जिंदगी में कौन किससे कहाँ आ मिले, आ जुड़े, आ टकराये। आकाशगंगाओं में बहते तारों सी  नीयत सधी लय और लीक पर बढ़ते हुए भी। राह तो तारे भी बदलते। कभी बगल से कभी हाथ मिलाते से, तो कभी ज्यादा गरमजोशी में चिंगारी उगलते, टकराने की जिद में आते तो आहूत हो जाते।

क्या बड़े क्या छोटे। बड़े के नजदीक से गुजरे तो सर झुका दिया, ज्यादा नजदीक तो झुक कर कदम छू दिया , दूर से तो हाथ हिला दिए, नजरों की नज़र तक पहुँच हो जाए तो मुस्कुरा दिए। 

इन्हीं तारों की, पिंडो की या देह की नजरों पर अगर मन को बिठा दो तो बस दोनों उड चलें, बगैर किसी नियम या लीक के। जैसे झाड़ू पर हैरी पॉटर। पहाड़ो समंदरो गुफाओं और हर कोटर। जैसे एक तंन्तु पर स्पाइडर मैन। गुम्बद, खिड़कियों, दीवारों पर। फिर क्या दिन क्या रैन। तो बस ऐसे ही चलते-चलते या कहें दौड़ते- दौड़ते कियारा भी आ मिली। फिर जुडी भी और टकराई भी, और फिर थमी तो ऐसी थमी कि बस देह चले मन थमे। मन चले देह थमे। 

उन दिनों भोर अपने अनोखे अंदाज में उगती मोगरे के साथ। दो चार पल बीतते न बीतते दोनों जवान, गालों पर ललाई। और अभी ललाई का भरपूर मजा लूटे उससे पहले सुनहरी से पीली फिर लाल और लोहारी होती माया की मार आ पड़ती। और पड़े जाती… पड़े जाती। गुलबदन हो जाता गुलशिकन। भोर का भी मोगरे का भी। मगर इस गुलबदन से गुलशिकन होने तक के बीच इतना कुछ घट जाता कि एक उम्र। तरुणई वाली भोर का दूधिया रंग मोगरे में  और मोगरे की सुगंध भोर में घुल जाते। लेन देन का व्यापार बगैर लेखे जोखे के चलता रहता। न एक अणु ज्यादा न एक अणु कम। अभी ये व्यापार शुरू हुआ ही होता कि लेखे जोखे का व्यापार करने वालों की भीड़ उमगने लगती। उगती या उमगति, रूकती या जाती वहाँ तक तो ठीक, मगर वो तो अपने पोथी पंन्नों की शेखी में व्यापार गड़बड़ा देते भोर का, मोगरे का। दूधिया रंग में घोलते काला जहर और तोड़ते सुगंध। चढ़ाते नाक में, जेब में, रुमाल में, थैली में। देख ले कोई तो कहते भगवान के लिए। दुनिया में जितने भी गोरखधंधे हैं भगवान के नाम पर भेंट कर दो और निजात पाओ। पार्क की पगडंडियों पर गोरखपंथियों की तादाद बढ़ती जाती और पंछियों गिलहरियों की घटती जाती। यहाँ तक कि हवा भी एक ओर सरक जाती और धरती आकाश सिमट जाते ये सोचते कि ठीक है पसर लो जितना पसरना है। अंत में तलाशोगे तो हमें ही. लेकिन यहाँ अंत की किसे पड़ी! सो सिमटने पसरने का सिलसिला यूँ ही चलता रहता।

कियारा को न गोरखप्नथियों से मतलब न पंछियों गिलहरियों से न पगडंडियों से। न भोर और मोगरे की ललाई से। न सिमटने और पसरने से। न जाने कब से फीड होते होते दिमाग़ के अनजाने रिमोट ने देह को अपनी जद में ले लिया है। नीचे प्यूमा ऊपर एडिडास, कानों में बोट बड्स, कलाई में फिटबिट। आँखें दौड़ते प्यूमा के कुछ गज आगे तक पसरी पक्की सड़क पर, बाकी सब नदारद। ये नदारद यूँ ही एकदम नदारद नहीं हुआ, बल्कि कर दिया गया। धीरे-धीरे। उपस्थित का नदारद हो जाना,  मतलब गैरजरूरी समझ लिया जाना और किसी जरूरी का इस गैरजरूरी का स्थान ग्रहण कर लेना। रेल की साथ चलती पटरियों में से यदि एक दूसरी को गैरजरूरी समझ धक्का मार दे तो….। बस वही। 

कॉज आई डोंट केयर…एज लॉन्ग एज यू होल्ड मी नीयर..यू केन टेक मी एवरी वेयर…कदमों में रिदम… कानों में तेज रिदम… सांसों में और तेज रिदम। जिंदगी में रिदम का न होना मतलब सब उलटबासी। धरती आकाश की रिदम के बीच बिखरी लेकिन सधी, कदम-कदम पर अलग राग। हर राग में अलग सुरों का मेल। अलग उतार चढ़ाव ठहराव बहाव। अंगार पानी पेड़ पहाड़, चीं चाँ कुहू ट्युँ म्याऊँ दहाड़। सुर पकड़ सको तो पकड़ लो…ताल मिला सको सही… नहीं तो भी सही। धकियाने के बाद भी अभी पटरी ज़रा खिसकी ही तो है। तो बस चलते दौड़ते रहो। 

सुघड़ बगीचे के दूजी ओर सड़क पार कुछ ठलान उतर कर है वन विभाग द्वारा सरंक्षित अनगढ़ वन। अब सरंक्षण कौन किसे और किससे दे रहा है ये बात अलग है,. लेकिन यहाँ तो जो जता सके उसी का बोलबाला। बगीचे में लेखे-जोखे वाले व्यापारियों की भीड़, वन में तलैया हिरन खरगोश कौवे तोते कोयल मोर गिलहरी कच्छप मेँठक भंवरा तितली उल्लू चील चमगादड़ मधुमक्खी चींटी और और और भी… पर छीड़ ही छीड़। भीड़ को छीड़ से क्या और छीड़ को भीड़ से क्या।

कियारा को किसी से भी क्या…। 

होता भी नहीं किसी से भी क्या… अगर उस दिन एक गोरखपंथी ने अपने हाजमा बिगड़े टट्टू की उगली कार्बन मोनोक्साइड सीधे उसकी तेज रिदम साँसो को न पिला दी होती। साँसो की बिगड़ी लय, तो कानों कदमों की भी बिगड़ी और आदतन सुघड़ता की ओर मुड़ गई। पता चला, नल खुला रह गया और सुघड़ता का पानी खत्म। होना ही था। किए कराए पर पानी फिरना इसे ही कहते हैं। वैसे भी जिस गति से सुगढ़ता पानी का इस्तेमाल करती है, नल का खुला रहना तो बस एक बिंदी या चिंदी सा कारण है। तो अब क्या?

ऐन उसी वक़्त, सड़क के दूसरी ओर से अनगढ़ वन ने लतायें झुला इशारा किया… इधर… इधर…।

बिगड़ी साँसे सधने की चाह लिए बढ़ गईं उधर। कदम उतर लिए ठलान। प्यूमा को झुरझुरी हुई, नई छुअन की। नाक में फुरफुरी हुई, नई गंध की। नजरों का घेरा कुछ बढ़ा और ठीक उसी निमिष कुछ घटा या उसके घटने की भूमिका तो बन ही गई, कहाँ! ये पता नहीं। न कियारा को न घटने को न निमिष को न वन को। अस्तित्व में आना इतना सरल भी तो नहीं। आने से पहले किन किन गली कूचों से किन किन हालात में गुजरा होगा। पर किसने देखा, किसने जाना। 

 सब कुछ अस्त-व्यस्त सा। बड़े पेड़ों से झूलती उलझती, लिपटती लतरें। सतर मोटी शाखें सटी -सटी, तरल महीन झुकी डोलती गुंथी और पसरी भी। ढेलों कंकड़ो पत्थरों के नीचे कहीं सुतल अतल वितल से भी उगने का माद्दा रखती, कदम सहलाती या चूमती या गोरखपंथी समझ के अनुसार जूते चाटती, बेतरतीब लम्बी ठिगनी आडी पड़ी ख़डी घास। घास की पीठ पर चढ़े हरे पीले भूरे लाल सफ़ेद नारंगी कुछ कुरकुरे कुछ नरम फूल-पात, अपने माथों पर बीटों का विजयतिलक लिए।

 बस पहली नज़र में इतना ही।

 एक कौआ नजरों की सीध आ बैठा शीशमी डाल पर। कियारा से नजरें मिली, इशारा किया और उड़ चला। कियारा ने समझा या नहीं समझा मगर चल दी उसके पीछे। प्यूमा ने शिकायत की चुभन की, मगर अनसुना रहा। कौआ मौलश्री की निचली टहनी पर टिका, मुड़ कर देखा, कियारा पहुँची तो फिर उडा। मौल श्री ने नन्हें फूल झारे तो सरसराती गिलाइयाँ थमक कर तने की ओट से गाने लगीं… बहारों फूल बरसाओ ….मौल श्री हँसा, बोला – नहीं सुना। गिलहरी बोली – सूंघा भी नहीं।

 कौआ इस बार सीधा चुरैल की डाल पर। चुरैल पर चुड़ैल नहीं गुलाली बेगमविलिया चढ़ी हुई और नीचे वॉटर कूलर। जंगल में मंगल सा आश्चर्य। नल खोला। पानी था। साँसो की बिगड़ी लय दुरुस्त हुई। सांसों की सही हुई तो कदमों की भी हुई.। कानों का स्विच ऑफ़ किया, इयर बड्स हटाए और आकाश बिन पूछे भीतर धसक लिया और साथ ही चीं चाँ कुहू ट्यूँ भी। गिलहरियों ने फिर गाया… बहारों फूल बरसाओ….। बोगनविलिया हँसा, बोला- हाँ सुना। मौल श्री बह आया हवा संग कियारा की नाक से देह में घुसने की जिद लिए। नसें ठीली हुईं। देह के अनसुने बंद राग अंगड़ाए। अनबजे के बजने और सुनने को वन स्तब्ध। वनसखा स्तब्ध। कियारा स्तब्ध। दुरुस्त लय के साथ कियारा की नजरों ने सबसे पहले कौए को ढूंढना चाहा। मगर ढूंढे कैसे! सामने बड़ के पेड़ों पर तो अनगिनत काकदलों का डेरा। कौनसा था? सवाल सवाल ही रह गया। सब उसे ही देख रहे थे, सवाल के साथ जवाब थामे। मस्तिष्क में फीड डर उछल कर कियारा की देह में आया। सहमी नजरें एक साथ दसों दिशाओं में घूम गईं मगर देह में टिके डर ने फिर बड़ के पेड़ों की ओर धकेल दिया. धूर्त कपटी चालाक कौवे की कहानियाँ याद आ गईं. दादी के बताए शगुन अपशगुन याद आने लगे।

 हमला कर दिया तो!

 मगर बेवजह क्यूँ?

 वजह कौन देखता है आजकल!

 बड़ के अनेकों सिरों पर उगे मुखों से आवाज़ आई – हम।

 दसों दिशाओं से आवाज़ आई – हम।

 कौवे शांत, निश्चचेश्ट दिखे तो उछला डर उकडू बैठ गया। दायी ओर कुछ दूर फीकी गुलाबी सी दीवारें दिखीं। दीवारों पर मोर मोरनियाँ। चित्र नहीं, असल। कदम बढ़े तो प्यूमा चरमराए कसमसाए। घास संग लुकाछिपी खेलती पीली सफ़ेद तितलियों ने उन्हें खेल में आमंत्रित किया मगर प्यूमा ने नाक चढ़ा समेट लिया खुद को। सिमटे सिकुड़ते बढ़ते रहे। दो कमरे एक बरामदा। बूढ़ी जगह जगह से खाल लटकी दीवारें। बाहर बोर्ड.

 वनविभाग कार्याल।। आधा य मिट गया था। वैसे कार्यालय के स्थान पर कार्याला ज्यादा उपयुक्त है. जहाँ कार्य को आले में धर दिया जाए वो कार्याला। खिड़की से झाँका कियारा ने। कमरे में कोई चादर तान सोता नज़र आया. दूसरे की खिड़की बंद। जरूर उसी में कार्याला होगा। दीवार पर बैठे मोर केकाते कहीं पीछे चले गए। दोनों कमरों का चक्कर लगा कियारा भी पीछे गई। एक जानी पहचानी गंध।

नीचे ढेरों फूल।

अरे! ये तो सरेस है! मुँह से निकला।

सब ओर से तालियों के साथ आवाज़ उठी – बात की.. बात की..।

सरेस नहीं शिरीष! शिरीष पर से तोता बोला।

दादी सरेस कहती थी और हम बॉटल ब्रश।

तो हम सरेस कहें या बॉटल ब्रश?

सरेस… कियारा ने झुक कर फूल उठाया और गालों से छुआया। सरेस ने हरा गालों पर छोड़ा और थोड़ी ललाई उठा ली।

सब ओर से आवाज़ उठी- सरेस… सरेस…. सरेस…।

चोंच में फूल दबाए तोतों का झुंड सरेस सरेस टिहूंकता सबको खबर करने उड़ चला।

हाथ में फूल झुलाती कियारा आगे बढ़ी। पाकर गूलर नीम बीच-बीच में लाल सरेस भी। अविरल सरल उन्मुक्त पंक्तिमुक्त। उन्हीं के आगे बरसाती तलैया में बचा पानी। कियारा मुस्कुराई।

मुस्कुराई… मुस्कुराई… टर्र टर्र कर मेंढक फुदका। तलैया के हरे नीले पर झरी पत्तियां दोहराती फरफराई…मुस्कुराई… मुस्कुराई…।

गीली मिट्टी में धंसे लिसडे गूलर के अनेकों लाल फल। एक को उठाया।

स्कूल के रास्ते में था एक. हम सोचते अंजीर है।

हा हा हा हा हा सब हँसे। तलैया भी।

गूलर के बीजों से प्यूमा के गाल लिसड़ गए।  ज्यादा गीली मिट्टी फिर कीच सी मिट्टी संग कंकड पत्थर। प्यूमा का दम घुटने को हुआ. रूठ गया और आगे बढ़ने से मना कर दिया.

नीम का सहारा ले गैरजरूरी को आजाद किया कियारा ने। मिट्टी में तलवों की छप-छप छपती गई। मिट्टी गुदगुदी से खिलखिलाती रही। कंकड मुँह छुपाए चुप। आदतन बोल न पड़ें।

सब चुप।

तलैया किनारे तीन तीतर एक के पीछे एक चलते।

दादी पहेली बूझती थीं – कियारा गुनगुनाई – तीतर के दो आगे तीतर तीतर के दो पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर?

टिं टिं टिं टीटी टीटी टीटी टिटहरी चक्करदार घेरा लगाते बोली –

तीन तीन तीन सबको पता सबको पता सबको पता।

गुठली फोड अभी अभी मिट्टी से बाहर निकली आँख मसलती जामुन की नन्हीँ पत्ती कुनकुनाई – नहीं पता।

तलैया के पास शीशम का ऊँचा घना पेड़। दोनों ओर चंवर ढुलाते नीम। शीशम से सटी, शीशम से बनी सीढियाँ। कियारा की नजरें एक एक सीढ़ी चढ़ती मचान पर जाकर रुक गई.

अरे वाह! मचान!

शीशम के तने से चोंच खटखटाते कठफोड़वे ने गर्दन घुमाई,बोला-हाँ! मचान। 

बड़ पर के कौवों के मुख मचान की ओर घूम गए। सरेस से उड़े तोते नीम पर आ बैठे मचान की ओर मुँह किए. कियारा ने पहली सीढ़ी पर पैर रखा। दूसरी सीढ़ी से चींटी लटक कर बोली – देखो सम्भल के। पांच सीढ़ी चढी तो शीशम की डाल ने हाथ बढ़ा खट खट चढ़ा लिया. डाल की पत्ती पर टिका टिड्डा सरकता बोला –

आ जाओ बहुत जगह है।

गिलहरियों को खबर थी। पूँछ से बुहार दिया था। पेड़ पर पेड़ से बना चौकोर मचान। डालों से घिरा। घनी नहीं खुली खुली। कियारा की बाहें खुली।

खिली….खिली…. भंवरा मधुमक्खी ने हाथ पकड़ गोल घेरा लिया।

सबकी आँखें मिली और सबकी आँखें खिली। कोटर में थोड़ी देर पहले ही सोने गया उल्लू सिर निकाल अलसता बोला – क्या खिली?

दिशाएं… जंगल बोला और दसों दिशाएं समा गईं खुली खिली बाहों में।

 फिटबिट से आवाज़ आई – टिंग टिंग टिंग टिंग…..

 कियारा ने समय देखा।

  अरे! आठ बज गए! दस बजे ऑफिस पहुँचना है।

 दिमाग का गड़बड़ाया रिमोट हड़बड़ा कर दुरुस्त हुआ। बाहों को सिमटने की, कदमों को सीढ़ियां उतरने की और नाक कान आँख को अपनी हदों में रहने की आज्ञा मिली। सबने आज्ञापालन किया। प्यूमा ने तलवों को बांधा और अकड़ता चढ़ गया ढलान। नदारद फिर उपस्थित।

अगला दिन –

सब कुछ वही। मगर नहीं…

देह में धंसे आकाश और दिशाओं ने रिमोट के एक बटन पर कब्जा कर लिया था। ठलान आते ही प्यूमा और बोट ने लाख कोशिश की कदमों कानों पर हावी रहने की मगर कब्जाया हुआ बटन ऑन हो ही गया। बोट एडिडास की जेब के हवाले हुआ तो प्यूमा हँसा।

हँस ले, तेरी नाक भी कटने वाली है… बोट बड़बड़ाया।

काँव काँव काँव… आ गई… आ गई… आ गई।

मौलश्री झरझराता हँसा। गिलहरी ने गाया – मेरा पिया घर आया ओ राम जी मेरा पिया घर…

चुरैल से लिपटी बोगनविलिया…झूम के नाची सारी रात कि घुँघरू टूट गए।

घुँघरू नहीं फूल… चुरैल ने चुटकी ली। सब हँसे। 

 आदतन नोकदार पत्थर देह में धंसा तो प्यूमा सिसका। घास संग बोगनबिलिया के फूलों और तितलियों ने प्यूमा को चूमा। गुदगुदाता जेब में पड़े बोट से बोला- इतने बुरे भी नहीं हैं ये…।

दीवार से मोरों की नीलकंठी केका ने पुकारा। खिड़की के भीतर सब वैसा ही। एक खरगोश फुदकता सरेस… सरेस… आलापता चला। अचानक घास पात तोते मोर मेंढक टिटहरी गिलहरी कौवे कठफोड़वे सबने उसका सुर पकड़ लिया… सरेस… सरेस… सरेस…।

अनेकों आवाजें मगर सुर एक। 

गर्दन घुमाते उल्लू ने पूछा – कौन सरेस?

जंगल बोला – फूल सरेस।

कियारा ने फूल उठाया, हँसी और सुर मिल गया…..हाँ…सरेस।

सब हँसे, हाँ… सरेस।

प्यूमा बगैर किसी उह-आह के मचान तक आ गया था। लिसडे तो क्या, मचान के ऊपर बिराजेंगे, मगर ज़ब नीचे छोड़ दिया गया तो बड़बड़ाया – इन उलझी खोपड़ियों को कब समझ आएगा, क्या जरूरी क्या गैरजरूरी!

जेब में पड़ा बोट खिलखिलाया – नाक कटी… नाक कटी…।

चींटी संभाल कर सीढ़ियां चढ़ा ले गई। टिड्डा लपक लेने को झाँकता रहा। सबसे ऊपरी शीशमी डाल पर टंगे छत्ते से रानी मक्खी नीचे झुकी तो दूसरी पर जीभ निकाले लटका चमगादड़ भी और नीचे आ गया। 

नीम ने चंवर ढुलाया तो कियारा ने बाहें खोल दी। उल्लू ने पँख खोल कर गर्दन घुमाते ऐलान किया – दिशाएँ खुली…।

जंगल खुल कर मचान के इर्द गिर्द सिमट आया। खुलन और सिमटन साथ बैठ गई. कियारा भी बैठ गई। खुली खुली सी सिमटी। लकड़ी की सिमटी दरार से निकल कुछ घोंघे खुले और जगह बनाते बैठ गए।

उल्लू कोटर में जाने लगा, कियारा ने रोका – तुम भी यहीं बैठ जाओ। चमगादड़ ने आँखे फाड़ी – क्या सच में…!

ये नहीं बैठेगा… रात के अँधेरे के नीले में….

बोलते बोलते रुकी चींटी, फिर ऊपर चमगादड़ की ओर इशारा किया…उसके साथ क्वान्टम फिजिक्स के सूत्र तलाशता है और दिन में अधमुन्दे सपनों में अपनी कृष्णिका गुहा में प्रॉब्लम्स सॉल्व करता है…

उल्लू चुप सा बोला – तुझे कैसे पता?

चींटी ने कियारा की हथेली की ओट दुबकते कहा – तुम दोनों पर लक्ष्मी बिराजने के बाद भी इतनी जगह बचती है कि मैं बैठ सकूँ…

बैसे भी मैं कहाँ नहीं हूँ…चींटी ने फ़िलोसोफिकल अंदाज़ में कहा तो जंगल मुस्कुरा दिया। 

सब छुपे रुस्तम…तोते बोले।

 कौए की बात सुनाऊँ…. कियारा की हथेली से गूलर का बीज चाटती चींटी ने कहा – ये ब्लैक बॉडी रेडीयेशन का स्पेक्ट्रम बनाता खुद कृष्णिका है। सब तरह के आवृत्ति विकिरणों को एक सा उत्सर्जित और अवशोषित करता। 

उल्लू चमगादड़ की नजरें मिली – इसे तो सब पता है!

लेकिन आदमी तो मुझसे दूर भागता है। कौए की रुआन्सी आवाज़ आई।

दूर तो मुझसे भी भागता है। उल्लू ने कहा।

मुझसे भी… चमगादड़ बोला।

तने से लटकता गिरगिट बोला – मुझसे भी।

 मुझे दूर खदेड़ता, पीछे पीछे खुद भागता आ रहा है…। जंगल की दर्द भरी आवाज़ उठी।

सबकी नजरें कियारा पर टिकी….

दूर नहीं भागता, जिसे तुम पीठ पर उठाए घूमते हो उसकी दमक के पीछे तुम दिखते नहीं हो…. सब अनजाने ही गैरजरूरी मान परे सरका दिए जाते हो। कियारा ने पैरवी की।

नहीं नहीं…अनजाने नहीं… जानबूझ कर… सब तरफ से आवाज़ उठी।

हाँ हाँ जानबूझ कर….

क्वान्टम फिजिक्स के सूत्र तो उसने भी खोजे है न ! कियारा ने फिर पैरवी क़ी।

तो खोज कर भूल क्यूँ गया! उल्लू ने कहा।

और क्या किया खोज कर!… क्लासिकल फिजिक्स के लिए उपयोग भर… हुँह…ऐसी भी क्या सुघड़ता कि एंट्रापी ही कम कर दे। चमगादड़ बातचीत से उत्साहित हो निचली डाल पर सरक आया था।

माइक्रोस्कोपिकल पैमाने से आगे बढ़ना ही नहीं चाहता…. बातें करता हैं थर्मोडायनमिक लॉ की… और उत्सर्जित और अवशोषित ऊर्जा में बैलेंस बनाना तक नहीं जानता…अपने ब्लैक बॉक्स का गुलाम बना बैठा है। इस गोरखपंथी ब्लैक बॉक्स की बेवकूफियों की सजा एक दिन हम सब भुगतेंगे।

सब भुगतेंगे…. तोते टिहुनके। गिलहरी चिकियाती कियारा क़ी गोद में दुबक गई और 

जंगल अचानक चुप।

टिंग टिंग टिंग टिंग…. फिटबिट ने मौके का फायदा उठाया। रिमोट दुरुस्त हुआ और आज्ञाएँ  देना शुरू। नाक कान आँख कदम सब आनाकानी करने लगे।

कुछ देर और… बस ज़रा सी देर…

नहीं… देर हो जाएगी।

नहीं होगी…

हो जाएगी…

नहीं…

हाँ…

अच्छा…चलो….

देह चल पड़ी मगर उस पर धरा मन वहीं मचान पर उतर गया और दिन के सुनहरे हरे संग बहता  रात के नीले में उड़ चला उल्लू चमगादड़ और हाँ चींटी संग क्वान्टम फिजिक्स समझने। 

अगला दिन

कान नाक आँख और कदमों ने ऐसी जल्दी मचाई कि बेचारे प्यूमा की सांस फूल गई। टेबल पर पड़ा बोट कितना चिल्लाया चलने को, मगर अनसुना पड़ा रह गया। ढलान तक आते-आते तो पसीने छूट गए प्यूमा के। मन पर से रिमोट का कंट्रोल खत्म हुआ तो ठलान उतरते ही देह भी छूटने को कसमसाने लगी। 

गिलहरियाँ – प्यार हुआ

बोगनविलिया – कैसे हुआ

गिलहरियां – जो भी हुआ अच्छा हुआ

जंगल कोरस – न मैं जानूँ न तू जाने, क्यूँ हो गए हम दीवाने….

सारे दीवाने मचान के इर्द गिर्द।

दिशाएं पहले से खुली थीं।

कसमसाती देह को रास्ते मिले तो निकल गई दिशाओं संग।

दौड़ी भागी कूदी फांदी झूमी फिर तलैया के हाथ भर पानी को छपछपाती सीधी मचान पर।

जंगल की खुली देह दिशाओं संग झूम उठी।

एक देह एक मन।

उल्लू चमगादड़ के कान में फुसफुसाया- सुपरपोजिशन।

चमगादड़ कुछ कहे उससे पहले अभी तक पीठ पर टिकी चींटी बोल पड़ी- हाँ, समझ गई… समझ गई।

अचानक बड़ और गूलर की तरफ से कोलाहल उठा। बंदरों की टोली। कौआ छठी इंद्री में डुबकी लगाता बोला – कोई संदेसा लाए  हैं।

बंदर मचान के पास की शाखाओं पर टिक गए। 

जो सबसे बड़ा था वो बोला – कार्याला खुला है। गोरखपंथी जमावड़ा है। कुछ तो गड़बड़ है।

अरे वाह! ये तो अच्छी बात है। कुछ अच्छा काम होगा। कियारा ने कहा।

गोरखपंथी के अच्छे की परिभाषा अपनी तो समझ से बाहर है। कठफोड़वा पहली बार ठकठकाया। 

माजरा क्या है?

वहीं चल कर समझना पड़ेगा।

सबने कियारा क़ी ओर देखा…

चलो…

खुली देह और खुला मन जुड़ गए। संग संग चले।

हम भी चलें। नीम शीशम ने कहा तो नीचे सरसरा कर चलने की तैयारी करती पत्तियों ने किसी बुजुर्ग सा ताकीद किया – नहीं तुम यहीं रुको।

 कार्याला के पास कुछ गाड़ियाँ दिखीं। दोनों कमरे खुले। बड़ी टेबल के गिर्द कुर्सियों पर गोरखपंथी जमावड़ा।

खिड़की पर कियारा और ऊपर दीवार पर जंगल।

कमरे के भीतर से आवाज़ उठी।

आपने खुद देखी है, सड़क पर गाड़ियों की भीड़।

मैं समझ रहा हूँ, लेकिन ये जिम्मेदारी तो नगर निगम की है उसे ही हल खोजना चाहिए।

उनके पास तो एक ही जबाब है – जगह नहीं है, कहाँ से लाएं।

तो हम भी क्या करें.

आपके पास जगह है, दे सकते हैं।

वन-विभाग की है, हमारी जागीर तो है नहीं.

वन विभाग की अनाप-शनाप जमीन में से थोड़ी सी को अपनी जागीर बना सकते हैं आप, वरना कुर्सी का रुतबा जाता रहेगा।

कुर्सी का रुतबा रखना मुझे आता है, आपसे सीखने की जरूरत नहीं.

अरे… अरे… नाराज़ न हों। हमारा मतलब तो ये था कि बारिश यहाँ न के बराबर, तलैया आधी सूखी, उसके आस पास की जमीन पर बस कुछ पत्थर जमाने होंगे। खर्चा कुछ ज्यादा नहीं और पार्किंग शुल्क मिलेगा सो अलग। 

और पेड़ क्या अपने आप टूट कर बिछ जाएंगे!

पेड़ों का क्या है, मैं हूँ न! लकड़ी के ठेके का ही काम है मेरा। सब कटवा भी दूंगा और उठवा भी। रकम भी अच्छी दूंगा. बल्कि आप कहें तो पत्थर जमाने की जिम्मेदारी भी हमारी। आप तो बस रकम पकड़िए और गर्दन हाँ में हिलाइये। 

कागज़ का मोटा बंडल टेबल के इस पार से उस पार सरक गया।

काँव चाँव कुहू ट्यूँ ठक सब चुप…

चिक टर्र फर्र सर्र सब चुप….

जंगल स्तब्ध।

कियारा स्तब्ध।

उल्लू से चुप न रहा गया, चीख पड़ा –

अरे बेवकुफों ये हाई एलबिड़ो सरफेस है. खत्म कर दोगे तो सौर विकिरण सह नहीं पाओगे।चमगादड़ ने साथ दिया- अपनी उलझनों से खुद का एलबिड़ो तो कम कर ही लिया है अब धरती को तो बक्श दो।

कियारा ने दीवार की ओर देखा, बोली – इन्हें तो सुनाई ही नहीं दिया।

देगा भी नहीं…. 

हमारी अनुनाद आवृति के साथ इनके अव्यवों का सुर ट्यून्ड नहीं है।

खुद से ही ट्यून्ड नहीं हैं ये बेसुरे, हमसे क्या होंगे!

इनके बेसुरे सुरों का घेरा ज़ब तक नहीं टूटेगा तब तक न सुनाई देगा न दिखाई देगा। 

फिर… अब क्या करें!

अरे कोई तो ट्यून करो इन्हें! तोता टिहुंका.

सड़क पर से गुजरती एम्बुलेंस के सायरन के डॉपलर इफेक्ट से जंगल धूज गया, बोला- फिर एक बार मेरी जिन्दा लाश उठेगी।

अचानक खिड़की के भीतर का जमावडा चौंक गया। एक लड़की खिड़की के बाहर से जोर – जोर से कुछ चिल्ला रही है –

अरे बेवकुफो ये हाई एलबिड़ो सरफेस है, खत्म कर दोगे तो सौर विकिरण सह नहीं पाओगे।

सबने सुना सबने देखा और तब तक कियारा कार्याला के भीतर।

फिर वही हुआ जो ऐसे हालातों में हरदम होता है।

पहले अनुनय-विनय और न समझने पर उच्च अधिकारी तक बात पहुंचाने की धमकी। ढीठाई से मिला जवाब – पहुंचा दो, बंडल के एक हिस्से के नीचे दब जाएगी। उससे उच्च अधिकारी… एक और हिस्सा…। फिर एक ऑफर – तुम चाहो तो दो चार नोट तुम्हें भी दे देंगे। देह के भीतर चिंगारियां चटकी… आँच मन तक पहुँची।

और तभी फिटबिट से टिंग टिंग टिंग टिंग….

 खुली देह के एक हाथ ने दूसरे पर सजे फिटबिट को झटके से खींचा और कार्याला की दीवार पर दे मारा।

टिंग टिंग हमेशा के लिए बंद।

रिमोट के दुरुस्त होने का रास्ता बंद।

आज्ञाएं देना बंद।

खिड़की पार से सब देखा जंगल ने।

और तभी… काँव चाँव कुहू ट्यूँ ठक चिक टर्र फर्र सर्र का शोर कार्याला में भर गया। कार्याला से बढ़ता भीषण होता ठलान चढ़ गया। सड़क पर आया और गर्जना के साथ हदें तोड़ता सड़क पार की सुघड़ता में घुस गया, लेखे-जोखे का व्यापार करने, नदारद को उपस्थित करने। 

अनगढ़ता कब किस पल सुघड़ता को अपने घेरे में ले लेगी, कौन जानता है! कौन नदारद होगा कौन उपस्थित, कौन जानता है!

हाँ! भोर अपने अनोखे अंदाज़ में उगती रहेगी मोगरे के साथ और चलता रहेगा बगैर लेखे जोखे का व्यापार।

(वनमाली स्त्री नवलेखन विशेषांक 2023 में शामिल कहानी)

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