वह बडा अद्भुत दिन रहा होगा जब मैं ने तय किया और उल्लसित हो उठी। दौडती हुई सीढियाँ उतरी। वे सब बाहर बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे और जिन्दगी की गहन समस्याओं को सुलझाने में मशगूल थे। हालांकि समस्याएं उनकी अपनी खुद की तैयार की हुई थीं जिन्हें सुलझा सकने की कोशिश में वे अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन कर रहे थे।

मेरे नंगे सर और रात वाले कपडों में वे मुझे देख कर इस तरह खडे हो गये जैसे उनपर गाज गिरी हो। पर उनकी तरफ से बेपरवाह मैं सीटी बजाती हुई पोर्च की तरफ बढी, ज़हाँ कार खडी थी।

बहुत साल पहले जब मेरा बचपन मरा नहीं था, मेरे दोनों भाई इसी तरह सीटियाँ बजाते हुए फुटबॉल खेलने अपनी-अपनी सायकलों पर घर से निकला करते थे। उनके पीछे उसी तरह भागने को लालायित मैं जब उसी तरह सीटी बजाती हुई निकलती, वे बडी क़्रूरता से पीछे लौटते दोनों तरफ से मेरी बांहें पकड क़र घसीट कर कमरे में ले जाते और बाहर से दरवाजा बन्द कर देते। मेरी मां अपनी क्रूर चुप्पी में उनके साथ शामिल रहतीं और शाम को मैं बडी हसरत से अपने कुत्ते को देखती जिसे पिताजी चेन से बांध कर बहुत दूर तक घुमाने ले जाते।

कार बंद थी। यह कार मेरे पति ने मुझे अपनी उन सेवाओं के लिये दान में दी जिन्हें हर चौबीस घंटे मैं बडी फ़रमाबरदारी से निभाया करती थी पर इसकी चाबी वे हमेशा अपने पास रखते थे। मैं ने सीटी बजाते हुए इशारे से उन्हें बुलाया। न भी बुलाती तो वे लपकते हुए मेरे पास आ ही रहे थे। ये किस तरह मुमकिन था कि उनके अंगूठे के नीचे से फिसल कर एकाएक मेरा पूरा कद निकल आए और वे चुप बैठे रहें।

” ये क्या हो रहा है? ” उनके चेहरे पर गुस्सा था, व्याकुलता और भय – इस गृहस्थी के लोगों के सामने यह जो मर्द बना फिरता है, मैं इसकी कलई न उतार दूँ। मैं ने हिकारत से उसकी ओर देखा – रात में जो आदमी मेरे पैरों में गिरता है, मेरा थूक चाटता है, वह दिन की रोशनी में किस तरह केंचुल बदल डालता है कितनी तत्परता से। मुझे उस वक्त लगा – मेरे भीतर एक खोखल है, जिसमें इसके लिये जाने कितनी नफरत है और जितना भी मैं उसे बाहर उलीचने की कोशिश करती हूँ, उतनी ही वह भीतर भरती जाती है।

इसके पहले कि मैं कुछ कहूँ, उसने मेरा हाथ पकड क़र अंदर धकेल दिया। मैं लडख़डाई और सीधी होकर उसकी ओर देखा। मारे गुस्से के उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहा था। क्या क्या दबा कर रखा है, आज निकाल दूँ? मैं ने आगे बढ क़र एक करारा थप्पड उसे रसीद किया। यह इतना अप्रत्याशित था कि वह कई कदम पीछे हट गया। मैं ने एक जोरदार लात कार को जमाई और गेट खोल कर बाहर आ गई।

” चौकीदार पकडो इसे! ”

पीछे से कोई बेकाबू होकर चिल्लाया और मैं और तेज भागी। किसी की पकड में आकर मैं एक दिन नष्ट नहीं करना चाहती थी। पता नहीं किन गलियों व घुमावदार रास्तों से होती हुई मैं किसी चौक पर पहुँच गई थी। सुबह की आवाजाही बढ रही थी। बच्चे स्कूल जा रहे थे और आदमी दफ्तर…और औरतें… पडी होंगी घर के किसी कोने में, बरतन मांजती, झाडू लगाती, बच्चों की गंदगी साफ करती हुई, तमाम नफरत के बावजूद मुस्कुराती हुई पति के साथ हमबिस्तर होतीं और सुबह घृणा से अपने आप को धोती हुइं। मैं ने नफरत से धरती पर थूक दिया। फिर ध्यान से चारों ओर देखा। एक गुमटी में एक चायवाला सबको चाय बना बना कर दे रहा था। मुझे अचानक चाय की तलब लगी और मैं उसके पास चली आई।

” एक चाय और एक पाव देना। मैं ने उससे कहा और गुनगुनाती हुई चारों ओर देखने लगी। मेरे गुनगुनाते ही गुमटी के चारों तरफ खडे लोग जैसे सतर्क हो गये और मुझे देखने लगे। धीरे धीरे उनका घेरा तंग होता गया और मैं बीच में आ गई। तभी चाय वाले ने चाय का गिलास और पाव मेरी तरफ बढाया जो कई हाथों से होता हुआ मुझ तक पहुँचा। मैं ने एक हाथ से सबको परे धकेला और स्टूल पर बैठ गई, बडे आराम से। पाव खाया, चाय पी और चाय वाले के मग्गे से हाथ मुंह धो डाले तब तक सारा वक्त जैसे थमा थमा मुझे देख रहा था।

” ए, कहाँ से आ रही है?” एक ने लापरवाही से पूछा।
” यार के बिस्तर से।” दूसरे ने चटखारा लिया।
” हाँ, सच तुम्हें कैसे पता? ” मैं आश्चर्य से हंस दी।
” हम भी यारों के यार हैं, साथ चलेगी?” तीसरे ने मेरी बांह पकडी और मेरा हाथ चूम लिया।
” नहीं, आज नहीं, फिर कभी।” मैं ने पैसों के लिये कुरते की जेब में हाथ डाले।
देख कर एक ने कहा, ” एक पप्पी दे दे, पैसा मैं दे देता हूँ।”
” नहीं, तुम बहुत बदसूरत हो।” मैं ने जेब से पैसे निकाले और चाय वाले को दे दिये। वह अकबकाया सा मुझे देख रहा था।
मैं ने दोनों हाथों से सबको परे धकेला और वहाँ से भाग ली।

मैं चलती हुई पता नहीं शहर के किस हिस्स में आ गयी थी और अब तक थक गई थी। कितना वक्त हो गया, मैं सडक़ों पर इस तरह नहीं चली। जब निकली कार के काले शीशों के अन्दर बैठ कर। लोग कहते हैं, दुनिया बहुत बदल गई है- क्या सचमुच?

मैं जाकर सडक़ के किनारे बैठे हुए मोची के पास जाकर बैठ गई, उसने संदिग्ध भाव से मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा,
” ए, क्या चाहिये?”
” कुछ नहीं, सुस्ता रही हूँ।”
” सुस्ताने के लिये तुझे और कोई जगह नहीं मिली ? चल चल मेरा धंधा खोटा मत कर पुलिस वाले ने देख लिया तो।”

उसने मुझे अपने एरिया के बाहर धकेल दिया। मैं उठकर चलने लगी तो उसने पीछे से आवाज दी,
” ऐ सुन!” मैं मुडी।
” सुस्ताना है तो रात को आना।”

मैं हँस दी, मोची भी। और फिर मैं चल पडी। 

थोडी दूर आगे एक स्टेज सजा था। एक मंत्री जी भाषण दे रहे थे। लोग बडे अनमने भाव से सुन रहे थे। गर्मी व पसीने से तरबतर, मुझे अचानक उस आदमी पर गुस्सा आ गया और मैं दौडती हुई मंच पर चढ ग़ई। पहले तो किसीकी समझ में नहीं आया कि क्या हो गया। जब तक समझ में आया, मैं उस आदमी को परे धकेल चुकी थी और माईक पर कह रही थी, ” भाईयों और बहनों, अगर सुनना है तो सिर्फ अपनी सुनना…यह व्यवस्था यह लोग तुम्हें कभी अपने जैसा नहीं होने देंगे।” तब तक मुझे घसीट कर मंच पर से उतारने लगे। मैं कहती गई, ” क्योंकि तब ये खत्म हो जाएंगे।”

पब्लिक शोर मचाती हुई उठ खडी हुई। उन्होंने मुझे स्टेज से उठा कर बाहर फेंक दिया।

” पुलिस के हवाले कर दो, पता नहीं कौन पगली है, जाहिल, हिम्मत तो देखो” एक ने जोर से कहा। मंच पर सजी कुर्सियों में से एक आदमी उठ कर मेरे पास आया और सबको रोकते हुए मुझे उठा कर अपने सामने खडा कर दिया –

” कौन है तू?”
” तेरी माँ” मैं ने गुस्से में उसकी बाँह पर काट खाया। वह पीडा से बिलबिलाया और मैं वहाँ से भाग खडी हुई।

मेरे कुरते की बाँह फट गई थी और मेरे घुटनों और कुहनियों पर चोटें लगी थीं। जिनसे खून रिस रहा था। मेरे पास मेरा दुपट्टा भी नहीं था, जिसकी मदद ली जा सकती। मैं चलते चलते एक हॉस्पिटल के पास से गुजरी और एकदम से अन्दर घुस गई, देखा, एक लम्बी सी लाईन है और लोग पर्चियाँ बनवा रहे हैं। मैं अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगी। जब मेरी बारी आई, अन्दर केबिन में बैठे आदमी ने मुझे सर से पांव तक घूरा और मशीनी अंदाज में पूछा,

” क्या तकलीफ है?
” चोट लगी है।”
” कैसे? ”
” तुम्हीं लोगों ने मारा है! ” उसने हैरत से मुझे देखा। आस पास खडे लोग हंस पडे।
”नाम क्या है?”
” औरत।”
” उम्र? ” उसने मुंह बिचकाया।
” पाँच घण्टे, बत्तीस मिनट, सत्ताईस सैकेण्ड्स मैं ने उसके सर पर लगी घडी देखी।
” अकेली हो साथ कोई नहीं है? ”

उसने संदिग्ध भाव से मुझे घूरा और इसके पहले मैं कुछ कहूँ, उसने एक वार्ड बॉय को इशारा किया। वह आया और उस आदमी से पर्ची लेकर मेरा हाथ पकड क़र कहीं ले जाने लगा। मैं ने उसके हाथों में थमी पर्ची पर पढा – किसी सायकेट्रिस्ट का नाम था। मैं बडे आराम से उसके साथ चलती रही। वह एक केबिन के सामने रुका और मुझे बाहर बेंच पर बैठने का इशारा करते हुए अंदर चला गया। मैं ने बैन्च पर बैठते हुए देखा – आदमी व औरतों की लम्बी कतार बैठी थी। मैं बडे मस्त अन्दाज में अपने घुटनों पर तबला बजाते हुए गुनगुनाने लगी।

” ईश्श” बगल वाली औरत ने मुझे कुहनी मारी – ” सब देख रहे हैं।”
” तो? ” मैं ने तुनक कर कहा।
” तो क्या, तुम्हें डर नहीं लगता, लोग क्या कहेंगे? ”
” डर! तुम्हें लगता है?”
” हाँ।” उसने हिचकिचाते हुए सिर हिलाया।
” तभी तो तुम मुर्दा हो।”

मेरे आगे कुछ कहने से पहले ही वह वार्ड बॉय आया और मेरी बांह पकड क़र अन्दर ले गया। अंदर सामने एक बडी सी चेयर पर एक आदमी बैठा था – डॉक्टर नुमा। मैं ने उसकी तरफ हाथ बढाया।

” हाय।”

उसने सर से पैर तक मुझे घूरा और मुझे बैठने का इशारा करते हुए उसे बाहर जाने को कहा।

” कहाँ से आई हो? ” अब वह मुझसे मुखातिब था।
” पिंजडे से।”
” भाग कर? ”
” हाँ, और क्या। आजाद कौन करेगा?”

मैंने पेपरवेट उठा लिया और उसके सर का निशाना किया।

” इसे टेबल पर रख दो और एक्टिंग मत करो।” उसने रोबीले स्वर में कहा।
” आज ही तो तय किया है मैं ने कि मैं एक्टिंग नहीं करुंगी।”
” तो क्या करोगी? ” वह मुस्कुराया।

मैं ने उसे ध्यान से देखा – मोटा जिस्म, बाँहों, भवों व सर पर तकरीबन एक जैसे काले सफेद बाल। मैं ने उसकी आँखों में देखा। शिकार को देख कर अंधेरे में चमकती खूंखार आँखे। हममें ही कोई जानवर जीता, पलता और बढता है, हम मात्र पिंजडे क़ा काम करते हैं।

” जो मन आएगा।”

मैं हंसने लगी, एक ऐसी हंसी जिसके न होने का मतलब था न न होने का। जो कहीं भी हो सकती है – नहीं भी हो सकती है।
अचानक मैं उठ खडी हुई।

” चलती हूँ, मुझे देर हो रही है।”

यह बाद में पता चलता है कि हम गलत जगह आ गये हैं। तब तक बहुत बार इस गलत बात को सुधारने के सारे रास्ते बन्द हो चुके होते हैं।

” तुमने अपनी तकलीफ तो बताई ही नहीं! ” उसने मुझ उठती हुई का हाथ पकड लिया-
” मुझे कोई तकलीफ नहीं।”
मैं टेबल से घूमती हुई उसकी कुर्सी के निकट आ गयी,
” तकलीफ हमेशा उनकी होती है जिनके हाथ में हंटर होते हैं। जो इशारों पर नाचने के आदी हों – उनके लिये कैसी तकलीफ?” फिर अपना हाथ छुडाया उसके गाल पर थपकी दी,
” जिन्दगी में इतनी बीमारी नहीं होनी चाहिये कि इतने सारे डॉक्टर्स की जरूरत हो।”

वह भौंचक सा मुझे देख रहा था और मैं उसे उसी हालत में छोड क़र बाहर आ गयी। सडक़ पर बहुत भीड थी। बहुत लोग, बहुत गर्मी। मैं ने एक जगह खडे होकर चारों ओर देखा। हर तरफ लोग, दुकानें, चीजें, आवाजें, चालाकी – होशियारियां। लोग जल्दी जल्दी जीने की कोशिशों में कितनी तीव्रता से मरने लगते हैं।

अब? मैं वहां से हट गई। सडक़ के किनारे लगे एक प्याऊ से पानी पिया। और शहर के उस हिस्से की तरफ चल पडी ज़हां अपेक्षाकृत कम शोर हो सकता था। 

मेंरे सामने एक थियेटर था, जिसपर कोई हिन्दी फिल्म लगी हुई थी। मैं ने नाम पढा –  साजन बिना सुहागन कितनी औरतों की भीड। मैं ने जमीन से एक पत्थर उठाया और बोर्ड को निशाना बना कर जोर से फेंका। बोर्ड को कुछ नहीं हुआ पत्थर दूर जा गिरा। वहां खडे एक चौकीदार ने मुझे देखा और मेरी ओर दौडा, वहां से मैं भाग ली।

वहां से भागते हुए देखा, हमारे पडौसी मि दत्त एक खूबसूरत औरत के साथ फिल्म देखने अन्दर जा रहे हैं, मैं ठिठक कर खडी हो गयी। मुझे देखते ही वह चौंके और नजर बचा कर अन्दर जाने लगे। मैं उनके रास्ते में आ गई।

” कैसे हो मि दत्त। ” मैं हंसी।
”ठीक।”

उन्होंने माथे पर आया पसीना पौंछा और साथ वाली औरत की बांह कस कर पकड ली।

” मोटी बीबी से जी नहीं भरता ना? ”

उन्होंने मुझे गुस्से से धकेल कर परे किया और आगे बढ ग़ये।

वह औरत घबराई। व्याकुल आँखों से मुझे देख रही थी। उसके चेहरे पर शर्म उतर आई। मैं ने अजीब से तरस भर कर उसे देखा। यह सब अपनी अपनी कब्रों में सोयी हुई औरतें हैं – सदियों से अपने से बेखबर, अनगढ पत्थर, किसी ने पूजना चाहा, पूज लिया, किसी ने हरना चाहा, हर लिया, किसी ने बेचना चाहा, बेचा किया, किसी ने पटाना चाहा, पटा लिया। जो भी मेकर होना चाहता है हो सकता है। मल्टी परपज ज़िस्म लिये वह हर हाल में खुश है। तकलीफ सिर्फ तब होती है जब वह अपनी कब्र से जाग जाती है।

मेरे सामने स्कूल है, कुछ बच्चे पी टी कर रहे हैं। कुछ दूर पर एक टीचर बच्चों के एक ग्रुप को गाना सिखा रही है-

‘ सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा हमारा।”

कौन सा हिन्दोस्तां वह जो आज है या वह जो कल होगा, हो सकता है, अगर हो?

मैं स्कूल के बाहर कुछ ही दूरी पर खडी उन्हें देख रही हूँ। स्कूल की घंटी बजी और सारे बच्चे पिंजडे से छूटे निरीह मेमनों की भांति बाहर की ओर भागे। ये स्कूल निरीहता और क्रूरता का अद्भुत संगम।

मैं ने आगे जाने के लिये कदम बढाया ही था कि एक युवक मेरे सामने आकर खडा हो गया। मैं ने उसकी ओर देखा – भूरे बालों व भूरी आँखों का अजब सा मिश्रण, उसके बाल इसके माथे पर गिर रहे थे। और उसकी पलकों की छांह उसके चेहरे पर। उस चेहरे पर ठहरी मुस्कान धूप में चमक रही थी। वह मुझे देखता रहा – अपनी उसी ठहरी नजर से –

” क्या चाहिये? ” मैं ने कठिन स्वर में पूछा।
” मैं आपको बहुत देर से देख रहा हूँ। आपका चेहरा, आपकी आँखे – इन सब हालातों से मैच नहीं करते, जिनमें आप खडी हैं। आप जो नहीं हैं वही दिखने का प्रयत्न कर रही हैं और इस तरह अपनी तकलीफ बढा रही हैं। मैं आपको नहीं जानता, पर इतना जरूर कहूंगा – आप घर लौट जाइये, यह दुनिया इतनी भली नहीं कि ”

मैं हंस दी और उस वक्त मुझे लगा मेरी हंसी एक परिंदे की तरह उसके सर के ऊपर भटक रही है – घायल परिंदे की तरह, एक बेमतलब किस्म की उडान की किस्मत लेकर। मैं ने उसकी छाती पर हाथ रख कर उसे परे करना चाहा और वह परे हो गया। लगा, अगर इस वक्त यह मेरे कंपकंपाते हाथों को थाम ले, जिसका उससे दूर का भी वास्ता न था तो मैं इन्हें मुर्दा होने से बचा सकती हूँ। मैं ने उसकी तरफ से आँखे फेर लीं और आगे बढ ग़यी।

आस पास का परिदृश्य अचानक तब्दील हो गया मालूम देने लगा। लोगों की चुभती निगाहें मुझे अपनी पीठ पर मालूम होने लगीं। इसके पहले कि लोग मुझे घेरना शुरु कर दें मुझे भाग जाना चाहिये।

पब्लिक पार्क की बेन्च – यहां इस वक्त इक्का दुक्का लोग हैं। दूर कबड्डी खेल रहे बच्चे। सितम्बर की धूप। मेरी बेन्च के ऊपर किसी पेड क़ा साया नहीं था और नंगी धूप थकी देह पर चुभ रही थी। धूप जो मेरे न होने पर भी होगी। तो क्या मैं ऐसी चीज क़ी तलाश में हूँ जो मेरे न होने पर भी हो? हाँ, पर वह धूप नहीं है।

मैं थक कर बैन्च पर लेट गई। अपनी जिन्दगी में मैं ने अपने लिये कुछ नहीं चुना – न साथी, न शादी, न बच्चा, न रिश्ते। यहां तक कि अपने लिये अपना अकेलापन तक नहीं। हमारे लिये चुनने का मतलब ही होता है – छिन जाना। यह सोच कर कितना अजीब लगता है कि हमारी बन्द मुठ्ठी, जिसमें हम समझते हैं कि सारा संसार बंधा है, हमेशा खाली रहती है! पर इस खालीपन को हम किसी से नहीं कह सकते, अपने आप से भी नहीं।

बच्चे छू छू का खेल खेल रहे थे। एक छ: सात साल की बच्ची भागते हुए आई और मेरे पैरों से उलझ गयी। मैं ने उसे उठा कर प्यार कर लिया। वह सकुचाते हुए उठ खडी हुई और जाने लगी। थोडा आगे जाने के बाद वह फिर पीछे मुडी और मेरे निकट आ गयी।

” आप कहाँ से आये हो? ”
” जहाँ से तुम आये हो बेटे।” मैं ने उसके सर पर हाथ फेरा ।
” मैं तो घर से आई हूँ, पर मुझे वहाँ पर अच्छा नहीं लगता।”
” मुझे भी नहीं लगता।”
” पर आप तो बडे हो।”

वह कुछ पल मुझे देखती रही और मैं उसे। जब मैं ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया तो वह भाग गई। तभी जाने कहां से चौकीदार डंडा खडक़ाता हुआ आ पहुंचा।

” ए, यहां क्या कर रही है? जानती नहीं यह पब्लिक प्लेस है।”
” मैं भी पब्लिक हूँ भाई।”
” चल चल तेरा कोई घर नहीं है क्या?”
” नहीं।” मैं ने जिद करके कहा।
” उठती है या पुलिस को बुलाऊं?”

मैं ने कुरते की जेब में हाथ डाला और एक सौ रूपये का नोट दिखाया।

” बहुत माल पीटा है।”

वह सौ का नोट देख कर मुस्कुराया। उसे लिया और खीसे में डाल चलता बना। मुझे बहुत तेज भूख लग रही थी। बाहर आकर देखा चने व मूंगफली के ठेले खडे थे। चाट व गुब्बारे वाले भी। मैं ने बहुत सारे चने, मूंगफली व गुब्बारे लिये। जैसे ही मैं ने रूपये निकालने के लिये जेब में हाथ डाला – एक कार मेरे करीब से गुजरी और फिर बैक होती हुई मेरे नजदीक आकर रुक गयी।

” अरे, मिसेज नागपाल! आप यहां! ” कोई अंदर से आश्चर्य से चिल्लाया। मैं ने पहचानने की कोशिश नहीं की। बस हंस दी।
” इस हालत में! ” अन्दर से दूसरा अस्फुट स्वर उभरा।
” आइये न आपको घर छोड दें, आपकी गाडी क़ो क्या हुआ? ”
” कोई एक्सीडेन्ट वगैरह” पहली आवाज ने अतिरिक्त सहानुभूति से कहा।
” नहीं मैं बिलकुल ठीक हूँ, आप जायें।” मैं ने उपेक्षा से कहा।
” नहीं। मुझे लगता है आप ठीक नहीं हैं, मि नागपाल को खबर कर दें।” उसने मेरे फटे कपडों को गौर से देखना शुरु किया।
” आप यहां से जाने का क्या लेंगे? ” मैं ने दांत किटकिटाते हुए कहा।
” ऊंह भाड में पडो।” कार आगे चली गई।

अचानक मेरा ध्यान अपने से बाहर गया । मैं ने देखा, आस पास लोग मुझे बडी हैरत से देख रहे थे। कुछ दूरी पर खडे हुए कुछ आवारा किस्म के लडक़े भी मुझे देखते हुए बातें कर रहे थे। मैं ने चने, मूंगफली व गुब्बारे वाले को रूपये दिये और अंदर पार्क में आ गयी। वहाँ खेल रहे बच्चों को बुलाया और हम सब घास पर बैठ कर मूंगफलियाँ खाने लगे। बंदिशों से परे होना और रहना सचमुच कितना अद्भुत है। पर कब तक? मूंगफलियाँ खत्म हो गयीं और मैं पार्क के बाहर आ गयी। शाम हो रही थी। सडक़ों पर आवाजाही बढ रही थी। पता नहीं कब एक काला सा मोटा सा आदमी मेरी बगल में आकर बैठ गया, उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया।

” पचास रूपये में चलेगी? ”
” मैं तुझे सिर्फ पचास के लायक लगती हूँ! ” मैं ने कौतुहल से उसे देखा।
” सौ।” उसने पहले मेरे जिस्म पर हाथ फेरा फिर अपनी जेब पर।
” बस।” मैं हंसी।
” तो क्या साली तू इससे ज्यादा की है? ”

मैं अचानक उठी और उसके साथ गुंथ गयी। वह भी घबरा गया और मुझसे गुत्थम गुत्था हो गया। हम एक दूसरे से खुद को छुडाते और लडते एक जुलूस के बीचों बीच आ गये। अगले ही मिनट सडक़ पर भीड और ट्रेफिक जाम।

” साली रास्ते पर धंधा करती है, पटाती है फिर टंटा करती है।” वह चिल्ला रहा था और हम दोनों लड रहे थे। मेरे बाल बिखर गये थे। चप्पल टूट गयी थी और कपडे फ़ट गये थे। एक भीड क़ा रेला आया और हम पर से गुजर गया। लोग एक दूसरे पर गिरने लगे और झपटने लगे यह जाने बगैर कि उनके अन्दर का जानवर भी दूसरे से कम खूंखार नहीं।

मुझे नहीं मालूम फिर क्या हुआ? जब होश आया तो मैं पुलिस स्टेशन में थी। कुछ देर हवालात में रखने के बाद उन्होंने मुझे बुलाया। मैं बाहर जाकर कुर्सी पर बैठ गयी। मेरे सामने एक नर्म चेहरे वाला आदमी बैठा था,

” तुम कौन हो और इस झंझट में कैसे पडी?”
मैं कुछ देर उस बुजुर्ग के चेहरे को देखती रही, फिर सामने लगी घडी पर नजर डाली और कहा,
” मेरा नाम सुमिता नागपाल है। नागपाल परिवार की बहू। मैं एक दिन अपने तरीके से, बिना किसी डर, संकोच या दबाव के, बिना किसी जिम्मेदारी के जीने के लिये घर से निकली थी पर पाया कि इस दुनिया को हमने अपने हाथों से इतना तबाह कर दिया है कि अब यह दुनिया इस काबिल नहीं रही कि कोई यहां मात्र मनुष्य बन कर एक दिन जी सके।”
” आप फिलॉसफर तो नहीं हैं?” वह मुस्कुराया।
” नहीं, मैं एक औरत हूँ, इन्सान बनने की कोशिशों में ” मैं रुक गयी, फिर कहा, ” आप मेरे घर फोन कर दें। उन्होंने लोकलाज के डर से ही मेरी रिर्पोट नहीं करवायी होगी, वरना अब तक तो सारे शहर की पुलिस मुझे ढूंढ रही होती।”

मैं थक कर कुर्सी की पीठ से टिक गयी और आंखें बंद कर लीं। मेरे जिस्म पर बहुत चोटें लगी थीं। मेरा अन्दर बाहर दोनों दुख रहे थे।

कोई घंटे भर बाद वह आया और आकर मेरे सामने खडा हो गया। उसके चेहरे पर घृणा और गुस्से की जमी सर्द चुप्पी थी, उसमें कितनी उपेक्षाओं की पीडा और कितने नरकों का पानी जमा था। मुझे उस वक्त शिद्दत से अहसास हुआ कि – हम एक दूसरे के लिये कभी कुछ नहीं हो सकते। मैं ने उसे देख कर आँखे बन्द कर लीं और अपने जिस्म को ढीला छोड दिया। मेरे अन्दर उतनी ही घनी तकलीफ थी, जितना घना अंधेरा। अब तुम मुझे घसीट कर अपने पिंजडे में ले जा सकते हो।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

आज का विचार

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

आज का शब्द

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

Ads Blocker Image Powered by Code Help Pro

Ads Blocker Detected!!!

We have detected that you are using extensions to block ads. Please support us by disabling these ads blocker.