वह घर से दूर ठिठका खडा रह गया, कदमों में बेपनाह झिझक, आते वक्त सोचा था, कम-अज-कम अपने वस्त्र तो बदल ही लेगा वह, पर फिर लगा, इसकी कोई जरूरत नहीं, जो होने के लिए वह चला गया था, उसके लिए पुराने वस्त्र उसे छोडने ही थे, सो अब क्यूं? और फिर वस्त्र बदलने से ही क्या होगा?

उसने अपना अंतर टटोला – कोई दु:ख, कोई शोक, कोई लहर, कोई निराशा, कुछ नहीं, एक शब्द भी नहीं था अंदर – जिस मौन को साधने में उसने अपने जीवन के इतने बरस खर्च कर दिए, वह सध गया था और अब उसे साध रहा था। उसने आंखो के सामने मां की रोती-कलपती छवि लानी चाही, जो उसने आखिरी बार देखी थी और मन में बसा गली के उस मोड क़ी ओर मुड गया था, जहां कोई उसका इंतजार कर रहा था और फिर वह शहर छोडते वक्त न सिर्फ उसने अपने कपडे छोडे थे, बल्कि वह चोला, वह पहचान भी वहीं छोड दी, जिसके तहत वह जाना जाता था।

रोती-कलपती मां उस वक्त एकाएक ही उसके पैरों पर गिर गई थी –

”मुझे छोड क़े न जा तरून, कैसे रहूंगी मैं तेरे बगैर? आज वह तेरे लिए सब कुछ हो गया, जिसे तू दो साल से जानता है, मैं कुछ नहीं।”

उसका मन द्रवित हो आया था। उसने उन्हें उठाकर चारपाई पर बैठाया और खुद उनके पैरों के पास बैठ गया। वह उन्हे इस तरह समझाना चाहता था कि वे समझ जाएं और उसके जाने को इस तरह न ले, पर वह जानता था, ऐसा नहीं हो सकता।

” मां, तू जानती है, मेरे लिए कोई रिश्ता, कोई नाता नहीं बचा, व्यर्थ है सब, मुझे मत रोक। अपनी आंखो से मुझे इस तरह देखेगी तो दु:ख पाएगी – मुझे जाने दे।”

” दु:ख कितना छोटा शब्द है यह, पर कितना जबर्दस्त फैलाव है इसमें कि बडी-से-बडी ज़िंदगी और छोटे-से-छोटे लम्हे भी इसके भीतर समाकर झंझावत बन जाते है, कि जो जिंदगी वो रही होती है समतल नदी की शक्ल में, उसमें अचानक इस तरह बाढ आ जाती है कि फिर छोटी-बडी ख़ुशी, हसरतें, आशाए – सब कागज क़ी नावों-सी गीली होकर बहने लगती है। चाहे यह बाढ वक्ती होती है, पर जिंदगी की कई मीनारें इतनी कच्ची कर जाती है कि बस, फिर वे ढहने-ढहने को हो उठती है। 

वह आखिरी पल तक बाहर नहीं आई थी।हालंकि वो मां के पैरों के पास बैठा उसके अंदर ध्वस्त होती मीनारों की आवाजे महसूस करवा रहा था और इंतजार करता रहा था कि शायद उसे आखिरी बार देखने न सही, अब प्रेम, मोह जैसा कुछ तो होगा ही – कोई कमजोरी, कोई लगाव, पर नहीं, वह आखिर तक नहीं जान पाया था कि उसके अंदर कितने गांव, कितने शहर जलकर राख हो गए, जो जिंदगी की दरिया के किनारें दोनो ने साथ मिलकर बनाए थे। कच्चे थे, पर थे। पका लेने की यकीन उन पलों में कितना पुख्ता लगता था। उसे उसकी वो आंखे याद हो आई, जिन्हे देखने मात्र से उसके बदन छोटी-छोटी में चिंगारियां फूटने लगती थीं – फिर कोई जरा सा स्पर्श या आलिंगन या होंठों की छुअन उन चिंगारियों को ज्वालामुखी में तब्दील कर देती, जिसकी आंच में उनके जिस्म सूखी लकडियों जैसे चटकने लगते थे, उस दुबली-पतली मामूली-सी दिखती काया में न जाने कितनी आग दबी होती कि देखेते-ही-देखते कितनी कामनाओं के जंगल राख हो जाते थे और वह हैरान-सा उसे देखता रह जाता।

उसी ने उसे इस आग से वाकिफ कराया था और वही उसे अपनी देह के समुंदर की उन अतल गहराइयों मे ले गई थी, जहां की अद्भुत विस्मयकारी, स्तब्ध कर देने वाली दुनिया को देखा था उसने और ठगा सा खडा रह गया था।

वह दुनिया, जहां शब्द फिर किसी काम के नहीं रहते थे और वे समुद्र की भीषण लहरों में एक-दूसरे से गुंथे अपने-आप को इनके हवाले कर देते, लहरें कब शांत हो, उन्हे किनारों पर पटक जाती, वे नींद के आगोश में जाने से पहले भी जान नहीं पाते थे।

पर न लहरें सच है, न समुंदर, न उन पर तैरते-गुंथे जिस्म। फिर? सच क्या है? कामनाओं के निरंतर दोहराव के पश्चात् वह सोचा करता – कहां है उस ऊर्जा का स्रोत? हर बार इतना तीव्र, इतना मारक, इतना आकर्षक कि देह ही पहला और अंतिम सच लगती –

” मैं तुम्हारी धरती में बीज बोऊंगा और फिर तुम्हारी कोख से उसे फूटते देखूगां। मैं तुम्हारे जीवन की टहनी फूलों से भर दूंगामैं उन फूलों को पुकारूंगा, जो इस धरती पर खिलेंगेंमैं तुम्हारी रातों को मधुर स्वप्नों से सजाऊंगा। मैं छा जाऊंगा तुम्हारी सांसो पर, स्वप्नों पर, जीवन पर, ताकि मुझसे कभी एक क्षण के लिए भी अलग न हो सको।”

यहीं तो कहां करता था वह – बार-बार, लगातारपर नहीं लगा पाया था वह उसकी कोख में कोई पौधा न वह उन फूलों को पुकार पाया, जो उसके स्वप्नों में महकते थे।

” कहां जाओगे तुम मुझसे परे? मेरी बांहे अंतरिक्ष में घेरा डालेंगी और तुम्हे आबध्द कर लेंगी। मैं आकाशगंगा की तरह अपने में समो लूंगी।”

पर नहीं, वह तब तक कामनाओं के जंगल से भागने की तैयारी में था –

” कौन है, जो मेरी नींद में स्वप्न बन कर उतरता है? कौन है, जो मेरी आशाओं के बीज बन कर फूटता है? वह अंकुरित होता है, फूलता है और पहचान नहीं पाता?”

प्रश्न? प्रश्न? प्रश्न?

क्या है, जो इस देह व मन से परे है? आत्मा क्या है? किस उद्देश्य के तहत जन्म हुआ है मेरा? किस लिए भेजा गया हूं मै? सुख क्या है? सत्य क्या है? कामना के परे किस तरह जाएं? मौन हो जाना किसे कहते है?

और वह धीरे धीरे उन लालसाओं के जंगल में से बाहर आने की राह ढूंढ़ता –

” तुम एक नक्षत्र हो, स्वप्न लोक के नक्षत्र? जिसके जितना भी मैं पास आने की मैं कोशिश करती हूं, तुम उतना ही दूर जाते दिखते थे।” वह हंस कर कहती और अपने से कस कर चिपका लेती।”

तब उसे लगता, आदमी और औरत के बीच एक जबर्दस्त खालीपन होता है, जिसे हम प्यार, मोह, कुछ जरूरी या गैरजरूरी शब्दों से भरने की कामयाब या नाकामयाब कोशिश करते हैं।

वह उसके सीने से लगा अपने ही सवालों के जंगल में भटकता रहता।

” पच्चीस वर्षो तक मैने प्रेम किया, घृणा की, भूखों को भुलावे में रखा, आशाओं से संचालित हुआ, पर ज्यों-ज्यों इन्सानी दासता सम्बधी मेरा ज्ञान बढता गया, त्यों-त्यों मेरी आत्मा स्वतंत्रता के लिए अधिक तडपने लगी। कितनी बार मैने आनंद को खोजा, सुख को खोजा – कभी देह में, कभी मौन में, पर मैने सिर्फ उसकी झलक देखी, प्रतिध्वनि सुनी और मैं इसे पाने को लालायित हो उठा। जीवन के पच्चीस वर्ष मेरे तन से उसी तरह झर गए, जिस तरह वृक्षों के पत्ते झरते है, और मैने क्या पाया? मैं आत्माओं का मिलन, इच्छाओं का उद्वेग और उत्कंठाओं को देखता हूं और पाता हूं – यह सब आहों और दुखों की धुंध में से पैदा होते है। मैं अपनी निर्जनता से परे झांक कर देखता हूं, तो मुझे अंतरिक्ष, चांद-तारे, चमकदार नक्षत्र दिखाई पडते र्है कौन इन्हे संचालित करता है? मैं समुद्र की व्याकुल आवाज सुनता हूं – यह किसे पुकार रहा है? किस तरह यह सभी तत्व विश्व के सनातन नियमों से बंधे हैं? ”

तब मुझे अपना जीवन निहायत क्षुद्र और सिसकता हुआ-सा लगता, जो अनंत गहराइयों और ऊंचाइयों के बीच शून्य-सा कांपता। तब मैने अपने  मैं , जो हर वक्त उपद्रव करता रहता, को खत्म करने की ठानी और मैने होठों को, तन को, मन को, कडवे घूंट पीने के लिए तैयार किया।

घर पास आ गया। अंदर से कुछ औरतों के रोने की आवाज आ रही है। क्या वह मां का रोना पहचान सकता है? क्या वह खुद रो सकता है? पर क्यों? वह तो अंश था एक, जो अंशी में विलीन हो गया-फिर-फिर जन्म लेने को फिर उसके लिए मातम क्यों?

वह तमाम दुनिया को इस तरह देखता, जिस तरह कोई पहाड क़ी सबसे ऊंची चोटी पर खडा होकर उसके नीचे बसे शहरों, घाटियों, जंगलों, नदियों और छोटे-छोटे क्षुद्र जीवों, उनके निरर्थक सुखों-दुखों को देखता और उनके नासमझेपन पर किसी बुजुर्ग की तरह मुस्कराता।

उसके पास आते ही घर के बाहर दरियों पर बैठे पुरूषों के जमावडे में खलबली मच गई। तकरीबन सारे उठ खडे हुए – कोई पैर छुने झुका, तो वह हडबडा गया और उसने मनाही की मुद्रा में दोनो हाथ उठा दिए। उसने नजर भर निहारा उन्हें – सब वहीं थे – चाचा, मौसा, मित्र, संबधीकम नहीं होता बारह वर्ष का समय। समय ने सबके उजले चेहरों पर धूल की परत चढा दी थी। ये थके-हारे, रोते-बिलखते, दौडते-भागते, घिसटते-रोते लोग। किस सुख की चाह में भागे जा रहे है? कहां है वह सुख? ये नहीं जानते, पर ये जानना भी नहीं चाहते।

वह स्वप्रेरणा से ताया के पैर छुने को झुका ही था कि उन्होने रोते हुए उसे बीच में रोक लिया – ” न-न पुत्तर, बडी देर कर दी तूने। आखिरी बार शायद वह तुझे ही देखना चाहता था। हालांकि कभी कहां नहीं मुंह सेमरा, तो आंखे जैसे किसी की तलाश में भटक रही थी वीरान खाली कोहरों सी।”

आखिरी वाक्य उनकी हिचकियों में डूब गया।वह असमंजस में खडा रह गया कि अब क्या? ताया ने ही उसकी समस्या हल कर दी। आंगन के बीचोबीच, जहां उनका शव रखा था बर्फ पर सफेद चादर से ढका, वहां ले जाकर मुंह से चादर हटा दी। उसने उन्हे देखा – अपने जनक को। क्षीण, कृश चेहरा और बदन। तमाम जीवन के जानलेवा संघर्ष का अंत।

” देख, इस धरती पर लाखों लोग रहते है, जो हमसे भी बुरे हालात में जीते हैं, हंसते है। अदम्य जिंजीविषा है उनमे और एक तूतू क्यूं भाग रहा है, भगोडे? हमारी न सही, उसकी फिक्र कर, जिसे तू ब्याह कर लाया है।”

वह किसी तरह, किसी से भी नहीं माना था।

” जा, भाग जा। एक शापित जिंदगी जिएगा तू – किसी पल तुझे चैन नहीं आएगा – जा बियावनों में घूम और अपने को तलाश – किसलिए लाया गया है तू इस धरती पर, यही कहता है न तेरा लफंगा गुरू।”

वह दनदनाते हुए घर से बाहर चले गए थे। वह उनके पैरो पर झुका और उनपर अपना सर रख दिया,

” माफ कर दो मुझे, अगर मैने कुछ ऐसा किया, जो मुझे नहीं करना था। आज बारह बरस के बाद भी मैं तुम सब का अपराधी हूं।”

ताया ने चादर वापस उनके सर तक ओढा दी। आंगन की दूसरी तरफ बैठी औरतों के झुंड की ओर उसने देखा और सफेद कपडो मे लिपटी दुबली-पतली गठरी-सी मां की ओर बढा। औरतों का रुदन तेज हो गया। सबने सरक कर उसके लिए जगह बना दी और वह रोती हुई मां के करीब आ कर बैठ गया। मां ने हिचकियों के बीच सर उठा कर उसे देखा और तेज स्वर में रोने लगी,

” क्यों आया तू? मैने जेठ जी से कहां भी, जिसने बारह बरस हमारी सुध नहीं ली, वह तो मर गया हमारे लिए।” वे रोती जा रही थी और कहती जा रही थी ,” न माने वे। एक ही बेटा हुआ। संस्कार कौन करेगा?” और वह पछाडे ख़ाने लगी, ” कोई न हुआ रे हमारा। न बेटा, न पतिकिसके आसरे जिएंगी रे अब हम?”

वे बगल में बैठी युवती के कंधों पर ढह गई, जो स्वयं जार-जार रो रही थी। उसने झुकी नजरे उठाई और उसे देखते ही मानों हृदय की धडक़नें थम गइ –

” तनु” जिस्म की शिराओं, मन के समस्त भेदों ने एक साथ कहा – ” तनु”

” मैं तुम्हारी नींद में ख्वाब बनकर उतरना चाहती हूं। तुम्हारे आकाश में बारिश-सी झरना चाहती हूं। तुम मुझे ले लो ओर भर जाओ। तुम मुझे दे दो और खाली हो जाओ।” तनु ने मां को अपनी बांहो में भर लिया और रोती रही, बगैर सर उठाए या उसे देखे।

वह विचलित होने लगा – उसे लगा, अचानक ही वह उन सबके द्वारा खारिज कर दिया गया है, जो जाने-अनजाने उससे जुडे या जडे थे। उसने तनु के चेहरे की ओर देखा – एक असहाय सा वीरानापन उतर आया था – जैसा अक्सर बंजर जमीनों में देखा जा सकता है हल्की-हल्की दरारों से झांकता एक अजीब उथलापन

उसने दिलासे के लिए एक बार मां के सर पर हाथ रखा और उठ खडा हुआ। रात हो गई और एक अनावश्यक विस्तार का अंत हो चला – उसने वे सारे काम करवाए गए, जो एक हिंदू लडक़े को अपने बाप की मौत पर करने होते है। उसने बगैर किसी एतराज के सब किया। उस दिन की सब क्रियाएं खत्म हो चुकी, तो लोग धीरे-धीरे अपने घरों की ओर लौट चले। जो बच गए थे, दु:खों से हारे-टूटे अंदर कमरों में जाकर पड रहे। वह आंगन में लेट गया चारपाई पर। उसने अंदर जाने से इंकार कर दिया, तो किसी ने खास जोर नही दिया।

ताया ने सिर्फ इतना कहां, ” तू ही एक औलाद है उसकी। जाने क्या सोच छोड चला सब? कुछ न सोचा – क्या होगा तेरे पीछे? तनु ने तेरे जाते ही सफेद लिबास पहन चूडियां तोड ड़ाली और कहां,” मां वह मर गया। मैं हूं न तेरी बेटी या बेटा, जो तू समझ पहले तुम दोनो को खिलाऊंगी, फिर खुद खाऊंगी। तू उसके लिए न रो, जो रोने के काबिल न हो, फिर बाप लिवाने आया मायके से, इसने साफ जाने से इंकार कर दिया।” वह अवाक्-सा सुनता रहा – ” फिर बेटा, उसने पढाई पूरी की। एक स्कूल में नौकरी की, फिर कॉलेज में आ गई। टयूशन भी की। बहुत सेवा की उसने। तेरे जाने के बाद भाभी छ: महीने को खटिया से लग गई। गू-मूत उठाया, पर आंख नही फेरी। उसे किस जन्म की सजा दे गया रे तू? यही कहता है तेरा ईश्वर? अब चला जाएगा दो विधवाओं को उनके भाग्य भरोसे छोडक़र?”

वह सर झुकाए बैठा रहा उनके सामने – कहा कुछ भी नहीं। क्या कहता? बेकार है सब।

उनके जाने के बाद वह लेट गया चारपाई पर और आसमान पर टंगे उन्ही सितारों को गिनने लगा, जिन्हे वह जाने कितनी बार गिन चुका था। कितने वर्ष उसने कोहरे में बिताए, जब उसकी आत्मा पर्वतों, जंगलो और गुफाओ में उस अज्ञात का पीछा करती – उस अज्ञात सत्य का पीछा करती, जिसकी झलक से वाकिफ था वह। समुद्र की अनजान परछाइयों में अपने प्रश्नों का पीछा करती।

” जीवन दो आयामों में बंटता है। एक आयाम है संसार, जो है। दूसरा आयाम र्है मोक्ष, जो हो सकता है। वह तुम्हारे लिए अज्ञात है, पर तुम उसे पा सकते हो। असीम आंतरिक सुख मन संपूर्ण को खंडो मे तोड देता है। यहीं उसका काम है। मन एक प्रिज्म की भांति है। ज़ब प्रकाश की किरणें प्रिज्म से गुजरती है, तो वह सात रंगो में बंट जाती है। मन एक प्रिज्म है, जो सत्य को विभाजित कर देता है और हम उसे पूरा नहीं देख पाते।”

और भी कितनी-कितनी बातें कही थीं उन्होने, जब वह अपने प्रश्नों के जवाब पाने उनके पास गया था – एक विशाल मकान के निचले तल्ले की सीढियां उतर वह वहां पहुचां था। एक ऊंचे आसन पर वे जलती आग के सामने बैठे थे और कुछ तांत्रिक क्रियाएं कर रहे थे। वह उन्हे प्रणाम कर उनके सामने बैठ गया था –

” कहां थे इतने दिन? मैं बरसो से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं। तुम नहीं जानते, तुम क्यों हो? मैं जानता हूं”
” क्या जानते है आप?” उसने धडक़ते दिल से पूछा।
उन्होने लाल-लाल आंखो से उसकी तरफ देखा था और मुस्कराए थे,” यहीं कि तू क्यों बार-बार जन्म ले रहा हैभटक रहा हैतेरा अंतिम लक्ष्य क्या है इधर आ”
वह डरते-डरते उनके सम्मुख गया – ” आंखे बंद कर और अपने अंदर देख। चेतना को अपने अंदर ले जा और देख – कितनी नफरत, धुंध, धुंआ, कमीनगी, भय, युध्द, विरक्ति,लालसा, व्यभिचार, क्या-क्या नहीं है वहां? हम उन्ही अंधेरे तलो पर जीते हैं – उठो, ऊपर आओ। जानो, आगे की यात्रा क्या है? तुम ईश्वर हो स्वयं अपने ईश्वरत्व को पहचानो। इसे बाहर मत जानो।यह भीतर है। तुम्ही हो स्वयं – इसे महसूस करो।”

उन्होने उसके सर पर हाथ रख दिया। हाथ रखना था कि उसका समूचा जिस्म झनझना उठा। जिस्म के अज्ञात हिस्सों से लहरें उठी, अज्ञात हिस्सों में विलीन हो गई। आंखे बंद किए हुए ही उसे एक अद्भुत शांति महसूस हुई। और जब उसने आंखे खोली, वह, वह नहीं था, जो वहां चल कर आया था। बदल गया था अम्दर बहुत कुछ और जब उठा, तो उस शांति को फिर्रफिर पाने के दृढ निश्चय के साथ,पर कैसे?

घर में तनु है, जिसके सम्मुख देह की भूख कर वक्त उसका पीछा करती – मां  अगरबत्तियों-मोमबत्तियों की छोटी सी दुकान चलाता बापछोटे-छोटे सपने, छोटी-छोटी आशाएं – कैसे छोड दे उनकोक्या करे? कौन चलाएगा उनको?

” तुम नहीं चला रहे किसी को। कोई किसी को नहीं चला रहा। तुम तो निमित्त मात्र हो। हजारों-लाखों जन्मों से यही कर रहे हो, कोल्हू के बैल की तरह ऊब नहीं होती। छोड दो सब और देखो, तुम्हारे बगैर भी सब चलेगा।”

उन्होने उसे समझाया था, पर उसकी उलझन नहीं गई थी। महीनो वह परेशान रहा था। क्या कहे वह तनु से? कैसे? कि जिस जिस्म को मैं अब तक अपनी उंगलियों पर बिजली के लट्टूओं सा फिरता देखता था, उसके साथ कोई वास्ता नहीं मेरा? कि यह संसार एक दु:ख है – पराधीनता – अंधी दौड – ज़न्मों-जन्मों की। हर जन्म में वहीं चक्रवहीं दु:ख। किसी कामना का अंत नहीं होता। हर कामना दु:ख उपजाती है। मान लो, तुम्हे वह सब मिल गया, जो तुम चाहती हो, फिर? फिर आगे क्या? यह सुख नहीं है।यह अंतिम उपलब्धि नहीं है। तुम अपनी ऊर्जा गंवा रही हो। कोई चाहत कही नहीं ले जाती। चाह पागलपन का बीज है।

और वह एक लंबे अरसे तक नहीं कह पाया था। छिप-छिप कर जाता था स्वामी जी के कम्यून में – ध्यान करता, त्राटक, साधनाएं, विपस्सना ब्रह्मचर्य जो वे कहते, जो सब करते वह भी करता।

” मन को शून्य बना दो, मौन हो जाओ और प्रकृति को सुनो”, वे कहते – पर ये सब इतना आसान नहीं था, पर इसके लिए अब वह अपनी जिंदगी के तमाम बरस खर्च करने को तैयार था। घर पर आधी रात को उठ जाता – ध्यान करता – मंत्र जाप साधनाएं-

तनु देखती सोचती महसूस करतीपूछती,” तुम ये सब क्यों करते हो?”
” शांति के लिए।”
” तुम्हे मेरे पास शांति नहीं मिलती?”
” स्थाई नहीं” वह कहता।
” पहले तो मिलती थी।”
” तब मैं नहीं जानता था, शांति क्या होती है।”
” अब? अब जानने के बाद क्या करोगे?”
” मैं यहां से जाना चाहता हूं”
” उससे क्या होगा?”
” मैं जो पाना चाहता हूं, पा सकता हूं।”
” तुम ऐसा क्या पाना चाहते हो, जो यहां रह कर नहीं पा सकते?”
””
” दरअसल तुम नहीं जानते, तुम क्या चाहते हो? तुम गुमराह हो रहे हो। तुम्हे अपना जीवन दु:ख लग रहा है, पर दरअसल यह एक संघर्ष है, इससे भागो मत, सामना करों। इस तरह सब संसार छोडने लगे, तो क्या होगा? सोचो जरा।”

तकरार-बहस-तकरार रोना… तनाव… मां… की हिचकियां बाप की गुस्साभरी चेतावनी, बहुत लंबा चला ये सब। बाबू जी दनदनाते गएस्वामी जी से झगडा कर के आ गए। तनु का समझाना-प्यार से, गुस्से से, नफरत से पर नहीं रुका था वह और उस कम्यून की मुख्य ब्रांच में आने के लिए उसने वह शहर आखिरकार छोड दि या

और फिर बारह बरस का अनवरत सफरकम्यून की अलग किस्म की जिंदगी, जहां देह और मन दो नहीं,एक है – और देह भी देह नहीं , कुछ और है….अद्भुत-अवर्णनीय ।

आज उसे बुध्द की वह कहानी याद आई – बुध्द जब बोधि प्राप्त करने के बाद यशोधरा के पास लौटे, तो उनके साथ उनका शिष्य आनंद था। बुध्द ने आनंद से कहा, ” आनंद, तुम यहीं रहो। यशोधरा मुझसे नाराज होगी। मुझे बुरा-भला कहेगी। तुम रहोगे, तो शायद वह अपने मन की बात नहीं कह पाए। उसका गुस्सा जायज है। उसे कहने दो। मै उसका अपराधी हूं। मुझे अकेले जाने दो, ताकि वह अपना गुस्सा उतार सके।”

क्या वह जाए? अकेला, उसके पास

वह कमरे में मां की बगल में लेटी हुई है – फर्श पर। मां को नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया गया हैवह जाग रही है। बारह बरसो से जाग रही है। नुकीले कांटे उग आए है उसकी पलकों परपर किसी से कुछ नहीं कहती। किस कसूर की सजा मिली उसे? औरत होने की? कितना स्वार्थी है पुरुष? मतलब से बंधता है, मतलब से अलग हो जाता है। आज आया है वह – बारह बरस बाद और मैने उसे देखा भी नहीं। सब कह रहे थे – बदल गया है…आंखो में तेज उतर आया है – चेहरे पर कांति…गेरुए कपडो में किसी देवपुरुष सा लगता है। देवपुरुष सा तो वह उसे तब भी लगता था, जब वह उसकी देह से खेल रहा होता था। उसकी तमाम-तमाम बातों के बावजूद उसे लगता था कि नहीं, देह ही अंतिम सच है।

भटक गया है वह, लौट आएगा। कहां जाएगा उसके बिना? नहींनहीं जा सकता! और जब उसने जाने की ठानी थी – वह दिनो रोती रही थीरातोंबात तक करनी बंद कर दी थी उसनेअलग कमरे में सोने लगा था वह। उसकी छाती गुस्से व नफरत से धू-धू कर जलने लगी थी – नहीं, वह कापुरुष हैउसके लिए क्या रोना? जो अपने बूढे मां-बाप और जवान बीवी को यूं छोड क़र जा सकता है, उसके लिए क्या रोना?

नहीं, फिर वह उसके लिए नहीं रोई। सारे आंसू सख्त बर्फ की सिल से उसकी छाती में जमा होते रहे। बारह बरस में सिल इतनी सख्त और वजनदार हो गई है कि अब उसे पिघलाया नहीं जा सकता। आइसबर्ग होता है न, एक हिस्सा ऊपर से दिखता और बाकी के हिस्से अंदर पानी में डुबे हुए

अब जाना औरत सिर्फ एक कहानी होती है, जिसे कहीं से भी शुरु किया जा सकता है, कही भी खत्म किया जा सकता है। किसी  सेन्टेन्स पर ज्यादा दबाव डाला जा सकता है, किसी पर कम और कहानी की तरह वह हमेशा अधूरी रहती है। रेत के ऊंचे ढूंह सी बनती बिगडती-हवाओं के मिजाज परअसीम संभावनाओं के भरी वह सिर्फ एक रात का हिस्सा होती है – सुबह लोग भूल जाते है और अधूरी कहानियां आसमान में बादलों के टुकडों की तरह तैरती रहती हैं जिन पर बाद में बयानबाजी की जाती है या किसी वीरान बंजर जमीन की तरह किसी बीज की प्रतीक्षा में उधर तकती रहती है, जिस तरह किसी के आने की जरा सी भी उम्मीद है।

उस वक्त उसे लगा था, उसके अंदर जो चाहत थी उसके प्रति, वह उसी तरह झर गई है, जैसे पतझड में पेडों से पत्ते झर जाते है और फिर उसे खाली हो चुकने सी प्रतीति होने लगी – कैसा महसूस करती होगी खाली, वीरान टहनियां? जब उसकी नंगी बांहे खाली आसमान की ओर उठी हुई हो सिर्फ कुछ मांगती सी दया या भीख जैसे कोई चीजनहीं, वह नहीं मांगेगी और उसने अपनी खाली बांहे वापस अपनी ओर समेट ली थी। वह फूली नही, फली नहीं, कुण्ठित नहीं हुई, तो यह उसका कसूर नहीं। वह क्यों इसके लिए शर्मिदा महसूस करे?

कदम नहीं उठे थे किसी के और वह सूनी रात सूनी आंखो से उसे तकती रह गई थी।

अगली सुबह उसने जाने की बात ताया से उठाई, तो वह चौंक पडे –

” पागल हो गया है रे? साधू-संन्यासी तो सारी दुनिया को अपना समझते है, तू तो अपने घर के लिए गैर हो गया। अभी चिता की आग भी ठंडी नहीं हुई होगी और तू जाने की बात कर रहा है। अब कही नहीं जाएगा तू। इन दो औरतो को देख – क्या कसूर है इनका? क्यूं छोडेग़ा तू इन्हे? नहीं जाएगा तू कहीं। मैं कह रहा हूं।” वे उत्तेजित से हो गए।
” आपके कहने से रुकूंगा…ऐसी उम्मीद आप न करें। आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा हूं, पर मुझे माफ कर दे। मैं सबका अपराधी हूं, पर क्या करूं? मैं नहीं बना इन सबके लिए। अगर ये मेरा कसूर है, तो मुझे माफ कर दे। सबके बगैर दुनिया चलती है, चलती रहेगी, मेरे बगैर भी। मैं कौन होता हूं किसी का? हर इंसान अपना मालिक आप है। मैं तो मर ही गया था इन सबके लिए बारह बरस पहले – वो तो अचानक आपका तार आया औरलगा, जाऊं, पितृ-ॠण से मुक्त हो जाऊं। अब ये सब पिछले जन्म की सी बातें लगती हैं – हम सब अपनी-अपनी कब्रों पर खडे हुए लोग है”

वह शांत स्वर में कहता जा रहा था कि अचानक रुक गया। कहीं ताया यह न समझे कि प्रवचन कर रहा है। उसने उनकी आंखो में देखा – उनकी आंखे भरी हुई थी – फिर उठते हुए बोले ” जैसे ईश्वर की मर्जी। मैं क्या कर सकता हूं?” और वे जाने लगे – फिर ठिठक गए और दूसरी ओर मुंह किए हुए ही बोले, ” अब आया है, तो बारहवां कर ले, फिर जाना। क्या पता फिर किसी की मौत पर आए या न आए। इतना भी नहीं कर सकता, तो तीन दिन ठहर जा। जरूरी रस्में हो जाए, तो चले जाना। फ्ूल चुन ले कम से कम।”

” आज रुक जाता हूं, कल चला जाऊंगा” उसने शांत स्वर में कहां।

सारे दिन मेहमानों का, रिश्तेदारों का, आने-जाने वालों का तांता लगा रहा। उसे लगा, लोग उसे कब्र का मरा समझ उसकी कब्र पर अपनी याद का दिया जला चुके। सिर्फ दो आत्माओं में वह जिंदा हैं जलते बुझते नन्हे से चिराग की तरह।

उन लोगो से ऊब कर वह एक खाली कमरे में चला गया और दरवाजा अंदर से बंद कर पड रहा। खाने के वक्त किसी ने दरवाजा खटखटाया – उसने उठकर खोला, तो दो हाथों ने थाली आगे बढा दी –

” सुनो, ” उसने झिझकते हुए कहा।

उसकी झुकी निगाहें नहीं उठी। उसने झुक कर थाली जमीन पर रखी और वापस मुड ली।

” तनु, सुनो” उसने जल्दी से आगे बढक़र पीछे से उसका आंचल पकड लिया – ” रुक जाओ। नाराज हो तो बुरा-भला कह लो। मैं तुम्हारा अपराधी हूं, पर मुझे माफ कर दो।”

उसने आंचल अपनी ओर खींचा, तो वह आहिस्ता-आहिस्ता उसकी तरफ मुडी, पर चेहरा ऊपर नहीं उठाया, उसने आंचल छोड दिया –

” यहां से जाने के बाद मैं बहुत भटका, जान नहीं पाता था – क्या सही, क्या गलत, हर वक्त तेरी आंखे पीछा करतीं – आंसूओ से, गुस्से से, नफरत से भरी। लगता, और किसी का हूं या नहीं, पर तेरा बहुत बडा अपराधी हूं।”

उसने सर उठाया, तो वह एकाएक खामोश हो गया – उसकी वीरान आंखो में अजीब सा भाव उतर आया, जिसे वह उस वक्त कोई शब्द न दे सका –

” एक बात पूछूं”
” पूछ”
” तू जो चाहता था, पा लिया?”
” नहीं, पर मैं रास्ते पर हूं और निराश नहीं हूं। आधा रास्ता तय कर चुका”
” तू अकेला आधा रास्ता ही तय कर सकता है।” उसने उसकी बात बीच में ही काट दी और बर्फ से ठंडे स्वर में बोली, ” तू बहुत बडा स्वामी हो गया है न। जिन प्रश्नों के उत्तर के लिए तू भटका करता था, उसके उत्तर मिल गए होगे। आज मेरे एक सवाल का जवाब भी देता जा। तुम लोग औरत को हमेशा रोडा क्यो समझते हो? संसार में उसे साथ लेकर चलने में सार्थकता पाते हो। जब संसार से विचलित हुए, तो सबसे पहले उसे छोडा। पूंछ सकती हूं – क्यों? औरत क्या सिर्फ सोने के काम आती है? तुम्हारे देवपुरुषों ने जब तक औरत चाही, रखी, फिर अनचाही समझ किनारे कर लिया। तुम  रख  सकते हो,  छोड  सकते हो, क्यों? हम नींव के पत्थर है तरुण, जिस पर तुम्हारे भवन खडे है। जिस कोख से पैर निकाल कर खडे होते हो तुम, उसी को उजाडते हो – यहीं कहता है तुम्हारा धर्म?”

वह स्तब्ध सुन रहा है। उसकी सांसो की गति तेज हो गई है।

” तेरे जाने के बाद मैने तेरे धर्मगुरुओं को पढा। सोचा, अगर मोक्ष ही अंतिम सच है, तो जान ही लूं जरा। तुम्हे पता है न, बुध्द ने स्त्रियों को दीक्षा देने से इंकार कर दिया था और जब उन पर इस बात का जोर डाला गया, उन्होने समझौता करते हुए कहा,” अब यह धर्म पांच सौ वर्षों से ज्यादा नहीं चलेगा। महावीर ने स्त्री के लिए मोक्ष की संभावना से इंकार कर दिया कि जब तक वह  पुरुष-पर्याय के रूप में जन्म नहीं लेती, उसे मोक्ष नहीं मिल सकता।”

वह सांस लेने के लिए रुकी –

” मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। इस बात का जवाब चाहिए कि तुम्हारा धर्म इतना हेय क्यों समझता है स्त्री को?”

वह अपराधी सा खडा रह गया। इस बात के बहुत जवाब हो सकते है। उन जवाबो के बहुत सारे प्रर्श्न फिर उसके जवाबमानव-अस्तित्व स्वयं एक प्रश्नचिन्ह है

 घर तुम्हारे कंधों पर होता है। जब तक चाहा, उठाते रहे। नहीं, तो भार समझ छोड दिया कहीं भी, पर वही हमारे हृदय में होता है। हम उसके बिना नहीं हो सकती तरुण। जानती हूं, तू जाने के लिए आया है, जामैं तुझे शाप नही दूंगी, पर जिस तरह तूने मुझ पर जीवन का भार डाला है, तुझ पर कोई न कोई भार होगा ही। तू मुक्त नहीं हो सकता। कोई पुरुष औरत से मुक्त नहीं हो सकता। मैं तो फिर भी तुझसे कम निर्दयी हूं। जिस बोझ से घबरा कर भागा, उसे सहजता से उठाने चली – बोझ तो तेरा था न वह। तू नश्वर इंसान को अनश्वर बनाने चला और मेरे दु:खों को अनश्वर कर गया। नहीं, मैं तेरा पल्ला पकड क़र न्याय नहीं मांगूगी। जो अपने लिए, अपनी जन्मदात्री के लिए न्याय न कर सका, वह मेरे लिए क्या करेगा? जिस अनश्वरता को तलाश रहा है तू, क्या उसे पा लेगा? तू फिर-फिर लौटेगा और उसे फिर-फिर खोजेगा। यह एक जन्म में नहीं मिलता – जन्मों की दौड है यह – और इसके लिए घर छोड क़र भागने की भी जरूरत नहीं – लगन हो पक्की, तो कहीं भी, कुछ भी हासिल कर लो।”

उससे एकाएक कुछ बोलते नहीं बना। खुद को संभालकर उसने जैसे ही बोलना चाहा, पाया – वह जा रही है

अगली सुबह जाने की तैयारी में वह। अलस्सुबह उठ जरूरी संस्कार कर अंदर कहलवा दिया। मां ने सुना, वह जा रहा है। उन्होने न बुलाया, न पास बिठाया, न कंधे पर ढलक कर रोई, न मिन्नतें कीं – मत जा

वह मानों हाजिर होकर भी गैरहाजिर है। उनकी उम्मीदों, आशाओं, सुख-दुख, हंसी-रुदन के घेरों से बहुत दूर पराया सा….पराये संसार का वासी।

” मां मैं जा रहा हूं।” वह उनके पैर छुने झुका, तो वह पीछे हटर् गई ” न-न, मत छू मुझे। मेरा बेटा कहां रहा तू? स्वामी हो गया है। जा-जा तेरा ईश्वर तेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा”

उन्होने अपनी हिचकी दबाने के लिए आंचल मुंह पर रख लिया। फिर रोते हुए बोली,” उससे मिलकर आया है?”

वह सर झुकाए द्वार पर खडा रहा। मां ने मुंह अंदर करके आवाज दी,” यह जा रहा है, तनु।”

” जाने दे मां, यह फिर-फिर लौटेगाफिर-फिर जाने के लिए”

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आज का विचार

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

आज का शब्द

जो अग्नि हमें गर्मी देती है, हमें नष्ट भी कर सकती है, यह अग्नि का दोष नहीं हैं।

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