‘बड़ा सुहाना दिन है’, वह बोला।

‘हां’, मार्वेल ने भयभीत दृष्टि से चारों ओर देख कर कहा।

नाविक ने बात बढ़ाने के लहजे से कहा, ‘आज के अखबार में कुछ अजीबो-गरीब समाचार छपे हैं।’

‘अच्छा !’

‘हां ! इस में एक कहानी किसी अदृश्य व्यक्ति के विषय में भी है।’

मार्वेल का दम फूल गया। अपने को संभालते हुए उस ने धीरे-से कहा, ‘कहां है वह?’

‘यहीं-यहीं।’ नाविक जोर देते हुए बोला। मार्वेल चौंक पड़ा।

‘यहीं से मेरा मतलब इस जगह नहीं है। समीप कहीं घूम रहा होगा।’

मार्वेल ने संतोष की सांस ली, ‘अदृश्य व्यक्ति ! क्या चाहता है वह?’

‘सब कुछ।’

‘बात यह है कि मैं ने पिछले चार दिनों से अखबार ही नहीं देखा।’

‘आइपिंग से उस ने यह सब शुरू किया था।’

‘अच्छा ।’

नाविक ने अखबार में छपी पूरी कहानी सुना डाली कि उस अदृश्य व्यक्ति को किस प्रकार के कपड़े पहने हुए पहले देखा गया। फिर कैसे उस की पुलिस से हाथापाई हुई और अंत में वह कैसे वहां से भाग निकला।

‘हे भगवान, कैसी अजीब बात है।’

दोनों व्यक्तियों के बीच कुछ देर तक यों ही चर्चा होती रही। फिर बातें करते-करते मार्वेल ने चारों ओर सतर्क दृष्टि डाली और नाविक की ओर झुकते हुए धीमे स्वर में कहा, ‘दरअसल मैं उस व्यक्ति के विषय में एक-दो बातें जानता हूं, अपने खास जरिये से!’

नाविक चौंका, ‘तुम…..जानते हो?’

‘हां, जानता हूं।’

‘अच्छा, तो क्या….’

मार्वेल बड़ी गोपनीयता से नाविक से बोला, ‘तुम्हें जान कर बड़ा आश्चर्य होगा कि सब बात….’ अचानक वह चीख कर उठ खड़ा हुआ। उस के चेहरे पर गहरी पीड़ा उभर आयी।

‘क्या हुआ?’ कुछ चिंतित स्वर में नाविक ने पूछा।

‘दांत में बड़ी पीड़ा हो रही है।’

वह अभी भी अपना हाथ कान पर रखे था। पुस्तकों का बंडल समेटते हुए उस ने आगे कहा, ‘अच्छा मैं चलूं।’

‘लेकिन तुम कुछ बताने जा रहे थे!’

मार्वेल चुप रहा। उस के कान में धीरे-से सुनायी दिया-‘सब बकवास है।’

‘सब बकवास है!’ वह प्रकट स्वर में बोला।

‘लेकिन अखबार में तो छपा है।’ नाविक बोला।

‘सब झूठ है। मुझे पता है कि किस ने यह सारा बतंगड़ खड़ा किया है।’

डॉ. केंप अध्ययन-कक्ष में बैठा लिख रहा था जब उसे गोलियां चलने की आवाज सुनायी दी। उस ने उठ कर कमरे की खिड़की खोल दी और बाहर झांकने लगा। नीचे कतार में बनी खिड़कियों से छन कर आता उजाला, दुकानों की छतें और दूर कहीं किसी जहाज की चमकती रोशनी दीख रही थी। आकाश में शायद तारे झिलमिला रहे थे। ‘लगता है कि नीचे शहर में कोई वारदात हुई है’ सोचते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी और फिर लिखने लगा।

लगभग तीस मिनट बाद दरवाजे की घंटी बजी। डॉक्टर का मन लिखने ने उचट गया। नीचे उतरते हुए उस ने नौकरानी से पूछा, ‘क्या बात थी? कोई चिट्ठी थी?’

‘नहीं, लगता है कोई शरारती लड़का घंटी बजा कर भाग गया है।’

‘मैं आज कुछ अधिक परेशान हो उठा हूं,’ बोलते हुए केंप वापस अध्ययन कक्ष में लौट आया और पुनः लिखने बैठ गया। कमरे में घड़ी की टिक-टिक के सिवा कुछ भी न सुन पड़ा रहा था। जब उस ने काम समाप्त किया तो रात के दो बज चुके थे। वह उठा, अंगड़ाई ली और ऊपर सोने चल दिया। कोट उतारते हुए एकाएक उस ने महसूस किया कि कुछ प्यास लगी है। अतः मोमबत्ती उठा कर नीचे की ओर चल पड़ा।

केंप की वैज्ञानिक शिक्षा ने उस की दृष्टि कुछ अधिक तीक्ष्ण बना दी थी इसीलिए बड़े कमरे से गुजरते हुए जब सीढ़ी के पास फर्श पर एक धब्बा दीखा तो उसे कुछ आश्चर्य-सा हुआ। पास पहुंच कर उस ने धब्बे को छुआ तो लगा जैसे वह सूखता हुआ खून हो। केंप उठ खड़ा हुआ और गंभीरता से धब्बे के विषय में सोचने लगा। फिर ऊपर की ओर चल दिया। किंतु दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते वह धक से रह गया। दरवाजे के हैंडिल पर खून के निशान थे।

उस ने अपने हाथों को गौर से देखा। वे तो बिलकुल साफ थे। तभी एकाएक उसे खयाल आया कि कमरे का दरवाजा तो खुला ही छोड़ आया था। वह सीधा कमरे के अंदर जा पहुंचा और तीक्ष्ण सरसरी दृष्टि से पूरे कमरे का अवलोकन करने लगा। पलंग के सिरे पर खून का छींटा दीख रहा था और चादर भी फटी हुई लगी। गद्दे पर सिलवटें पड़ी थीं। एक स्थान पर गद्दा कुछ अधिक दबा था जैसे अभी-अभी कोई उस पर बैठा हो।

तभी जैसे कोई फुसफुसाया, ‘हे भगवान ! केंप!’ किंतु डॉ. केंप को अदृश्य आवाजों पर विश्वास न था। वह खड़ा-खड़ा पलंग की चादर को ध्यान से देखता रहा। क्या वह सचमुच किसी की आवाज थी? उस ने फिर चारों ओर घूम कर देखा। कमरे में कोई भी आदमी नजर न आया। किंतु उसे अहसास हुआ कि कोई कमरे के बीच चलता हुआ वॉश-बेसिन की ओर जा रहा है। उसे अपने और बॉश-बेसिन के बीच अब रक्त-रंजित पट्टी हवा में झूलती दिखायी देने लगी।

केंप भौचक्का रह गया। उस की आंखों के सामने मात्र खाली पट्टी झूल रही थी। खाली पट्टी जो बंधी तो बिलकुल सलीके से थी किंतु जिस पर बंधी थी, वह वस्तु अदृश्य थी। उत्सुकतावश आगे बढ़ कर उस ने पकड़ना चाहा कि एक हल्के-से अदृश्य स्पर्श की अनुभूति हुई। लगा किसी ने करीब से पुकारा, ‘केंप!’

केंप का मुंह खुला का खुला-रह गया।

‘घबराओ नहीं। मैं अदृश्य वैज्ञानिक हूं।’ उस आवाज ने कहा।

डॉ. केंप के मस्तिष्क में बिजली कौंध गयी। आज सुबह ही तो इस अदृश्य-व्यक्ति के बारे में छपी कहानी की हंसी उड़ा रहा था।

कुछ संभलते हुए केंप बोला, मैं सोचता था कि यह सब बकवास है। क्या तुम ने पट्टी बांध रखी है?’

‘हां।’

डॉ. केंप ने आगे बढ़ कर पट्टी पर हाथ रख दिया।

कराहते हुए वही स्वर उभरा, केंप, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता है।’ फिर तुरंत उस अदृश्य हाथ ने केंप की बांह पकड़ ली। केंप ने झटका देने की चेष्टा की तो पकड़ और मजबूत हो गयी। उस ने हाथ-पैर चलाने की चेष्टा की तो धक्के से पलंग पर पटकते हुए अदृश्य व्यक्ति ने उस के खुले मुंह में पलंग की चादर ढूंस दी। केंप छटपटाता हुआ छुटकारा पाने की चेष्टा करने लगा।

‘केंप, भगवान के लिए मेरी बात तो सुनो…..’ फिर एकाएक वह चीखा, ‘चुपचाप लेटे रहो। बेवकूफ।’

केंप क्षण-भर तिलमिलाने के बाद शांत हो गया।

उस ने केंप का मुंह खोल दिया, ‘अगर तुम चिल्लाये तो मैं अभी तुम्हारा सिर फोड़ दूंगा। मैं अदृश्य व्यक्ति हूं। इस में कोई जादू या तमाशा नहीं। मैं वास्तव में एक व्यक्ति हूं। मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। मैं किसी भी रूप में तुम्हें हानि नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन यदि तुम जंगलियों की तरह व्यवहार करोगे तो मुझे कुछ करना ही पड़ेगा।’

‘अच्छा, मुझे बैठ जाने दो।’

वह बैठ गया और लगा कि अदृश्य भार भी हट गया है।

‘मैं ग्रिफिन हूं…..तुम्हारा सहपाठी! मुझे तुम अच्छी तरह जानते हो। अंतर केवल यह है कि मैं ने स्वयं को अदृश्य कर लिया है।’

‘ग्रिफिन!’ ‘हां ! वही ग्रिफिन जिस ने रसायन-शास्त्र में स्वर्ण-पदक जीता था।’

‘मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। कैसी भयंकर बात है। यह सब किस हैवानियत से हुआ?’

‘हैवानियत से नहीं, एक सुलझी-समझी विधि से हुआ है।’

‘कैसे?’

‘मैं घायल हूं। दर्द और थकान से बोझिल। केंप, तुम भी मनुष्य हो। भगवान के लिए मुझे कुछ खाने को दो। मुझे आराम से बैठ जाने दो। इस भीषण शीत में भी मैं नंगा घूम रहा हूं।’

केंप के देखते-देखते वह खून से सनी पट्टी कमरे के दूसरी ओर रखी बेंत की कुरसी खींच लायी और पलंग के पास उस कुरसी पर किसी के बैठने की आवाज सुनायी दी। साथ ही कुरसी की गद्दी लगभग चौथाई इंच नीचे धंस गयी।

केंप ने अलमारी से कुछ वस्त्र निकाल कर उसे दिये। उस के बाद गाउन में छिपे उस के अदृश्य शरीर के सामने भोजन रख दिया। भोजन के लिए उठती गाउन की खाली बांह देख कर वह विस्मय में डूबता जा रहा था।

बात को नये सिरे से शुरू करते हुए केंप ने कहा, ‘गोलियां क्यों चली थीं?’

‘मेरा एक मूर्ख साथी था,’ मार्वेल को गाली देता हुआ अदृश्य वैज्ञानिक बोला, ‘मैं ने उसे अपने काम के लिए साथ रखा था किंतु उस ने मेरा सारा धन गायब कर दिया।’

‘वह भी अदृश्य है?’

‘नहीं। वह भाग कर नीचे वाली सराय में जा छिपा है।’

‘तुम्हीं ने उस पर गोलियां चलायी थीं?’

‘नहीं, मैंने नहीं चलायी। सराय में बैठे किसी मूर्ख ने मुझे मारने के लिए हवा में धड़ाधड़ गोलियां दाग दीं। उन में से दुर्भाग्यवश एक मेरे भी लग गयी।’

लंबी नींद के बाद जब अदृश्य वैज्ञानिक उठा तो केंप उसे नाश्ता कराने लगा। सिर-धड़रहित ड्रेसिंग गाउन नाश्ता करते समय अपनी बांह से होठों को पोछता बड़ा विचित्र लग रहा था।

केंप ने बातों का सिलसिला शुरू करते हुए कहा, ‘अब तो सर्वत्र तुम्हारी चर्चा हो रही है। जो कुछ आइपिंग और फिर नीचे की पहाड़ी में हुआ, उस सब से इतना तो लोग जान ही गये कि अदृश्य वैज्ञानिक का अवश्य कोई अस्तित्व है…..तो अब तुम्हारा इरादा क्या है? जहां तक हो सकेगा, मैं तुम्हारी मदद करूंगा। वैसे मैं तुम्हारी इस अदृश्यता के बारे में जानने को बहुत उत्सुक है। आखिर यह सब तुम ने किया कैसे?’

वह सहज स्वर में बोला, ‘सरल-सा सिद्धान्त है। प्रकाश-पुंजों की सघनता का सिद्धान्त! मैं तब नवयुवक था। मुझे इस विषय ने अत्यधिक प्रभावित किया था। मुझे लगा कि मैं जीवनभर इस पर शोध कर सकता हूं। बस, मैं जुट गया। गुत्थियां सुलझाते हुए कुछ दिन पश्चात मुझे एक नयी बात का पता चला कि किसी रंग की किरण तथा तत्संबंधित वर्तनांक के बीच एक नया संबंध होता है-चौथे नियामक का। मैं ने सोचा कि पदार्थ के और किसी गुण को बदले बिना ही उस का वर्तनांक बदला जा सकता है, बशर्ते पदार्थ के रंग में कोई परिवर्तन कर दिया जाये। तुम्हें क्या बताना है! जानते ही हो कि कोई भी वस्तु या तो प्रकाश सोख लेती है या परावर्तित कर देती है अथवा अपने आप से हो कर आवर्तित कर देती है। इन्हीं तीन दशाओं में वह वस्तु दिखलायी पड़ती है। यद्यपि इन तीनों में से एक भी क्रिया न हो तो वस्तु दिखलायी नहीं पड़ सकती।’

अदृश्य वैज्ञानिक ने एक सांस में इस के कई उदाहरण दे डाले-चीजों में रंग कैसे दीखता है, उन में चमक कैसे आती है और कैसे बाहरी प्रक्रियाओं द्वारा इन्हें घटाया-बढ़ाया जा सकता है।

‘मान लो तुम शीशे का एक बड़ा पारदर्शक टुकड़ा पानी में डाल देते हो। वह टुकड़ा बाहर से शायद ही दीखे, क्यों कि पानी से होकर शीशे तक पहुंचने वाली किरणों में अधिक परावर्तन नहीं हो पाता। अब देखो न, शीशा तो पानी के अंदर पड़ा है, लेकिन लगता है जैसे अदृश्य हो। बस, कुछ ऐसा ही सिद्धान्त मैंने भी अपनाया।’

‘हूं’, डॉक्टर बात समझने की चेष्टा कर रहा था।

‘शीशे का टुकड़ा पीस लो। उस का चूर्ण सफेद रंग में चमकता नजर आयेगा। अब अगर इसी चूर्ण को पानी में मिला दिया जाये तो यह पानी में मिलकर अदृश्य हो जायेगा। शीशे के चूर्ण और पानी का वर्तनांक एक ही होता है, इसलिए प्रकाश की किरणें एक माध्यम से दूसरे माध्यम द्वारा होती हुई बड़ी आसानी से निकल जाती हैं।’

‘बात तो ठीक है,’ डॉ. केंप ने कहा, ‘लेकिन आदमी तो शीशे का चूर्ण नहीं!’ ग्रिफिन बोला, ‘नहीं, वह शीशे से अधिक पारदर्शक है।’

‘क्या मतलब?’

‘मैं बिलकुल ठीक कह रहा हूं। लगता है कि पिछले दस वर्षों में तुम सब कुछ भूल चुके हो! जरा सोचो तो हमारे चारों ओर कितने ही पदार्थ पारदर्शक हैं, किंतु लगते नहीं। उदाहरण के तौर पर कागज पारदर्शक रेशों से मिल कर बना होता है लेकिन देखने में अपारदर्शक लगता है। अगर कागज पर थोड़ा-सा तेल डाल दिया जाये तो वह भी शीशे की ही भांति पारदर्शक हो उठता है। कागज ही क्यों, कपड़ा, ऊन, लकड़ी, हड्डी, मांस, केश, नाखून और यहां तक कि रक्त की लाली और बालों की कालिमा को छोड़ कर मनुष्य के शरीर का हर भाग पारदर्शक तंतुओं से मिलकर कर बना है। यदि बारीकी से समझा जाये तो जीवित मनुष्य के तंतु जल की तरह पारदर्शक होते हैं।’

डॉ. केंप ने उतावलेपन से कहा, ‘मैं भी कल समुद्र के अंदर अदृश्य-से फिरने वाले जीवजंतुओं के विषय में कुछ ऐसा ही सोच रहा था।’

‘तब तो मेरी बात तुम्हारी समझ में आ गयी होगी, किंतु मैं ने इस सिद्धांत की खोज के बारे में किसी को बताया नहीं, अपने प्रोफेसर तक को भी नहीं। क्योंकि मैं चाहता था कि अपनी इस खोज का चमत्कार एकाएक संसार के सामने रख दूं और देखते-देखते दुनिया पर छा जाऊं। बस, फिर क्या था! मैं रक्त की लालिमा को दृश्यहीन बनाने की विधि खोजने में जुट गया और एक दिन संयोगवश वह नुस्खा मेरे हाथ लग भी गया।’

‘अच्छा ?’

‘हां, खून का रंग गायब किया जा सकता है।’

केंप को सहसा विश्वास न हुआ।

‘उस रात मैं प्रयोगशाला में अकेला ही था’, कहते हुए अदृश्य वैज्ञानिक उठ कर टहलने लगा, ‘मेरी समझ में आ गया कि मैं अदृश्य हो सकता हूं। भावावेश में अपना प्रयोग छोड़ कर मैं खिड़की पर जा खड़ा हुआ। सितारों को ताकते हुए मेरी कल्पना आसमान छूने लगी। अदृश्य हो सकना किसी के लिए भी बहुत बड़ा चमत्कार था। यह उपलब्धि मुझे कितना शक्तिशाली बना देगी, मैं सोच-सोच कर फूला नहीं समा रहा था। मैं कितना रहस्यमय हो जाऊंगा, कितना शक्तिशाली, कितना स्वछंद! मुझ-जैसे मामूली शिक्षक, एकदम अकिंचन के लिए यह उपलब्धि बहुत बड़ी थी। मैं प्राणपण से इस सिद्धांत को कार्यरूप में परिणत करने में जुट गया। लेकिन तीन वर्षों के अनवरत प्रयत्न के बाद मैं एक दिन हताश हो गया।’

‘क्यों?’

‘मेरा सारा पैसा खत्म हो चुका था और बिना पैसे के प्रयोग आगे संभव न था।’ वैज्ञानिक फिर चुप हो गया, जैसे किसी गंभीर चिंतन में डूब गया हो।

‘जानते हो फिर क्या किया?’ कुछ देर बाद वह बोला, ‘मैंने पिता के पास जमा रुपया हड़प लिया। वह पैसा उन का अपना नहीं, किसी और का था अतः उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी।’

एक लंबी, उदास खामोशी के बाद वह बोला, ‘मेरा प्रयोग सफल रहा और अंततः मैं ने उस दवा का आविष्कार कर लिया। किंतु जिस रात मैंने दवा ली, वह बड़ी कष्टप्रद थी। मैं दांत भींचे, मुर्दा-सा चारपाई पर पड़ गया। लगता था जैसे मेरे रोम-रोम में आग लग गयी हो! कभी मैं पड़े-पड़े कराहने लगता, कभी स्वयं से बातें करता, कभी रोने लगता। रात इसी तरह कटी किंतु मैं ने साहस न छोड़ा।

‘सुबह पीड़ा कुछ कम हुई तो मैं ने शीशे में झांका-मेरा चेहरा सफेद बादलों-जैसा हो चुका था। जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, मेरे अंग-प्रत्यंग सफेद, पतले और पारदर्शक होते चले गये। मैं अपनी मुंदी, पारदर्शक पलकों से देखता रहा-मेरे शरीर के अंग, हड्डियां, धमनियां, धीरे-धीरे अदृश्य हो रही थीं!

‘फिर मेरी स्थिति बिलकुल नवजात शिशु-जैसी हो गयी। असहाय, कमजोर और भूख से व्याकुल। घिसटता हुआ मैं फिर शीशे के सामने जा पहुंचा, किंतु मैं उस में कुछ न देख सका। मैंने आगे झुकते हुए अपना सिर शीशे से टिका दिया तब कहीं जा कर मुझे अपने अस्तित्व का आभास हो सका।

‘मेरा प्रयोग सफल हो चुका था। आराम करके पुनः शक्ति प्राप्त करने के बाद जब मैं बाहर चलने लगा तो सीढ़ियां उतरना भी कठिन हो गया। अदृश्य होने के कारण मुझे आभास ही न हो पा रहा था कि कदम कहां पड़ रहे हैं। अजीब स्थिति थी। आखिर नीचे देखना ही बंद कर दिया। तब किसी तरह अनुमान लगाते सीढ़ियां उतर सका।

‘नीचे उतर कर मैं लोगों की भीड़ में शामिल हो गया। किंतु मुझे शीघ्र ही पता चल गया कि अदृश्य रह कर लोगों के बीच चलने में मेरी किसी तरह भी खैर नहीं है! कभी किसी ने मेरा पैर कुचल दिया तो कभी दो व्यक्तियों के बीच मैं दबते-दबते बचा! चूंकि लोगों को मेरी उपस्थिति का आभास न था अतः मुझ पर अनजाने में कोई भी संकट आ पड़ता। अंततः मैं ने लोगों का शोर-शराबा छोड़ एकांत रास्ता अपनाने में ही हित समझा।

‘मैं कुछ दिन इधर-उधर ऐसे ही एकांत में भटकता रहा। लेकिन कुछ दिनों के उपरांत मौसम बदला और इस के साथ ही मुझे अपने आप को सर्दी से बचाने के लिए वस्त्रादि की आवश्यकता हुई। पर शरीर पर ऐसे ही वस्त्र ओढ़ लेना मेरे लिए निरापद न था। अतः अवसर निकाल कर मैंने एक दुकान से किसी तरह नकली अंग और फिर उस पर पहनने के लिए कपड़े चुरा लिये। तब से मैं वही पहन रहा हूं।’

कुछ पल के लिए वह चुप हुआ। केंप ने बात को जारी रखने के लिए कहा, ‘लेकिन तुम आइपिंग कैसे पहुंचे?’

‘आगे और शोध के विचार से ही वहां गया था। अब मैं ऐसी विधि खोजना चाह रहा था जिससे अदृश्य रहने का उद्देश्य समाप्त होने पर अपने मूल रूप में पुनः वापस आ सकूँ।’

‘तुम सीधे आइपिंग ही गये थे?’

‘हां, मैं अपने उन तीनों बहुमूल्य शोध ग्रंथों को लेना चाहता था जिन में मेरे महत्त्वपूर्ण कार्यों का लेखा-जोखा था और बहुमूल्य गणनाएं भी। मैं तुम्हें वे गणनाएं दिखलाऊंगा।’ बात समाप्त होती दीख रही थी। डॉ. केंप ने कनखियों से खिड़की के बाहर देखा और अदृश्य वैज्ञानिक के और निकट खिसकते हुए बोला, ‘तो अब हमें क्या करना होगा?’ वह अपनी स्थिति कुछ इस प्रकार बना लेना चाहता था कि ग्रिफिन को पहाड़ी पर धीरे-धीरे चढ़ते चले आ रहे तीन व्यक्ति खिड़की से न दीख सकें।

‘आखिर तुम ने सोचा क्या था?’

केंप ने कुछ सोचते हुए फिर पूछा।

‘मैं इस प्रदेश से भाग जाने के चक्कर में था लेकिन अब तुम्हें यहां देख कर अपना विचार बदल दिया है, ‘अदृश्य वैज्ञानिक आगे बोलता रहा। केंप का उद्देश्य उसे केवल बातों में उलझाये रखने का था, इसलिए वह भी उस से उलटे-सीधे प्रश्न करता रहा।

‘संयोगवश तुम्हारे घर में घुस आने के बाद मैंने अपनी पूरी योजना बदल डाली है। केंप, मैं जानता हूं तुम मुझे अच्छी तरह समझ सकते हो। जो कुछ भी अब तक हुआ, जो कुछ भी बतंगड़ बना और मेरी अब तक जितनी भी हानि हुई, मैं ने जो इतनी यातनाएं झेली, इन सब के बावजूद मेरे शोध में अभी भी बड़ी गुंजाइश है।

‘वास्तव में केंप, मुझे एक सहयोगी की बड़ी जरूरत है। मुझे एक ऐसे स्थान की भी आवश्यकता है जहां मैं निरापद रूप से रह सकूँ। तुम नहीं जानते, साथी के मिल जाने से मैं क्या कुछ नहीं कर सकता!’

केंप को लगा जैसे कोई सीढ़ियों पर चढ़ कर आ रहा हो।

‘हमें कुछ लोगों को तो साफ करना ही होगा!’ अदृश्य वैज्ञानिक अपनी बात कहता जा रहा था।

‘क्या मारना होगा? क्यों?’

‘सब को नहीं, कुछ को। कुछ इने-गिने लोगों को ताकि लोगों में अदृश्य शक्ति के प्रति आतंक छा जाये। फिर हम किसी स्थान-विशेष पर अधिकार कर लेंगे और वहीं से लोगों के बीच आतंक फैलाने का कार्य करेंगे। हम अपने आदेश देंगे। जो हमारी आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसे साफ कर देंगे।’

अदृश्य वैज्ञानिक बड़े जोश से अपनी भावी योजना का बयान करने में जुटा हुआ था लेकिन केंप का ध्यान अब उस ओर न था। फिर भी बात को जमाये रखने के लिए वह बोला, ‘मुझे लगता है कि ऐसा करने से तुम्हारा साथी बड़ी कठिनाई में फंस जायेगा।’

किसी को कैसे पता चलेगा कि वह मेरा साथी है…..’ कहते हुए वह एकाएक चौकन्ना हो गया, ‘नीचे क्या हो रहा है?’

‘कुछ नहीं।’

केंप अब और जोर से बोलने लगा, ‘मैं तुम्हारी बात से सहमत नहीं ग्रिफिन। मानव-जाति से खिलवाड़ करने की क्यों सोच रहे हो? स्वयं को संसार के ऊपर रख कर तुम सुखी नहीं रह पाओगे। तुम्हें तो चाहिए कि अपनी खोज को संसार के सामने लाओ…..’

लेकिन तब तक अदृश्य बांह को उठाते हुए उसने टोका, ‘कोई ऊपर आ रहा है?’

‘नहीं तो!’

‘नहीं, कोई है। मुझे देखने दो’, कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ और दरवाजे की ओर बढ़ा।

केंप ने पल-भर कुछ सोचा और फिर बिजली की-सी तेजी से लपक कर उस का रास्ता रोक लिया। वैज्ञानिक का आगे बढ़ता शरीर थम गाय। ‘दगाबाज!’ कह कर वह बैठ गया और जल्दी-जल्दी अपना गाउन उतारने लगा।

केंप ने अदृश्य वैज्ञानिक को जोर का धक्का दिया और स्वयं उछल कर दरवाजे के बाहर हो गया। दरवाजा बंद करके बाहर से ताला लगा देने की जल्दबाजी में चाबी निकल कर झन से दूर जा गिरी। केंप का चेहरा सफेद पड़ गया। चाबी ढूंढ़ कर उठाने का अवसर ही न था। नीचे से कुछ लोगों के जल्दी-जल्दी ऊपर चढ़ने की आवाज सुनायी दे रही थी। बिना एक क्षण भी खोये केंप दरवाजे के हैंडिल से चिपट गया। लगता था कि दरवाजे के दूसरी ओर से भी बलप्रयोग आरंभ हो गया था क्योंकि कुछ क्षणों तक दरवाजा किंचित आगे-पीछे खुलता-बंद होता रहा। फिर कुछ-कुछ खुले दरवाजे से केंप ने अनुभव किया कि उस की गरदन पर कुछ अंगुलियां आ गड़ी हैं। अपने को बचाने के प्रयास में उस ने हैंडिल छोड़ दिया। एक-झटके के साथ दरवाजा खुल गया और उस के साथ ही केंप एक ओर जा गिरा। एक खाली गाउन उड़ता हुआ उस के ऊपर लिपट गया।

आधी दूर तक सीढ़ियों पर चढ़े कर्नल और उसके सहयोगी अचरज से केंप का अपने-आप गिरना, उस पर हवा में उड़ता हुआ गाउन आ कर गिरना, बड़े अचरज से देखते रहे। कर्नल बात पूरी तरह समझ भी न पाया था कि उसे स्वयं एक जोरदार धक्का-सा लगा और वह सीढ़ियों से नीचे सिर के बल लुढ़क गया। शेष दो पुलिस अफसर भी किसी अज्ञात हमले से चीख उठे और अगले क्षण बाहर का दरवाजा झटके के साथ बंद हो गया।

लड़खड़ाता हुआ केंप उठ खड़ा हुआ। उस के धूल-धूसरित चेहरे पर गहरे घाव का निशान पड़ गया था और होठों से खून बह रहा था। हाथों में गुलाबी ड्रेसिंग-गाउन संभाले वह बुदबुदाया,

‘भाग गया!’

कुछ दिनों बाद एक बजे की डाक से केंप को पत्र मिला, ‘आज से इस नगरी में मेरा राज्य है, अब से यहां अदृश्य व्यक्तियों का युग आरंभ होगा।

‘मेरा प्रयोग सफल हो चुका था। आराम करके पुनः शक्ति प्राप्त करने के बाद जब मैं बाहर चलने लगा तो सीढ़ियां उतरना भी मेरे लिए कठिन हो गया। नींव तुम्हारी बलि चढ़ा कर डालूंगा…..तुम्हारे ऊपर मृत्यु का जाल पड़ चुका है….’ केंप खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ और घर भर की खिड़कियां-दरवाजे उस ने सावधानीपूर्वक बंद कर दिये। इस के उपरांत उस ने कर्नल को इस पत्र को सूचना भेज दी।

कुछ देर बाद कर्नल आ गया और दोनों ने मिल कर सुरक्षा हेतु कुछ योजनाएं बनायीं। बातचीत पूरी करके कर्नल सावधानी से घर से बाहर निकल आया। आज उन्हें मिल कर इस अदृश्य व्यक्ति को पकड़ना था।

कर्नल योजना की रूपरेखा पर विचार करता हुआ दालान से गुजर रहा था कि अचानक आवाज आयी, ‘रुको!’

कर्नल को जैसे काठ मार गया हो ! रिवाल्वर पर उसकी अंगुलियों की पकड़ बरबस मजबूत हो गयी।

‘केंप के घर वापस चलो !’ वही स्वर फिर शून्य में गूंजा।

‘क्यों?’ कर्नल जीभ से सूखे होठों को भिगोता हुआ बोला।

लेकिन तब तक किसी अदृश्य बांह ने गरदन लपेट कर कर्नल को जमीन पर पटक दिया। रिवाल्वर उस के हाथ से छीनते हुए अट्टहास कर उठा, ‘मैं तो तुम्हें गोली मार देता लेकिन ये गोलियां मुझे व्यर्थ ही बरबाद नहीं करनी हैं।’

कर्नल ने विस्फारित नेत्रों से देखा कि जमीन से छह फुट उठ कर रिवाल्वर हवा में उसी की ओर तना है! हताश हो, उस ने आत्मसमर्पण कर दिया।

‘मुझे तुम से कुछ नहीं लेना-देना। केवल केंप के घर का दरवाजा खुलवाने में तुम्हारी मदद चाहता हूं।’

पराजित कर्नल घूम कर केंप के मकान की ओर चल दिया। लेकिन कुछ दूर चल कर एकाएक पलटा और उछल कर उस ने हवा में भरपूर वार किया।

किंतु वार शायद चूक गया; क्योंकि बदले में वह स्वयं तड़प कर ऐसा गिरा कि फिर उठ न सका।

अपने अध्ययन-कक्ष की खिड़की पर खड़ा केंप हैरत में डूबा यह सब देख रहा था। विपत्ति अब सिर पर आ खड़ी हुई थी। आशंकित-सा वह उस के निराकरण की सोच भी न पाया था कि रसोईघर की खिड़की को जोर-जोर से झकझोरने की आवाज सुनायी पड़ी। उस ने लपक कर उस ओर झांका तो पाया कि खिड़की दरवाजे के परखचे उड़ गये हैं। एक कुल्हाड़ी हवा में उठती और भयानक आवाज के साथ लकड़ी के टुकड़े शून्य में इधर-उधर बिखर जाते। थोड़ी देर में लकड़ी का दरवाजा टूट गया और कुल्हाड़ी लोहे की सलाखों से टकराने लगी।

केंप का दिमाग घूम गया।

और तभी सलाखें टूट कर गिरने की आवाज आयी।

पलक झपकते ही केंप दूसरे कमरे की खिड़की खोल कर मकान के बाहर कूद पड़ा।

खिड़की के रास्ते निकल कर डॉक्टर उस पहाड़ी पर दौड़ने लगा। उसके जर्द चेहरे पर पसीने की बूंदें छलक आयी थीं। लेकिन वह बेतहाशा भागा जा रहा था। एक संभ्रांत डॉक्टर को इस तरह से भागते देख सड़क पर चलते लोग ठिठक गये और घूर-घूर कर देखने लगे।

कुछ ही दूर दौड़ने के बाद केंप का दम फूल गया। थोड़ा-सा दम भरने के लिए वह रुका तो लगा-जैसे अदृश्य वैज्ञानिक उसके पीछे आ खड़ा हुआ हो। भय का यह भूत सवार होते ही केंप फिर आंखें मूँद कर भागा।

आगे पहाड़ी की ढलान पर ट्राम आती दीख रही थी। केंप को उस ट्राम में सुरक्षा की संभावना कुछ अधिक लगी। लेकिन तब तक उस में और आगे दौड़ सकने की हिम्मत टूट चुकी थी। डॉक्टर ने हताश दृष्टि चारों ओर डाली तो पाया कि आस-पास लोग भी दौड़ रहे हैं। कुछ शोरगुल भी सुनायी पड़ रहा है। पास ही दुकान से एक व्यक्ति हाथ में छड़ी लेकर बाहर निकल आया था और एक अन्य व्यक्ति चिल्ला-चिल्ला कर कुछ निर्देश दे रहा था, ‘फैल जाओ, फैल कर घेरो!’

सहसा केंप को बदली हुई परिस्थिति का भान हुआ। वह ठिठक कर खड़ा हो गया। अपने आस-पास लोगों को देख कर उसका हौसला बंधने लगा और वह हांफता हुआ बोला, ‘यहीं-कहीं आस-पास होगा वह…सब पंक्ति बना कर घेरो….’

लेकिन तभी उसकी कनपटी पर एक मुक्का लगा। लड़खड़ाते-संभलते केंप ने उलट कर हवा में वार किया, किंतु व्यर्थ ! कहीं कुछ समझ में न आया। अगले ही क्षण दूसरा वार उसके जबड़े पर हुआ और वह जमीन पर लुढ़क गया। केंप की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा और उसे अपनी गरदन पर हाथों की मजबूत पकड़ महसूस हुई। लेकिन फिर अचानक ही वह पकड़ ढीली पड़ने लगी और केंप को अपने आक्रमणकारी के मुख से वेदना भरी कराह सुनायी दी।

अवसर का लाभ उठा कर केंप ने एक झटके के साथ स्वयं को उसकी पकड़ से मुक्त कर लिया और उस की अदृश्य कुहनी से चिपटता हुआ चीखा, ‘मैंने हाथ पकड़ लिया…..और कोई उस के पैर पकड़ लो….’

तभी आनन-फानन में झुंड-का-झुंड उस अदृश्य व्यक्ति पर अंदाज से ही टूट पड़ा। बड़ी देर तक लोग उस पर अनुमानित वार करते रहे।

इतने में ही एक दर्दनाक चीत्कार गूंजी, ओह ‘मुझे मत मारो….भगवान के लिए मुझ पर रहम करो…..’

केंप ने ऊपर झुकी भीड़ को पीछे ठेलते हुए कहा, ‘जरा सांस तो लेने दो, घायल हो गया है वह।’

फिर केंप ने उसे शून्य में टटोलते कहा, ‘इस की तो सांस ही नहीं चल रही है। हृदय की धड़कन भी नहीं सुनायी देती।’

‘वह देखो !’ एक बुढ़िया ने चीख कर अंगुली उठायी तो लोगों ने देखा कि एक पारदर्शक शीशेनुमा हाथ हवा में उभर रहा था। शनैः-शनैः उस की धमनियां, शिराएं और हड्डियां भी नजर आने लगीं। देखते-देखते पूरा-का-पूरा हाथ धुंधला-सा उभर आया।

और धीरे-धीरे उस का एक-एक अंग उभर आया। उनके सामने पृथ्वी पर एक मसलाकुचला तीस वर्षीय नवयुवक पड़ा था जिस के खुले मुख पर भय और रोष से स्थिर नेत्र बड़े ही भयानक लग रहे थे! लोग पासवाली सराय से एक सफेद चादर लाये और उसे ओढ़ा दिया।

अनुवाद : प्रकाश शुक्ल

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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