“ यह देखना डॉक्टर, तुम्हारे इस मेडिकल जरनल में क्या लिखा है, यह कहते हैं कि शरीर की हर एक कोशिका में स्मृतियां जमा रहती हैं। ये तथ्य तब सामने आया जब अमेरिका में एक लड़की के शरीर में, ऐसे व्यक्ति का गुर्दा ट्रान्सप्लान्ट किया गया, जिसका कत्ल हुआ था… तो उसे अपने उसी तरह कत्ल होने के सपने आने लगे थे, जिस तरह उसके मृत डोनर को मारा गया था।अब इसे क्या कहोगे तुम?” वह मेरे क्लीनिक में आता और इसी किस्म की हैरतअंगेज़ चीज़ें पढ़ने और सुनाने में दिलचस्पी दिखाता था।

मेरा यह चिरकुमार मरीज़, एक सेवानिवृत्त शिक्षाविद् था। अपनी नौकरी के दिनों के किस्से सुनाया करता था। रेगिस्तानी इलाकों, आसाम के अन्दरूनी हिस्सों, गुजरात के कच्छी क्षेत्र और हर उस जगह के किस्से, जहां – जहां वह पदस्थ रहा था। एक शिक्षाविद् होने के नाते, जाने कितनी परियोजनाआें में उसने काम किया था।अपने अन्तिम दिनों में वह मुझसे `विच क्राफ्ट’ यानि डायन विधा पर बहुत – सी बातें करने लगा था। उन दिनों उसने एक अनोखी घटना का और रेगिस्तानी इलाके की एक खूबसूरत डायन का ज़िक्र मुझसे किया था, “वह कहती थी डॉक्टर, जब उसकी मां अपने ऊपर किसी की आत्मा बुलाया करती थी…तो उसके बाद दिनों – दिन निढाल पड़ी रहा करती थी। उसके शरीर में ऐसे पस्ती छा जाती थी कि जैसे वह महीनों बीमार रह कर चुकी हो। इसे तुम अपने मेडिकल की भाषा में क्या कहोगे?” उसका यूं हर बात के विश्लेषण में `मेरी मेडिकल की भाषा’ से दरियाफ्त किया जाना, कभी – कभी मुझे खिजा देता।
उसके अनोखी कहानियों को सुनने – सुनाने के शौक के चलते मैं उससे अकसर कहा करता था कि – तुम लिखना क्यों नहीं शुरु करते? वह हमेशा यह कह कर टाल देता कि “ यार इतना धीरज किसमें है?” फिर भी, मेरे बहुत कहने पर उसने रेगिस्तानी डायन की कहानी को कलमबद्ध भी किया था। मैं उसे आपके सामने रख रहा हूँ। ये रही वो फाईल, ये रहे…उसके हाथ के लिखे पन्ने –

डायन! वो भी हाड़ – मांस की जीती – जागती, सांस लेती? जवान – खूबसूरत। मेरी याददाश्त यूं अचानक क्षीण पड़ जाये, ऐसा तो कभी नहीं हुआ। मैं स्कूल से रोज़ दोपहर घर आता हूँ, खाना खाता हूँ, कुछ देर आराम करके, स्कूल लौट जाता हूँ। इसी अन्तराल के दौरान, कल मैं हवेली के फाटक में घुसा ही था कि पीछे – पीछे वह घुस आयी। एक युवा औरत, लम्बी, सतर देह वाली। लम्बा चेहरा, ऊंची उठी गालों की हड्डियां, झुलस कर गोरी से तांबई हो आई रंगत। उस चेहरे पर दो बड़ी हरी – नीली आंखें यूं लग रही थीं, जैसे मीलों फैले रेगिस्तान में पास – पास सटे दो शीतल सरोवर हों। फटे हए जामुनी ओढ़ने से बिखरे हुए भूरे घुंघराले बाल बाहर झांक रहे थे। उसने कुर्ती और घेरदार काला लहंगा पहना था। गले में चिरमी के मनकों की मालाएं। कुल मिला कर गौर करने लायक वजूद।

मैं ने सोचा, होगी कोई…मकानमालकिन से मिलने आई होगी। मैं जल्दी से अंधेरी घुमावदार सीढ़ियां चढ़ने लगा, वह भी मेरे पीछे लपक कर चढ़ी। सीढ़ियों में दुबके दो चमगादड़ फड़फड़ाए, दालान पार करके, मैं अपने कमरे का ताला खोलने लगा। वह वहीं सीढ़ियों के बाहर चुप, गुमसुम खड़ी रही। चढ़ते हुए सूरज की धूप कमरे में एकान्त पाकर पसर गयी थी। मैं ने अन्दर आकर दरवाज़ा भिड़ा दिया।ढकी हुई थाली उठाई ही थी कि…दरवाज़े पर अनाड़ी – सी दस्तक हुई। मुझे उस अनजबी औरत की इस हरकत पर हैरत हुई। मैं खीज कर बोला, “कौन है? क्या काम है?”
मिनमिनाते स्वर में उत्तर मिला – “ माट्साब मैं हूँ। कुछ बात करनी थी आपसे।”
मैं झटके से उठा और दरवाज़ा खोल कर, त्यौरियां चढ़ा कर बोला – “क्या काम है?”
“ बस दो घड़ी… मेरी बात सुन लो मास्टर साब।मेरे बच्चे का दाखिला…”
“ स्कूल की बात स्कूल में आकर करना। अभी जाओ।” मैं ने त्यौरियां ढीली नहीं कीं।
“सकूल… वहां तो आपका चपरासी कालू अन्दर आने नहीं देता है।”
“ ऐसा क्यों? तुम कौन हो? नाम क्या है?” मैं ने आशंका में सवालों की झड़ी लगा दी।
“बस हूँ एक बदकिस्मत। नाम तो कुरजां है …पर लोग तो…।”उसकी आवाज़ कांप रही थी।
“इसी गांव की हो? कहां रहती हो?”
“ हां,अब तो इसी गांव की हूँ। खारी बावड़ी के पीछे… मसानघाट से थोड़ा पहले रहती हूँ।”
“ठीक है… कालू को कह दूंगा…आने से मना न करे।कल स्कूल आ जाना, बच्चे को लेकर।” उत्तर में उसने पलकें उठा कर देखा…नीले, ठहरे हुए सरोवर झिलमिलाए। रेगिस्तानी भटकावों और प्यास से त्रस्त मैं, मानो उन सरोवरों में कूद पड़ा।

उसके बाद, मुझे कुछ याद नहीं रहा कि मैं किन रास्तों पर आत्मविस्मृत होकर चलता चला गया और सूखी हुई खारी बावड़ी के किनारे असमंजस की स्थिति में खड़ा हुआ, कालू को मिला।
“वह अजीब से नाम की औरत… कुरला… अभी आगे – आगे ही तो चल रही थी… कहां गायब हो गई?” मेरी ज़बान लड़खड़ा गई।
“कौन कुरजां?वो डाकण रांड! डाकण याने कि डायन है…वो।कुछ समझे माट्साब?” उसने मेरे ठण्डे हाथ थपथपाए। मैं संभला।
“ मैं नहीं मानता यह बकवास…।”
“ सारा गांव जानता है उसे। आप नये हो…ना।”
“ पागल हुए हो क्या? वह डायन कैसे हो सकती है…एक जीती – जागती जवान औरत।”
वह सच में ही पागलों की तरह दांत निपोरने लगा, फिर जोर से एक तरफ थूक कर आस्तीन से उसने अपना मुंह पौंछा और बड़बड़ाने लगा।
“ हैडमाट्साब … तो बताओ,सारा घर चौपट खुला छोड़ के, खाने की थाली में अधखाया कौर छोड़ के आप स्कूल की जगह इस सूखी बावड़ी की तरफ क्या लेने आये हो?”
“ हां, याद आया… वह बता रही थी कि उसके लड़के को स्कूल में दाखिल कराना है,पता नहीं किस बेख़याली में… बेखबरी में…मैं यहां… ”
“ बस साब जी, यही तो वसीकरण था…डाकण का।
“ चुप रहो। भूल से भी यह बात कहना मत किसी से। मैं अपनी मर्जी से ही चला आया था…।” अपनी बेख़याली पर स्कूल में किस्सेबाजी हो, यह मैं नहीं चाहता था। मगर यूं याददाश्त अचानक क्षीण पड़ जाये, ऐसा तो कभी नहीं हुआ। तो क्या कुछ देर को मैं सम्मोहित गया था ? हंह… सुबह से खाली पेट रहने के कारण सर चकरा गया होगा या फिर… क्या यह मोमेन्टरी मैमोरी लॉस था? उफ! उसके बाद, कल पूरे दिन सिर दुखता ही रहा था।
लेकिन आज वह स्कूल क्यों नहीं आई? कालू को तो मैं ने आगाह कर ही दिया था। कभी मिली तो पूछूंगा ज़रूर। सारे फर्श और बिस्तर को किरकिरा करके आंधी थम चुकी थी। इसी किरकिराहट के साथ अब जीना सीखना था।

सन्निपात के रोगी के से दिन थे वो,जब मेरा इस गांव `जींवसर’ में हैडमास्टरी के लिए चयन हुआ था। घटनाओं के विस्तार में गया तो अवसाद में डूब जाने की संभावना है, बड़ी मुश्किल से संभला हूँ। बस,ये जानिए कि लम्बी बेरोज़गारी के चलते प्रेमिका ने कहीं और शादी कर ली थी, उम्र थी कि बीतती चली जा रही थी। घर में उपस्थित मेरा चेहरा पिता को तनावग्रस्त करता था, मां को उदास। मैं अपनी परिस्थितियों से उकता कर सुन्न – सा कमरे में पड़ा रहता। उसी सुन्न मन:स्थिति में संक्षिप्त – सा सामान बांध, अपने शहर से तीन सौ चालीस किलोमीटर की बस यात्रा के बाद पन्द्रह किलोमीटर की जीप यात्रा करके इस सीमावर्ती रेगिस्तानी गांव में चला आया था। यह था, थार मरूस्थल का अन्दरूनी, पिछड़ा हुआ एक ऐसा इलाका जिसकी थाह पाना बहुत कठिन था। यूं भी पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों में मुकम्मल तौर पर बसे गांव कहां होते हैं? यहां अपने ही सन्नाटों से सिहरतीं एकाकी हवेलियां होती हैं या फिर थोड़ी – थोड़ी दूर पर बसी ढाणियां होती हैं… और होता है दूर तक फैला रेतीला विस्तार। ऐसी जगहों पर ज़िन्दगी बहुत लम्बी महसूस होती है, उम्र बस रेंगा करती है।
शुस्र् में, मैं बहुत अकेला महसूस करता था।जो किताबें अपने साथ लाया था, सब की सब पढ़ डालीं थीं। मन घबराने लगा तो, मुझे लगा कि स्थानीय लोगों से मेल – जोल बढ़ाया जाए… पर जल्द ही मैं जान गया कि गांव के सम्पन्न लोग, बाहरी लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं करते थे। आम गरीब लोग तो डरे हुए, भीरू किस्म के लोग थे। बरसों पहले समाप्त हो चुकी जमींदार प्रथा के बावज़ूद यहां के रावले के प्रति आतंकजनित सम्मान आम आदमी की रगों में बस गया था। मुझे रावले के दबंग पुस्र्षों को देख कर हैरत होती थी कि वे गांव के आम आदमी से मिलने पर अब भी नज़राना स्वीकार करते थे। “खम्मा घणी होकम।” सरल ग्रामीण दुहरे हो जाते, मगर उनकी गर्दनें अभिमान से अकड़ी रहतीं।

इस गांव के और इसके आस – पास की ढाणियों के निवासी बहुत ही पिछड़े हुए थे। उनकी अलग ही दुनिया थी, ऐसा लगता था कि कुछ साधनों…जैसे जीपों, ट्रांजिस्टरों के अलावा बाकि की दुनिया से वे पूरी तरह नावाकिफ थे। ये अंधविश्वासी देहाती हर किसी के रौब में जल्दी ही आ जाते। बिना किसी प्रयत्न के कोई भी आदमी अपने आपको `सरकारी’ बता कर उन पर अपना प्रभुत्व जमा सकता था। चपरासियों तक को वो खुदा समझते थे। पटवारी, तहसीलदार के तो पैर छूते थे। सीमा सुरक्षा बल के अफसरों – जवानों से वे दूर भागते थे। वे कुछ पूछताछ करते तो वे झुक – झुक कर उनके पैर छूने लगते मगर कुछ बताने के नाम पर खाली आंखों से ताकते। सीमा सुरक्षा बल के अफसरों को लगता था कि – इस कस्बे की कुछ मुसलमान जनजातियों के तार सीमापार से जुड़े हैं, जो कि बड़े घाघ हैं, जिनसे कुछ भी उगलवाना कठिन है। लेकिन मेरे ख्य़ाल से, नब्बे प्रतिशत लोग इस इलाके में ऐसे थे जो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी चलाने के कष्टों के मारे ही सर नहीं उठा पाते थे तो वे ऐसा कब सोचते या कर पाते जो स्मगलिंग या जासूसी से जुड़ा हो। अपनी निर्दोषिता के बावज़ूद सीमा सुरक्षा बल के जवानों का डर उन्हें काठ किए रहता था।सीमा सुरक्षा बल की अपनी कठिनाईयां और कर्तव्य थे… इस गांव और ढाणियों के कुछ लोगों के खेत … भारतीय सीमा से बाहर भी पसरे थे… कुछ जनजातियां दोनों सीमाओं के बीचों – बीच, न घर की न घाट की स्थिति में बसी थीं।

इस गांव में गिनी – चुनी ही हवेलियां थीं, जो कि पुराने वणिक – व्यवसायियों की थीं। इन हवेलियों को घेर कर कच्चे – पक्के – मकानों वाले मुहल्ले खड़े थे। जिनमें अन्य जातियों के लोग रहते थे। गरीब किसान, चरवाहे तथा जनजातियों के लोग समूहों में कच्ची ढाणियों में रहा करते। तेज़ हवाएं इनके इन कच्चे झौंपड़ों के छप्पर मज़ाक – मज़ाक में उड़ा ले जाती थीं, मगर इनके रंगीले साफों की बंधान ढीला करने में ये हवाएं अक्षम रहतीं। मेहनती तो थे ये लोग, पर उनकी मेहनत रेत में से बस रेत ही उगलवा सकती थी। भेड़ों का दूध, ऊन, जीरा, ऊंट का चमड़ा, बाजरे के दो- चार बोरी दानों के बदले वे बाड़मेर जाकर ज़रूरत का अन्य सामान खरीद कर लाते। ये सीधे – सादे आचार विचार के लोग आपस में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्यालू भी हो उठते। अनाज के दाने – दाने के लिए खून खराबा कर देते। पानी की बूंद के लिए औरतें बाल खींच – खींच कर झगड़तीं। प्राकृतिक विपदाआें से निरन्तर आक्रान्त उनकी संस्कृतियों में अंधविश्वासों ने गहरी जड़े जमा रखीं थी। अंधविश्वास उनके आदिम आवेगों को कभी नियंत्रित तो कभी अनियंत्रित करता था।

मैं ने फिर आज शाम कालू से उस `डाकण’ के बारे में पूछा था मगर वह मुंह फुला कर बैठ गया।
“ उसे स्कूल में क्यों नहीं घुसने देते हो? सरकारी स्कूल सब के लिए होते हैं।”
“ डाकणों की औलादों को स्कूल में रखोगे तो बाकि के लोग बच्चे भेजना बन्द कर देंगे।” वह चिढ़ कर बोला।
“कर दें मेरी बला से, कल से उसका बच्चा स्कूल आएगा। वैसे वो औरत है कौन? इसी गांव की है?”
“आप मानते नहीं हो न साब जी, तो बताने का क्या फायदा?”
मैं ने बहुत पूछा मगर वह चुप रहा। खाना बना कर उसने चुपचाप थाली मेरे सामने रख दी। मैं जब खाना खाने लगा तो अनायास ही उसने बोलना शुस्र् कर दिया।
“ आपने देखी थीं उसकी बिल्ली की नाईं हरी – नीली आंखें ?”
“ हूँ….।” मैं खाना चबाता रहा।
यहां का खाना तीखा है और पानी खारा। छह महीनों में भी मैं इन दोनों की आदत नहीं डाल सका हूँ। ये कालू, मेरे स्कूल का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, कहता है… “ साब जी, तीखा नहीं खाओगे तो इस भारी पानी को पचाना मुश्किल है। कबज हो जायेगी।”
तीखे खाने की वजह से मेरी नाक और आंखें बहने लगीं,उसने बिना ध्यान दिये बदस्तूर बोलना जारी रखा- “बहुत पहले, जिस साल यहां छोटी माता फैली थी, उसी साल जाने कहां से चली आई थी साब ये कुरजां डाकण। जब आई थी तब सबसे यही कहती थी कि रावले में उसका धणी, ठाकुर साब के यहां दो साल का बंधक मजूर बनके आया था…दो साल बीत गए, लौट के घर नहीं पहुंचा है। रावले में किसी ने घुसने नहीं दिया, ठाकर सा ने कहलवा दिया के उनके तो…कोई बंधक मजूर नहीं है। कोई कहता जासूस था, कोई समगलर बताता…जिसे बी. एस. एफ. वालों ने मार गिराया। पहले गांव के मंगनियार लोगों की ढाणियों की तरफ अपने गोद के बच्चे के साथ रहने लगी। जड़ी – बूटियां देती औरतों को, इलाज करती। विस्बास जीत लिया लुगाइयों का। मनमाना पैसा और घर – घर जाकर अनाज मांगने लगी तो औरतों ने मना करना सुस्र् किया… फिर तो जो इसे मना करे उसके घर में बच्चे बीमार पड़ जाएं, मौत हो जाये। मेरी ही औरत के जब तीसरा बच्चा होने को था तो हम देवता के यहां से लड़का होने की भभूत लाए… ये रांड सामने पड़ गयी…कि तीसरी भी लड़की पैदा हो गयी। एक बार तो, यहां के रावले में ये डाकण जबरदस्ती पहुंच गयी। छोटे ठाकर सा के घर में पैली औलाद हुई थी, औरतें सूरज पूजने जा ही रही थीं… कि जो बालक ने रोना सुस्र् किया तो सांझ तक चुप ही नहीं हुआ, सरीर मरोड़ने लगा…आंखें फेर लीं। पैले तो ठाकुर ने इसे पैसे – वैसे देके बच्चे से टोटका हटाने को कहा, तो कहने लगी… मेरा टोटका नहीं है… इस रावले के ही बुरे करमों की छाया है… फिर तो ठाकरसा ने अपने आदमियों से इसके सिर पे जो सौ जूते लगवाए तो… ये डाकण मानी और बच्चे पर से टोटका हटाया…। बाद में खड़ी फसल का सारा जीरा काला पड़ने लग गया। जिसके खेत में देखो जीरा काला। फिर बड़ी ठकुराणीसा ने कहा इसे मारो मत, पता नहीं क्या सराप लगा दे ये करमफूटी औरत। बस गांव के बाहर काढ़ दो। तबसे इससे गांव वाले कोई नाता नहीं रखते। ये खारी बावड़ी के पीछे, मसान के रास्ते में झौंपड़ा डाल के रहने लगी है। सुना,अब तो धीरे – धीरे इसने एक कोठरी पक्की करा ली है। कोई – कोई इलाज, जादू, जंतर मंतर, कराने वाली नीच, रांड – लुगाइयां चुपके – छाने अब भी जाती हैं, उनसे ये मनमाना पैसा लूटती है। गांव के भले लोग कोई उधर नहीं जाते।आप भी दूर ही रहना।”
“ और इसका बेटा?”
“ है ना… आठेक साल का होगा। कभी – कभी दिखता है, बाजार में सौदा – सुलफ लेता हुआ। बड़ा तेज है। उलटे जवाब देता है। गालियां बकता है, इसकी मां को कुछ कह के तो देखो!”
मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी।

उस दिन स्कूल में चल रहे दाखिलों के चलते हालांकि खाना मैं शाम चार बजे खा पाया था, खाना खा कर लेटते ही उस आकर्षक चुड़ैल को लेकर मन में उत्सुकता कुलबुलाने लगी थी। मैं घूमता हुआ खारी बावड़ी की तरफ निकल पड़ा। मैं वहीं जाकर ठिठक गया, जहां उस दिन कालू ने मुझे आत्मविस्मिृति की अटपटी हालत में पकड़ा था। हैरानी भी हुई कि उस दिन मुझे यह, यहीं पैरों के नीचे पसरी पगडंडी क्यों नहीं दिखाई थी…जो आज दिखाई दे रही है? लम्बी घास के बगल से, चुपचाप सरक कर जाती हुई पगडण्डी…यहीं – कहीं तो आकर वह डायन ओझल हो गयी थी। निश्चय ही रात को आयी आंधी के कारण यह घास लेट गयी है और पगडंडी स्पष्ट दिख पा रही है। मैं उसी पर बढ़ गया।
अचानक बढ़ते – बढ़ते, पैरों के नीचे बिछी भुरभुरी रेत, सफेद और ठोस परत में तब्दील होने लगी। जैसे कभी यहां नमकीन पानी की झील रही हो। दरारें और लम्बा सफेद रहस्यमय विस्तार… यहां, कहां होगा उसका घर? इन हवाआें में या इस सफेद ज़मीन के नीचे? या ताड़ के पेड़ों पर अटके चीलों के घोसलों में? जब मैं घूमा तो पीछे की ओर रेतीले टीले पर एक कच्चा – पक्का सा घर दिखा। घर के दरवाजे अधखुले पड़े थे। मैं चलकर वहीं पहुंच गया। अन्दर कोठरी में उजाला बस नाम को था। उसकी आकृति खाट पर बैठी दिखाई दी।
“नमस्ते। मैं …।”
“ कौन है?” वह वहीं से गुर्राई।
“यहां क्या लेने आये हो?”
“ अन्दर आ सकता हूँ…”
उसने मेरा चेहरा देखा तो आश्वस्त होने की जगह असमंजस में पड़ गयी। फिर हल्की सी मुस्कान के साथ बोली- “कहां बिठलाऊं माट्साब तुम्हें अब? चिमगादड़ के मेहमान बने हो तो उलटा ही लटकना होगा, है कि नहीं?” मैं अचकचाया … मैं ने ध्यान दिया कि वह स्थानीय भाषा नहीं बोलती थी। यह तो उर्दू मिश्रित कोई अलग ही बोली थी।
“ कहां है आपका बेटा? जिसका दाखिला कराना था।” कह कर मैं अन्दर चला आया था।
“वह घर में कब टिकता है? अभी तक भेडें चरा कर नहीं लौटा।” वह एक छोटी कमीज़ में सर झुकाए बटन लगाती रही, पांच मिनट तक कोठरी में सन्नाटा हिचकियां लेता रहा, मैं सोच ही रहा था कि यूं ही खड़ा रहूँ या चलने की इजाज़त मांग लूं। तभी उसने दांत से धागा तोड़ा और खाट से उठ खड़ी हुई,
“ बैठो माट्साब।” मैं बैठ गया।

“ मां…” कह कर एक दुबला सा गोरा बच्चा हाथ में बबूल की संटी और एक गुलाबी रंग में रंगा भेड़ का मेमना लिये कोठरी में दाखिल हुआ।
“ ये कौन ?” वह सहम सा गया।
“ नहीं रे…डर मत ये हेडमास्टर साहब हैं स्कूल के।”
“ इन्हीं को ला रहीं थीं तुम …कि ये गायब हो गये थे …”
“ मैं गायब हो गया था? या ये …।” मैं अचकचा गया। वे दोनों हंसने लगे।
“चाय नहीं पिलाएगी अम्मां मेहमान को?”
“ भेड़ के दूध की चाय, ये पिएंगे?” कह कर कुरजां कोठरी के शहतीर से टंगी एक टोकरी में से, कपड़े में बड़े संभाल कर रखी चाय की पत्ती निकालने लगी।
चाय इतनी भी बुरी नहीं थी। इलायची की सुगंध में भेड़ के दूध की गंध दब सी गयी थी। चाय पकड़ा कर कुरजां बाहर चली गयी। हम दोनों चुपचाप चाय पीने लगे।
मैं बच्चे से पूछने लगा, “ स्कूल में पढ़ोगे?”
“ हाँ।”
“नाम क्या है?”
“ जुगनू।”
“ कुछ पढ़ना आता है?”
“ हाँ! एक से सौ गिनती … अपना नाम लिख लेता हूँ।”
वह बाहर से अन्दर आकर बोली, “ हां, मगर उर्दू में।… चाय पी ली हो माटसाब तो स्र्ख़सत हो लो… सांझ ढल गयी तो इस रेगिस्तान में रास्ता मिलना मुश्किल होगा। गोल – गोल भटकते यहीं दम तोड़ दोगे, इस खारी बावड़ी केे फैलाव में।”बाहर से वह लम्बी रस्सी में पिरोये हुए, सुखाने को रखे नीलगाय के नमकीन मांस के टुकड़े बटोर कर लाई थी।
“ नीलगाय का सूखा मांस खाते हो माटसाब? खाते हो तो ले जाओ।”
“ नहीं। मैं मांस नहीं खाता।”
“ जुगनू, तू भेड़ें संभाल। मैं छोड़के आऊं इन्हें, बाड़मेर की सड़क के इस पार तक।”
वह मुझसे पहले ही निकल कर पगडंडी पर चल पड़ी। मैं आगे बढ़ कर उसके साथ चलने लगा। कुछ दूर चल कर बेर की झाड़ियों से बनी मेड़ के सामने वह खड़ी हो गयी।
“ वो जो पगडन्डी देखते हो, वही जो थूर के पेड़ों के बीच से जा रही है?”
“ हाँ।”
“ बस उसी पर सीधे चले जाना। बीच में एक भैंरू जी का थान मिलेगा, वहां से उल्टे हाथ पे मुड़ लेना। फिर रेत के धौरे शुस्र् हो जायेंगे उन पर चलते चले जाना। आगे तुम्हें बाड़मेर रोड मिलेगी…।”
“ लेकिन आया तो मैं किसी छोटी पगडण्डी वाले रास्ते से था…!”
“ वहां लम्बी घास में सांप छिपे रहते हैं, अंधेरा भी घना रहता है… वहां भटक जाओगे, यह रास्ता इकहरा है, बस ज़रा लम्बा है।”
वह जब बायां हाथ उठा कर रास्ता दिखा रही थी तो मैं कनखियों से उस अनूठे चेहरे को देख रहा था। उसके चेहरे का कटाव स्थानीय ग्रामीणों से भिन्न था। वेशभूषा भी। वह हठात् पीछे मुड़ गई, मैं उसे जाते देखता रहा। उसकी चाल में से एक गर्व उत्सर्जित हो रहा था और एक शानदार फकीराना उदासीनता। मुझे लगा इस विलक्षण रूप के चलते ही वह दन्तकथाआें और अटकलों से घिर गयी होगी।

मैं भटकता हुआ कमरे पर लौट आया। मेरा कमरा हवेली की पहली मंज़िल पर था। जिसकी पीली दीवारों में छोटे – छोटे कई आले थे और छत पर सुन्दर चित्रकारी की हुई थी, दरवाज़ों के ऊपर बने रोशनदानों पर रंगीन शीशों की फुलवारी सी बनी थी, सुन्दर, बारीक काम। पहली मंजिल पर बने सारे कमरे ऐसे ही विशाल थे। मगर सब के सब खाली।
मैं ने देखा, मेरे साथ ही दो चमगादड़ें कमरे में घुस आयी थीं। लगातार हांफती हुई मेरे चौकोर कमरे के चक्कर लगाने लगी … मैं दरवाजा खोल कर रजाई ओढ़ कर लेट गया मगर वो हांफते – हांफते कमरे से बाहर निकलने के जगह रजाई पर ही फद्द से गिर पड़ीं। उस दिन खाने की थाली यूं ही ढकी रह गयी। कमरा यूं ही खुला रहा। मैं चमगादड़ों के उड़ने के इंतज़ार में रजाई में मुंह किये ही सो गया। सुबह मेरे जागने से पहले ही कमरे में आकर कालू बड़बड़ाने लगा – “मना करता हूं साब जी को उस डाकण से दूर रहो। माने नहीं गए उस तरफ… देखो, आज फिर दरवाजा खुला है और खुद बेहोस हैं।अरे बाप! कैसा ताप चढ़ा है।” हल्की हरारत की वजह से उस दिन मैं स्कूल नहीं गया। कुरजां के बारे में सोचता रहा और अजीबोगरीब सपने देखता रहा।

जुगनू का दाखिला स्कूल में मैं ने कर लिया था। अध्यापकों के बीच सुगबुगाहट और विद्रोह को मैं ने महसूस किया लेकिन अपरोक्ष रूप से प्रार्थना के समय छात्रों को संबोधित करने के बहाने मैं ने अपना संदेश संप्रेषित कर दिया था कि इस विद्यालय में मैं किसी किस्म के जातिवाद, छुआछूत और अंधविश्वास को सहन नहीं करूंगा। जुगनू की कोई तरतीबवार पढ़ाई तो हुई ही नहीं थी सो आठ वर्ष का होने के बावज़ूद उसे दूसरी कक्षा में डाला गया… जिसका पाठ्यक्रम भी उसके बस के बाहर था। किसी अध्यापक से उसकी तरफ अतिरिक्त ध्यान देने को कहना व्यर्थ था, सो मैं ने उसे शाम के समय अपने कमरे पर आकर एक घण्टे पढ़ने के लिए कह दिया।

जुगनू का बातूनीपन अब उजागर होने लगा था। उसके पास स्थानीय रेगिस्तान को लेकर अद्भुत जानकारियां थीं। चाहे वो रेतीले सांपों के नाम हों… या रेगिस्तानी लोमड़ियों के व्यवहार की जानकारी हो। लेकिन उसे पढ़ाने में मुझे भी पसीने आ जाते। पढ़ते – पढ़ते वह न जाने कौन – कौन से कुतुहल उठा लेता… शहर कैसे होते हैं? वहां कितने लोग रहते हैं? कभी दुखी होकर वह अपनी मां की बात करता… कि गांव के लोग उसकी मां को डाकण, कुत्ती रांड और जाने कितनी गंदी गालियां बकते हैं। बारिश हो और स्र्के ना तो भी उसकी मां का टोटका कहते हैं, न हो तो … फिर तो है ही उसका जादू टोना। कभी कहता, वह बड़ा होकर मां को शहर ले जाएगा। जहां उसकी मां को कोई नहीं जानेगा। न डाकण कहेगा।

कभी जुगनू के पढ़ने न आने पर, मुझे उसके झौंपड़े में जाने का बहाना मिल जाता। रेगिस्तान और बेरों की झाड़ियों से घिरा उसका ठिकाना और लोगों की उसके बारे में तरह – तरह की भ्रान्तियां… उसके ईद गिर्द एक रोमांचक प्रभामण्डल बुनती थीं। मैं जुगनू से मुखातिब होकर अप्रत्यक्षत: उससे बातें किया करता।
“इस उजड़े वीरान रेगिस्तान में अकेले रहते डर नहीं लगता?”
“डर क्यों माट्साब? यहां शेर चीते नहीं रहते…।” जुगनू ने उदासीन भाव से कंधे उचका देता।
“ मेरा मतलब जानवरों से नहीं था… रेतीले तूफानों से था। निर्जन में अकेले रहना… मुसीबत पड़े तो कोई सहायता के लिए भी न आ सके।” कहता मैं जुगनू से था पर देख मैं उसकी मां को रहा होता था।
“ हमारे लिए यही अच्छा है कि वे लोग मुझे और जुगनू को अकेले छोड़ दें… लेकिन…।” कुरजां के होंठों के टांके टूटते।
“लेकिन…क्या?”
उस दिन वह चुपचाप सिर मोड़ कर खिड़की के बाहर देखने लगी थी। वह शांत रहने का भरसक उपक्रम कर रही थी। उसकी आंखें बाहर जमी हुई थीं और भृकुटियां क्रुद्ध मुद्रा में एक दूसरे के समीप सिमट आइंर्।
“ वही पुलिस का दरोगा और बी. एस. एफ. के भूखे भेड़िए।”
“ उनका तुमसे क्या लेना?”
“ अकेली औरत गोश्त की भुनी हुई नमकीन बोटी से ज़्यादा क्या होती है! मेरे घरवाले को तो जबरजस्ती ही समगलर – जासूस करार कर दिया… जबकि वह मरा तो यहीं रावले की बेगारी में है। दरोगा को रपट लिखने को कहा तो वह उल्टा मुझे ही तंग करने लगा।” उसने फूत्कारते हुए समूची कटुता जवाब में उंडेल दी।
“……।”
“माट्साब हमारे पुरखे घुमंतु कबीले के थे,कभी इस पार तो कभी उस पार… न हिन्दु न मुसलमान…जान की सांसत लगी रहती थी…बोर्डर के आस – पास रहने में सो…एक जगह बसने के इरादे से `वो’ रावले आया था। एक हजार का करार था दो साल की बंधक मजूरी का… वो लौटा ही नहीं न पैसा भेजा… उसका एक साथी भाग आया, उसीने खबर दी कि उसका कुछ सुराग नहीं है। मैं अपने पीहर में इस पार ही थी… कोसों पैदल चलके जींवसर आई… उसके इंतजार में तब से यहीं हूँ। अपना और बच्चे का पेट पालने को अपने कबीले का हुनर आजमाती रही। वही तो मेरे खून में था। सांप और हड़क्ये कुत्ते के काटे का जहर उतारना, जड़ी – बूटी करना, किस्मत बांचना, बुरे साए उतारना। हमारे कबीले की औरतें वैद – ओझों का हुनर जानती हैं। जींवसर के गंवारों ने रावले की शह में मुझे डाकण ही बना डाला।” आंसू उसके आंखों में खून की तरह उतरे थे पर वह रोई नहीं। पी गई। उसकी यही बात मुझे विशेष रूप से प्रभावित करती थी… उसका अपने आप पर अटूट विश्वास।

मेरे इस तरह, उसके झौंपड़े में पहुंचने पर वह हमेशा शांत और सौम्य रहती… अपने कामों में मसरूफ। किन्तु न जाने, उसकी किन भंगिमाओं से मैं यह जान गया था कि उसे हल्की – सी खुशी होती है, मेरे आने की। कभी – कभी हमारे बीच अजीब से मूक क्षण आ जाते जब अनायास हमारी आंखें चार हो जातीं। ऐसे में उसकी नीली आंखों में हल्की नमी घिर आती और उसकी कनपटी के पास उभरी पतली नीली नस हल्के – हल्के सिहरने लगती। ऐसे ही पलों में,उसके प्रति मेरा कुतुहल अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता।
“ कुरजां, यह नाम पहले कभी नहीं सुना…क्या मायने इसके?”
“ कुरजां एक पंछी होता है…मोर जैसा बड़ा। चमकने सुरमई पंख, काली कलंगी… आंख के पास सफेद घेरा आपने देखा नहीं? इसके गीत नहीं सुने? कहते हैं,जाड़े की चांदनी रातों मेंं ये पंछी जन्नत से उतर कर रेगिस्तानी झीलों के किनारे बड़ी तादाद में डेरा डालते हैं…जाड़े भर रह कर फागुन आने पर उड़ जाते हैं। मां कहती थी कि कुरजां एक ही बार जोड़ा बनाते हैं जिन्दगी में, वो जोड़ा टूटे तो अकेले, झुण्ड से अलग यहीं छूट जाते हैं, फिर जन्नत नहीं लौटते, धीरे – धीरे गरम रेत पर जान दे देते हैं।” कहते हुए उसके चेहरे पर उदासी का सुरमई – रूपहला रंग उभरा तो आंखों के नीले सरोवरों पर धुंध छा गयी।
“ जड़ी बूटी के इलाज के अलावा तुम क्या करती हो?… जादू टोना, मेरा मतलब बुरी आत्माएं उतारना या अच्छी आत्माएं बुलाना?” मेरे इस गुस्ताख सवाल पर वह हिचकी। उसने मेरी आंखों में ताक कर मेरा इरादा भांपना चाहा, जाने क्या भांपा कि आश्वस्त होकर बताने लगी।
“नहीं, मैं ने वह हुनर नहीं सीखा, बहुत पहले किसी के बहुत जिद करने पर मेरी मां बुलाया करती थी …अपने जिस्म में किसी की रूह को … और बहुत पैसे लेती थी… बल्कि सोना…अंगूठी या बाली… लेकिन उसके बाद महीनों उसका दम निकला रहता वह पस्त रहती… आवारा रूह उसके जिस्म में बेलौस भटक कर उसे बेदम कर जातीं थीं। मैं ने सीखना चाहा पर उसने मने कर दी…जवान, कुंवारी लड़कियों को यह सब नहीं सिखाया जाता था। हमारे कबीले की बूढ़ियां ही ये सब किया करतीं थीं।”
“ तुम बता रही थीं तुम भाग्य भी बांचती हो?”
“ अब यह सब कौन मानता है माट्साब।”
“ मेरा देख के बताओ न!”
“ क्या करेंगे जानकर? पता नहीं, मां के दिए वो ताश के पत्ते मैं ने कहां रख छोड़े हैं। याद नहीं।”
“ अम्मां मैं लाऊं? वो, वहां उस डब्बे में रखे हैं।” पढ़ता हुआ जुगनू बीच में उचका और टांड पर रखे एक पुराने टिन के डब्बे में से मैले – कुचैले ताश ले आया…
“ देखो न अम्मां…” जुगनू उत्साह में था।
उसने अनमने मन से कुछ बुदबुदा कर तीन ताश निकाले…
“ कुछ रखिए इस पर…सिक्का…”
मैं ने जेब से पचास का नोट निकाल कर उसकी हथेली पर रख दिया।
उसने आंखें मूंद लीं, फिर हथेली पलकों के पास ले जाकर पत्ते खोले… एक सम्मोहन में डूब कर, सपाट स्वर में बोलने लगी- “तुम अच्छे हो मगर दिल के कमज़ोर। सोचते बहुत हो। ज़रा – ज़रा सी बात दिल से लगा बैठते हो। पैसा कमाओगे पर बचेगा नहीं। मां – बाप के प्यारे हो पर उनके गम के बाइस ही बनोगे। जल्दी ही जगह बदलोगे मतलब यहां से तबादला होने के आसार हैं। पैरों में फेरा है, घूमते रहोगे यहां से वहां। बहुत बूढ़े होकर नहीं मरोगे।”
“ कहो न, जल्दी ही मर जाओगे।”
“ नहीं, न जल्दी न देर में।”
“ ह्ह… ये तो आम बातें है जो कोई भी बता दे।” मैं ने मज़ाक बनाया।
वह उदास हो गयी। फिर धीरे से बोली। “एक खास़ बात भी है।”
“क्या? इश्क – मोहब्बत की?”
उसने इनकार में सिर हिलाया। पलकें उठा कर संजीदगी से बोली।
“तुम ताज़िन्दगी कुंआरे रहोगे।”
“ अच्छा!” मैं हंसी उड़ाने के लहज़े से बोला।
“ मत मानो।”
“ अच्छा तुमने कभी अपना भविष्य नहीं देखा।”
“ हमसे तो भाग्य का देवता रूठा ही रहता है, दूसरों के भाग बांचने वाले उसे दूसरों की खातिर इतना नींद से जगाते हैं कि खुद किस्मत बांचने वाले सदा दुखी रहते हैं।”

कुछ दिनों बाद ही रेबारियों की बस्ती में आखातीज के मौके पर सामूहिक विवाह की रस्म का एक बड़ा आयोजन होना तय हुआ, ठाकुर साब और गांव के प्रतिष्ठित लोगों के साथ मेरे नाम का भी बुलावा आया था। मैं हवेली के चौकीदार को जगे रहने की हिदायत देकर रावले में चला आया। वहां से ठाकुर साहब और उनके लवाजमे के साथ मैं भी पहुंचा रेबारियों के मोहल्ले में। ठाकुर साहब का स्वागत रस्म के अनुकूल हुआ, वही, उनका खम्माघणी करके नज़राना पेश किया जाना… नज़राने में, चांदी के कुछ सिक्के। पैर छुए जाना – हाथ चूमा जाना। मुझे वितृष्णा हुई। इनके सामंतवादी मिजाज़ कब बदलेंगे आखिर?

तम्बू बंधा था और अंधियारे मुहल्ले में गैस के हण्डों की रोशनी की गयी थी।इन हण्डों के जगर – मगर प्रकाश में गरीब रेबारियों का अभाव और उस अभाव में बरसों से जी रहे लोगों के चेहरे पर स्थायी तौर पर रहने वाली बेचारगी उभर कर सामने आ रही था। मैं ने महसूस किया, उनके इन अभावों और बेचारगी के समक्ष, मेरे ईद – गिर्द बैठे तथाकथित प्रतिष्ठित चेहरे भौंडे और हास्यास्पद लग रहे थे। जल्दी ही पण्डाल नए कपड़ों में सज्जित छोटे – छोटे दूल्हों से भर गया। उनमें से कई अपने पिता के कन्धों पर ऊंघ रहे थे या फिर मां की गोद में बैठे अंगूठा चूस रहे थे। कुछ थोड़े बड़े थे सो अपनी छोटी तलवारों या कटारों से खेल रहे थे, खिलखिला रहे थे। मेरा मन कहीं आहत हुआ कि मैं एक सरकारी कर्मचारी होते हुए इस गैरकानूनी प्रथा में शरीक हुआ हूँ। ठाकुर साहब की बगल में बी. डी. ओ. और प्रधान बैठे विदेशी मदिरा का आनन्द उठा रहे थे। उधर दरोगा और पटवारी रेबारी औरतों पर अश्लील टिप्पणी करके हंस रहे थे। ऊब और उदासी की अपरिचित – सी अनुभूति मेरे मन पर घिर आई। नेपथ्य में कहीं बजने वाले ढोल की निरन्तर थाप मेरे दिमाग में पीड़ादायक रूप से प्रतिध्वनित हो रही थी। मैं ने स्वयं से पूछा – “ मैं यहां क्या कर रहा हूँ?”
मेरा मन कचोट उठा, तो मैं ने हठात् ठाकुर साहब से पूछ ही लिया, “ ये तो बाल – विवाह है, ठाकुर साहब।अब तो…”
“हेडमास्टर साहब, आप तो अपणा मुंह बंद करके इनकी मेहमाननवाज़ी का आनन्द लो। ये तो अपनी पुरानी परंपराएं हैं…इन्हें मिटाणा मुश्किल है। हमारी तो खुद की सादी थाली में बैठी दो साल की दुल्हन से हुई थी। अब हमारे बच्चे बाहर पढ़णे लगे हैं तो देर से ब्याव करते हैं…पढ़ी – लिखी बहुएं आ गयी हैं तो उन्होंने गांव आणा ही कम कर दिया है। रावळे – हवेलियां तो सूने पड़ गये है… ये परंपराएं अब गांव के इन मोहल्लों में ही बची रह गयी हैं। इन गरीबों के बहाने हमारी अपनी प्रथाएं और संस्कार बचे हुए हैं।”
मैं चुप रह गया। तभी शोर उठा और नन्हीं – नन्हीं दुल्हनें थालियों में बाहर लाई गयीं। चांदी के अनगढ़ जेवरों से लदीं, नये घाघरे – ओढ़नों में, बेहाल, रोती, ऊंघती। गैस के हण्डों की रोशनी में बहुत ही अनोखा दृश्य बन पड़ा था सामूहिक फेरों का। कहीं दूल्हों के पिता और कहीं दुल्हनों की मांएं उन्हें गोद में लेकर फेरे फिरा रहे थे। सजे – संवरे, गठरी बने मासूम बच्चे अपने भविष्यों और गृहस्थी समस्याओं से बेखबर नींद में डूबे या निंदासे,अधजगे फेरों के साथ घूम रहे थे।औरतें मंगलगीत गा रही थीं।

तभी भीड़ बना कर खड़े बच्चों के एक झुण्ड पर मेरी नज़र गयी जो शादी में आमंत्रित तो नहीं थे पर तमाशबीन बने खड़े थे। उनसे थोड़ी दूर पर पण्डाल के एक खम्भे से लगा… अकेला झांकता हुआ जुगनू भी खड़ा दिखा। हल्की – हल्की ठण्ड में भी केवल एक बनियान और पजामा पहने वह बाल विवाह का तमाशे को देख रहा था, उसकी मासूम आंखें चमक रही थी…उसके हमउम दूल्हों की नयी पोशाकें, तलवारें… थालियों में बैठी उनकी नन्हीं – मुन्नी दुल्हनें! मेरी नज़र विवाह के शोरगुल से हट कर अब जुगनू पर केन्द्रित थीं…क्या सोचता होगा यह बच्चा? स्कूल, मोहल्ले, गांव से निष्कासित, एकाकी…शापित बचपन। फिर मेरा ध्यान हट कर उसकी मां पर जा टिका। दो नीले सरोवरों का नखलिस्तान! मेरे मन में हूक – सी उठी। तभी महिलाओं की तरफ से एक शोर गूंजा, “ अरे या डाकण अठै… रांड मर अठा सूं… अठै कई कर री है थूं?” एक बुढ़िया ने चीख कर, उस पर अपने हाथ का डण्डा फेंका।
“ काकी – सा बालक है, शादी की रौनकें देखी तो इधर भाग आया, इसी को लेने आयी थी।” वह हड़बड़ा गई। कुछ ही पलों बाद मैं ने देखा… कुरजां जुगनू का हाथ खींचती हुई वहां से चली जा रही थी। अपमान के दंश से तिलमिला कर उसने ब्याह का तमाशा देखने की ज़िद करते नन्हें बच्चे के गाल पर दो तमाचे जड़ दिए थे।

ठाकुर साहब और उनके लवाजमे का खाना तो छुआछूत की वजह से, स्वयं ठाकुर साहब के घर से आए बामण ने बनाया था। बाकि लोगों का खाना पीछे कहीं बन रहा था। खाना खाकर मैं जल्दी ही लौट आया और देर रात तक बैठ कुछ ज़रूरी कागज़ात और फाइलें निपटा रहा था। तभी कालू भागता हुआ आया, “ साब जी जल्दी चलो, रेबारियों के ब्याव में डाकण के आने से खाना जहर हो गया। लोग उल्टी – दस्त कर रहे हैं। कितनेक तो बेहोस हैं। कुछ बच्चे तो लग रहा है के …नहीं बचणे के साब जी।”
मैं भागता हुआ अस्पताल पहुंचा, जो कि लोगों से अंटा पड़ा था। डॉक्टर लम्बी छुट्टी पर था, ठाकुर साहब के होते हुए पास के कस्बे से दवाइयां और डॉक्टर को लाने का प्रबंध न हो सका। इतने हंगामे और खबर भेजे जाने के बावज़ूद वे गीदड़ की तरह चुपचाप रावले नामक अपनी नांद में दुबके रहे। कहलवा दिया कि जीप में पेट्रोल नहीं है और स्वयं ड्राइवर शादी का खाना खा कर बीमार हो गया है। कुछ दूसरे लोगों ने और मैं ने पैसे जमा करके जीप मंगवाई, जब तक पास के कस्बे से डॉक्टर आता, गांव के कंपाउण्डर ने कमान संभाल ली थी। मैं ने कालू को भेज कर प्राथमिक चिकित्सा जानने वाले स्काउट छात्रों को बुलवा लिया। स्वयं भागा स्कूल से फर्स्ट एड बॉक्स लाने, जिसे हाल ही में मैं ने ज़रूरी दवाओं और सामानों से भरवाया था। रात भर जाग कर भी दो नन्हे दूल्हों और चार साल की एक दुल्हन को और एक बुड्ढे को नहीं बचाया जा सका। लोग आहत थे, क्रुद्ध थे। गलती बासी मांस पकाने वालों की थी। निष्क्रियता और गैरज़िम्मेदारी दिखाई थी सरकारी तंत्र ने और रावले में रहने वाले गांव के तथाकथित मालिकों ने, जिनके सारा गांव पैर पूजता था… लेकिन गालियां मिलीं गांव से
निर्वासित डाकण और उसकी औलाद को। अगले दिन जब ठाकुर साब अपने लवाज़मे के साथ पधारे, मैं अस्पताल में नहीं था। कहते हैं, बात फिर उठी थी अपशकुन की और डाकण के गांव में देखे जाने की।गांव के जवान लड़के शायद ऐसे ही किसी मौके और दुष्प्रेरणा की तलाश में थे।

अगले दिन भी लोगों की हालत में सुधार की गति धीमी थी पर हालात काबू में थे। मैं रात ग्यारह बजे के करीब अस्पताल से लौट रहा था। कालू मेरे साथ था, टॉर्च पकड़े। घनी निस्तब्धता में मोर की आवाज़ ऐसी लग रही थी मानो वह कोई दुख भरा भेद छिपा रहा हो। शादी – ब्याह के घरों से उठी उन विकल पुकारों से पीछा छुड़ाना मुश्किल जान पड़ रहा था।
“देखा साब डाकण का काम… देखी थोड़े ही गयी उसे गांव की खुसी… कहती थी इसी गांव में गायब हुआ है उसका घरवाला…”
“चुप रहो।बासी मीट खाने की वजह से हुई मौतों का संबंध तुम किसी औरत के श्राप से कैसे जोड़ सकते हो? उसे नाराजगी है तो रावले से, आम गांव के लोगों से उसका क्या लेना? उसके डाकण होने की बात हो न हो इन ठाकुरों ने ही फैलायी है…क्योंकि उसका घरवाला रावले में बंधक मजूर था। वहीं से वह गुम हो गया। जाने जमीन खा गयी कि आसमान निगल गया या इन्हीं ठाकुरों ने… मियाद पूरी होने पे…”
“नइंर् साब…शुस्र् से मैं इसे जानता हूँ। जब ये औरत गांव में आई थी औरतें के दिमाग फिरने लगे थे, रांडे इसके पास बच्चा गिराने की दवा लेने जाने लगी थीं। एक दूसरे के बच्चों पर टोने – टोटके कराने लगी थीं। तास के पत्तों से भाग बांचणे के नाम पे ये ठगिनी उन्हें बहकाने लगी थी।”
“अरे! बंजारन औरत है, जड़ी – बूटी का काम जानती होगी…फिर खाने कमाने के लिए इसे कुछ तो करना ही था न!”
“ पता नहीं साहब…।”
“आज तो मौत को इतना पास से देख तो लिया तूने… जब मौत आती है तो यह शरीर ही एक- एक सांस के लिए लड़ता है। जब पेट में जहर होता है तब न भैरूं जी, न बाला जी काम आते… तब किन्हीं चुड़ैलों का जादू – टोना भी नहीं काम आता… काम आता है नमक का खारा पानी… और पेट की सफाई। इंजेक्शन और ग्लूकोज़।मांस के बासी होने की रिपोर्ट तो आज डाक्टर ने खाना जांचते ही दे दी थी। सुबह से भैंरूजी के थान पे कटा भैंसा परातों में खुला पड़ा रहा… शाम को पकाया गया तो जहर तो फैलेगा ही ना।”
“ सर्दियों में तो …।”
“ कालू जी… मांस कटते ही धीरे – धीरे सड़ना शुस्र् हो जाता है। चाहे सर्दी हो के बरसात…।”
पता नहीं कालू के दिमाग में मेरी बातें घुसी कि नहीं पर उसने आगे बहस करना बन्द कर दिया था। टॉर्च लेकर वह आगे – आगे चलता रहा।अचानक बोला, “ठाकर साब ने हरी झण्डी दे दी थी, गांव के छोरों को…डाकण को निकाल बाहर करने की।”
“क्या? किसे?” वह चौंका।
“ वो कुरजां डाकण को।”
“ फिर से कहो?” मैं ने उसे कन्धों से पकड़ कर झकझोर दिया। वह सकपका गया।
“ चलो मेरे साथ।” हम दोनों लगभग दौड़ते हुए कुरजां के ठिकाने पर पहुंचे।

चांदनी का फीका आलोक झौंपड़ी की टूटे केवलू की छत में से रिसता हुआ, चमकीली कटी चिप्पियों की शक्ल में कुरजां के आधे उघड़े भूरे घायल शरीर पर छिटका हुआ था। ऐसा लग रहा था, वह किसी मंच पर पड़ी है …अंतिम दृश्य में …और उसे घेर कर प्रकाश डाला गया है … उसके पीछे केवल अंधकार था।हमारी आहटों से सहम कर उसने अपना बांया हाथ आंखों पर रख लिया। अपने फटे कपड़ों को ढकने लगी। उसके गालों और गले के पास खरोंचों के गहरे निशान थे… दायीं भौंह के पास से कट गया था जहां खून जम कर काला पड़ गया था। तभी मेरे पैरों से कुछ टकराया।
“अरे! ये जुगनू को क्या हुआ?” कुरजां के पैरों के पास जुगनू अचेत पड़ा था, उसकी कनपटी के पास से लहू बह बह रहा था।
कालू यह दृश्य देखकर अवाक् था। रोशनी के अनजाने वृत्त में पड़ी कुरजां का राख पुता चेहरा, ठहरी हुई नीली पुतलियां…फटा ओढ़ना…चिथड़ा घाघरा… लगभग फाड़ कर फेंक दी गई कुर्ती के अवशेष… बांइंर् भौंह के पास बहता हुआ खून।
वह उठ बैठी। हमारे सवालों का कोई उत्तर नहीं था वहां… वह खामोश थी… कुरजां की खामोशी और तटस्थता कालू को सिहरा रही थी। शायद अब उसे समझ आ रही थी एक नीरीह चुड़ैल की विवशता।
“ कालू, उठा इस बच्चे को, अस्पताल चलें…।”
“नहीं। अस्पताल नहीं।” कुरजां ने मेरा हाथ थाम लिया।
“ बच्चा मर जायेगा।” मैं फुसफुसाया और वह मेरा हाथ थामे सिसकने लगी।
“ये ठीक ही कहती है, अस्पताल जाना ठीक नहीं है माट्साब। वहां लोग इसे देख कर और पागल हो जाएंगे।”
कालू ने बच्चे के घाव साफ करके, फर्स्टएड बॉक्स में से पट्टी निकाल कर बांधी और हवेली जाकर मेरी अलमारी में रखी ब्राण्डी ले आया और उसकी छाती की मालिश करने लगा। कुरजां को मैं ने अपना दुशाला दे दिया था। वह फिर से वहीं फर्श पर ढह गयी। जुगनू अचेतावस्था में कराहता रहा। कालू को मैं ने वहीं स्र्ककर बाहर पहरा देने को कह दिया था सुबह होने तक। मेरा वहां स्र्कना ठीक न होता।

मैं हवेली में पड़ा रात भर जागता रहा, कुछ समझ नहीं आ रहा था, अनेक संकल्पों और विकल्पों की शरण में जाकर भी मन कोई हल नहीं ढूंढ पा रहा था। पौ फटते ही मैं वहां जा पहुंचा। कालू बाहर ही बैठा मिला। मैं अन्दर गया, जुगनू को होश आ गया था। कुरजां ने गठरी सभांल रखी थी और दुशाला कस के देह पर लपेट लिया था।
“कहां जाने की तैयारी है?” मैं ने पूछा।
“ कालू भाई जी से कहें… हमें पाणेरी के बसटैण्ड तक छोड़ के आएं।”
“ कहां जाओगी बहन?” कालू अन्दर आ गया।
“ पता नहीं… … अब इस गांव में रहना नहीं हो सकेगा।”
“ क्यों? कल रात जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ है,उसकी शिकायत नहीं करेंगे हम सदर थाने जाकर?” मैं आवेश में आ गया।
“ कौनसी पुलिस…कौनसा थाना माट्साब, सब तो रावले का हुकम बजाते हैं?”
“…।”
“ कल रात मेरे साथ जो हुआ, उसकी परवाह नहीं… पहले भी रात को दरवाजा खटकाते थे, रावले के हाकम, बी. एस. एफ. के जवान…खुद पुलिस के दरोगा… बत्तीस दांतों के बीच जबान की तरह कैसे बची, मैं ही जानती हूँ। पर गांव के छोरों ने पहली बार हिम्मत की… भेड़े भगा दीं। मुर्गियां के टपरे में आग लगा दी। मेरे कपड़े फाड़े… बदसलूकी की…मेरी छोड़ो, जुगनू के साथ जो हुआ उसने मेरी हिम्मत तोड़ दी है माट्साब। कितना मारा उसे, टांगों से उठा कर गोल घुमा के जमीन पे छोड़ दिया।” कह कर वह पीड़ा से सिसक उठी। एक खामोशी में उसकी हल्की सिसकियां गूंजती रहीं। उधर जुगनू की भी कराहटें बढ़ती जा रही थीं।
अंतत: कालू ही समस्या का हल लेकर हमारे सामने खड़ा था।
“मेरी समझ से तो…आज दिन – दिन किसी तरह ये यहीं काटे, रात होते ही मैं और आप चलकर इनको मेरे गांव के खेत पर बने कच्चे घर में छोड़ आएं। मेरा गांव, यहां से बस पन्द्रह कोस पर है। मामला निपटने तक ये वहीं रहें। फिर आप जानें या ये जानें…बस पुलिस के झंझट से मुझे दूर रखना साब जी।”
बहुत राहत तो मिली थी मुझे, कालू की इस व्यवस्था से पर मैं जानता था, यह स्थायी व्यवस्था नहीं थी। मैं ने कुरजां को लेकर उस रात गंभीरता से सोचा … उसके स्थायित्व को लेकर, जुगनू को गोद लेने की औपचारिकताओं पर। अब वक्त नहीं लगा मुझे निर्णय लेने में, सुबह स्कूल पहुंचते ही मैं ने जींवसर से तबादले और लम्बी छुट्टी पर जाने की अर्जी डाल दी थी। इसी शाम को ही मैं कुरजां को अपना निर्णय बता कर, उसकी `भविष्यवाणी’ को गलत साबित करने की चुनौती देकर उसे चौंकाने वाला था।

“ चले गये वो दोनों…।” शाम पांच बजे मैं स्कूल से निकलने की तैयारी में ही था। तभी कालू अपना क्लान्त चेहरा लिए आ खड़ा हुआ।
“ कहां?”
“ पता नहीं?”
“ झौंपड़ी खाली मिली। पाणेरी के बसटैण्ड भी गया मगर वहां नहीं थे। एक जान – पैचाण वाला मिला, वो बता रहा था के उसने दोफैर में `डाकण’ को जाते देखा था, छोरे के साथ बस में। बाड़मेर की तरफ।…… ये तास के पत्ते वहां बिखरे पड़े थे।”
मैं ने वो ताश के पत्ते उससे छीन लिए, बेहद पुराने, साधारण ताश के पत्ते। मैं उन्हे बेचैनी से पलटने लगा।
“डायन कहीं की,अपना कहा सच करके चले गई।” हताशा और गुस्से में मैं चीख पड़ा, कालू आश्चर्य से मुंह खोले मेरे चेहरे को ताकता रह गया।

उसके बाद मैं वहां छ: महीने और रहा। जैसा कि मैं ने पहले ज़िक्र किया था, समय वहां बहुत लम्बा होता है।… वहां कोई घन्टे नहीं गिनता, न वर्ष। वहां मौसम ही नहीं आते… न बसन्त… न बहार। मैं जब तक वहां रहा, एक अनंतता में जीने का पुरज़ोर यकीन बना रहा। लौटा तो लगा, मैं अपना एक जीवन वहां छोड़ आया था। ………

कहानी तो यहीं खत्म हो गयी थी। उसकी इस कहानी की फाइल के पीछे, मुझे एक छोटा नोट मिला – “स्मृति द्वारा वापस लाकर अतीत की चीज़ों को मोटे तौर पर देखना और बात करना तो आसान है, डॉक्टर… पर बारीक कहानी बुनना, अतीत की आवारा रूह को अपनी देह पर बुलाने जैसा होता है। मैं बहुत पस्त मगर मुक्त महसूस कर रहा हूँ। अब सोऊंगा।”

नींद में ही चला गया था वह दुनिया से। बहुत दिनों तक उसकी अनुपस्थिति मेरे मन में एक उलझी कहानी – सी अटकी रही।

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आज का विचार

जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

आज का शब्द

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