दरवाजे को हौले-से भेड़कर वह अंदर आया और इशारा पाते ही कुर्सी पर बैठ गया. चालू फ़ाइल को एहतियातन वहीं बंद कर मैंने नीचे सरका दिया. इस दरम्यान एक मिनट की खामोशी रही. एक अबूझ-सी राहत समेटकर मैं कुर्सी के पिछवाड़े पर झूल गया और आश्वस्ति टटोलती निगाह से उसके हाव-भाव परखने लगा.
”तो तुम्हारे हिसाब से केस हिट करने लायक है?”
”एकदम साब सोचने जैसा कुछ है ही नहीं.”
आंखों में आंखें डालकर उसने यक़ीन से गर्दन हिलाई और कहते हुए हल्की-सी चपत टेबल के कांच पर जड़ दी.
इस काम में जिसे ‘गट फीलिंग’ कहते हैं, वह मुझे आ चुकी थी मगर एक परीक्षार्थी का-सा अंदरूनी डर फिर भी बना हुआ था. मैं उसी पर नकेल डालने की जुगत में था. ”अच्छा, कितने की जब्ती हो जाएगी?”
बेहिसाबी रोकड़ा और दूसरी चल संपत्तियों की जब्ती पूरे मिशन की कामयाबी की जान थी इसलिए मैं उसी पर चढ़कर मॉक-फेंसिंग आजमा रहा था. झूठ-फरेब करने में कोई कितना ही उस्ताद बन ले मगर हर पेशेवर मुखबिर इस सवाल का जवाब देने से कतराता है क्योंकि इससे उसकी रोज़ी-रोटी ही नहीं, साख-प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है. सीधे-सीधे. एवजी में कोई दलील काम नहीं करती है. इसलिए निमिष भर को वह झिझका. एक अलिखित काय़दे के मुताबिक़ रत्ती-भर से ज्य़ादा की झिझक मेहनत से बनाए आपके ढांचे को भुरभुरा कर सकती है — शक की वजह से. इसलिए भटकती पुतलियों को दबोच कर
”करोड़ से कम नहीं होगी.“
”तुम्हारा दिमाग ठीक है…करोड़ से ऊपर तो हमारे यहां सारे ही केस होते हैं, सवाल हैं, कितने करोड़?“ मैंने उसे खारिज-सा करते हुए धमकाया.
”दो-ो होई जाएगी, नसीब ने साथ दिया तो चार-पांच भी हो सकती है.“ उसने गोकि बिखरे पत्ते समेटे.
”हम नसीब पर कुछ नहीं छोड़ते पठान भाई…इतनी बड़ी दुनिया में इतने बड़े-बड़े मुर्गे खुले घूम रहे हैं…किसे पकड़ना है यह नसीब नहीं, नज़र और समझ की बिना पर तय होना चाहिए…“
”फिर भी साब, नसीब तो समझो होना ही हुआ.“ उसने मेरी बात बीच में पकड़ ली. उसकी बातों में ‘समझो` तकियाकलाम की तरह रहता है.
”ठीक है ठीक है, तुम नसीब की नहीं काम की बात पर आओ.“
”वो तो साब मैंने पैलेई बतला दी है.“
पहले उसने जो बतलाया था…वह अपनी नवीनता के कारण काफ़ी कौतूहल भरा लगा था. हर दूसरे-तीसरे छापे में बिल्डरों और ज्वैलर्स की धर-पकड़ करते हुए मैं खासा ऊब गया था. हमारा निदेशक बार-बार दुहाई देता कि गए दस बरसों में दुनिया के कारोबार का नक्श़ा बदल गया है मगर हम अपनी आरामपरस्ती में फंसे पड़े हैं. चार लोगों की हमारी टीम ने डेढ़-सौ से ज्य़ादा कारोबारों की छंटनी की थी मगर याद नहीं पड़ता कि ”फलों का थोक व्यापार“ उसमें था या नहीं.
उसने जब सुझाया तो पहली प्रतिक्रिया में खारिज करते हुए मैंने तल्खी ली थी कि विभाग के इतने बुरे दिन भी नहीं आए हैं कि धनिए-पुदीने वालों पर भी छापा मारें.
”धनिया-पुदीना और सेब-संतरों में फ़ऱ्क है साब.“
”क्या फ़ऱ्क है भाई?“
”पचास लाख की आबादी के इस शहर में हर रोज़ ढज्ञर्ठ-त्भ्न् तो का ानिया बिकता और तीस-पैंतीस लाख के फल…फिर फ्रूटस खाने वाला तबका कौन-सा है ये आप बखूबी जानते हैं.“
मैं अचानक रुका. उसकी दलील में आंकड़े नहीं, मानवीय व्यवहार की गहरी समझ थी. एक चौखटे में फंसे सोच के तहत मैं मन ही मन मोटा-मोटी हिसाब लगाने लगा कि हर रोज़ के तीस लाख के बाज़ार में आठ लाख का हिस्सा रखनेवाले एक थोक व्यापारी की साल भर में कितनी कमाई होती होगी…पच्चीस करोड़ की सालाना बिक्री के हिसाब से छह साल की हो गई सौ करोड़ से ऊपर. जिस टे्रड को आज तक हाथ नहीं लगाया उसका तो सारा कारोबार ही बेहिसाबी होगा. उसने आगे बताया कि आम को लोग भले उसके स्वाद के कारण फलों का बादशाह कहते हों मगर व्यापारियों को यह मुनाफे की वजह से बादशाह लगता है. हर सीज़न की शुरुआत केरल के सिंदूरी आमों से होती है, फिर रत्नागिरी और जूनागढ़ के अल्फांसो और हापुस आते हैं, आखिऱ में सोने पर सुगंध उत्तर-भारत के दशहरी और लंगड़ा की होती है. सारा टे्रड कमीशन के आधार पर चलता है जिसकी तयशुदा दर छह प्रतिशत है…मगर यह तो सिक्के का दिखावटी पहलू है : बड़े-बड़े थोक व्यापारी किसानों के आम नहीं, बाग के बाग खऱीद लेते हैं…कभी-कभी तो अगले ५-७ सालों के लिए. अपने उत्पाद की क़ीमत तय किए जाने में किसान के साथ जो छल किया जाता है उसकी नजीर भी उसने मुझे दिखा दी थी. यह देखकर मैं हक्का-बक्का रह गया कि एक तौलिए के भीतर हाथ की उंगलियां घुमाकर व्यापारियों की कार्टल, ‘प्रतियोगिता` के सिद्धांत की कैसे धज्जियां उड़ाती चली जाती है.
मैं वापस उसकी तरफ़ लौटा.
”कितने पार्टनर हैं?“
”तीन हैं, तीनों भाई.“
”ठिकाने कितने रहेंगे?“
”समझो तीन हो गए बंगले, एक बाप का, एक मार्किट-ऑफिस एक गोदाम.“
”यानी छह.“
”सात समझो, साला भी है एक, बड़े वाले का. मामू कहते हैं.“
”बाप एक्टिव है?“
”एक्टिव तो नहीं है मगर इन तीनों को पैदा करने का कसूरवार तो है ही…“
काम की बात के बीच थोड़ी चुटकी मुझे सुहाती है. वह जानता है.
”कसूरवार है तो इस बुढ़ापे में बंगलों को छोड़कर उस ल़ैट में क्या कर रहा है?“
”इन सिंधियों का घर या शक्ल देखकर आप इनकी हैसियत के बारे में अंदाज़ा नहीं लगा सकते हैं…ये जो दिखते हैं उसके अलावा कुछ भी हो सकते हैं.“ अपनी बात मनवाने के लिए पठान अक्सर ऐसे शगूफे छोड़ने लगता. लगभग यही बात उसने एक मारवाड़ी के संदर्भ में कही थी. आप बहस कीजिए और मुद्दे से हाथ धो बैठिए.
अपने निदेशक को विश्वास में लेकर चौथे दिन मैंने उस निशाने को ‘साध` लिया था. बस दो एहतियात अपनी तरफ़ से और बरते, एक तो इस खिलाड़ी नं १ के साथ इस बाज़ार के खिलाड़ी नं २ को भी उसी दिन शिकार बनाया और दूसरे, दोनों के बही खाते लिखने वाले मुनीमों को भी वही इज़़्जत बख्शी जो उनके आकाओ को. दोनों घरानों से कोई पौने चार करोड़ की जब्ती हुई थी जो अपेक्षा से कहीं कम थी मगर दूसरे घराने के एक भागीदार के यहां से मिली कुल जमा इक्यावन लाख की नकदी ने किसी तात्कालिक मलाल से बरी कर दिया था. निर्वासित पिता और मामू को ‘कवर` करने की हिदायत बड़े काम आई : पिता के यहां से एक ऐसी ‘चोपड़ी` मिल गई जिसमें हिसाबी कमीशन को क्रमश: घटाने को एक कला का दर्जा दे रखा था, मामू के यहां से तो तीन बेनामी खाते ही मिल गए जिनसे निकाली राशि उसी बैंक में ‘फिक्स` कर रखी थी. हमारी मामूली बदसलूकी से मामू टूट गया और बिना कोताही किए ‘कॉआपरेट` करने लगा.
खिलाड़ी नं २ की जानकारी मैंने अपने कंप्यूटर से ही जुटाई थी मगर काग़़ज पर पठान को मुखबिर के तौर पर डाल दिया ताकि उसका अतिरिक्त ‘उत्साहवर्धन` हो सके. महीने भर बाद उसे पचास-पचास हज़ार का अंतरिम इनाम भी दिलवा दिया. रकम पकड़ाने के बाद मैंने उसे आड़े हाथ ले धरा ”जीवतराम (खिलाड़ी नं २) ने मेरी लाज बचा ली वरना पठान तुम तो मुझे ले डूबे थे.`
”क्यों साब क्या हुआ?“
”पूछते हो क्या हुआ? नकदी की कितनी बढ़-चढ़कर उम्मीद बंधा रहे थे…तुम्हारे खिलाड़ी नं १ के यहां से सवा पांच लाख मिले हैं बस.“ मैं गुस्से में था, लताड़ रोक नहीं पाया.
”आपका गुस्सा वाजिब है साब मगर मैं कुछ कहूं तो मानेंगे?“ उसकी आंखों में मोहलत की गुहार थी.
”चलो अब यह भी सही, बताओ,“ मैंने सख्त़ बेरुखी में टाला.
”रेवतीराम के यहां आपने किसी मैथ्यूज को इन्चार्ज रखा था?“
”हां, हां, पार्टी नंबर तीन में.“
”वहां गड़बड़ हो गई.“
”मतलब?“
”स्टेट बैंक का एक लॉकर ऑपरेट ही नहीं हुआ…मतलब ऑपरेट तो किया मगर बिना खोले ही छोड़ दिया…“ अपने बचाव से उसने मुझे छलनी कर दिया. मैथ्यूज के प्रति कोई भाव उजागर किए बगै़र मेरे भीतर ख्ा़ून उबलने लगा…अक्सर मेरे कमरे में सुबह की चाय पीता है, फिर भी…डायन का पुल्लिंग क्या होगा…हरामी.
”अच्छा!“ निष्कवच होकर मेरी आंखें फटी थीं.
”जाने दो साब, थोड़ी-बहुत ऊंच-नीच तो होती रहती है.“
रवायत के मुताबिक़ अगले तीन-चार महीने उसे मेरे दत़र की शक्ल नहीं देखनी थी. इस दरम्यान सारे काग़़जात के गट्ठर से मुझे कर-चोरी की एक ऐसी मूल्यांकित रिपोर्ट लिखनी थी जो मिशन की कामयाबी को सौ-गुना बढ़ाकर सिद्ध करते हुए भी सल्वाडोर डाली की चित्राकारी याद दिला दे. रिपोर्ट पूरी होने के ठीक दो रोज़ पहले उसका फ़ोन आ गया. अपनी नस्ल के नाम को रोशन करती गर्मजोशी से वह बताने लगा कि साब ”ऐसी चीज़ हाथ लगी है कि दिल खुश हो जाएगा.“
”यार तीन महीने से क़ायदे से एक रात नहीं सोया हूं और तुम दूसरी क़ब्र में ठेल रहे हो“ मेरी आवाज़ मुरझाई थी.
”आप देखोगे तो कमल से खिल जाओगे“ उसके जोश की जुम्बिश जारी थी.
”इस कमल को इस बार तुम चन्द्रा साहब के सरोबर में खिलाओ पठान.“
मैं हर क़ीमत उसके फुसलाने में नहीं आना चाहता था. यूं, हर बार एक नया मुर्गा़ पकड़ने की आदिम इच्छा ख्ा़ून के बहाव में शामिल रहती थी, मगर पौने तीन साल से वही पंचनामा बनवाते, कैवटीज़ ढॅ।।ूठ के मनोगत औज़ारों से धन्नासेठों को धराशायी करते काफ़ी ऊब भी होने लगी थी. सोने-जागने की असामान्यता और खाने-पीने की अनियमितता ने अजीब तरह से तोंदियल और नतीजतन ‘हवाबाज़` बना छोड़ा था. मोर्चे पर आक्रमण करने के इस मजबूर दस्ते में हम आठ लोग थे इसलिए हर हत़े ही किसी न किसी की ‘बारात` निकलती थी. यह भी ख्ा़ूब होता कि एक बारात से लौटे नहीं और उधर दूसरी में भागना पड़ रहा है. मगर उस दुनिया में हम प्रसन्न-सुखी थे तो इसलिए कि एक क़िस्म के परपीड़ा-सुख को सलीके से बगल में दबोचने के बावजूद, बेडौल ही सही मगर न्याय के एक नामुराद से बच्चे को हम अपने तइंर् हर रोज़ डिलीवर होते देखते थे. पठान थोड़ी देर झिझका था क्योंकि अक्सर तो मैं स्वयं उसे ‘कुछ नया` लाने को प्रोम्प्ट करता था और फिर भी मेहनत से सुझाए उसके पांच-सात प्रपोजल्स में एकाध को ही तवज्जो देता.
”नहीं साब, देना तो आपको ही है, चाहे महीना और लग जाए…“ उसका इतना विश्वास ही काफ़ी था मगर उसके अगले पांच लज़ों ने पिघला ही दिया… ”आपके हाथों में बरक्कत है…“
किसी विदग्ध लती की तरह एक पखवाड़े के भीतर ही मैं उसके साथ मामले की निटी-ग्रिटीज में उतरता जा रहा था.
यह एक हडि्डयों के डॉक्टरों का गेंग था जो ट्रौमा अस्पताल चलाता था. पांच समवयस्क डॉक्टरों की भागेदारी जिसकी रहनुमाई डॉक्टर आकाश जोशी के सुपुर्द थी. ‘ऑपरेशन` की कागजाती तसल्ली के लिए ज़रूरी बातें वहां पहले से ही मौजूद थीं : क्रीम कलर की छह मंजिला भव्य इमारत के अंदर-बाहर के फ़ोटोग्रास सभी भागीदार डॉक्टरों का सांझा नोट-पैड, सभी डॉक्टरों के घर के पते और मोबायल नंबर, उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली चमाचम गाड़ियां…
”मगर धन-चोरी का तरीक़ा क्या है?“ मैंने मुद्दा कसा.
”तरीका तो जी बड़ा सीधा है. ट्रौमा के केसिज को हाथ लगाने में दूसरे अस्थि-विशेषज्ञ डरते हैं. इसके यहां एक डॉक्टर हैं, मित्राा. उसका भाई पुलिस में है. उसके कारण मित्राा पुलिस को संभाल लेता है और जमकर वसूलता है. यह काम समझो कोई १०-१२ साल से हो रहा है. ज्य़ादातर बेहिसाबी. मगर पिछले चार-पांच साल से डॉक्टर जोशी ने घुटने बदलने (नी-रिपलेसमेंट) की शल्य चिकित्सा में ख्ा़ूब नाम और नामा कमाया है…रोज़ के दो घुटने ऑपरेट करता है, एक सुबह, एक शाम. हरेक का डेढ़ लाख लेता है ”यानी साल के तीन सौ दिन भी गिनो तो नौ करोड़ की बिक्री (डॉक्टरों के संदर्भ में बिक्री शब्द कहते मैं इसके अटपटे प्रयोग पर हँसा)…इमप्लांट समेत कितने ही खऱ्चे डालो, तीन करोड़ से ऊपर का मुनाफ़ा तो बैठेगा ही“ मेरे कारोबारी जेह़न ने अपनी चिड़िया की आंख साधी.
”बेशक, तीन नहीं तो, टके से उसने सरकाया. वैसे ख्ा़ूब लंबी चौड़ी हांक ले मगर चलो, कुछ तो ‘फीगर्स फोबिया` इसे है.
”पठान, इस शहर में क्या इतने बेवकूफ़ लोग हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई को आधे दिन के इलाज में उड़ा देंगे? साले हर चीज़ में तो डिस्काउंट और वटाव मांगते हैं…आइ डोंट थिंक बॉस विल डाइजैस्ट और एग्री टू इट“ मुंह बिचकाकर मैंने उसे आदतन खारिज करना चाहा. मगर उसकी जवाबी कार्रवाई ने मेरे शक का पलीता कर दिया.
इन्फोसिस में कार्यरत अपने काल्पनिक चाचा के घुटने के आरोपण के सिलसिले में वह आकाश जोशी की घसीट लिखावट में संभावित खर्चे का हस्ताक्षरित पर्चा मुझे दिखा रहा था. एक मार्मिक आशुकथा के सहारे, इलाज करवाकर बाहर निकल रहे क़स्बाई मरीज के बिल की फ़ोटोकॉपी उसने अलग से करवा ली थी. मेरे सामने सब कुछ दिन के उजाले-सा उज्ज्वल था या, इतनी रोशनी तो दे ही रहा था कि डॉक्टर जोशी के खड़े किए अंधेरे चुहचुहा जाएं. अब कोई गुंजाइश नहीं थी.
और वाकई, हमारी कार्रवाई के बाद कोई गुंजाइश रही थी नहीं. नकदी ज़रूर हमारी अपेक्षा से कम मिली मगर उसकी एवज़ में बेहिसाबी चल-अचल संपत्ति के ऐसे दस्तावेज़ मिल गए कि मिशन के चयन और सफलता की ख्ा़ूब वाहवाही हो गई.
मिशन की एक मज़ेदार बात डॉक्टर आकाश जोशी के बचपन की सरेआम वापसी थी : वार्ड वॉइज और नर्सों के सामने अपनी मालिकी का मुल्लमा उतार वह बार-बार मेरे घुटने पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगता और ”मैंने तो कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, मैंने तो कभी चींटी भी नहीं मारी…“ की सुबकियां भरता जाता. बहुत जल्द वह गुत्थी मेरे हाथ लग गई जो उसके पांव तले की ज़मीन को इस क़दर पोला किए दे रही थी : उसके चेम्बर से एक कम-उम्र और यक़ीनन ख्ा़ूबसूरत हसीना के साथ उसकी रंगीनी पर मुहर लगाती खतो-किताबत और चंद तस्वीरें. यानी तस्वीरें-बुता और खा़तूनों के खत़ मरने से पहले ही! कौन बचाएगा तुझे मेरे मियां मजनू जोशी!
मुखबिर के लिहाज़ से पठान मेरा मुंह लगा था मगर हमारे आपसी ताल्लुक़ात पेशेवर ही थे. दुनिया-जहां के राज़ बटोरकर जब वह मुझसे मिलना चाहता तो मैं उसे किसी नए रेस्तरां, पार्क या स्टेशन पर आने को कहता, न कि दत़र या घर. फ़ोन पर उसे अपना या मेरा नाम लेने की मनाही थी, मेरे साथ किए उसके केसिज के हिसाब से मैं उसे एक संख्या पकड़ा देता था जो उसकी तात्कालिक पहचान का काम करती. किसी मुखब़िर को हमारा फ़ोन करना तो उसूलन ही नहीं बनता था क्योंकि निजी तौर पर हमने अविश्वास की यह घुट्टी पी रखी थी कि ”वंस एन इन्फोरमेंट, आल्वेज़ एन इन्फोरमेंट.“ आर्थिक विषमताएं पाटने के रास्ते संसाधन जुटाने की राज्य की घोषित नीति के हम हरावल पुर्जे थे तो पठान की बिरादरी मानव के सामाजिक व्यवहार से उत्पन्न एक कुटिल पूंजीवादी लुब्रीकेंट. उसका इनाम तो ज़ाहिर था मगर हमारा हासिल वह भटकती ईगो थी जो अपने संभावित शिकारों के बीच रात को शराब की पार्टियों में बाइज़़्जत न्यौते जाने अथवा स्थानीय क्लब की तैराक़ी प्रतियोगिता में ‘अतिथि विशेष` बना दिए जाने पर पर्याप्त तृप्त महसूस करती थी.
बहरहाल, डॉक्टर जोशी के सफल ‘ऑपरेशन` के बाद मैंने उसे घर बुलाया और ब्लैक लेबल खोल दी. उसने तौबा में कान पकड़ते हुए माफ़ी चाही ”साब आपने इस क़ाबिल समझा शुक्रिया. मैं नहीं पीता…इस्लाम में शराब पीना कुफ्र है.“ अकेले पीने की मेरी आदत नहीं रही. बोतल एक तरफ़ सरका ही रहा था कि उसने मेरे घुटने पकड़ लिए और नौसिखिया अंदाज़ में मिन्नत करने लगा, ”साब यह दूसरा कुफ्र तो मत करवाइए…आप बाक़ायदा लें…इस्लाम में किसी को शराब पीते हुए देखना क़ाबिले-गुनाह नहीं है“ मज़हब पर कसी इस फुरफुरी चुटकी के साथ भरे आदमखोर ठहाके का मैंने भी साथ दिया.
”आज आपकी सिगरेट अलबत्ता ज़रूर पीऊंगा.“ नवाजी इज़़्जत ने स्नेहिल अधिकार ले लिया था. सिगरेट का कश वह कन्नी उंगली के बीच दबाकर खींचता और थोड़ी-थोड़ी देर बाद चुटकी बजाकर राख झाड़ता.
शराब के घूंटों के साथ तबादलों और प्रोन्नतियों को लेकर रोज़ किए जाने वाले आलाप और विमर्श आज नदारद थे. न क्रिकेट का मौसम था और न ही उस पर बात हो सकती थी. कुछ देर हम अपने साझा शिकारों और उनकी खा़सियतों पर बात करते रहे. गए तीन बरस में मेरे हाथों घायल ग्यारह शिकारों में छह पठान की मेहरबानी थे (तीन मैंने खुद-ब-खुद यानी ‘सुओ मोटो` तैयार किए थे और दो में दो अलग-अलग मुखब़िर थे). यानी पठान और मेरी खासी जुगलबंदी थी. मगर त्राासदी देखिए कि उसकी किसी जाती चीज़ की मुझे शायद ही कोई जानकारी थी. आज उसके भीतर कुछ पिघल रहा था.
”इस धंधे में कभी नहीं आता अगर शर्राफ ने उस रोज़ मुझे साढ़े चार सौ एडवांस दे दिए होते. मैं उसके यहां डेढ़ हज़ार रुपए महीने की नौकरी पर था. मुख्य काम था सहकारी बैंक में चैक जमा कराना, रोकड़ा निकालना और तयशुदा पार्टियों से वसूली करने जाना. पगार मिलने में अभी आठ दिन थे. बरसात के दिन थे. बहन छत से फिसल गिरी थी और कूल्हे खिसकने का इलाज कराने दवाखाने में दाखिल थी. पड़ोस के गल्ले से फ़ोन करवाकर अब्बा ने साढ़े चार सौ का इंतज़ाम करने को बोला था. अब आप ये समझो कि बाइस दिन की तो मेरी पगार चढ़ी हुई थी और आधा घंटा पहले ही मैं खुद पर डाल दी मगर मुझसे वह भी न बने. बेवजह ब्याज चढ़ गई. दस जगह ठोकर खाकर इंतज़ाम तो हुआ मगर एक कड़वाहट भीतर जम गई…कि तंगी में कोई सगा नहीं होता…कि पैसे का दरियादिली से समझो कोई वास्ता नहीं. मैंने वह धंधा भी छोड़ दिया और एक तेल मिल में काम करने लगा. छह महीने बाद वह मिल बंद हो गई. बीच में पता नहीं कितनी जगह धक्के खाने के बाद एक शेयर दलाल के यहां टंग लिया. थोड़े दिनों बाद ही आपके विभाग ने उसके यहां छापा मारा था, वह भी दोपहर ो पंद्रह साल तो हो ही गए. सेठ ने मुझे बतौर साक्षी रखवा दिया जिससे मुझे आपके विभाग की ताक़त और तौर-तरीक़ों का पता चला. सारी कार्यवाही में पता नहीं उन्होंने मुझमें क्या देखा कि बड़े नामालूम े अपने दत़र आकर मिलने की दावत दे दी.
बस, वह दिन है और आज का दिन. इतने दिनों सेठ लोगों से खाई जिल्लत, इतने दिनों हर मुमकिन बेगार में खुद को जोतने का नतीजा, समझो मेरा सरमाया बन गया. हिसाबी-बेहिसाबी का फ़ऱ्क तो मुझे ज्य़ादा नहीं पता था मगर यह ख्ा़ूब जानता था कि हर कामयाब धंधे की बुनियाद चोरी पर टिकी होती है. वैसे तो हर आदमी अपनी तरह और हालात के मुताबिक़ चोरी करने को आमादा रहता है मगर इतने दिनों की बेपनाह ठोकरों ने इतना इलम दे दिया है कि खब़र हो जाती है कि मुक्तलिफ़ कारोबारों की कमज़ोर नसें कहां होती हैं और उन्हें कैसे कुरेदा जा सकता है…देखा जाए तो सरकार ने भी तो आपको इसी काम के लिए रख छोड़ा है…“
”बेशक, बेशक.“ गोकि किसी स्वप्न से जागकर मैं बड़बड़ाया.
उसके ”रख छोड़ा है“ के वाहियात प्रयोग के बावजूद तभी मुझे अहसास हुआ कि अपने पसंदीदा पेय को मैं कितनी शर्मनाक रत़ार से पी रहा था. एक लंबा घूंट खींचकर मैंने दूसरा पैग बनाया और उसके लिए सूप मंगवाया जिसे, जल्दी खत़्म करने के फेर में वह बारी-बारी से प्लेट में डालकर सुड़कने लगा था.
बात का सिरा जोड़ने के इंतज़ार में मैंने एक और लंबा घूंट खींचा और सहारे का कंधा बदलकर पांव फैला दिए. ”यार पठान तुम्हारी तत्काल झूठ गढ़ने की काबिलियत का मैं बहुत मुरीद हूं…सही कहूं तो इस मामले में तुमसे बहुत सीखा है मैंने…कैसे कर लेते हो…?“
गहराते सुरूर में ऊपरी तौर पर नागवार लगने वाले इस आरोप में छापों से पहले की जाने वाली ज़रूरी टोही हरक़तों (रिकॉनिसंस जिसे ‘रैकी` कहने का चलन था) का तजुर्बा था. वह अर्राता हुआ गोकि शे`र की मांद में हाथ डाल देता था. मैं यथासंभव अनचीन्हा-सा उसके दायरे में डोलता रहता इत्तफाकन भी किसी परिचित से टकराए जाने की संभावना से खुद को बचाते हुए.
”सर, ज़रा एक मिनट हल्का हो
आऊं.“ उंगली के इशारे से पठान ने अपनी थुलथुल काया को अचकचाकर सीधा किया.
”सामने राइट को है“ मैंने इशारे से समझाया.
वह एक बिल्डर का केस था. श्री पैराडाइज़ बिल्डर्स का. संभावित ग्राहक बनकर वह किसी ल़ैट का इस बारीकी से मुआयना करता मानो कल से आकर रहने लगेगा.
”किचिन में काम करवाना पड़ेगा…करवा देंगे ना…भैया ऐसा है मेरे सेठ के साथ उसकी बूढ़ी मां रहती है जिसे एलर्जिक अस्थमा है इसलिए कैमिस्ट शॉप नजदीक चाहिए…इसके सामने वाला रिहाइशी है या इन्वैस्टर का है, सुनसान में तो नहीं रहना पड़ेगा…“ वह सख्त़मिजाजी से बकता जाता. बिल्डर से क़ीमत तय होने के बाद वह दस्तावेज़ी और ‘ऑन` में दी जाने वाली राशि का हिसाब बिल्डर से ही लिखवाता.
”ऑन का प्रतिशत पचास से साठ या सत्तर हो सकता है मालिक“ कहकर वह जेब में पड़े माइक्रोटेप को चालू कर देता. किसी जीनियस शिल्पी की तरह अपने मकसद में वह यूं एकाग्र हो जाता कि मेरी मौजूदगी को भी भुला देता.
”साठ तक आराम से हो जाएगा.“
”फिर ठीक है…वो क्या है सेठ के अपने एक्सपोर्ट के चक्कर में मालिक साब तो लंदन-फ्रांस घूमते रहते हैं, उनका सारा हिसाब मुझे संभालना पड़ता है मगर माफ़ करना, पैसे के मामले में एक रुपए की हेर-फेर जायका बिगाड़ देती है…मुझे आप यहां इस सत्राह लाख का ब्रेक-अप करके दे दो“ कहकर वहीं पड़ा काग़़ज उसने उसकी कलम के नीचे सरका दिया. बिल्डर ने ७ डी और १० सी को ऊपर नीचे लिखकर लाइन खींची और उसके नीचे १७ लिख दिया. आंख में बाल दबाए पठान के लिए यह नाकाफ़ी था. वह उठा और उसके सामने अध-झुका होकर मासूमियत से दरयात़ करने लगा:
”७ डी माने?“
”अरे यह भी नहीं पता, सात डी यानी दस्तावेज़ सात लाख का.“
”और १० सी?“
”दस लाख कैश रहेगा.“
”यह हिसाब ५-१२ का नहीं हो सकता मालिक.“
”भाई, हमारे यहां सात के आसपास के दस्तावेज़ हो रहे हैं, आपको दिक़़्कत है तो पांच का करवा देंगे.“
”मेहरबानी मालिक, मैं हत़े-दस रोज़ में आपसे कॉन्टैक्ट कर लूंगा.“ कहकर पठान उठ लिया. मगर भूल-सुधार सी करता बिल्डर बोला.
”आपका नाम?“
”राजन.“
”मोबाइल है?“
”छोटा आदमी हूं, साब, क्यों मज़ाक़ करते हैं.“ पठान की यह परिचित पगडंडी थी. वह जानता था कि शक को ज़हर बनते देर नहीं लगती है. ‘शिकार` अब क्या वार कर सकता है?…वह मालिक का नाम-पता या टेलीफ़ोन पूछ सकता था. नाम-पते की पुष्टि करने की फुर्सत चाहे न हो मगर टेलीफ़ोन तो कोई भी खड स़ घुमा सकता था. इसका तोड़ उसके पास था : वह अपने घर के फ़ोन का ऐसी आपात स्थिति के लिए उपयोग करता. मगर पहली कोशिश ऐसी नौबत न आने देने की होती. इसलिए वह तुरंत प्रति-आक्रमण कर बैठता.
”मालिक आप तो ऐसे सुनवाई कर रहे हैं जैसे हम तिहाड़ से छूटे हों.“
बात निपटाकर वह नजदीक के पान के गल्ले पर सिगरेट सुलगाता और कुटिलता से हँसकर कहता. ”कोई गुंजाइश साब.“
काग़़ज की लिखावट को उद्घाटित करती बिल्डर की आवाज़ का साक्ष्य ‘पैराडाइज़` की खुशहाली की मुकम्मल पोल खोल रहा था.
”नहीं, कुछ नहीं.“ अपनी तसल्ली और खुशी पर काबू रखते हुए मैं हामी भरता.
मगर किशनचंद लक्ष्मणदास ज्वैलरी डिजाइनर के मामले में झूठ के तरीक़े ने हमें दूसरी ज़िंदगी दी थी. एक निष्कासित कारिंदे की मार्फत उसके दो नंबरी तौर-तरीक़ों की ब्यौरेवार तफ़सील पठान ने पहले ही मुहैया करा दी थी. शिकायतों के पुलिंदे को ‘ऑपरेशन` में तब्दील करने के लिहाज से हम पहली मंज़िल पर उसके दत़र की घुमावदार सीढ़ियां चढ़ने वाले ही थे कि पास आ रहे आदमी से हमने किशनचंद लक्ष्मणदास की ताक़ीद कर दी जो बदक़िस्मती से वह खुद था.
”जी आप?“ मेरी ज़मीन खिसक गई.
वह साथ-साथ चढ़ता रहा. दरबान ने उसे देखते ही दरवाज़ा खोल डाला और हमें भीतर धकेल-सा दिया.
”जी मैं किशन…मगर आप?“
”हम एअरटैल से हैं.“ पठान ने बचाव में कूद लगाई.
”मगर मैं तो एअरटैल का कस्टमर नहीं हूं.“ संशय के उसी तेजाबी तेवर ने हमें बर्खास्त किया.
”नहीं हैं तभी तो आपके पास आए हैं“ पठान ने नर्मी ओढ़ी.
”आपको मेरा नाम-पता कहां से मिला?“
कमबख्त़ सूत भर गुंजाइश नहीं दे रहा था.
”हम कस्टमर केअर से हैं…अच्छे या संभावित ग्राहकों की खब़र रखते हैं.“
मरहम लगाते हुए पठान मिन्नत की मुद्रा में आ गया.
अपने-अपने मॉनीटर्स पर पैवस्त सभी लोगों की निगाहें अब तक हम पर एकाग्र हो चुकी थी.
”आपका आई कार्ड या कार्ड होगा?“
मेरी सांस रुक गई. क्या करेगा अब पठान? किस घड़ी चले थे घर से. यह केस तो हो गया चौपट. साले कैसे-कैसे दुष्ट लोग हैं दुनिया में…
”आई कार्ड और कार्ड तो हम अपने सेल्सवालों को इशू करते हैं.“
क्या दूर की कौड़ी लाया है पट्ठा! मगर हे भगवान, यह काम कर जाए.
”तो जो काम आप करने आए हैं यह सेल्सवालों का नहीं है?“
अबे हरामी निमोलियों का नाश्ता करके आ रहा है क्या?
”आपने बजा फरमाया…यह काम मेनली तो उन्हीं का है मगर कस्टमर केअर वालों को तो ओवरऑल देखना ही पड़ता है…आप जानते होंगे कि सैल कंपनियों में कितना कंपटीशन हो गया है“ पठान ने चिरौरी की. वह बात को वृहत फलक पर ले जाकर टूटे तारे की तरह गुम कर देना चाह रहा था.
तभी, ‘होम कालिंग` को लैश करता मेरा मोबाइल जिंगलबैल की धुन टेरने लगा. मैंने तपाक़ से हरा बटन दबा दिया : ”हां सर, हम मार्किट में ही है…सात-आठ कस्टमर विज़िट किए हैं. रेस्पॉन्स तो अच्छा ही है…आना पड़ेगा, ठीक है सर, बाक़ी आटरनून में कर लेंगे…ओ के सर, आते हैं…“ मेरे एकालाप पर पत्नी सन्न होकर ”क्या बकवास किए जा रहे हो“ की लाचारी कुनमुनाती रही मगर उसे ज्य़ादा मौक़ा दिए बगै़र मैं उस औज़ार का दम घोंट चुका था ताकि वह फिर से सान्ता क्लौज को न पुकारने लग जाए. टोहगिरी करते वक्त़ हमारे मोबाइल अमूमन गूंगी हालत में ही रहते थे. आज गल़ती हो गई थी, मगर गल़ती भी तिनके का सहारा बनकर आ गई थी. यही तो इस पेशे की विचित्रा गति है.
जान छुड़ाकर हम बाहर आए तो कन्नी उंगली में फंसाकर सिगरेट का कश खींचते हुए पठान ने चेताया, ”साब इस केस में देर करना ठीक नहीं…इसकी जान-पहचान में ज़रूर किसी के कोई छापा पड़ चुका है वरना कोई आर्टिस्टिक दिमाग इतना एलर्ट नहीं हो सकता.“ उसी केस में, निदेशक गंगाधर जांगिड़ के सामने दर्ज झूठ ने सारी समस्या ही सुलझा दी.
”फार्म हाउस का पता कर लिया है?“
फ़ाइल में मेरी लिखी टिप्पणी और लैग किए दस्तावेज़ों को ध्यान से पढ़ने के बाद जांगिड़ साब ने पूरे गुरु-गांभीर्य के साथ, नजदीक के चश्मे से निगाह उठाकर मुझे तौलते हुए दरयात की.
”यस सर, वहां एक सर्वे टीम रखी
है.“
”डज़ ही हैव ए कीप?“
जांगिड़ की यह स्थायी गांठ थी कि अनाप-शनाप पैसे वालों की जेब में रखैल का न होना इन्सानी फितरत के बेमेल पड़ता है…भयू सी, द अदर वोमन इज द नेच्यूरल सैक्टयूअरि ऑफ बिग बिजनैस…हमें नहीं खब़र तो यह उसकी होशियारी कम, हमारी टोही…कोशिशों की नाकामी ज्य़ादा है…“ उन पर जैसे भगवान ओसो सवार हो जाते. न बताए जाने पर वह केस को मुल्तवी करते हुए कहते ”फाइंड आउट, देअर इज नो हरी“ और हम ‘यस सर` की पूंछ हिलाकर कसमसाकर निकल पड़ते : सच्ची-झूठी की रखैल पैदा करने.
मैं कोई आधी-अधूरी रखैल खड़ी करने ही वाला था कि पठान ने पुख्त़ा यक़ीन की सहजता से जड़ा (मुझे ताज्जुब रहा कि अंग्रेज़ी में खा़सा पैदल दिखने के बाद उसने जांगिड़ की बात कैसे लपक ली!)
”दो हैं न साब.“
”दो!“ अपने यक़ीन की इस क़दर पुख्त़गी में जांगिड़ बेयक़ीनी से उछल पड़े (नौकरशाहों के ऐसे यक़ीनों पर हाय में सदके जावां!)
”हां साब, एक बाप की है, एक बेटे की“ पठान ने ऐसे कहा मानो वे दोनों बाहर खड़ी उसका इंतज़ार कर रही थीं.
‘अइ शाबाश!“
इन्सानी फितरत के इस दो टूक और समतामूलक खुलासे ने जांगिड़ की बांछें खिला दीं.
अब केस अकस्मात् ही इतना मजबूत हो गया था कि दूसरे सबूत बेमानी हो गए थे.
बाद में जब मैंने पठान से पूछा तो तौबा में बारी-बारी से दोनों कान छूकर बोला, ”वो तो साब मैंने ऐसे ही बोल दिया था.“
”ऐसे ही मतलब?“ धीमी होते हुए भी मेरी आवाज़ कड़क थी.
”ऐसे ही समझो खाली-पीली“ वह दांत निपोरकर हिनहिनाया.
”तू मरवाएगा.“
पहली बार उसके लिए मेरे मुंह से ‘तू` संबोधन फिसल गया. मैं कभी उन बेअदब बिरादरानों में नहीं रहा जो उम्र में अपने हर छोटे और दो-चार बरस बड़े को फ से ‘तू` दाग देते हैं, इस गुमान से कि ‘विक्टिम` के प्रति वे कितने स्नेह और नज़दीकी का जज्ब़ा रखते हैं.
”तौबा मेरी…आप यह देखिए साब कि केस के बारे में आप ख्ा़ूब जानते-समझते थे और बड़े साब को रखैल चाहिए थी…तो इसमें गल़त या झूठ क्या है.“ वह नब्बे डिग्री कोण पर सामने अपना पंजा छितराकर मुझे कनविंस कर रहा था. अपनी आवाज़ की पिच को फिर अचानक धीमे करके बेशर्मी से बोला, ”एक बात बताइए साब…शादी के बाद किसी ने दुल्हन की छातियों की शिकायत की है क्या?“
”व्हाट बुलशिट“ मैंने नरमी से हँसकर उसे चलता किया.
एक अबूझ तसल्ली से वापस लौटकर सामने पकौड़ों और दो-तीन तरह के नमकीनों की ताज़ा खेप देखकर पठान ने पिघलकर ताना दिया, ”क्या साब, घर भी जाने देंगे कि नहीं“ सभी प्लेटों से कुछ न कुछ उदरस्थ करने में अलबत्ता उसने ज्य़ादा तकल्लुफ नहीं की.
मुझे ही लगने लगा मानो पकौड़ों के मोल मैंने उससे जवाब मांगा है. पहले तो उसने आसमान की तरफ़ इशारा करके ”सब ऊपर वाले की दुआ समझो“ कहकर शराफतन बचना चाहा मगर अगला घूंट भरते न भरते मैंने देखा कि वह किसी निश्चित यक़ीन से फूले जा रहा है. अपनी तसल्ली के लिहाज़ से बोला, ”आपका गिलास खाली हो रहा है, इसे तो भरिए?“
”आधे मिनट में एक ‘स्माल` के साथ सोडा-पानी मिक्स करके मैंने सामान्य रत़ार पकड़ी तो किसी पैगम्बर की सी भंगिमा ओढ़कर बोला, ”पता नहीं साब…कभी सोचा नहीं…हमारी जाती ज़िंदगियों के तजुर्बे ही हमारी फितरत तय करते हैं. बड़े दिनों तक ट्रकों के भाड़े की दलाली में ईमानदारी ने मुझे इतनी और ऐसी पटकियां खिलाई कि क्या पूछिए. मैं कायदे से आधे टके पर काम करूं तो व्योपारियों को ज्य़ादा लगता मगर पुलिसिए और मुंसीपल्टी के नाम का रोज़ दो-पट लूं तो उन्हें कोई एतराज नहीं. हक़ीक़त बात ये है कि सच बोल के ज़मीर तो सुकून से रहता है मगर दुनियादारी के खामियाजे इस पर भारी पड़ते हैं. गांव के मैदानी स्कूल में मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था चमन. हमारी तरह ही फाकेहाल मगर रहता बड़ी साफ़-सफ़ाई से था. मास्साब उसी से लोटे में हैंडपंप का पानी मंगवाते. एक दिन चमचमाते लोटे में जब वह ठंडा-ठंडा पानी लेकर आया तो मास्साब ने उसकी दरयात कर दी :
”ले आया?“
उनकी आंखें किसी घात लगाए चीते सी नापाक थीं.
चमन की समझ न पड़े कि माजरा क्या है. क्या कहे?
”?“
”थूक डाल दिया था“ अपने गुबार को मास्साब ज्य़ादा देर नहीं रोक पाए.
”ना मास्साब“ बेनूर होते जा रहे चमन ने सफ़ाई में गर्दन हिलाई.
मगर एक बलिष्ठ हथेली ने तभी चमन के बाएं गाल और कान की खपच्चे बिखेर दीं. भरे लोटे के साथ वह औंधे मुंह जाकर गिरा. हालत इतनी खस्ता कि रोने लायक हौसला भी नहीं बटोर पा रहा था.
दरअसल उसकी पीठ पीछे किसी ने इस ‘सच` से मास्साब के कान भर दिए थे. चमन क़सम खाकर मना करता रहा कि इल्जाम सच नहीं है. उसकी बेतरह धुनाई करते जा रहे मास्साब ने इस बिना पर अपने ब्रेक लगाए ”ठीक है, आज नहीं थूका मगर सच बता…पहले कभी थूका था…ध्यान रखियो…सच बोलेगा तो मैं छोड़ भी दूंगा पर झूठ बोलेगा तो तेरी खै़र नहीं…“
सच या झूठ मगर चमन ने गुनाह कबूल कर लिया, मगर मास्साब ने सरासर वादाखिलाफ़ी की : चमन को जमकर सूंता और स्कूल से निकलवा दिया.
आप यह देखिए कि सच की राह के ज़रा से वाकये ने एक अच्छे-खा़से बच्चे की ज़िंदगी बदल दी. देहात भर में मची खब़र की खिल्ली ने उसके बाप को सन्न कर दिया. तीसरे रोज़ चमन गांव से भाग गया जो कभी नहीं लौटा. सुनने में यही आया कि कुछ दिनों उसने गुमटियों पर चाय के बर्तन मांजे, जेबें काटीं और दो-चार बार पुलिस हिरासत में रहने के बाद होते-होते जिस्मानी कारोबार का दल्ला बन गया.
चमन और स्कूल को छोड़िए, मेरी अपनी ज़िंदगी में कितने वाकए और हादसे हुए कि सच से यक़ीन उठ गया. हमारी दुनिया में इतनी कूवत नहीं है कि वह सच को एक हक़ीक़त की तरह पचा ले…दूसरों के नाजायज़ ताल्लुक़ात की तरह वह उसमें एक मालूमाती दिलचस्पी तो रखती है मगर बर्दाश्त नहीं करती है. सच कहूं, सच इस दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है. कितनी तो इसकी बैसाखियां हैं…आप हिंदी में क्या कहते हैं…समय-सापेक्ष, व्यक्ति-सापेक्ष, परिस्थिति-सापेक्ष, नीयत-सापेक्ष…
मैंने उससे क्या पूछा था और पट्ठे ने कहां ले जा पटका. बहरहाल अपनी दुनिया के काले-सफेद और खुरदरे झूठों से परे मुझे इन्सानी फितरत में पैवस्त ऐसे चिकने और बेरंग झूठों की याद ताज़ा हो आई थी जो कड़वे सचों से ज्य़ादा घातक और मारक रहे थे. स्कूल में वीके गुप्ता भौतिकी पढ़ाते थे. अपेक्षाकृत जवान-से दिखते और हँसमुख. विषय में दुरुस्त. बढ़-चढ़कर सवाल पूछने को प्रेरित करते ”मुझे लगना चाहिए मैं कद्दू-बैगनों को नहीं, समझदारों को पढ़ा रहा हूं,“ वे जैसे चुनौती फैंकते. भला हो उस सीनियर का जिसने वक्त़ रहते चेता दिया ”कभी इस चक्कर में मत पड़ना…समझ में न आए तो घर पर दो घंटे एक्स्ट्रा लगा लेना या किसी साथी से पूछ लेना…अपने पढ़ाए पर सवाल किए जाने से गुप्ताजी को एलर्जी है…प्रैक्टीकल्स तो हमेशा इनके ही पास रहने हैं.“
और सालाना नतीजे वाक़ई इसके गवाह थे.
मगर उसके फलसफे में दो इंर्टें जोड़ने की बजाय मैंने बात का रुख बदला, ”मगर मियां ज़मील अहमद पठान, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि तुम सच की पैरवी कर रहे हो या झूठ की?“
”पता नहीं साब…मैं दोनों को ज़िंदगी के बरक्स, सिक्के के दो पहलुओं की तरह देखता हूं, अलहदा करके नहीं…“
मियां तुम इतने बड़े फिलॉसफर नहीं हो जितना बने जा रहे हो.
”अमां सच-झूठ के दरम्यान इतना घपला भी नहीं है कि दोनों में फ़ऱ्क ही न हो सके“ मुझे सख्त़ी से कहना पड़ा.
एक बार फिर उसने कंधे का सहारा बदला और खुजली की हाजत में तर्जनी उंगली कान में डालकर झनझना दी. एक पकौड़े को एक बार में आधे से ज्य़ादा गड़प किया और किसी पोशीदा चाल को दबाती मुस्कराहट में बोला, ”उसे जाने दीजिए. फ़िलहाल आप यह बताइए कि आप मेरी काबलियत कितनी समझते हैं…बताइए, बताइए…“
”काबलियत की तुममें क्या कमी है, अच्छे-अच्छों की ऐसी-तैसी कर देते हो…“
”मज़ाक़ नहीं सर, सच बताइए.“ उसका कौतूहल कुछ दर्ज करने को बेताब था.
”बहुत पहले तुम्हीं ने कहा था…तुम चौथी पास हो…“ स्मृति के अंधेरे बस्ते से मेरे हाथ जो लगा, निकाल खींचा.
”जी हां, कहा था और अब कह रहा हूं कि मैं ग्रेज्युएट हूं, एमए प्रीवियस का फार्म भी भरा था मगर हालात नहीं बन पाए…बीए में मेरे पास हिस्ट्री, सोशियोलॉजी और इकॉनॉमिक्स थे…“
मेरा तीसरा पैग खत़्म हो गया था मगर उसके खुलासे ने सुरूर े फुसलाते रहना और, अभी-अभी उसके बताए वे सभी दोयम-कमतर काम जो किसी पढ़े-लिखे की सोच और गै़रत में शामिल नहीं हो सकते थे. एक पल को जेह़न में यह खय़ाल खटके बगै़र नहीं रह सका कि पठान के ‘केस` में मेरी ‘रैकी` कितनी बुरी तरह ‘ऑफ टारगैट` हो गई है. यह कम बड़ा सदमा नहीं था. शायद उसे भी लगा कि अपने बारे में ऐसी बात छिपाकर उसने क्या फिजूल का गैप खड़ा कर लिया है.
भीतर से ‘डिनर रैडी` का संदेश आया तो पठान हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ. घर से बाहर निकलकर उसे विदा करने की छूट मुझे नहीं थी. अधखुले दरवाज़े पर किसी चूहे की तरह उसने दाएं-बाएं झांका और चला गया इस उम्मीद में कि उसे फ़ोन पर मेरे ‘सात नंबर` पुकारे जाने का इंतज़ार रहेगा.
मगर मैंने उसे ”हां भाई सात नंबर“ टहेलता फ़ोन नहीं किया. मैं पल-पल अपने तबादले की इंतज़ार कर रहा था. तीन साल से दिन-रात छापे मारते-मारते मेरी हालत स्टड फार्म के उस घोड़े जैसी हो गई थी जिसके ‘काम` को दूसरे बड़े रस्क से देखते हैं मगर एक तात्कालिक आनंद के बावजूद अपने कर्म से वह इतना ऊब-उकता चुका होता है कि दिन रात ‘उसी` से पलायन करने की सोचता रहता है…गधा बनकर बोझा े सहलाने में लगा था. क्यों इस मुर्दे में जान डालने में लगा है खुदगर्ज…कितना ही करले, अब तेरी दाल नहीं गलेगी…आवर हनीमून इज़ ओवर!
”आपने ऐसा ‘केस` नहीं किया
होगा.“ अच्छा, ऐसा नहीं किया होगा तो कैसा किया होगा? एक अदद उबासी खींचकर मैंने चटखारा लिया…तो जनाब फरमा रहे हैं कि अभी तक हम घास छीलते रहे हैं.
”आपका दिल खुश हो जाएगा.“
वह अपनी लेन में घुसने को आमादा हो रहा था.
”पठान, इस वक्त़ यह जगह ऐसी बात करने को मुनासिब नहीं है…तुम्हें बताना है तो छह बजे के बाद आना.“
मेरे द्वारा बेतकल्लुफ पर क़तर दिए जाने के बावजूद वह ‘सॉरी सर` गिड़गिड़ाने लगा और शाम को आने का हुक्म सर पर ओढ़े चला गया.
जब आम खाने ही नहीं हैं तो पेड़ क्या गिनने?
मगर ठीक छह बजे वह उसी तरह दबे पांव चेंबर में घुस आया. इस दरम्यान मैंने अपना मन और पुख्त़ा कर लिया था कि बिना मोहलत दिए उसे टरका देना है. इसलिए उसके कायदेसर बैठने से पहले ही मैंने दाग दिया, ”तुम जानते तो हो पठान कि मेरे ट्रांसफर का बस आजकल-आजकल हो रहा है…क्या फ़ायदा कि केस करने की वजह से किसी को चाऱ्ज देने में डिले हो जाए.“
”आप केस को एक नज़र देख लो… जितना हो सके डैवलप कर लो…बाक़ी जैसी ऊपर वाले की मऱ्जी…“ कहते हुए उसने हाथ ऊपर उठाया. ऐसी जायज अर्जी पर बेरुखी में सुनते हुए भी मुझे ‘चलो बताओ` की रियायत देनी पड़ गई.
उसने उचककर एक पुलिंदा मेरी नज़र कर दिया.
ज्य़ादातर चीज़ें अभद्र-सी लिखावट में सिलसिलेवार
नाम जावेद अहमद सिद्दकी. बीवियां तीन. बंगले चार (एक पुश्तैनी जिसमें विधवा मां रहती है और जहां जावेद दूसरे-चौथे रोज़ आता-जाता है). बेटे सात, पांच शादी-शुदा. आठ दुकानें चमनपुरा बाज़ार में, पांच नवाबगंज में. ‘सुकून` सुपर मार्किट में आधे की भागेदारी. नीलमबाग से थोड़ा आगे पांच हज़ार गज़ का प्लॉट जिसमें एक बिल्डर के साथ मिलकर लैट्स-दुकानें बनाने का काम शुरू होने वाला है. तीन पैट्रोल पंप (दो शहर में, एक हाइवे पर). तीन टैंकर और बाइस ट्रक. निजी वाहनों में तीन लांसर, दो होंडासिटी, दो कॉलिस, तीन सेंट्रो और एक टाटा सूमो…“
”कोई काम ऐसा भी है जो यह नहीं करता है.“
मैंने तंज कसा…क्या पता मुझे मोहरा बनाने के लिए ही इतना बड़ा चुग्गा डाल रहा है.
”तभी तो.“ मेरा मंतव्य समझे बगै़र उसने अधीरता से जड़ा.
”यार लानत है हमारे जैसे चश्मपोशों को जिन्हें ऐसे माफिया अहमक की खब़र तक नहीं…“
मैं अब भी उसके ‘किला-ए-तसव्वुर` को गिराने में लगा था.
”ज्य़ादातर चीज़ें तो बेनामी हैं…फिर साब आप लोग हमारी बस्ती-मोहल्लों में आते कहां हैं? आप तो वहां घिन और गंदगी ही देखते आए हैं…और आपका भी क्या कसूर जब पुलिस भी किसी मुहिम के दौरान ही हाजरी बनाती है…बिजली वाला रीडिंग लेने नहीं जाता…“ वह अपनी बात बढ़ाता ही जा रहा था कि मैंने टोका, ”अमां तुमने हमारी वक्त़ मीटर रीडर जितनी कर दी?“
”वो बात नहीं है साब…जो ताक़त और रुतबा आपके विभाग के हाथ है, और किसी के पास कहां? पैसा इन्सान की सारी करतूतों का समझो जोड़ भी है और निचोड़ भी. पैसे के बगै़र धर्म का भी गुज़ारा नहीं होता, पैसा ईमान डिगाता ही है…और आप लोग आदमी के हलक़ से इसी को निकाल लेते हो. कमा ले कोई जितना चाहे हिसाबी-बेहिसाबी पैसा…खा तो वह सकता नहीं है, बस उड़ा सकता है मगर कितना? आखिऱ में तो वह बीवी के गहने-जेवर बनवाएगा, पुश्तों के इन्तजामात में ज़मीन-जायदाद बनाएगा, लॉकर-एफडी में रखेगा…“
”रखैलों पर उड़ाएगा?“
मेरे ज़ेहन में जांगिड़ साब आ खड़े हुए.
”बेशक, रखैलों पर भी उड़ाएगा“ ‘पर` पर जोर देकर उसने मेरी बात दोहराई.
”तो तीन बीवियों के बावजूद जावेद यह शौक़ फरमाता है या नही?“
”क्यों नहीं साब, क्या वह इन्सान नहीं है?“
मेरी चुहल पर पठान भी जुगलबन्दी करने लगा.
”ऐसे ही जैसे किशनचंद लक्ष्मणदास की थी या सचमुच की?“
मेरे चटखारे की नब्ज़ पर पोटुओं से अपना टेंटुआ पकड़कर वह पिघल पड़ा.
”अल्ला कसम साब! लो, वो तो मैं भूल ही गया था…एक स्कूल भी तो है इसके… उसकी प्रिंसिपल…कई साल से है. आपको तो पता ही होगा कि स्कूल से बढ़िया आजकल कोई धंधा नहीं. मनमाफिक फीस लो, बिल्डिंग के नाम पर डोनेशन लूटो, उधर सरकारी ग्रांट्स अलैदा…और खऱ्चे के नाम पर थोड़ा-बहुत बिजली-पानी और स्टाफ- टीचर्स की तन्खाहें…उसमें मनमानी कटौती, जिस मर्जी को लगाओ-हटाओ या अपनी ‘प्रिंसिपल` बना लो…“
विभागीय निस्संगता के उस दौर में रिवार्ड की एक फ़ाइल जांगिड़ साब की स्वीकृति के लिए लेकर गया तो उन्होंने बुरी खब़र दे मारी : विभाग के अखिल भारतीय तबादलों की नई नीति आ रही थी जिसके तहत इस वर्ष कोई तबादला नहीं होना था, सिवाय शिकायत अथवा अनुकंपाशील मामलों के जिनमें मेरी गिनती नहीं थी. लंबी पारी के कारण मेरे ज़ाहिर आलस्य को भांपकर उन्होंने अपनी तरह से मुझे खूब झिंझोड़ा मुख्यत: एक सफल छापेबाज होने के मेरे पोशीदा अहम् को सहलाते हुए. ऐसी हालत में हता-दस दिन यूं ही निकालने के बाद मैंने जावेद अहमद सिद्दकी का केस उनके समक्ष रख दिया. उसका नैटवर्क, तौर-तरीका और कारोबारी विविधता देखकर वे लगभग उछल पड़े. टारगैट हिट करने के लिए हर सुरमई रंग वहां पहले से ही मौजूद था मगर उनकी अतिरिक्त तसल्ली का सबब कुछ और ही निकला : ”एक प्रवर्तन संस्था के तौर पर इतने बरसों काम करते हुए हमने कभी इस नज़रिए से नहीं सोचा मगर पिछले तीन-चार छापों के बाद कई संगठनों ने हम पर आरोप लगाया है और मैं समझता हूं कि आरोप बेबुनियाद नहीं है कि हम अपनी दादागिरी सब पर चला लेते हैं, सिवाय एक खा़स कम्यूनिटी के…आई थिंक इफ वी आर इम्पार्शल, लैट्स लुक लाइक वन…“
इससे ज्य़ादा ग्रीन सिग्नल की दरकार नहीं थी कि मुझे क्या करना है. उल्टे, मुझे एक भीतरी तसल्ली थी कि केस के ‘सही` होने की बाबत मुझे निदेशक के सामने कोई खसखसा जस्टीफिकेशन गढ़ने से निजात रहेगी.
जावेद की जड़ों की तहक़ीकात करना मेरे अभी तक के अभियानों का सबसे कसैला अनुभव था. दूसरे कारोबारी शिकारों में बखूबी आजमाया मेरा हर हथकंडा यहां मुंह की खा रहा था. मैं पस्त-हालत (यानी बेनहाया और हवाई चप्पलें चढ़ाए) में कूरियर बॉय बनकर जाता तो तंग गलियों के उस गंदले चक्रव्यूह में निठल्ले बैठे-घूमते लड़के मेरी ऐसी सुनवाई करने लगते कि जान पर बन आती. मैं दत़र से दूर किसी पीसीओ बूथ से ग्राहक बनकर ‘अस्सला वालेकुम` से शुरुआत करता तो दूसरे ही पल चौराहे पर अपनी मां-बहन की इज़़्जत नीलाम कर दिए जाने की बजबजाती धमकी बर्दाश्त करता. उसकी आवाजाही को ट्रैक करना तो नामुमकिन ही था. पता नहीं क्यों उसे रक्तचाप की शिकायत नहीं थी वरना आसपास के पार्कों में सुबह-सुबह स्पोट्र्स गीयर में दो हते ब्रिस्क वॉक करते किसी एक दिन तो मैं उससे टकराता. भला हो ‘प्रिंसिपल साहिबा` का जिनकी दरियादिली ने मुझे बस फेल होने से रोक दिया. बहरहाल, मैं इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ गया था कि दतरी काम-काज के सिलसिले में लोग क्यों अवसादग्रस्त हो जाते हैं.
जानकारी के आपसी लेन-देन और आगे की रणनीति तय करने की जगह इस बार शहर की बड़ी लाइब्रेरी थी जिसके भीमकाय हॉल में दोपहर को अमूमन सन्नाटा रहता था. एकाध किताब बगल में दबाकर हम मजे से ज़रूरी खुसपुस कर सकते थे.
”अमां किस दोज़ख में फंसा दिया तुमने पठान.“ दो हतों की पिसायी के बाद मैंने अपनी कोत निकाली.
”दोज़ख नहीं साब, समझो रिवार्ड केस है…आपके हल्ले हो जाएंगे“ वह ठंडक से आश्वस्त करता.
”जान तो बच जाएगी ना.“ किसी निरंकुश के भीतर एक कोने में ठहरे डर की तरह मैं अपना पोस्ट-ऑपरेशन डर उस पर उगलता.
”आज तक कभी हुआ है क्या?“
”तुम यह बताओ कि इतनी सारी जानकारी तुमने कैसे हासिल कर ली?“ यह उसके राज़ की तहक़ीकात नहीं, टोहगिरी के जोखिम रास्तों मिले फफोलों की कसक थी.
”आपको जोखिम ज्य़ादा लगते हैं क्योंकि आप कौम से बाहर के हैं. कौम के भीतर कुछ न कुछ तो चलता ही रहता है…शादी-ब्याह के चर्चे, बिरादरी-रिश्तेदारी की बातें. फिर इसके एक लड़के के यहां मेरे साले की लड़की नौकरानी है…जिस आदमी की लाखों की ज़मीन इसने दहशत के दम पर कौड़ियों के मोल हड़प ली, वह मेरी खाला के यहां किसी का रिश्ता लेकर आया था…“
मुझे यक़ीन आने लगा था फिर भी पूछे बगै़र नहीं रहा, ”कोई जाती मामला तो नहीं?“
दरअसल जाती समीकरण चीज़ों को इतना तोड़-मरोड़ डालते थे कि ‘सही` टारगैट की शिनाख्त़ मुश्किल पेश करती थी…हर निष्कासित कर्मचारी, नाराज़ भागीदार और त्रास्त लेनदार हमारी मार्फत ‘हिसाब` चुकता करने को बौराया रहता था (सिवाय उन चंद ‘मित्राों` के जिनकी राष्ट्रीयता की भावना ज्य़ादा उदात्त क़िस्म की थी.).
”एकदम नहीं साब…आपके काम की तरह मेरे काम में जाती बात कुछ नहीं होती है. अल्लाह के फ़जल से किसी चीज़ की कमी नहीं है…आप जैसे मेहरबानों का साया है. मेरे मुसलमान होने के खय़ाल से आपके मन में यह शक आ रहा हो तो बता दूं कि मैं अपने क़ारोबार में ऐसी किसी तकसीम को पनाह नहीं देता…पैसे का कोई धर्म नहीं होता साब और वैसे समझो तो सभी धर्मों का धर्म ही पैसा है. छोटा आदमी हूं साब मगर एक बात जानता हूं कि ज्य़ादा पैसा गुनाह की बिना के बगै़र नहीं जुड़ सकता और जुड़ भी जाए तो गुनाह की मोरी में ले जाए बगै़र नहीं बख्श़ता…“
यह बात तूने ख्ा़ूब कही मेरे गफार खा़न. पूछा जाए कुछ, मगर जवाब ऐसा तगड़ा-सा मार दो कि पूछने वाला ढॅ।
काम की बात पर आने के लिए बात बदलनी पड़ी.
”ऐसा है, एस आर पी पूरी मिल गई तो अगले महीने के पहले हते हिट करने का इरादा है. तुम किसी तरह पता लगाओ कि उन दिनों जावेद कहीं बाहर तो नहीं जाने वाला है“ मेरी अपेक्षानुसार उसने काम की गंभीरता पर कान दिए.
”समझो पता लग गया.“
”तो समझो प्रिंसिपल साहिबा आ गइंर् लपेट में…गो इस कार्रवाई का नाम ‘ऑपरेशन प्रिंसिपल` कर देते हैं…“
मगर टोहगिरी की राह में कुछ हतों की मेरी दिलतोड़ मेहनत और पठान की सूचनाएं धरी की धरी रह गइंर्. लायब्रेरी में की गई मुलाक़ात के तीसरे रोज़ शहर में लूटपाट, आगजनी, अपराध और हत्याओं का ऐसा एकतरफ़ा विस्फोट हुआ कि आंखों को यक़ीन न हो. दक्षिणपंथी हिंदुओं के नियोजित जत्थों ने राज्य संस्था की मदद और सांठ-गांठ से राज्य भर में नृशंसता का ऐसा तांडव रचा कि किताबों में पढ़े दूसरे विश्वऱ्युद्ध के वक्त़ के थर्रा देने वाले मनहूस फासी दिन भड़भड़ाकर ताज़ा हो गए. आदमी-औरत, बच्चे-बूढ़े, अमीर-गऱीब, सभी को हुल्लड़ दस्तों ने खरगोश-मेमनों की तरह लाचार हालत में हलाक़ करने में कोई भेदभाव नहीं बरता…किसी को बाहर से कमरा बंद करके फूंक दिया गया तो किसी को शिकारी कुत्तों की मानिंद दुरदुराकर जिबह कर दिया गया. परिवार के परिवार ही नहीं, बस्तियों की बस्तियां भट्टों की तरह कालिख उगलकर श्मशान बन रही थीं. तकनीकी और प्रबंधन की एक से एक नई जानकारी, अस्तित्व और पहचान के संकट से हिंदुत्व को उबारने में झोंक दी जा रही थी. ग्लोब्लाइजेशन के मजबूत दावों के तहत हो रही सूचना क्रांति, रातों-रात शहर को यातना शिविर बन जाने से नहीं रोक पाई. हैवानियत के इस वीभत्स जश्न में अधिसंख्य गैऱ-मुस्लिम आबादी दर्शक भर नहीं थी, बाक़ायदा या बेक़ायदा वह उसमें शरीक थी. अखब़ार वह उस बर्बरता की इन्तहां पर शर्मसार होने की गरज से नहीं, अपनी जीत का ‘आंकड़ा` जानने की परपीड़न इच्छा से ज्य़ादा पढ़ती थी. खब़रों से भरे उस दुपहरिया अखब़ार में ही मैंने अजीब तरह से चुभती तकलीफ़ से पढ़ा कि जावेद को भी उसकी पैदाइश की सज़ा दे दी गई थी…तीन लड़कों समेत परिवार में आठ लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे. उसके कारोबारी नुकसान की तो अटकल लगानी भी फिजूल थीं क्योंकि अभी जहां बेनामीदारों की फेहरिस्त बनाई जानी थी वहीं ज़रूरी नामदार ही गा़यब हो गए. फ़िलहाल तो उसके नौ ट्रक और चारनिजी कारों के लावारिस कंकाल ही हिंदुओं की विजय-स्मृति बने पड़े थे. जंगली वहशत की तीन-चार रोज़ चली हुकूमत के बाद, यानी बहुसंख्यकों द्वारा मुसलमानों को ‘सबक़` सिखा देने के तीन-चार रोज़ बाद मार-काट की सामूहिक दास्तानों में कमी तो हुई मगर इन्हीं तीन-चार दिनों ने सैकड़ों बरसों की सभ्यता खा़रिज कर दी थी. उसके कई महीनों तक राहत शिविरों के हज़ारों बेघर, बेज़ार और अभिशप्त, नारकीय ज़िंदगी बख्श़ दिए जाने (बख्श़ा किसने था, वे तो बस छूट गए थे) पर खुद को खुशक़िस्मत समझते रहे. तंगी और गंदगी में रहकर एकजुटता पनपती है इस फलसफे के तहत अल्पसंख्यकों द्वारा प्रति-आक्रमण कर दिए जाने के डर से हिंदू समाज के शेरों की नींद अलबत्ता फिर भी उड़ी हुई थी. यह कयास तो वाजिब भी था कि नेस्तनाबूद कर दिए जाने के डर और कौम से ली जा रही बेवजह कुरबानी ने मुसलमानों को ज़ाहिरन बिरादरेपन में बांध दिया था.
तीन-चार महीने से पठान की कोई खब़र नहीं थी. मेरे भीतर वक्त़-बेवक्त़ यह खय़ाल फिरककर चला जाता कि उन्मादियों ने कहीं उसे भी तो ठिकाने नहीं लगा दिया…आखिऱ हाईकोर्ट के जज, विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और खुद पुलिस के अफ़सरान सत्ता-तंत्रा में अपनी उपस्थिति रखे जाने के बावजूद अपनी पैदाइश के खिल़ाफ़ कुछ भी न कर पाने को मजबूर हो गए थे. ऐसे सामाजिक झंझावात के दौर में अपना दतरी ‘फ़ऱ्ज` जैसा टुच्चा काम करने का सवाल ही नहीं था. जावेद अहमद सिद्दकी और उसके परिवार के साथ जो हुआ उससे मोटे तौर पर अफ़सोस हुआ था मगर ऐसे घाघ और कपटी व्यक्ति को अपना शिकार न बनाए जाने की अंदरुनी राहत भी थी.
मगर कोई छह महीने बाद, लाइब्रेरी के उसी हॉल में पठान की ‘नमस्ते साब` ने एक शनिवार मुझे चौंका दिया. ”तुम यहां…अरे…कैसे हो…फ़ोन करके हालचाल तो बता देते…“ बेकाबू होकर मेरे मुंह से सवालों की झड़ी गिरने लगी. उसे ज़िंदा और साबुत हाल देखना पूरी तरह गले नहीं उतरा था.
”अल्ला के फजल से सलामत हूं साब, कोई नुकसान भी नहीं. मस्जिद पास ही है मेरे घर के…“
उसने मुझे बताया कि हर शनिवार इस लाइब्रेरी में आने की मेरी आदत के चलते वह कई शनिवारों से मुझे पकड़ना चाह रहा था मगर हो ही नहीं पाया. ”तो मोबाइल कर दिया होता“ मैंने आत्मीय नाराजगी जताई. ”नहीं साब आजकल मोबाइल का भी कुछ ठिकाना नहीं…हमारी कौम तो वैसे भी शक के निशाने पर रहती है“ लाचारगी में उसकी आवाज़ निकली.
लाइब्रेरी के पिछवाड़े की गुमटी पर खड़े-खड़े ही चाय की सुड़की भरते वक्त़ मेरी आवाज़ बोझिल थी.
”बहुत बुरा हुआ पठान…नहीं होना चाहिए था.“
मैं जैसे कहीं न कहीं ‘हत्यारी` कौम के अहसास से दबा था. ”अरे जाने दो साब…क्या अच्छा क्या बुरा…“
कहना होगा उसने काफ़ी नुनखुरेपन से मुझे क़तर दिया. उसकी कौम पर
”ऑपरेशन प्रिंसिपल` तो खटाई में ही गया…बेचारे के साथ देखिए आतताइयों ने क्या नहीं कर डाला…“
”वो तो है मगर चारों तरफ़ से जो ‘रिलीफ` आ रही है, उसे भी तो उसी के लोग हथिया रहे हैं…गऱीब तो इसमें भी मर रिया है…“
देश-विदेश की सरकारी, गै़र-सरकारी संस्थाओं से आने वाली सहायता की खब़रें अखब़ारों में आती रहती थीं. किसी सरकारी योजना के तहत उसके आबंटन में जो भेदभाव या घपला होता है, उससे मैं वाकिफ़ था.
किसी भी तरह के प्रतिवाद का मौक़ा पठान ने नहीं दिया, ”और फिर साब जो प्रोपर्टीज़ बेनामीदारों के हाथ महफूज हैं, जो पैसा बैंकों के लॉकर्स और एफडीज़ में सेफ पड़ा है…जो इनकम बेहिसाबी खा़तों में दऱ्ज है उसके बरक्स इस्लामिक रिलीफ़ कमेटी या दूसरी किसी एजेंसी की मदद का क्या मोल है…’हमको` यह सब थोड़े ही देखने का होता है…कि दंगे-फसाद में क्या हुआ…यह तो बीमा कंपनी वाले देखेंगे…हमारे मुल्क में यह सब तो चलता ही रहता है. आपका अभी मूड नहीं हो तो कुछ दिन और रुक लेते हैं…“
पठान के ‘धर्म` को मैंने मन ही मन सलाम किया और गिलास पटककर गहरी आश्वस्ति में उठ खड़ा हुआ.