”मम्मी मौसी भी क्या कैसियो बजाती थी?”
” नहीं, हारमोनियम”
” मौसी के भी मेरे जैसे बाल थे?”
”बहुत लम्बेघुटनों तक” ( मेरे मन में वह दृश्य उभर आया, जब पापा ने उसकी मृत देह को गोद में उठाया था और लम्बी दो चोटियां नीचे लटक आई थीं।) मैं विचलित हो गयी।
” मौसी मेरी जैसी थी ना, अच्छा गाती थी, घने बाल, डार्क कॉम्पलेक्शन! तभी तो आप कहती हो, मेरी शैलजा है तू! तब मैं आपकी बडी बहन थी अब मैं छोटी हूं।”
”नहीं रे तू तो गोरी है। उसका रंग तो श्यामल था चमचमाता श्यामलसितारों की छांव वाली नीली झांई मारती आधे चांद की रात सा।” कहकर अपनी दस वर्षीया बेटी को अंक में भर लेती मैं। वह मेरी नमी से झिलमिलातीं आंखें देखती और चुप हो जाती।
हैरान हूं, इतना लिखाउस पर एक कविता तक न लिखी! हमेशा तो मन में रही वह उदास मुस्कान लिये। चुपचाप! मुझे देखते हुए। कैसे लिखती! कोई भी तो उसका नाम तक नहीं लेता था घर में। मम्मी चुपचाप पूजा करके उसकी बरसी के दिन अपने स्कूल की गरीब लडक़ी को कपडे – क़िताबें दिला देती थीं।
कैसे नाम लेते हम सब? एक ही ठण्डी सी आग में जलते आये हैं अब तक। उस नाम से जुडे सवाल भी तो बहुत थे। संसार ने पूछे वो अलग, मन जो करता था वो अलग!
अपने बच्चों तक को तो अब जाकर बताया है। वह भी बस उतना ही जितना मोहक था, डरावना, भीषण हताशा से भरा सब छिपा लिया।
” मम्मी, मौसी को क्या हुआ था?”
” बीमार हो गई थीं।” बच्चे क्या इतने पर ठहर जाते?
” कैसे? क्या?”
” कुछ सीवियर इनफैक्शन था बाहर कुछ खा पी आई थी।”
प्रश्न नहीं मरते अपने पूरे तीखेपन के साथ लोगों के मनों में उगे रहते हैं। जिन्हें उखाड क़र वे किसी को भी चुभा लेते हैं। शादी की बात चली थी तो सास ने मम्मी का मन कुरेदा था।
”सुना बहनजी, आपकी इस लडक़ी से बडी ”मम्मी ने कैसे संभाला ये वे ही जानें। शादी तय हो गयी थी पर यह प्रश्न जिन्दा रहा।
मुंह दिखाई के वक्त तो यह प्रश्न चुभोया गया ही। बाद में भी यदा – कदा बहू की पढाई – सुन्दरता – सुघराई के तौल के दूसरे पलडे पर रखे जाने में यह इस्तेमाल हुआ।
”क्यों क्या हुआ था तुम्हारी बहन को?”
” बताया तो था आपको स्टोव फट गया था।”
” एंऽ ऐसे कैसे?”
” ज्यादा पंप लगा दिया था।”
” गैस नहीं थी!”
” नहीं। तब राजस्थान के छोटे कस्बों तक गैस ऐजेन्सी नहीं पहुंची थी।”
” अच्छाऽऽऽ। हमने तो कुछ और ही सुनी थी।”
मैं आहत होकर वहां से हट जाती। या पतिदेव ही अपनी मां को आंख दिखा देते या टोकते। अन्दर आकर पूछते ” मम्मी की बातों का बुरा मत मानना। देखो ना, तुम लोग अपनी जाति – समाज से दूर वहां राजस्थान में रहे फिर भी यह बदनामी सबमें फैल गयी। मुझसे भी लोग पूछते हैं। वैसे हुआ क्या था?”
” बताया न।”
”नहीं वजह क्या रही होगी।”
” किसकी?”
” आत्महत्या की।”
” मैंने कहा वह आत्महत्या नहीं थी।” झल्ला गई थी मैं।
”अच्छा मैं तुम्हें नीचा नहीं दिखा रहा बस हम बात कर रहे हैं। आत्महत्या भी तो हो सकती है। उमर ही कुछ ऐसी थी। कुछ हो गया हो उस उमर की बच्ची को क्या समझ कि अब क्या किया जाये। आज की लडक़ियां तो फिर भी स्मार्ट हैं। प्रिकॉशन ”
”तुम्हारी बहन होती तो तुम इसी तरह की बातें करते? बोलो?” मैं ने कंधे पर रखा हाथ झटक दिया। साथ ही झूठी सहानुभूति भी झटक दी।
फिर सालों बाद आज भी वही …
” क्या कर रही हो?”
”खीर बना रही थी।”
” किसलिये?”
” बस यूं ही”
” ये स्कूल युनिफॉर्म और किताबें”
”आज 12 नवम्बर है”
”ओह”
” ”
”पर मन्नो , तुम छोटी हो, वह बडी बहन थी तुम्हारी। तुम नहीं, तुम्हारे माता – पिता, भाई का करना हुआ यह सब तो।”
” सच कहूं तो जिस उम्र में वह चली गयी। तब वह 17 साल की थी। मैं आज 36 की हूं, मुझे तो वह अब छोटी ही लगती है। उसकी छवि वैसी ही है मन में स्कर्ट ब्लाउज, छोटा टॉप और बेलबॉटम पहनने वाली कमउम्र, उदास आंखों वाली शैलजा। जिसे नीतू सिंह – ?षि कपूर की फिल्में बहुत पसन्द थीं। ” मेरी आंखें तरल हो जातीं।
”चलो जिस बात में तुम्हारा सुख”
” वैसे ऐसा क्यों कर बैठी वह, आज तो कितने उपाय हैं, गर्भपात कराने के। अब तो गोलियां तक आ गई हैं।”
”तुमसे किसने कहा कि ?”
”लोगों ने।”
”मुझसे ज्यादा लोगों पर विश्वास है? ”
मुझे मम्मी की बात याद आ रही है।
मन्नो, रास्ते भर एम्बुलेन्स में कहती रही ” पापा बचा लो, मैं मरना नहीं चाहती। मैं अगले साल आर्ट्स लेकर पढूंग़ी और पास हो जाऊंगी।”
अब मैं इन बातों पर झल्लाती नहीं। बस भरे हुए घाव फिर हरे हो जाते हैं।
पूरा दिन बस जाने किस अन्यमनस्कता में सीला – सीला सा गुजर जाता है जब वह याद आती है। सच पूछो तो अपने घाव अपने ही होते हैं, उन्हें खुद ही चाट चाट कर साफ करना होता है। रात को पार्टी है। यह पार्टी शब्द अब अटपटा सा लगने लगा है, यहां फौज में रह कर। कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल होता है यहां, माना होती भी बहुत हैं पर जितना होती हैं उससे ज्यादा घिसा जाता रहा है यह शब्द अन्दर और बाहर वालों दोनों के द्वारा। ” आपके यहां तो बहुत पार्टीज होती होंगी!”
बच्चों को इस शब्द में छिपी व्यर्थ की रंग उडी चमक और दिखावे और अर्थहीनता से बचाना बहुत मुश्किल है। उस पर समय की बेजा बर्बादी।
मन भीषण रूप से उदास है। ऐसी उदासी जिसे बहुत अपना भी नहीं समझ सकता। वह बहुत अपना इसे पी एम एस ( प्री मैन्स्ट्रुअल सिन्ड्रोम) या अकेलेपन की हताशा से ज्यादा कुछ नहीं समझ सकता। पर जाना ही है, ऑफिशियल! फौज में कुछ शब्दों को इस्तेमाल कर करके यूं चपटा कर दिया जाता है कि उन पर हंसी आने लगती है।
वही मैस, वही बरसों पुरानी सजावट, वही लोग, वही लिबास, वही मेकअप, वही बातें, वही मजाक। द्विअर्थी जुमले, नये हैं तो एस एम एस जोक और मोबाइल फोन। बाकि आदिम प्रतिक्रियाएं तो वही हैं _ फ्लर्टिंग आजकल फैशन में है। अंग्रेजी क़ी महिलाउपयोगी पत्रिकाएं फैमिना और कॉस्मोपॉलिटन्स बाकायदा इसके गुर सिखाती हैं। विवाहितों – अविवाहितों दोनों के लिये स्ट्रेस रीलीवर का काम करती है फ्लर्टिंग। शादी के पेपरवेट के नीचे दबा कर रखी आदिमभावनाओं को जरा हवा देती है यह फ्लर्टिंग। सीधे सीधे तो आप अन्य स्त्री या पुरुष के साथ कुछ कर नहीं सकते यह हल्का फुल्का खेल ही सही, यह खेल एकतरफा नहीं होता शारीरिक भाषा के माहिरों का खेल है यह। हल्दी लगे न फिटकरी रंग तो है ही सुर्ख आकर्षण का।
मेरी अन्यमनस्कता का ग्राफ नीचे ही नहीं आ रहा। पति को देख रही हूं बाकायदा उछल उछल कर बेसुरे स्वर में गाते। ” सोए गोरी का यारऽ बलम तरसे” फ्लर्टिंग जारी है, मेरी ही सहेली आंखों के मंच पर लघुनाटिका चल रही हैं अजीब सी स्क्रिप्ट है फ्लर्टिंग की समझ सको तो समझ लो समझना चाहो तो! नहीं तो उपेक्षा कर दो। अंताक्षरी का बेसुरा खेल खत्म हो चुका है। कहीं एनाउन्स हुआ है मेरा नाम।
मेरे दिमाग पर शैलजा ही छाई है। वह लाल रैगजीन के कवर वाली डायरी याद आ गई है। शेरो – शायरी और फिल्मी गीतों से भरी। सरगम के नोट्स भी उसमें लिखे रहते थे। एक किशोरी का छोटा सा संसार। एक सांवली लडक़ी की दबी – कुचली भावनाएं।
मुझे कुछ गाना है। क्या? मैं मंच पर अपनी झीनी उदासी लिये हतप्रभ खडी हूं। क्या गाऊं? पति को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखती हूं। वह ग्लास लेकर बार के पास खडे हैं। सब उन्हें मुडक़र देखते हैं। एक खीज भरी है उनकी आंखों में। अभी कुछ वक्त पहले की मस्ती, हुल्लड मेरे नाम पर घनेरी ऊब और खीज से भरा है।
वही डायरी कहीं जहन में खुली है लाल डायरी जिसके पहले पेज पर साहिर का कोई बारहा सुना जा चुका शेर लिखा था मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे। अगले पर अमृता प्र्रीतम की कोई नज्म। फिर कुछ फुटकर शेर। फिर फिल्मी गीतरेडियो पर सुन कर उतारे हुए।
वह गाना बीच के किसी पेज पर था वही पेज जिसके सामने वाले पेज पर आंधी फिल्म का गाना लिखा था ‘ तेरे बिना जिंदगी से कोई
हां मुझे पेज दर पेज याद है। वह डायरी करीब दस साल हां और ज्यादा तब तक मेरे साथ रही थी जब तक मैं ने खुदने आत्मघाती प्रयास कर स्वयं को अस्पताल तक पहुंचा दिया था पुलिसवालों की जिल्लतों से एक बार पापा फिर रूबरू हुए थे। तब चचेरे बडे भाई ने समझाया था ” कुछ तो सोचो तुम चारों भाई बहनों से क्या मिला तुम्हारे पेरेन्ट्स को? ” और वह डायरी किसी ने मेरी आलमारी में से चुपचाप निकाल कर जला दी थी।
मैं ने गुनगुनाना शुरु किया हैउसी पेज पर मोतियों जैसे शब्दों में लिखा गाना। वह बहुत सुन्दर गाती थी यह ‘ चम्बल की कसम’ फिल्म का गाना पता नहीं मैं ठीक से गा सकूंगी कि नहीं। मैं ने कभी यह गाना उसके अलावा कहीं किसी से या रेडियो तक पर नहीं सुना है शब्द साथ देंगे स्मृति का कि बीच में ही बुझ जायेंगे?
सिमटी हुई ये घडियां फिर से न बिखर जायें
इस रात में जी लें हम इस रात में मर जायें
हालात के तीरों से छलनी हैं बदन अपने
पास आओ के सीनों के कुछ जख्म तो भर जायें
तुम शाने पे सर रख दो हम बांह में भर जायें
सिमटी हुईये घडियां
जब ढलक आए गाल तक आंसू तो गाना बन्द करना पडा। मैं ने कुछ थम कर अनाउन्स कर ही दिया कि – यह गाना मेरी बहन गाया करती थी। जो कि सत्रह साल की उम्र में ही दुनिया से चली गई। अपने गीत और लम्बे बालों की स्मृति छोडक़र। आज उसका जन्मदिन है। बारह नवम्बर।
घर आकर पति खीजे हुए थेअपने दबे हुए अतीत के छोटे से टुकडे क़ो जरा सा उजागर कर देने पर।
– जरूरत क्या थी? आय थिंक यू नीड सम सायकियाट्रिक क्लीनीकल हैल्प!