रिक्शों के हुजूम में मेरा रिक्शा भी बहुत धीरे ही सही मगर आगे बढता जा रहा है। भीड इतनी है कि पैदल चलो तो कंधे छिलें। रिक्शे भी आपस में उलझ रहे हैं। अब तो यहां भीड और बढ ग़ई है। मैं फिर लौट रहा हूँ वहां। उस एक गली में, जिसकी पहचान उसमें रहने वाली उन कुछ औरतों से थी..और शायद अब भी है। जिनके सर्वसुलभ जिस्मों की महक हवाओं में सूंघ कर न जाने कहां – कहां से लोग आते थे। सामान लाद कर मुम्बई आए ट्रक ड्राईवर सुदूर प्रदेशों से रोजी की तलाश में परिवारों को पीछे छोड आए मजदूर, कामगार निचले तबके के अपनी औरतों से उकताए लोग यह गली हमेशा अनजाने चेहरों के हूजूम से घिरी रहती थी। ये चेहरे तरह – तरह का शोर मचाया करते थे। समय कोई भी तय नहीं था। हर वक्त एक भूख में बिलबिलाते चेहरे।
मुझे जहां जाना था वह एक तीन मंजिला पीली इमारत थी। ढहती हुई सी। जिसके छज्जे लटके हुए थे। अनैतिकता वहां खुले सर घूमती थी।तरह – तरह के गलत – सही कामों में – मुब्तिला वहां बहुत से परिवार थे। अवैध शराब बेचने वाले। बहुत निचले तबके के स्मगलर। नशीली दवाओं का धन्धा करने वाले। फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करने वाले, आर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली लडक़ियां। ऐसी कुछ औरतें जो खुल कर शरीर का धन्धा करती थीं। कुछ ऐसी जो चुपचाप – चुपचाप अपने बच्चों से छिप कर, पति या पिता की सहमति से दैहिक सुख के बदले में घर का खर्चा चला रही थीं। बहुत कम कीमत पर।आह! इतनी कम कि !
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ऐसी पीली इमारतों की एक श्रृंखला थी। पीली इमारतों के आगे दलाल(जो अकसर उनके पति या प्रेमी हुआ करते थे) और ग्राहक वहां की औरतों के जिस्म भाव ताव करते। गहरे – अंधरे कमरे। सीलन और बदबुओं से गंधाते। ग्राहकों की प्रतीक्षा में।
उन पीले घरों की परछांइयों में एक आतंक और डर भी थरथराता था। कई बार वहां चाकू चल जाते। बलात्कार होते।
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कभी – कभी मैं हैरान होता हूँ, यह सोच कर कि वह एकदम सही माहौल था जो मुझे नशीली दवाओं का आदी बना सकता था। या फिर मैं किसी ‘पैडिफिलिस‘ यानि बच्चों का यौनशोषण करने वाले आदमी या औरत के हाथों रबर के गुड्डे की तरह तोड – मरोड दिया जा सकता था। पूरी गुंजाइश थी उस माहौल में कि दुरगा जैसी कामुक औरत मुझे फुसला लेती या डेविड के गोद में बिठाने वाले खेल मुझे बरबाद कर देते।उस चाल के और बच्चों जैसा ही कोमल शिकार था मैं भी। उस जगह के घातों – प्रतिघातों के प्रति सदा छठी इन्द्रीय जाग्रत रखे हुए ‘जमना‘ मुझे आगाह करती रहती थी। इसके पास मत जा,उसके साथ बात नहीं…इसके कमरे गया तो देखना….उसके साथ खेला तो। फिर भी मैं इन भयावह कल्पनाओं में जीने लगता हूं कि ऐसा हुआ होता तो…क्या होता ? मुझे अजीब का पीडादायक सुख मिलता है इन कल्पनाओं में। मैं अपने अंतस के खाज भरे कोने खुजला कर लहुलुहान कर लिया करता हूं। मीठा दर्द और मीठा सुख।
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‘कश्टमर‘ शब्द उस गली के हमउम्र बच्चों के बीच एक डरावना शब्द था। एक पिशाच जो औरतों का गला दबाया करता था। औरतें उसकी गिरफ्त में कराहतीं थीं। एक पिशाच जिसके न आने से — कभी कटोरदान में रोटी कम पड ज़ाती थीं या फिर बचती तो सब्जी या शोरबे के बिना ही खानी होती थीं। किवदंतियां जुडी थीं इस शब्द से। पहली बार जब यह कान में पडा तो मेरे अलावा बाकि बच्चों को कुछ भी अटपटा नहीं लगा। हम सब बच्चे रात को साढे दस बजे बिल्डिंग की बालकनी में खेल रहे थे। तभी ऊपर आकर छोटू दलाल बोला था — स्साले रण्डीखाने की औलादों ये कोई खेलने का टैम है। तुम पर तो अफीम भी अब असर नहीं करती। जाओ जाकर सो जाओ। कश्टमरों का टैम है ये।
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मैं ने ‘कश्टमर‘ कभी नहीं देखा था। एक बार मैं स्कूल से लौटा तो देखा वो किसी आदमी को जल्दी – जल्दी कमरे से धकेल रही थी। मैं ने पूछा, ” ये ही कश्टमर था क्या ?” वह फटी हुई आंखों से मुझे देखती रही और बिना खाना दिए बिस्तर पर धम्म गिर गई। मैं शाम तक भूखा बैठा रहा। उसके संदूक में रखे पुराने एलबम में पीली पडी हुई तस्वीरें देखता रहा। सारे चेहरे अजनबी। एक तस्वीर में कुछ औरतें थीं, उनमें से एक उसकी मां थी। एक फटा चित्र था जिसमें वह थी दूसरे की आधी बांह ही दिख रही थी।
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वह इस गली की सारी औरतों से अलग थी। ऐसी जो जिन्दगी अपनी तरह से, अपनी शर्त पर जीती हैं। चाहे वह गलत हो कि सही। ऐसे में अनपढ होना कोई मायने नहीं रखता। बचपन में भी उसका ऐसा कडक़ होना मुझे खुशी देता था। वह सबके सामने चुप्पी सी रहती। अकेले में बहुत बातें करती। वह अपने डर बांटती जिन्हें मैं बहादुर बच्चे की तरह दूर करने की कोशिश करता। वह झगडती अपनी रोजमर्रा की जरूरतों से। तरह – तरह के काम पकडती छोडती। कभी कपडा धोने का साबुन घर – घर बेचती। कभी साडियों के फाल लगाती रात रात तकया मालिश करती औरतों की।
जिन्दगी को दी अपनी संपूर्णता का मोल वह नहीं जानती थी। उसकी नुची – कुतरी हुई संपूर्णता का अहसास उसे तभी होता था जब वह नोची या कुतरी जा रही होती थी। जिन्दगी के साबुत टुकडे क़ा नोचे – कुतरे जाने का सिलसिला कब शुरू हुआ , यह उसकी याददाश्त में धुंधला पड चुका है।
अब वह बिस्तर पर पडी है। मैं उससे रू – ब – रू हूं। वह मुझसे आंख नहीं मिलाती। मैं अपने मन की खोह में घुस कर खुदाई करके इस औरत से अपने अटूट सम्बन्ध की जड ख़ोज रहा हूं। मैं खिडक़ी से बाहर देखता हूं लगातार, बूढे पेड बेचैनियों में अपनी डालियां हिला रहे हैं। धूल और धुंए से उनकी पत्तियों का हरा रंग सलेटी हो गया है। जडें सडक़ का कोलतार फोड कर बाहर आकर सांस लेना चाहती हैं, भीतर नमी नहीं है, न लवण हैं। प्यासी सी रेत है। अटपटी हालत में हैं पेड, इस हैरानी में कि वे यहां कैसे पहुंचे? उन्होंने जब बीज में से सर उठाया था तब यहां एक जंगल का मुहाना था। अब यहां भीड है आस – पास भरे पूरे बाजार हैं और हैं गलियों के गुंजल।
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आस – पास की महक से बुरी तरह उकताया – सा मैं उसे देखता हूं।उसकी कुतरी हुई संपूर्णता के साथ उसकी जिजीविषा उसके माथे पर जल – बुझ रही है।
यह औरत जीवंत थी मेरे सपनों में। मेरे बचपन में। इसकी और मेरी उम्र में महज पन्द्रह सालों का फर्क है। मेरे बचपन में यह भी किशोरी थी। स्कूल का रास्ता उसकी बातों से महकता। मेरा बस्ता थामे वह दो मील चलती थी
मैं उससे कहता कि चाल के और बच्चों की मैं भी वहीं पास के सरकारी स्कूल में पढूंग़ा। इतना चलना नहीं पडेग़ा।
” तू अलग है उन सब से। और देख मैं भी।”
भीड और धुंए से भरा रास्ताआगे चल कर जंगली फूलों से भरा जंगल बन जाता। उसकी बातों से वह रास्ता मजेदार हो जाता था। स्कूल की गली आने से पहले ही वह पलट जाती। मैं चीखतास्कूल के गेट तक चलो। वह गुर्रा कर मना कर देती, ”मुझे और काम नहीं है क्या?” उसका मुलायम चेहरा रूखा हो जाता।
मैं पूरे बचपन इस औरत का मुरीद रहा। नायलोन की सस्ती साडी और सूती सलवार – कुरते में भी परी लगती। उसका सांवला रंग, घुंघराले बाल, बडी आंखों के नीचे के स्याह घेरे, उसकी मांसल पीठ, उघडे पैर और गले की उभरी हड्डी। सब कुछ।
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मुझे इस पर बहुत गुस्सा आने लगा था बाद में। मुझे स्कूल छोडक़र पता नहीं कहां जाया करती थी वह।उसने साबुन बेचना, वेश्याओं की मालिश करना बन्द कर दिया था। स्कूल से लौटता तो वह कभी कमरे पर नहीं मिलती। शाम को वह मेरी चीख – पुकार सुनती और अपनी मुस्कानों से मेरे बचकाने गुस्से के खारेपन को सोखती जाती। पाव और दूध का कप पकडा कर मुझे प्यार से देखती। वह बहुत खुश रहने लगी थी।
पन्द्रह साल का होने तक तो मैं बहुत कुछ बल्कि सब कुछ समझने लगा था। अंग्रेजी स्कूल और यह परिवेश मेरे भीतर विषमता की एक बहुत बडी ख़ाई खोद रहा था। मैं घनेरे असमंजस में था मेरे व्यक्तित्व के भीतर पता नहीं क्या बन – बिगड रहा था। स्कूल में किसी बच्चे से झगडा होने पर मैं अचानक फाहशा औरतों के मुंह से निकलने वाली भाषा बोलने लगता और फिर पी टी सर के हाथों पिटाई होती। यहां चाल के लडक़ों से एकदम अंग्रेजी बोल पडता तो मजाक बनता। वहां नन्स और फादर। यहांपेटीकोट में घूमती औरतेंदूसरी मंजिल में उसके कमरे तक पहुंचने वाली, पेशाब की मंद गंध वाली सीढियों के बीच ही देह और उसके गुह्य रहस्यों को लेकर नित नई कक्षा लगी होती। कामुक आवाजों, गंधों और गालियों से कमोबेश मैं सुन्न हो चला था।
एक दिन हम दोनों लेटे – लेटे हल्की रोशनी में डूबे कमरे के कोनों में अंधेरे की बनती बिगडती आकृतियों को घूर रहे थे कि वह बोली।
”मुझे पता है तेरे मन में बहुत सवाल उठने लगे हैं आजकल।”
””
”आज तू सारे सवाल पूछ ले जो तेरे मन में उठते हैं।”
मैं बहुत देर चुप रहा फिर एक सवाल जो मेरी आधी आत्मा कुतर चुका था, उसे मैं ने मन के बिल से निकाल फेंका।
”तेरी शादी हुई थी”
”नहीं।”
”सच्ची – सच्ची बताऐगी ना।”
”हं।”
”खा कसम।”
” खाई।”
” मेरी कसम खा।”
” पागल है क्याकसम कसम है।”
” तो खा न।”
” अच्छा तेरी कसम।”
”तेरी शादी नहीं हुई फिर मैंकहां से कैसे आया।”
”वैसे ही जैसे और इन्सान आते हैं।”
”फिर मैं कोई कश्टमर की औलाद हूं”
” वो सच नहीं है।नहीं।
” तूने सच बताने की कसम खाई है।”
”तू नहीं समझेगा।”
”मैं सब समझता हूं।”
”नहीं समझता।”
”तू बताएगी नहीं पता था।कसम खा के भी पलटेगी।”
” सच। तेरा बाप है। उसका नाम भी है तेरे स्कूल के रजिस्टर में। उसने छोड दिया मुझे।अब उसकी बात की तो देखना। ये अंग्रेजी स्कूल में पढ क़र तू कैसे – कैसे सवाल करता है रे। यहीं के सरकारी स्कूल में पढता तो सवाल नहीं करता। चुपचाप समझने की कोशिश करता।”
सच जानने के बाद तो वह फिल्मों में एक्स्ट्राज क़ा काम करने वाली लडक़ियों, वेश्याओं, दलालों और ऑर्केस्ट्रा और बार में नाचने वाली औरतों वाली उस इमारत से वह निकल भागना चाहता था।
”जमना, यहां से कहीं और जाकर रहें।”
”किराया कहां से देंगे ?”
”इसका कहां से देती है ? इससे छोटा और कच्चा झौंपडा चलेगा पर यह नहीं”
”इसका किराया नहीं देती मैं। ये मेरी मां का कमरा है। खरीदा हुआ।”
”तू तो कहती थी दूर कहीं रत्नागिरी में तेरा घर है। आम के बाग हैं।”
” ऐसे ही । वो धन्धेवाली थी। उसने ही ये कोठरी खरीदी थी।रत्नागिरी में तेरे बाप का घर है। ”
”।”
” और तू भी अब।” उसकी आंखें फिर पथरा गईं और वह बैठे बैठे दीवार पर सर मारने लगी। पहले हल्के हल्के फिर जोर जोर से। मुझे चिढ हुई इस नाटक से।
उस दिन भी मेरे मुंह से ‘कश्टमर‘ शब्द सुनते ही पगला गई थी। शरीफ बनती है।गली के और बच्चे दिनरात ‘कश्टमर‘ की बात करते हैं उनको कोई औरत कुछ नहीं कहती। यह है कि नाटक…
तब से मैं ने उसे कुछ भी कहना पूछना छोड दिया। मुझे शक नहीं यकीन था वह मुझे स्कूल छोड क़र के धन्धा किया करती थी। अगर नहीं करती तो मेरे अंग्रेजी स्कूल की फीस कहां से लाती। रात को परियों की कहानियां सुनाते हुए जरूर उसे अफीम चटाती थी। उसका बटुआ हमेशा दस दस के नोटों से भरा रहता था। एक पासबुक भी रखती थी वह।
एक दिन मैं स्कूल के रास्ते में से ही लौट आया। पीली इमारत के सामने बने एक सस्ते होटल की टेबल पर बस्ता लेकर बैठा रहा। मैं ने देखा वो साडी पहने थी। बाल खोले थे, उनमें सेवन्ती के फूल थे। हाथ में पर्स। कहां जाती है यह, आज देखना ही होगा। आज अपने सारे भरम तोड क़र विषमता के चौडे पाटों के सिरों पर रखे अपने पैरों को आज छोड देगा और इस बजबजाती खाई में गिर ही जाऐगा।
बस्ता वहीं भूल मैं उसके पीछे लग गया। गलियां दर गलियां। चौक और मोड। क़ुछ कच्चे रास्ते और रेल की लाईनें। फिर नौ – पन्द्रह की लोकल। मैं भी बिना टिकट चढ ग़या भीड में।मुझे लगा उसने मुझे चढते हुए देखा, पर उसने मुंह फेर लिया। मैं एक मोटे आदमी के पीछे छिप गया। जहां वो उतरी उतर गया। वह फिर चल पडी, एक चौडी सडक़ के फुटपाथ परमैं खीज रहा था कितना और चलेगी ? अचानक वह एक चर्च जैसी इमारत में घुस गई। जब सिक्योरिटी वाला एक आदमी का पास देख रहा थावह विकेट गेट से चुपचाप भीतर चला गया। बडा सा हरा भरा बगीचा सामने पीले – लाल पत्थरों वाली बहुत बडी इमारत थी। बडे – बडे ख़म्भे। बडी मेहराबों वाले, बडे दरवाजे। सब कुछ बडा और खुला। साफ और खुश्बूदार हवा। सबकुछ भूल कर मेरा मन खुश हो गया। उस बदबूदार नर्क के सामने यह बहुत सुन्दर एक स्वर्ग था। मैं इस स्वर्ग का और सुख लेता कि वह इस खुली खुली इमारत के गलियारों में घुस गई।जहां बडे बडे हॉल थे। सफेद पोश आदमी। साफ सुन्दर औरतें और पढने वाले लडक़े – लडक़ियां आ – जा रहे थे। क्या यहां नौकरी करती है वह ? या उसका कोई सगेवाला!
वह गलियारे के एक हॉल में दाखिल हुई फिर तुरन्त पलट आई। वह सफेद खंभे के पीछे छिप गया। वह मुड क़र उसी खंभे की तरफ आ रही थी। ”क्या उसने देख लिया ?”मेरा दिल गले तक उछल आया। दौड – दौड क़र,चल – चल कर वैसे भी मेरी सांसे काबू में ही नहीं आ रही थीं। उसकी परछांई दिखी लगा वह हल्की उदास मगर बहुत शांत थी। खंभे के जरा पहले उसने एक बडा दरवाजा धकेला और अन्दर चली गई। मैं ने चैन की सांस ली और खंभे के पीछे से निकल आया। अब मैं वहां एकदम अकेला खडा था, हवा में उडते पत्तों और ठण्डे सन्नाटों के बीच। मैं ने चारों तरफ नजर डालीगलियारे के दोनों तरफ चित्र टंगे थे। बडे अजीब। हरी गाय और जामुनी पहाड। ख़ेतों में झुके हुए अधनंगे, हडियल आदमी – औरतों के झुण्ड। पेडों में उगे लाल फलों पर कुछ रोते कुछ हंसते चेहरे। कैसे चित्र हैं ये बडे भद्दे और डरावने। तभी बहुत से पैरों की धपड – धपड अाहटें सुनाई दीं। कुछ खिलखिलाहटें और बातेंमैं गलियारे के एक खुले हिस्से से बगीचे में कूद गया।
उसे दरवाजे में भीतर घुसे पन्द्रह मिनट से ज्यादा हो गए थे। मैं लगातार उस दरवाजे पर नजर टिकाए रहा। अचानक एक डर पेट में गङ्ढा बनाने लगा। पेट में हल्का – हल्का कंपन हुआ जो आतंक का पूर्वाभास होता है।वह इन गलियारों और बडे – बडे क़मरों में खो गई तो मैं क्या करुंगा ? वह बेखबर घर जाऐगी और उसे ढूंढेगी और मैं इस एकदम अजनबी इलाके में खो जाऊंगा। लौटने का रास्ता, ट्रेनका स्टेशन का कुछ भी नहीं पता था मुझे। मैं तो घाटकोपर के आगे कभी आया ही नहीं। मगर कल तो वह वापस आऐगी वह अगर नौकरी करती है यहांअगर नहीं करती हो और बस आज किसी काम से आई हो तो क्या करुंगा ? मुझे लगा पन्द्रह साल का होकर भी बच्चे का बच्चा ही रह गया। लगा चाल के बच्चे जो चिढाते हैं वह सही हैकि मैं दूध पीता बच्चा हूँ, उसके पल्ले से चिपका रहता हूं। अब मेरी हथेलियों में पसीना चिपचिपा रहा था। भूख पेट जला रही थी। आंखों में आंसुओं के कण किरकिरा रहे थे। भीषण असुरक्षा से मन में भर गई। एक इच्छा हुई कि गेट के पास बैठे चपडासी से जमुना बाईजमुना बाई सलुंके के बारे में पूछे। पर अगर उसने मुझे पकड लियाऔर पूछा ‘अन्दर कैसे घुसा‘ तो ?
मैं सहमा हुआ गलियारे के साथ – साथ नीचे घास पर चलता रहाआगे गलियारा बन्द हो गया। खिडक़ियां शुरू हो गयीं। एक के बाद एक, कई – कई मैं हर खिडक़ी के नीचे बने एक पतले चबूतरे पर चढ – उतर कर खिडक़ी – दर – खिडक़ी झांकता हुआ सरकने लगा। कहीं परदे तो कहीं नहीं। कहीं अन्दर बडे क़मरों में हर दीवार पर चित्र ही चित्र और चित्र बनाते लडक़े – लडक़ी। कहीं छोटी – बडी मूर्तियां तो कहीं लोहे और लकडी क़ी अजीब सी आकृतियां बनाते लोग। बडी – बडी लाइटें और कैमरे। भीतर दुबका आतंक अब उत्सुकता में बदल रहा था। एक उम्मीद जागी थी कि अब मैं उसे खोज लूंगा। एक खिडक़ी में मैं ठिठक गया । कमरा खाली था, परदा खुला था। दीवारों पर नंगे मर्द और औरतों के चित्र लगे थे। जवान भी और बूढे और बहुत बूढे नंगे मर्द और औरतें। मैं बुरी तरह अचकचा गया। तब तक मैं ने नंगी औरतों वाली किताबें देख ली थीं। चाल में वो हर कहीं मिलेंगी। सफेद, सुन्दर, नंगी – कामुक औरतें। तब मुझे लगा क्या बकवास है किसी के चेहरे पथरीले हैं। किसी की देह ढलकी हुई। लटकी – छातियों वाली मोटे नितम्बों वाली औरतें। मुझे जुगुप्सा होने लगी थी। तभी कुछ लडक़े लडक़ियों का झुण्ड घुसा कमरे में पीछे ‘वह‘ मन हुआ कि आवाज दे दूं। परवह टेबल पर चढ क़र बैठ गई थी। मुझे हैरानी हुई। इसकीसाडी क़हां गई? ये तौलिए का झब्बा क्या पहना है ? अब क्या इस ड्रेस में ये उन लडक़े – लडक़ियों को पढाने ही लगेगी क्या? एक दाढी वाला पेट के बल मेज पर लेटा पैर मोड क़र, कूल्हे उठा कर और फिर उतर कर गोल टेबल पर बैठ गया। लडक़े – लडक़ी भी उस मेज के दो तरफ बैठ गए। दूसरी लम्बी मेज पर वो थीकहां गईकूल्हे ऊंचे करके लेटी…नंगी औरत कौन है!
मैं सुन्न हो गया था। यह सब क्या था? तुरन्त खिडक़ी पर से बेजान हो कर नीचे कूद गया। कुछ देर वहीं लेटा रहा। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसा धन्धा है? उन वेश्याओं, सफेद, नंगी औरतों की किताबों और इसकी इस नंगी नुमाइश के बीच क्या कोई फर्क है? यह ऐसा क्यों कर रही है?
फिर मैं घास के लम्बे मैदान को दौड क़र पार करके दीवार फांद कर बाहर आ गया और सिक्योरिटी वाले से जरा हट कर उसका इंतजार करने लगा। वह दो घण्टे बाद निकली और चल पडी, क़ुछ देर चल कर उसने जरा सा पीछे मुड क़र देखा, मैं बेमन से पेड क़े पीछे सरक गया, फिर चल पडा उसके पीछे, शिथिल मगर सजग _ उन्हीं रास्तों पर। मैं उसके घर पहुंचने के दो घण्टे बाद पहुंचा घर गया। इधर – उधर आवारा घूमता रहा बहुत भूखा और सवालों में घिरा।
उसकी जो नंगी – गीली परछाइयां सवालों से लिपटी थीं, न जाने कितने सालों लिपटी रहीं, फिर सूख – सूख कर झर गईं। शायद एकाध अब भी हरी हो, लिपटी हो। मसलन वह कुछ और भी तो कर सकती थी। आखिरकार नंगे ही होना था क्या? आज भी वही सब करती है। कहती है, रिटायर हो कर छोडेग़ी। पेन्शन लेगी। यहीं रहेगी। मैं जानता हूं जिद्दी है।
मेरी नजर उसके चेहरे पर उगे झुर्रियों के एकदम नए जाल पर पडती है। उस जाल में बहुत से पुराने सपनों के पंख फंसे हैं। उसकी आंखे मुंदी हैं। आज जब मैं उसके चेहरे में झुर्रियों के जाल को देखता हूं तो हैरान होता हूं क्या सच में यह बहुत चतुर थीबत्तीस दांतों के बीच अपने मूल्यों के साथ जीभ – सा बचे रहना चतुराई थी? पूरी जिन्दगी अपने वजूद की नंगी परछाइयां को ढकने की कोशिश में मुझसे भागती रही, क्या वह चतुराई थी?
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यह खुद क्या कम जिद्दी है?
प्रोफेसर साहब के फोन करने के बावजूद, ये आर्ट कॉलेज नहीं आया। मुझे पता था नहीं आऐगावहां उसे डराने वाले भूत छुपे हैं, खंभे के पीछेटेबल के ऊपर। आज दोपहरहुआ ये कि पोज देते – देते मैं बेहोश हो गयी। शायद घुटना मोडे – मोडे ख़ून का दौरा दिमाग तक जाना बन्द हो गया था। वहीं डॉक्टर आया, दो इंजेक्शन लगे, वहीं ग्लूकोज क़ी बोतल भी चढी। फ़िर एम्बुलेन्स में मुझे यहां तक छुडवाया। मगर यह नहीं आया। अब आया है। इसे पता है कि मैं अब भी मॉडलिंग करती हूं। प्रोफेसर साहब कहते हैं कि ”जवान और सधे जिस्म तो कोई भी पेन्ट कर ले असली कला तो वह है जो झुर्रियाें के बारीक जाल की सुन्दरता को पकडे।”
यह तो बहाना है। ऐसी मॉडल मिलना बहुत मुश्किल होता है, जो यहां इतने बडे शहर के इतने बडे और पुराने आर्ट कॉलेज में हम कॉन्ट्रेक्ट और परमानेन्ट मिला कर छ: हैं बस। उस पर फैकल्टी कितनी सारी, मूर्तिकला, फोटोग्राफी, एब्स्ट्रेक्ट, म्यूराल।
ये दुबला हो गया है। दाढी क्यों बढा ली है? घुन्ना है। चुपचाप बैठा रहेगा। कहेगा नहीं कुछ।आंखे तक नहीं मिलाना चाहता मुझसे। मुझे ही क्या पडी है। जाने दो। बाहर पेडों को ताक रहा है। ऐसे चुप बैठे रहना है तो आता ही क्यों है। फोन पर हाल पूछ ले। मोह नहीं छूटता इसका मेरे से। अच्छा हुआ ‘मेरे साथ चल‘ की रट छोड दी है। मुझे नहीं जाना वहां उस समाज में। मां इस समाज की थी सर से पांव तक। मैं इस समाज से अपनी जडें उखाडने की चाह मेंखुली जडे लिएनित जलील होती सूखती घूमती रही। फिर ये ये भी त्रिशंकु होने की स्थिति में ही रहा। अब इसके बच्चे एक दम मुक्त हो कर उसी समाज में सांस ले वही ठीक है। इसीलिए मैं अपनी खुली फफूंद लगी जडें ले कर वहां नहीं जाना चाहती।
कितने दिनों बाद यह इधर आया है। सोचता होगा कि मैं अपनी नंगी सच्चाइयां इससे छुपाती हुई, यहां तक चली आई हूं और सोचता होगा कि मैं आंख नहीं मिलाना चाहती। तुझे आंखें चुराते देख कर ही मैं आंखें बन्द कर लेती हूं या फेर लेती हूँ। तुझसे शरम करुंगी तू जो मेरी जांघों से सतमासा ही निकल पडा था।
तू जितना समझता है, उससे कहीं चतुर हूं मैं। बहुत दिनों तक लगातार छुपाने के बाद और तेरी उत्सुकता के एक हद पार कर लेने के बाद ही मैं ने अपने सच तुझ पर उजागर हो जाने दिए और यह भरम भी बना रहने दिया कि तू समझता है कि तूने जो मेरे सच जान लिए हैं , उस बाबत मैं कुछ नहीं जानती। अब तू कुछ भी समझ कि कपडे उतार कर भी वेश्याओं की बस्ती में मैं पवित्रता का ड्रामा किए हुए बैठी हूं। मैं जानती हूं कि तू जानता है मेरा हर सच। वो चाहे पवित्र हो कि न हो। तुझे हक था जानने का उस पहली सांस से जब तू मेरी जांघों के बीच खून के तालाब में अचानक आ गिरा था।
मुझे नहीं पता कि मैं ने इससे कुछ छिपा कर गलती की थी या नहीं लेकिन अपनी मां से कुछ तो बेहतर ही कोशिश रही थी मेरी। वह तो हमारे स्कूल से लौटने के बाद अगर कोई कस्टमर आता तो कहती– दीपू लाली बिस्तर के नीचे घुस जाओ। हम वहीं स्कूल का काम करते।
मैं देखती मां के बदन पर तरह – तरह के निशान। सिगरेट के जले सलेटी निशान, नीले – जामुनी निशान और बहुत बुरी तरह डर जाती। मुझे मां पर गुस्सा आता। यह बर्तन – झाडू क्यों नहीं कर लेती। दस – दस रूपए के लिए मर्दों से खुद को कुचलवाती क्यों है। मगर वह तो मुझसे भी यही उम्मीदें लगाने लगी थी।
आठवीं के बाद मेरी मां ने स्कूल छुडा दिया और मुझे मंहगी ‘कॉल गर्ल‘ बनाने की सोचने लगी। एक बाहर के दलाल के बात भी की।मुझे मंहगी या सस्ती कैसी भी वेश्या नहीं बनना था। मैं एक टैक्सी ड्रायवर के साथ भाग गई। प्यार – व्यारका गहरा चक्कर डाला था उसने। बोला था, रत्नागिरी में घर है, थोडी ख़ेती है। आम के पेड हैं। मगर ये नहीं बताया एक और पत्नी भी है। एक दिन मुझे वापस छोड ग़या अजन्मे बच्चे के साथ। मुझे तब नहीं पता था कि इन पीले मकानों के बाहर का जो समाज है वह दूसरी ही कोई दुनिया है।
मेरे जाने के बाद ही दीपू भी एक ट्रकवाले के साथ खलासी बन कर गया तो फिर कभी नहीं आया। मा/ बहुत गुस्से में थी, दोनों बच्चे जिनकी वजह से खुद को कुचलवाती रहीदोनों के दोनों भाग गए। इसलिए सारा गुस्सा मुझ पर उतरा। मेरे कमरे में घुसते ही मां ने कपडों की तरह कूट डाला। इतना कि जांघ से खून गिरने लगा और मैं ने सतमासे बच्चे को जनम दिया। मां बीमार रहने लगी थी। ‘कश्टमर‘ कतराते थे। मैं वेश्याओं के नुचे हुए जिस्मों की मालिश करने लगी पांच पांच रूपए में। एक दिन मां मर गई।
मैं अकेलीदलाल भी कमरे के चक्कर काटने लगे।
तब मैं ने अपनी बचपन की सहेली जोली के साथ सेल्सगर्ल का काम पकडा। वो ही एक दिन अपने साथ आर्ट कॉलेज ले गई। पहले सिटिंग के हिसाब से पैसा मिलता था। साठ रूपए एक सिटिंग का।
चार साल ऐसे ही चला फिर वहां की परमानेन्ट मॉडल की नौकरी मिल गई। अब तक पूरे सतरह साल हो गए वहां काम करते हुए।
जब पहली बार गई थी तो बहुत संकोच हुआ था। यहां चाल के टाट पडे हुए स्नानघर में भी नहाते हुए कभी कपडे नहीं उतारे तो इतने लडक़े – लडक़ियों के सामने!
मैं नहीं जानती वो क्या सोचते होंगे पर उनके चेहरों पर एक सस्ती उत्सुकता नहीं थीएक धीरज भरा इंतजार था, मैं ने गाउन उतार दिया था, मन ही मन यह ठानते हुए कि ‘वेश्या बनने से यह थोडा अच्छा है।‘
पहले मैं उनकी फरमाइश पर कठिन पोज दे देती थी। सोचती कुछ नहीं, हो जाऐगा…पर दो मिनट बाद ही समझ आ जाता कि इस पोज में रहना आसान नहीं मगर पूरे 15 मिनट शरीर अकडा हुआ दर्द महसूस करता। मैं दम साधे रहती। हर पन्द्रह मिनट के बाद दस मिनट की छुट्टी और आधे घण्टे बाद एक कप चाय मिलती।
बाद में मुझे आसान से आसान पोज समझ आ गए, जिनमें मैं 15 से 20 मिनट बैठ या लेट सकती थी।
खुजली की तेज इच्छा को टालना भी आ गया था। दिमाग वैसे ही ढल जाता है। मैं अपने चित्र नहीं देखती। ज्यादातर वो बहुत भद्दे दिखते थे।
कभी – कभी इतनी सारी लाइट के कारण, उमस भरे दिनों में पसीने की बूंदे मेरी छातियों के नीचे जमा होतीं रहतीं फिर इकट्ठी होकर पेट पर बह निकलतीं फिर जांघों में घुस जातीं।
एक बार मैं ने वहीं बैठे बैठे एक लडक़े के कैनवास पर नजर डाली तो देखाउसने वो बहती बूंदे बना डाली हैं,छाती से पेट पर फिसलती हुई। फिर वो मुझे देखते हुए देख कर बहुत मीठा सा मुस्कुराया था। मुझे उसकी याद आ गई। स्कूल से आकर मुझे घर पर देख कर ऐसे ही मुस्कुराता था। न मिलूं तो पूरे दिन मुंह फुला कर रहता।
इतने लम्बे समय में मुझे अपना एक ही चित्र पसन्द आया था। आठ फुट ऊंचा। पूरा शरीर हल्के जामुनिया रंग का और छातियां और कूल्हे का उभार गुलाबी। बालों का रंग पीला उसमें नीली नीली नदी की लहरें। बडी – बडी आंखें मंदिर की देवी जैसी। मुझे लगा थकान और अकडन से भरीए सी की ठण्डक में खडे हुए रोंगटों वालीमेरी छाया नहीं है यह। यह कोई और है। प्रोफेसर मोहनीश ने बनाया था वो। बोले ” जमना तुम्हें पता है तुम्हारे शरीर का रंग सांवला या भूरा – वूरा नहीं है। यह जामुनी है। मैं ने ये तेज रंग कभी इस्तेमाल नहीं किये। आज जब बिना लाइटों के खिडक़ी खोल कर तुम्हें नेचुरल लाईट में देखा तोमैं ने ये रंग उठाए हैं। मैं ने ब्रश के कभी तिरछे स्ट्रोक नहीं इस्तेमाल किए मगर आज तुम्हारे शरीर की काट और ढलान ने मुझे मजबूर किया।”
उनको उस चित्र पर कोई बहुत बडा ईनाम मिला था। एक किताब में वह चित्र छपा था प्रोफेसर साहब के फोटो के साथ। उन्होंने वह किताब दिखाई ” देखो आर्ट टुडे में तुम्हारा वाला चित्र छपा है। इस चित्र को मैं ने शीर्षक दिया है काालिन्दी। कालिन्दी यानि ‘जमना सलुंके‘।” उन्होंने हजार रूपए की बख्शीश जबरदस्ती पकडाई। कहते थे ”जीवित मॉडल ही कलाकार के ‘मास्टरपीस‘ बनाने के लिए एक बडा माध्यम होती है। लेकिन उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जो उन्हें मिलना चाहिये।”
प्रोफेसर हर आने वाले नए बैच से कहते _ ”ये कोई फैशन मॉडल्स थोडे ही हैं। न ये किसी ब्यूटी कान्टेस्ट की देन हैं। न हीं, ये हर आकार, लिंग और आयु के साधारण लोग हैं, जो यथार्थवादी कला को जन्म देने में हमारी मदद करते हैं। यहां नग्नता मायने ही नहीं रखती। आप कला की बारीकियों में उलझ जाते हैं, प्रकाश, छाया, कटावों और कोणों के उकेरने की तकनीकी में। उस वक्त आप कला के बारे में सोच रहे होते हो न कि नग्नता के बारे में। यहां वे नग्नता के पदर्शन के लिए नहीं बिठाई जाते हैं, ये तो ‘सुपर प्रोफेशनल्स‘ हैं। इनके माध्यम से तुम एक मानव शरीर के सही – सही आकार और आयाम देख पाते हो, जो कि कपडों के चलते ठीक से पता नहीं चलते। यहां महत्वपूर्ण यह है कि तुम देह की लचीली मांसपेशियों का विविधता से भरे आयाम, तनाव और आराम के माध्यम से देख पाते हो, उनके आकार और आयाम जैसा कि मैं ने कहा न्यूड मॉडलिंग आसान काम नहीं है। एक अच्छे पोज क़े लिए उनकी मेहनत और एकाग्रता लगती है। बीस मिनट में पैर सो जाता, नितम्ब की हड्डियां दर्द करने लगती हैं, नस पर नस चढ ज़ाती है ।”
काश मैं उनकी बातें टेप करके उसे सुना पाती जो उस दिन खुली खिडक़ी से मुझे पोज क़रते हुए देख गया था एन् इसी मास्टरपीस बनने वाले दिन। जामुनी रंग वाली जमना को।
हां, उसे देख लिया था मैं ने। लोकल में चढते हुए। जानती थी, उसके पास पैसे होंगे नहीं इसलिए लोकल से उतर कर रिक्शा भी नहीं किया। पैदल आर्ट कॉलेज पहुंची। ठान लिया था, आज इसके सारे सवालों के उत्तर इसे बिना बोले दे दूं। इसीलिए जब बिना लाईट के सूरज की रोशनी में चित्र बनाने की बात कही प्रोफेसर साहब ने तो मैं चुपचाप मान गई। परदे खोल दिए गए। मैं ने कनखियों से उसे देखा भीउसका चेहरा लाल हुआ फिर बैंगनीकाला। फिर वह खिडक़ी से कूद गया।
उस दिन जब वह घर लौटा तो मैं ने बहुत दिनों बाद पास के होटल से मुर्गे का कढाही शोरबा और रोटियां मंगाए थे। शायद भूख तेज थी और गुस्सा नपुंसक। उसने चुपचाप खा लिया। खाकर भी गुस्से में वह होंठ चबाता रहा।
खाने के बाद जब वो हाथ धो रहा था तब वो बोली।
” स्कूल नहीं क्या आज तू ?”
” गया तो था।”
सोचा कि पूछूं।
”तू आज मेरे पीछे आया था ! लोकल से उतरते देख लिया था मैं ने। तू क्या सोचता है तू ही शाणा है। और वहां आर्ट कोलेज में तुझे सिकोरिटी वाला ऐसेईच घुसने देता !”
लेकिन मैं ने नहीं पूछा क्योंकि फिर वो पूछता कि _
” तूने फिर मुझे साथ क्यों नहीं लिया ?”
तो क्या कहूंगी ? कह दूंगी कि _
”नौकरी है वो मेरी।”
फिर वो कहेगा कि
_ ”ऐसी गन्दी नौकरी। छोड दे वो नौकरी।”
तो कहूंगी कि _
”काम में गन्दा – अच्छा क्या? मुझे बस ये पता है कि इन ड्राईंग पढने वाले इन बच्चों को मेरी जरूरत है। मेरे काम से इनको सीखने को मिलता है।वहां कोई मुझे गन्दी नजर से नहीं देखता। मैं नहीं छोडने वाली ये नौकरी। पूर सात हजार मिलते हैं महीने के। ”
मैं चुप रही। चुपचाप बर्तन समेटे और मांजे। वह उंगलियां चटखाता रहा।
देखा! आज भी उंगलियां चटखा रहा है। कितना मना करती रही हूं।
”उंगलियां तोडेग़ा क्या?” मैं आंखें खोलकर तरेरती हूं । वह हंसता है। बचपन वाली हंसी।
”अब छोड दे ये आया की नौकरी जो तू कॉलेज में करती है।”
” छोड दूंगी। रिटायर हो ही जाऊंगी जल्दी ही।”
”पैसा दे के जाऊं।”
”अभी तो है। चाहिएगा तो ले लूंगी। तेरा कैसा चल रहा है ?”
”ठीक ।”
”नौकरी ?”
”बदल ली।”
”अब फोटो नहीं खींचता।”
”खींचता हूं। भूकंप और बम धमाके के नहीं… खून में लथपथ लोगों के फोटो खींच कर भी अखबार में पैसे कम ही मिलते थे।”
”फिर?”
”फिर क्या बच्चा होने के बाद खर्चा बढ ग़या है। एक कमरे में काम नहीं चलता। इसलिए अब अपना ही काम करता हूं। एक साथ कई जगह पर।”
” तभी तू दुबला हो गया है। काम उतना ही करना चाहिए जितना शरीर झेल सके।”
” उधर की तरफ यहां के जैसे तो नहीं रहा जा सकता है न। थोडे ज्यादा पैसे बन जाते हैं। अब मैं विज्ञापनों के लिए भी काम करता हूं। लाइव मॉडलों के फोटो खींचता हूं अभी अपने खींचे फोटो की प्रदर्शनी लगाई थी उसका एक किताब में रिव्यू भी आया है।”
”आर्ट टुडे में!”
”तुझे कैसे पता ?”
‘हं….।‘ मैं ने आंखे मूंद ली। मुझे पता था उसके भीतर के अहम् की हवा रिस कर उसे पिचका हुआ छोड ग़ई है।