पार्किंग के लिए जगह तलाशते उसे पंद्रह मिनट से ऊपर होने को आए थे. खीज धीरे-धीरे गुस्से में तब्दील हो रही थी। रेंगते वाहनों की कानफोड़ू चिल्लपों… अगल-बगल से आगे निकलने की आपा-धापी और मशक्क़त… रंगीन चित्र और बेजान फूलों से लेकर रंगबरंगे टीशर्ट मोज़े निकरे छुरी छलनी डिब्बे चूड़ी चप्पल झुमकों से अटे फुटपाथ .. प्लास्टिक थेलियों से अटी गंधाती नालियाँ, नालियों में मुँह घुसाए खडे वाहन और अंत में जयपुर की चौड़ी सड़कों वाले लोकगीतों को लजाती झुठलाती ठेलों खोमचों से पौनभरी सड़क। इन सबके बाद जो कुछ बचा खुचा है, चला लो तुम उस पर बेंज या बैल, जो तुम्हारी इच्छा हो। चलेंगी दोनों एक ही रफ्तार से। कभी यही भीड़ उसका नशा था और परकोटे की गुलाबी दीवारों को दोस्तों संग साइकिल से नापना उसका प्रिय शगल। नशा तो श्रीमतीजी ने झाड दिया। सचमुच झड़ा या किसी नस में जाकर छिप गया, पता नहीं और शगल उम्र के साथ बदल गया। इस शहर ने भी अपने शगल बदल लिए, चढ़ी जवानी बुड्ढे नू की तर्ज पर। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी यह हिरमिची गुलाबी रंग की बोरियत दूर करने, हिरन बना कुलांचे भरता शहर की समस्त चौकड़ियों चारदिवारियों को लाँघ पचरंगा सतरंगा ही नहीं विविधरँगा साफा बांध निकल पड़ा। बस तभी से सातों गेट खुले पड़े हैं कि न जाने किस दिशा से कब वापस लौट आए भगोड़ा शहर। लेकिन भगोड़े कहाँ वापस लौटा करते हैं।
वह भी तो भगोड़ा ही है, न सही विजय माल्या या ललित मोदी जैसा महान, मगर है तो।
भगोड़ा चंदन चतुर्वेदी। खीज और गुस्से पर, दबी सी हँसी की हल्की परत चढ़ गई।
किसी गाड़ी के पार्किंग से निकलले ही झपट्टा मार जगह हथिया लेने की फिराक में उसने अपनी नजरों का एंगल ‘गिद्ध दृष्टि’ पर सैट किया। लेकिन यहाँ की तो गाड़ियाँ भी राजनेता हैं, एक न खिसकी। मजबूरन उसे आम जनता की तरह रेंगते खिसकते छोटी चौपड़ का चक्कर लगा वापस जिस चाँदपोल दरवाज़े से परकोटे में घुसा था उसी से बाहर निकलना पड़ा।
अब! अब क्या करे! अगर गौरैया देखे बगैर लौट गया तो श्रीमतीजी का रौद्र रूप देखना पड़ेगा। अजब जिद है इन औरतों की भी। जबसे मूर्ति म्यूजियम से फोन आया कि आपकी गौरेयाँ तैयार है एक बार आकर देख लें वरना बाद में कोई कमी नज़र आई तो कुछ नहीं हो सकेगा, बस पकड़ ली जिद। पहली तो गौरैया बनवाने की जिद ही उसकी समझ से बाहर थी मगर ज़ब समझाई गई तो सिर ठोक लिया उसने। चारों वेदों के ज्ञाता चंदन चतुर्वेदी की पत्नी को ऐसा कौनसा सरयूपारीण ब्राह्मण मिला जिसने ये गौरैया टोटका बताया।
असल में कुछ साल पहले जयलाल मुंशी का रास्ता से श्रीमतीजी के एगोराफोबिया जो कि 2008 में परकोटे में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के बाद बढ़ गया था, के चलते वह पुशतैनी हवेली छोड़ विद्याधर नगर की एक पाँच मंजिली इमारत में दूसरे माले के फ्लैट में शिफ्ट हो गया था। ऐसे जैसे किसी समंदर से निकाल मछली को सूखी नदी में छोड़ दिया गया हो, इस आज्ञा के साथ कि तैरना जरूरी है। जिसकी नींद गवाड़ी के चौक में लगे एकमात्र नल के लिए होती चिल्ल पों और टनकते मग्गे लोटों चरी बाल्टियों से खुलती हो और रात में अगल-बगल की रसोईयों के खड़कते बर्तनों और फुल वॉल्यूम पर चलते टी वी की आवाज़ के बगैर न आती हो, उसके कान इस सन्नाटे में कितना तड़पे होंगे। लेकिन आज्ञा तो आज्ञा थी सो कानों ने इस सन्नाटे को सुकून का नाम दे दिया। ये सुकून भीड़ के शोर से सुकून था, दीवारें तो यहाँ भी थीं बल्कि ज्यादा लम्बी चौड़ी। उसी सन्नाटे में…. ना.. ना..सुकून में श्रीमतीजी ने इमारत के नीचे थोड़ी सांस लेती जमीन देख एक आम का पेड़ लगा दिया. कुछ ही सालों में पेड़ के हाथ ऐसे लम्बे चौड़े हुए कि फ्लैट की खिड़की पर दस्तक देने लगे और श्रीमतीजी सपने देखने लगीं कि कब आम आएं और वो खिड़की से हाथ बढ़ा तोड़ ले. मगर आम क्या मंजरी तक न आई। पेड़ की जड़ में अनेकों मिश्रण श्रद्धांवत सींचने और शाखाओं पर गजरे डोरे अर्पण करने के बाद भी ज़ब कोई नतीजा न निकला तो किसी ने बताया कि पेड़ पर गौरैया का घर टांग दो, गौरैया चहकेगी तो बौर फूटेंगे। गनीमत थी कि श्रीमतीजी ने कालिदास नहीं पढ़ा था, पढ़ा होता तो दोहद संचार के लिए जाने क्या-क्या कर बैठती। हुआ ये कि जिन दीवारों छज्जों और मोबाइल टावरों पर कबूतरों की गूं गूं के सिवा कोई चीं चाँ कुहू ट्यूँ न सुनी गई हो वहाँ के एकमात्र पेड़ में गौरैया के लिए ऐन खिड़की की सीध में घर टाँग दिया गया। मगर गौरैया गृहप्रवेश तो दूर गृहदर्शन को भी न आई। रोज़ सवेरे श्रीमतीजी इस उम्मीद से खिड़की का द्वार हौले से खोलतीं कि कहीं गौरैया आई हो और उड़ न जाए। इस उम्मीद के पीछे असल चाहत का सच छिप कर होलोरे लेता रहा और फिर एक दिन सवेरे के सन्नाटे में श्रीमतीजी की चीख से नींद खुली। पता चला कि गौरैया के घर के पास आँखें फाडे जीभ निकाले हथेली जित्ता बड़ा एक चमगादड़ लटका हुआ है। कई बार सुबह अमानिशाह के नाले (नाले में कभी द्रव्यवति नदी रहती थी मछली संग भाग ख़डी हुई। तब से वहाँ सिर्फ कीचड और बदबू हिलमिल कर रहते हैं.)की ओर से काले झुंड दक्षिण की ओर जाते और शाम को लौटते देखे थे, जरूर नदी ढूंढने जाते होंगे। आम की शाख पर लटका यह चमगादड़ उसी झुंड से बिछड़ा भटका अकेला है और भीड़ के शोर से दूर होने का दुख भोगने ही यहाँ आया है. ये सब विचार मेरे मन में उठे थे। श्रीमतीजी के मन में तो अनेकों शगुन-अपशगुन की लहरें उठ रहीं थीं। उन्हीं लहरों के चलते वो पेड़ की जन्मपत्री बंचवाने पहुँच गईं पंडित सिद्धांष सांकृत के यहाँ और लें आईं ये गौरैया टोटका।
पेड़ पर पत्थर से गढ़वा कुछ गौरया लटका दो, फिर देखना चमत्कार… और हाँ पत्थर अगर संगमंरमर हो तो ज्यादा प्रभावी होगा।
पंडितजी ने ऐसे कहा जैसे रेगिस्तान में दो बून्द जल छोड़ दो फिर देखना नदी कैसे बहती आएगी… हाँ जल गंगाजल हो तो ज्यादा प्रभावी या दीवारों के शहर में एक डाल रोप दो फिर देखो जंगल कैसे दौड़ता आता है हाँ डाल अगर कल्पवृक्ष की हो तो ज्यादा प्रभावी।
जैसे कि सिरफिरे शब्दों के तीर से आत्मविश्वास की एक गाण्डीव सी टंकार छोड़ दो फिर देखो….और श्रीमतीजी उस टंकार से प्रभावित होनी ही थीं सो हो गईं।
पीछे से लगातार आ रही टी टी पिं पिं के शोर से झल्ला उसने गाडी अनाज मंडी के दरवाज़े में घुसा दी। शायद जगह मिल जाए। जगह तो क्या मिली पर उसने बना ली एक बंद गोदाम के बाहर पड़े बोरों के पास। अनाज और सन के बोरों के मिलेजुले रेशे नाक में घुसे तो झींकों ने उन्हें धक्के दे दे बाहर निकालना शुरू किया। घड़ी देखी… दस बज चुके थे। सोचा था सवा दस साढ़े दस तक ऑफिस पहुँच ही जाएगा लेकिन अब…. खेजड़ों के रास्ते तक का पैदल सफर… उफ़… रुमाल से चैती धूप का बिन बहा पसीना पोछा और चल दिया वाहनों के रेलों के बीच से जगह बनाता। चाँदपोल दरवाज़े में घुसने से पहले ऊपर विराजे गणपति से नजरें मिलीं…. क्यों रे आज आया है… वो भी खाली हाथ… बताशे कहाँ है!
शीश झुक गया।
ओ चंदूsss ज़रा पाँच बताशे तो चढ़ा आ रे गणेश्या के… टीनू पास हो ग्यो। अम्मा की आवाज़।
पास टीनू हुआ है तो बताशे भी उसी को चढ़ाने बोलो न!
बडो भाई है थारो… नाम लेवे है…ठहर तो..।
ओ टीनू भाईसाहब… तीसरी बार में दसवीं पास होने के बताशे तो जिमा आओ गणेश्या को और हाँ ग्यारहवीं के लिए अर्जी लगाना मत भूलना।
तेरी तो…. कहते टीनूजी ‘बड़े भाईसाहब ‘ बने दौड़ पड़े उसके पीछे।
दरवाज़े के पार छोटी चौपड तक रेंगता काफिला। दरवाज़े में घुसा तो हनुमान मंदिर के टंकारों के बीच अम्मा की आवाज़ फिर गूंजी … चंदूsss पाँच रिपया को मावो मुँह मैं धर आ रे बजरंग्या कै। और मावे के लालच में निकर बनियान में दौड़ता चंदू।
बाहर बैठे भिखारियों की भीड़ से जगह बनाता पहुंचा तो आरती हो चुकी थी। अचानक जल के छींटे आँख में पड़े तो आँख एक पल मिचि फिर चमक उठी। सामने बजरंगी थे, वे मुँह खोले उससे पहले वही बोल पड़ा –
क्यूँ पहचानते तो होंगे तुम मुझे… जाने कितने मंगलवार मुखारविंद जिमाए हैं तुम्हें।
मुस्कुराए बजरंगी… चल भगोड़ा कहीं का… कहता है मुझे जिमाए…मुझे जिमाने के नाम पे खुद जीमे… मेरे मुँह से निकाल, आधा अपने उदर में डाल बाकी बचे को आकार दे अम्मा को खूब बेवकूफ बनाया तूने….।
बच्चा हँसी, खिलौनों की टोकरी सी उसके चेहरे पर बिखर गई।
बजरंगी से मुस्कान की बिखरी गेंदों का आदान प्रदान कर उन्हें जेबों में ठूंस-ठाँस वह मुड़ लिया। अचानक याद आया, यहाँ तो एक पीपल था चहकता,कहाँ गया। फिर से घूमा बजरंगी की ओर तो मुखारविंद भरा मुँह खुला – भाग गया गौरया संग।
मुस्कान का झुनझुना खनका। बड़ा चालबाज हो गया बजरंगी… एक तीर से दो शिकार…।
अचानक बातचीत के बीच जयकारे करती भीड़ का रेला आ गया और वह बाहर धकेल दिया गया।
मुखारविंद के लिए बड़े कडाहों में कूची से घिस घिस की आवाज़ करते मावा बनाते और छन छन करती कुप्पा सी कचौरियां झारते नंगे बदन धोती लपेटे हलवाई। चाहे सब बदल जाए या भाग जाए, कढ़ाहे और हलवाई जस के तस बने रहेंगे जैसे जनेऊ में महाराज़ा जयसिंह का हस्ताक्षर किया पट्टा लपेटे हो जिस पर लिखा हो, इन्हें छेड़ा तो भस्म हो जाओगे जठराग्नि से। किसी की मजाल जो इन्हें छू भी दे। जितने पेट उतने कढ़ाहे. कचौरिया और मावा पैक कराया तो गाढ़े दूध की महक चढ़ गई सिर तक। सकोरा भर दूध उसी अंदाज़ में मूँछ बनाता गुटक गया जैसे टीनू भाईसाहब संग गटकता था। पीछे से खोपड़ी पर चपत पड़ी – धीरे पी। अरसा हो गया भाईसाहब से मिले। शहर ऐसे छोड़ कर गए जैसे देश ही छोड़ गए हों। भगोड़े भाईसाहब… हँसा वह। मूँछ आस्तीन से साफ की तो सीना भीतर बाहर दोनों ओर से अनजाने ही तन गया। जैसे अपनी गली आते ही……। बिन बारिश, हरदम चढी बरसाती के खोल सा पत्नी का एगोराफोबिया दरवाज़े के बाहर खड़ा धमकाता आँखें दिखाता रहा। तना सीना लिए आगे बढ़ा तो नजरें अनायास दुकानों के ऊपर उठ गईं।
अबे ओ चाँदपोळ्याsss…. नजरें नीची कर। फूफा की आवाज़। और सचमुच नजरें नीची हो गईं। अब देखने को है भी क्या वहाँ…। कभी इन्हीं दुकानों के ऊपर बने केबिननुमा कमरों के रंगीन बलबों की रौशनी, छीने पर्दो से आती, सड़क चलते की तलब पैदा कर देती थी परदे के पार की रंगिनी देखने की। कोशिश तो कई बार उसने भी की और टीनू भाईसाहब को भी करते देखी…. रंगीन रौशनी के सिवा कुछ न देख पाने का मलाल दोनों को अलग अलग रहा। इसी रंगीन तबियत को ‘चाँदपोळ्या’ नाम मिला था। कैसे मिला ये पता नहीं। फूफा कहते – नाम दिए नहीं जाते बस पड़ जाते हैं। अब न नाम देने वाले रहे न रंगिनियाँ रहीं न वैसी तबियत। लेकिन अनजाने ही उसके भीतर के रसायनों ने करवट बदली और सन्नाट खडे वट के बरोहों से उलझे मनोवैज्ञानिक सूत्र सुलझने शुरू हो गए। नतीजा भरे फुटपाथ पर भी कदमों में अजब अल्हड़ता आ गई। चैती धूप में इंद्रधनुष झिलझिल करने लगे। फुटपाथ पर बिछे चाकू छुरी ताले चाबी मोज़े रुमाल बेल्ट को लाँघ ही रहा था कि एक हाथ बेल्ट लटकाए उसके आगे – एकदम सल्लू भाई स्टाइल है… लगा के देखो फील न आ जाए तो… और ये रुमाल भाईसाहेब… पसीना नहीं… माशूका के आँसू के लिए है… फूलटू झक्कास रेशमी… उसके गालों से ज्यास्ती…।
लड़का जैसे अभी-अभी मुंबई की ट्रेन से उतरा था। उसे हँसी आ गई और लड़का समझ गया हँसा तो फँसा। रुमाल और बेल्ट के साथ एक पर्स भी लिया उसने। माशूका न सही पत्नी के आँसू ही सही। टीनू भाईसाहब के साथ घंटो की हील-हुज्जत और बकवाद के साथ की गई खरीदारी याद आ गई। बरसों से घर ऑफिस और मॉल की सलीकेदार सज धज देखती आँखों को, दुकानों के उबलते उलझते लिपटते एक दूसरे पर गिरते पड़ते सामान…. जैसे उसकी अनकही को आवाज़ देते से…. अनकही… जिसे कहने सुनने की सबसे ज्यादा जरूरत थी वही बेआवाज अनसुनी रह गई।
बंटू मंगा लेगा ऑनलाइन तुम रहने दो…बेकार और मंहगा लाओगे। हुह्ह्ह… कौनसी दुकान बची होगी चाँदपोल की जिससे उसने और टीनू भाईसाहब ने खरीदारी न की हो वो भी आधे दामों में। एक पर तक नहीं खरीदा इस तरह सालों से। अचानक ‘पर’ शब्द बरोहों से झूलता नीचे उतरा और रसायनों की बदली करवट के कान खडे हुए।
गौरैया…
वह गौरैया लेने आया है। मगर कान दो पल में ही करवट बदल फिर बैठ गए। इसी गली की नुक्कड़ पर घेर घूमेर गौरैया वाले अशोक के नीचे छोट्या हलवाई था। देखा, अब भी है। उसी शान से अपने कूची कडाहों के साथ। लेकिन अशोक नहीं है न गौरैया। अपनी अनकही के साथ चले गए वो भी शायद बेआवाज।
भाग गया गौरैया संग….
पीछे से मुँह में मुखारविंद ठूँसे बजरंगी की आवाज़ आई।
ले ले.. जित्ते मजे लेने हैं ले ले….। मुस्कुराया वह।
इसी छोट्या हलवाई से मावे का गलेपदार पेठा और बेसन की मोटी सेव खरीद अम्मा ग्वाड़ी की बच्चा पलटन को जिसे वे भेड़ बकरी पलटन कहतीं, पैदल सूर्य मंदिर और गलता ले जातीं थीं, गलियों के गुंजलों से सीधे पहाड़ की तराई तक। सूर्य मंदिर के लिए पहले पहाड़ी चढ़ना और फिर गलता के लिए दूसरी ओर उतरना, मगर मजाल क्या कि अम्मा किसी के पैर दुखने दे। पैर दुखने की शिकायत तो तब करे न कोई ज़ब अम्मा की कहानियाँ बंद हों. रास्ते भर ‘एक माली मालन थे’ ‘एक था लुढ़कन मटर’ ‘एक था हंसोड राजा’ चालू रहते। अपना नाम भी बमुश्किल लिख सकने वाली अम्मा की स्मृति में इतनी कहानियाँ कैसे फिट हुईं होंगी। एक खत्म हुई नहीं कि दूसरी चालू और सारी भेड़ बकरियां जिनमे कभी असल भी शामिल हो जाती, हुंकारा भरते पहाड़ी चढ़ भी जाती और उतर भी। पेठा और सेव तुलवाए उसने। एक बड़ी थैली मांग सारा सामान एक जगह किया और चल दिया। सड़क के बीच में डिवाइडर के ऊपर अटके बोर्ड पर नज़र पड़ी, लिखा था –
मेट्रो सिटी के परकोटे में मेट्रो शीघ्र ही।
चाँदपोल से बड़ी चौपड और फिर गोविन्द के दरबार तक जिस दूरी को अम्मा बिलांद भर दूरी कहती मिनटों में लाँघ जाती थीं बल्कि हाथ पकड़ उन्हें भी लंघा देती थीं उसे अब मेट्रो पार करायगी शायद बजरंगी जैसे उड़ाते हुए. चेहरे पर हँसी के छींटे पड़े। राजनीति कब गैर जरूरी को जरूरी बना दे और जरूरी को गैर जरूरी।
खेजड़ों का रस्ता के लिए उसे सड़क पार करनी थी मगर पैर रस्ता भूल गए थे या कि पहचान गए थे। जयलाल मुंशी का रास्ता में मुड़ गए। ज़ब से हवेली छोड़ कर गया बमुश्किल दो एक बार ही आ पाया। वो भी इस तरह पैदल नहीं। किराया भी तो सीधा बैंक में जमा हो जाता है। गली में झाँकती रसोई की खिड़की। हैंगर में टंगे कई सारे निकर टीशर्ट जैसे टीनू भाईसाहब और वो कई गुना हो गए हों। अगल बगल से गुजरती टीं टीं पीँ पीँ और भीड़ के हल्ले के बीच कुछ देर खड़ा बस यूँ ही देखता सुनता रहा। कुछ देर पहले जो चिल्ल पों कानफोड़ू लग रही थी वही अब रसायनों में सुकून घोल रही थी। अजीब हैं ये देह के रसायन, कब किस पल कौनसी छिपी नस को परखनली बना, कौनसा घोल तैयार कर सारी नसों में उंडेल देंगे पता नहीं…।
ताज़ादम नसों को संभाले वाहनों का रेला पार कर वह खेजड़ों के रास्ते में घुसा। जयपुर की हर गली हर रस्ता अपनी कहानी खुद कहता है। आँख पर पट्टी बाँध एक छेद भर से झंका देने से आप पहचान जाएंगे गली। बताशों और बूरे के ठेर हैं तो बताशे बूरे वाली गली… तस्वीरों के अंबार दिखे तो तस्वीर वाली गली… बेहिसाब वैराइटी की नमकीनों के पहाड़ तो नमकीन वाली गली …. और ऐसे ही अनगिनत नाम वाली गलियाँ। जिस रस्ते में अभी वो घुसा है इसमें कभी हर कदम पर खेजड़े के पेड़ हुआ करते थे, तो नाम पड़ा खेजड़ों की गली। अब यहाँ हर कदम पर दुनिया जहान में निर्यात होने वाली संगमरमर की मूर्तियां और उन्हें तराश्ते सफ़ेद गर्द में लिपटे कारीगर नज़र आते हैं सो लोग भी इसे मूर्तियों वाली गली कहने लगे। खेजड़े कब और कैसे गायब हुए किसी को पता नहीं। हाँ! ये सबको याद है कि कभी थे।
टक टक छन छन घिस घिस करऱ करऱ की आवाजे… सब तरफ और उन्हीं के बीच गजब तल्लीनता और सुकून से मूर्तियाँ पेंट करते कारीगर। अगर पत्थर तल्लीन न हो तो क्या मूर्तिकार का मूर्ति बनाना सम्भव होगा! दुनिया के सारे भगवानो की एक दुनिया बसी है इस गली में। आकार पाने की प्रक्रिया कुछ न कुछ कुरेद छोड़ती ही है। उसी कुरेद के दर्द सा खामोश सफ़ेद गर्दा गली में उड़ रहा था। बड़े से शोरूम के ऊपर स्टार मूर्ति म्यूजियम का बोर्ड देख वह अंदर घुस गया।
मालिक की सीट खाली थी। मैनेजर ने बताया कि आपका इंतजार करते, बस अभी गए हैं कारखाना तक, आते ही होंगे। वैसे गौरैया तैयार हैं आप देख लो। मैनेजर के पीछे गया। 6इंची से लेकर 11 फुट तक के देवी देवताओं से अटा हॉल। एक कोने में कई सारे बजरंगी। एकदम चुप। उसने हँसी उछाली… तो भी चुप….।
एक दीवार पर लगी बड़ी सी तस्वीर में सफ़ेद बर्फ की नदी पर बर्फ उछालते खिलखिलाते युवा जोडे पर उसकी नज़र अटक गई। उसे उधर देखता देख मैनेजर बोला- असल नहीं है।
बर्फ या जोड़ा?
मैनेजर हँसा। बर्फ। संगमरमर का बुरादा है। स्लरी…किशनगढ़ में… साहब बुकिंग कराते हैं जोड़ों की प्री वैड शूट के लिए। बगैर हिलस्टेशन जाए कम खर्च में पूरा मजा। मैनेजर हँस दिया।
पत्थर फेंक कर मजा?
मैनेजर फिर हँसा – जो हाथ में है वो असल है… आइस बॉक्स वाला।
उसकी स्मृति में, उसे नाम तो याद नहीं लेकिन वृंदावन के किसी मंदिर के बाहर अहाते में लगा वो पेड़ आ गया जिस पर अनगिनत असल गौरैयाएँ मौन साधना में बैठी देख एक पल को उन्हें बुत समझ बैठा था वह।
हँसी असल है या…. उसने पूछा तो मैनेजर हँस दिया जोर से।
असल नकल में उलझा वह मैनेजर के पीछे हॉल के दूसरी ओर की खुली जगह में निकला।
पुरानी टूटी फूटी मूर्तियों का पठारी सा पहाड़ .. और उन्हीं के बीच फंसी अटकी मिट्टी में जड़ें जमाए खेजड़ा। शायद आख़री।
खेजड़े की डालों पर लटकी गौरैया तोता मोर उल्लू। शाखों पर टिके बंदर भालू और चीता भी। बीच-बीच में नन्हें मेंढक कछुए गिलहरी लेडीबग। उसने ढूंढा, चमगादड़ नहीं था।
चमगादड़ नहीं बनाते। उसके मुँह से निकला।
छी-छी चमगादड़ कौन खरीदेगा!
एक शाख से लटकी गौरैया की ओर इशारा कर मैनेजर ने कहा – ये रहीं आपकी।
उसने देखा-खुली चोंच और भूरी काली धारियों वाली गौरेयाँ। अनकही अनसुनी चीं चीं चिर्र चिर्र उनकी खुली चोंच में अटकी है, बल्कि खेजड़े पर लटके या टिके हर जीव के गले में अटकी है।
उसे गौरैया में कोई कमी न दिखी सिवाय चूँ चूँ चिर्र चिर्र के, सो पैक करवा लीं। गाडी तक की वापसी में कुछ मसाले आचार पापड़ जैसी कई चीजें बटोरी। फुटपाथ से दो नेकर और टीशर्ट भी खरीदी। गाड़ी तक आते आते वह पूरी तरह लदा-फदा था। लदा सामान पिछली सीट पर उतारा और लदी फदी अजब सी संतुष्टि के साथ मुँह से निकली हाआआsss के साथ सीट पर टिक गया। बैलगाड़ी की स्पीड से बगैर खीजे क़रीब 1बजे घर पहुँचा।
पत्नी के गुस्से के बावजूद बड़ी तसल्ली से एक एक सामान को निकाला परखा सहलाया और हर बार खुद के भीतर से उठती चूँ चूँ चिर्र चिर्र को सुना और सहेजा।
संगमरमर की पांचो गौरैयाँ आम के पेड़ पर टाँग दी गई। महीना भर बाद आम का मौसम आने को था और श्रीमतीजी को उम्मीदों पर पानी फिरता नज़र आ रहा था। एक दिन फिर से श्रीमतीजी की चीख से नींद खुली। डरी सहमी आँखें फाडे बोली – दो चमगादड़!
सिद्धांष सांकृत को फिर याद किया गया जिन्होंने एक नया टोटका थमा दिया।
दो तीन असल गौरैया लटका दो पेड़ पर पिंजरे में डाल। उसे मूर्ति म्यूजियम में आइस बॉक्स वाली आइस याद आई और वो हँस पड़ा और हँसता ही रहा… जोर जोर से।
श्रीमतीजी तब से असल गौरैया ढूंढने में लगीं हैं और वह ज़ब तब अपने भीतर चीं चीं चिर्र चिर्र भरने चाँदपोळ्या बनने निकल पड़ता है।
गौरैया टोटका पेड़ पर काम न किया हो लेकिन उस पर तो कर ही गया था।
(कथादेश कथा सामाख्या 2023 में चयनित कहानी)