रेवड़…भेड़ों का झुण्ड। हंके जा रहे हैं सब बगैर एतराज़ के…अंधी दौड़…। एक दूसरे के साथ… एक दूसरे को धकेलते कुचलते…किसी को कुछ नहीं पता…ज़रूरत भी नहीं समझता कोई जानने की …क्या है – गंतव्य ?
कुछ खास है‚ कुछ अप्रतिम कि सारे के सारे उसी तरह हंके जाने को आतुर…।
कुछ भेड़ें जल्दी थक जातीं और बदन का पसीना पौंछने लगतीं। काला पसीना…उसमें से उठती काली गंध। कुछ बस चलती चली जातीं थके बिना…रुके बिना। कभी कभी वे पीछे मुड़ कर देखतीं…। कुछ लोगों के हाथों में रोटी के टुकड़े और आँखों में हंटर। वे हाथों के इशारों से उन्हें दिशा निर्देश देते और सबकी सब उसी तरफ चल पड़तीं। कभी कभी वे इशारों से इतने रास्तों को नापते कि वे परेशान हो जातीं। वे जानना चाहतीं कि कौनसा रास्ता सही है‚ पर उन्हें पूछने की हिम्मत नहीं होती। उनकी टोली कई दलों में बंट जाती और जिसे जो रास्ता दिखता‚ उसी पर चलने लगते। उन्हें यकीन था कि अगर गलत चले तो पुकार लिये जायेंगे। पर बहुत देर बाद जब वे पीछे मुड़ कर देखतीं तो पातीं‚ उनमें से कुछ उनके पीछे आ रहे हैं और कुछ दूसरे रास्तों पर चले जा रहे हैं।
” हम कहाँ जा रहे हैं?” कुछ भेड़ें थक कर उन भेड़ों से पूछतीं‚ जो उनसे भी पहले से चल रही हैं‚ आज तक उन्हें थकते नहीं देखा गया।
” एक सपने की तलाश में।” वे समझदारी से मुस्कुरातीं।
” किस सपने की तलाश में?” उन्हें आश्चर्य होता।
” हमारे पास तो कोई सपना था ही नहीं।” वे हंसने लगतीं…
” अच्छा तो इसका यह अर्थ है कि अभी तक वह तुम्हें मिला नहीं।”
” कैसे मिलता है?” अनसमझी – नासमझ भेड़ें उसी तरह चलती रहीं ।
” ये जो पीछे आ रहे हैं‚ इनके पास बहुत से टुकड़े हैं सपनों के। वे दिखाते हैं और बताते हैं कि इसकी तलाश में हमें चलना है। आह…सपना…।” वे बड़प्पन से मुस्कुराने लगतीं‚ बड़ी भेड़ें।
” पर अभी तक तो हमें दिखाया नहीं।”
” तुम तुच्छ प्राणी…।” उन्होंने हिकारत से उन्हें देखा और अपने बदन झटके। वैसी ही बदबू थी‚ जो उनके भी बदन से आ रही थी‚ वे बदबू का फर्क कर लेतीं।
चिलचिलाती धूप …प्यास…थकान…रेत…भूख …गले में उगे कांटे…कदम ढहने लगे…नहीं‚ अब नहीं चला जाता। वे पीछे मुड़कर देखने लगीं और शोर मचाने लगीं। प्रसन्नता से खिले मालिकों के चेहरे म्लान पड़ गये। उन्होंने रोटियों के टुकड़े लिये और सबके मुंह में एक एक टुकड़ा दिया। फिर उन्होंने उस सपने की तसवीर के कई टुकड़े किये और उनकी आखों में चिपका दिये। पर इसके बावज़ूद वह उस नाकाफी टुकड़े के लिये छीना झपटी करती रहीं। दांतों से काट काट कर एक दूसरे को लहूलुहान कर दिया और एक दूसरे को ज़मीन पर गिरा उनके हिस्से का छीन उन पर पांव रख चलती रहीं। मैं ने पीछे पलट कर देखा मालिकों के चेहरे पर मुस्कान थी। हम सबने अपनी आंखों से चिपका वह सपना देखा — हरी हरी घास‚ लहलहाती फसल‚ रिमझिम गिरती बारिश‚ आसमान से टपकती गर्म रोटियां …उनमें से फूटती गर्म सौंधी महक…हमारी सांसों से अकसर आती जाती…। हम भूल गये कि हमारे पेट में आधी रोटी है और आधा दूसरे का लहू…।
” तुम चुन लिये आये हो। बेहतर के लिये तुम्हें चुना गया है। चलते सभी हैं – पर पहुंचता कोई कोई है। तुम पहुंचोगे…अगर तुम इसी तरह चलते रहे…।”
उन्होंने पीछे से कहा तो हम बाकि चीजें भी भूल गये — थकान को‚ काले पसीने और काले रास्तों को। चलते चलते पैरों में गांठें पड़ गईं। किसी किसी की गांठें पक कर फूटने लगीं और मवाद उनके पैरों से बहता सड़क पर आने लगा। कदमों के निशां…पीछे वाले चलकर इन्हीं पर आयेंगे। पीछे वाले… मैं सुनकर चौंकती। मेरा ख्याल था‚ सबसे पीछे हमीं हैं। हमारे आगे तो मीलों लम्बा रेवड़ है। कोई किसी को नहीं पहचानता पर हम जानते हैं‚ एक ही नस्ल है हमारी। पर जब मैं ने पीछे मुड़कर देखा तो आश्चर्य हुआ — भेडा.ें का लम्बा हूजूम जाने कहां से आकर हमारे पीछे चल रहा है। इतना लम्बा कि मालिकों के चेहरे तक ठीक से दिख नहीं रहे। उनके और हमारे बीच कई चेहरे हैं। वे दिख नहीं रहे‚ हम चाहें तो भाग सकते हैं। कहाँ? क्या वहाँ सपना और रोटी का टुकड़ा होगा? हम नहीं भागते‚ हम अदृष्ट आंखों से निर्देशित हैं।
जब नई भेड़ें भूख से बेहाल इधर – उधर तितर – बितर होतीं या थकान से ढहने लगतीं… पहले से चल रही भेड़ें कभी कभी उन्हें ढाढ़स बंधातीं। वे निर्देश देतीं‚ बतातीं कि भूख को कैसे भुलाया जाता है‚ रास्ता बहुत लम्बा है‚ जल्दी चलना होगा। ऐसा न हो कि तुम रोटी में ही उलझे रहो और जीते जी उस सपने तक न पहुंच पाओ।
” जितना चल सकते हो चलो‚ फिर तुम्हारे पीछे आने वाले चलेंगे‚ उन्हें रास्ता दिखाना तुम्हारा परम कर्तव्य है।” जब वे कहतीं तो रास्ते पर बिखरा खून और मवाद अपनी नई कहानी कहने लगता।
तेज़ बारिश और चिलचिलाती धूप से बचने के लिये कभी कभी हम अपनी खाल उतार कर ओढ़ लेते और चलते रहते। खाल में से बदबू फूटती पर सभी खालों में से फूट रही है‚ हम आदी हो गये हैं।
पुरानी भेड़ें रास्ता काटने की गरज से नई भेड़ों को उन सभी मर चुकी भेडा.ें की कहानियां सुनातीं जो उस रास्ते पर थीं और जिन्हें कभी कोई रास्ता नहीं मिला। उनमें से कुछ भेड़ें नये रास्तों की तलाश में गई थीं और फिर अभी तक वापस नहीं आईं। उनकी पुरानी खालें यहीं रह गईं थीं‚ जिसे वे कभी कभी ओढ़ लेतीं और ऐसी बातें करतीं जो किसी की समझ में नहीं आतीं थीं। पर जब वे ऐसी बातें करतीं‚ नई भेड़े उनके कदमों में लोट लोट जातीं…
” जब तक तुम्हारी प्यास तुम्हारी छाती पर बोझ की तरह पड़ी रहेगी‚ तुम नहीं चल सकते। लगातार चलने के लिये इस प्यास को छोड़ना होगा।” वे कहतीं और भीड़ को हज़ारों मील अपने साथ चलने को राज़ी कर लेतीं।
मैं ने देखा‚ वे अपने भटकाव में कितने खुश हैं। वे कभी यह खोजने का प्रयत्न नहीं करते कि वे कहाँ जा रहे हैं और क्यूँ ? वे जब उन्हें हांकना बन्द कर देते तब भी वे उसी तरह चलते रहते। वहाँ जो कुछ भी है सबका‚ सबके लिये‚ कोई किसी से अलग नहीं है।
एक दिन खाल उतारते वक्त मैं ने देखा — नीचे एक दूसरी खाल — उतनी ही काली‚ रोएंदार। मैंने एक पुरानी अनुभवी भेड़ से पूछा …
” एक काली खाल निकालने के बाद दूसरी भी काली‚ क्या गोरी खाल किसी की नहीं होती? “
” होती है। पर सातवीं। जैसे मालिकों की है। “
” मालिकों की क्यों है?”
” क्योंकि वे पवित्र हैं। उन्होंने अपनी छÁ खालें निकाल लीं हैं। वे उसकी संतानें हैं‚ जो पृथ्वी पर एक बार आया था।”
” आया था तो चला क्यों गया?” मैं ने पूछा।
” रास्ता दिखाने को उसने ‘उन्हें’ तय कर दिया। अब वे ही हमारे लिये सब तय करते हैं।” वह हंसने लगी।
” हम भी अपनी और खालें नहीं निकाल सकते?”
” नहीं। कदापि नहीं। तुम्हें चुना नहीं गया।”
” पर वे तो कह रहे थे‚ तुम्हें चुना गया है।”
” हाँ‚ पर चलने के लिये। उनकी बराबरी करने के लिये नहीं।”
उनकी छÁ खालें कहाँ गईंं? मैं ने सोचा। हम तो सिर्फ एक खाल उतारते थे और उसी से ढांकते थे खुदको और वापस उसी को पहन भी लेते ।
” हम तुच्छ प्राणी हैं‚ वे महान।” उसने कहा और हम चलते रहे …चलते रहे।
तब मैं ने सिर्फ इतना किया कि उस खाल को वापस नहीं पहना। जहाँ भी हम रुकते …रोटी खाते …सुस्ताते। मैं उस खाल पर सबकी कहानियाँ लिखने लगी। सुबह होते ही हम फिर उस सपने की तलाश में चलने लगते‚ जिसकी तसवीर हमारी आंखों में चिपका दी गई थी। कुछ के लिये यह शगल था कि वे हर दृश्य का मिलान उस तसवीर से करतीं। शायद यह हो और हम ठहर जायें। पर ऐसा कभी नहीं हुआ।
जब खाल समूची भर गई तो मैं ने उसे पहन लिया। पुरानी भेड़ों ने उसे बांचा…
” भीड़ से वे सबसे पहले यही कहते हैं‚ हम सब एक हैं। और वे उन सबको अपने साथ चलने को राज़ी कर लेते हैं। जबकि सच तो यह है कि कोई किसी के जैसा नहीं है। वे अपने को श्रेष्ठ समझते हैं और भीड़ हांकने का दायित्व वे अपने अभिमान के कंधों पर रख देते हैं।”
” उनका अभिमान इसीमें पुख्ता होता है कि वे किसी के जैसे नहीं हैं और इसीलिये श्रेष्ठ हैं।”
” जिन्हें तुम तुच्छ समझते हो‚ उन्हीं के द्वारा तुम खुदको ज्ञानवान सिद्ध करवाना चाहते हो।”
” भीड़ कभी भी रपटीले और फिसलन भरे रास्तों पर नहीं चलना चाहती। उन्हें मरने से डर लगता है। उन्हें हमेशा सीधे रास्तों की तलाश रहती है‚ चाहे वे उस पर उम््रा भर भटकते फिरें। सीधे रास्ते कहीं नहीं ले जाते। वे वापस हमारी अज्ञानता की तरफ मुड़ जाते हैं।”
और जाने कितने मुंहों से होती हुई बात फैल गई। प्ुारानी भेड़ों ने मुझे सलाह दी‚ खाल उल्टी पहन लो। ऐसा कभी कोई नहीं करता। सपने की सच्चाई पर संदेह करना पाप है। मैं ने हंस कर उन्हें देखा — पाप और पुण्य की व्याख्या उन्हें सदियों पहले समझा दी गई है। फेर बदल करना असंभव है। पीछे आने वालों को बार बार समझाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। जो पहले से चल रहे हैं‚ वे पीछे वालों को समझा देते हैं।
बात वहीं तक होती तो शायद दब जाती। मैं ने अपनी दूसरी खाल भी उतारी और तीसरी भी। दोनों को भर दिया। एक पहन कर दोनों हाथों में दो उठा लीं। न सिर्फ इतना‚ मैं सबको चिल्ला चिल्ला कर बताने लगी —
” कहीं कोई सपना नहीं है। आपका सपना आपकी मुट्ठी में है। रुको‚ मुट्ठी खोलो‚ भुरभुरी मिट्टी में पानी डालो। वर्षों से सोया पड़ा बीज अंकुरित होगा। वही एकमात्र पेड़ है। रोटियों का। इसे रक्त से नहीं पसीने से सींचना होगा।”
भेड़ों की मुट्ठियां तन गईं। उन्होंने अपने खुरों से चिथड़े चिथड़े कर उन खालों के टुकड़े टुकड़े कर दिये और मुझे मार मार कर ज़मीन पर गिरा दिया। लहूलुहान मैं उठी और उसी खाल पर बार बार मिटा कर बार बार लिखती रही। हवा में उड़ती हुई खबर ‘एन’ तक पहुंच गई। वैसे भी ‘उन्होंने’ मेरी खाल देख ली थी और वे मेरे पिटकर खत्म हो जाने का इंतज़ार कर रहे थे।
मालिकों में से एक के लम्बे हाथ बढ़े और उसने मेरी गर्दन पकड़कर मुझे सबके बीच से उठा लिया। अब मैं उनके ठीक सामने हूँ। मैं जानती थी सातवीं खाल तक पहुंचना नामुमकिन बात थी। मैं उस सफेद खाल का रहस्य जानना चाहती थी। मैं ने सिर्फ तीन उतारीं थीं और ये बहुत ज़्यादा थीं। इसके बाद नामुमकिन को मैं मुमकिन नहीं बना सकी थी।
उन्होंने मुझे कुछ नहीं किया‚ सिर्फ कहा — ‘ हमारे साथ चलो।’
मुझे लगा था‚ मुझे खत्म करने की कोशिश की जायेगी। मैं चिल्लाउंगी‚ जो मेरे साथ थे‚ वे मेरे पक्ष में आवाज़ उठाएंगे और अव्यवस्था फैल जायेगी‚ जिसे काबू में करने को उन्हें फिर खून पसीना बहाना पड़ेगा। मैं उनके साथ चलने लगी। मेरे ख्याल से उनके पास वह सब था जिसकी झलक सपने के पोस्टर में थी जो हमारी आंखों से चिपके थे। उन्होंने मेरी आंखों से चिपका पोस्टर उतार लिया और मैं हैरत से अधमरी हो गई। जो भी था उनके पास सपने से बहुत ज़्यादा‚ बहुत कीमती। मैं ने उनकी तरफ फटी फटी आंखों से देखा —
” यह सब तुम्हारा हो सकता है‚ चाहिये?” मुझे यकीन नहीं हुआ‚ मैं जानती हूँ‚ वे झूठे हैं।
” जिस दिन तुम भीड़ के अंश होने से इनकार कर देते हो‚ उस दिन भीड़ तुम्हें उठा कर बाहर फेंक देती है। अब तुम वापस वहाँ नहीं जा सकती। भीड़ तुम्हारा यकीन नहीं करेगी।… और‚ जिस दिन तुम हमें बताते हो कि तुम भीड़ के अंश नहीं हो‚ उस दिन हम तुम्हें तुम्हारी कीमत दे देते हैं। उन्होंने हंसते हुए समझाया…
” हम तुम्हारे साथ शक्ति के लिये सौदा करते हैं और तुम हमारे साथ रोटी के लिये।”
” मुझे क्या करना होगा? ” मैं ने पूछा ।
” कुछ नहीं। हमारे साथ चलना होगा। हम तुम्हारा आदमीकरण कर देंगे। अंश होगी तुम‚ अंशी तो हम हैं हीं। ” मैं ने उनकी खाल की तरफ देखा…
” पर मेरी ऐसी खाल नहीं‚ तुम पवित्रता के प्रतीक हो।”
वे ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे। फिर मेरा हाथ पकड़ कर एक तरफ ले गये। ” छूकर देखो।”
मैं ने उंगली से छुआ तो मेरी उंगली सफेद हो गई। मुझे कुछ समझ नहीं आया। मैं हक्की – बक्की खड़ी रह गई।
” तुम्हें बना दें अपनी तरह?”
एक ने कहा और मुझे अपने सफेद चोगे से ढंक लिया। चोगे से जब बाहर आई तो मैं भी उन्हीं की तरह थी — सफेद … पवित्रता की प्रतीक । उन्होंने हंसते हुए बताया कि हमें खालें उतारने की ज़रूरत नहीं। यह इतनी मजबूत हो गई हैं कि इन्हें चट्टानों से टकरा कर भी नहीं तोड़ा जा सकता। इसे छिपाना पड़ता है। कैसे तुम सिद्ध करोगे कि तुम ‘वो’ नहीं हो‚ जो हो। और ‘ जो हो ‘ वह किसी सूरत में दिखाया नहीं जा सकता।
मैं ने पलट कर भीड़ की तरफ देखा। कभी मैं भी उसी दुनिया की थी‚ पर अब उसमें और मुझमें कुछ भी एक जैसा नहीं रहा। मैं उन्हें तरस से भर कर देखती हूँ‚ अपनी लालसा में आकंठ डूबी।
” पर इन्हें कहाँ ले जाया जा रहा है?” मैं ने भीड़ की तरफ इशारा करते हुए पूछा।
” पोस्टरी सपनों की तरफ। जब ये फट जाते हैं‚ हम दूसरे लगा देते हैं। फिर किसी को कुछ नहीं दिखाई देता।”
” पर ये सब भूखे हैं।”
” तभी चल रहे हैं। अभी तुम्हारा पेट भरवाये देते हैं‚ तुम चल कर दिखाओ।” उन्होंने मुझे अपनी रोटियां खिलाईं। वे नहीं थीं‚ जो हम आज तक खाते आए हैं। मेरी आंखों का रंग बदल गया था। हम एक दूसरे को देखकर हंसने लगे। मैं निरन्तर बलि के इस इतिहास में शामिल नहीं होना चाहती थी और मैंने अपने बचाव का रास्ता ढूंढ लिया था।
मैंनें उन भेड़ों को देखा जो मुझसे भी पहले उस झुण्ड में शामिल थीं और चल चल कर बूढ़ी हो गई थीं। वे मेरी तरफ देख रही हैं। शायद उन्हें लगता हो कोई चमत्कार घटित होगा और जगहों की अदला बदली हो जायेगी। जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो उनकी आंखें जलने लगीं। साथ चलती भेड़ों के झुण्ड से कुछ तो एकस्वर में रिरियाने लगीं। मैं ने उनकी तरफ देखा। वे पूर्ववत मुस्कुरा रहे थे……
” कोई बात नहीं रोटी देना बन्द कर दो।”
मैं ने देखा उनका रिरियाना रुक गया। वे सब चलने को राजी हैं — रुके बिना‚ पूछे बिना।
अब मैं सफेद रंग में रंगी उन्हीं का हिस्सा थी। मैं वही भाषा बोलती जो वे बोलते। अब मुझे अपनी उस काली खाल की‚ जिस पर मैं ने जाने क्या कुछ लिखा था‚ ज़रूरत नहीं थी। मैं ने उसे उठाकर दूर फेंक दिया। खाल उन चलती भेड़ों के ऊपर जा गिरी‚ कुछ ने उसे उठा छाती से लगा लिया और सस्वर पाठ करने लगीं।