क्या वह धूसर में प्रकट होती है ?
- अखिलेश
(1)
बालकनी की फर्श बेहद ठण्डी थी। देर रात बारिश हुई थी या शायद सुबह की ओस से फर्श भीगी है। वह देर से खड़ी है। यहाँ से दूर तक दिखाई देता है। उसकी नज़रें सामने फैले धूसर में धँसी हैं। फर्श की ठण्डक से तलुए जल रहे हैं। धीरे-धीरे ठण्डक तलुओं के ऊपर चढ़ रही है। दूर तक सफेद-सा फैला है। उसे कोहरे का रंग अजीब लगता है। न पूरी तरह सफेद, न पूरी तरह धूसर। चौड़ी हवा गीली है। वह भी धूसर रंग पहने है। उसे कोहरे के रंग की आवाज़ सुनायी दे रही है। बहुत ऊँचाई से गिरते पानी को पानी की तरह सुनना उसे अच्छा लग रहा है। आथिरापल्ली में आथिरा नदी का पानी गिर रहा है और धुंध फैली है। इस घमासान धूसर में वह एक इन्द्रधनुष भी सुन रही है। पूरा पहाड़ इस कोहरे में छिप जाता है। फिर प्रकट होता है। जैसे गोरबियों की मॉन्तेजेल पहाड़ियों को बादलों ने ढँक लिया हो। करवट बदलते ही लिहाफ सरक जाता है और मॉन्तेजेल का नया भीगा अंग दिखने लगता है और ठण्डक घुटनों तक चढ़ आई है।
वह कोहरे में भागना चाहती है। फिर भी खड़ी रही और इसी वक्त एक काली लकीर उसकी खोपड़ी छेदती आर-पार निकल गयी। फिर दूसरी। फिर तीसरी। फिर उसने गिनना बन्द कर दिया। अन्दर, कहीं बहुत भीतर उसका खून फैलने लगा। बहुत ही धीरे। मानो धौलागिरी से रावी का बहना देख रहे हों। ठहरा-सा बहना। वह भीतर फैलते खून का रंग याद करती है। कल तक धूसर था, क्या आज भी धूसर होगा? तभी सामने ढेर से तने दिखाई देते हैं। इतने सारे भीगे से तने कहाँ से उभर आये? उसे आश्चर्य हुआ। उसे मालूम है यहाँ कोई पेड़ नहीं है, बल्कि हो भी नहीं सकता। कोहरे में तने, तने। सभी भीगे थे। इतने कि दोनों ओर से बाँधने वाली लकीर दिखते हुए लगातार अपनी जगह बदल रही थी। जगह बदलने के दौरान तने निस्सिम धूसर में धुल जाते। अपने ही साथ आँख मिचौली खेलते हुए।
और इसी क्षण हवा की हल्की आवाज़ सुनी। वह भागना चाहती है। वह भीगना चाहती है। फिर भी वह सोचती है और अक्सर सोचती थी, क्या वह धूसर में प्रकट होती है?
और यही उसे पता न था।
ठण्डक जाँघों तक चढ़ आयी थी। उसे लगा वह धीरे-धीरे फैलने लगी है। चारों तरफ गीलापन है। और अँधेरा है। एक ऐसा उजाला भी है जो सिर्फ अँधेरे का है। इसमें कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता मगर वह सब कुछ साफ-साफ देख रही है। धूसर में कुछ संकेत दिखते हैं फिर लुप्त हो जाते हैं। संकेतों से घबरा कर वह अपना पैर खींचना चाहती है मगर ठण्ड से ठण्डा होना अच्छा लग रहा था। सामने की दीवार भीगी है। दीवार पर सुरंग की दीवार पर बहते पानी के स्पष्ट निशान हैं। उसे आश्चर्य हुआ। उसे पता है इस जगह कोई दीवार नहीं है, बल्कि हो भी नहीं सकती। फिर दीवार कैसे दिखायी दी? वह भी गीली दीवार।
उसे क्या हो रहा है?
कभी तने, कभी दीवार। क्यों दिख रहे हैं?
क्या वह अपनी बालकनी में नहीं है? उसने बालकनी छूकर देखी। वह वैसी ही गीली थी जैसी वर्षों पहले छोड़ गयी थी।
बालकनी वही है फिर भ्रम कैसा? शायद काली लकीरों के कारण। मगर वे तो साफ तीर-सा भेदती निकल गयी थी। फिर क्या है? क्या इनका भी कोई यथार्थ है? चारों तरफ की साफ रोशनी में वह कण-कण देख रही है। यथार्थ इतना उजला है कि नकली हुआ जाता है। उसकी इच्छा हुई खुद का यथार्थ जाने।
फिर भी खड़ी रही।
चारों तरफ फैला धूसर उसमें घर करता जा रहा था।
वह कहाँ से शुरू होती है, धूसर कब खत्म होता है यह दिखता न था। इस अनन्त में वह विचरती है। उसे अपना शरीर दिखता न था, न ही शरीर की सिकुड़न। शरीर के किनारे, डबल रोटी के किनारों पड़ी सलवटों से दिख रहे थे। किन्तु क्या शरीर का कोई किनारा होता है? यह सोच वह कुछ भी तय नहीं करती। उसका ध्यान अपने इन्तज़ार पर गया। क्या आज फिर वह तोहफा लायेगा? वह रोज़ तोहफा लाता है। अजनबीयत का, अचम्भे का, अन्जानेपन का और वह अजूबे से भर जाती। तभी वह तोहफे की रसीद माँगता। उसकी इस मूर्खता पर वह हँसती। तोहफे की रसीद! रसीद के रूप में एक तमाचा रसीद करती। वह लगभग बालकनी से बाहर गिर पड़ता। वह उसके गिरने को नहीं रोकती।
उसे लगा उसने कुछ देखा।
फिर महसूस किया। फिर छूकर देखा।
धूसर का कोई रंग था। उसे फिर छुआ। उसकी ऊष्म उपस्थिति से वह रोमांचित हो उठी। अपने शरीर पर उसका भार महसूस किया। आँखों में धुँधलका फैला था। वह छूकर भी जान न सकी, यह कोहरे का कौन-सा रंग है। उसे लगा हो न हो यह हरा है। और वह हरा था। और खूब हल्का हरा। और बहुत भारी। और लगातार बहते हुए। बहते हुए का बोझ नहीं होता। उसे कोई भी उठा सकता है। मनो बोझ, क्षणों में बह जाता। वह आबशार में खड़ी है। भारी-सा हल्का हरा ऊपर से गिर रहा है। उसका भीगा बदन गीला हो चुका है। चढ़ती ठण्डक जँघाओं को पार कर चुकी थी। उसने हाथ बढ़ाकर छुआ। वह हल्का हरा ही था।
वह सोचने लगी। क्या वह हल्के हरे में प्रकट हो रही है या इटली के ऊपर छाये बादलों में या कि आषाढ़ के पहले दिवस पर उमड़ आये हाथी से बादलों में। जहाँ हर बादल गरज सा फैला है।
‘बादलों का कोई अस्तित्व है।’ उसे स्वामीनाथन की याद आई। उसे लगा वह खुद बादल हो गयी। इतनी हल्की कि अस्तित्व ही उसे उड़ाये ले जा रहा है। बादलों में बहती हुई बिजली मिली। उसका बहता प्रकाश मिला। बहते प्रकाश में वह बहती-सी चमकी। उसके चेहरे पर बहता प्रकाश ठहरा है। उसी क्षण उसे लगा। उसका अस्तित्व फाहे-सा है। या हवा सा। या आँखों में झलके पहाड़-सा।
या उन क्षणों सा जो बिन बताये गुज़र जाते हैं। काश पहला गुज़रता क्षण उसके कानों में बह जाये तो वह इन्तज़ार न करे। इन्तज़ार में रहने लगे।
उसके कान में कनखजूरा रेंग रहा है।
आज से पहले उसने कनखजूरे को रेंगते नहीं सुना था। उसके असंख्य बाल कानों में रहस्य घोल रहे थे। शायद परसों ही उदयन बता रहा था। वह जो कुछ भी सुनती है उसका कारण पानी है। कानों में खड़ी पानी की दीवार से कोलाहल टकराता है। यह स्पन्दन मस्तिष्क में जाकर शब्दों में बदल जाता है। वह सुनती है। और खूब सुनती है। उसे हरा सुनायी देता है और कनखजूरे की रहस्यमय फुसफुसाहट।
यह फुसफुसाहट और स्याह प्रदेश में जा पहुँची ठण्डक, दोनों उसे मदहोश कर रहे थे।
वह बालकनी में चित्रवत्-सी खड़ी है। दूर क्षितिज पर बिजली के तार दिख रहे हैं। उसका मन हुआ छू ले। बिजली का झटका उसने छुआ न था। ये बिजली के तार यहाँ कैसे? उसे आश्चर्य हुआ। उसे मालूम है यहाँ कोई तार नहीं है बल्कि हो भी नहीं सकते। फिर इतने सारे। साफ, शफ्फ़ाफ़ नसरीन की रेखाओं से। छूने के लिये उसने दाहिना हाथ बढ़ाया। तेज दर्द की लहर उसके शरीर में उठी। कोई जंग लगी कील उसके शरीर में घुस गयी थी। वह तार छू सकी या नहीं उसे याद नहीं।
धीमे-धीमे जंग फैल रही थी। उसे लगा इस दर्द को सहा जा सकता है किन्तु उसका फैलना रोका नहीं जा सकता। वह दर्द से चीखना चाहती थी किन्तु सहने के आनन्द से हँस पड़ी। वह हतप्रभ थी।
दुविधा ने उसके शरीर को अचम्भे से भर दिया।
जंग फैल रही है। जंग कई जगहों पर कील-सी ठुकी है। जंग फाहे सी हवा में झूल रही है।
जंग के कई रंग मौजूद हैं। फाहे सी जंग के इर्द-गिर्द सफेद रखा है या शायद नहीं। दूर क्षितिज पर काले सितारे सूख रहे हैं। उन्हें अभी-अभी धोया गया है। धुले सितारे ज्यादा चमक रहे हैं। सितारों के पीछे फटे चमड़े को रेखाओं ने जकड़ लिया है। वह सोचना चाहती है क्या फटे चमड़े का शामियाना बन सकता है? किन्तु वह कुछ और सोचने लगी।
उसकी नज़रें धूसर में धँसी हैं।
और वह इन्तज़ार में बह रही है।
उसके जंग का दर्द भी बह रहा है।
अब उसके स्तनों में दर्द शुरू हो गया है। उनके दर्द की तेज़ लहर से हर बार वह सिहर उठती। दर्द तेज़ था। फैलना धीमा। इतना धीमा कि ख़त्म होने से पहले नया हुआ जाता है। पहले कभी दर्द को धीमे फैलते नहीं सुना था।
वह कोहरे में भागना चाहती है। भीगना चाहती है। उसने कोहरे में खुद की परछाईं देखी। परछाईं उसे नहीं खुद को देख रही थी। उसे परछाईं के चेहरे पर कटने के निशान दिखे। वे नये थे। एकदम सफेद। उनमें दर्द न था। निशान गहरे हैं। उनमें से किसी भी रंग का खून नहीं निकल रहा है। यहाँ तक कि धूसर रंग का भी नहीं। परछाईं के माथे पर काली बिंदियाँ दिखीं। क्या उसकी बिन्दी के अनेक प्रतिबिम्ब हैं।
उसने चाहा कि वह बालकनी से वापस कमरे में चली जाये, किन्तु उसके पैर सुन्न हो गये थे। ठण्डक अब उसके स्तनों तक आ पहुँची थी। वह सोच रही थी क्या उसे ऐसे ही खड़े रहना चाहिए? उसके मन में ठण्डी लहर सी थी। उसने अपने हाथ कमर पर रखे और उसे कुछ महसूस नहीं किया। लगा कि उसके हाथ बर्फ पर रखे हैं। फिर उसने अपने हाथ स्तनों पर रखे। स्तन अभी ठण्डे नहीं हुए थे, उसने हल्का दबाव महसूस किया। उसके हाथ ठण्डे हो रहे थे। वह सोच रही थी कि ऐसे में यदि कोई चाकू उसके शरीर में घुसे तो शायद उसे पता तक न चले, इतने में एक चाकू सनसनाता हुआ आया और उसके पेट में घुस गया। वह सिर्फ एक चमक को अपने पेट की तरफ जाते हुए देख सकी और जान भी नहीं पायी कि एक चाकू उसके पेट में घुस चुका है। उसने यह भी नहीं देखा कि जिसने चाकू फेंका है, वह थोड़ी ही दूर बादलों में छुपा खड़ा है। पिछले कई दिनों से वह उसका पीछा कर रहा था। आज उसे मौका मिला। वह देखता था कि वह कहीं भी ज्यादा देर नहीं रुकती थी। आज वह बालकनी में काफी देर से खड़ी है, यह देख वह घर जाकर सबसे पैना चाकू ले आया और जब उसने अपने हाथ स्तन पर रखे, उसे लगा यही अच्छा मौका है, वह अपने पूरे पेट को छोड़े खड़ी है। खून की एक बारीक रेखा प्रकट हो रही थी। चाकू पूरी तरह से धँसा हुआ था। अचानक उसने देखा कि वह उसे ही देख रही है। उसकी आँखों में आमंत्रण है। वह मुस्करा रही थी। उसकी मुस्कराहट में मृत्यु की झिलमिलाहट है। मोन्तेजेल की पहाड़ियाँ पूरी तरह से बादलों से ढँक गई थी। उसकी नज़र स्थिर थी। वह देख रही थी सामने कुछ दूर वह खड़ा है। उसके हाथ अभी भी स्तनों पर रखे थे। स्तन अब पूरी तरह ठण्डे हो चुके थे। उसे पता न था उसके पेट से खून की पतली-सी धार उसकी जाँघों, पिण्डलियों से बहती हुई नीचे की ओर बढ़ रही थी। वह धीरे-धीरे मदहोश हो रही थी। सामने खड़े युवक के दोनों हाथ जुड़े हुए थे मानो अन्तिम नमस्कार कर रहा हो। वह समझ न सकी कि क्यों यह नमस्कार कर रहा है, वह भी अन्तिम-सा।
खून उसके बाँयें पैर से नीचे जमा हो रहा है। उसने तलुओं में खून की गर्मी महसूस की। वह नीचे देखना चाहती थी किन्तु उसकी नज़रें युवक के चेहरे पर जमी हुई थी। वह चाहकर भी हटा नहीं पा रही थी। उसे अपनी मजबूरी पर दु:ख हुआ। उस दु:ख का उसे सुख हुआ। उसने देखा कि वह भी अपनी मजबूरी पर दु:खी है, किन्तु अपने दु:ख पर सुखी नहीं है। वह बेचैन-सा लगा, मानो कुछ कहना चाहता है किन्तु उसका शरीर उसका साथ नहीं दे रहा है। वह अपने जुड़े हाथ लिये खड़ा है जैसे कि हाथ जुड़े ही पैदा हुआ हो। उसे आश्चर्य हो रहा था। उसे लगा कि वह कुछ कहना चाहता है मानो कि उसने किसी को चाकू फेंक, मारा हो। मगर वह कह नहीं पा रहा है। उसे लगा कि वह बतलाना चाहता है कि खून बह रहा है। फिर उसने देखा कि उसकी बाँयीं आँख एक तरफ गिर गयी। वह वापस लाना चाहता किन्तु बाँयी आँख बीच में आते ही फिर एक तरफ गिर जाती है। वह अब अपनी एक ही आँख से उसे देख रहा है, दूसरी आँख तेज़ी से कोटर में बीच में आती और फिर गिर जाती।
उसे इस खेल में मज़ा आ रहा था, वह आँख का मटकना देख रही थी। एक आँख ठहरी हुई और दूसरी इधर से उधर भागती हुई। वह देख रही थी, उसकी नज़र जमी हुई थी।
यह कोई जादुई शीशा जान पड़ता है। प्रतिबिम्ब के कान में रेंगता कनखजूरा वहीं सो गया सा है। प्रतिबिम्ब के स्तनों पर खरोंच के निशान हैं। परछाईं का दर्द फैलते हुए फैल रहा है। निशान लगातार गहरे होते जा रहे हैं। उसने भागना चाहा। उसके पाँव इतने ठण्डे हो चुके थे मानो वे हैं ही नहीं। उसे रज़ा की आवाज़ में उनके शिक्षक की बात याद आई ‘हे मानुस, रख पग पंकज पर ध्यान’।
उसके पग पंकज कहाँ गये? शरीर में अनेकों दर्द बह रहे हैं। उनकी पीड़ाएँ हैं। वह खड़ी है और पग पंकज पर खुद का ध्यान नहीं है।
काली लकीरों से फैलते रिसाव का दर्द है। अनेकों खरोंचे हैं। उनके निशान हैं।
जंग लगी कीलों का दर्द है। उनके घाव हैं। उनका भरा-पूरा गीलापन है। धूसर है। वह है। उसका प्रतिबिम्ब है। अनेक प्रतिबिम्ब हैं।
और यह जादुई शीशा अवधेश के चित्र हैं।
उसे अहसास है इक्कीसवीं शताब्दी की दूसरी जुलाई की शाम है। मॉन्तेजेल भीगा-सा खड़ा है।
जानिन की मृत्यु के तीन माह बाद उनका पहला जन्मदिन है।
वह इन्तज़ार कर रही है। दर्द सहते हुए विस्तार पा रही है। और सोच रही है कि वह अवधेश के चित्रों में धूसर सी लगातार बह रही है। वह धूसर में प्रकट हो रही है। और यह भी सोच रही है।
‘क्या वह धूसर में प्रकट होती है?’
(2)
उसके हाथ स्तनों पर थमे हुए थे। स्तन ठण्ड से जमे हुए थे। ठण्ड स्तनों से ऊपर बढ़ रही थी। कुछ-कुछ अँगुलियों में भी घुस रही थी। खून बह रहा था। अब थोड़ा-सा तेज़। बहुत थोड़ा-सा। नीचे का खून जम चुका था, उसके पैरों के पास खून का एक घेरा-सा बन गया था। ताज़ा खून घेरे को थोड़ा-सा विस्तार देकर जम जाता और पीछे से फिर ताज़ा खून चला आता। उसे लगा कि उसकी धड़कन धीमे हो रही है। उसने सोचा शायद यह खेल देखने से उसकी धड़कन धीमी हो रही है।
एक बार ख्याल किया कि वह एक नज़र भूमध्य सागर को देख ले, किन्तु फिर उसे लगा कि यह आँखों का मटकना दिखना बन्द हो जायेगा और शायद अभी भूमध्य सागर नहीं दिखे, चारों तरफ से बादल बहते हुए आ रहे हैं। घाटी में ठण्डी हवा उन्हें चारों तरफ घुमा रही है। बादल गहरी ठण्डक लिए हैं, अब गर्माहट सिर्फ उसके सिर में है। गर्दन भी ठण्डी हो गयी है, हाथ जम गये हैं, धड़कन इतनी धीमी हो गई कि उसने सुनना बन्द कर दिया है।
उसकी ठोड़ी पर ठण्डक की पहली लहर दस्तक दे रही है।
उसकी आमंत्रण देती मुस्कराहट वहीं थमी है। सामने कुछ-कुछ दिखायी दे रहे युवक की आँखों का मटकना जारी है। बीच-बीच में उसका अन्तिम नमस्कार दिखायी दे जाता है और वह समझ नहीं पायी कि पहली मुलाक़ात में अन्तिम नमस्कार क्यों? क्यों यह युवक फफूँद-सा जमा खड़ा है? फिर उसने देखा कि युवक के चेहरे पर सचमुच फफूँद लगी हुई है, बल्कि पूरे शरीर पर लगी है और बहुत धीमे-धीमे बढ़ रही है और इस धीमी बढ़ती फफूँद को वह जानता है बीच-बीच में अपने होंठों के पास बढ़ आयी फफूँद को वह अपने नीचे और ऊपर के दाँतों से नोंचकर खा जाता है। कुछ देर के लिए उसके होंठ सुर्ख दिखायी देते हैं फिर फफूँद से भर जाते हैं, युवक फिर खा लेता। उसने देखा कि युवक की आँखों के आसपास फफूँद नहीं बढ़ती, वहाँ की फफूँद जमकर कुछ पुरानी सी हो गयी है और उसका रंग भी गहरा है। उसकी बाँयी आँख का मटकना जारी है, सिर्फ उसकी आँखों में फफूँद नहीं लगी है। उसने देखा कि उसके दाँतों का रंग भी फफूँद सा है, शायद लगातार फफूँद खाने से हो गये हैं। फिर भी वह उसे देखती रही। उसे पता न था उसका खून बह रहा है, जम रहा है। वह देख रही है, उसे दिख रहा है। नज़रें जमी हुई हैं। बालकनी में मौसम ठण्डा है, चारों तरफ बादल महसूस हो रहे हैं, भूमध्य सागर की लहरों की आवाज़ सुनायी दे रही है।
मॉन्तेजेल की पहाड़ियों से बादल लुका-छिपी खेल रहे हैं, हवा में मदहोशी है।
धड़कन बन्द हो चुकी है। वह देख रही है, उसे दिख रहा है। सामने खड़े युवक के चेहरे पर फफूँद बढ़ रही है, एक आँख मटक रही है वह जमी-सी खड़ी है।
उसका एक हाथ चाकू की मूठ पर जा बैठा और धीरे से चाकू बाहर निकाल बालकनी से नीचे फेंक वापस स्तन पर आकर जम गया। उसे पता ही न चला यह कब हुआ। चाकू के साथ खून की एक मोटी-सी धार निकली और धीरे-धीरे खून बहना बन्द हो गया। युवक के चेहरे की फफूँद का रंग खून की तरह का दिख रहा है। उसके शरीर का सारा खून बह चुका है।
धड़कन थम गई है।
उसकी नज़रें अभी भी युवक के चेहरे पर जमी हैं। वह मर चुकी है। उसकी मुस्कराहट से आमंत्रण जा चुका है, अब सिर्फ मृत्यु जमी है। मौत की सी मुस्कराहट। उसके मरे मन ने सोचा कि वह खुद युवक के पास चली जाये। उसका सिर भी ठण्डा हो गया है। वह देख रही है एक आँख का मटकना। अब दूसरी आँख दिखायी नहीं देती, शायद फफूँद लग गयी हो।
उसके स्तन पत्थर से कठोर हो गये हैं। हाथ अब दबा नहीं सकते।
वह चलना चाहती है। वह धीमे से मुड़ी और बालकनी का दरवाज़ा खोल कमरे के भीतर आ गयी।
सामने फफूँद लगा युवक खड़ा था। उसने पहली बार देखा कि इस युवक के शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था, वह पूरा फफूँद पहना था। कई जगहों पर ताज़ा फफूँद थी, जहाँ से वह तोड़कर उसे खाता रहा होगा। जिन जगहों से वह तोड़कर नहीं खाता था वहाँ फफूँद बेतरतीब बढ़ गई थी। उसके शरीर का आकार कुछ विचित्र-सा था। वह सोचने लगी इस युवक को छूकर महसूस करना चाहिए, फिर उसने सोचा किसलिए? इसका कोई जबाव उसके ठण्डे जमे हुए दिमाग़ से नहीं मिला। वह हँसना चाहती थी, उसने देखा कि युवक हँस रहा है, उसके हाथ अब जुड़े हुए नहीं थे। वह अपने आपको हवा में फैली फफूँद की गंध की तरह कहीं भी ले जा सकता है। इस बीच वह कमरे में कई बार यहाँ-वहाँ जा चुका था। एक बार उसके बहुत पास से भी निकला। वह उसको देखती रही, उसी बाँयी आँख अब स्थिर थी। वह दोनों आँखों से उसे ही देख रहा था। सामने दीवार पर जंग बह रही थी।
शहर से सात किलोमीटर दूर यह छोटा-सा गाँव है जिसके एक टूटे-से मकान में वह रहने चली आयी। दीवारों पर जंग का बहना वह पहले दिन से देख रही है। यह कभी रुका नहीं। मिट्टी, चूने और पत्थनर से बनी दीवारों में लोहा नहीं था, किन्तु जंग बहती रहती। जंग का खूबसूरत रंग उस वक्त बहना बन्द हो जाता जब वह कमरे में नहीं होती। इस बात को उसने कई दिनों बाद जाना।
युवक के पेट से खून बह रहा था, यह उसने अभी-अभी देखा। उसे जंग और खून का रंग एक-सा लगा। बल्कि पेट से भी जंग बह रही है। युवक उसके सामने खड़ा था, उसने बहती जंग को रोकने के लिए अपना हाथ बढ़ाया और उस पर रख दिया। खून बहना बन्द हो गया। उसके मृत शरीर में सिहरन-सी हुई। वह देख रही थी। वह सिहरन को देख रही है। उसके जमे हुए दिमाग़ की सिहरन भी वह देख रही थी, सामने खड़ा युवक हल्का-सा काँप रहा था। यही कँपकँपी उसमें सिहरन भर रही थी। उसने हाथ हटा लिया। पेट से निकला चाकू अब फर्श पर पड़ा था। चाकू पर खून की ताज़ा बूँदें थीं। युवक ने काँपना बन्द कर दिया, उसकी साँसें उसे सुनायी दे रही थीं।
युवक ने अपने दोनों हाथ उसके मृत कन्धों पर रख दिये। अब उसके शरीर पर फफूँद चढ़ आयी और देखते ही देखते उसके पूरे शरीर पर फैल गयी, ठीक वैसी ही जैसे युवक के शरीर पर थी।
अब वे दोनों एक से दिख रहे थे। अब वे दोनों एक ही दिख रहे हैं। उसे लगा उसकी बाँयी आँख कोटर में नीचे गिर पड़ी है, उसने उठाना चाहा और पाया की बाँयी आँख अब स्वतंत्र है, उसके उठाने पर नहीं बल्कि खुद ही कोटर में यहाँ-वहाँ आ-जा रही है। वह अब दो दृश्य एक साथ देख रही थी। दाँयी आँख से कमरा, कमरे की दीवारों पर बहती जंग और बाँयी आँख से उसे अनेक दृश्य दिखलायी दे रहे थे। अनेक बनते बिगड़ते बिम्ब। कई आकृतियाँ, कई सारे दृश्य। सब अनजाने। अवधेश के चित्र से अनजाने। सारे चेहरे, शरीर, शहर, सब बिन पहचाने। उसे कुछ भी अजनबी-सा नहीं लगा। यह सब उसका अपना देखना है। अब वह दोनों आँख से देख सकती है। उसने सोचा। उसने बादलों के बीच अनेक दृश्य देखे। भूमध्य सागर के बीचोंबीच एक जहाज देखा। उस जहाज की बालकनी में एक युवती झीने वस्त्र पहने खड़ी है, देखा। उसने होंठों के पास बढ़ रही फफूँद अपने दाँतों से नोचा। फर्श पर गिरे चाकू को उठाकर साफ किया। फफूँद का स्वाद अपने पेट के भीतर जाते देखा। उसकी बाँयी आँख अब स्थिर थी। वह कमरे से बाहर भूमध्य सागर पर फैले बादलों में थी। उसके सामने एक युवती अपने को ठण्डा होता महसूस कर रही थी। बालकनी का रंग जंग जैसा था। उसने ताज़ी उग आई फफूँद को तोड़कर खाया, उसकी आँखें स्थिर थीं। हाथ में पैना चाकू था और शरीर पर फफूँद लगातार उग रही थी।
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मेरी टीप
‘अचम्भे का रोना’ का यह अध्याय मुझे बहुत प्रिय है. अखिलेश का रचा यह अध्याय अवधेश यादव की एक पेंटिंग की मार्मिक व्याख्या है मगर मैंने यह व्याख्या जितनी बार पढ़ी उतनी बार यह मुझे यह एक मुकम्मल कहानी लगी. इस व्याख्या ने मुझे अवधेश की पेंटिंग्स देखने की उत्सुकता जगा दी.
मैं जानती हूँ यह उत्सुकता पाठक भी महसूस करेंगे इसलिए मैंने अवधेश यादव से बात की और उन्होंने ये अनूठे चित्र हमें उपलब्ध करवाए हैं.
पहले भी मैंने लिखा है, नि:संदेह अखिलेश उदारमना कलाकार हैं, और अपने समकालीनों और जूनियर्स के काम पर मन से और चित्रकला के प्रति अपनी सच्ची निष्ठा के साथ लिखते हैं. ( ऎसा हिन्दी साहित्य में क्यों दुर्लभ है?)