नियुक्ति का पत्र हाथ में लिये वह खुशी से स्वयं को संभाल नहीं पा रही थी। कितनी ही बार पढा उसने पत्र को। क्या सचमुच यह नियुक्ति पत्र ही है? सपना तो नहीं देख रही मैं? नहीं यह सपना नहीं हकीकत है। उसने घर के दरवाजे खोल दिये। ठण्डी हवा के झौंके सुखद तो लग रहे थे। सामने खेलते हुए बच्चे, आकाश में उडते हुए पखेरू सभी कुछ प्रसन्नता तथा रोमांच से भरा लग रहा था। यकायक ही उसको अपना चेहरा, आंखें, चाल, बाल सब कुछ खिला खिला खूबसूरत तथा आत्मविश्वास की चमक से चमकता सा लगने लगा। अपनी पढाई और डिग्री की सार्थकता आज जाकर सिध्द हुई है। किसी सपने का साकार होना कितना कितना सुख देता है – आज अनुभव कर रही है वह। कब से इस घर में कुछ नया नहीं हुआ है। इसीलिये नौकरी लगने की खुशी में एक छोटा सा आयोजन करना है। किस किस को बुलाना है? किसको खुशी होगी, किसको नहीं? इन चर्चाओं का कोई अन्त नहीं था।
” अब बच्चों का क्या करेंगे? कैसे रहेंगे? किसके पास छोडेंग़े? ” उसे बच्चों की चिन्ता सताने लगी।
” अम्मा को बुला लेंगे।” पति ने सुझाव दिया।
” इतनी सी जगह में वे कैसे रहेंगी? फिर रवि के बच्चे भी तो छोटे छोटे हैं।”
” तुम्हारी सैलेरी मिलेगी अब तो। अपना बडा सा मकान ले लेंगे।”
” हां, यह ठीक रहेगा।”
” अब अपन भी फ्लैट बुक कर देंगे।”
” उसके बाद किश्तों पर गाडी उठा लेंगे। गाडी क़े बिना अच्छा नहीं लगता। स्कूटर पर चार चार लोग बनते भी नहीं हैं। मेघना ने तो इसीलिये अपने साथ जाना छोड दिया है।”

सपनों और आकांक्षाओं ने अंगडाइयां लेनी शुरु कर दीं। इच्छाएं अनेक थीं। सपने बहुरंगी थे। इच्छाओं ने मन की गति को भी तीव्र कर दिया। सपनों ने एक नये स्वप्नलोक की सृष्टि कर दी थी। जीवन में सब कुछ पाने का उत्साह चरम पर था। बडी लडक़ी मेघना चौथी कक्षा में पढ रही थी। छोटा लडक़ा मात्र डेढ बरस का था। एक को रखने की परेशानी थी तो दूसरे को संभालने की।
” मेघना कल से मैं ऑफिस जाऊंगी। बस से उतरकर सीधे घर आना। किसी के साथ कहीं भी मत जाना। अब तुम्हें अकेले रहना होगा।”
” नहीं, मैं अकेले नहीं रहूंगी। मुझे डर लगता है। आप क्यों जाओगी? आपको क्या जरूरत है?”
” जरूरतदेखो कैसे सवाल कर रही है ये लडक़ी? तुम्हारी ही तो जरूरतें हैं बढिया खिलौने, सुन्दर बैग, साइकिल, मैं सब कुछ दिला दूंगी।”
” नहीं मुझे नहीं चाहिये।” मेघना ठुनकने लगी।
” जब नहीं ला पाते थे तो दूसरों से मांग मांग कर खेलती थी। दूसरों की साइकिल छीन कर चलाती थी। तुम्हीं को तो बडा घर चाहिये था जिसमें झूला पडा हो।” वह लडक़ी पर चीखने लगी।

” कोई घर वर नहीं चाहिये। किसी का कोई घर वर नहीं होता। घर तो सिर्फ मां का पेट होता है।” चटाक – चटाक उसने जोर से चांटे मार दिये। गोरे नाजुक कपोलों पर लम्बी उंगलियों के निशान उभर आये।
” उसको क्यों मार रही हो? उसे चीज़ों के लालच से नहीं, समझदारी से समझाओ।”
” डायलॉग मारती है। टीवी देखकर उसी तरह की भाषा बोलने लगी है । एक बात भी है जो चुपचाप मान ले या सुन ले! ”
” मार लो, चाहे जितना मार लो, मैं अकेली नहीं रहूंगी। अत्याचार करती हो, अपने को ज्यादा समझती हो।” मेघना रोती हुई अन्दर के कमरे में बन्द होकर बडबडा रही थी।
” धीरे धीरे आदत पड ज़ायेगी।” पति ने उसे सांत्वना देते हुए कहा।
” औरों के भी तो बच्चे हैं, वे कैसे रहते हैं? मिसेज गुप्ता तो बाहर से ताला लगाकर जाती हैं।”

”हम ऐसा नहीं कर सकते। उनके बच्चों ने शुरु से ही मां – बाप को नौकरी पर जाते देखा है।”
” पूरे दिन के लिये बाई रख लेते हैं।”
बडे ज़ोर शोर से बाई की तलाश आरम्भ हुई। छह सौ रूपये में एक वृध्दा बाई मिली।

सारी दिनचर्या बदल गई। सम्पूर्ण दिन घन्टों में तथा मिनटों में बदल गया। शान्त लम्बी तथा गहरी नींद सुलाने वाली रात्रि सिकुडक़र आधी रह गई। शोते सोते ग्यारह बारह बज जाते। सुबह पांच – साढे पांच उठना पडता। मेघना का टिफिन, बच्चे का दूध, नाश्ता, नहाना – धोना। देखते देखते ऑफिस का टाइम हो जाता। उधर पति पूर्व की भांति आवाजें लगाते – ” अनु, पानी निकाल देना।”
” खुद निकाल लो न?”
” टॉवल कहां है?”
” ढूंढ नहीं सकते क्या? कपडों के बीच पडा होगा। थोडा पहले तैयार नहीं हो सकते थे?” वह चिढक़र कहती।
” तो क्या फर्क पडता है?”
” मुझे फर्क पडता है न! ”
शाम को जब ऑफिस से वापस आती तो लगता ही नहीं कि अपने घर में लौटी हो। चारों तफ खिलौने, बर्तन, कपडे तथा किताब फैली होतीं।
” बाई यह सब क्या है?” वह झुंझलाने लगती है।
” क्या करुं मैडम, आपके बच्चे बहुत परेशान करते हैं। बेटा दिनभर रोता रहता है। बिटिया स्कूल से लौटते ही एक एक चीज फ़ैला देती है। दिनभर लडती रहती है। देखिये कितने बाल खींच दिये दोनों ने मिलकर।”

” मम्मी, मैं इस बाई के साथ नहीं रहूंगी, यह गन्दी है, चुडैल है। मारती है। चिकोटी काटती है। देखो भइया को भी मारती है।”
” क्यों बाई?”
” ऐसा है तो छुडा दो मुझे।” बाई धमकी भरे अन्दाज में आ जाती है।
” नहीं – नहीं।” वह हडबडा जाती है। आया नहीं आयेगी तो ऑफिस कैसे जायेगी? छुट्टी ले नहीं सकती। नयी नयी नौकरी है, इम्प्रेशन खराब होगा, फिर अभी तो प्रोबेशन पीरियड चल रहा है।
” देखो बेटा, बाई की बेइज्ज़ती नहीं करते। उसके साथ तमीज से पेश आया करो।”

” वह गन्दी है, बदबू आती है उसके कपडों से। खाना छू लेती है। इधर आप कहती हो साबुन से हाथ धोकर पानी पिया करो उधर बाई बिना हाथ धोए पानी भर लेती है, भगा दो उसे।” मेघना बिना रुके बोलती जाती।
” चुप रहो, जिद्दी हो गई हो। कितने घरों में बाइयां रहती हैं, उनके बच्चे कैसे रहते हैं? बात नहीं मानेगी क्या?” उसने चिल्लाकर कहा। द्याह देख रही थी कि वह मेघना को जितना खुश रखने की कोशिश करती है, मेघना उतनी ही उद्दण्ड होती जा रही है। लडक़ा भी बीमार बच्चे की तरह हर समय रोता रहता है। हे, भगवान, नौकरी करके मैं ने गलती की है। बच्चे यूं बिगडते जा रहे हैं। कोई अनुशासन रह नहीं गया है। संस्कार तो जैसे हैं ही नहीं। मुझे क्या पडी थी। सब कुछ हाथों से छूटता जा रहा है वह गहरी हताशा तथा पीडा में डुब जाती। पर वह जीवन भी क्या था, नीरससपनों से महरूम, इच्छाओं रहित। आइसक्रीम खाना एक स्वप्न की तरह लगता था। नये नये कैसेट सुनने के लिये खिडक़ियां खोलकर खडे रहना पडता था। पत्रिकाएं लेने के लिये दूसरों का मुंह देखना पडता था। नयी किताबें तो मुद्दत हुई खरीदे हुए। उसकी नौकरी लगने से कितना बदलाव आ गया है। नये परदे, नये कपडे, छत पर गमलों में गुलाब लग गये हैं। तीन पत्रिकाओं के लिये चन्दा भेज दिया है। मनपसन्द अखबार आने लगे हैं। उसे सचमुच घृणा होने लगी है, पुरानी बदरंग चीज़ों से। उसे नफरत है अभावपूर्ण जिन्दगी से। वह स्वभाव से मस्त और नफासतपूर्ण जिन्दगी की कायल है। उसका हमेशा से यह मानना रहा है कि तिल तिल करके घुटने से अच्छा है कि मेहनत करके पैसे कमाये जायें। वही उसने किया भी। पढाई में एक लक्ष्य रहता था, सपना रहता था स्वयं को लेकर। जिन्दगी को लेकर। लेकिन बच्चों बच्चों को यूं जिद्दी तथा चिडचिढा होते देख कर हताश हो उठी है वह। सम्वेदनशील तथा कोमल हृदय की मां की भावनाओं के साथ द्वन्द्व चलता रहता है उसके मन में जो बच्चों के हर ख्याल तथा भावना के साथ सरोकार रखती है। मन पछतावे से भर उठा – क्यों मारा बच्चों को। कहीं ऐसा तो नहीं, आया सचमुच बच्चों को मारती हो, उनका दूध भी पी जाती हो। मुझे बच्चों की बातें भी माननी चाहिये। मैं उन पर विश्वास नहीं करुंगी तो वे मुझ पर विश्वास रखेंगे?
” क्या करुं बेटे को क्रेच में डाल दूं?”
” वहाँ भी वही हालत होगी।”
” वहाँ कई बच्चे होंगे, वो लोग ठीक से रखते भी है।”
” और मेघना को?”
” उसको डे बोर्डिंग स्कूल में डाल देते हैं।”
” फायदा क्या है, जितना कमायेंगे उतना तो इसी सब में चला जायेगा।”
” तो कमा किसके लिये रहे हैं?

कई क्रेच देखे गये। एक क्रेच घर के पास में ही था। जब वे दोनों देखने गये तो क्रेच साफ सुथरा था। कमरे में पलंग पडा था। कूलर रखा था। क्रेच चलाने वाली औरत जवान, सुन्दर साफ सुथरी तथा हमेशा हंस हंस कर बातें करने वाली विधवा औरत थी। उसके दोनों बच्चे स्कूल जाते थे। उसके पास फिलहाल तीन बच्चे रहते थे। पति – पत्नी औरत के व्यवहार से बेहद प्रभावित हुए। उन्हें राहत मिली की चलो, बच्चा अच्छी जगह रहेगा। दूध की बॉटल, पानी की बॉटल, लन्च बॉक्स, कपडे वगैरह रखकर जब वे सुबह बच्चे को छोडने जाते तो औरत जिसका नाम विमला था, दरवाजे पर हंसती हुई मिलती। चन्दन का तिलक उसके चौडे माथे की सुन्दरता को बढा देता था। लेकिन जैसे ही मां बाप जाते विमला बच्चों को पलंग से नीचे उतार देती, ” नीचे उतरो। खेलो। रोना नहीं। चुप रहो।” विमला का हंसता हुआ चेहरा दहशत पैदा करने वाला चेहरा बन जाता। गम्भीर आवाज सुनकर बच्चे सहम जाते। तीन बच्चे बडे थे। यही बच्चा सबसे छोटा था। इस बच्चे की दूध की बोतल से वह दूध निकाल कर चाय बना लेती। कूलर बन्द कर देती। बच्चे गरमी के मारे बेहाल हो उठते। इस बच्चे को बिना कूलर के नींद नहीं आती थी। गरमी से बेहाल बच्चा बाहर को भागता – ” बाहर मत निकल। क्यों गया था? बोल, दुबारा जायेगा।” वह आंखें तरेर कर अपना रूप बदल लेती। तब बच्चा गुस्से में क्यारियों में लगे फूल तोड देता। तब तो जैसे शामत आ जाती। ” क्यों तोडा फूल? फिर तोडेग़ा? दीदी बहुत मारेगी।” बच्चा सांस रोक कर सिसकियां दबा कर सहम जाता। डरकर पैंट में पेशाब कर देता फिर डांट पडती, ” चल उतार, गन्दा कहीं का।” छुट्टी होते ही विमला के बच्चे घर आ जाते तब उन दोनों की दादागिरी से भोला भाला बच्चा त्रस्त हो जाता। ” देखों मां ये मेरी किताबें छू रहा है। चल हट यहाँ से। चालाक कहीं का।” लडक़ी बच्चे को जानवरों की तरह घसीटती हुई ले जाती – ” मेरे फूल तोडे थे, फिर तोडेग़ा। किताब फाड दी।” चट – चट गालों पर कितने ही चांटे पडते। ” क्या करती है तू? निशान दीखेंगे तो उसकी माँ नहीं रखेगी। सब जगह बता देगी।” विमला बच्चे के गालों पर मालिश करती, ” गालों पर मत मार, डांट दिया कर।”

शाम को जैसे ही मां बाप के आने का वक्त होता विमला बच्चे को तैयार कर देती, ” यह सुस्त क्यों है? क्या बात है? बच्चों ने मारा तो नहीं? खाना तो ठीक से खाता है? दूध पीता है? ” वह बच्चे को उदास देखकर चिन्तित हो जाती।
” हाँ, हाँ भाभी पर रोता बहुत है। आदत नहीं है अभी, चुपचुप रहता है। मैं अपने हाथों से खाना खिलाती हूँ पर नहीं खाता।”
” दिन में तो लाइट रहती है ना? इसे कूलर में सोने की आदत है।”
”हाँ, कूलर तो दिन भर चलता है।” विमला के भोले भाले चेहरे पर झूठ की लकीरें छुप जाती थीं। वह अपनी सयानी बातों से स्वयं को निर्दोष साबित कर देती। भच्चे के गिरते हुए स्वास्थ्य तथा सहमेपन से माता – पिता दोनों चिन्तित थे। पर इसके अलावा कोई चारा नहीं था। लौटते वक्त मेघना को लेना पडता था। उसका होमवर्क देखने का वक्त ही नहीं मिलता था। डायरी में हर रोज कोई न कोई रिमार्क लिखा आता। हर कॉपी में नोट लिखे थे। टीचर ने कई बार बुलाया था, डर के मारे मेघना ने बताया नहीं। वह पढाई में अच्छी थी लेकिन इस वर्ष काफी पीछे हो गयी थी। मां बाप की सहूलियत के हिसाब से बच्चे यहां वहां फेंके जा रहे थे, जहाँ उनका एडजस्टमेन्ट नहीं हो पा रहा था।

” स्वयं पढने की आदत डालो। क्या और बच्चों के मां बाप नौकरी नहीं करते? वे भी तो क्लास में अच्छी रैंक लाते हैं वे कैसे पढते हैं? बात मानते हैं। अनुशासन में रहते हैं। अपना काम स्वयं करते हैं। ये तो उद्दण्ड हुए जा रही है।”
” अपन एक अच्छा सा टयूटर लगा देते हैं।”
”उससे क्या होगा?”
” हम लोग टाइम नहीं दे पाते हैं। इसलिये पढाई में यह पिछड रही है।”
” चार – पांच सौ रूपये से कम नहीं लेगा।”
” देंगे, क्या करें? बच्चों का भविष्य बर्बाद थोडे ही न करना है।”
” नौकरी से उतना नहीं आ रहा, जितना खर्च हो रहा है।”

यह मलाल उसके मन को व्यथित कर देता। पर सैलेरी मिलने पर मन पसन्द चीजें खरीदने का सुख इन तमाम परेशानियों को भुला देता था। किसी भी होटल या रेस्टोरेन्ट में दो घण्टे बैठकर खाना खाने में जो आनन्द मिलता है वह कहीं न कहीं एक संर्घषशील चेतना से उपजा आनन्द होता है। अब बच्चों को किसी चीज क़े लिये तरसना नहीं पडता है। जीवन में यह सन्तोष तो रहेगा कि बच्चों के लिये जो सोचा वह किया है। लेकिन पहले बच्चे को जुकाम नहीं रहता था, अब चौबीसों घण्टे नाक बहती रहती है। कई बार उसकी सांस फूलने लगती है। वह हमेशा डरा सहमा रहता है, छोडते वक्त वह मां को इतनी जोर से पकड लेता था कि उसे छुडाना मुश्किल हो जाता था, या ऑफिस जाते वक्त वह दरवाजे को बाहर से बन्द कर देता था, स्वयं कमरे में बन्द हो जाता था। तब उसने दूसरा रास्ता निकाल लिया था, सोते हुए बच्चे को चुपचाप छोड क़र चली जाती थी। जागने पर बच्चा आस पास मां को न पाकर दहाड मार कर रोने लगता। विमला आंखें निकाल कर होंठ भींच कर उसे चुप कराती तो उसकी घिग्घी बंध जाती। एक चेहरा जिसके बारे में वह कुछ भी कह नहीं पाता है, वह उसे भय तथा धमकी से डरा देता था। इस प्रकार बच्चा अन्दर से लगातार लडता रहता था उस चेहरे के आतंक से लगातार वह उसे अनदेखा करता।

आज विमला के घर में बच्चा पहली बार हल्का सा मुस्कुराया था एक रंगीन डॉल को देख कर। यद्यपि बच्चे के पास हर तरह के अनगिनत खिलौने थे, मगर उस डॉल की मुस्कुराहट में कुछ ऐसा था कि बच्चा उसकी तरफ खिंचा चला गया। बच्चे ने डॉल उठा ली। पहले डरते डरते छुआ, फिर उसके साथ खेलने लगा। वेलवेट पेपर से बनी डॉल के कपडे निकल गये। हाथ अलग हो गये। मुण्डी अलग हो गयी। मगर बच्चे को इन्हीं सबके साथ खेलने में मजा आ रहा था। वह डॉल को पुन: पुन: जोडने की कोशिश करता मगर डॉल तो कई हिस्सों में बंट चुकी थी। विमला की लडक़ी ने देखा तो जोर जोर से चिल्लाने लगी। फिर बच्चे को घसीट कर बाहर ले गई, जमीन पर धक्का मार कर लेटा दिया। गाल पर चांटों के निशान आ जाते इसलिये पीठ पर कई मुक्के मार दिये। बाल इतनी जोर से खींचे कि कुछ बाल उसकी उंगलियों में फंस गये।

” पागल, मार डालेगी क्या? मर जायेगा तोछोड दे।” विमला ने लडक़ी को परे धकेला। इतनी मार उठा पटक के कारण बच्चा सांस साध कर रह गया। उसकी आंखें ऊपर चढने लगीं।
” पानी ला, कुछ हो गया तो, सारे लोग अपने बच्चे वापस ले लेंगे। वैसे भी वह कमजोर है। मैं ने डांट दिया था। निशान तो नहीं आये पीठ पर? कूलर चला दे।” बच्चे की सांस सामान्य नहीं हो पा रही थी। उसने पीठ थपथपाई सिर पर हाथ फेर ा, तब कहीं जाकर बच्चा सांस लेने की स्थिति में आ सका। अब उसने जोर जोर से रोना शुरु कर दिया। क्या करुं मैं? वह घबरा उठी। बाहर ले नहीं जा सकती थीपडोसवालों को आवाज सुनाई देगी तो वे पूछने लग जायेंगे। उन्होंने शिकायत कर दी तो? उसके हाथ पांव फूलने लगे। कभी पानी पिलाती तो कभी दूध, तो कभी छाती से चिपका कर पुचकारती, लेकिन बच्चा था कि चुप नहीं हो रहा था। और न जाने किस पल अधैर्य होकर उसने बच्चे को पलंग पर पटक दिया- ” चुप हो जा मेरे दादा, बिलकुल चुपवरना मारूंगी मैं इस लकडी से, समझे।” वह शक्तिभर चिल्ला रही थी और बच्चा डर से थरथराता खामोश होकर पलंग पर औंधा पडा था।

शाम को मां को देखते ही बच्चे की रुलाई फूट पडी, ज़ैसे रोकर ही वह अपनी बात कह रहा है।” क्या बात है? क्या हो गया? यह इतना सुस्त क्यों है? इसे तो बुखार है। क्या गिर पडा था? झगडा तो नहीं हुआ किसी के साथ? विमला गई क्या जवाब दे?

” नहीं भाभी नहीं, खेलते वक्त गिर गया था यह।”
” कहाँ से? पलंग से? चोट तो नहीं लगी?” उसने पीठ पर हाथ फेरा तो बच्चा कराह उठा, मुक्के की अनदेखी चोट दर्द दे रही थी
” यह क्या, किसने खींचे इसके बाल?” वह बिफर कर बोली, ” इतने जोर से बाल खींचे कि उसके बाल उखड ग़ये हैं, मैं तुम्हारे भरोसे छोड क़र जाती हूँ  मगर यहां तो बच्चा अनाथों की तरह पडा रहता है।”
” आपस में लड रहे थे भाभी।” विमला हकलाते हुए रुंआसी होकर सफाई देने लगी। उसे लगा अब सारी बातें खुल जायेंगी। ” मैं ने सबको खूब डांट दिया है।” कल से इसे अलग रखूंगी।” विमला घिघियाते हुए बोली।
” तो क्या तुम भी बच्चों को मारती – डांटती हो?”
” नहीं भाभीशैतानी करते हैं तो डांटना पडता है।”
” चलो देर हो रही है, बच्चों की बातों को लेकर इतना टेंशन नहीं करना चाहिये। बच्चे तो गिरते पडते रहते हैं। वरना मजबूत कैसे बनेंगे? बच्चे का पिता सहज ढंग से बोला जैसे कुछ हुआ ही न हो। विमला की आंखों में तैरते आंसू उसकी बातें सुनकर सूखने लगे। कोई तो है जो उसका पक्ष ले रहा है। बच्चा तीन चार दिन तक बुखार में तडपता रहा। मां को पलभर के लिये छोडता न था। अचानक डर कर कांप जाता था। जोर की आवाज सुनकर दुबक जाता था।
” लगता है विमला बच्चों को डराती है।”
” बेचारी कितने प्यार से तो रखती है। देखा नहीं कैसे पीछे पीछे लगी रहती है।”
” फिर क्या हो गया है इसे? दवाइयां दे रही हूँ, नजर उतरवा दी है। फिर भी ठीक नहीं हो रहा।”
”मौसम ही ऐसा चल रहा है।”
” कल तुम छुट्टी ले लेना।”
” नहीं, मैं नहीं ले सकता।”
” मैं लगातार तीन दिन से छुट्टी पर हूँ।”
” बॉस से बोल देना बच्चा बीमार है। बॉस भी जानता है कि बीमारी में बच्चे को मां की जरूरत होती है।”
” किस शास्त्र में लिखा है ऐसा?” वह चिढक़र बोली।
” मां होकर इतना भी नहीं समझती हो।”
” मां होकर सब कुछ समझती हूँ। यही तो मेरे दुख का कारण है जबकि तुम्हें कुछ समझ में ही नहीं आता है।” वह मन ही मन चिढ क़र बोली।

चार – पांच दिन बाद बच्चा थोडा स्वस्थ हुआ। मां के पास रहकर हंसता – खेलता पर जैसे ही अपरिचित औरतों को देखता जाकर छुप जाता। हर औरत में उसे विमला नजर आने लगी थी। सबके बीच हंसती हुई मगर एकान्त में  आंखें तरेरतीमार का भय दिखाती। लकडी से टोंचती, मारती विमला का साया सोते जागते उसकी अन्तश्चेतना पर खडा  आंखें दिखाता रहता था।

छठवें दिन बच्चा फिर तैयार किया जा रहा था। टिफिन बोतल दवाइयांफल आदि से भरा थैला लिये बच्चे का पिता मुस्कुराता हुआ झूलाघर के सामने खडा था और उधर मां जबरदस्ती बच्चे की बांहें छुडाने के प्रयास में कभी बच्चे को पुचकारती तो कभी समझाती तो कभी डांटती। अन्तत: जब बच्चा किसी भी तरह नहीं माना तो एक चांटा मार कर पलंग पर पटक कर चल दी। बच्चा पहले तो चीख चीख कर रोया  मगर मां का साया अदृश्य होते ही सहम कर चुप सा हो गया, कहीं फिर से मार न पडे। ईस सबसे बेखबर विमला जल्दी जल्दी टिफिन खोलकर देखने लगी कि आज उसके बच्चों को खाने के लिये नया क्या मिलेगा ।

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आज का विचार

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

आज का शब्द

मोहर Continuous hard work is the cachet of success in the life. निरंतर परिश्रम ही जीवन में सफलता की मोहर है।

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